(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #54 संघर्ष से बनती है जिंदगी बेहतर श्री आशीष कुमार☆
हर किसी के जीवन में कभी ना कभी ऐसा समय आता है जब हम मुश्किलों में घिर जाते हैं और हमारे सामने अनेकों समस्यायें एक साथ आ जाती हैं। ऐसी स्थिति में ज्यादातर लोग घबरा जाते हैं और हमें खुद पर भरोसा नहीं रहता और हम अपना आत्मविश्वास खो देते हैं। और खुद प्रयास करने के बजाय दूसरों से उम्मीद लगाने लग जाते हैं जिससे हमें और ज्यादा नुकसान होता है तथा और ज्यादा तनाव होता है और हम नकारात्मकता के शिकार हो जाते हैं और संघर्ष करना छोड़ देते हैं।
एक आदमी हर रोज सुबह बगीचे में टहलने जाता था। एक बार उसने बगीचे में एक पेड़ की टहनी पर एक तितली का कोकून (छत्ता) देखा। अब वह रोजाना उसे देखने लगा। एक दिन उसने देखा कि उस कोकून में एक छोटा सा छेद हो गया है। उत्सुकतावश वह उसके पास जाकर बड़े ध्यान से उसे देखने लगा। थोड़ी देर बाद उसने देखा कि एक छोटी तितली उस छेद में से बाहर आने की कोशिश कर रही है लेकिन बहुत कोशिशो के बाद भी उसे बाहर निकलने में तकलीफ हो रही है। उस आदमी को उस पर दया आ गयी। उसने उस कोकून का छेद इतना बड़ा कर दिया कि तितली आसानी से बाहर निकल जाये | कुछ समय बाद तितली कोकून से बाहर आ गयी लेकिन उसका शरीर सूजा हुआ था और पंख भी सूखे पड़े थे। आदमी ने सोचा कि तितली अब उड़ेगी लेकिन सूजन के कारण तितली उड़ नहीं सकी और कुछ देर बाद मर गयी।
दरअसल भगवान ने ही तितली के कोकून से बाहर आने की प्रक्रिया को इतना कठिन बनाया है जिससे की संघर्ष करने के दौरान तितली के शरीर पर मौजूद तरल उसके पंखो तक पहुँच सके और उसके पंख मजबूत होकर उड़ने लायक बन सकें और तितली खुले आसमान में उडान भर सके। यह संघर्ष ही उस तितली को उसकी क्षमताओं का एहसास कराता है।
यही बात हम पर भी लागू होती है। मुश्किलें, समस्यायें हमें कमजोर करने के लिए नहीं बल्कि हमें हमारी क्षमताओं का एहसास कराकर अपने आप को बेहतर बनाने के लिए हैं अपने आप को मजबूत बनाने के लिए हैं।
इसलिए जब भी कभी आपके जीवन में मुश्किलें या समस्यायें आयें तो उनसे घबरायें नहीं बल्कि डट कर उनका सामना करें। संघर्ष करते रहें तथा नकारात्मक विचार त्याग कर सकारात्मकता के साथ प्रयास करते रहें। एक दिन आप अपने मुश्किल रूपी कोकून से बाहर आयेंगे और खुले आसमान में उडान भरेंगे अर्थात आप जीत जायेंगे।
(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गीजी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)
☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 18 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆
(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)
(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी ने किया है। इस श्रंखला की यह अंतिम कड़ी है। )
‘नवरत्न’ परिवार में मेरा प्रवेश होने के साथ ही नृत्य के साथ मेरी साहित्य की रूचि दिन-ब-दिन बढ़ने लगी, वह बढ़ती ही गई। हम सब सहेलियों का ‘काव्य कट्टा’ बीच-बीच में रंग भर रहा था। उससे स्फूर्ती लेकर मेरी कलम से काव्य रचनाएँ प्रकट होने लगी ।
ऐसा कहा जाता है ‘संगति साथ दोष’। फिर भी मेरे साथ संगति के साथ काव्य बनता रहा। सहजता से अच्छी अच्छी कविताएं मैं लिखने लगी। विशेषकर यह कहना चाहती हूँ, हमारी सहेली सौ. जेरे मौसी, जो ७७ बरस की थी, उन्होंने मुझे अच्छी राह दिखाई। काव्य कैसे प्रकट होना चाहिए, लुभावना कैसे होना चाहिए यह सिखाया।
मेरा पहला काव्य ‘मानसपूजा’ प्रभू विठ्ठल की षोडशोपचार पूजा काव्य में गुंफ दी। कोजागिरी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक मैं मम्मी के साथ घर के नजदीक विठोबा मंदिर में सुबह ५ बजे काकड़ आरती के लिए जाती थी। मंदिर की अभंगवाणी, आरती मेरे मन में दिनभर गूँजती थी। उससे ही मेरे यह काव्य कागज पर उतरने लगे।
एक एक प्रसंग के रूप में बहुत सी कविताएं मैंने लिख दी। मैं मन ही मन में कविता रचाकर ध्यान में रखती थी। जब वक्त मिलेगा तब गोखले चाची को फोन पर बताती थी। हमारा वक्त दोपहर ३ बजे तय हो गया था। मैं मेरे घर के फोन से कविता बताती थी। चाची वह कागज पर लिखती थी। मेरे फोन की घंटी बजने से पहले ही चाची कागज, कलम लेकर तैयार रहती थी। इसी तरह काव्य जल्द ही- जल्द कागज पर उतरने लगा। मेरे मन और मस्तिष्क को ज्ञान का भंडार मिल गया। हमेशा मन और मस्तिष्क ज्यादा से ज्यादा काम करने लगा।
मेरे मामा जी हिमालय दर्शन करके आए थे। उन्होने मुझे और मम्मी को उनके प्रवास का इतना रसीला वर्णन कहा कि हमें लगा हम दोनों हिमालय का दर्शन करके आए हैं। मेरे मन में, मस्तिष्क में हिमालय की काव्य रचना होने लगी। सच में मेरे नेत्रविहीन दृष्टी के सामने हिमालय खड़ा हो गया। हिमालय की कविता तैयार हो गई। मेरी कविता सबको बहुत अच्छी लगी।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख आईना झूठ नहीं बोलता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 95 ☆
☆ आईना झूठ नहीं बोलता ☆
लोग आयेंगे, चले जायेंगे। मगर आईने में जो है, वही रहेगा, क्योंकि आईना कभी झूठ नहीं बोलता, सदैव सत्य अर्थात् हक़ीक़त को दर्शाता है…जीवन के स्याह व सफेद पक्ष को उजागर करता है। परंतु बावरा मन यही सोचता है कि हम सदैव ठीक हैं और दूसरों को स्वयं में सुधार लाने की आवश्यकता है। यह तो आईने की धूल को साफ करने जैसा है, चेहरे को नहीं, जबकि चेहरे की धूल साफ करने पर ही आईने की धूल साफ होगी। जब तक हम आत्मावलोकन कर दोष-दर्शन नहीं करेंगे; हमारी दुष्प्रवृत्तियों का शमन कैसे संभव होगा? हम हरदम परेशान व दूसरों से अलग-थलग रहेंगे।
जीवन मेंं सदैव दूसरों का साथ अपेक्षित है। सुख बांटने से बढ़ता है तथा दु:ख बांटने से घटता है। दोनों स्थितियों में मानव को लाभ होता है। सुंदर संबंध शर्तों व वादों से नहीं जन्मते, बल्कि दो अद्भुत लोगों के मध्य संबंध स्थापित होने पर ही होते हैं। जब एक व्यक्ति अपने साथी पर अथाह, गहन अथवा अंधविश्वास करता है और दूसरा उसे बखूबी समझता है, तो यह है संबंधों की पराकाष्ठा।
सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधा हुआ। दोनों में यदि अंतर भी हो, तो भी भाव-धरातल पर समता की आवश्यकता है। इसी में जाति, धर्म, रंग, वर्ण का ही स्थान नहीं है, बल्कि पद-प्रतिष्ठा भी महत्वहीन है। वैसे प्यार व दोस्ती तो विश्वास पर कायम रहती है, शर्तों पर नहीं। महात्मा बुद्ध का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है कि ‘जल्दी जागना सदैव लाभकारी होता है। फिर चाहे नींद से हो, अहं से, वहम से या सोए हुए ज़मीर से। ख़िताब, रिश्तेदारी सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है…बशर्ते लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग से नहीं।’ सो! संबंध तीन-चार वर्ष में समाप्त होने वाला डिप्लोमा व डिग्री नहीं, जीवन भर का कोर्स है। यह अनुभव व जीने का ढंग है। सो! आप जिससे संबंध बनाते हैं, उस पर विश्वास कीजिए। यदि कोई उसकी निंदा भी करता है, तो भी आप उसके प्रति मन में अविश्वास का भाव न पनपने दें, बल्कि संकट की घड़ी में उसकी अनुपस्थिति में ढाल बन कर खड़े रहें। लोगों का काम तो कहना होता है। वे किसी को उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख, केवल ईर्ष्या ही नहीं करते; उनकी मित्रता में सेंध लगा कर ही सुक़ून पाते हैं। सो! कबीर की भांति आंख मूंदकर नहीं, आंखिन देखी पर ही विश्वास कीजिए। उन्हीं के शब्दों में ‘बुरा जो ढूंढन मैं चला, मोसों बुरा न कोय।’ इसलिए अपने अंतर्मन में झांकिए, आप स्वयं में असंख्य दोष पाएंगे। दोषारोपण की प्रवृत्ति का त्याग ही आत्मोन्नति का सुगम व सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। केवल सत्य पर विश्वास कीजिए। झूठ के आवरण को हटाने के लिए चेहरे पर लगी धूल को हटाने की आवश्यकता है अर्थात् अपने अंतस की बुराइयों पर विजय पाने की दरक़ार है।
इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि ऐसे लोगों की ओर आकर्षित मत होइए, जो ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचे हैं,। वास्तव में वे तुम्हारे सच्चे हितैषी हैं, जो तुम्हें ऊंचाई से गिरते देख थाम लेते हैं। सो! लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग़ से नहीं। जहां प्रेम होता है, तमाम बुराइयां, अच्छाइयों में परिवर्तित हो जाती हैं तथा अविश्वास के दस्तक देते व अच्छाइयां लुप्तप्राय: हो जाती हैं। त्याग व समर्पण का दूसरा नाम दोस्ती है। इसमें दोनों पक्षों को अपनी हैसियत से बढ़ कर समर्पण करना चाहिए। अहं इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। ईगो अर्थात् अहं तीन शब्दों निर्मित है, जो रिलेशनशिप अर्थात् संबंधों को अपना ग्रास बना लेता है। दूसरे शब्दों में एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं। संबंध तभी स्थायी अथवा शाश्वत बनते हैं, जब उनमें अहं, राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होता।
सो! जिससे बात करने में खुशी दुगुन्नी तथा दु:ख आधा रह जाए, वही अपना है… शेष तो दुनिया है; जो तमाशबीन होती है। वैसे भी अहंनिष्ठ लोग समझाते अधिक व समझते कम हैं। इसलिए अधिकतर मामले सुलझते कम, उलझते अधिक हैं। यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसा जीवन। इसलिए कहा जाता है कि असंभव दुनिया में कुछ भी नहीं है। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोचते हैं। इसलिए कहा जाता है, मानव असीम शक्तियों का पुंज है। स्वेट मार्टन के शब्दों में ‘केवल विश्वास ही एकमात्र ऐसा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचा देता है।’ सो! विश्वास के साथ-साथ लगन व्यक्ति से वह सब करवा लेती है, जो वह नहीं कर सकता। साहस व्यक्ति से वह सब करवाता है; जो वह कर सकता है। किन्तु अनुभव व्यक्ति से वह करवा लेता है, जो उसके लिए करना अपेक्षित है। इसलिए अनुभव की भूमिका सबसे अहम् है, जो हमें ग़लत दिशा की ओर जाने से रोकती है और साहस व लग्न अनुभव के सहयोगी हैं।
परंतु पथ की बाधाएं हमारे पथ की अवरोधक हैं। सो! कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है। यहां साहस अपना चमत्कार दिखाता है। सो! संकट के समय परिवर्तन की राह को अपनाना चाहिए। तूफ़ान में कश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जाती हैं/ ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध के बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं। सो! अहंनिष्ठ मानव पल भर मेंं अर्श से फ़र्श पर आन गिरता है। इसलिए ऊंचाई पर पहुंचने के लिए मन में प्रतिशोध का भाव न पनपने दें, क्योंकि इसका जन्म ईर्ष्या व अहं से होता है। आंख बंद करने से मुसीबत टल नहीं जाती और मुसीबत आए बिना आंख नहीं खुलती। जब तक हम अन्य विकल्प के बारे में सोचते नहीं, नवीन रास्ते नहीं खुलते। इसलिए मुसीबतों का सामना करना सीखिए। यह कायरता है, पराजय है। ‘डू ऑर डाई, करो या मरो’ जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। ‘कौन कहता है आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’ दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। अक्सर मानव को स्वयं स्थापित मील के पत्थरों को तोड़ने में बहुत आनंद आता है। सो थककर राह में विश्राम मत करो और न ही बीच राह से लौटने का मन बनाओ। मंज़िल बाहें पसारे आपकी राह तकेंगी। स्वर्ग-नरक की सीमाएं निश्चित नहीं हैंं; हमारे कार्य-व्यवहार ही उन्हें निर्धारित करते हैं।
श्रेष्ठता संस्कारों से प्राप्त होती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। जिसने दूसरों के दु:ख में दु:खी होने का हुनर सीख लिया, वह कभी दुखी नहीं हो सकता। ‘ज़रा संभल कर चल/ तारीफ़ के पुल के नीचे से/ मतलब की नदी बहती है।’ इसलिए प्रशंसकों से सदैव दूरी बना कर रखनी चाहिए, क्योंकि ये उन्नति के पथ में अवरोधक होते हैं। इसलिए कहा जाता है, घमंड मत कर ऐ दोस्त/ अंगारे भी राख बनते हैं। इसलिए संसार में इस तरह जीओ कि कल मर जाना है। सीखो इस तरह कि जैसे आपको सदैव जीवित रहना है। शायद इसलिए ही थमती नहीं ज़िंदगी किसी के बिना/ लेकिन यह गुज़रती भी नहीं/ अपनों के बिना। सो! क़िरदार की अज़मत को न गिरने न दिया हमने/ धोखे बहुत खाए/ लेकिन धोखा न दिया हमने। इसलिए अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, आनंद आभास है/ जिसकी सबको तलाश है/ दु:ख अनुभव है/ जो सबके पास है। फिर भी ज़िंदगी में वही क़ामयाब है/ जिसे ख़ुद पर विश्वास है। इसलिए अहं नहीं, विश्वास रखिए। आपको सदैव आनंद की प्राप्ति होगी। रास्ते अनेक होते हैं। निश्चय आपको करना है कि आपको किस ओर जाना है।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख “हिन्दु धर्म के अस्तित्व एवं स्वाभिमान की बात”.)
☆ किसलय की कलम से # 47 ☆
☆ हिन्दु धर्म के अस्तित्व एवं स्वाभिमान की बात ☆
सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलयुग की आवृत्तियों की श्रंखला में अक्सर हमें सतयुग के समुद्र मंथन वाले विष्णु, त्रेता के समुद्र पर सेतु बनवाने वाले राम और द्वापर के समुद्र के अंदर निर्मित द्वारिका वाले कृष्ण के वृतांत ही सुनने पढ़ने मिलते हैं। इन सभी को, देवों के देव महादेव को या शक्तिरूपा माँ दुर्गा को आस्था और विश्वास सहित अपना आराध्य मानने वाले लोग पीढ़ी दर पीढ़ी सनातन धर्मियों के रूप में इस पृथ्वी पर जीवन जीते आ रहे हैं। वर्तमान में यही सनातन धर्म हिंदू धर्म के रूप में अपनी पहचान बना चुका है। आज हमारे धर्मशास्त्रों में वेद, पुराण, उपनिषद, महाभारत, रामायण, रामचरित मानस जैसे महान ग्रंथ एवं वृहद साहित्य उपलब्ध है। सप्रमाण इनकी प्राचीनता को परखा जा सकता है और हमारे हिन्दु धर्म को विश्व का प्राचीनतम धर्म कहने पर किसी को भी लेश मात्र संशय नहीं है।
देवासुर संग्राम, राम-रावण युद्ध महाभारत धर्मयुद्ध के साथ ही जाने कितनी उथल-पुथल हमारे समाज में हुई लेकिन आज भी हिन्दु धर्म और इसके अनुयायियों में कमी नहीं आई। हूण, शक, मुगल और अंग्रेजों द्वारा किये गए दमन, अत्याचार और उनके आधिपत्य के बावजूद हम हिन्दु आज विश्व के समक्ष सीना तानकर खड़े हैं। सभी विदेशी शासकों ने हिन्दु धर्म के अस्तित्व को मिटाने हेतु क्या नहीं किया, यह सभी को विदित है। साम-दाम-दंड-भेद की नीति से धर्मांतरण कराना आज भी जारी है।
आज जब हिन्दु धर्मावलम्बी दूसरे धर्मों को अपना लेते हैं, तब यह बताना भी जरूरी है कि हिन्दु धर्म में अन्य धर्मों की तुलना में कोई कमियाँ नहीं हैं बल्कि हिन्दु धर्म की उदारता, तरलता एवं शांतिप्रियता की आड़ में यह धर्मांतरण का खेल खेला जा रहा है। यह बात भी खुले मन से कही जा सकती है कि हमारी आर्थिक व सामाजिक व्यवस्थाओं में कमी भी इसका सबसे बड़ा कारण है। आर्थिक रूप से परेशान और सामाजिकता के दायरे में स्वयं को हीन समझने वाला इंसान भी अर्थ और सम्मान पाने भ्रम पाल बैठता है। यही भ्रम उसे धर्मांतरण हेतु प्रेरित करता है। इसके पश्चात जब हिन्दु धर्म तथा समाज का उसे यथोचित संभल नहीं मिलता तब वह अंत में टीस लिए न चाहते हुए भी धर्मांतरण कर लेता है। इसके अतिरिक्त अन्य तरह-तरह के प्रलोभन भी धर्मांतरण में सहायक बनते हैं। कभी-कभी ऐसे कारण भी हो सकते हैं जो उक्त श्रेणी में नहीं आते।
ऐसा ही धर्मांतरण का एक किस्सा है कि एक महाशय जिनका नाम ‘छेदी’ था। उसे लोग छेदी-छेदी पुकार कर चिढ़ाया करते थे। मानसिक रूप से परेशान श्री छेदी ने सोचा कि मैं क्यों न अपना धर्म बदल लूँ जिससे मेरा नाम भी बदल जाएगा। बस इतनी सी बात पर उसने ईसाई बनने की ठान ली। धर्म परिवर्तन का फंक्शन आयोजित हुआ और सभी के बीच चर्च के फादर ने उसका नामकरण करते हुए कहा- आज से तुम ‘मिस्टर होल’ के नाम से जाने जाओगे। फिर क्या था, सब लोग उसे मिस्टर होल – मिस्टर होल कहने लगे। अब उसे और बुरा लगने लगा। ऐसी परिस्थिति दुबारा निर्मित होने पर इसी नाम के चक्कर में वह पुनः धर्मांतरण हेतु इस्लाम धर्म कबूल करने पहुँच गया। अति तो तब हुई जब मौलवी साहब ने उसका नामकरण “सुराख अली” के रूप में किया। इतना सब कुछ करने के बाद उसका माथा ठनका की धर्मांतरण इस समस्या का हल नहीं है। निराकरण उसकी एवं उसके धर्मावलंबियों की सोच पर भी निर्भर करता है।
आशय यह है कि धर्मांतरण के लिए केवल वह व्यक्ति उत्तरदायी नहीं होता, उसका धर्मावलम्बी समाज भी उत्तरदायी होता है क्योंकि उसका धर्म उसे वह सब नहीं दे पाता जो दूसरे धर्म के लोग और दूसरे धर्म-प्रचारक अपने धर्म में शामिल करने हेतु थाली सजाकर उसको देने तैयार रहते हैं।
आज हिन्दु विश्व में अरबों की संख्या में हैं। जब संख्या बड़ी होती है तब सभी असतर्क, निश्चिंत और बहुसंख्यक होने के भ्रम में जीते रहते हैं। गैर धर्म के लोग हिन्दु धर्म में सेंध लगाते रहते हैं लेकिन हम उसे आज भी अनदेखा और अनसुना करते रहते हैं, जिसका ही परिणाम है कि लोग हमें गाय जैसा सीधा समझकर हमें परेशान करने से नहीं चूकते।
बस इसीलिए मैं गंभीरता पूर्वक यह बात पूछना चाहता हूँ कि सदियों, दशकों, वर्षों या यूँ कहें कि आए दिन हिन्दु धर्म, हिन्दु धर्मग्रंथों, हिन्दु देवी-देवताओं, हिन्दुओं के तीज-त्यौहार, पूजा-अर्चना और परंपराओं का अपमान करना और माखौल उड़ाना कितना उचित है? वे आपके दिए हुए प्रसाद का आदर नहीं करते, न ही खाते। आपके देवी-देवताओं और धार्मिक ग्रंथों के प्रति उनकी कोई श्रद्धा नहीं होती। हमारी उदारता देखिए कि हम उनके धार्मिक स्थलों और मजहबी कार्यक्रमों में टोपी पहन कर जाना धर्म-विरोधी नहीं मानते लेकिन वे हमारे धार्मिक कार्यक्रमों में तिलक लगाकर आने और शामिल होने से परहेज करते हैं। हम मंदिर, मस्जिद और गिरजाघरों को ईश्वर का घर मानते हैं लेकिन हमारे मंदिरों में जाने में, हमारे धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल होने में इतर धर्मियों को इतनी घृणा, इतनी नफरत और इतना परहेज क्यों रहता है?
हमारे बहुत से इतर धर्मी मित्र हैं। उनसे हमारी सकारात्मक चर्चाएँ होती हैं। उनका यही मानना है कि हर धर्म में कुछ कट्टरपंथी व विघ्नसंतोषी होते हैं। उन्हें कोई नहीं सुधार सकता। आशय यही है कि कुछ ही लोग होते हैं जो फिजा को जहरीला बनाने से नहीं चूकते।
लगातार इतर धर्मावलंबियों के धर्मगुरुओं एवं प्रचारकों द्वारा लगातार अपने मजहब के अन्दर हिन्दु धर्म के प्रति जहर घोला जा रहा है। यही कारण है कि एक सामान्य से हिन्दु आदमी की भी समझ में आने लगा है कि ये सुनियोजित चलाई जा रहीं गतिविधियाँ देश और समाज को गलत दिशा में मोड़ने का प्रयास है। यदि अब आगे और शांति मार्ग अपनाया गया अथवा इसका प्रत्युत्तर नहीं दिया गया तो पानी सिर के ऊपर चल जाएगा। यह प्रतिशोध की भावना नहीं है। यह अपने धर्म की रक्षा का प्रश्न है। यह हमारे हिन्दु धर्म के अस्तित्व एवं स्वाभिमान की बात है। मैं न सही, आप न सही लेकिन तीसरे, चौथे और आखिरी इंसान तक क्या गांधीगिरी का पाठ पढ़ाया जा सकता है? आज जब कुछ हिन्दु, हिन्दु धार्मिक संगठन एवं संस्थाएँ इतर धर्मों के कटाक्ष व अनर्गल प्रलापों का प्रत्युत्तर देने लगें तो बौखलाहट क्यों?
इनके जो दृष्टिकोण जायज हैं, वहीं दृष्टिकोण हिंदुओं के लिए उचित क्यों नहीं? हम यह कहने से कभी नहीं चूकते कि हम उदारवादी हैं। हम शांतिप्रिय हैं। हम सर्वधर्म समभाव की विचारधारा वाले हैं, तो इसका यह आशय कदापि नहीं लगा लेना चाहिए कि वे हमारे घर, हमारे परिवार और हमारे समाज के अस्तित्व को ही समाप्त करने की कोशिश करें। आज जो यत्र-तत्र उक्त आक्रोश ,उत्तेजक वक्तव्य, धार्मिक प्रदर्शन एवं शिकायतें सामने आ रही हैं, ये सब हमारे प्रतिरोध न करने का ही प्रतिफल समझ में आता है। भारत में रहने वाले हर नागरिक को यह समझना ही होगा कि उसे संविधान के दायरे में रहना होगा। धर्म निरपेक्षता का पाठ सीखना होगा। मौलवियों, पादरियों एवं मठाधीशों की संकीर्ण, उत्तेजक एवं असंवैधानिक बातों को खुले आँख-कान और बुद्धि से परख कर मानना होगा।
आज हमारे देश भारत को पूरे विश्व में आदर्श दर्जा प्राप्त है। सभी देशवासियों को अपने देश की और अपने समाज की उन्नति को ही प्राथमिकता देना होगी, तभी हम सबकी भलाई और प्रगति सम्भव है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक विचारणीय एवं प्रेरक लघुकथा चुनाव। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 68 ☆
☆ चुनाव ☆
शिक्षा क्षेत्र का चुनाव हो रहा था। वह अपने को सब तरह से उसके योग्य समझ रहा था। क्यों ना समझे ? हमेशा मेहनत से काम जो किया है। लोगों ने समझाया कि चुनाव कैसा भी हो उसमें राजनीति होती ही है, बडी गंदी चीज है यह। कुछ ने तो खुलकर कहा – इस पचड़े में मत पडो भाई, तुम्हारे जैसे सीधे – सादे आदमी के बस की बात नहीं है यह। पर वह नहीं माना। वह बडे भरोसे से अपने उसूलों पर चुनाव लड रहा था। मतदाता कहते – आपके जैसे निष्ठावान और मेहनती शिक्षक को तो जीतकर आना ही चाहिए। शिक्षा के स्तर की ही नहीं विद्यार्थियों के भविष्य की भी बात है। उसका उत्साह दुगुना हो जाता।
चुनाव परिणाम घोषित हुए, उसका नाम कहीं नहीं था। मुँह पर तारीफ करनेवाले कुछ बिक गए थे और कुछ जाति के आधार पर बँट गए थे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित समसामयिक विषय पर आधारित एक कविता कट्टरता के काले पंजे….। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)