हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 21 – दीपावली उपहार ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “दीपावली उपहार”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  स्वस्थ मित्र संबंधों का सन्देश दिया है।) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 21 ☆

 

☆ दीपावली उपहार ☆

 

विजय और शंकर दोनों बचपन के परम मित्र। कक्षा 1 में जब से एडमिशन लिया था तभी से दोनों की दोस्ती शुरू हो गई। साथ-साथ पढ़ना-लिखना खेलना-कूदना यहां तक कि टिफिन में क्या है दोनों मिलकर खाते थे। बच्चों की दोस्ती की घर में बात होती थी। स्कूल में पैरंट्स मीटिंग के दौरान माता-पिता से बातचीत होते-होते घर परिवार सभी एक दूसरे को अच्छी तरह जानने लगे थे। कभी अनबन भी हो जाती दोनों में परंतु, एक दिन से ज्यादा नहीं चल पाता था। क्योंकि विजय और शंकर दोनों का एक दूसरे के बिना साथ अधूरा लगता था।

धीरे-धीरे बच्चों की पढ़ाई बढ़ती गई और उनकी समझदारी भी बढ़ने लगी। साथ ही साथ मित्रता भी बहुत ही प्रगाढ़ हो गई। उनके साथ उनके और भी दोस्त जुड़ गए थे। जिनका आना जाना सभी के घर बराबर से होता रहता था। कभी किसी के यहां बैठ दिन भर मस्ती और पढ़ाई तो कभी किसी दूसरे दोस्त के घर मस्ती। परंतु विजय और शंकर एक दूसरे के घर जाना ज्यादा पसंद करते थे।

हाई स्कूल पढ़ाई सब्जेक्ट चॉइस के बाद दोनों की दिशा पढ़ाई एवं लक्ष्य अलग-अलग हो चुका था परंतु दोस्ती बेमिसाल रही। विजय ने अपने लिए विज्ञान विषय लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया वही शंकर ने अपने लिए इंजीनियरिंग का कोर्स पसंद किया। दूर-दूर रहने के बाद भी फोन पर हर बात और यहां तक कि दिवाली पर क्या शर्ट लेना है तक की बातें होती थी। दोनों बच्चों की सादगी और दोस्ती पर घर परिवार भी गर्व करता था।

ऐसे ही एक साल दिवाली का समय था। धनतेरस के दिन शंकर के पिता जी ने उसके लिए एक अच्छी सी गाड़ी ले कर दिया। शोरूम से गाड़ी घर आ गई। पिताजी ने कहा तुम अपनी नई गाड़ी चलाकर मंदिर ले जाओ और मिठाई प्रसाद चढ़ा देना भगवान को। यह कहकर पिताजी अपनी ड्यूटी पर निकल गए।

दिवाली का दिन शुभ होता है। शाम को गाड़ी ज्यों की त्यों खड़ी मिली। पूछने पर पता चला कि कल लेकर जाऊंगा। पिताजी ने भी हामी भरकर डांटते हुए कहा कोई काम समय पर नहीं करते हो। आज अच्छा दिन था। परंतु शंकर तो कुछ और ही सोच कर बैठा था। रात को माँ पिता जी से कहा कि सुबह जल्दी उठा देना मेरा दोस्त आ रहा है विजय। उसको लेने स्टेशन जाना है। सुबह जल्दी उठ अपनी नई गाड़ी निकाल शंकर स्टेशन अपने दोस्त को लेने पहुंच गया। पिताजी उठे नहा धोकर तैयार हो सोचा कि आज दिवाली है। मैं ही गाड़ी से मंदिर होकर आ जाता हूं। नई गाड़ी है शुभ काम होना चाहिए। परंतु देखा की गाड़ी की चाबी नहीं है। घर में पूछने पर पता चला कि शंकर लेकर गया है।

शंकर की नई गाड़ी देख विजय बहुत खुश हुआ। ट्रेन से उतरने पर और गाड़ी चलाकर सामान के साथ दोनों दोस्त घूम कर आ गए। विजय को उसके घर छोड़ते हुए शंकर अपने घर आया। माँ पिताजी ने कहा नई  गाड़ी लेकर स्टेशन क्यों चला गया था। शंकर बहुत खुश होकर बोला आप ही कहते हैं कोई भी चीज के शुभ दिन और शुभ समय होना चाहिए। मेरी गाड़ी में मेरा दोस्त पहले बैठ चला कर आया है। मेरे लिए तो ये बहुत ही शुभ है। मेरा दोस्त पहले मेरी गाड़ी में बैठा है मेरे लिए ये मंदिर जाने से भी बढ़कर है।

माँ पिताजी भी उसकी खुशी देख बहुत खुश हुए और दोनों की दोस्ती की सलामती के लिए ईश्वर से बार-बार प्राथना करने लगे। विजय और शंकर के लिए *शुभ दीपावली* हो गया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 6 – ☆ अनाम वीरा  – कुसुमाग्रज ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  अनाम वीरा – कुसुमाग्रज ” .   ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित सुप्रसिद्ध मराठी  साहित्यकार  स्व विष्णु वामन शिरवाडकर अपने  उपनाम कुसुमाग्रज के नाम से जाने जाते हैं। इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 6 ☆

☆ अनाम वीरा  – कुसुमाग्रज  ☆ 

श्वेता, तुमच्या ह्या अनोख्या काव्यदिंडीत मला चार पावलं चालायची संधी दिल्याबद्दल तुला मनापासून धन्यवाद ! ठेक्यात कविता म्हणता म्हणता तिच्या रस, रंग, गंधाची मोहिनी मनाला कधी पडली हे कळलंच नाही. आणि सुरू झाली एक रसयात्रा ! गदिमा, बाकिबाब, विंदा या शब्दप्रभूंच्या प्रासादिक शब्दवैभवाने कधी मनावर गारूड केले तर कधी शांताबाई, बालकवि, ना. धों.च्या वासंतिक शब्दलावण्याची मनाला भुरळ पडली. दिंडीतली पावलं कोणाचं बोट धरून टाकावीत हा माझ्यासाठी मोठा यक्षप्रश्न ! माझे आराध्यदैवत कुसुमाग्रज यांच्या कवितेचं बोट धरून पहिलं पाऊल टाकायला मला खुप आवडेल !

अत्यंत तरल आणि संवेदनक्षम अभिव्यक्ती लाभलेल्या ह्या कविश्रेष्ठाने केलेलं हे एक कृतज्ञ स्मरण. तहान भूक विसरून, मायापाश तोडून, सीमेवर लढणा-या, आणि युद्धात कामी येणा-या जवानाच्या कर्तव्य बुद्धीचं, बलिदानाचं, प्रखर वास्तवाचं ह्या कवितेतील वर्णन वाचतांना, अंगावर रोमांच उभे राहतात, डोळ्यांच्या कडा पाणावतात, शब्द मूके होतात, आणि फक्त आणि फक्त हात उचलला जातो, त्या अनामवीराला सॅल्यूट ठोकण्यासाठी !

 

☆ अनाम वीरा ☆

अनाम वीरा, जिथे जाहला तुझा जीवनान्‍त

स्तंभ तिथे ना कुणी बांधला, पेटली ना वात!

 

धगधगत्या समराच्या ज्वाला या देशाकाशी

जळावयास्तव संसारातून उठोनिया जाशी!

 

मूकपणाने तमी लोपती संध्येच्या रेषा

मरणामध्ये विलीन होसी, ना भय ना आशा!

 

जनभक्‍तीचे तुझ्यावरी नच उधाणले भाव

रियासतीवर नसे नोंदले कुणी तुझे नाव!

 

जरी न गातिल भाट डफावर तुझे यशोगान!

सफल जाहले तुझेच हे रे, तुझेच बलिदान!

 

काळोखातुनि विजयाचा ये पहाटचा तारा

प्रणाम माझा पहिला तुजला मृत्युंजय वीरा!

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #21 – माझा परिचय ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

((वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  सामयिक कविता  “करू दिवाळी साजरी”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 22 ☆

 

☆ करू दिवाळी साजरी ☆

उठू पहाटेच्यापारी

करू दिवाळी साजरी

स्नान उरकले आता

जाऊ दर्शना राऊळी

 

आनंदाची ही दिवाळी

गाली आणते हो खळी

साऱ्या संसारा सोबत

नटे फुलांची डहाळी

 

आज अभ्यंगस्नानाला

न्हाऊ घालते ती मला

ओवाळणीत मागते

नवी साडी आणि चोळी

 

माहेराहून येईन

माझी लाडकी बहीण

आणि भरून नेईल

प्रेम नात्यांची ही झोळी

 

रंगीबेरंगी फटाका

मारी आकाशी धडका

आनंदाने ही लेकर

बघा वाजवती टाळी

 

दारामधे ही रांगोळी

हाती फराळाची थाळी

पाडव्याच्या मुहुर्ताला

नवी सोन्याची साखळी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

ashokbhambure123@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 18– मार्मिक संस्मरण – जीवन जीने की कला ……. ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  मार्मिक संस्मरण   “जीवन जीने की कला …….” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 18☆

 

☆ मार्मिक संस्मरण –  जीवन जीने की कला ……. 

 

जीवन है चलने का नाम …..। जो लोग परेशानी भरी जिंदगी जीते है उनकी संवेदनाये मरती नहीं है, उनकी संवेदनाएं विपरीत परिस्थतियों से लड़ने की प्रेरणा देती है और वे अन्य के लिए भी प्रेरक बन जाते है, उनकी सहज सरल बातें भी ख़ुशी का पैगाम बनकर उस माहौल में संवेदना, सेवा और सामाजिकता पैदा कर देती है, नारायणगंज शाखा में शाखा प्रबंधक रहते हुए एक घटना रह रह कर याद आ जाती है, शाखा में दूर – अंचल से खाता खोलने आये ”रंगैया ” ने भी कुछ ऐसी छाप छोड़ी ……..

”रंगैया” जब खाता खोलने आया तो बेंकवाले ने पूछा – ”रंगैया” खाता क्यों खुलवा रहे हो? ‘ ‘

रंगैया ने बताया – “साब दस कोस दूर बियाबान जंगल के बीच हमरो गाँव है घास -फूस की टपरिया और घर  मे दो-दो बेटियां …घर की परछी में एक रात परिवार के साथ सो रहे थे तो कालो नाग आयके घरवाली को डस लियो, रात भर तड़फ-तडफ कर बेचारी रुकमनी मर गई …… मरते दम तक भूखी प्यासी दोनों बेटियों की चिंता करती रही …….. सांप के काटने से घरवाली मरी तो सरकार ने ये पचास हजार रूपये का चेक दिया है, तह्सीलवाला बाबू बोलो कि बैंक में खाता खोलकर चेक जमा कर देना रूपये मिल जायेंगे ….. सो खाता की जरूरत आन पडी साब!” …. बैंक वाले ने पूछा – “सांप ने काटा तो शहर ले जाकर इलाज क्यों नहीं कराया?”

‘रंगैया बोला – “कहाँ साब !  गरीबी में आटा गीला …. शहर के डॉक्टर तो गरीब की गरीबी से भी सौदा कर लेते है, वो तो भला हो सांप का … कि उसने हमारी गरीबी की परवाह की और रुकमनी पर दया करके चुपके से काट दियो, तभी तो जे पचास हजार मिले है खाता न खुलेगा …… तो जे भी गए ………… अब जे पचास हजार मिले है तो कम से कम हमारी गरीबी तो दूर हो जायेगी, दोनों बेटियों की शादी हो जाएगी और घर को छप्पर भी सुधर जाहे, जे पचास हजार में से तहसील के बाबू को भी पांच हजार देने है बेचारे ने इसी शर्त पर जे चेक दियो है। तभी किसी ने कहा – “यदि नहीं दोगे तो ?………..” रंगैया तुरंत बोला – “नहीं साब …… हम गरीब लोग है प्राण जाय पर वचन न जाही …साब, यदि नहीं दूंगा तो मुझे पाप लगेगा, उस से वायदा किया हूँ झूठा साबित हो जाऊँगा ….अपने आप की नजर में गिर जाऊँगा …..गरीब तो हूँ और गरीब हो जाऊँगा …….और फिर दूसरी बात जे भी है कि जब किसी गरीब को सांप कटेगा, तो ये तहसील बाबू उसके घर वाले को फिर चेक नहीं देगा ……….”

रंगैया की बातों ने पूरे बैंक हाल में सिटिजनशिप का माहौल बना दिया ………… सब तरफ से आवाजें हुई …. “पहले रंगैया का काम करो, भीड़ को चीरता हुआ मैंने जाकर रंगैया के हाथों सौ रूपये वाले नए पांच के पेकेट रख दिए ……. उसी पल रंगैया के चेहरे पर ख़ुशी के जो भाव प्रगट हुए वो जुबान से बताये नहीं जा सकते …… बस इतना ही बता सकते है कि पूरे हाल में खुशियों की फुलझड़ियां जरूर जल उठीं …… हाल में खड़े लोग कह उठे …. कि खुशियाँ हमारे आस-पास ही छुपीं होती हैं यदि हम उनकी परवाह करें तो वे कहीं भी मिल सकती हैं ……….

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #21 – महिलायें समाज की धुरी ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “महिलायें समाज की धुरी”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 21 ☆

 

☆ महिलायें समाज की धुरी 

 

एक अदृश्य शक्ति, जिसे आध्यात्मिक दृष्टि से हम परमात्मा कहते हैं, इस सृष्टि का निर्माण कर्ता, नियंत्रक व संचालक है. स्थूल वैज्ञानिक दृष्टि से इसी अद्भुत शक्ति को प्रकृति के रूप में स्वीकार किया जाता है. स्वयं इसी ईश्वरीय शक्ति या प्रकृति ने अपने अतिरिक्त यदि किसी को नैसर्गिक रूप से जीवन देने तथा पालन पोषण करने की शक्ति दी है तो वह महिला ही है. अतः समाज के विकास में महिलाओ की महति भूमिका निर्विवाद एवं अति महत्वपूर्ण है. समाज, राष्ट्र की इकाई होता है और समाज की इकाई परिवार, तथा हर परिवार की आधारभूत अनिवार्य इकाई एक महिला ही होती है. परिवार में पत्नी के रूप में, महिला पुरुष की प्रेरणा होती है. वह माँ के रूप में बच्चों की जीवन दायिनी,ममता की प्रतिमूर्ति बनकर उनकी परिपोषिका तथा पहली शिक्षिका की भूमिका का निर्वाह करती है. इस तरह परिवार के सदस्यों के चरित्र निर्माण व बच्चों को सुसंस्कार देने में घर की महिलाओ का प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष योगदान स्वप्रमाणित है.

विधाता के साकार प्रतिनिधि के रूप में महिला सृष्टि की संचालिका है, सामाजिक दायित्वों की निर्वाहिका है, समाज का गौरव है। महिलाओं ने अपने इस गौरव को त्याग से सजाया और तप से निखारा है, समर्पण से उभारा और श्रद्धा से संवारा है. विश्व इतिहास साक्षी है कि महिलाओं ने सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विभिन्न क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास किया है, एवं निरंतर योगदान कर रहीं हैं. बहुमुखी गुणों से अलंकृत नारी पर ही समाज का महाप्रासाद अविचल खड़ा है. नारी चरित्र, शील, दया और करूणा का समग्र सवरूप है.

कन्या भ्रूण हत्या, स्तनपान को बढ़ावा देना, दहेज की समस्या, अश्लील विज्ञापनों में नारी अंग प्रदर्शन, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा, घर परिवार समाज में महिलाओ को पुरुषों की बराबरी का दर्जा दिया जाने का संघर्ष, सरकार में स्त्रियों की अनिवार्य भागीदारी सुनिश्चित करना आदि वर्तमान समय की नारी विमर्श से सीधी जुड़ी वे ज्वलंत सामाजिक समस्यायें हैं, जो यक्ष प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ी हैं. इनके सकारात्मक उत्तर में आज की पीढ़ी की महिलाओ की विशिष्ट भूमिका ही उस नव समाज का निर्माण कर सकती है, जहां पुरुष व नारी दो बराबरी के घटक तथा परस्पर पूरक की भूमिका में हों.

पौराणिक संदर्भो को देखें तो दुर्गा, शक्ति का रूप हैं. उनमें संहार की क्षमता है तो सृजन की असीमित संभावना भी निहित है. जब देवता, महिषासुर से संग्राम में हार गये और उनका ऐश्वर्य, श्री और स्वर्ग सब छिन गया तब वे दीन-हीन दशा में भगवान के पास पहुँचे। भगवान के सुझाव पर सबने अपनी सभी शक्तियॉं (शस्त्र) एक स्थान पर रखे. शक्ति के सामूहिक एकीकरण से दुर्गा उत्पन्न हुई. पुराणों में दुर्गा के वर्णन के अनुसार, उनके अनेक सिर हैं, अनेक हाथ हैं. प्रत्येक हाथ में वे अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुये हैं. सिंह, जो साहस का प्रतीक है, उनका वाहन है. ऐसी शक्ति की देवी ने महिषासुर का वध किया. वे महिषासुर मर्दनी कहलायीं. यह कथा संगठन की एकता का महत्व प्रतिपादित करती है. शक्ति, संगठन की एकता में ही है. संगठन के सदस्यों के सहस्त्रों सिर और असंख्य हाथ हैं. साथ चलेंगे तो हमेशा जीत का सेहरा बंधेगा. देवताओं को जीत तभी मिली जब उन्होने अपनी शक्ति एकजुट की. दुर्गा, शक्तिमयी हैं, लेकिन क्या आज की महिला शक्तिमयी है ? क्या उसका सशक्तिकरण हो चुका है? शायद समाज के सर्वांगिणी विकास में सशक्त महिला और भी बेहतर भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं. वर्तमान सरकारें इस दिशा में कानूनी प्रावधान बनाने हेतु प्रयत्नशील हैं, यह शुभ लक्षण है. प्रतिवर्ष ८ मार्च को समूचा विश्व महिला दिवस मनाता है, यह समाज के विकास में महिलाओं की भूमिका के प्रति समाज की कृतज्ञता का ज्ञापन ही है.

कवि ने कहा है….

ममता है माँ की, साधना, श्रद्धा का रूप है

लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है

नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी

परमात्मा औ” प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी

नारी है धरा, चाँदनी, अभिसार, प्यार भी

पर वस्तु नही, एक पूर्ण व्यक्ति है नारी

आवश्यकता यही है कि नारी को समाज के अनिवार्य घटक के रूप में बराबरी और सम्मान के साथ स्वीकार किया जावे. समाज के विकास में महिलाओ का योगदान स्वतः ही निर्धारित होता आया है,रणभुमि पर विश्व की पहली महिला योद्धा रानी दुर्गावती हो, रानी लक्ष्मी बाई का पहले स्वतंत्रता संग्राम में योगदान हो, इंदिरा गांधी का राजनैतिक नेतृत्व हो या विकास का अन्य कोई भी क्षेत्र अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने हैं. आगे भी समाज के विकास की इस भूमिका का निर्वाह महिलायें स्वयं ही करती रहेंगी……

“कल्पना” हो या “सुनीता” गगन में, “सोनिया” या “सुष्मिता”

रच रही वे पाठ, खुद जो, पढ़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां

बस समाज को नारी सशक्तिकरण की दिशा में प्रयत्नशील रहने, और महिलाओ के सतत योगदान को कृतज्ञता व सम्मान के साथ अंगीकार करने की जरूरत है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #- 20 – भाकरी ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  मानवीय रिश्तों  के साथ  रोटी  के मूल्य पर आधारित  एक भावप्रवण कविता  – “भाकरी। )

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 20☆ 

 

 ☆ भाकरी ☆

 

दिसरात राबतिया

माझी  माय ही बावरी।

तरी तिला मिळेना हो

चार घास ती भाकरी।।

 

बाप ठेऊनिया गेला

उभा कर्जाचा डोंगर।

उभी हयात राबून

गळा फासाचा हो दोर।

 

मार्ग सारेच खुंटले

भर दिसा अंधारले।

दोन्ही पिलांना पाहून

बळ  अंगी संचारले।

 

शेण पाणी झाडलोट

धुणी भांडी ही घासते।

अधाशीही मालकीण

पाने तोंडाला पुसते।

 

हाता तोंडाचं भांडण

काही सरता सरेना।

किती राबते तरीही

पोट सार्‍यांची भरेना।

 

कशी शिकवावी लेक

कसे करावे संस्कार ।

निराधार योजनेला

घूस  खोरीचा आधार।

 

कथा दारिद्रय रेषेची

असे फारच आगळी।

लाभार्थीच्या यादीला हो

दिसे दिग्गज मंडळी।

 

माय म्हणे बापा बरी

अर्धी कष्टाची भाकरी।

लाचारीच्या जिण्यापरी

लाख मोलाची चाकरी।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #18 – उपदेशक और समुपदेशक ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 18☆

☆ उपदेशक और समुपदेशक ☆

 

अपने दैनिक पूजा-पाठ में या जब कभी मंदिर जाते हो,  सामान्यतः याचक बनकर ईश्वर के आगे खड़ा होते हो। कभी धन, कभी स्वास्थ्य, कभी परिवार में सुख-शांति, कभी बच्चों का विकास तो कभी…, कभी की सूची लंबी है, बहुत लंबी।

लेकिन कभी विचार किया कि दाता ने सारा कुछ, सब कुछ पहले ही दे रखा है। ‘जो पिंड में, सोई बिरमांड में।’ उससे अलग क्या मांग लोगे? स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ब्रह्मांड की सारी शक्तियाँ पहले से हमारे भीतर है। अपनी आँखों को अपने ही हाथों से ढककर हम ‘अंधकार, अंधकार’ चिल्लाते हैं। कितना गहन पर कितना सरल वक्तव्य है। ‘एवरीथिंग इज इनबिल्ट।’…तुम रोज मांगते हो, वह रोज मुस्कराता है।

एक भोला भंडारी भगवान से रोज लॉटरी खुलवाने की गुहार लगाता था। एक दिन भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा,’बावरे! पहले लॉटरी का टिकट तो खरीद।’

तुम्हारा कर्म, तुम्हारा परिश्रम, तुम्हारा टिकट है। ये लॉटरी नहीं जो किसी को लगे, किसी को न लगे। इसमें परिणाम मिलना निश्चित है। हाँ, परिणाम कभी जल्दी, कभी कुछ देर से आ सकता है।

उपदेशक से समस्या का समाधान पाने के लिए उसके पीछे या उसके बताये मार्ग पर चलना होता है। उपदेशक के पास समस्या का सर्वसाधारण हल है।  राजा और रंक के लिए, कुटिल और संत के लिए, बुद्धिमान और नादान के लिए, मरियल और पहलवान के लिए एक ही हल है।

समुपदेशक की स्थिति भिन्न है। समुपदेशक तुम्हारी अंतस प्रेरणा को जागृत करता है कि अपनी समस्या का हल तलाशने का सामर्थ्य तुम्हारे भीतर है। तुम्हें अपने तरीके से अपना प्रमेय हल करना है। प्रमेय भले एक हो, हल करने का तरीका प्रत्येक की अपनी दैहिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है।

समुपदेशक तुम्हारे इनबिल्ट को एक्टिवेट करने में सहायता करता है। ईश्वर से मत कहो कि मुझे फलां दे। कहो कि फलां हासिल करने की मेरी शक्ति को जागृत करने में सहायक हो। जिसने ईश्वर को समुपदेशक बना लिया, उसने भीतर के ब्रह्म को जगा लिया….और ब्रह्मांड में ब्रह्म से बड़ा क्या है?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

writersanjay@gmail.com

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 6 – विशाखा की नज़र से ☆ जीवनोत्सव ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना जीवनोत्सव. अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 6  – विशाखा की नज़र से

☆  जीवनोत्सव  ☆

 

खुशी गर तुम हो हमारे जीवन में

तो यूँ छुप के न रहा करो

सम्मुख रहो हमारे

चेहरों पर छा जाया करो

 

दुःख तुम भी हो गर हमारे जीवन में

तो परछाई की तरह रहा करो

चलो भले ही पीछे – पीछे

पर बेड़ियाँ न बना करो

 

रोशनी गर तुम भी हमारे जीवन में

तो दियासलाई में न रहा करो

सर संघचालक बन उजास का

मार्गप्रशस्त किया करो

 

अंधकार तुम भी हो गर हमारे जीवन में

तो वक्त पर ही आया करो

बेवक्त आकर रोशनी से

बिन बात न उलझा करो

 

जीवन तुम सबको लेकर संगसाथ

अनवरत ताल में कदम बढ़ाया करो

प्रखर , मद्धम या बेताल किसी स्वर को

प्रभातफेरी में गूंथ हौले – हौले गुनगुनाया करो

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 21 – व्यंग्य – बड़ा आदमी साइकिल पर ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने  एक ऐसे चरित्र का विश्लेषण किया है जो आपके आस पास ही मिल जायेंगे.  एक खानदानी मामूली आदमी की किसी भी हरकत को नजरअंदाज किया जा सकता है किन्तु, एक बड़े आदमी की एक एक हरकत पर समाज की नजर रहती है।   ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “बड़ा आदमी साइकिल पर  ”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 21 ☆

 

☆ व्यंग्य  – बड़ा आदमी साइकिल पर  ☆

 

मगन बाबू ख़ानदानी रईस हैं, वैसे ही जैसे हम ख़ानदानी मामूली आदमी हैं। वे विशाल भवन, पन्द्रह-सोलह कारों और दीगर संपत्ति के स्वामी हैं।

मौजी तबियत के आदमी हैं। नौकरों और परिवार के सदस्यों से उनकी चुहलबाज़ी चलती है। तुफ़ैल मियाँ उनके ख़ास मुँहलगे नौकर हैं। वे जब-तब तुफ़ैल मियाँ के पेट में गुदगुदी मचाते रहते हैं और तुफ़ैल मियाँ नाराज़ी का अभिनय करते, शरीर को टेढ़ा-मेढ़ा करते रहते हैं। एकान्त पाकर मगन बाबू तुफ़ैल मियाँ को कुछ ‘जनता छाप’ गालियाँ भी देते हैं। तुफ़ैल मियाँ ऊपर से ग़ुस्से का प्रदर्शन करते हुए भीतर-भीतर गदगद होते रहते हैं।

उस दिन मगन बाबू अधिक ही मौज में थे। न जाने क्या सूझी कि उन्होंने दीवार से टिकी तुफ़ैल मियाँ की साइकिल एकाएक उठायी और सवार होकर पैडल मारते हुए बंगले के गेट से बाहर निकल गये।

बंगले में तहलका मच गया— ‘बाबूजी साइकिल पर बैठकर निकल गये’, ‘मगन बाबू साइकिल पर बाहर चले गये।’ भारी दौड़-धूप शुरू हो गयी। तुफ़ैल मियाँ चप्पलें फेंककर पीछे-पीछे दौड़े। तीन-चार सेवक और दौड़े। तुरन्त दो कारें गैरेज से निकलीं और बाबूजी की तलाश में दौड़ पड़ीं। मगन बाबू की माताजी ऊपर से उतरकर लॉन में परेशान घूमने लगीं।  बंगले के सारे प्राणी नाना प्रकार की वेशभूषा में लॉन पर जमा होकर उत्सुकता से ख़बर का इन्तज़ार करने लगे।

मगन बाबू उस समय पैडल मारते हुए बाज़ार से गुज़र रहे थे।  पीछे-पीछे चार-पाँच नौकर ‘बाबूजी’ ‘बाबूजी’ चिल्लाते उनके पीछे भाग रहे थे। तुफ़ैल मियाँ उन्हें अपने सर की कसम देते दौड़ रहे थे। लेकिन मगन बाबू मौज में दाहिने-बायें सिर हिलाते बढ़ते जा रहे थे।

बाज़ार के लोग यह कौतुक देख देखकर दूकानों के सामने जमा हो रहे थे। मगन बाबू को सब जानते थे। जो नहीं जानते थे वे दूसरों से पूछ रहे थे, ‘यह क्या है भाई?’ जानकार हँसकर सिर हिलाते, कहते, ‘वे मगन बाबू हैं न? साइकिल पर निकल पड़े हैं। मौजी आदमी हैं। ‘जो मगन बाबू से ज़्यादा परिचित थे,वे उन्हें सम्बोधन करके ‘वाह बाबू साहब’ ‘वाह बाबू साहब’ कह रहे थे। मगन बाबू के इस कौतुक ने पूरे बाज़ार में मौज और दिल्लगी का वातावरण बना दिया था। जहाँ देखो वहाँ ‘मगन बाबू भी क्या हैं!’, ‘मगन बाबू भी खूब हैं!’ सुनायी पड़ रहा था।

साइकिल की रफ़्तार थोड़ी धीमी होते ही तुफ़ैल मियाँ और दूसरे सेवकों ने उनके पास पहुँचकर साइकिल को थाम लिया। तब तक एक कार भी आ पहुँची। मगन बाबू को साइकिल से उतारकर कार में बैठाया गया।  बाज़ार वालों की अच्छी-ख़ासी भीड़ उनके इर्दगिर्द जमा हो गयी थी। ‘अरे वाह रे बाबू साहब!’ ‘धन्य हो बाबू साहब!’ की टिप्पणियाँ चल रही थीं।  मगन बाबू मन्द मन्द हँस रहे थे।

कार के बंगले में दाख़िल होने पर मगन बाबू बाहर निकलकर लॉन में आरामकुर्सी पर फैल गये। उनकी माताजी विह्वल भाव से उनके शरीर पर हाथ फेरने लगीं।  बंगले के सब छोटे-बड़े उन्हें घेरकर खड़े हो गये। उलाहने के स्वर में टिप्पणियाँ आ रही थीं, ‘कुछ तो सोचना चाहिए’, ‘कुछ हो जाता तो?’, ‘बड़ी बेफिक्र तबियत के हैं’, वगैरः वगैरः।  तुफ़ैल मियाँ कह रहे थे, ‘अबकी बार आप ऐसा करके देखिए, लौट के मुझे ज़िन्दा न पाएंगे। ‘ माताजी कह रही थीं, ‘तू क्यों हमको इतना सताता है रे? सब दिन बच्चा ही बना रहेगा? छः बच्चों का बाप बन गया, कुछ तो समझ से काम ले।’ और मगन बाबू आँखें बन्द किये मन्द-मन्द मुस्कराए जा रहे थे।

बंगले के भीतर उनकी पुत्री अपने चाचा से फ़ोन पर बात कर रही थी—-‘आज साइकिल से निकल पड़े।  आफत मच गयी थी। बिलकुल ठीक हैं।  कुछ नहीं हुआ।  मानते नहीं हैं न। कुछ न कुछ मज़ाक करते ही रहते हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #25 – ☆ आरसा ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी आरसा सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  हिंदी में मराठी  शब्द  “आरसा” का अर्थ “दर्पण “है।  सुश्री  आरुशी  जी के इस आलेख ने  सहज ही स्वर्गीय मीनाकुमारी जी के चलचित्र “काजल ” के एक गीत की कुछ पंक्तियों को  मानस पटल पर ला दिया । उन पंक्तियों को आपसे साझा करना चाहूंगा।  उदाहारार्थ – “तोरा मन दर्पण कहलाए / भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए। “  सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #25 ☆

 

☆ आरसा ☆

 

अत्यावश्यक वस्तू… घरात हा पाहिजेच, निदान ज्या घरात बाईमाणूस राहत आहे त्या घरात तर पाहिजेच… हो ना!

नाही म्हणजे कसं, रोज त्यात पाहायला पाहिजे ना की चेहरा सुंदर झाला आहे की नाही? ते खूप जरुरी आहे, नाही तर सगळाच गोंधळ होईल हो… स्वतःची image, impression, वगैरे सगळं सांभाळावं लागत नाही का ! तेही योग्यच आहे म्हणा…  first impression is the best impression असं कोणीतरी म्हणून ठेवलंय आणि त्यातच आम्ही बऱ्याच वेळा गुंतत जातो…

Impression म्हणजे नेमकं काय हे त्या आरशात पाहिल्यावर कळतं का हो? त्या आरशात नक्की काय काय दिसत असेल? मला तर असं वाटतं की आपल्याला जे दिसायला हवं असेल तेच दिसत असणार… सोयीस्कररित्या… आणि हे सगळं खरंच असतं का? हा प्रश्न स्वतःलाच विचारून स्वतःलाच उत्तर देता आलं पाहिजे, शिवाय खरं आणि खोटं ह्यातील फरक जाणवला की मग योग्य मार्ग नक्की सापडेल, जो शाश्वत असेल…

बाह्यरुपतील चेहरा ह्या काचरुपी आरशात नक्कीच दिसतो, पण मनाचे प्रतिबिंब कुठल्या आरशात दिसेल? शक्यता कमी आहे… कदाचित निरखून पाहिलं तर हे नक्की जाणवेल… मनरुपी डोहात डोकावून पाहायचं धाडस करावंच लागेल कधी ना कधी तरी, जर स्वतःचा खरा चेहरा पाहायचा असेल तर… सर्व मुखवटे दूर करून… तो खोटा मेक अप धुऊन टाकणे गरजेचं आहे, कारण आपले व्यक्तिमत्व आणि जगासमोर ठेवलेले व्यक्तिमत्त्व ह्यात जर फरक असेल तर मानसिक ओढाताण अटळ आहे… शाश्वत अशाश्वत दुनियेतील काय हवं आहे हे मनाशी ठरवणे आवश्यक आहे… मनाची खरी हाक ऐकून त्याप्रमाणे जगणं आवश्यक आहे…

-आरुशी दाते

 

 

© आरुशी दाते, पुणे

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