( ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है। इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण कविता “स्वप्न“.)
(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक धारावाहिक उपन्यासिका “पगली माई – दमयंती ”।
इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी के ही शब्दों में -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है। किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी। हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)
इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई आँखों के सपने”
(अब तक आपने पढ़ा —- कब पगली ससुराल आई, सुहाग रात को उस पर क्या बीती? कैसे निगोड़ी नशे की तलब ने दुर्भाग्य बन घर में दरिद्रता का तांडव रचा? इतना ही नहीं नशे ने उसके पति को मौत के मुख में ढ़केल दिया। दुर्भाग्य ने उससे जीवन का आखिरी सहारा पुत्र भी छीन लिया। पगली वह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाई। मां बाप का प्यार में दिया नाम सार्थकता में बदल गया था। वह सच में ही पगला गई थी। उसका व्यक्तित्व कांच के टुकड़ों की तरह बिखर गया था। लेकिन उन परिस्थितियों में भी उसका हृदय मातृत्व से रिक्त नहीं था। आकस्मिक घटी घटना ने उसके हृदय में ऐसी भावनात्मक चोट पहुचाई कि उसका हृदय कराह उठा। ऐसे में उसके जीवन में एक नये कथा पात्र का अभ्युदय हुआ, जिसने उसे अपनेपन का एहसास तो दिलाया ही बहुत हद तक गौतम की कमी भी पूरी कर दी। लेकिन उसका दिल अपने ही देश के नौजवानों का बहता खून नहीं देख सका था और अपने कर्मों से मां भारती का प्रतिबिंब बन उभरी थी। अब आगे पढ़ें इस कथा की अगली कड़ी——)
दंगे में घायल हुए पगली को काफी अर्सा गुजर गया था। पगली अपने चोट से उबर चुकी थी शरीर से काफी रक्त बहनें से वह बहुत कमजोर हो गई थी। उसकी बुढ़ापे युक्त जर्जर काया अब उसे अधिक मेहनत करने की इजाजत नहीं दे रही थी।
इन परिस्थितियों में पगली बरगद की घनी छांव में पड़ी पडी़ हांथो में तुलसी की माला जपते किसी सिद्ध योगिनी सी दिखती। एक दिन सवेरे की भोर में पेड़ की छांव तले आत्मचिंतन में डूबी हुई थी कि सहसा किसी अलमस्त फकीर द्वारा प्रभात फेरी के समय गाया जाने वाला गीत उसके कानों से टकराया था। वह अपनी ही मस्ती की धुन मे गाये जा रहा था।
“रामनाम रस भीनी चदरिया, झीनी रे झीनी।
ध्रुव प्रह्लाद सुदामा ने ओढ़ी,
जस की तस धरि दीनी चदरिया।
झीनी रे झीनी।।
उस अलमस्तता के आलम मे फकीर द्वारा गाये भजन ने पगली को कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया। आज उसे बचपन में भैरव बाबा के कहे शब्द याद आ रहे थे, और वह आत्मचिंतन में डूबी उन शब्दो के निहितार्थ तलाश रही थी। जीवन के निस्सारता का ज्ञान उसे हो गया था। भैरव बाबा की आवाज में गीता के सूत्र वाक्य उसके मानसपटल पर तैर उठे थे।
तुम क्यों चिंता करते हो, तुम्हारा क्या खो गया?
जो लिया यही से लिया, जो दिया यहीं पर दिया।
तुम्हारा अपना क्या था? जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छा ही होगा। फिर जीवन में चिंता कैसी?
गीता के ज्ञान की समझ पगली के हृदय में उतरती चली गई और उसका सांसारिक जीवन से मोह भंग हो गया था और बैराग्य के भाव प्रबल हो उठे थे।
उन क्षणों में उसने जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्धारित कर लिया था, अब उसे पास आती अपनी मौत की पदचाप सुनाई देने लगी थी।
उसने मृत्यु के पश्चात अपना शरीर मानवता की सेवा में शोध कार्य हेतु दान करने का संकल्प ले लिया था। इस प्रकार एक रात वह सोइ तो फिर कभी नहीं उठी।
यद्यपि पगली काल के करालगाल से बच तो नहीं सकी, लेकिन मरते मरते भी अपने सत्कर्मों के बलबूते महाकाल के कठोर कपाल पर एक सशक्त हस्ताक्षर तो कर ही गई, जो काल के भी मृत्यु पर्यंत तक अमिट बन शिलालेख की भांति चमकता रहेगा, तथा लोगों को सत्कर्म के लिए प्रेरित करता रहेगा।
मृत्यु के पश्चात पगलीमाई के चेहरे पर असीम शांति के भाव थे कहीं कोई विकृति तनाव भय आदि नहीं था।
ऐसा लगा जैसे कोई शान्ति का मसीहा चिर निद्रा में विलीन हो गया हो।
उस चबूतरे से जब अर्थी उठी और एनाटॉमी विभाग की तरफ चली तो पीछे चलने वाले जनसमुदाय की संख्या लाखों में थी, लेकिन हर शख्स की आंखों में आँसू थे, हर आंख नम थी, और वहीं बगल के मंदिर प्रांगण में गूंजने वाली कबीर वाणी लोगों को जीवन जीने का अर्थ समझा रही थी।
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये।।
इस प्रकार अपार जनसैलाब बढता ही जा रहा था लेकिन आज जनमानस में घृणा नफरत के लिए कोई जगह नहीं बची थी बल्कि उसकी जगह करूणा प्रेम का सागर ठाटें मार रहा था।
क्रमशः –— अगले अंक में पढ़ें – पगली माई – दमयंती – (अंतिम भाग ) भाग – 19 – श्रद्धांजलि
(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)
☆ Anonymous litterateur of social media / सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार ☆
आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / योर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।
सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने ऐसे अनाम साहित्यकारों की असंख्य रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद किया है। इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें।
कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है। वे इस अनुष्ठान का श्रेय अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं। जहाँ नौसेना कप्तान प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। जो स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।
इस सद्कार्य के लिए कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी साधुवाद के पात्र हैं ।
इस कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके द्वारा एक अनाम साहित्यकार की एक समसामयिक रचना बस रहो सिर्फ अपने घर में..का अंग्रेजी भावानुवाद
☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी रचना – बस रहो सिर्फ अपने घर में..☆
तूफ़ां के से हालात हैं
ना किसी सफर में रहो.
पंछियों से है गुज़ारिश
रहो सिर्फ अपने शज़र में
ईद का चाँद बन, बस रहो
अपने ही घरवालों के संग,
ये उनकी खुशकिस्मती है
कि बस हो उनकी नज़र में…
माना बंजारों की तरह
घूमते ही रहे डगर-डगर…
वक़्त का तक़ाज़ा है अब
रहो सिर्फ अपने ही शहर में …
तुमने कितनी खाक़ छानी
हर गली हर चौबारे की,
थोड़े दिन की तो बात है
बस रहो सिर्फ अपने घर में..
☆ English Version of Classical Poem of Anonymous litterateur of social media☆
☆ Keep staying in your house…by Captain Pravin Raghuwanshi ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनके स्थायी स्तम्भ “आशीष साहित्य”में उनकी पुस्तक पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक महत्वपूर्ण आलेख “प्राण गीता”। )
भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “मेरे प्यारे मित्र, हमारा मस्तिष्क चार मुख्य भावनाओं से बंधा हैं, और ये काम या वासना, क्रोध, लोभ और मोह या मैं और मेरे का अनुलग्नक हैं । हर मानव मन इन चार भावनाओं में ही घूमता रहता है । कुछ में अन्य भावनाओं की तुलना में एक अधिक और अन्य कम अनुपात में होती है, अन्य मनुष्यों के पास दूसरी अधिक और अन्य कम और इसी तरह । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति में एक समय अधिक क्रोध और लोभ हो सकता है तो उस समय उसमे मोह और काम स्वभाविक रूप से कम हो जायेंगे ऐसे ही अन्य के लिए भी सत्य हैं । इन भावनाओं की मात्रा हमारे अंदर तेजी से बदलती रहती हैं । आप ध्यान दे सकते हैं कि कभी-कभी आप अधिक काम, कम मोह, या अधिक क्रोध, और अधिक मोह और कम लोभ अनुभव करते हैं । ऐसे ही कई संयोजन संभव हैं”
तब मैंने भगवान हनुमान से पूछा, “ओह! मेरे भगवान, तो गृहस्थ द्वारा एक बिंदु पर मन को स्थिर बनाये रखने का क्या उपाय है ?”
भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “आप इसे इस तरह से सोच सकते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में सभी चार भावनाओं का कुल प्रतिशत 100% होता है जिसमें चार भावनाओं का अलग अलग प्रतिशत शामिल है। अब भावनाओं को नियंत्रित करने के दो उपाय हैं एक सन्यासियों का मार्ग है और इस मार्ग में सभी चार भावनाओं काम, क्रोध, लोभ और मोह के प्रतिशत को परिवर्तित करके अनासक्ति से जुड़ना है । जब कुल 100 प्रतिशत अलगाव में परिवर्तित हो जाएंगे, तो सन्यासी को आत्म ज्ञान प्राप्त हो जाएगाऔर मोक्ष मिल जायेगा ।
दूसरा मार्ग गृहस्थ आश्रम वालों के लिए है जिसमे सभी भावनाओं को बराबर प्रतिशत में लाना है। अर्थात इसे आप 25 प्रतिशत काम, 25 प्रतिशत क्रोध, 25 प्रतिशत लोभ, 25 प्रतिशत मोह की स्थिति कह सकते हैं ।
ऐसा करने से उसके मनुष्य जीवन के तीन मुख्य स्तम्भों, धर्म (वर्ण, समाज, पृष्ठभूमि के अनुसार उसके लिए निर्धारित कार्यो का निर्वाह करना), अर्थ (परिवार और समाज में उस मनुष्य की स्थिति के अनुसार जीवित रहने के लिए मूलभूत बुनियादी आवश्यकताएँ) और काम (विलासिता, सेक्स आदि की गहरी इच्छा) के लिए उसका मस्तिष्क संतुलित बनेगा । और वो अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामजिक जिम्मेदारियां अच्छी तरह से निभा पायेगा । फिर उसके जीवन की गति स्वतः ही मनुष्य जीवन के चौथे स्तम्भ मोक्ष की ओर बढ़ने लगेगी । इसलिए मध्यस्थता और व्यक्ति के लिए परिभाषित धर्म का अभ्यास करके, वह अपनी चार मुख्य भावनाओं को संतुलित कर सकता है (अन्य भावनाएं इन चारों की ही उप-श्रेणियां होती हैं)
तब मैंने पूछा, “हे भगवान, हम अपने आस-पास इतनी उच्च नीच, छोटा बड़ा क्यों देखते हैं? एक ही तरह की परिस्थिति किसी एक के लिए बहुत अच्छी हो सकती है और वह ही परिस्थिति किसी दूसरों के लिए बुरी क्यों है?”
भगवान हनुमान ने कहा, “हर व्यक्ति केवल अपने ही ब्रह्मांड को देख सकता है, जो कि उसके अपने पक चुके कर्मों का परिणाम होता है उसका ब्रह्मांड उसके कर्मों से निर्मित होता है और उसकी मुक्ति के साथ चला जाता है । यद्यपि यह बाक़ी उन लोगों के लिए वैसा ही बना रहता है जो अभी भी बंधन में हैं, क्योंकि उसके सारे कर्मों के फल उस समय भी बाक़ी होते हैं । इसके अतरिक्त अच्छे और बुरे सापेक्ष शब्द हैं। जो वस्तु मेरे लिए अच्छी है वह ही वस्तु आपके लिए बुरी हो सकती है । एक ही बात या वस्तु हमारे जीवन के एक भाग में हमारे लिए हितकारी हो सकती है और किसी अन्य भाग में वो ही समान बात या वस्तु हमारे लिए बुरी हो सकती है । बचपन में हर बच्चे को मिठाई खाना पसंद होता है । बच्चों के लिए यह अच्छा है, लेकिन जब वह ही बच्चा बूढ़ा हो जाता है और उसके शरीर के अंदर कई विकार या बीमारियाँ प्रवेश कर लेती हैं, तो वो ही मिठाई उसके स्वास्थ की लिए खराब हो जाती है । मेरे प्यारे मित्र, वह एक ही चेतना है जो हमें एक समय खुशी का अनुभव करवाती है और दूसरे समय उदासी का। आप और क्या जानना चाहते हैं?”
तब मैंने पूछा, “मेरे भगवान आप वायु देव के पुत्र हैं, और हर प्रकार की वायु पर आपका पूर्ण नियंत्रण है। आप हमारे शरीर के अंदर प्राण के रूप में प्रवाह होने वाली वायु हैं। तो तीनों लोकों में प्राण वायु के विषय में सिखाने के लिए आप से अच्छा शिक्षक और कौन होगा?
भगवान हनुमान मुस्कुराये और कहा, “ठीक है, मैं आपको प्राण वायु के रहस्य बताने जा रहा हूँ जिसका ज्ञान देवताओं के लिए भी दुर्लभ है”
तब भगवान हनुमान ने मुझसे कहा, “प्राण के कारण ही यह ब्रह्मांड सक्रिय है और यह प्राण हर अभिव्यक्ति जीवन में उपस्थितहै । दुनिया के विभिन्न तत्व अलग-अलग आवृत्तियों पर प्राण के कंपन के अतरिक्त और कुछ भी नहीं हैं । आपको मनुष्य शरीर में विभिन्न प्रकार के प्राणों का ज्ञान अवश्य होगा”
मैंने कहा, “हाँ भगवान मैं हमारे शरीर के अंदर के दस प्राणों के विषय में थोड़ी बहुत जानकारी रखता हूँ, जिसमें से पाँच सबसे महत्वपूर्ण हैं- प्राण, उदान, व्यान, समान और अपान है”
भगवान हनुमान जी ने कहा, “हाँ जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो मन में उपस्थित विचार प्राण वायु में प्रवेश कर जाते हैं । प्राण और उदान आत्मा के साथ जुड़ जाते हैं और उसे इच्छित दुनिया में ले जाते हैं । उदान रीढ़ की हड्डी के केंद्र से गुजरने वाली नाड़ी में स्थिर रहता है । मृत्यु के समय यदि उदान रीढ़ की हड्डी के ऊपरी हिस्से में है तो व्यक्ति स्वर्ग या ऊपरी लोकों में जाता है, यदि रीढ़ की हड्डी के निचले हिस्से में है वो निचले लोकों में जाता है और यदि बीच में, तो उसे लगभग वर्तमान के स्वरूप ही मानव जीवन मिलता है । विभीषण मैंने आपको चार मुख्य भावनाओं के विषय में बताया था, लेकिन नौ रस या भावनाएं मुख्य हैं जो आसानी से मनुष्यों में पहचानी जा सकती हैं । अब मैं आपको बता दूँ कि मस्तिष्क में भावनाएं कैसे उत्पन्न होती हैं । जब प्राण वायु शरीर में आयुर्वेदिक दोषों (वात, कफ और पित्त) के साथ मिलता हैं, तो हमारे मस्तिष्क में रस का अनुभव होता हैं । यह प्राण द्वारा कुछ निष्क्रिय प्रतिमानों को सक्रिय करने की तरह है । उस समय पर ‘मैं’ या अहंकार को यह तय करना होता है कि क्या यह अनुभवी रस (भावना) स्वीकार करके उसका परिणाम शरीर में प्रत्यक्ष निरूपित करना है । यदि अहंकार, बुद्धि से परामर्श करने के बाद, रस का समर्थन नहीं करता है, तो यह इच्छा शक्ति के कार्य से बदल जाता है । यदि अहंकार रस का समर्थन करता है, तो बुद्धि भी कुछ नहीं कर सकती है और बुद्धि को भी उस रस को स्वीकार करना पड़ता है और वो हमारे शरीर और मस्तिष्क में प्रत्यक्ष उपज जाता है । जब अहंकार रस का समर्थन करता है, तो यह हमारे अहंकार की मूल प्रकृति, जिसका निर्माण मनुष्यों की चार दैनिक आवश्यकताओं, यौन-इच्छा,नींद, भोजन और आत्म-संरक्षण से होता है, पर निर्भर करता है कि वो नौ में से किस रस का समर्थन करता है । इन चारों के विभिन्न संयोजन विभिन्न प्रकार की अहंकार श्रेणियां बनाते हैं जिन्हें नौ प्रकार की भावनाओं में विभाजित किया जा सकता है ।
सभी योगों का उद्देश्य हमारी बुद्धि को इतना मजबूत बनाना है कि अहंकार द्वारा किसी भी भावना को मस्तिष्क में उपजने से पहले ही बुद्धि उसे अस्वीकार कर सके, ताकि मन किसी एक बिंदु पर ध्यान केंद्रित कर सके ।
मैंने पूछा, “भगवान, इसका अर्थ है कि हमारी सभी भावनाएं शरीर के विभिन्न विभिन्न भागों में उपस्थित आयर्वेद के तीनों दोषों के संयोजन के परिणाम और प्राण वायु के मिलने से उत्पन्न होती हैं?”
भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “मैं आपको एक सरल उदाहरण से समझाता हूँ कि हमारे शरीर और मस्तिष्क में श्रृंगार रस या प्रेम की भावना कैसे उत्पन्न होती है । प्राण वायु का प्रवाह जब हृदय क्षेत्र से नीचे नाभि तक आता है तो पित्त दोष के साथ मिलता है । इसे याद रखें, पित्त दोष जल और अग्नि तत्वों का संयोजन है, इसलिए तीन संभावनाएं हैं- एक, जब जल तत्व की मात्रा अग्नि से अधिक होती है, जैसे की हमारी इस स्थिति में, तो ये प्रेम की भावना या श्रृंगार रस उत्पन्न करने के लिए जिम्मेदार होता है। दूसरी सम्भावना, जब अग्नि तत्व की मात्रा जल तत्व से अधिक हो तो इस परिस्थिति में क्रोध रस उत्पन्न होता है और तीसरी सम्भावना जब दोनों तत्वों अग्नि और जल की मात्रा बराबर हो, तो शाँत रस उत्पन्न होता हैं । जब यह प्राण पानी की अधिकता वाले पित्त दोष के साथ मिश्रित होता है तो यह प्रवाह मनोमय कोश की ओर बढ़ता है और अहंकार में गतिशील उत्तेजना उत्पन्न करता है, और फिर ऊपर की दिशा (हृदय के पास) की ओर बढ़ता है, यह उत्तेजना हमारे मस्तिष्क के कणों की संरचना को बहुत ही सरल स्वरूप में व्यवस्थित करती है और ज्ञात प्रतिमान पुरे शरीर में सनसनी उत्पन्न करता है । इस सनसनी को ही प्रेम कहा जाता है । अब आप समझे?”
मैं भगवान हनुमान के चरणों में गिर गया और उनसे आत्मा के विषय में बताने के लिए अनुरोध किया ।
(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। श्रीमती उर्मिला जी के “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके स्वानुभव एवं संबंधों पर आधारित संस्मरणात्मक कथा “बुकीची सून ”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है। ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 28 ☆
☆ बुकीची सून ☆
(विषय :- व्यक्तिरेखा )
दिवाळीची सुट्टी सुरू झाली होती त्यामुळे मोठी मुलगी व तिच्या मुली आल्या होत्या.सकाळच्या वेळी मी अंगण झाडत होते माझ्या दोन्ही नाती अश्विनी अक्षया माझ्या मागेपुढे करत होत्या.त्या शहरात रहात असल्याने त्यांना मोठ्ठ अंगण म्हणजे अगदी अप्रूप वाटायचं.
दसरा नवरात्रीची धामधूम संपली की आमच्या दारावर रांगोळी विकणाऱ्या बायका येतात.तशीच एक जाडजूड काळी बाई डोक्यावर रांगोळीचं भांड घेऊन “रांगोळी
..ए ..असं जोरजोरात म्हणत
आली अन् माझ्या जवळच थांबली न् मला म्हणाली ” आवो ,ऽऽ घ्यावो ..ऽऽ. ताई… एकदम पांढरी लयी छान हाय बगा.”
दसऱ्याला घेतलेली बरीच रांगोळी शिल्लक असल्यानं मी तिच्या बोलण्याकडं लक्ष दिलं नाही मी माझं हातातलं काम करत राहिले तशी घ्याहो.. म्हणून माझ्या मागेच लागली. मी म्हटल मागचीच शिल्लक आहे आणि आता घरादारात फरशा बसवल्यात त्यामुळे रांगोळी फार संपत नाही गं…मग मात्र माझं लक्ष वेधून घेण्यासाठी ती जोरात म्हणाली आवो ताई तुमच्या ” बुकीची सून हाय ओ….मी….!” .
तिचं बोलणं ऐकून माझ्या दोन्ही नातींना काही उलगडा होईना .
या भिकारणीसारख्या दिसणाऱ्या बाईची सासू …आजीची ” बुकी “… म्हणजे काय..?..
पण मला झाला..
कारण….
सुमारे पस्तीस चाळीस वर्षांपूर्वी भिक्षा मागण्यास बंदी नव्हती. त्यावेळी आमच्या पेठेत एक भिकारीण रोज यायची. तेव्हा आजच्या सारख्या घंटागाड्याही नव्हत्या. कोपऱ्या कोपऱ्यावर नगर परिषदेच्या कचरा कुंड्या असायच्या.
तर ही भिकारीण आमच्या सगळ्यांच्या घरच्या केरकचऱ्याच्या बादल्या त्या कुंडीत रित्या करायची. आणि त्याबदल्यात तिला सर्व घरातील उरलेलं शिळं अन्न दिलं जायचं.
ती मुकी असल्यानं तिचं नाव कुणाला माहीत नव्हतं ऐकूही येत नसल्यानं तिच्याशी कोणाचा संवाद नसायचा, पण मी मात्र तिच्याशी खाणाखुणांनी बोलायचे. कधीमधी तिला छान ताज ताक, थंडगार कलिंगडाची फोड द्यायचे. तिला ते खूप बरं वाटायचं खाऊन पिऊन झाल्यावर ती मला स्वत:च्या छातीवर हात ठेवून जीभ टाळ्याला लावून टक्क् असा मोठ्ठा आवाज करायची म्हणजे खूप छान होतं, आवडलं .! असं सुचवायची.
मलाही खूप बरं वाटायचं.तशी ती नाकी डोळी नीटस होती.
तिला मुकी भिकारीण असं ल़ोक म्हणत आणि ते माझ्या मुलांना आवडायचं नाही. म्हणून त्यांनी तिचं नाव शाॅर्टमधे करायचं ठरवलं. मुकी भिकारीण म्हणून आधी ” भुकी ” म्हणायचं असं सर्वांनी ठरवलं पण त्यातून ती भुकेली आहे असा निष्कर्ष निघतो इति माझा मोठा मुलगा ! मग तो म्हणाला आपण तिला “बुकी” म्हणूया…मग सर्वांनी एकमताने अनुमोदन देऊन तिचे नामकरण “बुकी” असे झाले.तेव्हापासून ती आमच्या पेठेची बुकी झाली.
तिचं येणं नित्यनियमाचं असायचं.एकदा बरेच दिवस ती आलीच नाही बरं.. चौकशी तरी कुठं करायची.दोन अडीच महिन्यांनी एकेदिवशी ती दिसली.सगळ्यांनी विचारुन तिला बेजार केलं. मग मीच तिला एक दिवस खुणेनं विचारलं तेव्हा लाजत लाजत कपाळावरच्या कुंकवाकडे हात दाखवून नवऱ्याकडे गावी गेलेहोते असं. म्हणाली.
असेच काही दिवस गेले आणि ती पोटुशी असल्याचं लक्षात आलं.मग आम्ही तिला जरा आंबट चिंबट पदार्थ लोणची असं देऊन आम्ही आनंद घेत होतो.व तिचं जरा कौतुक करत होतो तीलाही ते आवडत होतं.मग तिला मुलगा झाला.त्याला काखेच्या झोळीत बांधून ती यायला लागली.ते बाळही गुटगुटीत छान होतं विशेष म्हणजे ते बोलू शकतं हे खुणेनेच सांगताना तिला झालेल्या आनंदाचं वर्णंनच नाही करता येणार.?
कालांतराने भिक्षा मागण्यास शासनाने मनाई केल्यामुळे की काय ती परत आम्हाला दिसलीच नाही. आम्हीही आमच्या रोजच्या घर ऑफिस मुलं सुना नातवंडे यात गुंतल्याने तिला विसरून गेलो.
आणि आज माझ्या “बुकीची सून” प्रत्यक्ष माझ्या समोर उभी !
आता नको असली तरी अधूनमधून मी तिच्याकडून रांगोळी घेते. तिचा आवाज मात्र भसाडा घोगरा आहे…ती ” रांगोळी ‘.. म्हणून ओरडत येते तेव्हा कानावर हात ठेवावा लागतो. आता हिचं नाव काय ठेवावं असा प्रश्न पडलाय.
(सौ. सुजाता काळे जी मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं। उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी द्वारा प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण मराठी कविता “जीव ताटवा फुलांचा ”।)
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक अति संवेदनशील सार्थक एवं समसामयिक कविता “ कोरोना ”. डॉ मुक्ता जी ने इस नवीन त्रासदी के दोनों पहलुओं (दो भागों में ) से रूबरू कराने का एक सार्थक एवं सफल प्रयास किया है। अब पहल आपको करना है और इस त्रासदी से उबर कर आप सब एक नए युग में पदार्पण करें ,ईश्वर से यही कामना है। समाज को सचेत करती कविता के लिए डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 40 ☆
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है नववर्ष एवं नवरात्रि के अवसर पर एक समसामयिक “भावना के दोहे “।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री संतोष नेमा जी के “संतोष के समसामयिक दोहे ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं . )
(समाज , संस्कृति, साहित्य में ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले कविराज विजय यशवंत सातपुते जी की सोशल मीडिया की टेगलाइन “माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अत्यंत भावपूर्ण कविता “राजमाता जिजाऊ “।)