(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “देख लिया”।)
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा # 60 ☆ गजल – सच में सूरज की चमक भी अब तो फीकी हो चली ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #72 – गलती स्वयं सुधारें☆ श्री आशीष कुमार☆
एक बार गुरू आत्मानंद ने अपने चार शिष्यों को एक पाठ पढाया। पाठ पढाने के बाद वह अपने शिष्यों से बोले – “अब तुम चारों इस पाठ का स्वाध्ययन कर इसे याद करो। इस बीच यह ध्यान रखना कि तुममें से कोई बोले नहीं। एक घंटे बाद मैं तुमसे इस पाठ के बारे में बात करुँगा।“
यह कह कर गुरू आत्मानंद वहाँ से चले गए। उनके जाने के बाद चारों शिष्य बैठ कर पाठ का अध्ययन करने लगे। अचानक बादल घिर आए और वर्षा की संभावना दिखने लगी।
यह देख कर एक शिष्य बोला- “लगता है तेज बारिश होगी।“
ये सुन कर दूसरा शिष्य बोला – “तुम्हें बोलना नहीं चाहिये था। गुरू जी ने मना किया था। तुमने गुरू जी की आज्ञा भंग कर दी।“
तभी तीसरा शिष्य भी बोल पड़ा- “तुम भी तो बोल रहे हो।“
इस तरह तीन शिष्य बोल पड़े, अब सिर्फ चौथा शिष्य बचा वो कुछ भी न बोला। चुपचाप पढ़ता रहा।
एक घंटे बाद गुरू जी लौट आए। उन्हें देखते ही एक शिष्य बोला- “गुरूजी ! यह मौन नहीं रहा, बोल दिया।“
दुसरा बोला – “तो तुम कहाँ मौन थे, तुम भी तो बोले थे।“
तीसरा बोला – “इन दोनों ने बोलकर आपकी आज्ञा भंग कर दी।“
ये सुन पहले वाले दोनों फिर बोले – “तो तुम कौन सा मौन थे, तुम भी तो हमारे साथ बोले थे।“
चौथा शिष्य अब भी चुप था।
यह देख गुरू जी बोले – “मतलब तो ये हुआ कि तुम तीनों ही बोल पड़े । बस ये चौथा शिष्य ही चुप रहा। अर्थात सिर्फ इसी ने मेरी शिक्षा ग्रहण की और मेरी बात का अनुसरण किया। यह निश्चय ही आगे योग्य आदमी बनेगा। परंतु तुम तीनों पर मुझे संदेह है। एक तो तुम तीनों ने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया; और वह भी एक-दूसरे की गलती बताने के लिये। और ऐसा करने में तुम सब ने स्वयं की गलती पर ध्यान न दिया।
आमतौर पर सभी लोग ऐसा ही करते हैं। दूसरों को गलत बताने और साबित करने की कोशिश में स्वयं कब गलती कर बैठते हैं। उन्हें इसका एहसास भी नहीं होता। यह सुनकर तीनो शिष्य लज्जित हो गये। उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की, गुरू जी से क्षमा माँगी और स्वयं को सुधारने का वचन दिया।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख सफलता प्राप्ति के मापदंड। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 113 ☆
☆ सफलता प्राप्ति के मापदंड ☆
अमिताभ बच्चन का यह संदेश जीवन की आदर्श राह दर्शाता है कि यदि आप जीवन में सफलता पाना और आनंदपूर्वक जीवन बसर करना चाहते हैं, तो यह पांच चीज़ें छोड़ दीजिए …सब को खुश करना, दूसरों से ज़्यादा उम्मीद करना, अतीत में जीना, अपने आप को किसी से कम आंकना व ज़्यादा सोचना बहुत सार्थक है, अनमोल है, अनुकरणीय है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी यह कहा गया है कि अतीत के गहन अंधकार से बाहर निकल, वर्तमान में जीना सीखो। जो गुज़र गया, लौट कर कभी आयेगा नहीं। सो! उसकी स्मृतियों को अपने आज को, वर्तमान को नष्ट न करने दो। रात्रि के पश्चात् स्वर्णिम भोर का स्वागत करो; उसकी ऊर्जा को ग्रहण करो। उसकी लालिमा तुम्हें ओज, बल, शक्ति व उम्मीदों से आप्लावित कर देगी। वर्तमान सत्य है, हक़ीक़त है, उसे स्वीकार्य व उपास्य समझो। जो आज है; वह कल लौटकर नहीं आएगा, इसकी महत्ता को स्वीकारो। अतीत में की गई ग़लतियों से शिक्षा ग्रहण करो… उन्हें दोहराओ नहीं, यह सर्वश्रेष्ठ उपहार है।
जो इंसान अपने कृत-कर्मों से सीख लेकर अपने वर्तमान को सुंदर बनाता है– वह श्रेष्ठ मानव है और जो उनसे सीख नहीं लेता, पुन: वही ग़लतियां दोहराता है, निकृष्ट मानव है; त्याज्य है; निंदा का पात्र बनता है और जो दूसरों की ग़लतियों से सीख लेकर उनसे बचता है; दूर रहता है; उन्हें त्याग देता है … वह सब सर्वश्रेष्ठ मानव है। ऐसे महापुरुष महात्मा बुद्ध, महावीर भगवान, गुरु नानक, महात्मा गांधी व अब्दुल कलाम की भांति सदैव स्मरण किए जाते हैं; युग-युगांतर तक उनकी उपासना व आराधना की जाती है; उनकी शिक्षाओं का बखान किया जाता है तथा वे अनुकरणीय हो जाते हैं… क्योंकि वे सदैव सत्कर्म करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
इसलिए ‘जो अच्छा है, श्रेष्ठ है, उसे ग्रहण करना उत्तम है और जो अच्छा नहीं है, उसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है।’ यदि हम उनकी आलोचना में अपना समय नष्ट कर देंगे, तो हमारा ध्यान उनके गुणों की ओर नहीं जाएगा और हम उस निंदा रूपी भंवर से कभी भी मुक्त नहीं हो पाएंगे। इस संदर्भ में मुझे एक महान् उक्ति का स्मरण हो रहा है, ‘यदि राह में कांटे हैं, तो उस पर रेड-कारपेट बिछाने का प्रयास करने की अपेक्षा अपने पांव में जूते पहनना बेहतर है। सो! हमें सदैव उसी राह का अनुसरण करना चाहिए, जो सुविधा- जनक हो; जिसमें कम समय व कम परिश्रम की आवश्यकता हो, न कि व्यवस्था व व्यक्ति विशेष की निंदा करना अर्थात् जो प्रकृति व परमात्मा द्वारा प्रदत्त है, उसमें से श्रेष्ठ चुनने की दरक़ार है। जो मिला है, उसमें संतोष करना अच्छा है, बेहतर है। इसके साथ-साथ गीता का निष्काम कर्म व कर्म-फल का संदेश हमारे भीतर नवीन ऊर्जा संचरित करता है तथा ‘शुभ कर्मण से कबहुं न टरूं’ का संदेश देता है। जीवन में निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, थककर बैठना नहीं चाहिए। जो लोग आत्म-संतोषी होते हैं, अर्थात् ‘जो मिला है, उसी में संतुष्ट रहते हैं, तो उन्हें वही मिलता है, जो परिश्रमी लोगों के ग्रहण करने के पश्चात् शेष बच जाता है। अब्दुल कलाम का यह संदेश अनुकरणीय है कि जो लोग भाग्यवादी होते हैं, आलसी कहलाते हैं। वे नियति पर विश्वास कर संतुष्ट रहते हैं कि जो हमारे भाग्य में लिखा था, वह हमें मिल गया है।
यह नकारात्मक भाव जीवन में नहीं आने चाहिएं। यदि आप सागर के गहरे जल में नहीं उतरेंगे, तो अनमोल मोती कहां से लाएंगे? सो! साहिल पर बैठे रहने वाले उस आनंद व श्रेष्ठ सीपियों से वंचित रह जाते हैं। प्रथम सीढ़ी पर कदम न रखने वाले अंतिम सीढ़ी तक पहुंचने की कल्पना भी नहीं कर पाते, उनके लिए आकाश की बुलंदियों को छूने की कल्पना बेमानी है। मुझे याद आ रही हैं, कवि दुष्यंत की वे पंक्तियां, ‘कौन कहता है/ आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’ सकारात्मकता का संदेश देती हैं। हमें मंज़िल पर पहुंचने से पहले थककर नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि बीच राह से लौटने में उससे भी कम समय लगेगा और आप अपनी मंज़िल पर पहुंच जाएंगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘एकला चलो रे’ कविता हमें यह संदेश देती है… जीवन की राह पर अकेले आगे बढ़ने का, क्योंकि ज़िंदगी के सफ़र में साथी तो बहुत मिलते हैं और छूट जाते हैं। उनका साथ देने के लिए बीच राह में रुकना श्रेयस्कर नहीं है और न ही उनकी स्मृतियों में अवगाहन कर अपने वर्तमान को नष्ट करने का कोई औचित्य है।
एकांत सर्वश्रेष्ठ उपाय है– आत्मावलोकन का, अपने अंतर्मन में झांकने का, क्योंकि मौन नव-निधियों को अपने आंचल में समेटे है। मौन परमात्मा तक पहुंचने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है और मौन रूपी साधना द्वारा हृदय के असंख्य द्वार खुलते हैं; अनगिनत रहस्य उजागर होते हैं और आत्मा-परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है… यह ‘एकोहम्-सोहम्’ की स्थिति कहलाती है, जिससे मानव बाहर नहीं आना चाहता। यह कैवल्य की स्थिति है, जीते जी मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।
आइए! हम चर्चा करते हैं… स्वयं को किसी से कम नहीं आंकने व अधिक सोचने की, जो आत्मविश्वास को सर्वोत्तम धरोहर स्वीकार उस पर प्रकाश डालता है, क्योंकि अधिक सोचने का रोग हमें पथ-विचलित करता है। व्यर्थ का चिंतन, एक ऐसा अवरोध है, जिसे पार करना कठिन ही नहीं, असंभव है। आत्मविश्वास वह शस्त्र है, जिसके द्वारा आप राह की आपदाओं को भेद सकते हैं। इसके लिए आवश्यकता है, प्रबल इच्छा-शक्ति की… यदि आपका निश्चय दृढ़ है और आप में अपनी मंज़िल पर पहुंचने का जुनून है, तो लाख बाधाएं भी आपके पथ में अवरोधक नहीं बन सकतीं। इसके लिए आवश्यकता है…एकाग्रता की; एकचित्त से उस कार्य में जुट जाने की और लोगों के व्यंग्य-बाणों की परवाह न करने की, क्योंकि ‘कुछ तो लोग कहेंगे/ लोगों का काम है कहना’ अर्थात् दूसरों को उन्नति की राह पर अग्रसर होते देख, उनके सीने पर सांप लोटने लग जाते हैं और वे अपनी सारी शक्ति, ऊर्जा व समय उस सीढ़ी को खींचने व निंदा कर नीचा दिखाने में लगा देते हैं। ईर्ष्या-ग्रस्त मानव इससे अधिक और कर भी क्या सकता है? उस सामर्थ्यहीन इंसान में इतनी शक्ति, ऊर्जा व सामर्थ्य तो होती ही नहीं कि वह उनका पीछा व अनुकरण कर उस मुक़ाम तक पहुंच सके। सो! वह उस शुभ कार्य में जुट जाता है, जो उसके लिए शुभाशीष के रूप में फलित होता है। परंतु यह तभी संभव हो पाता है, यदि उसकी सोच सकारात्मक हो। इस स्थिति में वह जी-जान से अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाता है। अगर वह अधिक बोलने वाला प्राणी है, तो उसका सारा ध्यान व्यर्थ की बातों की ओर केंद्रित होगा तथा वह मायाजाल में उलझा रहेगा। यदि परिस्थितियां उसके अनुकूल न रहीं, तो वह क्या करेगा और उसके परिवार का क्या होगा और यदि उसे बीच राह से लौटना पड़ा, तो…तो क्या होगा…वह इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने में स्वयं को असमर्थ पाता है। सो! अधिक सोचना आधि अथवा मानसिक रोग है, जिससे मानव अपनी प्रबल इच्छा-शक्ति व ऊर्जा के बिना लाख प्रयास करने पर भी उबर नहीं पाता।
जहां तक स्वयं को कम आंकने का प्रश्न है… वह आत्मविश्वास की कमी को उजागर करता है। मानव असीमित शक्तियों का पुंज है, जिससे वह अवगत नहीं होता। आवश्यकता है, उन्हें पहचानने की, क्योंकि घने अंधकार में एक जुगनू भी पथ आलोकित कर सकता है… एक दीपक में क्षमता है; अमावस के निविड़ अंधकार का सामना करने की, परंतु मूढ़ मानव न जाने इतनी जल्दी अपनी पराजय क्यों स्वीकार कर लेता है। विषम परिस्थितियों में वह थक-हार कर, निष्क्रिय होकर बैठ जाता है। अक्सर तो वह साहस ही नहीं जुटाता और उस राह पर अपने कदम बढ़ाता ही नहीं, क्योंकि वह अपनी आंतरिक शक्तियों व सामर्थ्य से परिचित नहीं होता। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वरचित काव्य- संग्रह अस्मिता की पंक्तियां ‘औरत! तुझे इंसान किसी ने माना नहीं/ तू जीती रही औरों के लिए/ तूने आज तक/ स्वयं को पहचाना नहीं’ के साथ-साथ मैंने ‘नारी! तू नारायणी बन जा, कलयुग आ गया है/ तू दुर्गा, तू काली बन जा/ कलयुग आ गया है’ के माध्यम से अपनी शक्तियों को पहचानने के साथ-साथ नारी को दुर्गा व काली बनकर शत्रुओं का मर्दन करने का संदेश दिया है। इसलिए मानव को कभी स्वयं को दूसरों से कम नहीं आंकना चाहिए। यदि हम इस रोग से मुक्ति पा लेंगे, तो हम सब को खुश करने व दूसरों से ज़्यादा उम्मीद करने के चक्कर में उससे मुक्त हो जाएंगे।
‘यदि किसी व्यक्ति के शत्रु कम है या नहीं हैं, तो उसने जीवन में बहुत से समझौते किए होंगे’ उक्त भाव की अभिव्यक्ति करता है। हमें दूसरों की खुशी का ध्यान तो रखना चाहिए, परंतु अपनी भावनाओं- इच्छाओं को अपने हाथों रौंद कर अथवा मिटाकर नहीं, क्योंकि हमारे लिए आत्म-सम्मान को बरक़रार रखना अपेक्षित है। वास्तव में जो स्वार्थ हित दूसरों की खुशी के लिए कुछ भी कर गुज़रते हैं, वे चाटुकार कहलाते हैं। हमें रीतिकालीन कवियों बिहारी, केशव आदि की भांति केवल आश्रयदाताओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन नहीं करना है, बल्कि उन्हें उनके कर्तव्य-पथ से अवगत कराना है … ‘नहीं पराग नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो,आगे कौन हवाल’ के द्वारा बिहारी ने राजा जयसिंह को अपने दायित्व के प्रति सजग रहने का संदेश दिया था। साहित्य में जहां सबको साथ लेकर चलने का भाव समाहित है; वहीं साहित्य का सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् भाव से आप्लावित होना भी अपेक्षित है। वास्तव में यही सामंजस्यता है।
आइए! इसी से जुड़े दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात कर लें, यदि हम बात करें कि ‘हमें दूसरों से ज़्यादा उम्मीद नहीं रखनी चाहिए क्योंकि इच्छाएं,आकांक्षाएं व लालसाएं तनाव की जनक हैं। उम्मीद सुंदर भाव है; हमें प्रेरित करता है; परिश्रम करने का संदेश देता है तथा हमारे अंतर्मन में ऊर्जस्वित करता है तथा असीमित शक्तियों को संचरित करता है। इसके साथ ही वह स्वयं से अपेक्षा रखने का संदेश देता है, क्योंकि यदि मानव दूसरों से अधिक उम्मीद रखता है, तो उसके एवज़ में उसे अपने आत्मसम्मान का अपने हाथों से क़त्ल कर, उसके कदमों में बिछ जाना पड़ता है और कठपुतली की भांति उसके इशारों पर नाचना पड़ता है; उसके दोषों पर परदा डाल उसका गुणगान करना होता है। अनेक बार हर संभव प्रयास करने के पश्चात् भी जब हमें मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो हम चिन्ता व अवसाद के व्यूह से बाहर आने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। अर्थशास्त्र का नियम भी यही है कि ‘अपनी इच्छाओं को सीमित रखो और उन पर अंकुश लगाओ।’ इसके साथ यह भी आवश्यक है कि दूसरों से कभी भी उम्मीद मत रखो, क्योंकि मनचाहा न मिलने पर निराशा का होना स्वाभाविक है। मुझे याद आ रहा है वह प्रसंग, जब एक संत प्रजा के हित में राजा से कुछ मांगने के लिए गया और वहां उसने राजा को सिर झुकाए इबादत करते हुए देखा, तो वह तुरंत वहां से लौट गया। राजा उस संत के लौटने की खबर सुन उससे मिलने कुटिया में गया और उसने वहां आने का प्रयोजन पूछा। संत ने स्पष्ट शब्दों में कहा’ जब मैंने आपको ख़ुदा की इबादत में मस्तक झुकाए इल्तिज़ा करते देखा, तो मैंने सोचा– आपसे क्यों मांगूं, उस दाता से सीधा ही क्यों न मांग लूं।’ यह दृष्टांत मानव की सोच बदलने के लिए काफी है। सो! मानव का मस्तक सदैव ख़ुदा के दर पर ही झुकना चाहिए; व्यक्ति की अदालत में नहीं, क्योंकि वह सृष्टि-नियंता ही सबका दाता है, पालनहार है। इसी संदर्भ में गुरु नानक देव जी का यह संदेश भी उतना ही सार्थक है ‘जो तिद् भावे,सो भली कार’…ऐ! मालिक वही करना, जो तुझे पसंद हो, क्योंकि तू ही जानता है; मेरे हित में क्या है? यह है सर्वस्व समर्पण की स्थिति, जिसमें मानव में मैं और तुम का भाव समाप्त हो जाता है। उसे केवल ‘तू और तेरा ही’ नज़र आता है। यह है तादात्म्य की मनोदशा, जहां अहं विगलित हो जाता है… केवल उस नियंता का अस्तित्व शेष रह जाता है। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए हठयोगी हजारों वर्ष तक एक ही मुद्रा में तपस्या करते हैं और मानव इस स्थिति को पाने के लिए लख चौरासी योनियों में भटकता रहता है।
अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि बच्चन जी का यह संदेश सफलता पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है; शांत मन से जीवन जीने की कला है; मैं से तुम हो जाने का सर्वोत्तम ढंग है… उपरोक्त पांच चीज़ो का त्याग कर आप आनंदमय जीवन बसर कर सकते हैं। सो! इसमें निहित हैं–समस्त दैवीय गुण। यदि आप इस मार्ग को जीवन में अपना लेते हैं, तो शेष सब पीछे-पीछे स्वत: चले आते हैं। ‘एक के साथ एक फ्री’ का प्रचलन तो आधुनिक युग में भी प्रचलित है। यहां तो आप उस नियंता की शरण में अपना अहं विसर्जित कर दीजिए; जीवन की सब समस्याओं-इच्छाओं का स्वत: शमन हो जाएगा और मानव ‘मैं व मेरा भाव’ से विमुक्त हो जाएगा और ‘तू ही तू और तेरा भाव में परिवर्तित हो जाएगा, जिसकी चाहत हर इंसान को आजीवन रहती है।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “क्या निस्वार्थ और निष्पक्ष चुनाव सम्भव है?”।)
☆ किसलय की कलम से # 64 ☆
☆ क्या निस्वार्थ और निष्पक्ष चुनाव सम्भव है? ☆
चुनाव शब्द का स्मरण होते ही सबसे पहले हमारे जेहन में मतदान, प्रत्याशी, दल और हार-जीत के भाव उभरते हैं, जबकि हम सब जीवन के पग-पग पर चुनाव करते रहते हैं। बिना चुनाव के जिंदगी चलना बहुत मुश्किल है। जीवन में चुनाव का अत्यधिक महत्त्व होता है। जीवन-साथी का चुनाव, निवास स्थान का चुनाव, पोशाकों का चुनाव, यहाँ तक कि हम मित्र के चुनाव में भी सतर्कता बरतते हैं। एक सज्जन व शाकाहारी व्यक्ति किसी सज्जन व्यक्ति को ही मित्र बनाना चाहेगा, लेकिन वह सज्जन व्यक्ति यदि मांसाहारी हो तो क्या वह उसे मित्र के रूप में चयन कर पाएगा? शायद नहीं। एक धनाढ्य प्रेमिका किसी गरीब लड़के को अपना जीवनसाथी चुनती है तो उसका चुनाव विचारधाराओं पर आधारित होता है, जबकि मानव की सदैव यही आकांक्षा होती है कि वह अधिक से अधिक सुख-संपन्न व समृद्ध हो। आशय यही है कि चुनाव में हमारी भावनाएँ, हमारे दृष्टिकोण व हमारे हित भी जुड़े होते हैं।
मेरी दृष्टि से चुनाव कभी निःस्वार्थ नहीं हो सकते। राजनीतिक चुनाव में भी विचारधाराओं की जीत अथवा हार का महत्त्व होता है। यहाँ यह बात मायने नहीं रखती कि हम निष्पक्ष व निस्वार्थ रूप से चयन प्रक्रिया संपन्न करें। हमारी स्वयं की जो विचारधारा अथवा जो दृष्टिकोण होता है हम उसका ही समर्थन करते हैं, और वही सब अपने समाज तथा व्यक्तिगत जीवन में भी चाहते हैं।
राजनीतिक चुनावों में निष्पक्षता होती ही कहाँ है? हम तो किसी एक पक्ष को चुनते हैं। यदि आप किसी एक पक्ष के व्यक्ति हैं, लेकिन आपके विचारों व भावों वाला उम्मीदवार विपक्ष का है, तब आप किसे चुनेंगे? मुझे तो संशय है कि आप अपनी विचारधारा से मेल खाते विपक्षी उम्मीदवार को चुनेंगे! यहाँ भी आप अपने स्वार्थ को महत्त्व देंगे न कि अपनी विचारधारा को। बड़ी विडंबना है कि आज हम पक्ष और स्वार्थ दोनों के बीच ऐसे भ्रमित रहते हैं कि हमारा उचित निर्णय भी यथार्थ की कसौटी पर खरा नहीं उतरता और हम आदर्श मार्ग चुनते-चुनते रह जाते हैं।
जीवन में उचित चुनाव बेहद जरूरी होते हैं। आपका चुनाव आपकी जिंदगी बदल देता है। आप के शैक्षिक विषयों का चयन, आपके विद्यालय का चयन, आपकी नौकरी का चयन जो, शायद आपकी विचारधारा व रुचियों से मेल नहीं खाता हो फिर भी आप चुनने हेतु बाध्य हो जाते हैं। अर्थात ये चुनाव परिस्थितियों वश निष्पक्ष अथवा निःस्वार्थ हो ही नहीं पाते और यदि हम ऐसा करते हैं तो भविष्य में विकट संघर्ष की स्थितियाँ निर्मित हो सकती हैं। यही हाल संतानोत्पत्ति में संख्या व लिंग का होता है, संतानों के भविष्य निर्माण को लेकर निर्णय की होती है। बड़ी विचित्र बात है कि जब हमें अनेक अवसरों पर अपने हित-अहित का चुनाव स्वयं करना होता है, तब भी हम अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पाते! आखिर समाज में रहने की खातिर वह सब क्यों करते हैं जो एक आदर्श मार्ग की ओर ले जाने से हमें रोकता है। तब इसका हल क्या हो सकता है? तब यह जरूर कहा जा सकता है कि यह भी हमारे वश में है, बशर्ते आप ने प्रारंभ में ही शिक्षा और संस्कार प्राप्त किए हों। यदि इस दायित्व को हम अपने अभिभावकों पर भी छोड़ दें तो भी हम अपनी बालसुलभ प्रवृत्तियों के चलते कई बार सुसंस्कारों व शिक्षा को अपेक्षाकृत कम हृदयंगम कर पाते हैं। एक अन्य बात भी अक्सर देखी जाती है कि हम अपने बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ जानबूझकर नहीं उठाते। हम यह समझने की कोशिश ही नहीं करते कि हमारे बुजुर्गों ने जिन अनुभवों को प्राप्त करने में वर्षों लगाये हैं, उन्हें आधार बनाकर उसके बढ़ना चाहिए। बल्कि आप पुनः शून्य से वही प्रक्रिया प्रारंभ करते हैं जिससे आपके बहुमूल्य जीवन का एक लंबा समय जाया होता है। क्या यह चुनाव आपकी समय बर्बादी या प्रगति में विलंब का कारण नहीं है? अधिकांशत यही नवपीढ़ी द्वारा चयन की त्रुटि बन जाती है।
आज का मानव आदर्श, नैतिकमूल्य, परोपकार, निस्वार्थता, निष्पक्षता, सौहार्दता, दायित्व निर्वहन आदि को किताबी बातें मानने लगा है। चुनाव करते वक्त आज प्रसिद्धि, लोकप्रियता, संपन्नता आदि बातों का ध्यान रखा जाने लगा है। जिन बातों से स्वार्थ सिद्ध हो उसे लोग अपना लेते हैं, भले ही वे अन्य दृष्टियों में कमतर अथवा विपरीत क्यों न हों।
तब क्या जीवन भर हमें निष्पक्ष अथवा निस्वार्थभाव से ही चुनाव करते रहना चाहिए? यदि ऐसा होता है तब समाज में तरह-तरह की विसंगतियाँ भी उत्पन्न होने की संभावनाएँ बढ़ जाएँगी। हम विपक्षी उम्मीदवार को चुनने लगेंगे। हम मनपसंद प्रेमी अथवा प्रेमिका को न चुनकर किसी और का चयन करने लगेंगे। हम निस्वार्थ भाव से नौकरी करेंगे जो इस जमाने में पागलपन ही कहलाएगा।
अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परिवार, समाज और देश को चलाने के लिए हमें अपनी विचारधारा तथा निष्पक्षता में सामंजस्य बिठाना होगा, तब ही हम अपनी और अपने समाज की गाड़ी वर्तमान सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच आगे ले जाने में सफल हो सकेंगे। हमें इसमें निश्चित रूप से कुछ खोना भी पड़ सकता है। मिलने की संभावनाएँ और आशाएँ तो रहती ही हैं। कहा भी गया है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है।
इस तरह मानव जीवन में जब भी चुनाव की परिस्थितियाँ निर्मित हो तो हमें स्वयं के साथ-साथ समाज के भी हितों का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि हम स्वयं, परिवार और समाज परस्पर जुड़े हुए हैं।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण एवं विचारणीय रचना “दुनिया को तुम क्या नया दोगे…. ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
“अगं ऐकलंस का, एक फक्कडसा चहा आण बघू, खूप दमलोय !”
“एवढ दमायला काय झालंय तुम्हांला ? चाळीतल्या पोरांनी ख्रिसमससाठी बनवलेलं ख्रिसमस ट्री चढून एकदम घरात नाही नां आलात ?”
“काहीतरीच काय तुझं ? मला अजून पायाखालच नीट दिसतंय ! तुझ्या सारख्या त्या टीव्हीवरच्या रटाळ सिरीयल बघून, मला चष्मा नाही लागलाय अजून !”
“कळलं कळलं ! आता दमायला काय झालंय ते सांगा ?”
“अगं हे काय आणलंय ते बघ तरी !”
“अ s s ग्गो बाई ! डिनर सेट !”
“करेक्ट, अगं आपल्याला लग्नात मिळालेला डिनर सेट आता किती जुना झालाय ! म्हटलं घेऊन टाकू एक नवीन !”
“हो, पण त्यात एवढं दमायला काय झालंय म्हणते मी ?”
“अगं तो बॉक्स जरा उचलून तर बघ ! सेव्हन्टी टू पिसेसचा अनब्रेकेबल डिनर सेट आहे म्हटलं ! एवढा जड डिनर सेट दोन जिने चढून आणल्यावर दम नाही का लागणार ?”
“अगं बाई, खरच जड आहे हो हा !”
“आता पटली खात्री, मी का दमलोय त्याची ! मग आता तरी आणशील ना चहा ?”
“एकच मिनिटं हं !”
“आता का s य s ?”
“अहो, या बॉक्सवर Hilton कंपनीच नांव आहे !”
“बरोबर, म्हणजे तुला इंग्लिश वाचता येतं तर !”
“उगाच फालतू जोक्स नकोयत मला !”
“यात कसला जोक? तू नांव बरोब्बर वाचलंस म्हणून……”
“तुम्हांला ना, खरेदीतल काही म्हणजे काही कळत नाही !”
“आता यात न कळण्यासारखं काय आहे ? हा डिनर सेट नाही तर काय लेमन सेट आहे ?”
“तसं नाही, अहो Milton कंपनी डिनर सेट बनवण्यात प्रसिद्ध आहे आणि तुम्ही आणलात Hilton चा डिनर सेट, कळलं ! कुठून आणलात हा सेट ?”
“अगं तुझ्या नेहमीच्या ‘महावीर स्टोर्स’ मधून ! तो मालक मला म्हणाला पण, काय शेट आज भाभीजी नाय काय आल्या तुमच्या संगाती ! मी म्हटलं शेठ, तुमच्या भाभीजीला सरप्राईज देणार आहे आज, म्हणून तिला नाही आणलं बरोबर !”
“आणि पायावर धोंडा मारून घेतला !”
“आता यात कसला पायावर धोंडा ?”
“अहो Milton च्या ऐवजी Hilton चा डिनर सेट आणलात नां ?”
“अगं तो शेठच म्हणाला, ही Hilton कंपनी नवीन आहे, पण चांगले डिनर सेट बनवते आणि Milton पेक्षा खूपच स्वस्त, म्हणून….”
“स्व s s स्त s s ! एरवी मी दुकानात घासाघिस करतांना मला अडवता आणि आज स्वतःच डुप्लिकेट माल घेऊन आलात ना ?”
“यात कसला डुप्लिकेट माल ? हे बघ या बॉक्सवर चक्क लिहलय, Export Quality, Made in USA !”
“अहो, USA म्हणजे उल्हासनगर सिंधी अससोसिएशन पण होऊ शकत ना ? मला सांगा, हा डिनर सेट अनब्रेकेबल आहे कशावरून ?”
“अग असं काय करतेस ? शेटजीनी मला एक सूप बाउल आणि एक डिश खाली जमिनीवर आपटून पण दाखवली !”
“मग ?”
“मग काय मग, ते दोन्ही फुटले नाहीत, म्हणजे तो सेट अनब्रेकेबल नाही का ?”
“फक्त दोनच आयटम जमिनीवर टेस्ट केले ? सगळा डिनर सेट नाही ?”
“काय गं, तुम्ही बायका भात तयार झालाय की नाही हे बघायला, फक्त त्यातली एक दोनच शीत चेपून बघता ना ? का त्यासाठी अख्खा भात चिवडता ?”
“अहो भाताची गोष्ट वेगळी आणि डिनर सेटची गोष्ट वेगळी !”
“ठीक आहे, मग हा सूप बाउल घे आणि तूच बघ जमिनीवर टाकून.”
असं बोलून मी बायकोच्या हातात त्या सेट मधला सूप बाउल दिला ! तिने तो हातात घेऊन मला विचारलं
“नक्की नां ?”
“अगं बिनधास्त टाक, अनब्रेकेबल…”
माझं वाक्य पूरं व्हायच्या आत बायकोने तो सूप बाउल जमिनीवर टाकला आणि त्याचे एक दोन नाही तर चक्क चार तुकडे झाले मंडळी !
“आता बोला ? हा डिनर सेट अनब्रेकेबल आहे म्हणून !”
“अगं पण शेठजीने खरंच सूप बाउल खाली टाकला होता पण त्याला साधं खरचटलं पण नाही. शिवाय…..!”
“एक डिश पण नां ?”
असं बोलून तिने सेट मधली एक डिश घेतली आणि ती पण जमिनीवर टाकली. मंडळी काय सांगू तुम्हांला, ती डिश पण सूप बाउलच्या मागोमाग निजधामास गेली ! ते बघताच मी उसन अवसान आणून बायकोला म्हटलं, “अगं पण माझ्या समोर त्याने या दोन गोष्टी टाकल्या त्या कशा फुटल्या नाही म्हणतो मी ?”
“अहो हेच तर त्या व्यपाऱ्यांच टेक्निक असतं !”
“टेक्निक, कसलं टेक्निक ?”
“अहो त्यांचे खायचे दात वेगळे आणि दाखवायचे दात वेगळे असतात, हे तुम्हांला कधीच कळणार नाही !”
“म्हणजे ?”
“मला सांगा, त्या शेठने ज्या सेट मधल्या बाउल आणि डिश खाली टाकल्या तो सेट तुम्हांला दिला का ?”
“नाही नां, मला म्हणाला तो शोकेसचा पीस आहे, मी तुम्हांला पेटी पॅक सेट देतो !”
“आणि तुम्ही भोळे सांब त्याच्यावर विश्वास ठेवून पेटी पॅक सेट घेवून आलात, बरोबर नां ?”
“होय गं, पण मग आता काय करायच ?”
“आता तुम्ही नां, मेहेरबानी करून काहीच करू नका ! फक्त तो बॉक्स द्या माझ्याकडे, मी बघते काय करायच ते !”
“अगं पण….”
“आता पण नाही आणि बिण नाही, आता मी माझं टेक्निक दाखवते शेटजीला ! ही गेले आणि ही परत आले ! आणि हो, मी येई पर्यंत आपल्या दोघांसाठी चहा करा जरा फक्कडसा !”
असं बोलून बायकोने तो बॉक्स लिलया उचलला आणि ती घराबाहेर पडली ! मी आज्ञाधारक नवऱ्यासारखा चहा करायला किचन मधे गेलो ! माझा चहा तयार होतोय न होतोय, तेवढ्यात हिचा विजयी स्वर कानावर आला “हे घ्या !” असं म्हणत बायकोने Milton च्या डिनर सेटचा बॉक्स जवळ जवळ माझ्यासमोर आपटलाच !
“आ s हा s हा s ! काय तर म्हणे सेट फुटेल ! अहो हा काय तुम्ही आणलेला डुप्लिकेट Hilton चा सेट थोडाच आहे फुटायला ? ओरिजिनल Milton चा डिनर सेट आहे म्हटलं !”
“काय सांगतेस काय, Milton चा डिनर सेट ? अगं पण त्या शेटनं तो बदलून कसा काय दिला तुला ?”
“त्या साठी मी माझं टेक्निक वापरलं !”
“कसलं टेक्निक ?”
“लोणकढीच टेक्निक !”
“म्हणजे ?”
“अहो मी त्याला लोणकढी थाप मारली, की तू जर का मला हा Hilton चा सेट बदलून Milton चा सेट दिलास, तर मी आणखी पन्नास Milton चे सेट तुझ्याकडून घेईन !”
“काय आणखी पन्नास Milton चे डिनर सेट ? काय दुकान वगैरे….”
“अहो, मी त्याला सांगितलं पुढच्या महिन्यात माझ्या नणंदेच लग्न आहे. तेंव्हा पाहुण्यांना रिटर्न गिफ्ट म्हणून मला ते हवे आहेत !”