(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना “तदबीर”। )
आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है श्री आशीष दशोत्तर जी के व्यंग्य संग्रह “मोरे अवगुन चित में धरो” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 46 ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – व्यंग्य संग्रह – मोरे अवगुन चित में धरो
व्यंग्यकार – श्री आशीष दशोत्तर
प्रकाशक – बोधि प्रकाशन,
पृष्ठ – १८४
मूल्य – २०० रु
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – मोरे अवगुन चित में धरो – व्यंग्यकार –श्री आशीष दशोत्तर ☆ समीक्षक -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆
श्री आषीश दशोत्तर व्यंग्य के सशक्त समकालीन हस्ताक्षर के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके हैं. वे विज्ञान, हिन्दी, शिक्षा, कानून में उपाधियां प्राप्त हैं. साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओ ने उनकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचान कर उन्हें सम्मानित भी किया है. परिचय की इस छोटी सी पूर्व भूमिका का अर्थ गहरा है. आषीश जी के लेखन के विषयो की व्यापकता और वर्णन की विविधता भरी उनकी शैली में उनकी शिक्षा का अपरोक्ष प्रभाव दृष्टिगोचर होता है. किताब की भूमिका सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने लिखी है, वे लिखते हैं ” आषीश दशोत्तर के लेखन में असीम संभावनायें है, उनके पास व्यंग्य की दृष्टि है और उसके उचित प्रयोग का संयम भी है. ” मैने इस किताब के जो कुछ व्यंग्य पढ़े हैं और जितना इस चर्चा से पहले से यत्र तत्र उन्हें पढ़ता रहा हूं उस आधार पर मेरा दृष्टिकोण भूमिका से पूरी तरह मेल खाता है. व्यंग्य तभी उपजता है जब अवगुन चित में धरे जाते हैं. दरअसल अवगुणो के परिमार्जन के लिये रचे गये व्यंग्य को समझकर अवगुणो का परिष्कार हो तो ही व्यंग्य का ध्येय पूरा होता है. यही आदर्श स्थिति है. इन दिनो व्यंग्य की किताबें और उपन्यास, किसी जमाने के जासूसी उपन्यासो सी लोकप्रियता तो प्राप्त कर रही हैं पर गंभीरता से नही ली जा रही हैं. हमारे जैसे व्यंग्यकार इस आशा में अवगुणो पर प्रहार किये जा रहे हैं कि हमारा लेखन कभी तो महज पुरस्कार से ऊपर कुछ शाश्वत सकारात्मक परिवर्तन ला सकेगा. आषीश जी की कलम को इसी यात्रा में सहगामी पाता हूँ.
किताब के पहले ही व्यंग्य पेड़ पौधे की अंतरंग वार्ता में वे लिखते हैं “पेड़ की आत्मा बोली अच्छा तुम्हें जमीन में रोप भी दिया गया तो इसकी क्या गारंटी है कि तुम जीवित रहोगे ही “. .. पेड़ की आत्मा पौधे को बेस्ट आफ लक बोलकर जाने लगी तो पौधा सोच रहा था उसे कोई न ही रोपे तो अच्छा है. ऐसी रोचक नवाचारी बातचीत विज्ञान वेत्ता के मन की ही उपज हो सकती थी.
पुराने प्रतीको को नये बिम्बों में ढ़ालकर, मुहावरो और कथानको में गूंथकर मजेदार तिलिस्म उपस्थित करते आषीश जी पराजय के निहितार्थ में लिखते है ” कछुये को आगे कर खरगोश ने राजनीति पर नियंत्रण कर लिया है, कछुआ जहां था वहीं है, वह वही कहता और करता है जो खरगोश चाहता है ” वर्तमान कठपुतली राजनीति पर उनका यह आब्जरवेशन अद्भुत है. जिसकी सिमली पाठक कई तरह से ढ़ूंढ़ सकता है. हर पार्टी के हाई कमान नेताओ को कछुआ बनाये हुये हैं, महिला सरपंचो को उनके पति कछुआ बनाये हुये हैं, रिजर्व सीटों पर पुराने रजवाड़े और गुटो की खेमाबंदी हम सब से छिपी नही है, पर इस शैली में इतना महीन कटाक्ष दशोत्तर जी ही करते दिखे.
शब्द बाणों से भरे हुये चालीस ताकतवर तरकश लिये यह एक बेहतरीन संग्रह है जिसे मैं खरीदकर पढ़ने में नही सकुचाउंगा. आप को भी इसे पढ़ने की सलाह है.
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “मैं ही था … ”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर व्यंग्य – “चुनाव में भाग्य रेखा“। )
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 72 ☆
☆ व्यंग्य – चुनाव में भाग्य रेखा ☆
गंगू की टीवी देखने की बुरी आदत है, टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में टीवी वाले छोटी सी बात को धजी का सांप बना देते हैं, और गंगू है कि टीवी की हर बात को सच मान लेता है। इन दिनों गंगू को अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की ज्यादा चिंता है। बिहार और म.प्र.के चुनाव में नेताओं की चालबाजियों और ऊंटपटांग बयानबाजी से उसका मन ऊब गया है, इसलिए अमेरिका के चुनाव में उसका खूब मन लग रहा है।
जब हम पेपर पढ़ने बैठते हैं तो गंगू बीच-बीच में बहुत डिस्टर्ब करता है।पूरा पेपर पढ़ नहीं पाते और बीच में पूछने लगता है–बाबू जी आज के पेपर में अमेरिका के चुनाव के बारे में कुछ नया आया है क्या ? फिर थोड़ी देर बाद कहने लगता है -बाबू जी लाक डाउन के पहले अमेरिका से जो टमटम आये थे उनकी हालत इस बार कुछ पतली लग रही है ? हमने कहा- गंगू चीजों को सही नाम से पुकारना चाहिए,वो जो आये थे वे दुनिया के सबसे अमीर शक्तिशाली राष्ट्रपति माने जाते हैं, उनका असली नाम डोनाल्ड ट्रंप है।
गंगू भड़क गया बोला- देखो बाबू… हम पढ़े लिखे तो नहीं हैं, हमारे मुंह से टमटम ही निकल रहा है तो हम क्या करें….हमारा क्या दोष ……….
और सीधी सी बात है कि हम गरीबी रेखा के नीचे के आदमी हैं, वे अमीर हैं तो अमीर होंगे अपने घर के….. उनके अमीर होने से हमारी गरीबी थोड़े न दूर होगी। बाबू यदि हम उनको टमटम बोल रहे हैं तो वो भी तो हमारे यहां के लोगों को कुछ भी बोल रहे थे।जब वो आये रहे तो मोदी जी के सामने भरी सभा में चाय वाला कहने की जगह ‘चिवाला’ बोल रहे थे, अभी तक तो शिवाला, दिवाला तो सबने सुना था पर ये ‘चिवाला’ तो कभी नहीं सुना था। टमटम भैया हम गरीबों के बीच बड़े होशियार बनना चाहते थे, वो हम सबको दिखाना चाहते थे कि वे भारत के बारे में बहुत कुछ जानते हैं। कल्लू महराज ने उनका पूरा भाषण सुना रहा, कल्लू महराज ने बता रहे थे कि वे अपने भाषण में स्वामी विवेकानंद को ‘विवेकामनन’, चंद्रयान को ‘चन्डराजान’
और हमारे क्रिकेट हीरो सचिन तेंदुलकर को “सूचिन” कह रहे थे। अरे सही नाम लेते नहीं बन रहा था तो न लेते….
अपनी ज्यादा होशियारी बताने के लिए ‘शोले ‘फिल्म को “सूजे” कह रहे थे। ये भी क्या बात हुई कि सबकी प्यारी फिल्म ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ को उनने “डीडीएलजे” कह कर फिल्म का मजाक उड़ा दिया। हद कर दी टमटम ने… और बाबू जी आप कहते हैं कि टमटम कहने से वो नाराज़ हो जायेंगे। हम गरीब लोग भी तो नाम बिगाड़ने से नाराज़ हैं, काहे चाय वाले को ‘चिवाला’ कह दिया भाई, और अपने मोदी जी सिर झुकाए सब सुनते रहे, मुस्कराते रहे…ये बात तो ठीक नहीं है न….।
–अच्छा बाबू जे बताओ कि ये टमटम कुछ स्वार्थ लेकर आये रहे थे … काहे से कि एक बार कल्लू महराज कह रहे थे कि जे आदमी कभी किसी को भाव नहीं देता, सबको डराये रहता है, हथियार बेचने में विश्वास करता है।
— हां …गंगू सही सुना है, ट्रंप राजनीति के बड़े खिलाड़ी हैं, नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव हैं न…. तो उनको लगता है कि हिन्दूओं के वोट मोदी के मार्फत मिल जाएंगे, इसलिए इस बार उनने मोदी जी को पटाकर ‘नमस्ते ट्रंप ‘कार्यक्रम करवा लिया। उनको मालूम था कि अमेरिका में अधिकांश गुजराती पटैल रहते हैं। यहां आने के पहले उनने मोदी जी को पहले से कह दिया था कि तीन घंटे में सात बार गले मिलना और नौ बार हाथ मिलाना, कोरोना-अरोना से नहीं डरना, भले बाद में लाक डाउन लगाना और थाली कटोरा बजवाना, पर अमेरिका वालों को दिखा देना कि दोस्ती बहुत तकड़ी है, अमेरिका के सारे हिन्दुओं के वोट लूटना है इस बार।
— तो जे बात है बाबू…इधर भी वोट की राजनीति में अपने अस्सी नब्बे करोड़ लुट गये। कल्लू महराज तो कह रहे थे कि टमटम गांधी जी के साबरमती आश्रम भी गए थे तो वहां भी मोदी जी का गुणगान करते रहे… महात्मा गांधी की तरफ देखा भी नहीं….
— बिलकुल सही सुना है गंगू…. साबरमती आश्रम में चरखा देखकर चक्कर खा गए, पत्नी से कान में बोले- इसीलिए इंडिया गरीब है, अभी भी चरखा के पीछे पड़े हैं। मोदी जी बताते रहे उनके समझ में कुछ नहीं आया तो साबरमती आश्रम की विजिटर्स बुक में मोदी की तारीफ के कसीदे काढ़ दिए और गांधी जी को भूल गए। असली क्या है गंगू… कि ट्रंप बुद्धिजीवी या किताबी ज्ञान रखने वाले विचारक किस्म के राजनेता नहीं माने जाते, उन्हें महात्मा गांधी के आदर्श सिद्धांतो से क्या लेना-देना। अहिंसा, सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, अपरिग्रह के सिद्धांत जैसी बातों में ट्रंप को क्यों रुचि होगी। सीधा मतलब ट्रंप को चुनाव जीतने से है, और उनको लगा कि भारतीय पटैलों के वोट मोदी दिला सकते हैं, इसीलिए ट्रंप को तगड़ी दोस्ती का नाटक दिखाना जरूरी था।
जिस दिन ये साबरमती आश्रम से लौटे थे उसी रात को ट्रंप की पत्नी मेलानिया ने पूछा भी था कि गांधी को क्यों जलाया दरकिनार करके आपने मोदी के गुणगान में सब कुछ लिख दिया, तो ट्रंप का सीधा जवाब था कि काम मोदी से है तो गांधी की तरफ क्यूं देखूं… नवंबर के चुनाव यह बात साफ है कि वोट दिलवाने का काम महात्मा गांधी नहीं कर पायेंगे, बल्कि मोदी मोदी कहने से काफी काम बन जाएगा। तुम तो जानती हो युद्ध और राजनीति में सब जायज है, इसलिए हमने चुनाव प्रचार के सारे आइटम इस बार चीन से बुलवाये हैं।
और अंदर की बात सुनो डियर मेलानिया, तुम तो जानती हो कि अमेरिका का राष्ट्रपति ग्लोबल दृष्टिकोण रखते हुए अपने देश के हितों को सर्वाधिक प्राथमिकता देता है, कुछ देश के मुखिया अपना हित और पार्टी के हितों को प्राथमिकता देते हैं। हमारी यात्रा का एक उद्देश्य तो ये है कि नवंबर के चुनाव के लिए वोट का जुगाड़ करना और दूसरा उद्देश्य भारत-अमेरिका मैत्री का नाटक कर भारत को घातक अस्त्र, विमान, लड़ाई का सामान बेचकर लाभ कमाना है। कंगाल पाकिस्तान की बजाय सम्पन्न होता भारत काफी बेहतर और मित्रता के लायक लगता है, इसी कारण से हमने पहले से अमेरिका में “हाउडी मोदी” प्रोग्राम करवा कर गेयर में लेलिया था। वैसे भी भारत के लोग संकोची होते हैं अपना नुकसान करके भी लिहाज करते हैं, इसीलिए माय डियर मेलानिया महात्मा गांधी की चिंता नहीं करो।
–बाबू जी टीवी वाले बता रहे थे कि जैसे जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आ रही है टमटम की हालत पतली होती जा रही है, सर्वे वाले भी कह रहे हैं कि इस बार इनका आना मुश्किल लग रहा है। सुना है कि हाथ की भाग्य रेखा बदलने के लिए मोदी जी को फोन करके सलाह मांगी है ?
— हां गंगू, तुम बहुत ऊंची खबर रखते हो। क्या है कि ट्रंप बहुत व्यवहारिक दृष्टिकोण रखने वाले नेता हैं, शुरू से धंधा पानी में ध्यान देने वाले, कभी वे अपने को सुपरमेन बताने लगते हैं, कभी मास्क लगाकर सामने वाले को पिद्दी नेता कहने लगते हैं। हालांकि तुमने सही सुना है मोदी जी के पास फोन आया रहा, तो यहां वालों ने भाग्य रेखा बदलने की दुकान का पता बतला दिया है, मीडिया वालों ने बताया कि थाईलैंड में एक दुकान खुली है जिसमें हाथों की लकीरों को बदलकर भाग्य बेहतर बनाने के लिए टेटू का सहारा लिया जाता है, याने भाग्य अवरुद्ध करने वाली लकीरें मिटा दी जाती हैं और हथेलियों पर नयी भाग्य रेखा बना दी जाती है, चुनाव जीतने में भाग्य रेखा का असली रोल होता है, तो अपनी पतली हालत को देखते हुए और चीन की चालबाजियों को समझते हुए ट्रंप जी ने रातों-रात नयी भाग्य रेखा बनवा ली है और कल कुछ भी हो सकता है…….
गंगू और बाबूजी की इस चर्चा को हुए एक अरसा गुजर गया ….. गंगू के टमटम की हालत वास्तव में पतली हो गई। टेटू वालों की नयी भाग्य रेखा किसी काम नहीं आई। गंगू के टमटम आज भी हार मानने को तैयार नहीं है। भला ऊपरवाले की लिखी भाग्यरेखा कभी कोई बदल सका है भला ….. और अपना गंगू है कि टीवी की हर बात को अब भी सच मान लेता है ….
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर, अर्थपूर्ण, विचारणीय एवं भावप्रवण कविता “यह कैसा छल है”। )
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘शरीर के उपयोग का दर्शन’। शरीर के विभिन्न अंगों के उपयोग के फलसफे पर डॉ परिहार जी ने गहन विमर्श किया है। इस व्यंग्य को पढ़ने के पश्चात यदि इस विषय में कुछ अपना ज्ञान और तजुर्बा दे सकें तो निश्चय ही अनेक लोग लाभान्वित होंगे और देश उनका आभारी होगा। इस विशिष्ट व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 76 ☆
☆ व्यंग्य – शरीर के उपयोग का दर्शन ☆
कभी ख़ाली बैठता हूँ तो दिमाग़ ऊँची चीज़ें सोचने लगता है। एक दिन ख़ाली बैठा तो दिमाग़ सोचने लगा कि भगवान ने आदमी को ‘नर तन’ क्यों दिया है। तुलसीदास ने कहा, ‘बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर दुरलभ सदग्रंथन गावा। ‘ तो सवाल यह उठ जाता है कि हमारा यह भाग्य किस वास्ते खुला है?
मैं चारों तरफ निगाहें दौड़ाने और काफी तजुर्बा इकट्ठा करने के बाद अपनी अल्पबुद्धि से यह समझ पाया हूँ कि हमारा यह शरीर, जिसे ‘साड़ियों में साड़ी’ की तर्ज़ पर ‘शरीरों में शरीर’ कहा जा सकता है, हमें इसलिए मिला है कि हम इसके मार्फत इस जटिल और टेढ़े संसार में छछूँदर की तरह अपना रास्ता तैयार कर सकें। हमारे शरीर के सारे अंग इसी मसरफ से बने हैं और अगर हम इसी हिसाब से अपने अंगों का उपयोग नहीं कर सकते तो हमारे लिए हर कदम पर संकट खड़ा हो सकता है।
मसलन, कई लोगों को यह भ्रम है कि रीढ़ का मुख्य काम शरीर को सँभालना और सीधा रखना है। इन नासमझों को यह ज्ञान नहीं है कि रीढ़ का सबसे अहम काम शरीर को ज़रूरत के हिसाब से अलग अलग कोणों पर झुकाना है। शरीर जितना ज़्यादा झुक सकता है उतना ज़्यादा वह कारगर और उपयोगी होता है। इसलिए रीढ़ में पर्याप्त लचक होना बेहद ज़रूरी है। जिनकी रीढ़ में अकड़ होती है वे संसार के उन द्वारों तक नहीं पहुँच पाते जो थोड़ा ज़्यादा झुकने पर ही खुलते हैं। जो मतिमन्द इस रहस्य को नहीं जानते वे या तो ‘सुपरसीड’ हो जाते हैं या तीन साल में छः ट्रांसफर की गति को प्राप्त होते हैं। इसीलिए जो लोग दंड-बैठक की जगह योगासन करते हैं उनका शरीर ज़्यादा कारामद रहता है।
सच पूछिए तो हमारा शरीर जीवन में सफलता और समृद्घि के कपाट खोलने वाली चलती-फिरती कुंजी है, और ज्ञानी लोग इसी हेतु उसे साधते हैं। सफलता के लिए बुद्धि आवश्यक नहीं है, शरीर के सफल संचालन के लिए ज़रूर अक्ल आवश्यक होती है।
मसलन,भगवान ने यह हाथों का जोड़ा किस लिए दिया है?आपमें से अनेक मुझे बुद्धू समझकर मुसकाकर कहेंगे, ‘काम करने के लिए!’ और मैं मुसकाकर कहता हूँ कि आप भ्रमित हैं। हाथ इसलिए हैं कि आराध्य (ऊपर वाले नहीं, इसी धरती पर चलते फिरते) के लिबर्टी शूज़ के तस्मे खोलें और बाँधें, उन्हें शेरवानी या कोट पहनायें, उन्हें पान-तमाखू पेश करें, उनकी कार का दरवाज़ा खोलें, उनका ब्रीफ़केस और पनडब्बा उठायें। उन्हें हर मिनट पर सलाम-कोर्निश करें और बहाना मिलते ही उमग कर उनके गले में माला डालें।
हाथों के अन्य उपयोग हैं आराध्य का झंडा उठाना और अगर वे कानून से ऊपर हों तो उनके लिए डंडा बजाना। हाथों का इस्तेमाल सुख के भार से थके हुए आराध्य का शरीर दबाने और उनके पवित्र पैरों पर पुटपुरी (मुक्कियाँ) लगाने के लिए भी किया जाता है। झलने वाले पंखों के ग़ायब हो जाने के बाद से हाथों की सार्थकता कम हुई है। कुछ ज़्यादा समझदार लोग अपनी बाँहों पर आराध्य का नाम गुदवाकर हाथों की उपयोगिता में और इज़ाफ़ा कर देते हैं।
इसी तरह पाँवों की सार्थकता यह है कि ‘उनके’ आदेश पर दौड़ें और नाचें। जब वे कहें तब दुलत्ती चलायें और जब वे कहें तब पीछे हट जाएं। जहाँ वे कहें वहाँ बगुले की तरह सबेरे से शाम तक एक टाँग पर खड़े रहें और उसके बाद भी सेवा के लिए थिरकते रहें।
कंधे इसलिए कि उन पर अपने चरन रखकर ‘वे’ संसार में स्वर्ग की ऊँचाइयाँ छुएंँ और पीठ इसलिए कि उस पर सवार होकर उनके बाबा लोग ‘घोड़ा घोड़ा’ खेलें।
आप कहते हैं कि आँखें देखने के लिए हैं, कान सुनने के लिए, नाक सूँघने के लिए और मुँह बोलने के लिए। मैं कहता हूँ कि आँखें ‘उनके’ प्रति भक्ति और श्रद्धा छलकाने के लिए हैं, कान उनकी मधुर वाणी सुनने के लिए और मुँह उनकी स्तुति करने के लिए। नाक इसलिए बनायी गयी है कि हम उनकी उपस्थिति,उनके ‘मूड’ और उनकी ज़रूरतों को सूँघ सकें। दाँत इसलिए हैं कि ‘उन्हें’ देखकर प्रसन्नता से चमकें और ओठ इसलिए कि उनकी ज़रूरत के हिसाब से प्रसन्नता के आकार को फैलाते सिकोड़ते रहें।
उन्हें छोड़िए जो सिर को शरीर का सर्वश्रेष्ठ अंग कहते हैं। सिर इसलिए है कि ‘उनके’ सामने झुककर श्रद्धा का इज़हार करे और उन्हें ‘सर आँखों पर’ बैठाये रखे। माथा जो है वह इसलिए है कि उस पर ‘लिबर्टी रज’ धारण की जा सके। उनकी चरण-रज से बेहतर चन्दन अभी तक ईजाद नहीं हुआ।
हमारे शरीर में जो ख़ून है वह सिर्फ ‘रगों में दौड़ने’ के लिए नहीं है। वह इसलिए है कि उसका क़तरा क़तरा उनकी ख़िदमत में गिरे। दिल जो है वह इसलिए है कि उसमें उनकी प्यारी छवि बसायी जा सके। और हमारी जाँ इसलिए नहीं है कि उसे इधर-उधर महबूबाओं पर ज़ाया किया जाए। उसे उन्हीं पर लुटाना चाहिए।
और यह जो खाल नाम की चीज़ है उसका सर्वोत्तम उपयोग यही है कि वह ‘उनके’ लिए जूते बनाने के काम आ जाए। मैं दावे से कहता हूँ कि ‘ह्यूमन लैदर’ (मानव-चर्म) के सामने ‘स्नेक लैदर’ (सर्प-चर्म) दो कौड़ी का साबित होगा। बस ‘वे’ एक बार सेवा का अवसर तो दें।
मैं तुलसीदास से इत्तफ़ाक़ रखता हूँ कि यह नर-देह बड़े भाग्य से मिलती है, लेकिन देखने की बात यह है कि हम इस सौभाग्य का सही उपयोग करते हैं या नहीं। देह को सीढ़ी बनायें तो स्वर्ग हमारी मुट्ठी में आ सकता है,और अकड़ू बने रहे तो ‘एक मुश्ते ख़ाक’ के सिवा कुछ हाथ न लगेगा।
मुझे पता है कि नर-देह के उपयोग के मुझसे बड़े कई ज्ञानी और तजुर्बेकार इस धरा पर पड़े हैं। वे इस विषय में कुछ अपना ज्ञान और तजुर्बा दे सकें तो निश्चय ही अनेक लोग लाभान्वित होंगे और देश उनका आभारी होगा।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 75 – अर्द्धनारी-नटेश्वर ☆
मीमांसा की दृष्टि से वैदिक दर्शन अनन्य है। देवों के देव को महादेव कहा गया और परंपरा में महादेव अर्द्धनारी-नटेश्वर के रूप में विद्यमान हैं। अर्द्धनारी-नटेश्वर, स्त्री-पुरुष के सह अस्तित्व का प्रतीक हैं। नर के अस्तित्व को आत्मसात करती नारी और नारी से अस्तित्व पाता नर।
इस दर्शन की यथार्थ के धरातल पर पड़ताल करें तो पाते हैं स्त्री पुरुष को आत्मसात नहीं करती अपितु पुरुष में लीन हो जाती है।
एक बुजुर्ग दंपति के यहाँ जाना होता था। बुजुर्ग की पत्नी कैंसर से पीड़ित थीं। तब भी सदा घर के काम करती रहतीं। उन्हें आवभगत करते देख मुझे बड़ी ग्लानि होती थी। पीछे सूचना मिली कि वे चल बसीं।
लगभग बीस रोज़ बाद बुजुर्ग से मिलने पहुँचा। वे मेथी के लड्डू खा रहे थे। मुझे देखा तो आँखों से जलधारा बह निकली। बोले, “उसने जीवन भर कुछ नहीं मांगा, बस देती ही रही। घुटनों के दर्द के चलते मैं पाले में मेथी के लड्डू खाता हूँ। जाने से पहले इस पाले के लड्डू भी बना कर गई है, बल्कि हमेशा से कुछ ज्यादा ही बना गई।”
चंद्रकांत देवल ने लिखा है कि आत्महत्या करने से पहले भी स्त्री झाड़ू मारती है, घर के सारे काम निपटाती है, पति और बच्चों के लिए खाना बनाती है, फिर संखिया खाकर प्राण देती है।
पुरुष का नेह आत्मसात करने का होता है, स्त्री का लीन होने का।
आत्मसात होने से उदात्त है लीन होना। निपट अपढ़ से उच्च शिक्षित, हर स्त्री लीनता के इस भाव में गहन दीक्षित होती है।
समर्पण से संपूर्णता की दीक्षा और लीन होने का पाठ स्त्री से पढ़ने की आवश्यकता है।
जिस दिन यह पाठ पढ़ा सुना और गुना जाने लगेगा, अर्द्धनारी-नटेश्वर महादेव घर-घर जागृत हो जाएँगे।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆