(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं राजभाषा दिवस के अवसर पर आपके अप्रतिम दोहे । )
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना “ सबको जाना ही है”। )
आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत हैं मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा “ तुरपाई ”। निःस्वार्थ सेवा /सहयोग का फल ईश्वर आपको कब देंगे आप नहीं जानते। एक भावप्रवण एवं सुखान्त लघुकथा । इस सार्थक एवं भावनात्मक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 64 ☆
☆ लघुकथा – तुरपाई ☆
गांव में एक अनाथ बच्चा ‘तरुण’। घूम – घूम कर माँग कर खाता था। पता नहीं कब और कहाँ से आया। छोटा सा था और सब की बातें सुनता रहता था।
बस्ती में एक एक घर उसे पहचानने लगे थे। धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। अब वह कभी-कभी किसी का काम कर देता था और जो मिल जाता था खाकर अपना गुजारा करता। जहां नींद लगता एक पट्टी डाल सो जाया करता था।
गांव में एक दर्जी जिनके पास अपना कहने को कोई नहीं और संपत्ति के नाम पर कहने को कुछ भी नहीं था। एक सिलाई मशीन और टूटी फूटी झोपड़ी जो उन्होंने एक पेड़ और खंभे की आड़ से बना रखा था। जिसमें मशीन रखकर हर समय फटा पुराना सीते हुए दिखाई देते थे।
कभी-कभी तरुण वहीं पर आकर बैठता और कहता… बाबा मुझे कुछ बनना है कुछ काम सिखा दो। यहाँ पर कोई मुझे काम देना नहीं चाहता। दर्जी के मन में रोज सुनते सुनते दया की भावना उमड़ उठी। उन्होंने कहा.. चल मेरे भी कोई नहीं है और तू भी अनाथ है।
आज से तू और मैं एक नया काम करते हैं “रिश्तो की तुरपाई” तेरा भी कोई नहीं और मुझे भी एक सहारा चाहिए। फटे पुराने कपड़ों पर तरुण धीरे-धीरे तुरपाई का काम करने लगा।
मन में स्कूल जाने की चाहत हुई उसने कहा बाबा मुझे स्कूल जाना है। उन्होंने कहा.. चला जा और पढ़ाई कर धीरे-धीरे वह पढ़ाई से आगे बढ़ने लगा। गरीब जान सरकारी स्कूल से फीस माफ हो गई। उसे पढ़ने के लिए बाहर जाना पड़ा।
दर्जी ने सोचा चला गया। चलो अच्छा है जीवन सुधर जाएगा उसका। उसकी अपनी जिंदगी है।
कुछ वर्षों में सब भूल जाएगा।
वर्षों बाद एक दिन अचानक एक बार गाँव में अतिक्रमण हटाओ के अंतर्गत सभी झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ा जा रहा था। सयाने हो चुके दर्जी परेशान हो इधर उधर भागने लगे और गिड़गिड़ा कर कहने लगे.. अब इस उमर में मैं कहाँ जाऊँगा। मुझे यहीं रहने दो मेरी जिंदगी कितनी बची है। परंतु उसमें से कुछ आदमी निकलकर सारा सामान गाड़ी में भरने लगे और कहने लगे अब तुम्हें यहाँ नहीं रहना है साहब का आदेश है। डरकर दर्जी एक किनारे खड़ा हो गया। तुम्हें जहां छोड़ना है चलो गाड़ी में बैठो।
असहाय दर्जी अपने टूटे फूटे सामान और एक सिलाई मशीन की लालच में गाड़ी में बैठ गया।
गाड़ी एक दुकान के पास जाकर रुक गई। दर्जी ने सोचा यहाँ पर क्यों रुक गए? चश्मे से देखा दुकान के बोर्ड पर लिखा हुआ था “तुरपाई घर”। उसे समझते देर नहीं लगी। हाँफते हुए इधर – उधर देख अपने तरुण की खोज करने लगा। तरुण भी वहाँ बाहें फैला अपने रिश्ते को समेटने के लिए बेताब खड़ा था। आज सचमुच तुरपाई से भरपाई हो गई। दोनों ने गले लग जी भर कर रोया। सभी कर्मचारी कभी फटे हाल दर्जी और कभी अपने साहब को देख रहे थे। उनका आदेश था एक-एक सामान को संभाल कर दुकान पर लगा दिया जाए।
(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना एक काव्य संसार है । आप मराठी एवं हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता “सुगंधाचा तोरा”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 64 ☆
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “पीली महकती यह सुबह …..”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की अगली कड़ी में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का एक सटीक व्यंग्य एक श्वान के वेदनामय स्वर। )
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 62 ☆
☆ व्यंग्य – एक श्वान के वेदनामय स्वर ☆
थैंक्यू आदरणीय जी…आपने अपने ‘मन की बात’ में देशी श्वानों को मान सम्मान देते हुए राष्ट्र के हर नागरिक को प्रेरणा दी कि वे देशी श्वान पालें, क्योंकि देशी श्वान पालने का खर्च भी कम बैठता है। आप महान हैं, ‘सबका साथ सबका विकास’ वाले व्यक्तित्व हैं और सबके अच्छे दिन लाने में आपका अटूट विश्वास है। हम सब देशी श्वान आपकी दिल से तारीफ करते हुए आपको धन्यवाद देते हैं। अभी तक हमने दुनिया में ऐसा प्रधानमंत्री नहीं देखा जैसे आप हो, इसीलिए हम सब श्वान गौरव महसूस कर रहें हैं। अधिकांश प्रधानमंत्री विदेशी कुत्ता पालने में विश्वास करते हैं एक अकेले आप ऐसे हैं जो देसी कुत्ता पालने की सलाह देते हैं, और देशी श्वानों के अच्छे दिन लाने जैसे प्रयास करते हैं। हर पल आप तरह-तरह से नये रिकॉर्ड बना देते हैं। आप में विश्व गुरु बनने के सारे गुण हैं। आप हमारे माई बाप हैं जो हमारा इतना ध्यान रखते हैं, और हमारा महत्त्व समझते हैं वरन् पिछले सत्तर सालों से यहां का हर नागरिक हमें पत्थर मारता रहा और विदेशी कुत्ता पालता रहा।आप खुद सोचिए कि पूरे देश में विदेशी श्वान पालने में सत्तर साल में कितने करोड़ अरबों रुपए खर्च हो गए होंगे,इतने रुपयों में तो पूरी गरीबी दूर हो जाती और सबको रोजगार मिल जाता।आप तो अच्छे से जानते हैं कि विदेशी श्वानों के कितने नखरे होते हैं चाहे वो चीन का श्वान हो, चाहे कहीं और का…..।
आप क्रांतिकारी प्रधानमंत्री हैं, विश्व गुरु बनने की तैयारी में हैं इसलिए ऐसे विस्फोटक निर्णय लेने में आपका जबाव नहीं। आपने मन की बात में श्वानों के साहस और देशभक्ति की जो तारीफ की,उसी दिन से देश भर के गली गली मोहल्लों में अब लड़के और शराबी देशी श्वानों को पत्थर मारने में संकोच करने लगे हैं, आप सही में गजब के आदमी हैं, इसीलिए हम लोग भी हर गली मोहल्लों में शेर जैसा सिर उठाकर घूमने लगे हैं और कोई सफेद कपड़े वाला ‘हाथ’ दिखाता है तो हम गुर्राने में संकोच नहीं करते हैं। सच्ची बात तो जे है कि अब विदेशी कुत्ते वाले मालिक हमसे जलने लगे हैं। पहले जब विदेशी कुत्ते लघुशंका और दीर्घ शंका के लिए सड़क पर आते थे तो उनका मालिक हमारे ऊपर पत्थर मारता था हालांकि विदेशी कुतिया हमें देखकर पूंछ हिलाती थी पर मालिक का अहंकार आड़े आ जाता था, विदेशी कुतिया को देखकर हम ललचाते भी थे। भाई गजब हुआ एक ही दिन से गजब का क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिला कि अब बड़े बंगलों की मेडमे भी बड़े प्यार से बुलाकर हमें रोटी खिलाने लगीं हैं, अब वे सब हमें स्ट्रीट डाग कहने में संकोच करने लगीं हैं, चूंकि यह देशी श्वान पालने की सलाह राष्ट्रीय स्तर से दी गई है इसीलिए देश के हर नागरिक का मूड देशी नस्ल का श्वान पालने का बन गया है,हर फील्ड में हमें आत्मनिर्भर बनना है।
हमें आपको बताने में थोड़ा संकोच हो रहा है पर बताना भी जरूरी है कि पिछले बहुत सालों से देश में चल रहे श्वान नसबंदी कार्यक्रम से हमारी जनसंख्या घटती जा रही है। देश का करोड़ों अरबों रुपया श्वानों के बधियाकरण के काम में लगे लोग लूट रहे हैं।हर नगरनिगम और नगरपालिका में श्वानों के बधियाकरण के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। एक शहर में तो … एक बड़े अधिकारी की मेडम ने जुगाड़ लगाकर बधियाकरण का ठेका लिया और पिछले दो साल में बधियाकरण के नाम पर टुकड़े टुकड़े में दो करोड़ रुपए के बिल पास करा चुकी है,हर अधिकारी, महापौर, मंत्री के पास प्रर्याप्त कमीशन पहुंचा दिया जाता है और एक मंत्री जी को तो मेडम ने गिफ्ट में झबरा विदेशी कुत्ता भी दिया है।
सर जी, ये मेडम हम देशी श्वानों की नसबंदी बेरहम तरीके से कराती है जिससे हमारे भाई लोगो की मौत भी हो जाती है। इस मेडम ने एक खण्डहरनुमा कमरा किराए पर लिया है जिसकी छत जर्जर और दरवाजे टूटे हुए हैं, बारिश के रिसते पानी में जंग लगे औजारों व अव्यवस्थाओं के बीच हमारे श्वान भाईयों बहनों की नसबंदी करवाती है, इसी जानलेवा तरीके के चलते कुछ सालों से हमारे बहुत से श्वान भाई बहनों की जान जा चुकी है, कुल मिलाकर नसबंदी की आड़ में जमकर कमाई की जाती है, आम जनता को इस बात का पता न चले इसलिए मेडम स्थानीय पत्रकारों और चैनल वालों को भी भरपूर खुश रखती है, और ये शायद सब जगह ऐसा ही हो रहा होगा।
आपको यह बताते हुए हम सब देशी श्वानों को शर्म आ रही है कि नसबंदी वाले जर्जर कमरे के बाहर श्वानों की नसबंदी करने की आदर्श गाइड लाइन का बोर्ड लगा है जिसमें लिखा है कि श्वानों की नसबंदी कैसे की जानी चाहिए और इसमें क्या क्या सावधानियां बरती जानी चाहिए, साथ में लाल बड़े अक्षरों से लिखा है कि गाइड लाइन का सख्ती से पालन होना चाहिए। सर जी गाइड लाइन में तो ये भी लिखा है कि श्वानों की नसबंदी के लिए एक स्वच्छ विकसित आपरेशन थियेटर एवं कुशल चिकित्सक भी होना चाहिए। आपरेशन के बाद श्वनों के आराम करने के लिए एक बढ़िया सेपरेट कमरा होना चाहिए उनके खाने-पीने का बढ़िया इंतजाम होना चाहिए, जगह भी साफ-सुथरी होना चाहिए ताकि आपरेशन के दौरान या बाद में श्वानों को इंफेक्शन न हो, लेकिन यहां तो सब उल्टा-पुल्टा है, एक गन्दे कमरे में सिवाय गंदगी के अलावा कुछ नहीं है।
सर जी हम श्वानों को इस बात का भी दुख है कि बधियाकरण के नाम पर हमारे स्वस्थ भाई-बहनों को भी पकड़कर इस कमरे में बीमार बना दिया जाता है। बड़े बड़े बंगलों में राज कर रहे विदेशी श्वानों का कभी बधियाकरण नहीं किया जाता, क्योंकि बाजार में उनकी संतानों को मुंह मांगे दाम पर लिया जाता है। सर जी आपने हम देशी श्ववानों पर विश्वास कर हमारी जाति पर बड़ा उपकार किया है, आपने अपने अनुभव से पूंछ हिलाते आदमीनुमा श्वानों को भी देखा है इसका हम सबको गर्व है।
आदरणीय जी, कृपया एक छोटा सा निर्णय और ले लेते तो देश का बड़ा भला हो जाता,यह कि विदेशी श्वानों के पालन पोषण पर प्रतिबंध लग जाता और देशी श्वानों के बधियाकरण पर रोक लग जाती, ताकि हमारी जाति के लोग आसानी से हर जगह उपलब्ध हो जाते। आदरणीय जी आपने हमारे वेदनामय स्वरों को धैर्य और संयम से सुना और मन की बात में हम श्वानों को मान दिया, इसके लिए आपका दिल से शुक्रिया।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है। सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “कोरोना का कहर“)
(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “निंदक … ”)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है एक सार्थक व्यंग्य ‘उनकी यादों में हम’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान परिवेश में महत्वाकांक्षा की पराकाष्ठा और मानवीय व्यवहार पर उसके प्रभाव पर तीक्ष्ण प्रहार किया है। इस सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 65 ☆
☆ व्यंग्य – उनकी यादों में हम ☆
वे मेरे पुराने मित्र थे। एकाएक उन्हें अन्यत्र एक स्वर्णिम अवसर मिला और वे ‘निष्ठुर परदेसी’ की तरह हमारे शहर के प्यार की अवहेलना करते हुए नये सूरज की तलाश में चले गये। बीच बीच में पता चलता रहा कि वे स्थितियों को अपने पक्ष में करते, ‘लफड़ों’ से बचते, अपनी प्रगति का मार्ग साफ कर रहे हैं और मुस्तकिलमिजाज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। मनुष्य सभी देवताओं को फूल-प्रसाद चढ़ाता जाए,कभी किसी देवता को रुष्ट न करे,तो इस असार संसार में विकास के द्वार स्वतः खुलते जाते हैं।
बीच बीच में पता चलता था कि वे काम-काज से हमारे शहर आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन वे मेरे घर कभी नहीं आये, न मुझे कभी संदेसा भेजा। उनके आने और इस तरह चले जाने की खबर पाकर मैं दुखी होता रहा और वे मुझे बार बार दुखी करते रहे। कई बार सुना कि वे मेरे मुहल्ले तक आये और अपना कोई काम साधकर, हवाओं में अपनी खुशबू छोड़ते हुए चले गये। फूलों, पत्तों, मुहल्ले की गलियों और गलियों के कुत्तों ने उनके आने की खबर दी, लेकिन उन्होंने मेरे घर की तरफ रुख़ नहीं किया, न मुझे याद किया।
फिर उड़ती खबरें मिलीं कि उनकी प्रतिभा और निखरी है तथा वे शिक्षा मंत्री की माकूल सेवा करके किसी सरकारी अकादमी के अध्यक्ष बन गये हैं। उसके बाद एक दिन एक लंबा-चौड़ा लिफाफा मेरे घर में गिरा। खोल कर देखा, वह उसी अकादमी के एक कार्यक्रम की सूचना थी जिसमें मुझे ‘शोभा बढ़ाने’ के लिए आमंत्रित किया गया था। अध्यक्ष के पद के ऊपर मित्र महोदय का नाम अंकित था।
बड़ी देर तक सोचता रहा कि इस सरकारी अकादमी को मेरे जैसे मामूली आदमियों की याद कैसे आयी। हम तो अपने शहर में भी ‘शोभा बढ़ाने’ के काबिल नहीं समझे जाते,तो शहर के बाहर वालों को हमसे यह उम्मीद कैसी? सोचते सोचते ज्ञान का विस्फोट हुआ कि यह कोई आमंत्रण नहीं था, यह तो केवल सूचना थी कि हर आमोख़ास को मालूम हो कि हमारे मित्र अकादमी की बुलन्द कुर्सी पर बैठ चुके हैं और इस देश के गली-नुक्कड़ में बैठे उनके भूले-बिसरे परिचितों का फर्ज़ बनता है कि उन्हें अपनी बधाई भेजें।
लिफाफे में फिर से झाँक कर देखा तो उसमें एक पत्र भी था। पत्र अकादमी के पैड पर था जिसमें बड़े अक्षरों में अध्यक्ष का नाम था, और बाकायदा पत्र- क्रमांक आदि अंकित था। पत्र में लिखा था कि उन्हें अध्यक्ष के पद पर बैठा कर फालतू झंझट में डाल दिया गया है। उन्हें पुराने मित्रों की बहुत याद आती है और उनसे मिलने का बड़ा मन करता है। मेरे लिए अनुरोध था कि जब भी उनके शहर जाऊँ, उनसे मिलना न भूलूँ। पत्र में उन दिनों को याद किया गया था जब कभी हम शाम को सदर बाज़ार में आवारागर्दी करते थे और पुलिया पर बैठकर मूँगफली चटकाते थे। काफी मार्मिक पत्र था।
मैंने बधाई भेजकर उनकी जयजयकार करने का फर्ज़ पूरा किया। पत्र में उन्हें लिखा कि उनके अध्यक्ष बनने से मेरे जैसे उनके सभी मित्र खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं और हम दिन-रात पालथी मारकर ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे इसी तरह नयी बुलन्दियाँ छूते रहें और हम मित्रों को उन पर गर्व करने का मौका देते रहें।
इसके बाद उनका पत्र तो नहीं आया, लेकिन कार्यक्रमों के कार्ड बराबर आते रहे। अपने खर्चे पर कहीं जाने से, पहले अपनी शोभा बिगड़ जाती है, इसलिए मैं उनके कार्यक्रमों की शोभा नहीं बढ़ा पाया।
एक बार उनके शहर जाने का मौका मिला। उनके कार्यालय गया। वे अपने पूरे गौरव के साथ उपस्थित थे। मुझसे ऐसे गले मिले जैसे शायद सुदामा से कृष्ण से भी न मिले हों। इतनी देर तक मुझे भींचे रहे कि मुझे घबराहट होने लगी। छूटा तो तीन चार लंबी सांसें लेकर सामान्य हुआ। उन्होंने अपने सचिव को बुलवाया, मेरे लिए चाय मंगायी। बड़ी देर तक पुराने दिनों और पुराने मित्रों को याद किया। बीच बीच में कहते रहे, ‘कहाँ फँस गया, यार!’
विदा लेते वक्त एक बार फिर मुझे भींचकर बड़ी देर तक मेरे कंधे पर सिर धरे रहे। फिर चपरासी के हाथ से मेरा ब्रीफ़केस बाहर भिजवाकर सरकारी कार से मुझे गंतव्य तक पहुँचाया।
इस प्रेम-मिलन के कुछ दिन बाद सरकार बदल गयी और, जैसा कि होता है, सभी राजनीतिक नियुक्तियों पर झाड़ू मार दी गयी। पता चला कि मेरे मित्र भी इस सफाई अभियान में बुहार दिये गये। उसके बाद उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिली।
कुछ दिन बाद फिर शहर के फूलों पत्तों और हवा में सरगोशियाँ शुरू हुईं कि वे आते और जाते रहते हैं, लेकिन उन्होंने मुझे कभी अपने आने की सूचना नहीं दी। एक बार वे एक कार की अगली सीट पर बैठे हुए धीमी रफ़्तार से मेरी बगल से गुज़रे। उन्हें देखकर मैंने प्रसन्नता दिखाते हुए दाँत निकाले, लेकिन वे मुझे ऐसे देखते हुए निकल गये जैसे मैं पारदर्शी काँच का बना हूँ।
एक दिन एक मित्र ने बताया कि वे एक ‘ज़रूरी’ काम से उसके घर पधारे थे और चूँकि ‘काम’ था, इसलिए बड़ी देर तक आत्मीयता के साथ उसके घर में बैठे थे। उसने बताया कि बातचीत में कहीं मेरा ज़िक्र आया था, लेकिन उन्होंने माथे पर बल देकर कहा था, ‘उन्हें जानता तो हूँ, लेकिन कोई खास परिचय नहीं है।’