हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 117 ☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : दु:खों का कारण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 117 ☆

☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण

ग़लत सोच के लोगों से अच्छे व शुभ की अपेक्षा-आशा करना हमारे आधे दु:खों का कारण है, यह सार्वभौमिक सत्य है। ख़ुद को ग़लत स्वीकारना सही आदमी के लक्षण हैं, अन्यथा सृष्टि का हर प्राणी स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान समझता है। उसकी दृष्टि में सब मूर्ख हैं; विद्वत्ता में निकृष्ट हैं; हीन हैं और सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम हैं। ऐसा व्यक्ति अहंनिष्ठ व निपट स्वार्थी होता है। उसकी सोच नकारात्मक होती है और वह अपने परिवार से इतर कुछ नहीं सोचता, क्योंकि उसकी मनोवृत्ति संकुचित व सोच का दायरा छोटा होता है। उसकी दशा सावन के अंधे की भांति होती है, जिसे हर स्थान पर हरा ही हरा दिखाई देता है।

वास्तव में अपनी ग़लती को स्वीकारना दुनिया सबसे कठिन कार्य है तथा अहंवादी लोगों के लिए असंभव, क्योंकि दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है। वह हर अपराध के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है, क्योंकि वह स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझता। सो! वह ग़लती कर ही कैसे सकता है? ग़लती तो नासमझ लोग करते हैं। परंतु मेरे विचार से तो यह आत्म-विकास की सीढ़ी है और ऐसा व्यक्ति अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। उसके रास्ते की बाधाएं स्वयं अपनी राह बदल लेती हैं और अवरोधक का कार्य नहीं करती, क्योंकि वह बनी-बनाई लीक पर चलने में विश्वास नहीं करता, बल्कि नवीन राहों का निर्माण करता है। अपनी ग़लती स्वीकारने के कारण सब उसके मुरीद बन जाते हैं और उसका अनुसरण करना प्रारंभ कर देते हैं।

ग़लत सोच के लोग किसी का हित कर सकते हैं तथा किसी के बारे में अच्छा सोच सकते हैं; सर्वथा ग़लत है। सो! ऐसे लोगों से शुभ की आशा करना स्वयं को दु:खों के सागर के अथाह जल में डुबोने के समान है, क्योंकि जब उसकी राह ही ठीक नहीं होगी; वे मंज़िल को कैसे प्राप्त कर सकेंगे? हमें मंज़िल तक पहुंचने के लिए सीधे-सपाट रास्ते को अपनाना होगा; कांटों भरी राह पर चलने से हमें बीच राह से लौटना पड़ेगा। उस स्थिति में हम हैरान-परेशान होकर निराशा का दामन थाम लेंगे और अपने भाग्य को कोसने लगेंगे। यह तो राह के कांटों को हटाने लिए पूरे क्षेत्र में रेड कारपेट बिछाने जैसा विकल्प होगा, जो असंभव है। यदि हम ग़लत लोगों की संगति करते हैं, तो उससे शुभ की प्राप्ति कैसे होगी ? वे तो हमें अपने साथ बुरी संगति में धकेल देंगे और हम लाख चाहने पर भी वहां से लौट नहीं पाएंगे। इंसान अपनी संगति से पहचाना जाता है। सो! हमें अच्छे लोगों के साथ रहना चाहिए, क्योंकि बुरे लोगों के साथ रहने से लोग हमसे भी कन्नी काटने लगते हैं तथा हमारी निंदा करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। ग़लती छोटी हो या बड़ी; हमें उपहास का पात्र बनाती है। यदि छोटी-छोटी ग़लतियां बड़ी समस्याओं के रूप में हमारे पथ में अवरोधक बन जाएं, तो उनका समाधान कर लेना चाहिए। जैसे एक कांटा चुभने पर मानव को बहुत कष्ट होता है और एक चींटी विशालकाय हाथी को अनियंत्रित कर देती है, उसी प्रकार हमें छोटी-छोटी ग़लतियों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इंसान छोटे-छोटे पत्थरों से फिसलता है; पर्वतों से नहीं।

‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ अक्सर यह संदेश हमें वाहनों पर लिखित दिखाई पड़ता है, जो हमें सतर्क व सावधान रहने की सीख देता है, क्योंकि हमारी एक छोटी-सी ग़लती प्राण-घातक सिद्ध हो सकती है। सो! हमें संबंधों की अहमियत समझनी चाहिए चाहिए, क्योंकि रिश्ते अनमोल होते हैं तथा प्राणदायिनी शक्ति से भरपूर  होते हैं। वास्तव में रिश्ते कांच की भांति नाज़ुक होते हैं और भुने हुए पापड़ की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं। मानव के लिए अपेक्षा व उपेक्षा दोनों स्थितियां अत्यंत घातक हैं, जो संबंधों को लील जाती हैं। यदि आप किसी उम्मीद रखते हैं और वह आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता, तो संबंधों में दरारें पड़ जाती हैं; हृदय में गांठ पड़ जाती है, जिसे रहीम जी का यह दोहा बख़ूबी प्रकट करता है। ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ टूटे से फिर ना जुरै, जुरै तो गांठ परि जाए।’ सो! रिश्तों को सावधानी-पूर्वक संजो कर व सहेज कर रखने में सबका हित है। दूसरी ओर किसी के प्रति उपेक्षा भाव उसके अहं को ललकारता है और वह प्राणी प्रतिशोध लेने व उसे नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करता है। यहीं से प्रारंभ होता है द्वंद्व युद्ध, जो संघर्ष का जन्मदाता है। अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। इसलिए हमें सबको यथायोग्य सम्मान ध्यान देना चाहिए। यदि हम किसी बच्चे को प्यार से आप कह कर बात करते हैं, तो वह भी उसी भाषा में प्रत्युत्तर देगा, अन्यथा वह अपनी प्रतिक्रिया तुरंत ज़ाहिर कर देगा। यह सब प्राणी-जगत् में भी घटित होता है। वैसे तो संपूर्ण विश्व में प्रेम का पसारा है और आप संसार में जो भी किसी को देते हो; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए अच्छा बोलो; अच्छा सुनने को मिलेगा। सो! असामान्य परिस्थितियों में ग़लत बातों को देख कर आंख मूंदना हितकर है, क्योंकि मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करने से सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है।

संसार मिथ्या है और माया के कारण हमें सत्य भासता है। जीवन में सफल होने का यही मापदंड है। यदि आप बापू के तीन बंदरों की भांति व्यवहार करते हैं, तो आप स्टेपनी की भांति हर स्थान व हर परिस्थिति में स्वयं को उचित व ठीक पाते हैं और उस वातावरण में स्वयं को ढाल सकते हैं। इसलिए कहा भी गया है कि ‘अपना व्यवहार पानी जैसा रखो, जो हर जगह, हर स्थिति में अपना स्थान बना लेता है। इसी प्रकार मानव भी अपना आपा खोकर घर -परिवार व समाज में सम्मान-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकता है। इसलिए हमें ग़लत लोगों का साथ कभी नहीं देना चाहिए, क्योंकि ग़लत व्यक्ति न तो अपनी ग़लती से स्वीकारता है; न ही अपनी अंतरात्मा में झांकता है और न ही उसके गुण-दोषों का मूल्यांकन करता है। इसलिए उससे सद्-व्यवहार की अपेक्षा मूर्खता है और समस्त दु:खों कारण है। सो! आत्मावलोकन कर अंतर्मन की वृत्तियों पर ध्यान दीजिए तथा अपने दोषों अथवा पंच-विकारों व नकारात्मक भावों पर अंकुश लगाइए तथा समूल नष्ट करने का प्रयास कीजिए। यही जीवन की सार्थकता व अमूल्य संदेश है, अन्यथा ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए’ वाली स्थिति हो जाएगी और हम सोचने पर विवश हो जाएंगे… ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ का सिद्धांत सर्वोपरि है, सर्वोत्तम है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजने का प्रयास कीजिए और जो ग़लत है, उसे कोटि शत्रुओं-सम त्याग दीजिए…इसी में सबका मंगल है और यही सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 68 ☆ स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि।)

☆ किसलय की कलम से # 68 ☆

☆ स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि ☆ 

“बाहर का खाना कितना स्वास्थ्यप्रद? कुछ ऐसे तथ्य जो आपको सचेत करेंगे”

अक्सर सभी के मन में यह विचार तो आता ही है कि होटल अथवा बाहर के लंच-डिनर का खाना हमेशा अच्छा क्यों लगता है? और हम गाहे-बगाहे खाना खाने बाहर जाने क्यों उतावले रहते हैं। किसी के भी आमंत्रण पर प्रीतिभोज में चटखारे भरते हुए छककर खाने की लालसा क्यों रखते हैं? बाहर के भोजन में ऐसी क्या विशेषताएँ होती हैं अथवा यह कहें कि घर के बनाए भोजन में ऐसी क्या कमियाँ होती हैं कि हम घर के बने भोजन के साथ घर पर निर्मित खाद्य पदार्थों का कमतर आकलन करते हैं। आईये, हम चिंतन करें कि आखिर हमारी मानसिकता ऐसी क्यों बनी है कि हमें बाहर का भोजन और पेय ज्यादा पसंद आते हैं।

यहाँ बताना आवश्यक है कि हमारे घर के पारंपरिक भोजन में ऐसी सभी चीजों को शामिल किया जाता है जो हमारे अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। दैनिक खानपान के अतिरिक्त पापड़, बड़ी, अचार, सुखाई गई सब्जी-भाजी, अदरक, धनिया, मिर्च-मसाले आदि भी घर पर पूरे वर्ष के लिए छान, पीस और सुखाकर सुरक्षित रख लिए जाते हैं। ऋतुओं के अनुरूप घर में खाना बनता है। दही कब खाना है, बड़ियाँ कब बनाना है, भाजियाँ या करेला कब नहीं खाना है, ये सभी बातें गृहणियाँ भलीभाँति जानती और समझती हैं। सबसे अधिक और सबसे कम हानिकारक कौन-कौन से खाद्य पदार्थ हैं, उनका कम और ज्यादा उपयोग करना भी पता रहता है। घरेलू खाने एवं पेय पदार्थों में स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाले रसायन, रंग, मसाले यहाँ तक कि भोज्य वनस्पतियों के भी वे हिस्से जो हमें हानि पहुँचा सकते हैं उनके उपयोग से बचा जाता है।

हमारे आयुर्वेद में विस्तार से उन सभी बातों का वर्णन मिलता है जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक और हानिकारक हैं। घरों में प्रयास रहता है कि घर के सभी सदस्य दिन के दोनों वक्त ताजा भोजन ही करें। खाने और पीने की हर सामग्री को अच्छे से साफ किया जाता है। उनकी ताजगी और पौष्टिकता का ध्यान रखा जाता है। पेय पदार्थों की शुद्धता और ताजगी के साथ-साथ स्वाद तथा बासेपन का भी ध्यान रखा जाता है। रसोईघर की पूर्ण स्वच्छता का ध्यान रखना दिनचर्या में शामिल होता ही है। पेयजल एवं अन्य कार्यों के उपयोग हेतु जल की शुद्धता व उसके प्रदूषण का ध्यान रखा जाता है। प्रतिदिन रसोई घर में काम करने के पूर्व स्नान और ईश्वर की पूजा-पाठ तक को महत्त्व दिया जाता है। खाना खाने के समय भी डाइनिंग रूम में बाहरी लोगों का दखल कम ही होता है। एक तरह से हम देखते हैं कि घर पर स्वास्थ्यकारी (हाइजेनिक) भारतीय परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यही कारण था कि पहले हमारे देश में नाममात्र के डॉक्टर व चिकित्सालय होने के बावजूद आरोग्यता का ग्राफ काफी ऊँचा था। इन्हीं बातों का आज भी यदा-कदा उल्लेख होता ही रहता है।

आज उपरोक्त तथ्यों के बारीकी से अध्ययन की आवश्यता है कि हम उपरोक्त परंपराओं, प्रथाओं अथवा रीतियों का कितना अनुसरण कर पाते हैं? महीने भर घर का भोजन खाने के बाद यदि एक दिन भी बाहर किया गया अस्वास्थ्यप्रद भोजन निश्चित रूप से आपके स्वास्थ्य के लिए भारी पड़ सकता है, क्योंकि प्रदूषण, छुआछूत, विषाक्तता, असंगत मिलावट तो एक बार में ही अपना प्रभाव दिखा देती है। घर के दो-चार-दस सदस्यों के खाने की और सामूहिक भोज अथवा होटलों के खाने की शुद्धता की तुलना किसी भी स्तर, श्रेणी और विषय में श्रेष्ठ हो ही नहीं सकती। इसके लिए केवल यही उदाहरण पर्याप्त है कि घरेलू उपयोग हेतु दस किलो गेहूँ अथवा चावल के कंकड़, घुन आदि निकाल कर धोने सुखाने की प्रक्रिया में निश्चित रूप से ज्यादा शुद्धता होती है न कि एक साथ दो-चार सौ किलो इसी सामग्री को मशीनी प्रक्रिया से शुद्धता प्राप्त होगी। यह बात तार्किक तो नहीं लेकिन प्रायोगिक रूप से शत-प्रतिशत सिद्ध है। हम खाद्य सामग्री अथवा पकवानों में कृत्रिम रंग व रसायन मिलाकर आकर्षक व स्वादिष्ट तो बना सकते हैं, लेकिन स्वास्थ्यप्रद कभी नहीं बना सकते, क्योंकि बाहरी खाने में स्वाद, रंग और आकर्षण लाने के लिए उपयोग में लाई जाने वाली चीजें लगभग 95 प्रतिशत हानिकारक ही होती हैं। कुछ स्वास्थ्यकारक चीजों की अधिकता भी हमें हानि पहुँचाती हैं। घी, तेल, मेवा, शक्कर आदि की ज्यादा मात्रा भी हानिकारक होती है। बहुसंख्य हाथों द्वारा निर्मित, सामूहिक भोज हेतु रखे गए भोजन को हजारों हाथों द्वारा, वही चम्मच, वही खाद्य पकवान पकड़ने, छूने और बिना दूरी का ध्यान रखे एक साथ खाना कितना सुरक्षित और हितकर होगा। बस, इन्हीं तथ्यों को अपने घर की डाइनिंग टेबल पर रखे भोजन और अपने ही दो-चार पारिवारिक लोगों के बीच बैठकर खाने को स्मरण करने की आज सभी को आवश्यकता है।

बाहरी भोजन में तेल, घी, खटाई, मसालों की अधिकता तो होती ही है, इनको अजीनोमोटो, सॉस, विनेगर, डिब्बाबंद सामग्रियों, और तो और कभी-कभी बतौर घी के विकल्प के रूप में जानवरों की चरबी के उपयोग से बेहद हानिकारक बना दिया जाता है। पाया गया है कि होटलों अथवा सामूहिक भोज में खाना बनाने वाले लोग बासे, खराब होने की स्थिति में आई सामग्री, कीड़े, मक्खियाँ आदि तक को ईमानदारी से अलग नहीं करते। छिलके व अनुपयोगी हिस्सों को भी मिलाकर आपको खिला दिया जाता है। शायद इसीलिए यह जुमला प्रसिद्ध है कि यदि आप एक बार बाहर का खाना बनते देख लोगे तो फिर बाहर का खाना कभी नहीं खाओगे। गंदे हाथ, खाद्य पदार्थों में पसीना टपकाते, खाना बनाते समय साफ-सफाई पर ध्यान न रखने जैसी कई बातें हैं, जिनका कड़ाई से पालन किया ही नहीं जाता। खाना बनाने, परोसने तथा खाने के बर्तनों की स्वच्छता का कोई पैमाना निर्धारित नहीं होता। आप कितना ही ध्यान दो, लेकिन कहीं न कहीं चूक होती ही है, जो हमारे स्वास्थ्य को बिगाड़ सकती है। खाने में कभी स्वाद बढ़ाने के लिए, तो कभी सस्ते होने के कारण मांस, रक्त व जैविक अंशों से निर्मित वस्तुएँ भी मिलाकर खिला दी जाती हैं। केक में अंडे, चीजकेक और च्युंगम आदि में जिलेटिन, नूडल्स में सोडियम इनोसिनेट, ऑरेंज जूस में इन्कोवी (नमकीन स्वाद की छोटी मछली) और सार्डिन, चिप्स में पोर्क एंजाइम का उपयोग किया जाता है। कई बार पनीर में रेनेट नामक घटक मिला दिया जाता है। चीनी की ब्लीचिंग में भी जानवरों की हड्डियों का उपयोग किया जाता है। ये सारे पदार्थ मांसाहारी होने के बावजूद उत्पादों में स्पष्टतः नहीं लिखे जाते। इन मांसाहारी पदार्थों का मिलाना निश्चित रूप से शाकाहारियों को अंधेरे में रखने जैसा तो है ही, ये भोजन को हानिकारक भी बनाते हैं।

वर्तमान समय में प्राकृतिक व जैविक खाद से पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के उपयोग पर इसीलिए जोर दिया जाने लगा है, क्योंकि इनसे स्वास्थ्य को खतरा नहीं होता। पिज्जा, बर्गर, नूडल्स, केक, मोमोज आदि ऐसे ही खाद्य पदार्थ है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं कहे जा सकते। वैसे आजकल हमारे समाज में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता देखने तो मिलने लगी है, लेकिन ये जागरूकता अभी भी अपेक्षाकृत कम है। आज जरूरत इस बात की है कि हम अपरिहार्य परिस्थितियों को छोड़कर स्वस्फूर्तभाव से बाहरी भोजन व भोज्य पदार्थों के उपयोग का पूर्णतः परहेज करें।

हम सब ये बातें अच्छी तरह से जानते हैं कि इन धंधों में हमारे समाज के ही एक बड़े हिस्से की भागीदारी होती है। पूरा होटल बिजनेस, पूरे खाद्य पदार्थ उत्पादक व विक्रेताओं सहित कहीं न कहीं चिकित्सा जगत, दवा बाजार तक संलग्न है। कोल्ड ड्रिंक्स, फास्ट फुड और स्नैक्स विक्रेता सहित हम किस किसको रोक पाएँगे? अतः हमें खुद ही सतर्कता जागरूकता एवं परहेज रखने की आवश्यकता है। साथ ही खाद्य पदार्थ विक्रेताओं और पका-पकाया खाना बनाने के व्यवसाय से जुड़े लोगों को भी चाहिए कि वे भले ही अपने वास्तविक हानि-लाभ का ध्यान रखकर मूल्य निर्धारित करें, लेकिन सस्ते और मुनाफाखोरी के स्वार्थवश मिलावट से बाज आएँ।

यहाँ यह बात कहना भी जरूरी है कि शराब, गुटखा, तंबाकू, सिगरेट आदि के पैकेट पर वैधानिक चेतावनी के बावजूद जब एक बहुत बड़े नशे का व्यवसाय पहले से ही फल-फूल रहा है और उसे मानने के लिए आज तक अधिकांश लोग तैयार नहीं है। अब दिनोंदिन हमारे स्वास्थ्य को बुरी तरह से हानि पहुँचाने वाले इस बढ़ रहे व्यवसाय को भी रोक पाना बड़ा मुश्किल लगता है। हम वर्तमान में स्वाद के लिए अपनी जीभ के सामने नतमस्तक रहते हैं, जबकि हमें मानना ही होगा कि स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि। अब देखना रह गया है कि बाहर का बना खाना व बाहर के डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ हमारे स्वास्थ्य को कब तक बीमार बनाते रहेंगे और हम अपने आपको इन सब से कितना और कब तक दूर रख पाते हैं।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 116 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 116 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

ठुमक-ठुमक कर चल रही, बजते है मंजीर।

राधा रानी राधिके,  आज बँधाओ धीर।।

 

पूज रहे हैं मेदिनी,  देती हमें अनाज।

बदल रहा परिवेश है, बदला है अंदाज।।

 

आज नहीं हम कह सके, उससे अपनी बात।

उगलरहा बारूद वह, बदल गई औकात।।

 

चीवर कितने बदलते, मत बदलो ईमान।

नहीं रहेगा पास कुछ, घट जाएगा मान।।

 

कलिका रौंदी ही गई, सुनी सभी ने चीख।

कोई नहीं गया वहां, मांग रही थी भीख।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 105 ☆ कोरोना में कुर्सी का खेल ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “कोरोना में कुर्सी का खेल…. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 105 ☆

☆ कोरोना में कुर्सी का खेल ….

 

कोरोना

नव रूप

बदलकर

चल रहा है.!

आम

आदमी को

बहुत

छल रहा है.!!

ओमीक्रान

का नया

वेरियंट.!

जिसमे कुछ

अलग है

करेंट.!!

फिर भी

उसकी

आड़ में धंधा

फल-फूल

रहा है..!

आम आदमी

सत्ता के

सहारे

झूल रहा है.!!

चुनावी

इश्क़

कोरोना पर

भारी है.!

चुनाव

कराने की

तैयारी है.!!

पर आम

आदमी पर

प्रतिबंधों की

बौछार है..!

उनके लिए

क्या दुख-दर्द

क्या त्यौहार है.!!

जिसकी

चपेट में

कई देश हैं..!

पर यहाँ पर

बदला बदला

परिवेश है..?

पिछली

त्रासदी

भूल रहे हैं.!

चुनाव सर पर

झूल रहे हैं !!

ये जनता है

सब जानती है.!

अच्छा-बुरा

पहचानती है.!!

कोरोना में

कुर्सी का खेल

“संतोष”

सत्ता के लिए

तेल-पानी का

मेल ..?

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! शॉपिंगचा विजय ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? शॉपिंगचा विजय ! ?

“अहो, ऐकलंत का, मला जरा पंधरा हजार द्या !”

“पंधरा हजार ? एवढी कसली खरेदी करणार आहेस ?”

“मनःशांती !”

“काय मनःशांती ? आणि ती सुद्धा फक्त पंधरा हजारात ?”

“हो ! पण या पंधरा हजारात ती फक्त एका महिन्यासाठीच मिळणार आहे बरं का !”

“आणि नंतरचे अकरा महिने ?”

“नंतर पुढच्या प्रत्येक महिन्यासाठी मनःशांती हवी असेल, तर परत दर महिन्याला पंधरा हजार भरायचे !”

“अस्स, म्हणजे मनःशांती मिळवायची प्रत्येक महिन्याची फी पंधरा हजार आहे असं सांग की सरळ !”

“अगदी बरोब्बर ओळखलंत तुम्ही !”

“अगं पण तुला ही मनःशांती देणार कोण ?”

“अहो, आपल्या चाळीत ‘नवरे मनःशांती केंद्र’ सुरु झालं आहे गेल्या महिन्या पासून, ते मी जॉईन करीन म्हणते. घरात तुमची सदा कटकट चालू असते, त्यामुळे जरा शांतता नाही माझ्या डोक्याला !”

“क s ळ s लं ! पण आपल्या चाळीच्या ४५ बिऱ्हाडात, माझ्या माहिती प्रमाणे ‘नवरे’ नावाचे कोणतं बिऱ्हाडच नाही, मग…”

“अहो केंद्राचे नांव जरी ‘नवरे मनःशांती केंद्र’ असलं तरी ते चालवतायत तिसऱ्या मजल्यावरचे गोडबोले अण्णा !”

“भले शाब्बास, अण्याने आता हे नको ते धंदे चालू केले की काय या वयात ?”

“काय बोलताय काय तुम्ही ? धंदे काय धंदे ? चांगल पुण्याचं काम करतायत अण्णा, तर तुम्ही त्याला नको ते धंदे काय म्हणताय !”

“अगं पुण्याचं काम करतो आहे नां अणण्या, मग फुकटात कर म्हणावं ! त्यासाठी प्रत्येका कडून महिन्याला पंधरा हजार कशाला हवेत म्हणतो मी ?”

“अहो केंद्र चालवायचं म्हणजे  कमी का खर्च आहे?”

“कसला गं खर्च ?”

“अहो एक सुसज्ज AC हॉल घेतलाय त्यांनी भाड्याने त्यांच्या केंद्रासाठी ! त्याच भाडं, लेक्चर द्यायला बाहेरून मोठं मोठी अध्यात्मिक लोकं येणार त्यांच मानधन, असे अनेक खर्च आहेत म्हटलं.”

“बरं बरं, पण मला एक कळलं नाही, केंद्राचे नांव त्या अणण्याने ‘नवरे मनःशक्ती केंद्र’ असं का ठेवलंय ?”

“ते मला काय माहित नाही बाई, पण एखाद वेळेस आपापल्या नवऱ्यापासून मनःशांती मिळावी, असा उदात्त हेतू असावा असं नांव ठेवण्या मागे अण्णांचा !”

“हे बरं आहे अणण्याच, स्वतःची बायको शांती, त्याला गेली त्याच्या कटकटीमुळे या वयात सोडून माहेरी आणि हा दुसऱ्यांच्या बायकांना मनःशांतीचे धडे देणार ?”

“अहो शेजारच्या कर्वे काकू सांगत होत्या, शांती काकी जेंव्हा अण्णांना सोडून गेल्या, तेव्हाच अण्णा हिमालयात गेले होते एका आश्रमात साधना करण्यासाठी आणि तिथूनच ते दिक्षा घेवून आले…..”

“आणि आता ते तुम्हां सगळ्या भोळ्या साधकांकडून महिन्याला प्रत्येकी पंधरा हजाराची भिक्षा घेवून तीच दिक्षा देणार, असंच नां ?”

“बरोब्बर !”

“अगं पण तुला हवीच कशाला मनःशांती म्हणतो मी ? आपल्या दोन मुली लग्न होऊन गेल्या आपापल्या सासरी, घरात आपण दोघच ! सासूचा त्रास म्हणशील तर, आई जाऊन पण आता दहा वर्ष….”

“उगाच देवानं तोंड दिलंय म्हणून काहीच्या बाही बोलू नका !  मगाशीच मी तुम्हांला सांगितलंय, तुमची रिटायर झाल्या पासून रोज घरात कटकट चालू असते, त्यामुळे माझी मनःशांती ढासळली आहे !”

“अगं पण तुझ्या ढासळलेल्या मनःशांतीवर माझ्याकडे एक जालीम उपाय आहे ! त्यासाठी महिन्याला पंधरा हजार खर्च करायची काहीच गरज नाहीये !”

“अहो, उगाच महिन्याचे पंधरा हजार वाचवण्यासाठी मला काहीतरी फालतू उपाय सांगू नका तुमचा ! गपचूप…..”

“अगं आधी उपाय ऐकून तर घे मग बोल !”

“ठीक आहे, बोला !”

“हां, तर उपाय असा आहे, मी तुला या महिन्यापासून दर महिन्याला, फक्त तुझ्या शॉपिंगसाठी बरं का, पाच हजार देणार आणि त्याचा हिशोब पण मागणार नाही, बोल !”

“काय सांगताय काय ? फक्त माझ्या एकटीच्या शॉपिंगसाठी महिन्याला पाच हजार ?”

“हॊ s s य!”

“पण अहो, त्या माझ्या पाच हजारच्या शॉपिंगमधे मी तुमची एक लुंगी सुद्धा आणणार नाही, कळलं नां ?”

“अगं लुंगीच काय, माझा एक साधा हातरूमाल सुद्धा मी तुला आणायला सांगणार नाही, मग तर झालं !”

“मग ठीक आहे !”

“पण त्यासाठी माझी एक अट आहे”

“आता कसली अट?”

“हे महिन्याचे तुझ्या एकटीच्या शॉपिंगसाठीचे पाच हजार तुला पाहिजे असतील, तर ‘नवरे मनःशांती केंद्राचा’ नाद तुला सोडावा लागेल !”

“पण मग माझ्या ढासळलेल्या मनःशांतीवरच्या उपायाच काय ?”

“ते काम माझ्याकडे लागलं !”

“तुम्ही करणार उपाय?”

“हो s s य !”

“अहो मला जरा कळेल का, तुम्ही कसला उपाय करणार आहात ते !”

“अगं साधा पंधरा रुपयाचा उपाय आहे, तू माझ्यावर सोड !”

“आता बऱ्या बोलानं सांगताय, का जाऊ नांव नोंदवायला अण्णांकडे ?”

“अगं काही नाही, खाली जातो आणि पंधरा रुपयात मिळणारे, स्विमिंग करतांना पोहणारे लोकं, जे इअर प्लग्स घालतात ते घेवून येतो !”

“त्यांच मी काय करू ?”

“अगं तुला असं जेव्हा जेव्हा वाटेल, की मी आता तुझ्याशी कटकट करायला सुरवात केली आहे, तेव्हा तेव्हा ते तू कानात घालायचेस ! म्हणजे तुला माझ्या बोलण्याचा त्रास होणार नाही आणि तुझी……”

“मनःशांतीपण ढासळणार नाही, काय बरोबर नां ?”

“अगदी बरोब्बर ! मग आता काय, जाणार का त्या ‘नवरे मनःशांती केंद्रात नांव नोंदवायला ?”

“नांव नका काढू त्या केंद्राचे, पण माझं

आत्ताच्या आत्ता एक काम करा जरा !”

“ते आणि काय ?”

“तसं काही खास नाही, मी आल्याचा चहा घेवून येते, तो पर्यंत या महिन्याचे माझे शॉपिंगचे पाच हजार काढून ठेवा ! लगेच या महिन्याच्या शॉपिंगला जाते ! शुभस्य शीघ्रम !”

असं बोलून बायको किचन मधे पळाली आणि मी दर महिन्याचे दहा हजार कसे वाचवले याचा विचार करत, स्वतःची पाठ स्वतःच थोपटू लागलो ! शॉपिंगचा विजय असो !

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

२१-०१-२०२२

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 103 – लघुकथा – भोग ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “भोग।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 103 ☆

☆ लघुकथा — भोग ☆ 

मकर संक्रांति के दिन थाली में सजे चढ़ावे को देखकर उसकी आंखों में चमक आ गई। उसने चढ़ावा उठाया। एक अखबार में रखा। फिर दौड़ पड़ा।

दूर सामने एक झोपड़ी थी। उसमें गया। बिस्तर पर बीमार बचा लेटा हुआ था, “ले दोस्त! यह प्रसाद है। खा लेना। तेरे शरीर में कुछ ताकत आ जाएगी,” कहते हुए वापस झोपड़ी से बाहर निकल गया।

देखा। सामने पिताजी किमकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-01-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #85 ☆ टीमों का गठन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “टीमों का गठन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 85 ☆ टीमों का गठन 

किसी भी आयोजन में दो टीमें गठित होती हैं, एक तो जी जान से आयोजन की सफलता हेतु परिश्रम करती है, और दूसरी उसे कैसे असफल किया जावे इसमें अपना दिन-रात लगा देती है। तरह-तरह की तैयारियों के बीच वाद-विवाद का दौर भी आता है, जो मुखिया के बीच बचाव के बाद ही रुकता है।

वैसे जब तक कोई झगड़ा न हो तो कार्यक्रम कुछ अधूरा सा लगता है। आरोप-प्रत्यारोप के बाद ही नए-नए मुद्दे सामने आते हैं, जो आगे बढ़ने का रास्ता दिखाते हैं। ऐसा ही कुछ एक कार्यक्रम में दिखाई दे रहा है। जो भी सही बात समझाने की कोशिश करता उसे फूफा की उपाधि देकर किनारे बैठा दिया जाता। अब समझाइश लाल जी भी इस सबसे दूरी बनाए हुए हैं। एक तरफा झुकाव लोगों के सोचने समझने की शक्ति को मिटा देता है। पहले से ही हवा का रुख समझकर वे आगे बढ़ चले थे। दरसल कोई भी मौका चूकने से बचने हेतु सजगता बहुत जरूरी होती है। अपना उल्लू सीधा करते ही साथ छोड़कर नजरें चुराने की कला के सभी कायल होते हैं। जिसे देखिए वही अपना दमखम दिखाने की होड़ में मूल विचारधारा से दूर होता जा रहा है। बस रैलियों की भीड़ से ही कोई परिणाम निकलना भी तो जायज नहीं है।

पहले ओपिनियन पोल निष्पक्ष होते थे किंतु आजकल वो भी गोदी मीडिया की भेंट चढ़ चुके हैं। मीडिया के बढ़ते प्रभाव व वर्चुअल रैली ने सबकी बैण्ड बजाकर रख दी है। सब कुछ प्रायोजित होने लगा है, लोगों के मनोमस्तिष्क को पढ़कर उसे अपने अनुसार ढालने में हर कोई जी जान से जुटा है। विकास का मुद्दा केवल घोषणा पत्र की शोभा बन कर रह गया है। असली जंग तो जाति, धर्म, अल्पसंख्यक वर्ग पर सिमट रही है। मानवता तो कहीं दूर-दूर तक भी नजर नहीं आती है।

लोगों को सारी जानकारी वायरल वीडियो द्वारा होती है। इसमें कितना सच है इसकी गारंटी लेने वाला कोई नहीं है। सभी सुरक्षित सीट से लड़कर ही अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। अचानक से किस सीट पर कौन खड़ा होगा पता चलता है, लोग अपना बोरिया बिस्तर समेट के दूसरे खेमे  के द्वारे पर पहुँच जाते हैं। वास्तव में अनिश्चितता का सही उदाहरण तो राजनीति में ही दिखाई देता है। यहाँ आखिरी समय तक अपने दल का पता नहीं चलता है। खैर कुछ भी हो टिकट टीम गठन का हिस्सा बनकर उसका किस्सा वाचना सचमुच दिलचस्प ही रहा है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 141 ☆ कविता – अच्छे दिन ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय कविता  अच्छे दिन ! । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 141 ☆

? कविता – अच्छे दिन ! ?

जगती आँखों देखे सपने, वो लायेंगे अच्छे दिन 

इस आशा में की वोटिंग कि, अब आयेंगे अच्छे दिन 

शेयर का बढ़ गया केंचुंआ, अनुमानो की आहट से 

रुपया कुछ मजबूत हुआ है, अब आयेंगे अच्छे दिन

हर परिवर्तन समय चाहता, अब वे ऐसा कहते हैं 

पूछे वोटिंग वाली  स्याही, कब आयेंगे अच्छे दिन

बूढ़ी आँखें बाट जोहती, उम्मीदों को सजा सजा 

गिन गिन कर दिन बीत रहे हैं, कब आयेंगे अच्छे दिन

योजनायें बनती बहुतेरी, ढ़ेरों गुम हो जाती हैं 

सबको पूरा करना होगा, तब आयेंगे अच्छे दिन

सरकारें बस राह बनाती, और दिशा दिखलाती हैं 

चलना स्वयं हमीं को होगा, तब आयेंगे अच्छे दिन

नेता अनुकरणीय बनेंगे, जनता भी अनुशासित होगी

रामराज्य सा शासन होगा, जब आयेगें अच्छे दिन

सुरसा सी बढती आबादी, लील रही है साऱी उन्नति

जब आबादी सीमित होगी, तब आयेंगे अच्छे दिन

भ्रष्ट व्यवस्था दाग बदनुमा, सबको इसको धोना होगा

भ्रष्टाचार मिटेगा जब, तब आयेंगे अच्छे दिन

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 93 ☆ तुझको चलना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  रचना “तुझको चलना होगा”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 93 ☆

☆ गीत – तुझको चलना होगा ☆ 

धीरे – धीरे बढ़ो मुसाफिर

जीवन है अनमोल।

दुख चाहे जितने भी आएं

मुख में मिश्री घोल।।

 

चलना ही जीवन की नियति

तुझको चलना होगा।

जागो ! उठो दूर है मंजिल

देख स्थिति ढलना होगा।

 

सत, असत की बल्लरियों में

देख कहाँ है झोल।।

 

लक्ष्य बनाकर बढ़ना पथ पर

औ’ स्वयं विश्वास करो।

मृत्यु तो जीवन का गहना

मत रोना कुछ हास करो।

 

पंछीगण को देख निकट से

भोर में भरें किलोल।।

 

जो सोया है, उसने खोया

आँख खोल मत डर प्यारे।

अपनी मदद स्वयं जो करते

उस पर ही ईश्वर वारे।

 

परिभाषा जीवन की अद्भुत

सदैव तराजू तोल।।

 

संशय , भ्रम में नहीं भटकना

यह जीवन नरक बनाते।

द्वेष – ईर्ष्या वैर भाव भी

सदा अँधेरा यह लाते।

 

सच्चाई की जीत लिखी है

आगे होगा गोल।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 96 – माझी कविता ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #96  ?

☆ माझी कविता 

मात्राव‌त्त- वनहरीणी (८+८+८+८ =३२)

 

हातामधल्या कलागुणांची सुंदर मुर्ती माझी कविता

कथा  सांगते मने जोडते मला घडविते माझी कविता

व्यासंगाची अजोड माया  आठवणींचा ठेवा जपते

एखादी तर मनात ठसते दैवत माझे माझी कविता

 

कधी वाचते आयुष्याला धडा अनुभवी कधी गिरवते

कविता माझी मी कवितेचा नवी नवी बघ वाट गवसते

नातेबंधन दृढ करीते कविता ठरते जीवन दात्री

लेखणीतुनी येते धावत कविता माझी  मला बिलगते

 

बदलत जाते जीवन माझे   नदीपरी ही येते धावत

संजीवन ती जाते देउन पहा राहते उरी खळाळत

कविता भासे कधी लेक तर कधी भासते आई माझी

जीवन छाया माझी कविता सखी परी त्या येते सोबत  

 

लळा लाविते रसिक जनांना कविता माझी आहे तळमळ

विचार मंची खुलते कविता सरून जाई सारी मरगळ

ओढ लाविते मना मोहवी कविता माझी आहे जीवन

माझी कविता फुले सुगंधी पहा पसरला त्यांचा दरवळ

© सुजित कदम

संपर्क – 117,विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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