हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #272 ☆ चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 272 ☆

चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ… ☆

‘चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें आत्म-साक्षात्कार कराने आती हैं कि हम कहाँ हैं? तूफ़ान हमारी कमज़ोरियों पर प्रहार करते हैं। फलत: हमें अपनी असल शक्ति का आभास होता है’ उपरोक्त पंक्तियाँ रोय टी बेनेट की प्रेरक पुस्तक ‘दी लाइट इन दी हार्ट’ से उद्धृत है। जीवन में चुनौतियाँ हमें अपनी सुप्त शक्तियों से अवगत कराती हैं कि हम में कितना साहस व उत्साह संचित है? हम उस स्थिति में प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने में कितने सक्षम हैं? जब हमारी कश्ती तूफ़ान में फंस जाती व हिचकोले खाती है; वह हमें भंवर से मुक्ति पाने की राह भी दर्शाती है। वास्तव में भीषण आपदाओं के समय हम वे सब कर गुज़रते हैं, जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की होती।

सो! चुनौतियाँ, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, तूफ़ान व सुनामी की विपरीत व गगनचुंबी लहरें हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों प्रबल इच्छा-शक्ति, दृढ़-संकल्प व आत्मविश्वास का एहसास दिलाती हैं; जो सहसा प्रकट होकर हमें उस परिस्थिति व मन:स्थिति से मुक्त कराने में रामबाण सिद्ध होती हैं। परिणामतः हमारी डूबती नैया साहिल तक पहुंच जाती है। इस प्रकार चिंता नहीं, सतर्कता इसका समाधान है। नकारात्मक सोच हमारे मन में भय व शंका का भाव उत्पन्न करती है, जो तनाव व अवसाद की जनक है। यह हमें हतोत्साहित कर नाउम्मीद करती है, जिससे हमारी सकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है और हम अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच सकते।

दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के अनुसार ‘हिम्मतवाला वह नहीं होता, जिसे डर नहीं लगता, बल्कि वह है; जिसने डर को जीत लिया है। सो! भय, डर व शंकाओं से मुक्त प्राणी ही वास्तव में वीर है; साहसी है, क्योंकि वह भय पर विजय प्राप्त कर लेता है।’ इस संदर्भ में सोहनलाल द्विवेदी जी की यह पंक्तियां सटीक भासती हैं ‘लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती/ कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ यदि मानव अपनी नौका को सागर के गहरे जल में नहीं उतारेगा तो वह साहिल तक कैसे पहुंच पायेगा? मुझे स्मरण हो रही हैं वैज्ञानिक मेरी क्यूरी की वे पंक्तियां ‘जीवन देखने के लिए नहीं; समझने के लिए है। सकारात्मक संकल्प से ही हम मुश्किलों से बाहर निकल सकते हैं’– अद्भुत् व प्रेरक है कि हमें प्रतिकूल परिस्थितियों व चुनौतियों से डरने की आवश्यकता नहीं है; उन्हें समझने की दरक़ार है। यदि हम उन्हें समझ लेंगे तथा उनका विश्लेषण करेंगे तो हम उन आपदाओं पर विजय अवश्य प्राप्त कर लेंगे। सकारात्मक सोच व दृढ़-संकल्प से हम पथ-विचलित नहीं हो सकते और मुश्किलों से आसानी से बाहर निकल सकते हैं। यदि हम उन्हें समझ कर, सूझबूझ से उनका सांगोपांग विश्लेशण करेंगे; हम उन भीषण आपदाओं पर विजय प्राप्त कर सकेंगे।

यदि हमारे अंतर्मन में सकारात्मकता व दृढ़-संकल्प निहित है तो हम विषम परिस्थितियों में भी विचलित नहीं हो सकते। इसके लिए आवश्यकता है सुसंस्कारों की, घर-परिवार की, स्वस्थ रिश्तों की, स्नेह-सौहार्द की, समन्वय व सामंजस्य की और यही जीवन का मूलाधार है। समाजसेवी नवीन गुलिया के मतानुसार ‘सागर की हवाएं एवं संसार का कालचक्र हमारी इच्छानुसार नहीं चलते, किंतु अपने समुद्री जहाज रूपी जीवन के पलों का बहती हवा के अनुसार उचित उपयोग करके हम जीवन में सदैव अपनी इच्छित दिशा की ओर बढ़ सकते हैं।’ नियति का लिखा अटल होता है; उसे कोई नहीं टाल सकता और हवाओं के रुख को बदलना भी असंभव है। परंतु हम बहती हवा के झोंकों के अनुसार कार्य करके अपना मनचाहा प्राप्त कर सकते हैं। सो! हमें पारस्परिक फ़ासलों व मन-मुटाव को बढ़ने नहीं देना चाहिए। परिवार व दोस्त हमारे मार्गदर्शक ही नहीं; सहायक व प्रेरक के दायित्व का वहन करते हैं। परिवार वटवृक्ष है। यदि परिवार साथ है तो हम विषम परिस्थितियों का सामना कर सकते हैं। इसलिए उसका मज़बूत होना आवश्यक है। समाजशास्त्री कुमार सुरेश के अनुसार ‘परिवार हमारे मनोबल को बढ़ाता है; हर संकट का सामना करने की शक्ति प्रदान करता है; हमारे विश्वास व सामर्थ्य को कभी डिगने नहीं देता।’ जीवन शैली विशेषज्ञ रचना खन्ना सिंह कहती हैं कि ‘परिवार को मज़बूत बनाने के लिए हमें पारस्परिक मतभेदों को भूलना होगा; सकारात्मक चीज़ों पर फोक़स करना होगा तथा नकारात्मक बातों से दूर रहने का प्रयास करना होगा। यदि हम संबंधों को महत्व देंगे तो हमारा हर पल ख़ुशनुमा होगा। यदि बाहर युद्ध का वातावरण है, तनाव है और उन परिस्थितियों में नाव डूब रही है, तो सभी को परिवार की जीवन-रक्षक जैकेट पहनकर एक साथ बाहर निकालना होगा।’ पद्मश्री निवेदिता सिंह के विचार इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि संकल्प के साथ प्रार्थना करें ताकि वातावरण में सकारात्मक तरंगें आती रहें, क्योंकि इससे माहौल में नकारात्मकता के स्थान पर सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश पाती है और सभी दु:खों का स्वत: निवारण हो जाता है।

जीवन में यदि हम आसन्न तूफ़ानों के लिए पहले से सचेत रहते हैं; तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी पाते हैं। स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में ‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर समझते हो तो कमज़ोर हो जाओगे। यदि ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, ताकतवर हो जाओगे।’ सो हमारी सोच ही हमारे भाग्य को निधारित करती है। परंतु इसके लिए हमें वक्त की कीमत को पहचानना आवश्यक है। योगवशिष्ठ के अनुसार ‘संसार की कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे सत्कर्म एवं शुद्ध पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता।’

हमारा मस्तिष्क बचपन से ही चुनौतियों को समस्याएं मानना प्रारंभ करने लग जाता है और बड़े होने तक वे अवचेतन मन में इस प्रकार घर कर जाती हैं कि हम यह विचार ही नहीं कर पाते कि ‘यदि समस्याओं का अस्तित्व न होगा तो हमारी प्रगति कैसे संभव होगी? उस स्थिति में आय के स्रोत भी नहीं बढ़ेंगे।’ परंतु समस्या के साथ उसके समाधान भी जन्म ले चुके होते हैं। यदि सतही तौर पर सूझबूझ से समस्याओं से उलझा जाए; उन्हें सुलझाने से न केवल आनंद प्राप्त होगा, बल्कि गहन अनुभव भी प्राप्त होगा। नैपोलियन बोनापार्ट के शब्दों में ‘समस्याएं भय व डर से उत्पन्न होती हैं। यदि डर का स्थान विश्वास ले ले; तो वही समस्याएं अवसर बन जाती हैं। वे स्वयं समस्याओं का सामना विश्वास के साथ करते थे और उन्हें अवसर में बदल डालते थे। यदि कोई उनके सम्मुख समस्या का ज़िक्र करता था तो वे उसे बधाई देते हुए कहते थे कि आपके पास समस्या है; तो बड़ा अवसर आ पहुंचा है। अब इस अवसर को हाथों-हाथ लो और समस्या की कालिमा में सुनहरी लीक खींच दो।’ समस्या का हल हो जाने के पश्चात् व्यक्ति को मानसिक शांति, अर्थ व उपहार की प्राप्ति होती है और समस्या से भय समाप्त हो जाता है। वास्तव में ऐसा उपहार अर्थ व अवसर हैं, जो मानव की उन्नति में सहायक सिद्ध होते हैं।

चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें कमज़ोर बनाने नहीं; हमारा मनोबल बढ़ाने व सुप्त शक्तियों को जाग्रत करने को आती हैं। सो! उनका सहर्ष स्वागत-सत्कार करो; उनसे डर कर घबराओ नहीं, बल्कि उन्हें अवसर में बदल डालो और  डटकर सामना करो। इस संदर्भ में मदन मोहन मालवीय जी का यह कथन द्रष्टव्य है–’जब तक असफलता बिल्कुल छाती पर सवार न हो बैठे; दम न घोंट डाले; असफलता को स्वीकार मत करो।’ अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा स्वीकार कर आगे बढ़ता है।’ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का मत भी कुछ इसी प्रकार का है कि ‘यदि आप इस प्रतीक्षा में रहे कि लोग आकर आपकी मदद करेंगे, तो सदैव प्रतीक्षा करते रह जाओगे।’ भगवद्गीता में ‘कोई भी दु:ख संसार में इतना बड़ा नहीं है, जिसका कोई उपाय नहीं है।’  यदि मनुष्य जल्दी से पराजय स्वीकार न करके अपनी ओर से प्रयत्न करे, तो वह दु:खों पर आसानी से विजय प्राप्त कर सकता है। जब मन कमज़ोर होता है, परिस्थितियाँ समस्याएं बन जाती हैं; जब मन स्थिर होता है, चुनौती बन जाती हैं और जब मन मज़बूत होता है; वे अवसर बन जाती हैं। ‘हालात सिखाते हैं बातें सुनना/ वरना हर शख़्स फ़ितरत से/ बादशाह होता है।’ इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #45 – नवगीत – कहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’  ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम नवगीतकहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ

? रचना संसार # 45 ☆

नवगीत – कहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 

उदासीन मन मूक हैं सब दिशाएँ।

कहें क्या सभी आज अपनी व्यथाएँ।।

 *

धुआं चिमनियों से निकलने लगा है।

लपट आग की है हृदय में दगा है।।

बिके खेत सारे न चुकता उधारी।

हुए बंधुआ पर न भरती तगारी।।

कटी शाख बरगद तड़पती लताएँ।

 *

बुने जाल मकड़ी समाधान कैसा।

शपथ भूलते सत्य भगवान पैसा।।

हिरण काँपते अब सजी हैं मचानें।

मुनादी हुई बंद हैं सब दुकानें।।

हुए आज लाचार हैं आपदाएँ।

 *

समाधान कैसा करे काँव कागा।

विदेशी चलन है स्वदेशी न जागा।।

बिना पंख उड़ने चली देख मैना।

क्षितिज से गिरी रो रहे खूब नैना।।

परीक्षा घड़ी मौन हैं सब शिलाएँ

 *

न गंगा बची है न यमुना नदी भी।

बहे मैल नित मौन नव ये सदी भी।।

शरद रश्मियों के छिपे हैं उजाले।

बहुत भूख हैं पर न मिलते निवाले।।

चले चूर मद देख पछुआ हवाएँ।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #272 ☆ भावना के दोहे – ग्रीष्म-वर्षा ऋतु ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – ग्रीष्म-वर्षा ऋतु)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 272 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – ग्रीष्म-वर्षा ऋतु ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

पंछी मन -मन डोलता, आ जाओ प्रिय पास।

चैन नहीं है रात दिन, बीत रहा  मधुमास।।

*

तेवर देखो ग्रीष्म के, जीवों से संग्राम।

बढ़ते उसके पाँव है, मिले नहीं आराम।।

*

कहे चिरैया सुन अभी, मेरे मन की बात।

जगह – जगह पर बाज है, रहें कहाँ दिन रात।।

*

कहते जिसको भारत ये, गौरैया का देश।

गौरैया दिखती नहीं, नहीं बचा अवशेष।।

*

 देखे पोखर राह तो, आए बारिश शाम।

प्रभु! अब बरखा कीजिए, दुष्कर जल बिन काम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #254 ☆ बुंदेली पूर्णिका – सच्चाई को तुम झुठला रये का हुई है… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है बुंदेली पूर्णिका – सच्चाई को तुम झुठला रये का हुई है आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 254 ☆

☆ बुंदेली पूर्णिका – सच्चाई को तुम झुठला रये का हुई है☆ श्री संतोष नेमा ☆

बात जरा सी समझ ने पा रये का हुई है

सच्चाई  को  तुम  झुठला  रये का हुई है

*

आपहिं आप  खूब फेंक  रये  झूठी  सच्ची

झूठ  बोल  खें आँख  दिखा  रये का हुई है

*

कभू   कोउ   की  मदद  करी  ने तुमने भैया

बेमतलब   एहसान   जता   रये  का हुई है

*

कर्जा   बनिया  को   मूढ़े   धरत  फ़िरत  हो

कै  कै  थक  गए  कहां  पटा  रए  का  हुई है

*

सीधी गैल कभू  ने चल ख़ें तुम हो आए

अब  काहे  खो  तुम  चिल्ला  रए का हुई है

*

पी  लओ  खूब   घाट- घाट  को  तुमने पानी

खुद  को  घाट  खुदई  बिसरा  रए का हुई है

*

खुद  पै   कभू   लगाम  धरी   ने  तुमने बबुआ

देख  सूरतिया  जी  ललचा  रए  का हुई है

*

बात  सयानों  की  “संतोष” कभू ने तुमने मानी

हाथ  धर   खे  अब   पछता   रए  का हुई है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 246 – आरसा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 246 – विजय साहित्य ?

☆ आरसा…!

माया ममता जिव्हाळा,

एकमेका लावी लळा.

वाटे सहवास ओढ.

आठवांनी दाटे गळा…! १

*

स्नेह,सौहार्द ओलावा,

आपुलकी अनुबंध.

नाते जपता कळती,

जिव्हाळ्याचे रंगढंग ..! २

*

रक्ताहून बळकट,

नाते जिव्हाळ्याचे थोर.

प्रेम मैत्री विश्वासात,

हवा जिव्हाळ्याचा दोर..! ३

*

सम विचारांची मोट,

आहे जिव्हाळ्याचा मळा.

माणसात शोधी देव,

उरी ज्याच्या कळवळा…! ४

*

पैसा फक्त व्यवहार,

करीतसे देणे घेणे.

हृदी जपतो जिव्हाळा,

भाव भावनांचे लेणे….!५

*

नसे जिव्हाळा आसक्ती,

नसे मागणे लालसा.

माणसाच्या मानव्याचा,

असे जिव्हाळा आरसा…!६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 48 – मंदिर ऑफलाइन, भक्ति ऑनलाइन ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना मंदिर ऑफलाइन, भक्ति ऑनलाइन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 48 – मंदिर ऑफलाइन, भक्ति ऑनलाइन ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

आज का युग “डिजिटल भक्तों” का है। हर व्यक्ति के हाथ में स्मार्टफोन है और हर स्मार्टफोन में “भक्ति ऐप”। इन ऐप्स में भगवान की आरती, मंत्र और पूजा विधि उपलब्ध है। भक्त अब मंदिर जाने की बजाय वर्चुअल दर्शन करते हैं। भगवान भी डिजिटल हो गए हैं। यह युग तकनीक का है, जहां भक्ति भी इंटरनेट पर निर्भर हो गई है। भक्तों को अब घंटों लाइन में लगने की जरूरत नहीं, बस एक क्लिक और भगवान आपके सामने स्क्रीन पर प्रकट हो जाते हैं। यह सुविधा देखकर भगवान भी सोच में पड़ गए हैं कि आखिर उनकी भक्ति का स्वरूप इतना बदल कैसे गया।

एक दिन भगवान विष्णु ने नारद से कहा, “नारद, देखो तो, ये भक्त मेरे नाम पर क्या कर रहे हैं?” नारद ने हंसते हुए जवाब दिया, “प्रभु, ये तो डिजिटल भक्ति है। भक्त अब आपकी मूर्ति के सामने नहीं आते, बल्कि स्क्रीन पर आपका लाइव स्ट्रीमिंग देखते हैं।” यह सुनकर भगवान विष्णु को जिज्ञासा हुई और उन्होंने धरती पर जाकर स्थिति देखने का निश्चय किया। जब वे एक भक्त के घर पहुंचे तो देखा कि वह पूजा कर रहा था लेकिन उसकी नजर मोबाइल स्क्रीन पर थी। भगवान ने पूछा, “वत्स, मेरी मूर्ति कहां है?” भक्त ने उत्तर दिया, “प्रभु, मूर्ति की क्या जरूरत? आपके वर्चुअल दर्शन कर रहा हूं। यहां आपका 4के वीडियो है!”

भगवान विष्णु ने नारद से कहा, “नारद, यह तो अच्छा है। अब मुझे धरती पर जाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। भक्तों को सिर्फ इंटरनेट चाहिए और मैं उनके पास हूं।” नारद ने मुस्कुराते हुए कहा, “प्रभु, यह तो तकनीक का चमत्कार है। अब आपकी भक्ति भी डिजिटल हो गई है। लेकिन सोचिए अगर इंटरनेट बंद हो जाए तो क्या होगा?” भगवान ने सोचा कि तकनीक ने भक्ति को सुविधाजनक बना दिया है लेकिन साथ ही इसे निर्भरता में बदल दिया है।

तभी एक दूसरा भक्त आया और बोला, “प्रभु, आपके दर्शन के लिए मेरा इंटरनेट पैक खत्म हो गया है। कृपा करके थोड़ा डेटा दे दीजिए!” यह सुनकर भगवान विष्णु चौंक गए। उन्होंने नारद से कहा, “नारद, अब मुझे ‘डिजिटल डेटा’ का अवतार लेना पड़ेगा!” नारद ने हंसते हुए कहा, “प्रभु, अब भक्तों की भक्ति आपके प्रति नहीं बल्कि डेटा पैक के प्रति अधिक हो गई है।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 240 ☆ शुभस्थ शीघ्रम… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना शुभस्थ शीघ्रम। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 239 ☆ शुभस्थ शीघ्रम

मौन मुखरित हो रहें हैं

शब्द के बोले बिना ।

भाव जैसे शून्य लगते

नैन के खोले  बिना ।।

*

धड़कने भी बात करतीं

आस अरु उम्मीद की ।

राह पर चलना सरल क्या

खाय हिचकोले बिना ।।

प्रतिष्ठा का वस्त्र जीवन में कभी नहीं फटता, किन्तु वस्त्रों की बदौलत अर्जित प्रतिष्ठा, जल्दी ही तार- तार हो जाती है.

सुप्रभात में आया ये मैसेज बहुत ही सुंदर संदेश दे रहा है। लोग कहते हैं चार दिन की जिंदगी है मौज- मस्ती करो क्या जरूरत है परेशान होने की। कुछ हद तक बात सही लगती है। मन क्या करे सुंदर सजीले वस्त्र खरीदे, पुस्तके खरीदे, सत्संग में जाए, फ़िल्म देखे या मोबाइल पर चैटिंग करे?

प्रश्न तो सारे ही कठिन लग रहे हैं, एक अकेली जान अपनी तारीफ़ सुनने के लिए क्या करे क्या न करे? सभी प्रश्नों के उत्तर गूगल बाबा के पास रहते हैं सो मैंने भी उन्हीं की शरण में जाना उचित समझा, प्रतिष्ठा कैसे बढ़ाएँ सर्च करते ही एक से एक उपाय सामने आने लगे, यू ट्यूब पर तो बौछार है ऐसे वीडियो की। हमारे मन में अहंकार कहीं न कहीं छुपा बैठा होता है जो जैसे ही अवसर पाता है निकल भागता है, सो वो भी हाज़िर हो गया, उसने तुरंत दिमाग़ को संदेश दिया कि क्या सारी उमर गूगल बाबा की चाकरी में निकाल दोगे, चलो अभी यू ट्यूब पर एकाउंट बनाओ और जल्दी से मोटिवेशनल वीडियो पोस्ट करो और हाँ सभी के व्हाट्सएप एप नम्बरों पर ये लिंक ब्राडकास्ट करना न भूलना।

अब जाकर दिल को सुकून आया कि सुबह जो मैसेज पढ़ा उसे कितनी जल्दी अमल में लाया, वाह ऐसे ही लोग सम्मान पाते हैं जो तुरंत कार्य सिद्धि में जुट जाते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 346 ☆ लघु कथा – “पत्तों की जादूगरनी…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 346 ☆

?  लघु कथा – पत्तों की जादूगरनी…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 किले से शहर जाने वाली सड़क, दिन भर पर्यटकों की आमादरफ्त होती रहती थी।

अपनी आजीविका के लिए मालिन हरिया सड़क किनारे कभी फूलों से तो कभी पेड़ पौधों की टहनियों से अनोखी कलाकृति बनाया करती थी। पर्यटक बरबस रुकते, जो तेज रफ्तार आगे निकल जाते वे भी लौटने पर मजबूर हो जाते। लोग उसके आर्ट की प्रशंसा करते, सेल्फी लेते, फोटो खींचते। इनाम में हरिया को इतना तो मिल ही जाता कि उसकी गुजर बसर हो जाती, यह हरिया मालिन की कला का जादू ही था।

हर दिन एक नई योजना हरिया के हुनर में होती थी। कभी छींद के पत्तों से वह पंखा बना लेती तो कभी नारियल के खोल की गुड़िया बनाकर बेचा करती थी। कभी टेसू के फूलों से सजावट करती, तो कभी गेंदें के फूलों की बड़ी सी रंगोली डालती।

एक संस्था ने हरिया के ईको आर्ट की प्रदर्शनी भी शहर में लगवाई थी, जिसकी खूब चर्चा अखबारों में हुई थी।

हरिया को भी लोगों के प्रोत्साहन से नया उत्साह मिलता, वह कुछ और नया नया करती।

आज हरिया ने हरी पत्तियों से कला का ऐसा जादू किया था कि तोतों की ढेर सारी आकृतियां बिल्कुल सजीव बन पड़ी थीं। “पत्तों की जादूगरनी” सड़क किनारे अपनी कला का जादू बिखेर रही थी, मन ही मन संतुष्ट और प्रसन्न थी।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #208 – बाल कथा – लेजर का रहस्य – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय और ज्ञानवर्धक कहानी-  “लेजर का रहस्य)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 208 ☆

☆ बाल कथा – लेजर का रहस्य ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

एक दिन छोटा सा लड़का अरुण अपनी किताबों में खोया हुआ था। अचानक उसकी नजर लेजर बीम पर पड़ी। उसने पढ़ा कि यह प्रकाश की गति, यानी 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकंड, से चलती है!

अरुण के मन में एक सवाल कौंधा—क्या यह किसी खतरे को रोकने के लिए इस्तेमाल हो सकती है?

उत्सुकता में वह अपने पिता, डॉ. विजय, के पास गया, जो एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। “पापा, क्या लेजर से कोई हथियार बनाया जा सकता है?” अरुण ने पूछा।

डॉ. विजय ने मुस्कुराकर कहा, “शायद, बेटा। यह सोचने वाली बात है।”

फिर वे चले गए, और अरुण का मन और भी जिज्ञासु हो गया।

दिन बीतते गए, और अरुण ने इस बारे में ज्यादा नहीं सोचा। लेकिन एक सुबह, डॉ. विजय अचानक अरुण के पास आए। उनके चेहरे पर गर्व और उत्साह था।

“शाबाश, बेटा! तुम्हारी वजह से आज मैंने एक बेहतरीन काम किया है!” उन्होंने कहा।

अरुण की आंखें चमक उठीं। “पापा, वह काम क्या है?” उसने उत्सुकता से पूछा।

डॉ. विजय ने मुस्कान के साथ एक कमरे की ओर इशारा किया। “आओ, मैं तुम्हें दिखाता हूं।”

वे एक प्रयोगशाला में गए, जहां एक चमकदार मशीन रखी थी। डॉ. विजय ने कहा, “यह एक लेजर बीम हथियार है! यह प्रकाश की गति से चलती है और किसी भी उड़ने वाले यान या खतरे को चंद सेकंड में नष्ट कर सकती है।”

अरुण का मुंह खुला का खुला रह गया। “लेकिन पापा, यह कैसे हुआ?” उसने पूछा।

डॉ. विजय ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा, “एक दिन तुमने मुझसे पूछा था कि क्या लेजर से हथियार बनाया जा सकता है। उस सवाल ने मुझे प्रेरित किया। मैंने दिन-रात मेहनत की, इलेक्ट्रो-ऑप्टिक सिस्टम और लेजर तकनीक पर काम किया, और यह चमत्कार बन गया। तो शाबाशी के असली हकदार तुम हो, बेटा!”

अरुण हैरान रह गया। क्या उसका एक साधारण सवाल इतना बड़ा आविष्कार बन सकता है?

उस दिन से अरुण की जिज्ञासा और बढ़ गई। वह सोचता रहा कि उसका अगला सवाल क्या होगा, जो शायद दुनिया बदल दे। डॉ. विजय ने हथियार को देश की रक्षा के लिए तैयार किया, लेकिन अरुण के मन में एक रहस्य बना रहा—क्या और भी चमत्कार उसकी जिज्ञासा से पैदा होंगे?

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© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-04-2025 

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 247 ☆ बाल गीत – सुंदर – सुंदर लिखतीं लेख… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 247 ☆ 

☆ बाल गीत – सुंदर – सुंदर लिखतीं लेख ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चिड़ियाँ आईं पास अनेक।

सुंदर – सुंदर लिखतीं लेख।।

 *

कोई लिखती नया पहाड़ा।

नहीं सताए उनको जाड़ा।

सुख – दुख में वे रहतीं एक।

सुंदर – सुंदर लिखतीं लेख।।

 *

प्रकृति उनकी जीवन साथी।

भोर जगें वे करें सुप्रभाती।

सादा जीवन करता नेक।

सुंदर – सुंदर लिखतीं लेख।।

 *

पंखों का नित कम्बल ओढ़ें।

नहीं कभी वे रुपया जोड़ें।

करतीं हैं सबका अभिषेक।

सुंदर – सुंदर लिखतीं लेख।।

 *

झूठ न बोलें कभी बिचारी।

सदा रखें अपनी हुशियारी।

कभी न खाएँ , चाउमीन केक।

सुंदर – सुंदर लिखतीं लेख।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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