हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 53 ☆ बुंदेली ग़ज़ल – मंजिल की सौं… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित बुंदेली ग़ज़ल    ‘मंजिल की सौं…। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 53 ☆ 

☆ बुंदेली ग़ज़ल – मंजिल की सौं… ☆ 

मंजिल की सौं, जी भर खेल

ऊँच-नीच, सुख-दुःख. हँस झेल

 

रूठें तो सें यार अगर

करो खुसामद मल कहें तेल

 

यादों की बारात चली

नाते भए हैं नाक-नकेल

 

आस-प्यास के दो कैदी

कार रए साँसों की जेल

 

मेहनतकश खों सोभा दें

बहा पसीना रेलमपेल

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 40 ☆ पर्यावरण दिवस विशेष – नदी की मनोव्यथा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  5 जून पर्यावरण दिवस पर विशेष कविता  “नदी की मनोव्यथा “।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 40 ☆ पर्यावरण दिवस विशेष – नदी की मनोव्यथा 

जो मीठा पावन जल देकर हमको सुस्वस्थ बनाती है

जिसकी घाटी और जलधारा हम सबके मन को भाती है

तीर्थ क्षेत्र जिसके तट पर हैं जिनकी होती है पूजा

वही नर्मदा माँ दुखिया सी अपनी व्यथा सुनाती है

 

पूजा तो करते सब मेरी पर उच्छिष्ट बहाते हैं

कचरा पोलीथीन फेंक जाते हैं जो भी आते हैं

मैल मलिनता भरते मुझमें जो भी रोज नहाते हैं

गंदे परनाले नगरों के मुझमें ही डाले जाते हैं

 

जरा निहारो पड़ी गन्दगी मेरे तट और घाटों में

सैर सपाटे वाले यात्री ! खुश न रहो बस चाटों में

मन के श्रद्धा भाव तुम्हारे प्रकट नहीं व्यवहारों में

समाचार सब छपते रहते आये दिन अखबारों में

 

ऐसे इस वसुधा को पावन मैं कैसे कर पाउँगी ?

पापनाशिनी शक्ति गवाँकर विष से खुद मर जाउंगी

मेरी जो छबि बसी हुई है जन मानस के भावों में

धूमिल वह होती जाती अब दूर दूर तक गांवों में

 

प्रिय भारत में जहाँ कहीं भी दिखते साधक सन्यासी

वे मुझमें डुबकी, तर्पण,पूजन,आरति के हैं अभिलाषी

तुम सब मुझको माँ कहते, तो माँ को बेटों सा प्यार करो

घृणित मलिनता से उबार तुम  मेरे सब दुख दर्द हरो

 

सही धर्म का अर्थ समझ यदि सब हितकर व्यवहार करें

तो न किसी को कठिनाई हो, कहीं न जलचर जीव मरें

छुद्र स्वार्थ नासमझी से जब आपस में टकराते हैं

इस धरती पर तभी अचानक विकट बवण्डर आते हैं

 

प्रकृति आज है घायल, मानव की बढ़ती मनमानी से

लोग कर रहे अहित स्वतः का, अपनी ही नादानी से

ले निर्मल जल, निज क्षमता भर अगर न मैं बह पाउंगी

नगर गांव, कृषि वन, जन मन को क्या खुश रख पाउँगी ?

 

प्रकृति चक्र की समझ क्रियायें,परिपोषक व्यवहार करो

बुरी आदतें बदलो अपनी, जननी का श्रंगार करो

बाँटो सबको प्यार, स्वच्छता रखो, प्रकृति उद्धार करो

जहाँ जहाँ भी विकृति बढ़ी है बढ़कर वहाँ सुधार करो

 

गंगा यमुना सब नदियों की मुझ सी राम कहानी है

इसीलिये हो रहा कठिन अब मिलना सबको पानी है

समझो जीवन की परिभाषा, छोड़ो मन की नादानी

सबके मन से हटे प्रदूषण, तो हों सुखी सभी प्राणी !!

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #5 – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे  ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है   – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे  )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #5 – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

एक हिंदू ब्राह्मण परिवार में 26 दिसंबर 1914 को हिंगनघाट, वर्धा में देवीदास के घर एक बच्चे का जन्म हुआ। उसका नाम मुरलीधर रखा गया। देवीदास ब्रिटिश सरकार के जिला प्रशासन और राजस्व विभाग में अधिकारी थे। मुरलीधर को अंग्रेज़ी तौर तरीक़ों की तर्ज़ पर बचपन में बाबा करके पुकारा जाता था। वह आठ बच्चों में सबसे बड़ा था। उसका बचपन एक अच्छी हैसियत के ब्रिटिश नौकरशाह के सबसे बड़े बेटे के रूप में शिकार और खेलों की रोमांचक  घटनाओं के बीच बीता था। वह चौदह वर्ष की उम्र में बंदूक लेकर भालू और हिरण का शिकार करता था। जब वह गाड़ी चलाने योग्य हुआ तो पिता ने उसे पैंथर की खाल से बनी कुशन की गद्दियों वाली स्पोर्ट्स कार भेंट की थी। यद्यपि वह एक धनी परिवार में पैदा हुआ था, लेकिन हमेशा भारतीय समाज में व्याप्त  असमानता के बारे में सोचता रहता था। वह अपने पिता की नाराज़गी के बावजूद नौकरों के बच्चों के साथ नियमित रूप से खेलता था। दीवाली के दिन जब पूरा शहर जगमगा रहा था तब दोस्तों के साथ बाज़ार में मटरगश्ती करते हुए उसका एक अंधे भिखारी से सामना हुआ। उसने मौज में आकर अपनी सिक्कों से भरी जेब को भिखारी के कटोरे में खाली कर दिया। भिखारी को बहुत सारे सिक्कों की खनक से और कटोरे के भार से महसूस हुआ कि उसे मूर्ख बनाया जा रहा है। वह बोला- “मै एक मजबूर भिखारी  हूँ। मेरे कटोरे में पत्थर मत डालो, बाबा।”, लड़के ने जवाब दिया “ये चोखे सिक्के हैं, पत्थर नहीं। आप चाहें तो कुछ ख़रीद कर इन्हें परख लें।”

इस घटना ने लड़के के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ा कि इस तरह के दुःखी इंसान  उसकी ज़िंदगी के बिलकुल करीब मौजूद हैं, जिनकी जिंदगियों में आशा और विश्वास सिरे से नदारद हो चुके हैं। उसे अपने पिता की विलासिता से भरी दुनिया में ग़रीबों के प्रति मौजूद उपेक्षापूर्ण निर्दयता से चिढ़ होती थी। लोग इतने बेरहम कैसे हो सकते हैं कि आसपास बजबजाती ग़रीबी और भूखमरी से अनजान बने रहकर गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं। 

मुरलीधर एक डॉक्टर बनने की इच्छा रखता था, लेकिन उसके पिता ने उसे वकील बनने के लिए मजबूर किया। वह चाहते थे कि उनका बेटा बड़ा वकील बनकर परिवार की मिल्कियत को संभाले। लड़के ने धनाढ्य वातावरण के जीवन को बहुत अच्छी तरह से अपना लिया। अपने दिन घुड़सवारी, शिकार, क्लब में ताश के पत्तों और टेनिस खेलने में बिताता था। वह अमीरों का एक समृद्ध जीवन जी रहा था जो मानते हैं कि पैतृक विशेषाधिकार केवल भाग्यशाली को जीने का मौका देते हैं और उनका ग़रीबों के भाग्य के प्रति कोई दायित्व नहीं है। इस विलासिता पूर्ण जीवन के बीच वह बेचैन रहता था। एक दिन उसे लगा जैसे उसे दुनिया में एक बड़ा उद्देश्य पूरा करना है।

मुरलीधर कानून में प्रशिक्षित होकर वर्धा में वकालत शुरू करके एक सफल वकील बन गया। वह महात्मा गांधी और बिनोवा भावे से प्रभावित होकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के कारण अंग्रेज सरकर द्वारा कैद में डाला गया। उन्होंने भारतीय नेताओं के लिए एक बचाव वकील के रूप में काम करना शुरू किया। महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए सेवाग्राम आश्रम में कुछ समय बिताया और गांधीजी के अनुयायी बन गए। उन्होंने चरखे से बनाई खादी पहनकर गांधीजी  के विचारों प्रचार किया। जब गांधीजी को पता चला कि मुरलीधर ने एक ब्रिटिश अफ़सर के अत्याचार व उत्पीड़न  से एक भारतीय लड़की को बचाया है, तब उन्होने उसे “सत्य का निडर साधक” नाम दिया था।

उन दिनों कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को एक सामाजिक कलंक माना जाता था। ऐसे रोगी समाज की मुख्य धारा से कटकर उपेक्षित जीवन जीने को अभिशप्त थे। मुरलीधर ने इस विचारधारा को, कि कोढ़ एक संक्रामक छुआछूत रोग है, को दूर करने का प्रयास किया। यहां तक कि उन्होंने एक कोढ़ी को साथ रहने की अनुमति दी। यह साबित करने के उद्देश्य से एक प्रयोग के हिस्से के रूप में उन्हें इंजेक्शन भी लेने पड़े थे। तुलसीराम नाम के कुष्ठ पीड़ित व्यक्ति के साथ मुलाक़ात ने उनकी आत्म-छवि को चकनाचूर कर दिया। उसने देखा तुलसीराम कुष्ठ रोग के अंतिम चरण में वह एक मांस के टुकड़ों के साथ हाथ-पैर की उंगलियों के बिना कीड़े और घावों के साथ वास्तव में एक जीवित लाश था। वह संक्रमण से घबरा गया। उसने खुद को निडर बनाने के बारे में सोचा। अगले 6 महीनों के लिए वह इस संकट की बेदर्द पीड़ा में रहा। उसने सोचा “जहाँ भय है वहाँ प्रेम नहीं है, और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ कोई भगवान नहीं है।” भय और घृणा से घिरे कोढ़ियों की इस समस्या पर काबू पाने का उसे केवल एक ही तरीका लग रहा था कि उसे कुष्ठ पीड़ित लोगों के साथ रहना और काम करना होगा। उन्होंने सोचा और संकल्प किया “मुझे किसी भी चीज़ से कभी डर नहीं लगा जब मैंने एक भारतीय महिला का सम्मान बचाने के लिए ब्रिटिश ठोकरों से लड़ाई लड़ी, गांधी जी ने मुझे ‘अभय साधक’ कहा, जो सत्य का निर्भीक साधक था। जब वरोरा के सफाईकर्मियों ने मुझे नाले की सफाई के लिए चुनौती दी, तो मैंने ऐसा किया, लेकिन जब मैंने तुलसीराम की जीवित लाश देखी, मैं डर गया। मुझे इस डर पर क़ाबू पाकर कुष्ठ पीड़ितों के प्रति प्रेम में बदलना होगा।”

मुरलीधर ने कुष्ठ रोगियों की सेवा करने का निर्णय इस कारण लिया कि उन्हें एक ऐसे समाज का हिस्सा बनने में घृणा महसूस होती थी जो ऐसे दलित मनुष्यों की दुर्दशा के प्रति बहुत ही उदासीन था। उन्होंने इस उदासीनता को ‘मानसिक कुष्ठ’ के रूप में माना, जो कि सबसे भयावह बीमारी है जो किसी के अंगों को ही नहीं गला रही है, लेकिन अन्य मनुष्यों के लिए दया और करुणा महसूस करने के लिए प्रेम की  ताकत खो रही है।

उन्होंने लिखा:- “मैंने भगवान से अपनी आत्मा मांगी, लेकिन मेरी आत्मा नदारत थी। मैंने अपने में भगवान की तलाश की, लेकिन मेरे भीतर भगवान भी नदारत था, तब मैंने सेवा हेतु भाई-बहनों की मांग की, मुझे उनमें आत्मा, भगवान और जीवन लक्ष्य मिल गया।”

उन्होंने 1949 में 4 रुपये, 6 कुष्ठ रोगियों और एक लंगड़ी गाय के साथ वरोरा में आश्रम स्थापित करके पूरे महाराष्ट्र में अपना काम फैलाया है। अब वे बाबा कहलाने लगे थे। कई संगठनों ने बाबा के कार्यों से प्रेरणा ली है और देश भर में और यहां तक कि पूरी दुनिया में काम करते रहे हैं। दुनिया भर में मुरलीधर ने जो प्रभाव डाला, वह अचूक है और उनकी आत्मा एक दुर्लभ रत्न है जिसे दुनिया भाग्यशाली मानती थी।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52 – गुरु दक्षिणा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52  ? गुरु दक्षिणा  ?  श्री आशीष कुमार☆

एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जी, कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं। इनमें कौन सही है?’

गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया- ‘पुत्र, जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।’

यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था। गुरु जी को इसका आभास हो गया।वे कहने लगे- ‘लो, तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ। ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे।’

उन्होंने जो कहानी सुनाई, वह इस प्रकार थी-

एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए। गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे- ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’

वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे। सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले- “जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा।’’

अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहूंच चुके थे।लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं, उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया।वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे। अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था। अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके। वहाँ पहूंच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी। पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी।।अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये।

गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेह पूर्वक पूछा- ‘पुत्रो, ले आये गुरुदक्षिणा?’ 

तीनों ने सर झुका लिया।

गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा-  ‘गुरुदेव, हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये। हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं।”  

गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो।’

तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये।

वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था, अचानक बड़े उत्साह से बोला- ‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं।आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है।’

गुरु जी भी तुरंत ही बोले- ‘हाँ, पुत्र, मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके। दूसरे, यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें।’

“यदि हम मन, वचन और कर्म- इन तीनों ही स्तरों पर इस कहानी का मूल्यांकन करें, तो भी यह कहानी खरी ही उतरेगी। सब के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त मन वाला व्यक्ति अपने वचनों से कभी भी किसी को आहत करने का दुःसाहस नहीं करता और उसकी यही ऊर्जा उसके पुरुषार्थ के मार्ग की समस्त बाधाओं को हर लेती है। वस्तुतः, हमारे जीवन का सबसे बड़ा ‘उत्सव’  पुरुषार्थ ही होता है-ऐसा विद्वानों का मत है।

अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -17 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 17 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

जैसे कली से कमल थोड़ा-थोड़ा बडा होकर खिलता है, वैसे ही मेरी प्रगति धीरे-धीरे बढ़ रही थी। मेरे व्यक्तित्व के अच्छे गुण भी पल्लवित हो रहे थे। नवरत्न दीपावली अंक के माध्यम से हमारा छोटा सा ‘वाचन कट्टा’ महिलाओं की कविता, कहानियों से भर गया। उसी के कारण हमारा कविता सुनाना शुरू हो गया। उनमें की सहेली सौ. मुग्धा कानीटकर ने अपने घर के हॉल में मेरा अकेली का नृत्य का कार्यक्रम रखा था। उसी के साथ हमारे सहेलियों को भी आमंत्रित किया था। उसमें मैंने भरतनाट्यम का नृत्याविष्कार पेश किया। कविता भी सुनाई। सभी सहेलियों ने हृदय से मेरी प्रशंसा की। उनके प्रतिसाद के कारण मुझे प्रोत्साहन मिला।

उसके साथ-साथ मिरज के पाठक वृद्धाश्रम में ८ मार्च ‘महिला दिन’ पर कार्यक्रम में मेरी अदा का सादरीकरण करने का मौका मिल गया। सभी दीदियों ने मुझ पर आनंद और खुशियां बरसा दी।

५ जानेवारी २०२० में हमारे ‘नवरत्न’ दीपावली अंक का पुरस्कार प्रदान समारोह सेलिब्रिटी श्री प्रसाद पंडित इनके साथ संपन्न हुआ। उस वक्त मुझे स्वातंत्रवीर सावरकरजी के ‘जयोस्तुते’ गीत नृत्य के रूप में पेश करने को मिला। विशेषता यह थी कि सब दर्शकों ने हाथ से नृत्य और गाने को ताल लगाकर अभिवादन किया। यह सब अर्थ मुझे बाद में समझ आ गया। सब दर्शकों ने पूरा सहयोग दिया। विशेषता यह है कि श्री. प्रसाद पंडित जी ने मेरे प्राविण्यता को पीठ थपथपाकर गर्व से कहा, “शिल्पा ताई हमें आपके साथ एक फोटो खींचना है।”

मेरी वक्तृत्व की कला देखकर मैं सूत्रसंचालन भी कर सकूंगी ऐसा समझ में आने के बाद मुझे तीन बड़े कार्यक्रम का सूत्र संचालन करने का मौका दिया गया। ‘नवरत्न’ दीपावली अंक के प्रकाशन में वक्त सूत्रसंचालन करके गोखले चाची की मदद से यशस्विता प्राप्त कर ली। अध्यक्ष जी बहुत भावुक हो गए, उन्होंने ही मुझे शॉल और श्रीफल देकर गौरव किया। उसके बाद मेरे भाई न्यायाधीश होने के बाद मेरे माता और पिता जी ने भाई की विद्वता को जानकर एक छोटे से समारोह का आयोजन किया था। उसके भी सूत्र संचालन की जिम्मेदारी मैंने संपन्न की। लोगों ने मेरा बहुत बड़ा सम्मान किया। दूसरे दिन पंकज भैया मुझे बोले, शिल्पा ने कल सामने कागज नहीं होते हुए भी मुंह से जोर-जोर से शब्दों का भंडार सबके सामने रखा। मेरी सहेली सौ. अनीता खाडीलकर के ‘मनपंख’ पुस्तक का प्रकाशन भी संपन्न हुआ। उस पुस्तक के प्रकाशन का सूत्र संचालन भी मैंने यशस्विता के साथ संपन्न किया।

मेरी आंखों के सामने हमेशा के लिए सिर्फ काला-काला अंधेरा होते हुए भी मैं नजदीक वाले लोगों के सामने प्रकाश का किरण ला सकी। इस बात की मुझे बहुत बड़ी खुशी है। यह सब करिश्मा भगवान का है।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 66 – बाळ गीत – शाळेत जाऊ द्याल का? ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 66 – बाळ गीत – शाळेत जाऊ द्याल का?

आई बाबा आई बाबा

पाटी पेन्सिल घ्याल का!

पाटीवरती घेऊन दप्तर

शाळेत जाऊ द्याल का!

 

भांडीकुंडी भातुकली

आता नको मला काही।

दादा सोबत एखादी

द्याल का घेऊन वही।

 

नका ठेऊ मनी आता

मुले मुली असा भेद।

शिक्षणाचे द्वार खोला

भविष्याचा घेण्या वेध।

 

कोवळ्याशा मनी माझ्या

असे शिकण्याची गोडी।

प्रकाशित जीवन  होई

ज्योत पेटू द्या ना थोडी।

 

पार करून संकटे

उंच घेईल भरारी।

आव्हानांना झेलणारी

परी तुमची करारी।

 

सार्थ करीन विश्वास

थोडा ठेऊनिया पाहा।

थाप अशी कौतुकाची

तुम्ही  देऊनिया पाहा।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 93 ☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 93 ☆

☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ 

ग़लत सोच, ग़लत अंदाज़ इंसान को हर रिश्ते से  गुमराह कर देता है। इसलिए सबको साथ रखो, स्वार्थ को नहीं, क्योंकि आपके विचारों से अधिक कोई भी आपको कष्ट नहीं पहुंचा सकता– यह कथन कोटिशः सत्य है। मानव की सोच ही शत्रुता व मित्रता का मापदंड है। ग़लत सोच के कारण आप पूरे जहान को स्वयं से दूर कर सकते हैं; जिसके परिणाम-स्वरूप आपके अपने भी आपसे आंखें चुराने लग जाते हैं और आपको अपनी ज़िंदगी से बेदखल कर देते हैं। यदि आपकी सोच सकारात्मक है, तो आप सबकी आंखों के तारे हो जाते हैं। सब आपसे स्नेह रखते हैं।

ग़लत सोच के साथ-साथ ग़लत अंदाज़ भी बहुत ख़तरनाक होता है। इसीलिए गुलज़ार ने कहा है कि लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं और इंसान को लफ़्ज़ों को परोसने से पहले अवश्य चख लेना चाहिए। महात्मा बुद्ध की सोच भी यही दर्शाती है कि जिस व्यवहार की अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं, वैसा व्यवहार आपको उनके साथ भी करना चाहिए, क्योंकि जो भी आप करते हैं; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म कीजिए, ताकि आपको उसका अच्छा फल प्राप्त हो सके।

मानव स्वयं ही अपना सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि जैसी उसकी सोच व विचारधारा होती है, वैसी ही उसे संपूर्ण सृष्टि भासती है। इसलिए कहा जाता है कि मानव अपनी संगति से पहचाना जाता है। उसे संसार के लोग इतना कष्ट नहीं पहुंचा सकते; जितनी आप स्वयं की हानि कर सकते हैं। सो! मानव को स्वार्थ का त्याग करना कारग़र है। इसके लिए उसे अपनी मैं अथवा अहं का त्याग करना होगा। अहं मानव को आत्मकेंद्रिता के व्यूह में जकड़ लेता है और वह अपने घर-परिवार के इतर कुछ भी नहीं सोच पाता। सो! मानव को सदैव ‘सर्वे भवंतु सुखीन:’ की कामना करनी चाहिए, क्योंकि हम भारतीय वसुधैव कुटुंबकम् की संस्कृति में विश्वास रखते हैं, जो सकारात्मक सोच का प्रतिफल है।

सुख व्यक्ति के अहंकार की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की और सुख और दु:ख दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाला व्यक्ति ही सफल होता है। मानव को सुख-दु:ख में सदैव सम रहना चाहिए, क्योंकि सुख में व्यक्ति अहंनिष्ठ हो जाता है और किसी को अपने समान नहीं समझता। दु:ख में व्यक्ति के धैर्य की परीक्षा होती है। परंतु दु:ख में वह टूट जाता है और पथ-विचलित हो जाता है। उस स्थिति में चिंता व तनाव उसे घेर लेते हैं और वह अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है। सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है; दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक की उपस्थिति होने पर दूसरा कभी दस्तक नहीं देता और उसके जाने के पश्चात् ही वह आता है। सृष्टि का क्रम आना और जाना है। मानव संसार में जन्म लेता है और कुछ समय पश्चात् उसे अलविदा कह चला जाता है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है।

परमात्मा हमारा भाग्य नहीं लिखता। हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य निश्चित करते हैं। जैसी हमारी सोच होगी, वैसे हमारे विचार होंगे और कर्म भी यथानुकूल होंगे। हमें किसी के प्रति ग़लत विचारधारा नहीं बनानी चाहिए, क्योंकि यह हमारे अंतर्मन में शत्रुता का भाव जाग्रत करती है और दूसरे लोग भी हमारे निकट आना तक पसंद नहीं करते। उस स्थिति में सब स्वप्न व संबंध मर जाते हैं। इसलिए मानव को ग़लत सोच कभी नहीं रखनी चाहिए और बोलने से पहले सदैव सोचना चाहिए, क्योंकि हमारे बोलने के अंदाज़ से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए रहीम जी का यह दोहा मानव को मधुर वाणी में बोलने की सीख देता है– ‘रहिमन वाणी ऐसी बोलिए, मनवा शीतल होय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल होय।’ इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य का उल्लेख करना चाहूंगी कि मानव को तभी बोलना चाहिए जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों अर्थात् यथासमय, अवसरानुकूल सार्थक शब्दों का ही प्रयोग करना श्रेयस्कर है।

                  

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 45 ☆ चेदि के नंदिकेश्वर ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख  “चेदि के नंदिकेश्वर”.)

☆ किसलय की कलम से # 45 ☆

☆ चेदि के नंदिकेश्वर ☆

देवाधिदेव महादेव भगवान शिव की पूजा आराधना तो बहुत बाद की बात है, भोले शंकर के स्मरण मात्र से मानव अपने तन-मन में उनका अनुभव करने लगता है। पावन सलिला माँ नर्मदा की जन्मस्थली अमरकंटक से खंभात की खाड़ी तक 16 करोड़ शिवलिंग तथा दो करोड़ तीर्थ होने की मान्यता सुनकर आश्चर्य होता है। अतैव हम नर्मदातट को शिवमय क्षेत्र भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं माना जाएगा। नर्मदा तट के जनमानस में भगवान शिव के प्रति प्रारंभ से ही अगाध आस्था के प्रमाण उपलब्ध हैं। सोमेश्वर , मंगलेश्वर , तपेश्वर , कुंभेश्वर , शूलेश्वर , विमलेश्वर , मदनेश्वर , सुखेश्वर , ब्रम्हेश्वर , परमेश्वर , अवतारेश्वर एवं बरगी जबलपुर (मध्य प्रदेश) के नजदीक नंदिकेश्वर शिवलिंग आज भी विद्यमान हैं। नर्मदा में डुबकी लगाकर निकाले गए पाषाणों की शिवलिंग के रूप में स्थापना कर भक्तगण पूरी आस्था के साथ पूजा करते हैं। माँ नर्मदा की धारा में शिव रूपी पाषाण सहजता से देखे जा सकते हैं। ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ के परिवर्तन की स्थिति में नर्मदेश्वर की ही स्थापना की जाती है। नर्मदा एवं भगवान शिव की कृपा से नर्मदा के दोनों तटों के एक डेढ़ किलोमीटर क्षेत्र में कभी अकाल या दुर्भिक्ष नहीं पड़ता। इसीलिए यह क्षेत्र सुभिक्ष क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में यह भी देखा गया है कि हमारे अनेक ऋषियों ने नर्मदा के किनारे जिस स्थान को अपनी तपोस्थली बनाया अथवा जहाँ ठहरे वहाँ उन्हीं नाम से उस स्थान अथवा कुंड का नामकरण हो गया।

पौराणिक कथाओं, नर्मदा पुराण, धार्मिक ग्रंथों एवं ऐतिहासिक अभिलेखों के आधार पर प्राचीन चेदि के अंतर्गत महिष्मती एवं त्रिपुरी आती थी। महिष्मती के महाबली सहस्रार्जुन, परशुराम के पिताश्री जमदग्नि एवं चेदि नरेश शिशुपाल को कौन नहीं जानता। नर्मदा तट भगवान दत्तात्रेय, शिवभक्त रावण की तपोभूमि एवम् भ्रमण स्थली रही है। चेदि की प्राचीनता का प्रमाण इसी से लगाया जा सकता है कि चेदि नरेश स्वयं सीता जी के स्वयंवर में गए थे। बाल रामायण के अनुसार:-

सीतास्वयंवर निदान धनुर्धरेण

दग्धात्पुर त्रितयतो बिभूना भवेन्।

खंड निपत्य भुवि या नगरी बभूव

तामेष चैद्य तिलकस्त्रिपुरीम् प्रशस्ति।।

इसी तरह स्वयं भगवान राम ने अपने पिता दशरथ का पिंडदान भी नर्मदा तट पर ही किया था। परशुराम द्वारा सहस्रार्जुन के पुत्रों को मारने के उपरांत भयभीत हैहयवंशी राजा सुरक्षा की दृष्टि से त्रिपुरी (जो वर्तमान में जबलपुर, भेड़ाघाट मार्ग पर पश्चिम दिशा में 13 किलोमीटर दूर तेवर है) आ गए और त्रिपुरी को ही राजधानी के रूप में अपनाया । प्रमाणित है कि इसी त्रिपुरी में त्रिपुरासुर के अत्याचारों से त्रस्त देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव ने त्रिपुर नामक राक्षस का वध किया था।

बलशाली त्रिपुरासुर ने भगवान शिव के विश्वकर्मा द्वारा निर्मित अद्भुत रथ को भी जब छतिग्रस्त कर दिया तब अपने आराध्य की सहायतार्थ भगवान विष्णु ने मायावी बैल नंदी का रूप धारण कर रथ को अपने सींगों से ऊपर उठा लिया था। उसी समय  भगवान शिव त्रिपुर राक्षस का वध करके त्रिपुरारि अर्थात त्रिपुर के अरि (दुश्मन) नाम से विख्यात हुए। इसी तरह जैसा सभी जानते हैं कि विष्णु के आराध्य भगवान शिव ही हैं। अतः इस त्रिपुरासुर संग्राम स्थल पर विष्णु ने नंदी का रूप धारण किया था, जिस कारण नंदी के ईश्वर (आराध्य) अर्थात नंदिकेश्वर शिवलिंग की स्थापना की गई यहाँ से लगभग 7 किलोमीटर दूर जिस स्थान पर नंदी रूपी विष्णु भगवान ने विश्राम किया था वह स्थान नाँदिया घाट नाम से विख्यात है। नंदिकेश्वर के समीप ही भगवान परशुराम के पिता जमदग्नि की तपोभूमि के पास जमदग्नि कुंड एवम् ब्रह्महत्या के पाप से भी मुक्ति दिलाने वाले हत्याहरण कुंड का स्थित होना समसामयिक तत्त्वों की पुष्टि करता है। ज्ञातव्य है कि इनमें से अनेक स्थल नर्मदा नदी पर बरगी बाँध बनने के कारण जलमग्न हो चुके हैं। हम पाते हैं कि त्रिपुरासुर वध विषयक शिलालेख से प्रतीत होता है कि शिव द्वारा त्रिपुरासुर का वध देवासुर संग्राम की कथा नहीं वरन आर्य एवं अनार्य जातियों के संघर्ष का प्रतीक है। महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 5-4 छंद 8 में त्रिपुरी एवं चेदि का उल्लेख मिलता है। प्रामाणिक रूप से उपरोक्त तथ्यों की ओर ध्यानाकर्षण का मात्र उद्देश्य वर्तमान प्रामाणिक स्थल हमारे पुराने एवं धार्मिक ग्रंथों के अनुसार कहे जा सकते हैं । जबलपुर जिले के बरगी नगर स्थित नंदिकेश्वर शिवलिंग की स्थापना परशुराम काल में ही की गई थी विद्वानों द्वारा की गई काल गणना के अनुसार राम जन्म के पूर्व परशुराम हुए थे। नंदिकेश्वर शिवलिंग का स्थापना काल लगभग 8 लाख वर्ष ही माना जाना चाहिए।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 92 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 92 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मन से पूजा कर रहा,

करें समर्पित आप।

राम राम जपते रहो,

मिट जायेंगे पाप।।

 

जन प्रियता की खोज में,

भटक रहे हैं लोग।

सिर्फ दिखावे के लिए,

रोज लगाए भोग।।

 

वादा तुमने जो किया,

लगी टकटकी द्वार।

सभी प्रतीक्षा रत यहां,

मानेंगे ना हार।।

 

पत्रों का हमने बहुत,

किया प्रेम व्यवहार।

जीवन में अब मिल रहा,

बस अपनों का प्यार।।

 

प्यार कहां अब दिख रहा,

दिखता है बस लोभ,

देखें ऐसा चेहरा,

छा जाता है शोभ।।

 

लोग स्वार्थी हो रहे,

नहीं समझते प्यार।

बात बात पर किया है,

बस केवल तकरार।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 82 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 82 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

पूजा निश दिन कीजिये, हैं ईश्वर अवतार

मात-पिता से जो करें, गर वो सच्चा प्यार

 

सेवा से प्रियता मिले, मिलता प्रेम अपार

पर हित से बढ़ कर नहीं, धरम न दूजा यार

 

कोरोना में ही लगा, यहाँ सभी का ध्यान

जाने की अब प्रतीक्षा, करता सकल जहान

 

मोबाइल के दौर में, कम ही लिखते पत्र

कमी आ गई डाक में, बदल गए नक्षत्र

 

जहाँ प्यार के नाम पर, नव पीढ़ी स्वछंद

संस्कार दूषित हुए, तँह क्यूँ है मुँह बन्द

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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