मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 103 ☆ प्रार्थना ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 103 ?

☆ गझल ☆

चंद्र परका चांदणेही पाहवेना

आजची कोजागरी का पेलवेना 

 

सोनचाफा आवडीचा फार माझ्या

मात्र आता गंध त्याचा साहवेना

 

वेढते वैराग्य की वय बोलते हे

वाट आहे तीच आता चालवेना

 

फोन माझा, चार वेळा टाळला तू

या मनाला काय सांगू सांगवेना

 

खूप झाला त्या  तिथेही  बोलबाला

मूक अश्रू ढाळलेले ऐकवेना

 

पूर्वजांचे मानले आभार मी ही

कंठ दाटे या क्षणाला बोलवेना

 

कावळा आलाय दारी घास खाण्या

आप्त आहे पण मला हे मानवेना

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १२ – भाग ५ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- १२ – भाग ५ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ऐश्वर्यसंपन्न पीटर्सबर्ग✈️

संध्याकाळी रिव्हर क्रूजमधून फेरफटका मारला. फोंटांका नदीच्या एका कॅनॉल मधून सुरू झालेली क्रूज, मोइका नदीतून, विंटर कॅनॉलमधून नीवा नदीमध्ये गेली आणि पुन्हा फोंटांकाच्या एका कालव्यात शिरून आम्ही किनार्‍याला उतरलो. क्रूज सहलीमध्ये दुतर्फा दिसलेल्या इमारती आता ओळखीच्या झाल्या होत्या. क्रूजमधील प्रवासाने सुंदर पीटर्सबर्गचा निरोप घेतला.

जिंकलेल्या प्रदेशातील उत्तमोत्तम गोष्टींचा विध्वंस करण्याची जेत्यांची प्रवृत्ती जगभर आढळते. पीटर्सबर्गमधील अनेकानेक कला प्रकार, प्रासाद शत्रूंनी नष्ट केले. पण आज ते ऐश्वर्य पुन्हा जसेच्या तसे दिमाखात उभे आहे. याची कारणे अनेक आहेत. पीटर दी ग्रेटपासून अशी पद्धत होती की, जी जी कलाकृती, पेंटिंग निर्माण होईल त्याचा छोटा नमुना व त्याची साद्यंत माहिती म्हणजे वापरलेले मटेरियल, त्याची रचना, मोजमाप वगैरे आर्काइव्हज मध्ये जतन करून ठेवण्यात येत असे. सर्वात महत्त्वाचे म्हणजे पीटर्सबर्गमध्ये जशा अनेक नामांकित शैक्षणिक संस्था, सायन्स इंस्टिट्यूशन्स आहेत तशीच एक रिस्टोरेशन युनिव्हर्सिटी आहे. वेळेअभावी आम्ही ती पाहू शकलो नाही. पण नष्ट झालेल्या कलाकृतींचे पुनर्निर्माण आणि असलेल्या वस्तू आणि वास्तू सुस्थितीत ठेवण्यासाठी तिथे खास शिक्षण दिले जाते. याशिवाय राज्यकर्त्यांचा दृष्टिकोण आणि आर्थिक पाठबळ हेही महत्त्वाचे!

या पार्श्‍वभूमीवर आपल्याकडे काय परिस्थिती आहे? आपल्याकडेही अनेक नामवंत, उत्तमोत्तम चित्रकार, शिल्पकार, काष्ठ कलाकार आहेत. सर्वश्री बाबुराव सडवेलकर,व्ही. एस. गुर्जर,ज. द. गोंधळेकर, जाधव, शिंदे, शिल्पकार करमरकर,स.ल.हळदणकर,राजा रविवर्मा, रावबहादूर धुरंधर,एम.आर.आचरेकर, गोपाळराव देऊसकर, विश्वनाथ नागेशकर, भैय्यासाहेब ओंकार, डी. जी. कुलकर्णी, संभाजी कदम अशी असंख्य नावे आहेत. काही वर्षांपूर्वी नामवंत चित्रकार सुहास बहुलकर यांचा  लेख एका दिवाळी अंकात वाचला होता. दिवंगत नामवंत कलाकारांच्या कलाकृती मिळवून, त्याचे पुनर्लेपन,वॉर्निशिंग, माउंटिंग करून त्यांचे प्रदर्शन भरविणे व त्यायोगे कलाकाराच्या कुटुंबाला आर्थिक सहाय्य मिळवून देणे अशा उद्देशाने त्यांनी अनेक कलाकारांच्या,  माळ्यावर धूळ खात पडलेल्या कलाकृती मोठ्या कष्टाने मिळविल्या. त्यावेळी त्यांना आलेले अनुभव मन विषण्ण करणारे, निराशाजनक होते. वर्तमानपत्रातून जे.जे. महाविद्यालयातील चित्रांची, पुतळ्यांची हेळसांड, बेपर्वा वृत्ती, राजकारण हे सारे वाचून वाईट वाटते. हा आपला राष्ट्रीय ठेवा आहे. कलाकारांना आर्थिक काळजीतून मुक्त ठेवणे हे समाजाचे, सरकारचे काम आहे. या चित्रांचा, कलाकृतींचा सांभाळ, डागडुजी,पुनर्लेपन, वॉर्निशिंग,जपणूक, यासाठी शास्त्रोक्त शिक्षण आवश्यक आहे. हे एकट्या-दुकट्याचे काम नाही. राजकारण विरहीत राजकीय इच्छाशक्ती, आर्थिक पाठिंबा व सामान्य नागरिकांचा सहभाग असेल तरच हे सांस्कृतिक वैभव सांभाळले जाईल. आपला भारत हा सुद्धा ‘ऐश्वर्यसंपन्न’ देश आहे. प्रत्येकाने हे ऐश्वर्य सांभाळण्याचा आटोकाट प्रयत्न केला पाहिजे.

पीटर्सबर्ग समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 89 ☆ मीनारें ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “मीनारें । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 89 ☆

☆ मीनारें ☆

जब अपने कमरे के अन्दर चुपचाप बैठी होती हूँ

अक्सर “धडाक” और “चटक” की आवाजें आती हैं;

और मैं बाहर दौड़ पड़ती हूँ देखने कि यह कैसी आवाजें हैं?

जानना चाहती हूँ कि कहाँ से निकलीं यह आवाजें?

 

ज़िंदगी यूँ तो बड़ी छोटी है,

पर आदमी अक्सर अपने अहम की मीनारें बना लेता है,

जो कि बहुत ही ऊंची होती हैं!

 

यह मीनारें धीरे-धीरे झुकने लगती हैं,

और आदमी को पता भी नहीं चलता!

ऐसा भी नहीं है कि इनका कोण

लीनिंग टावर ऑफ़ पीसा कि तरह तय हो

और उतना ही रहे यह कोण-

झुकाव बढ़ता ही जाता है!

पता भी नहीं चलता

और यह मीनारें झुकते-झुकते गिर ही जाती हैं

“धडाक” और “चटक” की आवाज़ के साथ! 

 

सुनो,

इस अहम को छोटा ही रहने दो-

इसे मीनार की तरह न बनने दो-

फिर तो

न यह गिरेगा,

न तुम चोट से तिलमिलाओगे!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 98 – साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक) ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका  पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  म प्र साहित्य अकादमी के मासिक प्रकाशन  “साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक)” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक)

अंक ४८५..४८६ संयुक्तांक नवम्बर दिसम्बर

म प्र साहित्य अकादमी का मासिक प्रकाशन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 98 – साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक) ☆ 

साक्षात्कार का संभवतः पहला प्रयास है , अंक ४८५..४८६ संयुक्तांक नवम्बर दिसम्बर २०२० जो बाल साहित्य पर केंद्रित है, तथा इतनी महत्वपूर्ण शोध सामग्री बाल साहित्य की उपयोगिता, लेखन, बच्चों के लिये साहित्य लेखन में नवाचार, वैज्ञानिक दृष्टि, सकारात्मकभावनाओ का विकास जैसे बहुविध विषय समेटे हुये है.

३०० पृष्ठो से ज्यादा की विशद सामग्री निश्चित ही शोधार्थियो हेतु  संग्रहणीय है. यह निर्विवाद है कि बच्चो के कोरे मन पर बाल साहित्य वह पटकथा लिखता है, जो भविष्य में उनका व्यक्तित्व व चरित्र गढ़ता ह . बच्चो को विशेष रूप से गीत तथा कहानियां व नाटिकायें अधिक पसंद आती हैं. बाल साहित्य रचने के लिये बड़े से बड़े लेखक को बाल मनोविज्ञान को समझते हुये बच्चे के मानसिक स्तर पर उतर कर ही लिखना पड़ता है तभी वह रचना बाल उपयोगी बन पाती है.

हिन्दी में जितना कार्य बाल साहित्य पर आवश्यक है उससे बहुत कम मौलिक नया कार्य हो रहा है, पीढ़ीयो से वे ही बाल गीत पाठ्य पुस्तको में चले आ रहे हैं, जबकि वैज्ञानिक सामाजिक परिवर्तनो के साथ नई पीढ़ी का परिवेश बदलता जा रहा है.  

बाल कवितायें जहां जीवन पर्यंत स्मरण में रहती हैं व किंकर्तव्यविमूढ़ स्थोति में पथ प्रदर्शन करती हैं वहीं बचपन में पढ़ी गई कहानियां अवचेतन में ही व्यक्तित्व बनाती हैं. बाल कथा के नायक बच्चे के संस्कार गढ़ते हैं.

मैं इस अंक के साठ से अधिक लेखको को और उन सब को साक्षात्कार के एकल मंच पर सारगर्भित तरीके से प्रस्तुत करने के लिये संपादक डा विकास दवे जी को हृदय से शुभकामनायें देता हूँ व इस महती कार्य के लिये आभार व्यक्त करता हूँ.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 96 – लघुकथा – बूंदी के लड्डू ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भाईचारे का सन्देश देती अतिसुन्दर लघुकथा  “बूंदी के लड्डू। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 96 ☆

 ? लघुकथा – बूंदी के लड्डू?

गणेश उत्सव का माहौल। घर और पास पड़ोस मोहल्ले में बहुत ही धूमधाम से गणेश उत्सव मनाया जा रहा था। पंडाल पर गणपति जी विराजे थे। राजू अपने दादा- दादी से रोज कुछ ना कुछ गणपति जी के बारे में सुनता था।

दादा जी आज उसे बूंदी के लड्डू की महिमा बता रहे थे कि क्यों पसंद है गणेश जी को लड्डू? बेसन से अलग-अलग मोती जैसे तलकर शक्कर की चाशनी में सब एक साथ पकड़कर लड्डू बनता है। गणेश जी भी सभी को मिला कर रखना चाहते हैं। उनकी पूजन का अर्थ भी यही है कि सभी मनुष्य आपस में प्रेम से रहें और बूंदी के लड्डू की तरह मीठे और मिलकर रहे।

राजू कुछ देर सुनता रहा फिर दौड़कर पड़ोस के अंकल- आंटी देशमुख के घर गया और छोटे से हाथ से निकालकर बूंदी का लड्डू उनके हाथ पर दे दिया। और कहा-” गणपति जी ने कहा है बूंदी के लड्डू की तरह रहना सीखें” और दौड़ कर फिर अपने घर के ऊपर के कमरे में बैठे अपने पापा को भी लड्डू दिया। और कहा कि – “गणपति ने कहा है कि हमें लड्डू जैसा रहना चाहिए।

थोड़ी देर पापा और देशमुख अंकल सोचते रहे। तब तक मोहल्ले में पंडाल से गणपति की आरती की आवाज आने लगी। दोनों अपने-अपने घर से डिब्बों में लड्डू लेकर पहुंचे और फिर क्या था। ‘साॅरी, मुझे माफ करना’, ‘नहीं सॉरी मैं बोलता हूँ मुझे माफ करना’, एक दूसरे को कहने लगे।

कुछ दिनों से जो मनमुटाव चल रहा था। अचानक सब मिलजुल कर ठहाका लगाने लगे।

दादा जी को समझ नहीं आया कि कल तक जो देशमुख के नाम से चिढ़ता था। आज अपने हाथ में हाथ पकड़े खड़े हैं। उन्हें क्या पता था कि बूंदी के लड्डू कितने मीठे हैं जिन्हें किसी ने अपने छोटे – छोटे हाथों से सब जगह बांट दिया है।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 104 ☆ पावलांचे ठसे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 104 ☆

☆ पावलांचे ठसे ☆

कालच तर

आपल्या सुखी पावलांचे ठसे

विस्तीर्ण सागरी किनाऱ्यावर

मखमली वाळूत

एकमेकांना मिठ्या मारत होते

 

सागरातून चार लाटा काय येतात

मिटवू पाहतात सारं अस्तित्व

पण त्यांना माहीत नाही

ते ठसे आम्ही डोळ्यांत जतन केलेत

आयुष्यभरासाठी

 

ते शोधण्यासाठी

आता समुद्र किनारी यायची गरज नाही

कोरलेत ते काळजाच्या आत

समुद्रा पेक्षा मोठा तळ आहे त्याचा

आमच्या दोघांखेरीज

तो तळ कुणालाच दिसणार नाही

 

तुम्ही आत उतरायचा प्रयत्न करू नका

बरमूडा ट्रायंगल सारखी परिस्थिती होईल

म्हणूनच सांगतो

तुम्ही तुमच्या जगात रहा

आम्हाला आमच्या जगात राहुद्या

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#56 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #56 –  दोहे 

 

पागल कैसा हो गया, रहा सोचता काश।

नदी कहां रुकती भला, तोड़ गई भुजपाश।।

 

संयम की सीमा कहां, जहां तुम्हारा रूप।

रूप तुम्हारा लग रहा ,संयम के अनुरूप।।

 

मृत्युवरण की साधना, जीवन का विनियोग।

पुण्यवान को प्राप्त हो, दुर्लभतम संयोग।।

 

मृत्यु वरण क्यों किसलिए, वापस क्यों अनुदान।

हमने तो चाहा नहीं, मिला अयाचित दान।।

 

तुम्हें देखकर याचना, हो जाती उध्दाम।

अपनी यौवन सुरभि को, कर दें किसके नाम।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत /संदर्भ/पुराण # 55 – इक्ष्वाकु के वंशज !! ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक अत्यंत मनोरम अभिनवगीत – “इक्ष्वाकु के वंशज !!। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 55 ☆।। अभिनव-गीत /संदर्भ/पुराण ।। ☆

☆ इक्ष्वाकु के वंशज !!

तुम सुनो !

इक्ष्वाकु के वंशज !!

मैं सिरहाने रोज रखती हूँ तुम्हारी

त्राण देने को नियत पद-रज ।।

 

इन गहन पौराणिका –

बारीकियों में ।

खोजती आयी समय

को सीपियों में ।

 

जहाँ से आये

हमारे पूर्वज ।।

 

किस तरह बिखरी

हमारी परिस्थितियाँ ।

वाध्य दिखती सभी

अनुगामी  समितियाँ ।

 

जो उठाये थीं हमारे

सब जयी ध्वज ।।

 

नहीं बजती है हमारी

सुधा -सरगम। 

टूटता दिखने लगा है

विवश संयम ।।

 

दुखी बैठे हैं सभी

पंचम – षड़ज ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

07-09-2018

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 102 ☆ हम न मरब ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘हम न मरब)  

☆ व्यंग्य # 102 ☆ हम न मरब ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कानों को सुनाई पड़ा कि मैं थोड़े देर पहले मर चुका हूं। फिर किसी ने कहा कि मुझे मरे काफी देर हो चुकी है। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं वास्तव में मर चुका हूं। सब मजाक कर रहे थे कि मैं इतने जल्दी नहीं मर सकता। डाक्टर बुलाया गया, उसने हाथ पकड़ा फिर नाड़ी देखी और बोला कि ये मरने के करीब पहुंच गए हैं, उधर से आवाज आई डाक्टर झूठ बोल रहा है, उनको मरे बहुत देर हो गई है।

मेरे हर काम में लोग शक करते हैं और अड़ंगा डालते हैं, कुछ लोगों ने मुझे मरा घोषित कर दिया है और कुछ लोग मानने तैयार नहीं हैं कि मैं वैसा ही मर चुका हूं जैसे सब मर जाते हैं, दरअसल मित्र लोग खबर मिलने पर अंतिम दर्शन को आ रहे हैं पर हाथी जैसे डील-डौल वाले शरीर को कंधा देने में कतरा रहे हैं और मजाक करते हुए यहां से कन्नी काट कर यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि मैं मर नहीं सकता।

 गलती मेरी भी है कि मैं  जीवन भर से हर बात पर नखरे करता रहा, पहिचान कर भी अनजान बनने का नाटक करता रहा, पहिचान था पर ऐन वक्त नाम भूल जाता था।  धीरे धीरे शरीर फैलता रहा,वजन बढ़ता गया,वजन कम करने का प्रयास नहीं किया। मुझे नहीं मालूम था कि हाथी जैसे डील-डौल वाले को मरने के बाद कंधा देने चार आदमी भी नहीं मिलते।

जिनको बहुत पहले हजारों रुपए उधार दिये थे उनमें से तीन  खुशी खुशी कंधा देने तैयार हुए पर चौथा आदमी नहीं मिल रहा था। जब वे तीन कंधा देने तैयार हुए तो मुझे लगा कि अब उधारी दिया पैसा डूब जायेगा, क्योंकि ये तीनों जल्दी मचा रहे हैं और कंधा देने वाले चौथे आदमी की तलाश में हैं ताकि मरे हुए को जल्दी मरघट पहुंचाया जा सके। मैं सचमुच मर चुका हूं मुझे भी विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि बीच-बीच में वसूली के मोह में सांस लौट लौट कर आ-जा रही थी।वे तीनों ने आते- जाते अनेक लोगों से मदद माँगी।किसी के पास समय नहीं था। चौथे आदमी को ढूंढने में विलंब इतना हो रहा था कि  मैं डर गया कि कहीं ये तीन भी धीरे धीरे कोई बहाना बना कर भाग न जाएं, इसलिए मैंने अपनी दोनों आंखें हल्की सी खोल दीं ताकि उन तीनो को थोड़ी राहत महसूस हो, मेरी आंखें खुलते ही वे तीनों इस बात से डर गये कि कहीं उधारी वाली चर्चा न चालू हो जाए, और वे तीनों भी धीरे-धीरे खिसक गये। मैं फिर बेहोश हो गया, फिर मैंने तय किया कि अब मुझे वास्तव में मर जाना चाहिए, हालांकि मैं मरना नहीं चाहता था पर आखिरी समय में दुनियादारी के इस तरह के चरित्र को देखकर मर जाना ही उचित समझा,  मैंने सोचा उधारी वसूल हो न हो,अच्छे दिन आयें चाहें न आयें….. कम से कम वे तीनों मुझे ठिकाने लगाने में ईमानदारी बरत रहे हैं, बाकी करीब के लोग दूर भाग रहे हैं, ऐसे समय जरूरी है कि मुझे तुरंत मर जाना चाहिए….  और मैं मर गया।

मैं अभी भी मरा हुआ पड़ा हूं, काफी देर हो गई है पर अभी भी कोई मानने तैयार नहीं है , और कंधा देने में आनाकानी कर रहे हैं। बड़ी मुश्किल है, वे तीनों भी फिर से आने में डर रहे होंगे क्योंकि नेताओं ने इन दिनों  ऐसा माहौल बनाकर रखा है कि लोगों के समझ नहीं आ रहा है कि सच क्या है और झूठ क्या है…..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #46 ☆ कटघरा ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# कटघरा #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 46 ☆

☆ # कटघरा # ☆ 

आज हर कोई व्यस्त है

अपने आप में मस्त है

खुली आंखों से सब देखकर

वो अस्वस्थ है,पस्त है

झोपड़ियाँ उजाड़कर

महल बन रहे हैं

जंगल विस्फोटों से

दहल रहे हैं

पर्यावरण आँसू

बहा रहा है

बाढ़, तूफान

सब कुछ निगल रहे हैं

 

भूख और प्यास

रास्ते में खड़े है

अधनंगे से

मरणासन्न पड़े है

इनकी सुध

किसी को नहीं है

गरीबी के मुकुट में

सदियों से जड़े हैं

कभी कभी हक के लिए

रास्ते पे उतरते हैं

अपनी जायज मांगों के लिए

आंदोलन करते

फिर अचानक एक

सैलाब आता है

आंदोलन टूटता है

लोग बे मौत मरते है

ऐसे वाकयों से अख़बार

भरे पड़े है

न्याय की आंख पर पट्टी,

मुंह पर ताले जड़े हैं

अब इंसाफ पिंजरे में

बंद है

और हम सब

सभ्य, शिक्षित लोग

समाज के

कटघरे में खड़े है /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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