(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ “कवितेच्या प्रदेशात” में एक समसामयिक विषय पर आधारित अतिसुन्दर रचना पूर्वज। सुश्री प्रभा जी ने इस काव्याभिव्यक्ति में वरिष्ठतम पीढ़ी के माध्यम से अपने पूर्वजों का स्मरण किया है। जो निश्चित ही अभूतपूर्व है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी के उत्कृष्ट साहित्य को साप्ताहिक स्तम्भ – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते हैं।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 64 ☆
☆ पूर्वज ☆
ते कोण असतात? कुठून आलेले??
आपल्याला माहित नसते त्यांच्याबद्दल फारसे काही…..
किंवा सांगीवांगी ,
ऐकून असतो आपण,
त्यांच्या पराक्रमाच्या गाथा!
मूळगावातला तो भग्न पडका वाडा पाहून—-
दाटून आली मनात अपार कृतज्ञता,
किती पराक्रमी होते आपले पूर्वज!
वारसदारांपैकी एकच आनंदी चेह-याची बाई,
तग धरून त्या वाड्यात—-
आपले म्हातारपण सांभाळत!
तिने सांगितले अभिमानाने—
आपला धडा आहे इतिहासात,
कोणत्या लढाईत मिळाली होती….सात गावं इनाम आणि हा बुलंद वाडाही!
आपण इनामदार, देशमुख,
अमक्या तमक्याचे वंशज—-
असे बरेच सांगत राहिली ती……
मुले शहरात बंगला बांधून सुखसोयीत रहात असताना…..
ती इथे एकटी….
वाड्याच्या वैभवशाली खुणा सांगत—-
किती ऊंट किती हत्ती घोडे, किती जमीन….किती पायदळ!किती लढाया!!
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना “पूनम के चाँद ”। )
आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है डा देवेन्द्र जोशी जी के ललित निबंध संग्रह “तन रागी मन बैरागी” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )
पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं । गम्भीर चर्चा नही होती है । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं। – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 38 ☆
तन रागी मन बैरागी (ललित निबंध संग्रह)
लेखक – डा देवेन्द्र जोशी
प्रकाशक – निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स आगरा
मूल्य १२५ रु
पृष्ठ ११२
☆ पुस्तक चर्चा –ललित निबंध संग्रह – तन रागी मन बैरागी – लेखक – डा देवेन्द्र जोशी ☆
मन बैरागी, तन अनुरागी, क़दम-क़दम दुश्वारी है
जीवन जीना सहज न जानो, बहुत बड़ी फ़नकारी है
… निदा फाजली
जीवन का भाव पक्ष सदैव मर्मस्पर्शी होता है. जब अपने स्वयं के अनुभवो के आधार पर कोई ललित निबंध लिखा जाता है तो वह और भी महत्वपूर्ण बन जाता है व पाठक को सीधा हृदयंगम हो, उसके अंतः को प्रभावित करता है. ऐसे निबंध पाठक को जीवन दृष्टि देते हैं, उसका मार्ग प्रशस्त करते हैं. तन रागी मन बैरागी में संकलित प्रत्येक निबंध मैंने फुरसत से पढ़ा है, मैं कह सकता हूं कि ये निबंध डा जोशी की वैचारिक अभिव्यक्ति हैं, जो पाठक को चिंतन की प्रचुर समृद्ध सामग्री व दिशा देते हैं. निदा फाजली के जिस शेर से मैंने अपनी बात शुरू की है, उसके बिल्कुल अनुरूप इस पुस्तक का प्रत्येक निबंध जीवन की फनकारी सिखलाता है. लेखक डा देवेन्द्र जोशी चेतावनी के स्पष्ट स्वर में प्रारंभ में ही लिखते हैं, जिनमें जिंदा रहने का अहसास मर चुका है कृपया वे इस पुस्तक को न पढ़ें, सचमुच संग्रह के सभी निबंध जिंदगी के बहुत निकट हम सबके बिल्कुल आसपास के विषयों पर हैं. अनावश्यक विस्तार से मुक्त, छोटे छोटे निबंध हैं, शीर्षक की सीधी वैचारिक अनुकरणीय विवेचना है. पहला संस्करण हाल ही प्रकाशित हुआ है.
हिन्दी में ललित निबंध को विधा के स्वरूप में अभिस्वीकृति का साहित्यिक इतिहास भी रोचक व विवादास्पद रहा है, लगभग वैसा ही जैसा व्यंग्य को विधा के रूप में स्वीकार करने की यात्रा रही है. अब ललित निबंध की सात्विक सत्ता भी प्रतिष्ठित हो चुकी है, और व्यंग्य की भी. डा देवेंद्र जोशी दोनो ही विधाओ के साथ विज्ञान लेखन के भी पारंगत सुस्थापित विद्वान हैं. वे कवि हैं , संपादक है, मंच संचालक हैं, शोधार्थी हैं. बिना उनसे मिले मैं कह सकता हूं कि बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डा जोशी सबसे पहले एक अच्छे इंसान हैं, क्योंकि ऐसा लेखन एक सदाशयी व्यक्ति ही कर सकता है.
उनमें सूत्र वाक्य लेखन की विशेषता है जैसे वे लिखते हैं ” निर्धन के अभाव की पूर्ति तो धन से संभव है, पर लालच और धन लोलुप प्रवृत्ति की पूर्ति कोई नहीं कर सकता”, या ” लक्ष्यहीन जीवन को जीवन की श्रेणि में नहीं रखा जा सकता. . चलना ही जिंदगी “, ” व्यक्तित्व विकास की प्रथम सीढ़ी है. .आत्म साक्षात्कार ” मैंने पुस्तक पढ़ते हुये ऐसे अनेक वाक्यो को रेखांकित किया है, ये उद्वरण केवल इसलिये कि आप की जिज्ञासा पुस्तक पढ़ने के लिये जागृत हो.
जिन विषयो पर लेखक ने निबंध लिखे हैं उनमें ये शीर्षक शामिल हैं, राष्ट्रीयता का बोध, समय से पहले भाग्य से ज्यादा, माँ, प्यार का अहसास,युवा उम्र का रोमांच,रिश्तों की गर्माहट, स्वभाव के प्रतिकूल, बड़प्पन,सामाजिक सरोकार, पद की गरिमा, बाल मनोविज्ञान,सफलता का जश्न, अवसाद के क्षण,अकेलापन, श्मशान बैराग्य आदि आदि कुल तीस हम सबके जीवन के रोजमर्रा के विषय हैं.
प्रत्येक निबंध विषय की व्याख्या करते हुये एक निर्णायक मार्गदर्शक बिन्दु पर अंत होता है, उदाहरण स्वरूप वे बचपन की मीठी यादें निबंध का अंत इस शेर से करते हैं
घर से मस्जिद बहुत दूर है चलो यूं करें
किसी रोते हुये बच्चे को हंसाया जाये
अकेलापन निबंध का अंतिम वाक्य है ” अकेलापन हमारी कमजोरी बने उसके पहले उसे अपनी ताकत बनाना सीख लें. ”
भाषा के लालित्य के मोती, भाव, शिल्प के स्तर पर बुने हुये सभी निबंध प्रेरक हैं. अभिधा में सशक्त मनोहारी अभिव्यक्ति के सामर्थ्य के चलते लेखक डा देवेन्द्र जोशी को श्रेष्ठ निबंधकार कहा जाना सर्वथा तर्कसंगत है. यह कृति हर उस पाठक को अवश्य पढ़नी चाहिये जो जीवन के किसी मोड़ पर किंकर्तव्य विमूढ़ हो, और इसे पूरा पढ़कर मैं सुनिश्चित हूं कि उसे अवश्य ही निराशा से मुक्ति मिलेगी व उसका भविष्य प्रदर्शित हो सकेगा. इस दृष्टि से कृति जीवन की सफलता के सूत्र प्रतिपादित करती है. संदर्भ हेतु संग्रहणीय व बार बार पठनीय है. अभी ऐसी कई पुस्तकें लेखक से हिन्दी साहित्य को मिलें इसी शुभाशंसा के साथ.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत हैं मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा “श्राद्ध से मुक्ति”। वर्तमान पीढ़ी न तो जानती है और न ही जानना चाहती है कि श्राद्ध क्या और क्यों किये जाते हैं। उन्हें जीते जी किया भी जाता है या नहीं ? पितृ पक्ष में इस सार्थक एवं समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 63 ☆
☆ लघुकथा – श्राद्ध से मुक्ति ☆
रामदयाल जी पेशे से अध्यापक थे। गांव में बहुत मान सम्मान था। बेटे को पढ़ा लिखा कर बड़ा किया। उसकी इच्छानुसार काफी खर्च कर विदेश भेज दिया पढ़ने और अपने मन से सर्विस करने के लिए।
बरसों हो गए बेटे अभिमन्यु को विदेश गए हुए। सेवानिवृत्ति के बाद पति पत्नी अकेले हो गए। बीच के वर्षों में एक बार या दो बार बेटा आ गया था। परंतु उसके बाद केवल मोबाइल का सहारा। गांव में होने के कारण अभिमन्यु कहता था…. नेटवर्क की समस्या रहती है जब बहुत जरूरी हो तभी फोन किया करें। बेटे ने वहाँ अपनी पसंद से विवाह कर लिया। माँ पिताजी को बताना भी उचित नहीं समझा। बस फोन पर कह दिया कि उसने अपनी लाइफ पार्टनर ढूंढ लिया है।
माँ को बहुत झटका लगा। लगातार चिंता और दुखी रहने के कारण उम्र के इस पड़ाव पर वह जल्द ही बीमार हो चली। फिर एक दिन सब कुछ छोड़ रामदयाल को अकेले कर वह चल बसी। बेटे को फोन किया गया। वह बोला… अभी कंपनी के हालात अच्छे नहीं चल रहे हैं। मुझे अभी आने में वक्त लग सकता है। मैं जल्द ही आऊंगा आप अपना ध्यान रखना।
कहते-कहते बरस बीत गए। माता जी के श्राद्ध का दिन आने वाला था। पिताजी ने फोन से कहा… बेटे जीव की मुक्ति के लिए श्राद्ध का होना जरूरी होता है तुम्हारा आना आवश्यक है। झल्ला कर अभिमन्यु ने कहा… ठीक है मैं आ जाऊंगा। बहू को भी ले आना… ठीक है ठीक है ले आऊंगा… सारी तैयारी करके रखियेगा। मुझे ज्यादा समय नहीं लगना चाहिए।
पिताजी खुश हो गए कि बेटा बहू आ रहे हैं। रामदयाल जी पत्नी के श्राद्ध को भूल कर बेटे के आने की खुशी में घर को सजा संवार कर खुश हो रहे थे कि बेटा बहू आ रहे हैं।
निश्चित समय पर बेटा बहू आ गए। पूजा पाठ के बाद घर के नौकर के साथ मिलकर पास पड़ोस में सभी को खाना खिलाया गया। रामदयाल जी बहुत खुश थे कि अपनी माँ का श्राद्ध कर रहा है। इसी बीच जाने कब बेटे ने पिता जी से एक कोरे कागज पर दस्तखत करवा लिया कि उसे विदेश में एक छोटा सा घर लेना है। जिसमें आपके पहचान की आवश्यकता है।
पिताजी ने खुशी से वह काम कर दिया। सभी काम निपटने के बाद रात को सभी चले गए। नौकर भी रामदयाल के पास सो रहा था। देर रात खटर-पटर की आवाज से वह उठ गया। देखा अभिमन्यु और बहू घर का सारा सामान भर चुके थे। सामने दो गाडियाँ खड़ी थी। उसे समझते देर न लगी। उनमें एक गाड़ी अनाथ आश्रम की गाड़ी थी। उसने तत्काल रामदयाल जी को उठाया। अभिमन्यु ने कहा… पिताजी मुझे बार-बार आना अब नहीं होगा। मैंने यह मकान बेच दिया है और आपकी व्यवस्था आपके जीते जी रहने के लिए अच्छे से अनाथ आश्रम में करवा दिया है।
नौकर का भी हिसाब कर पैसा और गांव में रहने की व्यवस्था कर दिया है। कल सुबह वह चला जाएगा।
और हां एक बात और मैंने… पंडित जी से कहकर आपका भी “श्राद्ध” करवा दिया है। अब किसी प्रकार के डरने की आवश्यकता नहीं है। आपकी मुक्ति हो जाएगी।
रामदयाल चश्मे को निकाल आँसू पोछते नौकर से बोले… चलो अच्छा हुआ जीते जी बेटे ने श्राद्ध कर मुझे मुक्ति दे दी।
अनाथ आश्रम के आदमी रामदयाल जी को बड़े आदर के साथ पकड़ कर अपनी गाड़ी की ओर ले चले। गरीब नौकर हैरान था ये कैसी “श्राद्ध से मुक्ति” ।
( डॉ निधि जैन जी भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “तुम सा मैं बन जाऊँ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 19 ☆
☆ तुम सा मैं बन जाऊँ ☆
हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,
तुम सा मैं चमक उठूं, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।
अंधकार के कितने बादल आये,
नीर की कितनी बारिश हो जाये,
रात की कितनी कलिमा छा जाये,
हे भास्कर, हे रवि, सारे अंधकार सारा नीर थम जाये,
तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।
हर दिन चन्द्रमा तारे, काली रात को दोस्त बनाकर सबका मन लुभाते हैं,
रात की कलिमा सब प्रेमियों का दिल लुभाते हैं,
ये रात झूठी हो जाये, सूरज की किरणें छूने की आस लगाये,
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है। सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “परिंदे। )
(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना एक काव्य संसार है । आप मराठी एवं हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता “हळदीचा लेप ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 63 ☆
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं राजभाषा दिवस के अवसर पर आपके अप्रतिम दोहे ..संदर्भ हिंदी। )
(सुदूर उत्तर -पूर्व भारत की प्रख्यात लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में राजभाषा दिवस पर प्रस्तुत है हमारे उत्तर पूर्व में स्थित असम की आधिकारिक भाषा का ज्ञानवर्धक इतिहास असमिया भाषा का इतिहास।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री निशा नंदिनी जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना #65 ☆
☆ राजभाषा दिवस विशेष – असमिया भाषा का इतिहास ☆
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की श्रृंखला में पूर्वी सीमा पर अवस्थित असम की भाषा को असमी,असमिया अथवा आसामीकहा जाता है।असमिया भारत के असम प्रांत की आधिकारिक भाषा तथा असम में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है। इसको बोलने वालों की संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक है।
भाषाई परिवार की दृष्टि से इसका संबंध आर्य भाषा परिवार से है। बांग्ला, मैथिली, उड़िया और नेपाली से इसका निकट का संबंध है। गियर्सन के वर्गीकरण की दृष्टि से यह बाहरी उपशाखा के पूर्वी समुदाय की भाषा है। सुनीतिकुमार चटर्जी के वर्गीकरण में प्राच्य समुदाय में इसका स्थान है। उड़िया तथा बंगला की भांति असमी की भी उत्पत्ति प्राकृत तथा अपभ्रंश से ही हुई है।
यद्यपि असमिया भाषा की उत्पत्ति सत्रहवीं शताब्दी से मानी जाती है। किंतु साहित्यिक अभिरुचियों का प्रदर्शन तेरहवीं शताब्दी में रुद्र कंदलि के द्रोण पर्व (महाभारत) तथा माधव कंदलि के रामायण से प्रारंभ हुआ। वैष्णवी आंदोलन ने प्रांतीय साहित्य को बल दिया।शंकर देव (1449-1567) ने अपनी लंबी जीवन-यात्रा में इस आंदोलन को स्वरचित काव्य, नाट्य व गीतों से जीवित रखा।
सीमा की दृष्टि से असमिया क्षेत्र के पश्चिम में बंगला है। अन्य दिशाओं में कई विभिन्न परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें से तिब्बती, बर्मी तथा खासी प्रमुख हैं। इन सीमावर्ती भाषाओं का गहरा प्रभाव असमिया की मूल प्रकृति में देखा जा सकता है।असमिया एकमात्र बोली नहीं हैं। यह प्रमुखतः मैदानों की भाषा है।
बहुत दिनों तक असमिया को बंगला की एक उपबोली सिद्ध करने का उपक्रम होता रहा है। असमिया की तुलना में बंगला भाषा और साहित्य के बहुमुखी प्रसार को देखकर ही लोग इस प्रकार की धारण बनाते रहे हैं। परंतु भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि से बंगला और असमिया का समानांतर विकास आसानी से देखा जा सकता है। मागधी अपभ्रंश के एक ही स्रोत से निःसृत होने के कारण दोनों में समानताएँ हो सकती हैं। पर उनके आधार पर एक दूसरे की बोली सिद्ध नहीं किया जा सकता।
क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से असमिया के कई उपरूप मिलते हैं। इनमें से दो मुख्य हैं- पूर्वी रूप और पश्चिमी रूप। साहित्यिक प्रयोग की दृष्टि से पूर्वी रूप को ही मानक माना जाता है। पूर्वी की अपेक्षा पश्चिमी रूप में बोलीगत विभिन्नताएँ अधिक हैं। असमिया के इन दो मुख्य रूपों में ध्वनि, व्याकरण तथा शब्दसमूह, इन तीनों ही दृष्टियों से अंतर मिलते हैं। असमिया के शब्दसमूह में संस्कृत तत्सम, तद्भव तथा देशज के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं के शब्द भी मिलते हैं। अनार्य भाषा परिवारों से गृहीत शब्दों की संख्या भी कम नहीं है। भाषा में सामान्यत: तद्भव शब्दों की प्रधानता है। हिंदी उर्दू के माध्यम से फारसी, अरबी तथा पुर्तगाली और कुछ अन्य यूरोपीय भाषाओं के भी शब्द आ गए हैं।
भारतीय आर्यभाषाओं की श्रृंखला में पूर्वी सीमा पर स्थित होने के कारण असमिया कई अनार्य भाषा परिवारों से घिरी हुई है। इस स्तर पर सीमावर्ती भाषा होने के कारण उसके शब्द समूह में अनार्य भाषाओं के कई स्रोतों के लिए हुए शब्द मिलते हैं। इन स्रोतों में से तीन अपेक्षाकृत अधिक मुख्य हैं-
(१) ऑस्ट्रो-एशियाटिक – खासी, कोलारी, मलायन
(२) तिब्बती-बर्मी-बोडो
(३) थाई-अहोम
शब्द समूह की इस मिश्रित स्थिति के प्रसंग में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि खासी, बोडो तथा थाई तत्व तो असमिया में उधार लिए गए हैं। पर मलायन और कोलारी तत्वों का मिश्रण इन भाषाओं के मूलाधार के पास्परिक मिश्रण के फलस्वरूप है। अनार्य भाषाओं के प्रभाव को असम के अनेक स्थान नामों में भी देखा जा सकता है। ऑस्ट्रिक, बोडो तथा अहोम के बहुत से स्थान नाम ग्रामों, नगरों तथा नदियों के नामकरण की पृष्ठभूमि में मिलते हैं। अहोम के स्थान नाम प्रमुखत: नदियों को दिए गए नामों में हैं।
असमिया लिपि मूलत: ब्राह्मी का ही एक विकसित रूप है। बंगला से उसकी निकट समानता है। लिपि का प्राचीनतम उपलब्ध रूप भास्कर वर्मन का 610 ई. का ताम्रपत्र है। परंतु उसके बाद से आधुनिक रूप तक लिपि में “नागरी” के माध्यम से कई प्रकार के परिवर्तन हुए हैं।
असमिया भाषा का व्यवस्थित रूप 13वीं तथा 14वीं शताब्दी से मिलने पर भी उसका पूर्वरूप बौद्ध सिद्धों के “चर्यापद” में देखा जा सकता है। “चर्यापद” का समय विद्वानों ने ईसवी सन् 600 से 1000 के बीच स्थिर किया है। दोहों के लेखक सिद्धों में से कुछ का तो कामरूप प्रदेश से घनिष्ट संबंध था। “चर्यापद” के समय से 12वीं शताब्दी तक असमी भाषा में कई प्रकार के मौखिक साहित्य का सृजन हुआ था। मणिकोंवर-फुलकोंवर-गीत, डाकवचन, तंत्र मंत्र आदि इस मौखिक साहिय के कुछ रूप हैं।
असमिया भाषा का पूर्ववर्ती रूप अपभ्रंश मिश्रित बोली से भिन्न रूप प्राय: 18वीं शताब्दी से स्पष्ट होता है। भाषागत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए असमिया के विकास के तीन काल माने जा सकते हैं।
14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी के अंत तक। इस काल को फिर दो युगों में विभक्त किया जा सकता है। पहला वैष्णव-पूर्व युग दूसरा वैष्णव युग। इस युग के सभी लेखकों में भाषा का अपना स्वाभाविक रूप निखर आया है। यद्यपि कुछ प्राचीन प्रभावों से वह सर्वथा मुक्त नहीं हो सकी है। व्याकरण की दृष्टि से भाषा में पर्याप्त एकरूपता नहीं मिलती। परंतु असमिया के प्रथम महत्वूपर्ण लेखक शंकरदेव (जन्म-1449) की भाषा में ये त्रुटियाँ नहीं मिलती हैं। वैष्णव-पूर्व-युग की भाषा की अव्यवस्था यहाँ समाप्त हो जाती है। शंकरदेव की रचनाओं में ब्रजबुलि प्रयोगों का बाहुल्य है।
17वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक। इस युग में अहोम राजाओं के दरबार की गद्यभाषा का रूप प्रधान है। इन गद्य कर्ताओं को बुरंजी कहा गया है। बुरंजी साहित्य में इतिहास लेखन की प्रारंभिक स्थिति के दर्शन होते हैं। प्रवृत्ति की दृष्टि से यह पूर्ववर्ती धार्मिक साहित्य से भिन्न है। बुरंजियों की भाषा आधुनिक रूप के अधिक निकट है।
19वीं शताब्दी के प्रारंभ से। 1819 ई. में अमरीकी बप्तिस्त पादरियों द्वारा प्रकाशित असमीया गद्य में बाइबिल के अनुवाद से आधुनिक असमीया का काल प्रारंभ होता है। मिशन का केंद्र पूर्वी आसाम में होने के कारण उसकी भाषा में पूर्वी आसाम की बोली को ही आधार माना गया। 1846 ई. में मिशन द्वारा एक मासिक पत्र “अरुणोदय” प्रकाशित किया गया। 1848 में असमीया का प्रथम व्याकरण छपा और 1867 में प्रथम असमीया अंग्रेजी शब्दकोश तैयार हुआ। श्रीमन्त शंकरदेव असमिया भाषा के अत्यंत प्रसिद्ध कवि, नाटककार तथा हिन्दू समाज सुधारक थे।
असमीया की पारंपरिक कविता उच्चवर्ग तक ही सीमित थी। भट्टदेव (1558-1638) ने असमिया गद्य साहित्य को सुगठित रूप प्रदान किया। दामोदरदेव ने प्रमुख जीवनियाँ लिखीं। पुरुषोत्तम ठाकुर ने व्याकरण पर काम किया। अठारहवी शती के तीन दशक तक साहित्य में विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं दिए। उसके बाद चालीस वर्षों तक असमिया साहित्य पर बांग्ला का वर्चस्व बना रहा। असमिया को जीवन प्रदान करने में चन्द्र कुमार अग्रवाल (1858-1938), लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा (1867-1838) व हेमचन्द्र गोस्वामी (1872-1928) का योगदान रहा। असमीया में छायावादी आंदोलन छेड़ने वाली मासिक पत्रिका जोनाकी का प्रारंभ इन्हीं लोगों ने किया था। उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यासकार पद्मनाभ गोहाञिबरुवा और रजनीकान्त बरदलै ने ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। सामाजिक उपन्यास के क्षेत्र में देवाचन्द्र तालुकदार व बीना बरुवा का नाम प्रमुखता से आता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य को मृत्यंजय उपन्यास के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस भाषा में क्षेत्रीय व जीवनी रूप में भी बहुत से उपन्यास लिखे गए हैं। 40वें व 50वें दशक की कविताएँ व गद्य मार्क्सवादी विचारधारा से भी प्रभावित दिखाई देती है।
अहोम वंश की मुद्रा जिस पर असमिया लिपि में लिखा गया है। असमिया लिपि ‘पूर्वी नागरी’ का एक रूप है जो असमिया के साथ-साथ बांग्ला और विष्णुपुरिया मणिपुरी को लिखने के लिये प्रयोग की जाती है। केवल तीन वर्णों को छोड़कर शेष सभी वर्ण बांग्ला में भी ज्यों-के-त्यों प्रयुक्त होते हैं। ये तीन वर्ण हैं- ৰ (र), ৱ (व) और ক্ষ (क्ष)।
इस तरह असमिया भाषा का इतिहास बहुत प्राचीन और विस्तृत है।
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “कबीर पूछ रहे …..”। )