हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #111 – कविता – तुमको भी कुछ सूत्र सिखा दें….☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक अतिसुन्दर विचारणीय कविता  “तुमको भी कुछ सूत्र सिखा दें….…..”। )

☆  तन्मय साहित्य  #111 ☆

☆ कविता – तुमको भी कुछ सूत्र सिखा दें….…..

 अपना यशोगान करना             

पहचान हमारी

आओ तुमको भी अचूक

कुछ सूत्र सिखा दें।

 

थोड़े से गंभीर

मुस्कुराहट महीन सी

संबोधन में भ्रातृभाव

ज्यों नीति चीन की

हो शतरंजी चाल

स्वयं राजा, खुद प्यादे

आओ तुमको भी अचूक

कुछ सूत्र सिखा दें।।

 

हो निशंक, अद्वैत भाव

मैं – मैं उच्चारें

दिनकर बनें स्वयं

सब शेष पराश्रित तारे,

फूकें मंत्र, गुरुत्व भेद

शिष्यत्व लिखा दें

आओ तुमको भी अचूक

कुछ सूत्र सिखा दें।।

 

बुद्ध, प्रबुद्ध, शुद्धता के

हम हैं पैमाने

नतमस्तक सम्मान

कई बैठे पैतानें,

सिरहाना,सदियों का सब

भवितव्य बता दे

आओ तुमको भी अचूक

कुछ सूत्र सिखा दें।।

 

हों विचार वैविध्य, साधते

सभी विधाएँ

अध्ययन, चिंतन, मनन

व्यर्थ की ये चिंताएँ

जो मन आये लिखें और

मंचों पर बाँचें

आओ तुमको भी अचूक

कुछ सूत्र सिखा दें।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

आज असहमत का मन साउथ सिविल लाईन की तफ़रीह करने का हो रहा था तो उसने साईकल उठाई और शहर के इस पॉश एरिया की सैर के लिये निकल पड़ा. ये एरिया शहर की छवि को दुरुस्त करता है, सपाट चौड़ी साफ सड़कें, अनुशासित शालीन लोग, अपने कीमती वाहनों से अक्सर यहां आवागमन करते हैं. जबलपुर की पहचान हाईकोर्ट और भव्य रेल्वे प्लेटफार्म से शुरुआत होती है , साउथ सिविल लाईन नाम से पहचाने जाने वाले इस इलाके की, फिर जब और आगे बढेंगे तो बायें तरफ पुलिस अधीक्षक ऑफिस, इंदिरा मार्केट और दायीं तरफ रेल्वे हॉस्पिटल का क्षेत्र तो किसी तरह आपको एडजस्ट करते रहते हैं पर आगे जाने पर शहर की हवा और नक्शा दोनों बदलने लगते ह़ै.इलाहाबाद बैंक चौक के नाम से विख्यात इस बड़े चौराहे को पार करने के साथ ही साऊथ सिविल लाईन के नाम से पहचाने जाने वाली जगह शुरु हो जाती है. जिले के सारे महत्वपूर्ण प्रशासनिक अधिकारी,पुलिस अधिकारी और कोर्ट के योअर ऑनर्स के विशालकाय बंगलों से सजा है यह क्षेत्र, हालांकि यहां पर मल्टीप्लेक्स स्टोरीज़ भी कॉफी हैं.जबलपुर के सांसद का निवास और सदर क्षेत्र के विधायक भी यंहा के निवासी हैं.

साऊथ सिविल लाईन्स की सैर करते हुये असहमत को अपने कॉलेज के दिन याद आ रहे थे. यहां का भ्रमण उसे अनूठा आनंद दे रहा था.अधिकांश बंगलों पर अंदर सैर करने की उसकी ख़्वाहिश को रौबदार नेमप्लेट,गेट पर खड़े संतरी और और सायरन लगी गाड़ियां ,कमज़ोर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे.सपना तो उसका भी था कि इन प्रभावशाली बंगलों में से किसी एक में उसकी भी नेमप्लेट लगे पर उसका प्रारब्ध इस मामले में उससे असहमत था. ये भी कहा जा सकता है कि ईश्वर जब इन पदों को हासिल करने की योग्यता बांट रहे थे तो असहमत इसी बात पर गर्वित था कि शहर की टॉकीज़ों में उसे फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने से कोई नहीं रोक सकता क्योंकि करेंट बुकिंग की खिड़की से शो की टिकट लेने में उसे महारथ हासिल थी. सरकारी बंगलों में रहने वालों के बारे में उसकी इस धारणा को कोई नहीं बदल पाया कि ” बाहर कुछ भी जल्वा हो पर घर पर हमेशा IG की नहीं बल्कि बाईजी की ही चलती है. बाई जी याने मैडम जिनके लिये IAS, IPS का एग्जाम क्वालिफाई करना बिल्कुल भी जरूरी नहीं है.
सरकारी बंगलों के बाद कुछ प्राइवेट बंगले भी बने थे जिनमें कॉलेज और विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर निवास कर रहे थे. संतरी तो नहीं थे पर कुत्तों से सावधान के बोर्ड लगे थे, कुछ में कुत्ते की फोटो भी थी जिसे देखकर शाम को अपने मालिक /मालकिन के साथ सैर पर निकले कुत्ते भौंकना शुरु कर देते थे. असहमत वैसे तो अपने प्रकृति प्रदत्त गुण के कारण किसी से नहीं डरता था पर कुत्ते उसकी कमजोरी थे. इनको देखकर असहमत के साथ साथ उसकी साईकल की भी धड़कन भी तेज हो जाती है.अचानक एक छोटे बंगले पर उसकी नज़र चिपक गई जिसके गेट पर न तो संतरी था न ही कुत्ते वाली चेतावनी, सिर्फ नेमप्लेट ही चमक रही थी जिस पर लिखा था “प्रोफेसर मनसुख लाल ” उसे याद आ गया कि ये उसके कॉलेज़ के ही इतिहास विषय के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं और रिटायरमेंट के बाद इस बंगले को गुलज़ार कर रहे हैं.
प्रोफेसर साहब काफी रसिक मिज़ाज के थे और शहर वाले इन्हें इनके जूली सदृश्य प्रकरण के कारण जबलपुर के प्रोफेसर मटुकनाथ के नाम से जानते थे. इनकी गाइडेंस में रिसर्च कर रहे स्कालर्स में छात्रों से ज्यादा छात्राओं का अनुपात था. हालांकि ये तो बाद में पता चला कि प्रोफेसर साहब गाईड कम मिसगाईड ज्यादा किया करते थे. कुछ की थीसिस तो इन्होने घर बैठे बैठे कंप्लीट करवा दी हालांकि घर कौन सा होगा ये छात्रा नहीं बल्कि प्रोफेसर डिसाइड करते थे. जले भुने और मेहनत करके भी लटकने वाले छात्र इनको प्रोफेसर गूगल कहते थे, जिसका अर्थ उनकी शैली में “हल्दी लगे न फिटकरी, फिर भी रंग चोखा” होता था.जब असहमत इनके पास पहुंचा तो प्रोफेसर साहब किसी विदुषी से लॉन में बैठकर पाठकों की अज्ञानता और सस्ते, हल्के साहित्य से लगाव और शालीन अभिरुचियों से दूर होते जाने के विषय पर बात कर रहे थे. प्रोफेसर साहब कह रहे थे कि पता नहीं मोबाइल और लैपटॉप में उलझी इस युवा पीढ़ी की साहित्य के प्रति ये अवहेलना और स्तरहीन दृष्टिकोण देश को किस रसातल में ले जायेगा. पाठक दिनों दिन पथभ्रष्ट होता जा रहा है, टीवी, और सोशलमीडिया से दोस्ती की पींगे मार रहा है.न चरित्र है न ही साहित्य के प्रति लगाव. प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, मैथिली शरण गुप्त, दिनकर सही समय में अवतरित हुये तो साहित्य ने उनका मूल्यांकन किया. अब तो हाल ये हो गया है कि खुद ही लिखो और खुद ही पढ़ो. अगर मार्केटिंग की कोशिश की तो लोग उसी तरह से दूर भागते हैं जैसे कोई फ्लॉप mutual fund scheme पकड़ा रहा है. पाठकों को जबसे सस्ता इंटरनेट मिला है, उसकी आदत बिगड़ गई है, उसे हर वस्तु सस्ती या मुफ्त चाहिए.

अभी तक असहमत बैठ जरूर गया था प्रोफेसर साहब की बैठक में, पर उसे किसी ने नोटिस नहीं किया था. वैसे भी प्राध्यापकों की आदत होती है विशेषकर कॉलेज और विश्वविद्यालय वाले, जहाँ पर छात्रों की अटेंडेंस लेने का तो सवाल ही नहीं उठता और कितने आये हैं कितने नहीं इस पर ध्यान दिये बगैर वो जो घर से लेक्चर तैयार करके लाते हैं उसे डिलीवर करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं.अगर आप समझ गये तो आप सौभाग्यशाली होते हैं.

पर असहमत तो ऐसा नहीं था कि कोई उसकी मौजूदगी से बेखबर रहे. तो वो बोला और इस बार उसकी आवाज़ में उन बहुत सारे उपेक्षित छात्रों के दर्द भी शामिल थे जिनका रिसर्च वर्क प्रोफेसर साहब के अनुमोदन की राह देखते देखते युवा प्रेमिका से वयोवृद्ध पत्नी बन चुका था.

असहमत : सर,आपको पाठकों से नाराज होना शोभा नहीं देता क्योंकि ये सारे लोग आपको बहुत अच्छे से जानते हैं और जब आप इनको इतिहास पढ़ा रहे थे, तो यहां की सारी स्टूडेंट कम्युनिटी आपका इतिहास चटकारे ले लेकर कॉलेज केंटीन में शेयर किया करती थी. जहां तक साहित्य की बात हैं तो वक्त की नब्ज पहचानने वाले कुमार विश्वास, मनोज़ मुंतिजर, चेतन भगत आज के युवाओं के दिलों में बस चुके हैं.

ये सब सुनते ही, प्रोफेसर का रौद्र रूप देखकर असहमत के तोते उड़ गये और इसके पहले कि प्रोफेसर उसे पकड़ पाते वो ऐसी तेज़ गति से भागा जैसे साउथ सिविल लाईन के सारे कुत्ते उसका पीछा कर रहे हैं.??‍♂️??‍♂️??‍♂️

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #88 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (भोपाल एवं जबलपुर)–4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #88 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (भोपाल एवं जबलपुर) – 4 ☆ 

गांधीजी का मध्यप्रदेश में छठवीं बार आगमन 1933 में हुआ और इस दौरान वे बालाघाट, सिवनी, छिंदवाड़ा, बैतूल,इटारसी  सागर, दमोह, कटनी, जबलपुर, मंडला , सोहागपुर,  बाबई, हरदा, खंडवा गए। गांधीजी ने 28 नवंबर 1933 से शुरू किए अपने इस दौरे में कुल सत्रह दिन मध्य प्रदेश में बिताए। इस हरिजन दौरे के दौरान उन्होंने  अस्पृश्यता निर्मूलन और जातिगत ऊंच-नीच की भावना को समाप्त करने पर बल दिया।  उनके दमोह और सागर दौरे की कुछ झलकियां निम्न हैं:-     

गांधीजी का दमोह  आगमन – महात्मा गांधी रेहली तथा गढाकोटा होते हुए 2 दिसंबर,1933 को क्षेत्र के अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी पंडित जगन्नाथ प्रसाद पटैरिया शेवरले कार से दमोह पहुंचे। चुंगी नाके पर उनका स्वागत किया गया तथा उन्हें एक विशाल जूलूस में मुख्य बाजार ले जाया गया। दमोह में उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया, उनके सिर पर छत्र रखा गया, सड़कों पर अभ्रक डाला गया और पूरे रास्ते उन पर पुष्पवर्षा की गई। गांधीजी ने वर्तमान गांधी चौक  में एक विशाल सभा को संबोधित किया,जहाँ झुन्नी लाल वर्मा द्वारा स्वागत भाषण दिया गया। अन्य स्थानों की भांति यहां भी उन्हें थैलियां भेंट की गयी। इस अवसर पर दमोह की यह विशेषता रही कि यहां ईसाईयों ने भी, जिनमें अंग्रेज भी शामिल थे, थैली प्रदान करी। इससे गांधीजी अत्यंत प्रसन्न हुये। बाद में उन्होंने हरिजनों के लिए एक बाल्मीकि गुरुद्वारे का भूमिपूजन किया था। इधर दमोह में आज जहां टोपी लेन है, वहां सैकड़ों टेलर मास्टर जमा थे। लोग गांधी टोपियां सिला रहे थे।

सागर :-  “संसार के सर्वश्रेष्ठ महान पुरुष,त्यागी महात्मा गांधी का हृदय से स्वागत कीजिए” यह पंक्तियां उस आमंत्रण पत्र  का हिस्सा हैं जो 1, 2 व 3 दिसंबर,1933 को बापू के सागर जिले के विभिन्न स्थानों के  दौरे के लिए छापा गया था। बापू का कार्यक्रम मूलतः आज के देवरी विधानसभा क्षेत्र में स्थित अनंतपुरा गांव जाने के लिए बना था, जहां उन्हें एक नवयुवक जेठालाल द्वारा संचालित  ‘खादी निवास’ नामक बुनकरों की बस्ती में चल रहे काम का निरीक्षण करना था। गांधीजी  नरसिंहपुर जिले के करेली रेलवे स्टेशन पर 1 दिसंबर 1933 उतरे और  करेली और बरमान के कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हुए वे कार से देवरी पहुंचे थे, जहां दलितों के बीच उन्होंने आधा घंटा बिताया और मुरलीधर मंदिर के कपाट हरिजनों के लिए खुलवा  दिए। इसके बाद वे  अनंतपुरा ग्राम में पूरा दिन और पूरी रात रुके। बाद में गांधीजी ने ‘अनंतपुरा में मैंने क्या देखा’ प्रसंशात्मक  लेख लिखा, जो 15 दिसंबर 1933 के हरिजन में छपा।  

गांधी का आगमन सागर के लिए बड़ी घटना थी। यहाँ भी उन्होंने कोरी समाज के मंदिर की नींव रखी। दलितों को जहां मंदिर प्रवेश में दिक्कतें थीं तो उनके खुद के पूजास्थल बनवाना भी उस समय क्रांतिकारी कदम था। गांधीजी ने  गल्लामंडी प्रांगण की आमसभा को संबोधित किया और फिर इसी कार्यक्रम में गांधी अपने उपयोग की चीजें भी नीलाम कर हरिजन आंदोलन के लिए धन एकत्रित किया। बहुतों ने सामान खरीदा। कइयों ने सामान लिए बिना भी अपने गहने और रूपये गांधी जी को दे दिए।

गांधी यात्रा के कुछ संस्मरण :-      

(i) गांधीजी  जब रायपुर से बिलासपुर जा रहे थे तो रास्ते में एक वृद्धा मोटर के सामने खडी हो गयी और बोली की मरने के पहले वह गांधीजी के चरण धोकर पुष्प चढ़ाना  चाहती है। गांधीजी ने हंसकर कहा कि इसके लिए वे एक रुपया लेंगे। वृद्धा के पास रुपया न था वह बोली मैं घर जाकर देखती हूँ शायद कुछ मिल जाय। आसपास खड़े लोगों ने उसे रुपया देना चाहा पर वह इसके लिए तैयार न हुई, गांधीजी ने भी हँसते हुए अपने चरण आगे बढ़ा वृद्धा की इच्छा पूरी की। बिलासपुर में गांधीजी की विशाल सभा शनिश्चरा पड़ाव पर हुयी। सभा की समाप्ति पर लोग चबूतरे की ईंट, पत्थर और  मिटटी तक घर ले गए.

(ii)  गांधीजी के बैतूल से इटारसी जा रहे थे। एक छोटे से स्टेशन ढोढरा पर रेल गाडी रुकी, बाहर अपार जनसमूह महात्मा गांधी की जय के नारे लगा रहा था। दीनता और गरीबी इतनी की आम जन के पास ठीक से तन ढकने को कपडे तक न थे। गांधीजी डिब्बे से बाहर आये, मनकीबाई नामक महिला ने उन्हे माला अर्पित की और गांधीजी को कुछ सिक्के यह कहते हुए दिए कि उसने गांव  वालों से एक एक पैसा मांगकर एकत्रित किया है। गांधीजी ने इसे दरिद्रनारायण का प्रसाद मानते हुए ग्रहण किया.

क्रमशः….

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 4 – लाल हथेली — ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “लाल हथेली –” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 4 ✒️

? गीत – लाल हथेली —  डॉ. सलमा जमाल ?

मेहंदी वाली लाल हथेली ,

उस पर शब ये जुदाई की।

तुम क्या समझो क्या जानो ,

बात मेरी तन्हाई की ।।

 

दुल्हन बैठी आंख झुकाए,

आहट लेती क़दमों की ।

किस से शिकवा और शिकायत,

आज करे हरजाई की ।

तुम क्या —————–।।

 

चांद सितारे भी अंगड़ाई,

लेते- लेते डूब गए ।

तीर चलाती दिल पे मेरे ,

यह आवाज़ शहनाई की।

तुम क्या ————–।।

 

सावन की घनघोर बदरिया,

बरसी मन के आंगन में ।

साजन तो परदेस बसे सखि,

बात ना कर पुवाई की।।

तुम क्या—————।।

 

टूट गए आशा के बंधन ,

गाल गुस्से से लाल हुऐ ।

मुझ पे सखियो हंस मत देना,

है बात “सलमा “रुसवाई की ।

तुम क्या—————।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 112 ☆ गज़ल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 112 ?

☆ गज़ल ☆

मी कशासाठी लिहावे नेमका  अंदाज नाही

वाहवा नवखीच आहे तो तुझा आवाज नाही

 

बंड माझे कोंडले होते जरी मी अंतरी या

व्यक्त होण्या आज येथे कोणतीही लाज नाही

 

मी मला वाटेवरी या भेटले आहे नव्याने

पेटवा आता कितीही रान मी नाराज नाही

 

येत  आहे जाग  आता झोपले होते कधीची

सूर्य येथे कोणताही जाहला हमराज नाही

 

मैत्र त्यांचे दो घडीचे पाठ फिरली की कुटाळी 

बुडबुडे ते हो जरासे, सागराची गाज नाही 

 

मज न पर्वा लाभला नाही किनारा ओळखीचा

भीत होते काल मी, ते भय तुफानी  आज नाही

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १६ – भाग २ – नाईलकाठची नवलाई ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १६ – भाग २  ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ नाईलकाठची नवलाई ✈️

 कैरोहून रात्रीच्या ट्रेनने सकाळी आस्वान इथे आलो. अबुसिंबल इथे जाण्यासाठी बरोबर अकरा वाजता सर्व गाड्या निघाल्या. त्याला Convoy असे म्हणतात. म्हणजे सशस्त्र सैनिकांची एक गाडी पुढे, मध्ये सर्व टुरिस्ट गाड्या, शेवटी परत सशस्त्र सैनिकांची गाडी. वाटेत कुठेही न थांबता हा प्रवास होतो व परतीचा प्रवासही याच पद्धतीने बरोबर चार वाजता सुरू होतो. तीन तासांच्या या प्रवासात दोन्ही बाजूला दृष्टी पोहोचेल तिथपर्यंत प्रचंड वाळवंट आहे. इथे रानटी टोळ्यांच्या आपापसात मारामाऱ्या चालतात आणि एकेकट्या प्रवासी गाडीवर हल्ला करून लुटीची शक्यताही असते. म्हणून ही काळजी घेतली जाते. अबूसिंबल हे सुदानच्या सीमेवरील ठिकाण आहे. रामसेस (द्वितीय) या राजाचे ६५ फूट उंचीचे सॅ॑डस्टोनमधील चार भव्य पुतळे सूर्याकडे तोंड करून या सीमेवर उभे आहेत. शेजारच्या डोंगरावर त्याची पत्नी नेफरतरी हिचे असेच दोन भव्य पुतळे आहेत. डोंगराच्या आतील भाग कोरून तिथे पन्नास- पन्नास फूट उंच भिंतीवर असंख्य चित्रे, मिरवणुका कोरलेल्या आहेत. सूर्याची प्रार्थना करणारी बबून माकडे,गाई, कोल्हे, पक्षी असे तरतऱ्हेचे कोरीव काम आहे. तसेच नुबिया या शेजारच्या राज्यातील सोन्याच्या खाणीतून आणलेले सोने साठविण्याची मोठी जागा आहे. चार हजार वर्षांपूर्वीचे हे सारे पुतळे, कोरीवकाम वाळूखाली गाडले गेले होते. बर्कहार्ड नावाच्या स्विस प्रवाशाने १८१३ मध्ये ते शोधून काढले. १९६४ मध्ये नाईलवर आस्वान धरण बांधण्याच्या वेळी हे सर्व पुन्हा पाण्याखाली बुडणार होते, पण मानवी प्रयत्नाला विज्ञानाची जोड दिली गेली. सर्व कोरीवकाम तुकड्या-तुकड्यानी कापून जवळ जवळ सातशे फूट मागे या प्रचंड शिळा वाहून आणल्या. त्या दोनशे फूट वर चढविल्या आणि जसे पूर्वीचे बांधकाम होते तसेच ते परत कोरड्या उंच जागेवर डोंगर तयार करून त्यात उभे केले. या कामासाठी चार वर्षे आणि १०० मिलियन डॉलर खर्च आला. धरणाच्या बॅकवॉटरचे ‘लेक नासेर’ हे जगातले सर्वात मोठे कृत्रिम सरोवर बांधण्यात आले. या सरोवराचा काही भाग सुदान मध्ये गेला आहे.

नाईल क्रूझमधून केलेला प्रवास खूप सुंदर होता. या क्रूझ म्हणजे पंचतारांकित तरंगती हॉटेल्सच आहेत. जवळजवळ दीडदोनशे लहान-मोठ्या क्रूझ, प्रवाशांची सतत वाहतूक करीत असतात. नदीचे पात्र इथे खूप रुंद नाही. स्वच्छ आकाश, प्रखर सूर्यप्रकाश आणि नाईलचा अविरत जीवनप्रवाह यावर वर्षातून तीन पिके घेतली जातात. नदीच्या दोन्ही तीरांवर केळी, ऊस, कापूस,भात, संत्री अशा हिरव्यागार बागायतीचा दोन-तीन मैल रुंदीचा पट्टा दिसतो. त्या पलिकडे नजर पोहोचेल तिथपर्यंत वाळवंट! नदीकाठी अधून मधून पॅपिरस नावाची कमळासारखे लांब देठ असलेली फुले होती. त्याची देठे बारीक कापून पाण्यात भिजवून त्याचा पेपर बनविला जातो.पूर्वी तो लिहिण्यासाठी वापरत असत. आता त्यावर सुंदर पेंटिंग्स काढली जातात. ३६४ फूट उंचीच्या आणि दोन मैल लांबीच्या आस्वानच्या प्रचंड धरणाच्या भिंतीवरून मोठा हायवे काढला आहे.सोव्हिएत युनियनच्या मदतीने हे सारे काम झाले आहे. तिथून छोट्या लॉ॑चने फिले आयलंडला गेलो. इथले देवालयही आस्वान धरणामध्ये बुडण्याचा धोका होता. आधुनिक तंत्रज्ञानाने व युनेस्कोच्या मदतीने हे देवालयही पाण्याच्या वर नवीन बेटावर उचलून ठेवले आहे. या देवळात इजिप्तशियन संस्कृती चिन्हांपासून ग्रीक, रोमन, ख्रिश्चन सारी शिल्पे आढळतात. इसिस म्हणजे दयेची देवता सर्वत्र कोरलेली दिसते. तिच्या हातात आयुष्याची किल्ली कोरलेली असते.

कोमओम्बो इथे क्रोकोडाइल गॉड व गॉड ऑफ फर्टिलिटीच्या मूर्ती आहेत. क्रोकोडाइलची ममीसुद्धा आहे. पन्नास-साठ फूट उंचीचे आणि दोन्ही कवेत न मावणारे ग्रॅनाईटचे प्रचंड खांब व त्यावरील संपूर्ण कोरीवकाम बघण्यासारखे आहे. एडफू इथे होरस गॉडचे देवालय आहे. आधीच्या देवालयाचे दगड वापरून, शंभर वर्षे बांधकाम करून हे देवालय उभारले आहे. त्याच्या वार्षिक उत्सवाची मिरवणूक भिंतीवर कोरलेली आहे.तसेच हॅथर देवता व ससाण्याचे तोंड असलेला होरस गॉड यांचे दरवर्षी लग्न करण्यात येत असे. त्याची मिरवणूक चित्रे भिंतीवर कोरली आहेत.

लक्झरला पोहोचण्यापूर्वी एसना(Esna) इथे बोटीला लॉकमधून जावे लागते. ती गंमत बघायला मिळाली. बोट धरणातून जाताना धरणाच्या खूप उंच भिंतीमुळे अडविलेले पाणी वरच्या पातळीवर असते. तिथून येताना बोट सहाजिकच त्या पातळीवर असते. नंतर धरणाच्या भिंतीवरून पाणी खूप खोल पडते. बोट एकदम खालच्या पातळीवर कशी जाणार? त्यासाठी दोन बोटी एकापाठोपाठ उभ्या राहतील एवढ्या जागेत पाणी अडविले आहे. दोन्ही बाजूचे दरवाजे बंद करून त्या लॉकमधले पाणी पंपांनी कमी करत करत धरणाच्या खालच्या पातळीवर आणतात. आपली बोट हळूहळू खाली जाताना समजते. नंतर पुढचे लॉक उघडले जाऊन दोन्ही बोटी अलगद एकापाठोपाठ एक धरणाच्या खालच्या पातळीवर प्रवेश करतात व पुढचा प्रवास सुरु होतो. त्याचवेळी समोरून आलेल्या बोटींनाही या लॉकमध्ये घेऊन लॉकमधले पाणी वाढवून बोटींना धरणाच्या पातळीवर सोडले जाते.

भाग- समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 11 – डरें नहीं झंझावातों से… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “डरें नहीं झंझावातों से… । अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 11 – डरें नहीं झंझावातों से…  ☆ 

समांत-अम

पदांत-हैं

मात्राभार- १६

 

जीवन में जब आते गम हैं।

आँखें सबकी होती नम हैं।।

 

कलयुग की लीला यह देखो,

आँखों में अब कहाँ शरम हैं।

 

डरें नहीं झंझावातों से,

पाएँ मंजिल यही धरम हैं।

 

तूफानों में किश्ती खेते,

पार लगाते उनका श्रम हैं।

 

मेहनत कश भूखा है सोता,

सरकारों को अब भी भ्रम हैं।

 

वृद्ध मात-पिता हैं हो गए,

फिर भी काया में दमखम हैं।

 

कर्तव्यों को कौन पूँछता,

अधिकारों पर चली कलम हैं।

 

तन में भगवा चोला ओढ़ा,

धर्म-ज्ञान का उन्हें वहम हैं।

 

सबको जो हैं मूर्ख समझते,

उन में ही तो बुद्धि कम हैं।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 102 – “अपना अपना सच” – श्री संतोष परिहार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री संतोष परिहार जी के कहानी  संग्रह  “अपना अपना सच ” की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

APNA-APNA SACH

पुस्तक : अपना अपना सच (कहानी संग्रह)

कहानीकार- श्री संतोष परिहार

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर

मूल्य : १५० रु

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 102 – “अपना अपना सच ” – श्री संतोष परिहार ☆  

कहानियों के जरिये चरित्र के जीवन के सच का मूल्यांकन कथाओ में किया गया है । संग्रह में फुल 17 कहानियां  हैं । संग्रह की पहली कहानी जीवन एक आशा है जिसमें वृद्ध ठाकुर काका के आशावान जीवन को वर्णित किया गया है।देश का वोटर नेताओं के किए गए वादों को सच मान लेता है और उनके संबोधन में सपने बुन लेता है घर आजा मोहन कहानी में यही भाव अभिव्यक्त किए गए हैं। तेरे जाने के बाद में एक पिता के व्याकुल मन का सच है ।  “दे दाता के नाम” कहानी में दहेज  प्रथा पर कहानीकार का प्रहार है । संग्रह की सभी कहानियां हृदयस्पर्शी है जिन में जीवन का कटु सत्य है और समाज की विसंगतियों  पर लेखक ने  अपनी कलम से  सुधार करने का यत्न किया है । “बड़प्पन” कहानी में बताने का यत्न किया गया है की आदमी अपनी जाति से नहीं  कर्म से बड़ा होता है ।कहानियों की  घटनाएं हम सबके आसपास ही घटित हो रही है जिन्हें लेखक ने इस तरह लिपी बद्ध किया है कि पाठक को लगता है कि वह समस्या उसके  अपने ऊपर ही बीत रही है ।

समाज का शोषित वर्ग जैसे  बेटियां,स्त्रियां,बुजुर्ग,बच्चों और जानवर सभी के विषय में  कथाओं का संग्रह है।

पुस्तक बार बार पठनीय है।  संतोष परिहार जी हिंदी कहानी जगत के पुरस्कृत बहुपठित कहानीकार हैं उनसे हिंदी कथा को और बहुत सी आशाये हैं। 

समीक्षक – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 68 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 68 –  दोहे ✍

 

सभी दलों के प्रवक्ता, शेखी रहे बघार।

उनकी मुद्रा कह रही, दिल्ली में दमदार।।

0

हाय, पटकनी खा गए, बहे धार ही धार।

किया आत्मविश्वास ने, ऐसा बंटाधार।।

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नारे लगे विरोध में, किए रास्ते जाम।

लेन-देन पक्का हुआ, मिलजुल बैठे श्याम।।

0

राजनीति की चाल को, समझ ना पाए आप।

बेटा भी कहने लगा, हमीं तुम्हारे बाप।।

0

मूर्ति लगाई इन्होंने, चढ़े गले में हार

वाह चढ़ावे आ गए, करने को मिस्मार।।

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शुद्ध हरामी रहे थे और बहुत बदनाम।।

दल बदला तो हो गए, पावन सीताराम।।

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अच्छे दिन आए नहीं, शुरू बुरे का दौर।

कुआ खाई के बीच में, नहीं ठिकाना ठौर ।।

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© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 68 – कालजयी जैसा माधुर्य कुछ… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कालजयी जैसा माधुर्य कुछ…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 68 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || कालजयी जैसा माधुर्य कुछ ….. || ☆

बंदिशें सुनाते हैं कंगूरे

और जुगलबंदी किबार की

बाकी है अब भी दीवारों में

संगत वह ईंट की, दरार की

 

सुरबहार जैसे मकड़  जाले

आलों में जलतरंग जैसा कुछ

तनी खिड़कियाँ तानपूरे सी

तार तार हो जाता जिनका चुप

 

गत में आलाप से , झरोखे हैं

गढ़ की सम्पूर्ण रागदारी के

ड्योढ़ी से दूर नहीं हो पायी

लौकिक छबि सुर में सितार की

 

मंद्र में निकलती लगी पीड़ा

जंग लगी आवाजें रागों की

सरगम सरीखी लहराती थीं

सूख गयी लहरें तड़ागों की

 

मींड़   से निकलते इस

सप्तक का

गायन करते करते बुर्ज सभी

बता नहीं पाये संगीत में

तबले की थाप को उधार की

 

कालजयी जैसा माधुर्य कुछ

ठहर गया इन अदम्य प्राचीरों

पत्थर के टुकड़ों में पसरा है

तीरकशों से निकल गये तीरों-

 

सा,जैसे भैरवी में गाता है

स्वर साधक महल से उतरते हुये

वैसा संगीत विखरता रहता

वाणी में , समय के विचार की

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

12-12-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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