मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – मंदिर ह्रदयीचे. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “मंदिर ह्रदयीचे. . . ! )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ मंदिर ह्रदयीचे. . . ! ☆

जखमांवरती मलम लावले, आई संज्ञेचे

अलगद  आले, भरून सारे, घाव अंतरीचे

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

आयुष्याला तोलून धरले, अज्ञात ताजव्याने

त्या शक्तीचे दर्शन घडले, आई रूपाने

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

आई म्हणजे  अमृत पान्हा, संचित जीवनाचे

वात्सल्याची आभाळमाया, जीवन घडवीते

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

एकच आता दैवत माना, मनी माऊलीचे

संस्काराने जिने घडविले, मंदिर सौख्याचे

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे

 

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 31 ☆ लघुकथा – स्वाभिमानी माई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक, आत्मसम्मान -स्वाभिमान से परिपूर्ण भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  “  स्वाभिमानी माई”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 31☆

☆ लघुकथा –  स्वाभिमानी माई

कर्फ्यू के कारण बाजार में आज बहुत दिन बाद दुकानें खुली थीं , थोडी चहल – पहल दिखाई दे रही थी . उसने भी  अपनी दुकान का रुख किया . मन में  सोचा  कर्फ्यू  के बाद ग्राहक तो कितने आयेंगे पर घर से निकलने का मौका  मिलेगा  और घर के झंझटों से भी छुटकारा . दुकान खुलेगी तो ग्राहक भी धीरे- धीरे आने ही लगेंगे . दो महीने से दुकान बंद थी  . दुकान पर काम करनेवाले लडकों को बुलायेगा तो पगार देनी पडेगी,  कहाँ से देगा ? छोटी सी दुकान है वह भी अपनी नहीं ,  दुकान का मालिक किराया थोडे ही छोडेगा ?  कितना कहा मालिक से कि दो महीने से दुकान बंद है कोई कमाई नहीं है , आधा किराया ले ले ,  पर कहाँ सुनी उसने , सीधे कह दिया किराया नहीं दे सकते तो  दुकान खाली कर दो . वह  मन ही मन झुंझला रहा था , खैर छोडो उसने खुद को समझाया , इस महामारी ने पूरे विश्व को संकट में डाल दिया , मैं अकेला थोडे ही हूँ . कैसा ही समय हो कट ही जाता है . वह दुकान की सफाई में लग गया .

बेटा –  उसे किसी स्त्री की बडी कमजोर सी आवाज सुनाई दी .  उसने सिर उठाकर देखा ,  कैसी हो माई , बहुत दिन बाद दिखी ? उसने पूछा .

दो महीने से बाजार बंद था बेटा , क्या करते यहाँ आकर ? उसने बडी दयनीयता से कहा .

हाँ ये बात तो है . बूढी माई घूम – घूमकर सब दुकानों से रद्दी सामान इक्ठ्ठा किया करती  थी . दुकान के बाहर आकर चुपचाप खडी हो जाती थी  ,लोग अपने आप ही उसके बोरे में रद्दी सामान डाल दिया करते थे . अपनी जर्जर काया पर  बोरे का भारी बोझ उठाए वह मंद गति से अपना काम करती रहती थी . कुछ मांगना तो दूर , वह कभी किसी से एक कप चाय भी न लेती थी . कागज की पुडिया में अपने साथ खाने पीने का  सामान रखती , कहीं बैठकर खा लेती और काम पर चल देती . दुकानदार उसे अकडू माई  कहा करते थे पर उसके लिए वह स्वाभिमानी थी .

आज भी वह वैसी ही खडी थी, ना  कुछ मांगा, ना कुछ  कहा .थोडी देर हालचाल पूछने के बाद  वह कहने ही जा रहा था कि माई !  रद्दी तो नहीं है आज, लेकिन उसका मुर्झाया चेहरा देख शब्द मुँह में ही अटक गए .  उसके चेहरे पर  गहरी उदासी  और आँखों में बेचारगी  थी . उसने सौ का नोट बूढी माई को देना चाहा . मेहनत करने का आदी हाथ मानों आगे बढ ही नहीं रहा था . धोती के पल्ले से आँसू पोंछते हुए नोट लेकर  उसने माथे से लगाया . धीरे से बोली – बेटा ! घर में कमाने वाला कोई नहीं है रद्दी बेचकर  अपना पेट पाल लेती थी. तुम लोगों की दुकाने खुली रहती थीं तो हमें भी पेट भरने को कुछ मिल  जाता था , अब तो सब खत्म . बूढी माई का स्वाभिमान  आँसू बन बह रहा था .

उसे अपनी परेशानियां अब फीकी लग रही थीं .

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ मालामाल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज  इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता  “ चुप्पियाँ“ का अंग्रेजी अनुवाद  Silence” शीर्षक से ।  हम कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी  हैं  जिन्होंने  इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )

☆ संजय दृष्टि  ☆  मालामाल

ऐसी ऊँची भाषा  लिखकर तो हमेशा कंगाल ही रहोगे।….सुनो लेखक, मालामाल कर दूँगा, बस मेरी शर्तों पर लिखो।

लेखक ने भाषा को मालामाल कर दिया जब उसने ‘शर्त’ का विलोम शब्द ‘लेखन’ रचा।

 

# दो गज की दूरी, है बहुत ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 12:47, 19.5.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 50 ☆ व्यंग्य – आत्मनिर्भरता यानी सेल्फी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक अतिसुन्दर सेल्फी पर आधारित व्यंग्य  “आत्मनिर्भरता यानी सेल्फी। मेरी समवयस्क पीढ़ी ने फोटोग्राफी के लगभग सभी दौर देखे हैं तब जाकर सेल्फी  की दुनिया देखने को मिली।  नई पीढ़ी की फोटोग्राफी तो जन्म से लेकर  ही प्रारम्भ हो जाती है।  ऐसी में आत्मनिर्भरता के लिए सेल्फी कितनी जरुरी है इसके लिए तो आपको यह व्यंग्य पढ़ना ही पड़ेगा।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 50 ☆ 

☆ व्यंग्य – आत्मनिर्भरता यानी सेल्फी

 “स्वाबलंब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष ” राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त जी की पंक्तियां सेल्फी फोटो कला के लिये प्रेरणा हैं. ये और बात है कि कुछ दिल जले  कहते हैं कि सेल्फी आत्म मुग्धता को प्रतिबिंबित करती हैं. ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि सेल्फी मनुष्य के वर्तमान व्यस्त एकाकीपन को दर्शाती है. जिन्हें सेल्फी लेनी नही आती ऐसी प्रौढ़ पीढ़ी सेल्फी को आत्म प्रवंचना का प्रतीक बताकर अंगूर खट्टे हैं वाली कहानी को ही चरितार्थ करते दीखते हैं.

अपने एलबम को पलटता हूं तो नंगधुड़ंग नन्हें बचपन की उन श्वेत श्याम फोटो पर दृष्टि पड़ती हैं जिन्हें मेरी माँ या पिताजी ने आगफा कैमरे की सेल्युलर रील घुमा घुमा कर खींचा रहा होगा. अपनी यादो में खिंचवाई गई पहली तस्वीर में मैं गोल मटोल सा हूं, और शहर के स्टूडियो के मालिक और प्रोफेशनल फोटोग्राफर कम शूट डायरेक्टर लड़के ने घर पर आकर, चादर का बैकग्राउंड बनवाकर सैट तैयार करवाया था, हमारी फेमली फोटोग्राफ के साथ ही मेरी कुछ सोलो फोटो भी खिंची थीं. मुझे हिदायत दी थी कि मैं कैमरे के लैंस में देखूं, वहाँ से चिड़िया निकलने वाली है. घर के कम्पाउंड में वह जगह चुनी गई थी जिससे सूरज की रोशनी मुझ पर पड़े  और पिताजी के इकलौते बेटे का  बढ़िया सा फोटो बन सके. फोटो अच्छा ही है, क्योकि वह फ्रेम करवाया गया और बड़े सालों तक हमारे ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाता रहा.अब वह फोटो मेरी पत्नी और बच्चो के लिये आर्काईव महत्व का बन चुका है.

यादो के एलबम को और पलटें तो स्कूल, कालेज के वे ग्रुप फोटो मिलते हैं जिन्हें हार्ड दफ्ती पर माउंट करके नीचे नाम लिखे होते थे कि बायें से दायें कौन कहां खड़ा है. मानीतर होने के नाते मैं मास्साब के बाजू में सामने की पंक्ति पर ही सेंटर फारवार्ड पोजीशन पर मौजूद जरूर हूं पर यदि नाम न लिखा हो तो शायद खुद को भी आज पहचानना कठिन हो. वैसे सच तो यह है कि मरते दम तक हम खुद को कहाँ पहचान पाते हैं, प्याज के छिलको या कहें गिरगिटान की तरह हर मौके पर अलग रंग रूप के साथ हम खुद को बदलते रहते हैं. आफिस के खुर्राट अधिकारी भी बीबी और बास के सामने दुम दबाते नजर आते हैं. शादी में जयमाला की रस्मो के सूत्रधार फोटोग्राफर ही होते हैं वे चाहें तो गले में पड़ी हुई माला उतरवा कर फिर से डलवा दें. शादी का हार गले में क्या पड़ता है, पत्नी जीवन भर शीशे में उतारकर फोटू खींचती रहती है ये और बात है कि वे फोटू दिखती नही जीवन शैली में ढ़ल जाती हैं.

कालेज के दिन वे दिन होते हैं जब आसमान भी लिमिट नही होता. अपने कालेज के दिनो में हम स्टडी ट्रिप पर दक्षिण भारत गये थे. ऊटी के बाटनिकल गार्डेन के सामने खिंचवाई गई उस फोटो का जिक्र जरूरी लगता है जिसे निगेटिव प्लेट पर काले कपड़े से ढ़ांक कर बड़े से ट्रिपाईड पर लगे  कैमरे के सामने लगे ढ़क्ककन को हटाकर खींचा गया था, और फिर केमिकल ट्रे में धोकर कोई घंटे भर में तैयार कर हमें सुलभ करवा दिया गया था. कालेज के दिनो में हम फोटो ग्राफी क्लब के मेंम्बर रहे हैं. डार्क रूम में लाल लाइट के जीरो वाट बल्ब की रोशनी में हमने सिल्वर नाइत्रेट के सोल्यूशन में सधे हाथो से सैल्युलर फिल्में धोई और याशिका कैमरे में डाली हैं. आज भी वे निगेटिव हमारे पास सुरक्षित हैं, पर शायद ही उनसे अब फोटो बनवाने की दूकाने हों.

डिजिटल टेक्नीक की क्रांति नई सदी में आई. पिछली सदी के अंत में तस्करी से आये जापानी आटोमेटिक टाइमर कैमरे को सामने सैट करके रख कर मिनिट भर के निश्चित समय के भीतर कैमरे के सम्मुख पोज बनाकर सेल्फी हमने खींची है, पर तब उस फोटो को सेल्फी कहने का प्रचलन नहीं था. सेल्फी शब्द की उत्पत्ति मोबाइल में कैमरो के कारण हुई. यूं तो मोबाईल बाते करने के लिये होता है पर इंटनेट, रिकार्डिग सुविधा, और बढ़िया कैमरे के चलते अब हर हाथ में मोबाईल, कम्प्यूटर से कहीं बढ़कर बन चुके हैं. जब हाथ में मोबाईल हो, फोटोग्राफिक सिचुएशन हो, सिचुएसन न भी हो तो खुद अपना चेहरा किसे बुरा दिखता है.  ग्रुप फोटो में भी लोग अपना ही चेहरा ज्यादा देखते हैं. हर्रा लगे न फिटकरी रंग चोखा आये की शैली में सेल्फी खींचो और डाल दो इंस्टाग्राम या फेसबुक पर लाईक ही लाईक बटोर लो. अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ साधन हैं सेल्फी. मेरे फेसबुक डाटा बताते हैं कि मेरी नजर में मेरे अच्छे से अच्छे व्यंग को भी उतने लाइक नही मिलते जितने मेरी खराब से खराब प्रोफाइल पिक को लोड करते ही मिल जाते हैं. शायद पढ़ने का समय नही लगाना पड़ता, नजर मारो और लाइक करो इसलिये. शायद इस भावना से भी कि सामने वाला  भी लाइक रेसीप्रोकेट करेगा. यूं लड़कियो को यह प्रकृति प्रदत्त सुविधा है कि वे किसी को लाइक करें न करें उनकी फोटो हर कोई लाइक करता है.

सेल्फी से ही रायल जमाने के तैल चित्र बनवाने के मजे लेने हो तो अब आपको घंटो एक ही पोज पर चित्रकार के सामने स्थिर मुद्रा में बैठने की कतई जरूरत नहीं है. प्रिज्मा जैसे साफ्टवेयर मोबाईल पर उपलब्ध हैं, सेल्फी लोड करिये और अपना राजसी तैल चित्र बना लीजीये वह भी अलग अलग स्टाइल में मिनटो में.

जब सस्ती सरल सुलभ सेल्फी टेक्नीक हर हाथ में हो तो उसके व्यवसायिक उपयोग केसे न हों. कुछ इनोवेटिव एम बी ए पढ़े प्रोडक्ट मेनेजर्स ने उनके उत्पाद के साथ  सेल्फी लोड करने  पर पुरस्कार योजनायें भी बना डालीं. कोई कचरे के साथ सेल्फी से हिट है तो कोई देश के विकास में योगदान दे रहा है योगासन की सेल्फी से,   तो अपनी ढ़ेर सी शुभकामनायें सभी सेल्फ़ीबाजो को. सैल्फी युग में सब कुछ हो, भगवान से यही दुआ है कि हम सैल्फिश होने से बचें और खतरनाक सेल्फी लेते हुये  किसी पहाड़ की चोटी,  बहुमंजिला इमारत, चलती ट्रेन, या बाइक पर स्टंट की सेल्फीलेते किसी की जान न जावें.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 28 ☆ माँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक  भावप्रवण कविता  “माँ .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 28 ☆

☆ माँ ☆

माँ है शीतल चाँद

सूर्य की

वही चेतना धारा

अंधियारे में

दिशा दिखाती

माँ ही है ध्रुवतारा

 

असह्य ताप में

माँ लगती है

सजल -सजल पुरवाई

जब जब

रेगिस्तान मिला

उसने ममता बरसाई

 

धूप -धूल से

बचा बचा कर

उसने हमें संवारा

 

हमने ममतामय आँचल की

छांह इस तरह पाई

बर्फीले तूफान

पार कर

छू पाए ऊँचाई

 

हर उलझन में

वही रही है

हमको सबल सहारा

 

याद बहुत आती

मां की फटकार

और मुस्काना

गीले में सोकर

सूखे में

उसका हमें सुलाना

 

सबके लिए

दुलार प्यार का

वह अदभुत बंटवारा

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 19 ☆ जोड़ – तोड़ ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद रचना “जोड़-तोड़।  इस आलेख के माध्यम से श्रीमती छाया सक्सेना जी का कथन जीवन जल की तरह अनमोल है कदाचित सत्य है और वास्तव में इसे सहेज कर रखना ही चाहिए। इस सार्थक एवं विचारणीय रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 19 ☆

☆ जोड़-तोड़

बड़े धूमधाम से  मिलन समारोह का आयोजन हुआ, लोग मुस्कुराते हुए  फूले नहीं समा रहे थे;  पर इस सब में भी कुछ चेहरे ऐसे थे जो जोड़ – तोड़ करने में लगे हुए  थे ।  क्या केवल जोड़ से ही जीवन अच्छा बन सकता है ???

कभी नहीं, जोड़ बिना  तोड़ के अधूरा  है ;   ठीक उसी प्रकार जैसे फूल बिना काँटे के, रेगिस्तान बिना मृगमरीचिका के, पनघट बिना पनिहारिन के, भगवान बिना भक्त के , आकाश बिना तारे के और धरती बिना हरियाली के कुछ अधूरी- अधूरी सी लगती  है ।

खैर जब कुटिलता पीछे  पड़  जाए तो यथार्थ पर आना ही पड़ता है, सो  मिठाई की टेबल छोड़कर लोग चल दिये पानी पूरी व चाट के स्टाल की ओर, मैं तो  अवलोकन करते हुए  न जाने कितनी कॉफी पी गयी, फिर ध्यान आया अरे  टेस्ट  तो करूँ, सो एक बड़ी सी प्लेट में ढेर सारा अंकुरित अनाज भर कर,  चल दी तबा  फ्राय से  भरवां करेला लेने, मेरा एक उसूल है;  मीठा हो लेकिन कड़वे के साथ, अब बारी थी मिठाई के तरफ बढ़ने की सो वहाँ पहुँची और जम कर  चमचम व खोये की जलेबी  का आनन्द लिया क्योंकि मुझे मालुम है उत्सव के बाद कुछ  कड़वाहट तो  फैलेगी ही सो तैयार रहो  ।

सबसे जरूरी बात कि  मीठा रोग होता है जबकि कड़वा  भोग होता है जिसने कटुता को जी कर राह  बनायी उसका बाल बाँका कोई नहीं कर पाया  वो शिखर पर स्थापित हो  पूज्य हुआ अतः जीवन में मीठे और कड़वे दोनों अनुभवों को सहेजें क्योंकि  ये जीवन अनमोल है जल की तरह, इसे बचाएँ , हरियाली की तरह फ़ैलाएँ झूमें और गायें खुशियाँ मनाएँ क्योंकि बीता  समय लौट कर नहीं आता । अवसर का उपयोग करें पर अवसरवादी बनना है या नहीं ये आप पर निर्भर करता है ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 49 – परम्परा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “परीक्षा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 49 ☆

☆ लघुकथा –  परम्परा☆

“रीना तूने ये क्या किया ? तेरी शादी मैं राकेश से धूमधाम से करने वाला था. फिर कोर्ट मैरिज करने की क्या जरुरत थी ?”

“पिताजी ! मैंने आप की बात सुन ली थी. आप मम्मी से कह रहे थे. मेरे पास इतने ही रूपए है कि मैं या तो रीना की शादी कर सकूं, या अपनी किडनी का इलाज करवा कर जिदा रह सकूं. फिर तुम तो जानती है की हरेक व्यक्ति को कभी न कभी मरना है. कोई जल्दी मरेगा तो कोई देर से.”

“क्या कह रही हो बेटी ?”

“सही कह रही हूँ पापा . तभी आप ने ही निर्णय किया था की आप मेरी शादी धूमधाम से करेगे, इलाज तो होता रहेगा. तभी मैंने आप की बातें सुन कर निर्णय कर लिया था कि मैं आप का इलाज करवा कर रहूंगी. इसलिए मैंने ..” वह आगे कुछ बोल नहीं पाई और पिताजी के चरण स्पर्श करने के लिए उनके कदमों में झुक गई .

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – कविता ☆ संवाद ☆ सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। कई पुरस्कारों/अलंकारों से पुरस्कृत/अलंकृत सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का जीवन परिचय उनके ही शब्दों में – “नियतकालिके, मासिके यामध्ये कथा, ललित, कविता, बालसाहित्य  प्रकाशित. आकाशवाणीमध्ये कथाकथन, नभोनाट्ये , बालनाट्ये सादर. मराठी प्रकाशित साहित्य – कथा संग्रह — ५, ललित — ७, कादंबरी – २. बालसाहित्य – कथा संग्रह – १६,  नाटिका – २, कादंबरी – ३, कविता संग्रह – २, अनुवाद- हिंदी चार पुस्तकांचे मराठी अनुवाद. पुरस्कार/सन्मान – राज्यपुरस्कारासह एकूण अकरा पुरस्कार.)

आज प्रस्तुत है आपकी एक पक्षी एवं झाड़ के मध्य संवेदनशील संवाद पर आधारित  भावप्रवण कविता संवाद । हम भविष्य में भी आपकी सुन्दर रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।

☆संवाद☆

पक्षी असतो  झाडाचा आवडता  दोस्त।

मनातलं  गुपित  ते  त्यालाच   सांगतं   ।

पक्षी–  चिवचिव, टिवटिव, झाडा  कसं  काय?

झाड- तूच  सांग. माझे  तर  रोवलेले   पाय.

पंख   हलवित गेलास  एकट्याला सोडून.

मित्रा, आत्ता   तू आलास तरी कुठून?

काय काय पाहिलंस–कसे होते  देश?

कशी तिथली  झाड?कसे  त्यांचे  वेश?

 

पक्षी-  थांग, निळ्या, आभाळात  मी उडतो.

तिथे  देशाबिशांचा नकाशाच  नसतो.

कुठे हिरवी झाड, रंगीत  फुलं

घोसदार, रसदार गोड गोड फळं.

कुठे गार  वारा, कुठे छान हवा.

इथे नि तिथे , फिरलो गावागावा.

कुठे मात्र वाळवंट, कुठे माळ उजाड.

कुठे गार बर्फ, मग कसं उगवेल झाड?

तिथे मला तुझी  आली फार आठवण.

पालवित  पंख  आलो  बघ चटकन .

थरारलं झाड  ,   पक्षाचं   ऐकून.

जसं   काही  तेच  आलं  होतं फिरून.

झाडाच्या   पानात  पक्षी  झोपला  गाढ.

दवाच्या   थेंबात  भिजत  होतं  झाड।।

 

© मीनाक्षी सरदेसाई

‘अनुबंध’, कृष्णा हास्पिटलजवळ, पत्रकार नगर, सांगली.४१६४१६.

मोबाईल  नंबर   9561582372

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 48 – फुर्सत में हो तो आओ  ….☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक रचना फुर्सत में हो तो आओ  ….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 48 ☆

☆ फुर्सत में हो तो आओ  …. ☆  

 

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुक बंदियां करें

लाज शर्म संकोच छोड़ कर

हम भी शब्द चरें।

 

ऑनलैन के खेल चले हैं

इधर-उधर ई मेल चले हैं

कोरोना कलिकाल महात्मय

पानी में पूड़ीयां तले हैं,

शब्दों की धींगा मस्ती में

अर्थ हुए बहरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

कविता दोहे गद्य कहानी

सभी कर रहे हैं मनमानी

कोरोना के विषम काल में

कलम चले पी पीकर पानी,

अध्ययन चिंतन और मनन पर

लगे हुए पहरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

पहले तो, दो चार बार ही

महीने में होता सिर भारी

अब मोबाइल रखा हाथ में

चौबीस घंटे की लाचारी,

मुश्किल है अब वापस जाना

उतर गए गहरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

अलय बेसुरे गीत पढ़ें

सम्मानों से प्रीत बढे

जोड़ तोड़ ले देकर के

प्रगति के सोपान चढ़े,

अखबारी बुद्धि, चिंतक बन

बगुला ध्यान धरें।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

वाह-वाह की, दाद  मिली

सांच-झूठ की खाद मिली

कविताएं चल पड़ी सफर में

खिली ह्रदय की कली-कली,

आत्ममुग्धता का भ्रम मन से

टारे नहीं टरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

अच्छा है  ये मन बहलाना

और न कोई  ठौर ठिकाना

कोरोना के, इस  संकट से

बचने का भी, एक बहाना,

प्रीत के पनघट ताल तलैया

भरी रहे नहरें।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

सुरेश तन्मय

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 29 – बापू के संस्मरण-3 मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 29 – बापू के संस्मरण – 3- मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता ☆ 

गांधीजी डरबन में वकालत करते थे । उनके मुंशी भी प्राय: उन्हीं के साथ रहते थे । उसमें हिन्दू, ईसाई, गुजराती, मद्रासी सभी धर्म और प्रान्तों के व्यक्ति होते थे । गांधीजी उनके साथ किसी तरह का भेद-भाव नहीं रखते थे उन्हे अपने परिवार के रुप में ही मानते थे । जिस घर में वह रहते थे, उसकी बनावट पश्चिमी ढंग की थी, कमरों में नालियां नहीं थी, पेशाब के लिए खास तरह के बरतन रखे जाते थे, उन्हें नौकर नहीं उठाते थे, यह काम घर के मालिक और मालकिन करते थे । जो मुंशी घर में घुल-मिल जाते थे, वें अपने बरतन स्वयं ही उठा ले जाते थे । एक बार एक ईसाई मुंशी उनके घर में रहने के लिये आया उसका बरतन घर के मालिक और मालकिन को ही उठाना चाहिए था लेकिन कस्तुरबा गांधी ने इस मुंशी का बरतन उठाने से इंकार कर दिया।  वह मुंशी पंचम कुल में पैदा हुआ था उसका बरतन बा कैसे उठाती! गांधीजी स्वयं उठावें, यह भी वह नहीं सह सकती थीं । इस बात को लेकर दोनों में काफी झगड़ा हुआ बा बरतन उठाकर ले तो गई, लेकिन क्रोध और ग्लानि से उनकी आंखे लाल हो आई । गांधीजी को इस तरह बरतन उठाने से संतोष नहीं हुआ वह चाहते थे कि बा हंसते-हंसते बरतन ले जायें, इसलिये उन्होंने ऊंचे स्वर में कहा, “मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता” ।  ये शब्द बा के हृदय में तीर की तरह चुभ गये वह तड़प-कर बोलीं, “तो अपना घर अपने पास रखो मैं जाती हूँ” । गांधीजी भी कठोर हो उठे क्रोध में भरकर उन्होंने बा का हाथ पकड़ा और दरवाजे तक खींचकर ले गये । वह उन्हें बाहर कर देना चाहते थे, लेकिन जैसे ही उन्होंने दरवाजा खोला अश्रुधारा बहाती हुई बा बोलीं, “तुमको तो शर्म नहीं है, लेकिन मुझे है जरा तो शर्माओ मैं बाहर निकलकर कहाँ जाऊं यहाँ मेरे मां-बाप भी नहीं हैं, जो उनके घर चली जाऊं । मैं स्त्री ठहरी तुम्हारी धौंस मुझे सहनी होगी अब शर्म करो और दरवाजा बंद कर दो कोई देख लेगा तो दोनों का ही मुंह काला होगा” । यह सुनकर मन-ही-मन गांधीजी बहुत लज्जित हुए उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया सोचा–अगर पत्नी मुझै छोड़कर कहीं नहीं जा सकती तो मैं भी उसे छोड़कर कहाँ जानेवाला हूँ ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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