(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश। आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “हालात”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 5 – “हालात” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा # 56 ☆ गजल – विसंगतियॉं ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #68 – कर्म फल ☆ श्री आशीष कुमार☆
पुराने समय में एक राजा था। वह अक्सर अपने दरबारियों और मंत्रियों की परीक्षा लेता रहता था। एक दिन राजा ने अपने तीन मंत्रियों को दरबार में बुलाया और तीनो को आदेश दिया कि एक एक थैला लेकर बगीचे में जायें और वहाँ से अच्छे अच्छे फल तोड़ कर लायें। तीनो मंत्री एक एक थैला लेकर अलग अलग बाग़ में गए। बाग़ में जाकर एक मंत्री ने सोचा कि राजा के लिए अच्छे अच्छे फल तोड़ कर ले जाता हूँ ताकि राजा को पसंद आये। उसने चुन चुन कर अच्छे अच्छे फलों को अपने थैले में भर लिया। दूसरे मंत्री ने सोचा “कि राजा को कौनसा फल खाने है?” वो तो फलों को देखेगा भी नहीं। ऐसा सोचकर उसने अच्छे बुरे जो भी फल थे, जल्दी जल्दी इकठ्ठा करके अपना थैला भर लिया। तीसरे मंत्री ने सोचा कि समय क्यों बर्बाद किया जाये, राजा तो मेरा भरा हुआ थैला ही देखेगे। ऐसा सोचकर उसने घास फूस से अपने थैले को भर लिया। अपना अपना थैला लेकर तीनो मंत्री राजा के पास लौटे। राजा ने बिना देखे ही अपने सैनिकों को उन तीनो मंत्रियों को एक महीने के लिए जेल में बंद करने का आदेश दे दिया और कहा कि इन्हे खाने के लिए कुछ नहीं दिया जाये। ये अपने फल खाकर ही अपना गुजारा करेंगे।
अब जेल में तीनो मंत्रियों के पास अपने अपने थैलो के अलावा और कुछ नहीं था। जिस मंत्री ने अच्छे अच्छे फल चुने थे, वो बड़े आराम से फल खाता रहा और उसने बड़ी आसानी से एक महीना फलों के सहारे गुजार दिया। जिस मंत्री ने अच्छे बुरे गले सड़े फल चुने थे वो कुछ दिन तो आराम से अच्छे फल खाता रहा रहा लेकिन उसके बाद सड़े गले फल खाने की वजह से वो बीमार हो गया। उसे बहुत परेशानी उठानी पड़ी और बड़ी मुश्किल से उसका एक महीना गुजरा। लेकिन जिस मंत्री ने घास फूस से अपना थैला भरा था वो कुछ दिनों में ही भूख से मर गया।
दोस्तों ये तो एक कहानी है। लेकिन इस कहानी से हमें बहुत अच्छी सीख मिलती है कि हम जैसा करते हैं, हमें उसका वैसा ही फल मिलता है। ये भी सच है कि हमें अपने कर्मों का फल ज़रूर मिलता है। इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में हमें अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। एक बहुत अच्छी कहावत हैं कि जो जैसा बोता हैं वो वैसा ही काटता है। अगर हमने बबूल का पेड़ बोया है तो हम आम नहीं खा सकते। हमें सिर्फ कांटे ही मिलेंगे।
मतलब कि अगर हमने कोई गलत काम किया है या किसी को दुःख पहुँचाया है या किसी को धोखा दिया है या किसी के साथ बुरा किया है, तो हम कभी भी खुश नहीं रह सकते। कभी भी सुख से, चैन से नहीं रह सकते। हमेशा किसी ना किसी मुश्किल परेशानी से घिरे रहेंगे।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख जीवन का सार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 109 ☆
☆ जीवन का सार ☆
धन, वैभव, सफलता व सार जीवन के मूलभूत उपादान हैं; इनकी जीवन में महत्ता है, आवश्यकता है, क्योंकि ये खुशियाँ प्रदान करते हैं; धन-वैभव व सुख-सुविधाएं प्रदान करते हैं तथा इन्हें पाकर हमारा जीवन उल्लसित हो जाता है। सफलता के जीवन में पदार्पण करते ही धन-सम्पदा की प्राप्ति स्वत: हो जाती है, परंतु प्रेम की शक्ति का अनुमान लगाना कठिन है। प्रेम के साथ तो धन-वैभव व सफलता स्वयंमेव खिंचे चले आते हैं, जिससे मानव को सुख-शांति व सुक़ून प्राप्त होता है; जो अनमोल है। प्रेम जहां स्नेह व सौहार्द-प्रदाता है, वहीं हमारे संबंधों व दोस्ती को प्रगाढ़ता व मज़बूती प्रदान करता है। यदि मैं यह कहूं कि प्रेम जीवन का सार है; इसके बिना सृष्टि शून्य है और सृजन संभव नहीं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रेम में त्याग है और वहां से स्वार्थ भाव नदारद रहता है। सो! जिस घर में प्रेम है; वहां जन्नत है, स्वर्ग है और जहां प्रेम नहीं है, वह घर मसान है, श्मशान है।
यदि हम आधुनिक संदर्भ में प्रेम को परिभाषित करें, तो यह अजनबीपन का प्रतीक है, क्योंकि जहां राग-द्वेष वहां प्यार व त्याग नहीं है, जो आजकल हर परिवार में व्याप्त है अर्थात् घर-घर की कहानी है। पति-पत्नी में बढ़ता अलगाव, बच्चों में पल्लवित होता एकाकीपन का भाव, रिश्तों में पनपती खटास हमारे अंतर्मन में आत्म-केंद्रिता के भाव को पोषित करती है। इस कारण तलाकों की संख्या में इज़ाफा हो रहा है। बच्चे मोबाइल व टी•वी• में अपना समय व्यतीत करते हैं और ग़लत आदतों का शिकार हो जाते हैं। वे दलदल में फंस जाते हैं, जहां से लौटना नामुमक़िन होता है। ऐसी स्थिति में माता-पिता व बच्चों में फ़ासले इस क़दर बढ़ जाते हैं, जिन्हें पाटना असंभव होता है और वे नदी के दो किनारों की भांति मिल नहीं पाते। शेष संबंधों को भी दीमक चाट जाती है, क्योंकि वहां स्नेह, प्रेम, सौहार्द, त्याग, करुणा व सहानुभुति का लेशमात्र भी स्थान नहीं होता। आजकल रिश्तों की अहमियत रही नहीं और बहुत से रिश्ते अपनी मौत मर रहे हैं, क्योंकि परिवार हम दो, हमारे दो तक सिमट कर रह गये हैं। जहां दादा- दादी व नाना-नानी आदि का स्थान नहीं होता। मामा, चाचा, बुआ, मौसी आदि संबंध तो अब रहे ही नहीं। वैसे भी कोई रिश्ता पावन नहीं रहा, सब पर कालिख़ पुत रही है। जीवन में प्रेम भाव की अहमियत भी नहीं रही।
मुझे स्मरण हो रही है महात्मा बुद्ध की कथा, जिसमें वे मानव को जीवन की क्षण-भंगुरता व अनासक्ति भाव को स्वीकारने का संदेश देते हैं। आसक्ति वस्तु के प्रति हो या व्यक्ति के प्रति– दोनों मानव के लिए घातक हैं, जिसे वे इस प्रकार व्यक्त करते हैं। यह शाश्वत् सत्य है कि मानव को अपने बेटे से सर्वाधिक प्यार होता है; भाई के बेटे से थोड़ा कम; परिचित पड़ोसी के बेटे से थोड़ा बहुत और अनजान व्यक्ति के बेटे से होता ही नहीं है। अपने बेटे के निधन पर मानव को असहनीय पीड़ा होती है, जो दूसरों की संतान के न रहने पर नहीं होती। इसका मूल कारण है आसक्ति भाव, जिसकी पुष्टि वे इस उदाहरण द्वारा करते हैं। एक बच्चा समुद्र के किनारे मिट्टी का घर बनाता है, जिसे लहरें पल भर में बहा कर ले जाती हैं और वह रोने लगता है। क्या मनुष्य उस स्थिति में आंसू बहाता है? नहीं–वह नहीं रोता, क्योंकि वह इस तथ्य से अवगत होता है कि वह घर लहरों के सम्मुख ठहर नहीं सकेगा। इसी प्रकार यह संसार भी नश्वर है, क्षणभंगुर है; जिसे पानी के बुलबुले के समान पल भर में नष्ट हो जाना है। सो! मानव को अनासक्ति भाव से जीना चाहिए, क्योंकि आसक्ति अर्थात् प्रेम व मोह ही दु:खों का मूल कारण है। मानव को जल में कमलवत् रहने की आदत बनानी चाहिए, क्योंकि संसार में स्थाई कुछ भी नहीं। सुख-दु:ख मेहमान हैं; आते-जाते रहते हैं तथा एक की उपस्थिति में दूसरा दस्तक देने का साहस नहीं जुटाता। इसलिए मानव को हर स्थिति में प्रसन्न रहना चाहिए।
सफलता का संबंध कर्म से होता है। सफल लोग निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। वे भी ग़लतियां करते हैं, लेकिन लक्ष्य के विरुद्ध प्रयास नहीं छोड़ते। कानारार्ड हिल्टन निरंतर परिश्रम करने की सीख देते हैं। संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो सत्कर्म व शुद्ध पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। योग वशिष्ठ की यह उक्ति सत्कर्म व पुरुषार्थ की महत्ता प्रतिपादित करती है। भगवद्गीता में भी निष्काम कर्म का संदेश दिया गया है। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘अतीत में मत देखो, भविष्य का सपना मत देखो, वर्तमान क्षण पर ध्यान केंद्रित करो’– यही सर्वोत्तम माध्यम है सफलता प्राप्ति का, जिसके लिए सकारात्मक सोच महत्वपूर्ण योगदान देती है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का यह कथन उक्त तथ्य की पुष्टि करता है कि ‘यदि आप इस प्रतीक्षा में है कि दूसरे लोग आकर आपकी मदद करेंगे आप सदैव प्रतीक्षा करते रह जाएंगे।’ सो! जीवन में प्रतीक्षा मत करो, समीक्षा करो। विषम परिस्थितियों में डटे रहो तथा निरंतर कर्मरत रहो, क्योंकि संघर्ष ही जीवन है। डार्विन ने भी द्वंद्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष को सृष्टि का मूल स्वीकारा है अर्थात् इससे तीसरी का जन्म होता है। संघर्षशील मानव को उसके लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। यदि हम आगामी तूफ़ानों के प्रति पहले से सचेत रहते हैं, तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं।
‘प्यार के बिना जीवन फूल या फल के बिना पेड़ है’–खलील ज़िब्रान जीवन में प्रेम की महत्ता दर्शाते हुए प्रेम रहित जीवन को ऐसे पेड़ की संज्ञा देते हैं, जो बिना फूल के होता है। किसी को प्रेम देना सबसे बड़ा उपहार है और प्रेम पाना सबसे बड़ा सम्मान। प्रेम में अहं का स्थान नहीं है तथा जो कार्य-व्यवहार स्वयं को अच्छा ना लगे, वह दूसरों के साथ न करना ही सर्वप्रिय मार्ग है। यह सिद्धांत चोर व सज्जन दोनों पर लागू होता है। ‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। सो! अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ।’ चाणक्य आत्मा की शुद्धता पर बल देते हैं, क्योंकि अहं का त्याग करने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने पर सुखी हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान व लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है’– युधिष्ठर यहां दुष्ट- प्रवृत्तियों को त्यागने का संदेश देते हैं।
‘यूं ही नहीं आती खूबसूरती रिश्तों में/ अलग-अलग विचारों को एक होना पड़ता है।’ यह एकात्म्य भाव अहं त्याग करने के परिणामस्वरूप आता है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘ऐ! मन सीख ले ख़ुद से बात करने का हुनर/ खत्म हो जाएंगे सारे दु:ख और द्वंद्व’ अर्थात् यदि मानव अआत्मावलोकन करना सीख ले, तो जीवन की सभी समस्याओं का अंत हो जाता है। इसलिए कहा जाता है ‘जहां दूसरों को समझना मुश्किल हो, वहां ख़ुद को समझना अधिक बेहतर होता है।’ इंसान की पहचान दो बातों से होती है–प्रथम उसका विचार, दूसरा उसका सब्र, जब उसके पास कुछ ना हो। दूसरा उसका रवैय्या, जब उसके पास सब कुछ हो। अंत में मैं इन शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी कि ‘मेरी औक़ात से ज़्यादा न देना मेरे मालिक, क्योंकि ज़रूरत से ज़्यादा रोशनी भी मानव को अंधा बना देती है।’ सो! जीवन में सामंजस्यता की आवश्यकता होती है, जो समन्वय का प्रतिरूप है और दूसरों की सुख-सुविधाओं की ओर ध्यान देने से प्राप्त होता है। वास्तव में यह है जीवन का सार है और जीने की सर्वोत्तम कला।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “समाज में साहित्यिक शक्ति का होता बिखराव”।)
☆ किसलय की कलम से # 60 ☆
☆ समाज में साहित्यिक शक्ति का होता बिखराव ☆
जो साहित्यकार हमारे समाज में पथ प्रदर्शक की भूमिका निर्वहन करता चला आ रहा था। आज वही अन्य क्षेत्रों की तरह अनगिनत खेमों में बँटता जा रहा है। राजनीतिक पार्टियों के शीर्षस्थ नेताओं की तर्ज पर साहित्य के मठाधीश भी अपने-अपने खेमों का वर्चस्व बनाने में अपनी सारी बौद्धिक क्षमता झोंक देते हैं। काश! ये अपना बौद्धिक कौशल सार्थक सृजन में लगाते तो हमारे समाज की तस्वीर कुछ और होती। पद्मश्री और भारत रत्न जैसे अवॉर्डों तक के लिए ये मठाधीश अपनी संकलित शक्ति का उपयोग कर अपना उल्लू सीधा करने में पीछे नहीं हटते। शासकीय सम्मान चयन प्रक्रिया में कितनी भी पारदर्शिता की बात की जाए परंतु पूरे देश में फैले ये स्वार्थी लोग स्वयं अथवा अपने लोगों को सम्मान दिलाने में सफल हो ही जाते हैं। इनका रुतबा इतना होता है कि शीर्ष पर बैठे राजनेता तक इनके फरमानों को टाल नहीं पाते। अपने वक्तव्य अपनी पत्रिकाओं व अपने शागिर्दों की दम पर अपने ही समाज के लोगों की टाँग खींचना भर नहीं, उन्हें नीचा दिखाने से भी ये लोग नहीं चूकते। अपना पूरा नेटवर्क अपने प्रतिस्पर्धी के पीछे लगा देते हैं। वैसे तो आज का अधिकांश सृजन भी कई हिस्सों में ठीक वैसा ही बँट गया है, जिस तरह आज का चिकित्सक वर्ग आँख, दाँत, हड्डी, त्वचा, हृदय, मस्तिष्क आदि में बँटकर वहीं तक सीमित रहता है।
साहित्य लेखन काव्य, कहानी, गीत, ग़ज़ल, नाटक, प्रगतिवाद, छायावाद जैसी सैकड़ों शाखाओं में विभक्त हो गया है। हम अपनी किसी एक विधा में सृजन कर भला समाज के सर्वांगीण विकास की बात कैसे कह पाएँगे। वैसे भी अधिकांश साहित्यकार एक दूसरे की पीठ ठोकने और तालियाँ बजाने के अतिरिक्त और करते ही क्या हैं। आज सृजन के विषय भी समाजिक उत्थान के न चुनकर ऐसे विषयों का चयन किया जाता है जिससे सामाजिक हित के बजाय समाज में फूट की ही ज्यादा संभावना रहती है।
आलेख हों, कविताएँ हों अथवा कहानियाँ। इन विधाओं में भी लोग आज कट्टरवाद, धार्मिक उन्माद, जातिवाद जैसे वैमनस्यता के बीज बोने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इनका उद्देश्य बस सुर्खियों में रहना होता है। इनके लेखन से समाज को क्या मिलेगा, इससे इनको कोई फर्क नहीं पड़ता। तुलसी, कबीर जैसे मनीषी अब जाने कहाँ खो गए हैं। अर्थ और स्वार्थ के मोहपाश ने इन साहित्यकारों को ऐसा जकड़ लिया है कि ये अपने नैतिक दायित्व भी भूल बैठे हैं।
इन सब प्रपंचों से हटकर अब भी निश्छल साहित्य मनीषी कहीं-कहीं तारागणों के सदृश झिलमिलाते दिख जाते हैं लेकिन इनके प्रकाश पर अज्ञान का तिमिर भारी पड़ता है। वर्तमान में सार्थक और दिशाबोधी साहित्य पढ़ने में लोगों की रुचि ही नहीं रह गई है। अपनी व्यस्तताओं से जूझकर घर लौटे लोग हल्का-फुल्का अथवा कोई तनावहीन मनोरंजक साहित्य ही पढ़ना पसंद करते हैं। आज लोगों को स्वयं के अतिरिक्त समाज और देश की चिंता हो, ऐसा दिखाई नहीं देता। साहित्यकार वर्ग लगातार हिंदी लेखन के चलते भी आज तक कोई विशेष या नियमित पाठक वर्ग बनाने में असफल ही रहा है। ज्यादा से ज्यादा लोग दैनिक अखबार ही पढ़कर स्वयं को नियमित पाठक कहलाना पसंद करते हैं।
हम सभी देखा है कि आज अधिकांश प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया है और जो बची हैं वे भी बंद होने की कगार पर हैं। इसका भी वही कारण है कि हम अमुक विधा के साहित्य को देखना भी पसंद नहीं करेंगे। आज सबसे ज्यादा लिखे जाने वाले पद्य साहित्य को प्रकाशक भी छापने से कतराते लगे हैं। इनका अभिमत है कि पद्य के पाठकों की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है, लेकिन मेरा ये अलग नजरिया है कि सौ में से सत्तर साहित्यकार पद्य लिखते हैं, अपनी पुस्तक छपवाते हैं और विजिटिंग कार्ड की तरह बाँटते रहते हैं। अब आप ही सोचिए कि ऐसे में कोई काव्य पुस्तकें दुकानों से भला क्यों खरीदेगा।
इस तरह इन सब बँटे साहित्यकारों को एक साथ एक मंच पर आना होगा। जब गद्य वाले कविता-गीत और गजल से प्यार करेंगे तब ही कवि-शायर गद्योन्मुख होंगे। मेरी मंशा यही है कि अब साहित्यिक गोष्ठियाँ भी मिली-जुली अर्थात गद्य और पद्य की एक साथ होना चाहिए और सभी विधाओं के साहित्यकारों की कम से कम एक जिलास्तरीय ‘एकीकृत संस्था’ भी होना आज की जरूरत है।
आज के क्षरित होते साहित्यिक स्तर से वरिष्ठ और प्रबुद्ध साहित्यकार चिंतित होने लगे हैं। इन्होंने अपने प्रारंभिक काल में जो साहित्य पढ़ा था और आज जो पढ़ रहे हैं, इनके स्तर में बहुत फर्क आ गया है। उद्देश्य और मानवीय मूल्य बदल गए हैं। यहाँ तक कि लेखकीय दायित्व का भी निर्वहन नहीं किया जाता। यही वे सारी बातें हैं जिनके कारण पाठकों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। वहीं आज की बदलती जीवनशैली तथा अन्तरजालीय सुविधाओं के चलते आज सहज उपलब्ध साहित्य को पढ़कर वर्तमान पीढ़ी न अपनी संस्कृति जान पा रही है और न ही संस्कारों को अपना रही है। साठ-सत्तर के दशक तक पाठ्यक्रमों में ऐसे विषय निश्चित रूप से समाहित किये जाते थे, जिन्हें पढ़कर विद्यार्थी जीवनोपयोगी बातें सीखते थे और अंगीकृत भी करते थे। उन्हें समाज में रहने का तरीका, आदर, सम्मान और व्यवहारिक बातों की भी जानकारी हो जाती थी। असंख्य ऐसी पत्रिकाओं का प्रकाशन होता था, जो नई पीढ़ी और पाठकों को दिशाबोध कराने के साथ ही सार्थक मनोरंजन सामग्री का भी प्रकाशन होता था। ये सब बातें लुप्तप्राय होती जा रही हैं। बुद्धू-बक्से भी कम होते जा रहे हैं। आज तो एंड्रॉयड और आई-फोन का जमाना है, जो आज के हर इंसान की जेब में मिलेगा, जिससे आभास होता है कि सारी दुनिया उनकी जेब में सिमट आई है।
आज के बदलते समय और परिवेश में भी लिखे साहित्य के महत्त्व और औचित्य को नकारा नहीं जा सकता, इसलिए अभी भी वक्त है कि हम लेखन का तरीका बदलें। आगे आने वाली पीढ़ी को आदर्शोन्मुखी, व्यवहारिक, परोपकारी तथा पर्यावरण प्रेमी बनाएँ।
आज सारे साहित्यकारों पर बहुत बड़ी जवाबदारी आ पड़ी है कि वे समाज में गिरते हुए मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करने हेतु आगे आएँ। पश्चिमीकरण, स्वार्थ, असंवेदनशीलता को त्यागकर सम्मान, मर्यादा और परोपकार जैसे भावों को समाज में पुनः जगाएँ और इसी दिशा में अपने सृजन की धारा बहाएँ। हो सकता है पाठकों को ये बातें हास्यास्पद लगें। वैसे भी सार्थक बातें प्रारंभ में कठिन और अटपटी जरूर लगती हैं लेकिन जब ये आदत और आचरण में आ जाएँ तो फिर आम हो जाती हैं।
अभी भी समय है इस साहित्य समाज के पास कि वह अपने सृजन को सार्थक और व्यापक बनाने हेतु एक साथ आगे आए और सब मिलकर समाज को मानवता के शिखर पर पहुँचाने में सहायक बने। साथ ही सिद्ध कर दे कि साहित्यकारों की कलम और उनके एकीकृत रूप में अतुल्य शक्ति होती है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे – नशा मुक्ति अभियान ”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “कभी हमसे भी मिला कीजिये ….”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है ट्रांसजेंडर विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘उसका सच’.डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 79 ☆
☆ लघुकथा – उसका सच…. ! ☆
सूरज की किरणें उसके कमरे की खिडकी से छनकर भीतर आ रही हैं। नया दिन शुरू हो गया पर बातें वही पुरानी होंगी उसने लेटे हुए सोचा। मन ही नहीं किया बिस्तर से उठने का। क्या करे उठकर, कुछ बदलनेवाला थोडे ही है? पता नहीं कब तक ऐसे ही चलेगा यह लुकाछिपी का खेल। बहुत घुटन होती है उसे। घर में वह कैसे समझाए सबको कि जो वह दिख रहा है वह नहीं है, इस पुरुष वेश में कहीं एक स्त्री छिपी बैठी है। वह हर दिन इस मानसिक अंतर्द्वंद्व को झेलता है। उसके शरीर का सच और घरवालों की आँखों को दिखता सच। दोनों के बीच में वह बुरी तरह पिस रहा है। तब तो अपना सच उसे भी नहीं समझा था, छोटा ही था, स्कूल में रेस हो रही थी। उसने दौडना शुरू किया ही था कि सुनाई दिया – अरे! महेश को देखो, कैसे लडकी की तरह दौड रहा है। गति पकडे कदमों में जैसे अचानक ब्रेक लग गया हो, वह वहीं खडा हो गया, बडी मुश्किल से सिर झुकाकर धीरे धीरे चलता हुआ भीड में वापस आ खडा हुआ। क्लास में आने के बाद भी बच्चे उसे बहुत देर तक लडकी – लडकी कहकर चिढाते रहे। तब से वह कभी दौड ही नहीं सका, चलता तो भी कहीं से आवाज आती ‘लडकी है‘ वह ठिठक जाता।
महेश! उठ कब तक सोता रहेगा? माँ ने आवाज लगाई।‘ कॉलोनी के सब लडके क्रिकेट खेल रहे हैं तू क्यों नहीं खेलता उनके साथ ? कितनी बार कहा है लडकों के साथ खेला कर। घर में बैठा रहता है लडकियों की तरह।‘
‘मुझे अच्छा नहीं लगता क्रिकेट खेलना।‘
माँ के ज्यादा कहने पर वह साईकिल लेकर निकल पडा और पैडल पर गुस्सा उतारता रहा। सारा दिन शहर में घूमता रहा बेवजह। पैडल जितनी तेजी से चल रहे थे, विचार भी उतनी तेज उमड रहे थे। बचपन से लेकर बडे होने तक ना जाने कितनी बार लोगों ने उसे ताने मारे। कब तक चलेगा यह सब ? लोगों को दोष किसलिए देना? अपना सच वह जानता है, उसे स्वीकारना है बस सबके सामने। घर नजदीक आ रहा है। बस, अब और नहीं। घर पहुँचकर उसने साईकिल खडी की, कमरे में जाकर अपनी पसंद का शॉल निकाला और उसे दुप्पटे की तरह ओढकर सबके बीच में आकर बैठ गया। सूरज की किरणों ने आकाश पर अधिकार जमा लिया था।