डॉ. नूपुर अशोक

पुस्तक चर्चा ☆  “चालीस पार की औरत” (काव्य संग्रह) – कलावंती सिंह ☆ समीक्षक – डॉ. नूपुर अशोक ☆  

पुस्तक चर्चा 

कविता संग्रह – चालीस पार की औरत

लेखक – कलावंती सिंह

प्रकाशक – बोधि प्रकाशन , जयपुर 

मूल्य – 120 रुपए

समीक्षक – डॉ. नूपुर अशोक

? यह उस पीढ़ी की स्त्री का संग्रह है जो शिक्षित है, जागरूक है ✍️ डॉ. नूपुर अशोक ?

“एक लड़की मेरे सपनों में, अँधेरों से उजालों की तरफ आती-जाती है”- ये कलावंती की लिखी हुई पंक्तियाँ हैं और वह मुझे हमेशा उजालों की तरफ आती हुई लड़की की तरह ही याद आती रही है।

उसके साथ ही मुझे याद आता है वह समय जब हमें ऐसा लगता था कि हम पूरी दुनिया का प्रतिकार कर सकते हैं, अपनी बात दुनिया से कह सकते हैं और उन्हें दे सकते हैं अपना परिचय।

‘परिचय’ नाम था हमारी उस संस्था का जिसमें शामिल थे रांची में रहने वाले हम लगभग समवयसी रचनाकार। एक-दूसरे की रचनाएँ पढ़ते-सुनते और साहित्यिक चर्चाएँ करते थे। वहीं मेरा परिचय कलावंती से हुआ था। ‘परिचय’ के गमले में उगने वाले हम सब पौधे समय के साथ अपनी ज़मीन तलाशते धीरे-धीरे अपनी दुनिया बनाते चले गए और सबने अपनी-अपनी पहचान बनाई । 

कई वसंत और कई पतझड़ों से गुज़रने के बाद पेड़ भी शायद अपने उन दिनों को याद करते होंगे जब वे किसी गमले में, किसी क्यारी में, किसी ग्रो-बैग में दूसरे पौधों के साथ अंकुरित हो रहे थे। तब वे भी शायद अपनी डाल पर आकर बैठने वाले हर पंछी से पूछते होंगे कि उन पौधों को कहीं देखा है? कहाँ हैं वे हमारे साथी? इसी तरह की अकुलाहट ने एक दूसरे की खोज करते हुए हमें फिर से जोड़ दिया। पुनर्मिलन की यह पुलक दुगुनी हो गई जब कलावंती का नया कविता संग्रह देखा।

यह कविता संग्रह कई मायनों में खास है। इसका शीर्षक ही यह स्पष्ट कर देता है कि यह उस पीढ़ी की स्त्री का संग्रह है जो शिक्षित है, जागरूक है। नौकरी का दायित्व, गृहस्थी की रोज़मर्रा ज़िंदगी और पारिवारिक-सामाजिक जीवन के बाद अपनी अस्मिता की खोज करती उसकी अभिव्यक्ति की छटपटाहट कहीं से कुछ बचे-खुचे पल चुरा कर ही लेखन कर पाती है।

लगभग सभी लब्धप्रतिष्ठ पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बाद भी इन कविताओं को संग्रह का रूप लेने में कई वर्ष बीत जाते हैं। पर कविताओं का कालजयी सत्य आज भी उतना ही जीवंत है –

“लड़की घर से निकलती है

घर की तलाश में….

….. बाबूजी की चिताओं सी ताड़ हुई

अम्मा की खीझ में पहाड़ हुई ….”

कई सालों से स्त्री विमर्श और स्त्री चेतना पर चर्चाएँ होने के बावजूद ये पंक्तियाँ आज भी उतनी ही सार्थक हैं –

“तुम उर्वशी हो, अहिल्या हो

कैकेयी हो, कौशल्या हो,

किन्तु तुम सब की नियति

किसी न किसी राम या गौतम से जुड़ी है”

स्त्री के संघर्ष के अलावा इनमें उसकी उपलब्धियों के स्वर भी हैं –

“काश पिता देख पाते कि

मैंने ठीक उनके सपनों से

कुछ नीचे ही सही

पर बना तो ली है

अपनी एक दुनिया”

चालीस पार कर चुकी यह स्त्री अब किसी भय से आक्रांत नहीं है –

“कभी-कभी बड़ी खतरनाक होती है

ये चालीस पार की औरत

वह तुम्हें ठीक-ठीक पहचानती है”

मोनालिसा पर सात अलग-अलग कविताओं में कलावंती ने उससे एक संवाद किया है –

“क्या यह दुख किसी सुंदर सृजन से

पहले का दुख है

जो सुख से भी ज़्यादा सुंदर होता है”

इसी तरह बेटियों पर चार कविताएं है –

“इस नास्तिक समय में

रामधुन सी बेटियाँ

इस कलयुग में

सत्संग सी बेटियाँ”

तुलसी, कृष्ण, मोनालिसा, होरी, गौरैया सभी से कलावंती प्रश्न करती है। और अपनी ही कुछ पंक्तियों में कहती है –

“जानती हूँ पूछ रही हूँ जो तुमसे

वह अनुत्तरित है युगों से ही

फिर भी पूछना मेरे विवशता है

और

उत्तरहीनता तुम्हारी”

चालीस पार की इस स्त्री का प्रेम भी परिपक्वता लिए हुए है –

“वह प्रेम जो मेरे लिए रहा

पूजा, प्रार्थना और अजान की तरह

उसे स्वीकारूंगी अब

अपनी पहचान की तरह”

अपने जीवन के कई दशकों की तपस्या को कवयित्री ने इस संग्रह के माध्यम से सामने रखा है।  इस संग्रह का आवरण अनुप्रिया ने बनाया है जो इसकी कविताओं के मुख्य स्वर को प्रतिध्वनित करता है। इसकी भूमिका लिखी है सुविख्यात कवयित्री अनामिका ने जो अब साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी हैं। उन्हीं के शब्दों में –“कलावंती की स्त्री केन्द्रित कविताएं एक सबल प्रतिपक्ष रचती हैं।“

समीक्षक – डॉ. नूपुर अशोक

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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