मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 39 ☆ प्रेम रंगात रंगले मी… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 39 ☆ 

☆ प्रेम रंगात रंगले मी… ☆

मीरा वदे, श्रीकृष्णासी

नको करू, मज वनवासी

एकरूप होऊ, जवळ घे मजसी…०१

 

प्रेम रंगात रंगले मी

माझी न, राहिले मी

तन-मन तुज वाहिले मी…०२

 

कृष्णा केशवा, देह तुलाच दिला

आता हा, तुझाच रे बघ झाला

आस तुझीच, या जीवाला…०३

 

तुझ्यासाठी हलाहल पिले

राजमहाल, वैभव सोडले

आता सांग ना, काय मग उरले…०४

 

माझी नश्वर कुडी अर्पण

करिते निर्भेळ समर्पण

पाहते, तुझ्यात दर्पण…०५

 

तू कृष्ण मनोहर

मला हवा, तुझा आधार

तुझ्याविना, जगणे लाचार…०६

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 92 ☆ व्यंग्य – स्वर्ग के हक़दार ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक   विचारणीय व्यंग्य  ‘स्वर्ग के हक़दार‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 92 ☆

☆ व्यंग्य – स्वर्ग के हक़दार

शरीर से मुक्ति मिली तो आत्मा सीधे दूसरे लोक में पहुँच गयी। सामने चित्रगुप्त जी खड़े थे। बोले, ‘आओ, आओ। हम इंतजार कर रहे थे। चलो पहले तुम्हारे लिए स्वर्ग नरक का फैसला हो जाए।’

वे मुझे सीधे प्रभु के दरबार में ले गये। एक सेवक एक बड़ा पोथा लिये था जिसमें मेरा सारा किया-धरा अंकित था। चित्रगुप्त जी प्रभु को प्रणाम करके बोले, ‘प्रभु, इस नयी आत्मा का रिकॉर्ड तो ठीक नहीं है। कभी नियम से मन्दिर नहीं गया, न कभी नियम से आपकी पूजा की। ऐसे ही अकारथ जनम गँवा दिया। इसको नर्क में ही भेजना पड़ेगा।’

प्रभु ने सेवक को पास आने का आदेश दिया, फिर मेरा बहीखाता पलटने लगे। थोड़ी देर देखकर बोले, ‘चित्रगुप्त जी, आप भ्रम में हैं। यह आत्मा तो मेरी बड़ी हितैषी, बड़ी शुभचिन्तक है। इसने मेरी पूजा भले ही न की हो,लेकिन मुझे कभी परेशान भी नहीं किया। आधी आधी रात तक घंटे-घड़ियाल बजा कर मेरा चैन हराम नहीं किया, न लाउडस्पीकर पर गा गा कर मुझे बहरा किया। इसने न मुझसे कभी कुछ माँगा, न मुझे रिश्वत देने की कोशिश की।

‘चित्रगुप्त जी, यह आत्मा भले ही मेरा कीर्तन न करती हो, लेकिन इसने मुझे कभी बदनाम नहीं किया। मेरा नाम लेकर दूसरों से झगड़ा-फसाद नहीं किया, न मेरा नाम लेकर किसी पर हाथ उठाया। मेरा नाम लेकर इसने इंसानों के बीच नफरत नहीं फैलायी। न किसी का घर लूटा, न किसी का घर फूँका। नाहक किसी का दिल नहीं दुखाया।

‘इसने मेरे नाम पर कोई पाखंड नहीं किया। मेरा नाम लेकर किसी को ठगा नहीं,  न मेरा नाम लेकर कोई धंधा चलाया। इसने ‘मुँह में राम, बगल में छुरी’ वाली नीति कभी नहीं अपनायी।’ इसलिए चित्रगुप्त जी, मुझे वे सब प्रिय हैं जिनका हृदय पवित्र है और जो मेरी बनायी संपूर्ण सृष्टि से प्रेम करते हैं, उसके प्रति सद्भाव रखते हैं। जो जियो और जीने दो की नीति पर चलते हैं। इस आत्मा को ससम्मान स्वर्ग में स्थान दें।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 91 ☆ आओ संवाद करें ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 91 ☆ आओ संवाद करें ☆

प्रातःकालीन भ्रमण पर हूँ। देखता हूँ कि कचरे से बिक्री लायक सामान बीनने वाली एक बुजुर्ग महिला बड़ा सा-थैला लिए चली जा रही है। अंग्रेजी शब्दों के चलन के आज के दौर में इन्हें रैगपिकर कहा जाने लगा है। बूढ़ी अम्मा स्थानीय सरकारी अस्पताल के पास पहुँची कि पीछे से भागता हुआ एक कुत्ता आया और उनके इर्द-गिर्द लोटने लगा। अम्मा बड़े प्यार से उसका सिर सहलाने-थपकाने और फिर समझाने लगीं, ” अभी घर से निकली।  कुछ नहीं है पिशवी (थैले) में।  पहले कुछ जमा हो जाने दे, फिर खिलाती।”  वहीं पास के पत्थर पर बैठ गईं अम्मा और सुनाने लगी अपनी रामकहानी। आश्चर्य! आज्ञाकारी अनुचर की तरह वहीं बैठकर कुत्ता सुनने लगा बूढ़ी अम्मा की बानी। अम्मा ने क्या कहा, श्वानराज ने क्या सुना, यह तो नहीं पता पर इसका कोई महत्व है भी नहीं।

महत्व है तो इस बात का कि जो कुछ अम्मा कह रही थी, प्रतीत हो रहा था कि कुत्ता उसे सुन रहा है। महत्व है संवाद का, महत्व है विरेचन। कहानी सुनते समय ‘हुँकारा’ भरने अर्थात ‘हाँ’ कहने की प्रथा है। कुत्ता निरंतर पूँछ हिला रहा है। कोई सुन रहा है, फिर चाहे वह कोई भी हो लेकिन मेरी बात में किसी की रुचि है, कोई सिर हिला रहा है, यह अनुभूति जगत का सबसे बड़ा मानसिक विरेचन है।

कैसा विरोधाभास है कि घर, आंगन, चौपाल में बैठकर बतियाने वाले आदमी ने मेल, मैसेजिंग, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, व्हाट्सएप, टेलिग्राम जैसे संवाद के अनेक द्रुतगामी प्लेटफॉर्म विकसित तो कर लिए लेकिन ज्यों-ज्यों कम्युनिकेशन प्लेटफॉर्मों से नज़दीकी बढ़ी, प्रत्यक्ष संवाद से दूर होता गया आदमी। अपनी अपनी एक कविता याद आती है,

“खेत/ कुआँ/ दिशा-मैदान/ हाट/  सांझा चूल्हा/  चौपाल/ भीड़ से घिरा/ बतियाता आदमी…, कुरियर/टेलीफोन/ मोबाइल/ फोर जी/  ईमेल/ टि्वटर/ इंस्टाग्राम/ फेसबुक/  व्हाट्सएप/ टेलिग्राम/  अलग-थलग पड़ा/  अकेला आदमी…”

तमाम ई-प्लेटफॉर्मों पर एकालाप सुनाई देता है।  मैं, मैं और केवल मैं का होना, मैं, मैं और केवल मैं का रोना… किसी दूसरे का सुख-दुख सुनने  का किसी के पास समय नहीं, दूसरे की तकलीफ जानने-समझने की किसी के पास शायद इच्छा भी नहीं। संवाद के अभाव में घटने वाली किसी दुखद घटना के बाद संवाद साधने की हिदायत देने वाली पोस्ट तो लिखी जाएँगी पर लिखने वाले हम खुद भी किसी से अपवादस्वरूप ही संवाद करेंगे। वस्तुत: हर वाद, हर विवाद का समाधान है संवाद। हर उलझन की सुलझन है संवाद। संवाद सेतु है। यात्रा दोनों ओर से हो सकती है। कभी अपनी कही जाय, कभी उसकी सुनी जाय। अपनी एक और रचना की कुछ पंक्तियाँ संक्षेप में बात को स्पष्ट करने में सहायक होंगी,

विवादों की चर्चा में/ युग जमते देखे/  आओ संवाद करें/ युगों को पल में पिघलते देखें/… मेरे तुम्हारे चुप रहने से/ बुढ़ाते रिश्ते देखे/ आओ संवाद करें/ रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें/…

नयी शुरुआत करें, आओ संवाद करें !

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 47 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 47 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 47) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 47☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अब जुदाई के सफ़र को

मेरे आसान करो…

तुम मुझे ख़्वाब में आ कर

परेशान  ना  किया करो…

 

Now make my journey of

separation easy…

Do not disturb me by

coming in the dreams..

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अकेले हम ही शामिल

नहीं  है  इस  जुर्म  में,

नजरें जब भी मिलती थी

मुस्कुराये तो तुम भी थे…

 

I  alone  was  not

involved in this crime,

Whenever our eyes met,

you too equally smiled!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

खुदा के घर से चंद

फरिश्ते फरार हो गये,

कुछ  पकड़े  गये,

कुछ हमारे यार हो गये..

 

A  few  angels escaped

 from the God’s abode,

While some were caught,

Others became my friends

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

तुम मुझसे दोस्ती का

मोल ना पूछना कभी

तुम्हें किसने कहा कि

पेड़  छाँव  बेचते  हैं…

 

Never ask me about the

price of the friendship

Who has told you that

trees sell the shades..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 48 ☆ होली पर्व विशेष –होली के रंग छंदों के संग ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित होली पर्व पर एक रचना   ‘होली के रंग छंदों के संग’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 48 ☆ 

☆ होली पर्व विशेष –होली के रंग छंदों के संग ☆ 

*

 हुरियारों पे शारद मात सदय हों, जाग्रत सदा विवेक रहे

हैं चित्र जो गुप्त रहे मन में, साकार हों कवि की टेक रहे

हर भाल पे, गाल पे लाल गुलाल हो शोभित अंग अनंग बसे

मुॅंह काला हो नापाकों का, जो राहें खुशी की छेंक रहे

0

चले आओ गले मिल लो, पुलक इस साल होली में

भुला शिकवे-शिकायत, लाल कर दें गाल होली में

बहाकर छंद की सलिला, भिगा दें स्नेह से तुमको

खिला लें मन कमल अपने, हुलस इस साल होली में

0

करो जब कल्पना कवि जी रॅंगीली ध्यान यह रखना

पियो ठंडाई, खा गुझिया नशीली होश मत तजना

सखी, साली, सहेली या कि कवयित्री सुना कविता

बुलाती लाख हो, सॅंग सजनि के साजन सदा सजना

0

नहीं माया की गल पाई है अबकी दाल होली में

नहीं अखिलेश-राहुल का सजा है भाल होली में

अमित पा जन-समर्थन, ले कमल खिल रहे हैं मोदी

लिखो कविता बने जो प्रेम की टकसाल होली में

0

ईंट पर ईंट हो सहयोग की इस बार होली में

लगा सरिए सुदृढ़ कुछ स्नेह के मिल यार होली में

मिला सीमेंट सद्भावों की, बिजली प्रीत की देना

रचे निर्माण हर, सुख का नया संसार होली में

0

न छीनो चैन मन का ऐ मेरी सरकार होली में

न रूठो यार! लगने दो कवित-दरबार होली में

मिलाकर नैन सारी रैन मन बेचैन फागुन में

गले मिल, बाॅंह में भरकर करो सत्कार होली में

0

नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी मोहे बरजो न राधिका

आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो मुॅंह ही न फेर ले साॅंसों की साधिका

गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाॅंवरे से साॅंवरे की कामना भी बाॅंवरी

बैन से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका

मीरा की मुस्कान बन सके

बंसी-ध्वनि सी बानी दे दो

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 80 – होली पर्व विशेष – होली आई रे…. ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  होली पर्व पर एक होली के रंगों से सराबोर रचना  “होली आई रे….। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 80 ☆ होली पर्व विशेष – होली आई रे…. ☆

(प्रस्तुति –  होली आई रे, मतलब उत्साह तथा उमंगों का त्यौहार जो मानव जीवन में रंग भर देते हैं। छेड़-छाड़ एवं मस्ती का त्योहार, लोगों के दिल में उतर कर एक अमिट छाप छोड़ देने का त्योहार, खुशियों के सागर में उतर कर गोते लगाने का त्योहार।

इन्हीं सपतरंगी छटाओं तथा खट्टे मीठे अनुभवों का चित्रण है ये रचना जो बनारस की सबसे पुरानी हिन्दी साहित्यिक संस्था नागरी प्रचारिणी सभा की नागरी पत्रिका के नव० २०१७ के अंक में पूर्व प्रकाशित है जो आप लोगों के समीक्षार्थ  प्रस्तुत है पढ़ें और अपने आशीर्वाद से अभिसिंचित करें। – सूबेदार पाण्डेय

 

रंग बिरंगी होली आई,

हर कोई मतवाला है।

किसी का चेहरा नीला पीला,

किसी का चेहरा काला है।

हर छोरी बृषभानु किशोरी,

हर छोरा नंदलाला है।

चंचल नटखट अल्हड़ है सब,

आंखों  में का प्याला है।

मृगशावक सी भरें कुलांचे,

ना कोई रोकने वाला है।

।। रंग-बिरंगी होली आई।।१।।

 

किसी की भींगे पाग पितांबर,

किसी की चूनर धानी।

किसी की भीगे लहंगा चोली,

सबकी एक कहानी।

धरो धरो पकड़ो पकड़ो,

हर तरफ मची आपाधापी।

हर कोई है गुत्थमगुत्था,

हरतरफ मची चांपा चांपी।

गुत्थमगुत्था छीना झपटी में,

मसकी अंगिया चोली।

फटी मिर्जयी, गिरा अंगरखा,

(पगड़ी वाल साफा)

घरवालों की मांग चली टोली।

छाई है इक अजब सी मसलती,

हर कोई दिलवाला है।

।। रंग-बिरंगी होली आई।।०२।।

 

तानें है कोई पिचकारी,

जैसे तीर कमान लिए है।

कोई लिए गुलाल खड़ा,

जैसे हाथों में तोप लिए है।

धोखे से कोई गोपी,

मोहन को पास बुलाती है।

गालों में रंग-गुलाल लगा,

गाल लाल कर जाती है।

ग्वालों की टोली बीच कोई,

गोपी जब फंस जाती है।

भर भर पिचकारी रंगों से,

टोलियां उसे नहलाती है।

।। रंग बिरंगी होली आई।।०३।।

 

कोई किसी बहाने से,

नवयौवन को छू जाता है।

कोई लेता पप्पी झप्पी,

दिल❤️ अपना कोई दे जाता है।

कोई तकरार मचाता है,

दिल किसी का कोई चुराता है।

हर तरफ शोर है गीतों का,

हर तरफ जोर है होली का।

खुशियों से सना हर लम्हा है,

हर कोई हिम्मत वाला है।

।। रंग-बिरंगी होली आई।।०४।।

 

होली का त्यौहार है भइया,

खुशियों से जश्न मनाने का।

जीवन में रंग भरने का,

सबके दिल में बस जाने का।

अपना प्यार लुटाने का,

सबके प्यार को पाने का।

भूल के सारे शिकवों गिलों को,

सबको गले लगानें का।

सबको दिल से अपनाने का,

और सबका बन जाने का।

।। रंग बिरंगी होली आई।।०५।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ होलिकोत्सव विशेष – विडंबन कविता-दिवस सेलचे सुरु जाहले… ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

☆ कवितेचा उत्सव ☆ होलिकोत्सव विशेष – विडंबन कविता – दिवस सेलचे सुरु जाहले – बायांचे मन प्रसन्न झाले ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

मूळ कविता –    दिवस सुगीचे सुरु जाहले – शेतकरी मन प्रसन्न झाले–

                                खळखळ ,छमछम,डुमडुम,पटडुम लेझीम चाले जोरात।

                                                                                      कवी- ग.ह. पाटील.

——-                  दिवस सेलचे सुरु जाहले

——-                  जिकडे तिकडे बोर्ड झळकले

——-                  बायांचे मन प्रसन्न झाले

——                   पटकन, झटकन, भर्कन, सर्कन

——                    विक्री होतसे जोरात   ।।

——                    नऊ वाजता शटर उघडुनी,

——                    गाद्या, गिरद्या साफ करोनी

——                    सुंदर साड्या बाहेर टांगुनी

——                    सेल्सगर्ल्स बसल्या थाटात।।

——                    नाश्ता, सैपाक धुंदीत उरकुन

——                   ‘त्या’च्या कडुनी रक्कम उकळुनी

——                    मैत्रीणीना कॉल करूनी

——                    भरभर, तरतर, लवकर, गरगर

——                    फिरति सख्या बाजारात ।।

——                    इथे हकोबा, तिथे बांधणी,

——                    गर्भरेशमी किंवा चिकणी,

——                    वस्त्रांची राणि ही पैठणी

——                    सुळुसुळु, झुळुझुळु, हळुहळु, भुळुभुळु

——                    ढीग संपतो तासात  ।।

——                    विटकि,फाटकी, कुठेकुठे-

——                    घरि आल्यानंतर कळते

——                    कपाट जरि भरभरुन वाहते

——                    भुलवी, झुलवी, खुळावणारा

——                    सेल अखेरी महागात  ।।

 

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

सांगली

मो. – 8806955070

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 64 – होलिकोत्सव विशेष – नकोस देऊ आज साजना ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 64 –  होलिकोत्सव विशेष – नकोस देऊ आज साजना  ☆

 

नकोस देऊ आज साजणा भास नव्याने सारे।

आठवणींच्या मोर पिसांचे  रंग उधळती तारे।

 

मऊ मुलायम कुरणावरती प्रीत पाखरू येई।

साद घालता ओढ लाविते नित्य  जिवाला कारे।

 

शब्दतार तव नाद छेडती   धुंद जणू हे गाणे।

मुग्ध जाहला देह स्वरांनी भाव अनामिक न्यारे।

 

गुंजन करितो भ्रमर कळीशी गूज तयांचे चाले।

अधर थरथरे अवचित जुळता नयन राजसा घारे।

 

तव स्पर्शाची किमया न्यारी  गाली येई लाली।

स्पर्श फुलांचा  गंध दरवळे दाही दिशांत  वारे।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 35 ☆ राम जाने कि – क्यों राम आते नहीं ? ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “राम जाने कि – क्यों राम आते नहीं ? “।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 35 ☆

☆ राम जाने कि – क्यों राम आते नहीं ? ☆

 

राम जाने कि – क्यों राम आते नहीं ?

है जहाँ भी कही, दुखी साधुजन, दे के उनको शरणं क्यों बचाते नही ?

धर्म के नाम नाहक का फैला जुनू, हर समझदार उलझन में बेहाल है।

काट खाने को दौडे  ये वातावरण, राम जाने कि क्यों राम आते नहीं ?

 

बढ़ रही  हर जगह कलह बेवजह, स्नेह – सदभाव पड़ते दिखाई नहीं।

एकता प्रेम विश्वास है अधमरे, आदमियत आदमी से हुई गुम कही ।

स्वार्थ सिंहासनों पर अब आसीन है, कोई समझता नहीं है किसी की व्यथा।

मिट गई रेखा लक्ष्मण ने खींची थी जो, महिमा – मंडित है अपराधियों की कथा।

है खुले आम रावण का आवागमन – राम जाने कि क्यों राम आते नहीं ?

 

सारे आदर्श बस सुनने पढ़ने को हैं, आचरण में अधिकतर हैं मनमानियां।

जिसकी लाठी है अब उसकी ही भैस है, राजनेताओं में दिखती हैं  नादानियां।

स्वप्न में भी न सोचा, जो होता है वो, हर समस्या उठाती नये प्रश्न कई।

मान मिलता है अब कम समझदार को, भीड़ नेताओं की इतनी बढ़ गई।

हर जगह डगमगा गया है संतुलन, राम जाने कि क्यों राम आते नही ?

 

है सिसकती अयोध्या दुखी नागरिक, कट गये चित्रकूटों के रमणीक वन।

स्वर्णमृग चर रहे दण्डकारण्य को, पंचवटियों में बढ़ रहा हैअपहरण।

घूमते हैं असुर साधु के वेश में, अहिल्याएं  कई बन गई हैं शिला।

सारी दुनियां में फैला अनाचार है, रूकता दिखता नही ये बुरा सिलसिला।

हो रहा गाँव – नगरों में नित सीताहरण, राम जाने की क्यों राम आते नहीं?

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #2– अनिरुद्ध-ऊषा ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है  द्वितीय प्रेमकथा  – अनिरुद्ध-ऊषा  )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #2– अनिरुद्ध-ऊषा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

हरिवंश पुराण में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ज़िले की एक छोटी सी बस्ती सोहागपुर का उल्लेख श्रोणितपुर नाम से बांणासुर राक्षस की राजधानी के रूप में आता है। महाभारत युद्ध से कृष्ण की स्थापना एक सर्वमान्य आर्य नेतृत्व के रूप में हो गई थी लेकिन कई अनार्य राजा उनसे ईर्ष्यावश द्वेष पाले रखते थे। यादवों का राज्य अरबसागर किनारे स्थित द्वारका से नर्मदा के उत्तरी तट तक फैला हुआ था यानि पूरा गुजरात, मालवा और दक्षिणी बुंदेलखंड का कुछ हिस्सा उनके आधिपत्य में था। असुरराज बांणासुर का राज्य नर्मदा के दक्षिण में श्रोणितपुर राजधानी से पूरे छत्तीसगढ़ तक फैला था। नर्मदा नदी उनके राज्यों की प्राकृतिक विभाजक रेखा थी।

राज्यों की कूटनीति का एक परम सिद्धांत है कि या तो तुम अपने राज्य का पड़ोसी राज्य में विस्तार करो अन्यथा पड़ौसी तुम्हारे राज्य की सीमा पार करके अपने राज्य का विस्तार करेगा। असुरराज बांणासुर के सैनिक आज के नरसिंहपुर, होशंगाबाद और हरदा जिलों से नर्मदा पार करके यादव राज्य में घुसकर आज के सागर, दमोह, रायसेन, सीहोर और देवास जिलों पर हमला करके इलाक़ा अधिग्रहित करने की कोशिश करते रहते थे। कृष्ण ने अपने पौत्र अनिरुद्ध को उस इलाक़े की रक्षा के लिए नियुक्त किया, तभी उसका बांणासुर की पुत्री ऊषा से प्रेम प्रसंग हो गया। अनिरुद्ध राजकुमारी ऊषा से मिलने शोणितपुर तक पहुँच गया। उस समय बांणासुर ने ऊषा के लिए बागड़ा-वन में एक क़िला अग्निगढ़ नाम से बनाया हुआ था। उषा की मायावी सहेली चित्रलेखा ने अनिरुद्ध को शोणितपुर से अग्निगढ़ क़िले तक पहुँचा दिया। दो प्यासे हृदय एक होकर रसरंग की ख़ुमारी में खो गए। जब बांणासुर को जासूसों ने ख़बर दी तो राक्षसराज ने अनिरुद्ध को बंदी बना लिया। शिव पुराण के पाँचवें भाग युद्ध-खंड में बाणासुर-शोणितपुर कथा का वर्णन आता है। हम इसे आर्य-अनार्य संस्कृति सम्मिलन प्रक्रिया के रूप में देख रहे हैं।

पुराणों के रचनाकार ऋषि-मुनि उस समय के इतिहासकार थे, जिन्होंने कहानी के रूप में सामयिक घटनाओं को रोचक रूप दिया था। उन्होंने अपने साहित्य में कथा को आगे बढ़ाने के लिए वरदान और श्राप नामक दो तरीक़े आदमी के अहंकार को बढ़ाने, फिर अहंकार या अहंकारी को नष्ट्र करने के तरीक़े स्वरूप सुनियोजित रूप से प्रयोग किए हैं ताकि राजा कभी भी अति अहंकारी न हो। अहंकार राजा का अत्यावश्यक गुण है परंतु राजा का अति अहंकार प्रजा को दम्भी बनाता है। पहले अति अहंकारी राजा का विनाश होता है फिर बेलगाम प्रजा आपस में भिड़ने लगती है और राष्ट्र बर्बादी के कगार पर पहुँच जाता है। शिव पुराण में लिखित कृष्ण-बाणासुर संग्राम की पूरी कहानी इस प्रकार है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार दक्ष प्रजापति की तेरह कन्याएँ कश्यप मुनि की पत्नियाँ थीं। उनमें से एक अदिति के गर्भ से इंद्र, अरूण, वरुण, सूर्य इत्यादि देवता उत्पन्न हुए इसीलिए अदिति के एक पुत्र सूर्य का एक नाम आदित्य है। दिति के गर्भ से उत्पन्न पुत्र दैत्य कहलाए। उसके हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष दो पुत्र हुए। हिरण्यकश्यप के चार पुत्र हुए। ह्लाद, अनुह्लाद, संह्लाद और प्रह्लाद। प्रह्लाद आर्यों के प्रधान देव विष्णु का भक्त हुआ और विष्णु के  नरसिंह अवतार द्वारा हिरण्यकश्यप के वध का कारण बना। प्रह्लाद का पुत्र राजा विरोचन हुआ जिसने अपना सिर देवताओं के राजा इंद्र को  दान में दे दिया था। विरोचन का लड़का राजा बलि हुआ जिसने विष्णु को समस्त पृथ्वी दान कर दी थी। उसी राजा बलि का पुत्र था शोणितपुर का राजा बांणासुर। इस प्रकार आर्य लोग अनार्यों को भक्ति और दान द्वारा उनके लोभ और वैमनस्य पिघला कर अपनी उदार संस्कृति में ढालते जा रहे हैं। अनार्यों के प्रमुख देव शिव है जो कि ऋग्वेद में आर्यों के रूद्र थे। वे हमेशा ख़ुश होकर दैत्यों को वरदान दे देते हैं, परंतु देवताओं को वरदान देते नहीं दिखते हैं। इसका उलट वे आर्य देवों को भस्म करते हैं जैसे कामदेव को शिव ने अनंग कर दिया था। वही कामदेव कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में अवतरित हुए थे। रति ने भी उनकी पत्नी बनकर जन्म लिया, जिनका पुत्र अनिरुद्ध था। विष्णु उपासक होने से विष्णु ही आर्यों के संकटमोचक थे।

बांणासुर ताण्डव नृत्य द्वारा शिव को प्रसन्न कर त्रिलोकाधिपतियों को बलपूर्वक जीतकर श्रोणितपुर को अपनी राजधानी बना कर राज्य करने लगा। उसने भगवान शंकर को प्रसन्न कर उन्हें अपने नगर का अध्यक्ष बनाकर गणों और पुत्रों सहित निवास करने की विनती की जिसे भगवान शिव ने स्वीकार किया और शोणितपुर में निवास करने लगे।

एक बार उसने तांडव नृत्य कर अपने हजार हाथों से ताली बजा-बजाकर भगवान शंकर को प्रसन्न कर कहा – “हे त्रिपुरारी! पूरे त्रिलोक में मुझे आप जैसा बलशाली योद्धा नहीं मिल रहा। कोई मुझसे अब युद्ध करने को तैयार नहीं है। हे! शंकर मेरी 1000 भुजाएँ फड़क रहीं हैं या तो आपसा योद्धा मुझसे युद्ध करे या आप मेरी भुजाओं को कटवा दें।” भगवान शंकर बाणासुर का दर्प  समझ गए। उन्होंने मुस्कुराते हुए उसकी मंशा पूरी होने का वरदान दे दिया। वह भगवान शंकर जैसे योद्धा के साथ युद्ध चाहता था। तदानुसार दैव योजना से बांणासुर की पुत्री उषा एक रात कामातुर हुई। पार्वती ने उसके स्वप्न में प्रद्युम्न पुत्र अनिरुद्ध को भेजकर शमन कराया। उसकी स्वप्न छवि ऊषा  के हृदय में बस गई। उसने अपनी सेविका सखी मायावी चित्रकार चित्रलेखा से अनिरुद्ध से मिलाने की विनती की। चित्रलेखा ने अनिरुद्ध को द्वारका से लाकर उषा के महल में छोड़ दिया। बांणासुर के रक्षकों ने यह ख़बर उस तक पहुँचा दी कि कोई देव पुरुष उसकी पुत्री ऊषा का भोग कर रहा है। अनिरुद्ध बंदी बना लिया गया। भगवान शंकर की माया के अनुसार अपने पौत्र अनिरुद्ध को बाणासुर से मुक्त कराने के लिए श्रीकृष्ण को शोणितपुर पर चढ़ाई करनी पड़ी। भगवान शंकर अपने भक्त बाणासुर की तरफ से युद्ध करने के लिए खड़े हुए थे।

शंकर और श्रीकृष्ण में भीषण युद्ध होने लगा तब श्रीकृष्ण शंकर जी के पास जाकर बोले – “हे प्रभु मैं तो आपके ही आदेश से और आपके श्राप से दैत्य की मुक्ति के कारण इस दुष्ट की भुजाएं काटने आया था। आप मुझसे ही भीषण युद्ध कर रहे हैं।” तब भगवान शंकर ने श्री कृष्ण जी को अपने भक्त वत्सल होने का वास्ता देते हुए बताया कि मुझे “जृम्भणास्त्र” से जृम्भित कर अपना अभीष्ट सिद्ध करो। श्रीकृष्ण ने ऐसा ही किया और उसके बाद में उन्होंने बांणासुर की चार भुजाएँ छोड़कर बाक़ी भुजाएं काट डाली, जब सुदर्शन चक्र से सिर काटने लगे तो  भगवान शंकर ने उन्हें यह कह कर रोक लिया कि हे मधुसूदन आपने रावण और कंस या किसी भी प्रमुख दैत्यराज का वध चक्र से नहीं किया है। आप चक्र को लौटा लीजिए। दैत्य मेरा परम भक्त है।

सोहागपुर में शंकर मंदिर के सामने एक प्रस्तर भुजा अभी भी पड़ी है जिसे बांणासुर की भुजा बताई जाती है। बांणासुर ने हाथ जोड़कर शिव से एक वरदान माँगा कि ऊषा-अनिरुद्ध से उत्पन्न उसका दौहित्य शोणितपुर पर राज्य करे। उसके बाद शिव कैलाश और कृष्ण द्वारका चले गए। यह  कहानी इस तरफ़ संकेत करती है कि आर्य-अनार्य संस्कृतियों का सम्मिलन नर्मदा घाटी में घटित हो रहा था।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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