हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 12 – मेरे आँसू ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता शब्द की गाथा।) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 12 – मेरे आँसू 

 

मेरे आँसू भी कितने अनमोल थे,

आँखों में आंसुओं के तो जैसे खजाने भरे थे ||

 

हर कहीं हर कभी निकलने को बेताब रहते,

दोनों आँखों से जी भर कर आँसू निकल जाते थे ||

 

खुद के ग़म में तो सभी आँसू बहाते हैं,

हमारे आंसू तो दूसरों के  गम में भी बह निकलते थे ||

 

मौका नहीं छोड़ती आंखे आंसू बहाने के,

आँसू भी दोनों ही आँखों से बेतहाशा निकलते थे  ||

 

लोग जो आज मेरे आस-पास खड़े होकर रो रहे हैं,

उनमें से  कुछ तो जीते जी मेरे मरने  की दुआ करते थे ||

 

कुछ वो लोग भी हैं जो मुझे देख कन्नी काट लेते थे,

रोते  हुए किसी  के भी आज यहां आँसू थम नहीं रहे थे ||

 

एक ही दिन में इतना प्यार लुटा दिया सबने मुझ पर,

जी करता है सबको जी भर के गले लगा लूँ जो मुझ पर रो रहे थे||

 

काश! कल मुझसे लिपट जाते तो आँसुओ से तर कर देते,

गिले शिकवे मिट जाते, मेरे आँसू भी उनके लिए निकलने को तड़प रहे थे ||

 

सबने खूब झझकोरा मेरी खुली आँखे बंद कर दी,

आज आँखों में आंसुओं का अकाल था, आँखों ने आज दगाई कर दी थी ||

 

कमबख्त आँसू भी धड़कन की तरह दगा दे गए,

जिन आँखों में समुन्द्र था वो आज एक बूंद आँसू को तरस रही थी||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 63 – पूर्वज ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक समसामयिक विषय पर आधारित अतिसुन्दर नवीन रचना  पूर्वज। पितृ पक्ष में अपने पूर्वजों का स्मरण करने की अपनी अपनी परंपरा एवं अपना अपना तरीका है। सुश्री प्रभा जी ने इस काव्याभिव्यक्ति के माध्यम से अपने पूर्वजों का स्मरण किया है। जो निश्चित ही अभूतपूर्व है। मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 63 ☆

☆ पूर्वज  ☆

पूर्वज माझे लढवय्यै अन पराक्रमी ही

तलवारींची खूण सांगते त्यांची कहाणी

इतिहासाच्या पानावरती खरेच शोधा

रक्ताच्या अक्षरात लिहिली त्यांची गाथा

 

“मर्द मावळ्या रक्ताची मी” म्हणणारी ती

पूर्वज माझी आत्या आजी खापरपणजी

घराण्यातले होते कोणी  माझ्या समही

नर्मदा कुणी वडिलांचीही  आत्या होती

 

जुने पुराणे किस्से सांगत माणिक मामा  ,

“तुझा चेहरा अगदी आहे नमुआक्काचा”

भागिरथी काकींची स्वारी  घोड्यावरती

ऐटबाज अन ताठ कण्याच्या सा-या दिसती

 

आठवते मज माझी आजी आई काकी

स्वर्गस्थ त्याही पहात असती धरणीवरती

किती पिढ्यांशी नाळ जोडली जाते आहे?

पूर्वज सारे या काळी मी स्मरते आहे

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 49 ☆ मिलाओ हाथ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “मिलाओ हाथ ”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 49 ☆

☆ मिलाओ हाथ  

 

ऐ दोस्त!

क्या तुमको अच्छा नहीं लगता

जब कोयल मधुर सा गीत गाती है

और हर दिल को लुभाती है?

जब सुबह की केसरिया किरण

सारे जग को महकाती है?

जब लहराती हवाएं लचकती सी चलती हैं

और मुस्कुराते दरख्तों से टकराती हैं?

जब परिंदे उड़ान भरते हैं

और हमारी भी उम्मीदें आसमान छू जाती हैं?

 

कितना कुछ है क़ुदरत के पास

हमें देने के लिए, हमें सिखाने के लिए?

क्यों हम उसी क़ुदरत से खेलते हैं

और उसके नियमों को तोड़ते हैं?

 

उसकी तो वंदना करनी होगी,

लेनी होगी कसम हम सभी को

कि मिला लेंगे हम सब हाथ

उस कोयल से, उस किरण से,

उन दरख्तों से, उन परिंदों से

और हम सब अब चलेंगे साथ-साथ!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 69 ☆ डा. ज्ञान चतुर्वेदी… व्यंग्य से मन की सर्जरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ ज्ञान चतुर्वेदी जी के प्रति उनकी मनोभावनाओं को प्रदर्शित करता हुआ एक आलेख  डा. ज्ञान चतुर्वेदी… व्यंग्य से मन की सर्जरी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 69 ☆

☆ डा. ज्ञान चतुर्वेदी… व्यंग्य से मन की सर्जरी ☆

दशमलव ६६ सेकेंड में गूगल ने डा ज्ञान चतुर्वेदी सर्च करने पर दो लाख से ज्यादा परिणाम वेब पेजेज, यू ट्यूब, फेसबुक पर ढूँढ निकाले. वे युग के सतत सक्रिय चुनिंदा व्यग्यकारों में से हैं, जो नई पीढ़ी के व्यंग्यकारो को मार्गदर्शन करते, उनका हाथ पकड़ रास्ता बतलाते दिखते हैं.

रचनाधर्मिता मन की अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर सकने की दक्षता होती है. कविता, लेख, कहानी, उपन्यास या व्यंग्य कोई भी विधा अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकती है. पिछली शताब्दि के उत्तरार्ध तक अधिकांश  साहित्य लेखन शिक्षाविदों, विश्वविद्यालयों, पत्रकारिता, से जुड़े लोगों तक सीमित था. किन्तु, पिछले कुछ दशको में डाक्टर्स, इंजीनियर्स, बैंक कर्मी, पोलिस कर्मी भी सफल उच्च स्तरीय लेखन में सुप्रतिष्ठित हुये हैं.

डा ज्ञान चतुर्वेदी व्यवसायिक योग्यता में एक अत्यंत सफल चिकित्सक हैं. उन्हें उनकी व्यंग्य लेखन की उपलब्धियों के लिये पद्मश्री का सम्मान प्रदान किया गया है. यह हम व्यंग्य कर्मियों के लिये एक लैंडमार्क है. मैंने अपने छात्र जीवन से ही जिन कुछ चुनिंदा व्यंग्यकारो को पढ़ा है उनमें  डा ज्ञान चतुर्वेदी का नाम प्रमुखता से शामिल है, अनेक बार किसी बुक स्टाल पर पत्रिकाओ के पन्ने अलटते पलटते केवल उनका व्यंग्य देखकर ही मैंने पत्रिका खरीदी है.  एक चिकित्सक होते हुये भी उनके व्यंग्य लेखक के रूप में सुप्रतिष्ठित होने से मैं भीतर तक प्रभावित हूँ. यही कारण रहा कि मैंने साग्रह उनसे अपने नये व्यंग्य संग्रह “समस्या का पंजीकरण” की भूमिका लिखवाई है.

वे अपनी कलम से लोगों के मन की सर्जरी में निष्णात हैं. व्यंग्य उपन्यासों के माध्यम से व्यंग्य साहित्य में उन्होंने उनकी विशिष्ट जगह बनाई है.

अपनी अशेष मंगलकामनायें उनके उज्वल भविष्य के लिये अभिव्यक्त करता हूं. डा ज्ञान चतुर्वेदी की हिन्दी व्यंग्य  यात्रा में यह विशेषांक एक छोटा सा पड़ाव ही है, वे उस यात्रा के राही हैं,  जिनसे व्यंग्य जगत के हम सह यात्रियो को अभी बहुत कुछ पाने की आकाँक्षा है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 24 ☆ कविता – उड़ान ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “ उड़ान ”।  यह कविता एक माँ की दृष्टी में बच्चे के जन्म के पश्चात नन्हें बच्चे के कोमल हृदय की जिज्ञासाएँ और भविष्य की कल्पना की काव्यभिव्यक्ति है। अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा। यह कविता मेरी नै ई- बुक ” तो कुछ कहूँ ” से उद्धृत है। )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 24

☆ उड़ान  ☆

वो देखो

कितना सुंदर

कितना प्यारा

नीला आसमान है।

उतने ही सुंदर

पेड़ों पर कलरव करते पक्षी

उतने ही प्यारे

इस धरती पर इंसान हैं।

 

देखती हूँ प्रतिदिन

कौतूहल

तुम्हारी अबोध आँखों में।

जानती हूँ

तुम्हें लगता है प्रत्येक दिन

यह संसार

जीवन के विभिन्न रंगों से भरे

जादुई बक्से की तरह।

 

माँ हूँ तुम्हारी

अतः

पढ़ सकती हूँ

मन तुम्हारा

और

आँखें तुम्हारी।

 

मैं बताऊँगी

वह सब कुछ

जो जानने को आतुर हो तुम

कुछ तुम्हारी तोतली भाषा में

और

कुछ संकेतों में

कि –

कितने सुंदर हैं

आसमान पर उड़ते पक्षी

रंग-बिरंगे फूलों से भरे बाग

उन पर मँडराते भौंरे

और रंग-बिरंगे पंखों वाली तितलियाँ।

पड़ोस की प्यारी पालतू बिल्ली

और प्यारा पालतू कुत्ता।

ऊंचे-ऊंचे पहाड़

उनसे गिरते झरने

खेतों और शहरों के बीच से बहती नदी

और अथाह नीला समुद्र।

पुराने महल-किले

सुंदर गाँव-शहर

और देश-परदेश।

इन सबसे तुम प्रेम करना।

 

पार्क में बहुत सारे

बच्चे खेलते हैं प्यारे

काले या गोरे

किसी के बाल काले होंगे

किसी के भूरे

कोई नमाज़ पढ़ते हैं

कोई करते हैं प्रार्थना

किन्तु,

तुम करना उन सबसे

अपना मन साझा।

क्यूंकि बच्चे

बच्चे होते हैं

मन के सच्चे होते हैं

इन सबसे तुम प्रेम करना।

 

सारी अच्छी प्यारी बाते

पिता तुम्हें बताएँगे

रोज शाम को काम से आकर

नए खिलौने लाएँगे

नए खेल खिलाएँगे

कहानियाँ नई सुनाएँगे।

 

दादा-दादी और नाना-नानी

की आँखों के तारे हो।

सबके दुलारे

सबके प्यारे

कल के चाँद-सितारे हो।

 

अपने कर्म-श्रम से

तुम्हें यहाँ तक लाये हैं।

दूर करेंगे जीवन के

जितने भी अंधकार के साये हैं।

 

कठिन परिश्रम करके तुमको

सारे विश्व  में

अपनी पहचान बनाना है।

नया मुकाम बनाना है।

नया संसार बनाना है।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

28 जुलाई 2008

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 62 – भीगे रिश्ते ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “भीगे रिश्ते।  इस सार्थक  एवं  संवेदनशील लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 62 ☆

☆ लघुकथा – भीगे रिश्ते

 विरोचनी बहुत प्यार करती थी अपने भैया से। न मां जाई और नहीं राखी का बंधन। परंतु जब से गांव से विवाह होकर आई थी, पति के खास दोस्त प्रधान से उसका भाई बहन का रिश्ता बन चुका था।

प्रधान पति देव का एक मात्र खास दोस्त पहली बार जब वह विरोचनी के घर आया।  वह अनायास ही वह देखती रह गई।

क्योंकि वही कद काठी वही मिलती-जुलती सूरत। जैसे उसका अपना भाई गांव में है। विरोचनी ने उसे भैया… कहा और बोली….. शायद सबसे दूर अपने गांव से यहां मुझे आपके रूप में  भाई मिल गया।

बहुत मित्रता थी श्रीकांत और प्रधान में। एक साथ आना – जाना। हमेशा दुख – सुख में शामिल होना। कभी-कभी तो ऐसा होता था कि पति- पत्नी के झगड़ों में भी प्रधान ही निपटारा करता था।

श्रीकांत भी अपने दोहरे रिश्ते से खुश था, क्योंकि विरोचनी को बहुत प्यार करता था। उसे लगता था उसे अपने भाई के रूप में उसका दोस्त मिल गया है।

प्रधान भैया अपने पारिवारिक कारणों की वजह से विवाह नहीं किए थे। और ना ही करना चाहते थे।

दोनों दोस्तों में बहुत ज्यादा प्यार था। सप्ताह में एक दिन ऑफिस से प्रधान विरोचनी और उनके दोनों छोटे बच्चों के लिए कुछ ना कुछ जरूर लेकर आता था। कभी बारिश में भीग जाए तो श्रीकांत के कपड़े पहन कर चला जाता था। कभी जरूरत पड़े तो श्रीकांत प्रधान के घर पर ही खाना खाकर आ जाता था।

ऑफिस में कुछ दिनों से लगातार उठा-पटक चल रही थी। किसी बात को लेकर बड़े अधिकारी के बीच श्रीकांत की अच्छी खासी बहस चल पड़ी। परंतु प्रधान देखता रहा कुछ भी नहीं बोला। इस बात से श्रीकांत थोड़ा चिढ़ गया और और दोस्तों के बीच मनमुटाव हो गया।

आना-जाना बंद, बातचीत बिल्कुल बंद। विरोचनी कभी अपने पति से पूछती…. कि भैया क्यों नहीं आ रहे हैं?? वह कह देता…. आजकल ऑफिस में काम बहुत हो गया है शायद इसलिए समय नहीं निकाल पा रहा।

एक दिन अचानक अस्पताल में प्रधान और श्रीकांत – विरोचनी की मुलाकात हो गई। बहन ने भैया को देखते ही कहा…. आप घर क्यों नहीं आ रहे हैं? घर आइए मैं जल्दी में हूँ, बाकी बातें घर पर होंगी। परंतु दोस्तों के बीच कोई संवाद नहीं था।

एक दिन बहुत जोरों की बारिश हो रही थी। सर से पांव तक प्रधान भैया भीगे हुए घर आए। विरोचनी ने देखा खुश होकर दरवाजे से बोली…. अंदर आइए परंतु प्रधान ने बहाना बनाया और बोला… मैं बारिश में बहुत भीगा हुआ हूं। फर्श गीला खराब हो जायेगा। यह बच्चों का सामान और एक पॉलिथीन में कुछ खाने का पैकेट लेकर दे दिया और जाने लगे।

विरोचनी ने उसके हाव-भाव को देखकर कहा… आज सचमुच आप बारिश से भीगे हैं। अभी तक आप रिश्ते से भीगे थे।

पलट कर वापस जाने की प्रधान की हिम्मत नहीं हुई। बरसाती पहने पहने ही वह अंदर आकर कुर्सी पर बैठ गया और कह उठा… मुझे माफ करना बहन। कमरे के अंदर श्रीकांत पेपर पढ़ रहा था। आवाज सुन बाहर आ गया और बोला.. दोस्त भीगे फर्क तो अभी सूख जाएंगे।और साफ भी हो जायेगा। परंतु अभी तक जो मन सूख रहा था उसे तुमने फिर से खींचकर हरा-भरा गिला कर दिया।

विरोचनी को कुछ समझ नहीं आया। श्रीकांत ने ठहाके लगाते हुए कहा.. भैया आए हैं गरमा गरम पकोड़े और चाय का इंतजाम करो। अभी लाई.. और फिर हँसी गूँज उठी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 62 ☆ एकवार पंखावरुनी… फिरो तुझा हात ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “एकवार पंखावरुनी… फिरो तुझा हात ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 62 ☆

☆ एकवार पंखावरुनी… फिरो तुझा हात

(या गाण्याची समछंदी रचना…)

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

 

उगा तुझ्यासाठी झुरलो

उगा तुझ्यासाठी झुरलो

नाही मी माझा उरलो

नाही मी माझा उरलो

येऊन जीवनामध्ये, केला तू घात, केला तू घात

 

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

 

रोज माळला मी गजरा, कशा लागल्या या नजरा

रोज माळला मी गजरा, कशा लागल्या या नजरा

ठेवुनी निखारे गेली, याच ओंजळीत, याच ओंजळीत

 

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

 

तूच स्वप्न माझे राणी तुझ्याविना नाही कोणी,

नाही कोणी

तूच स्वप्न माझे राणी तुझ्याविना नाही कोणी,

नाही कोणी

तुझ्यापुढे माझा देह, आहे नाशवंत, आहे नाशवंत

 

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

 

कुठे डाव कळला काळा, माझ्याशी केली शाळा,

कुठे डाव कळला काळा, माझ्याशी केली शाळा,

आडकली नाव माझी, आहे भोवऱ्यात, आहे भोवऱ्यात

 

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे। )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

फूल अधर पर खिल गए, लिया तुम्हारा नाम।

मन मीरा – सा हो गया, आंख हुई घनश्याम।।

 

शब्दों के संबंध का ज्ञात किसे इतिहास ।

तृष्णा कैसे  ‘मृग ‘ बनी, दृग कैसे आकाश।।

 

गिर कर उनकी नजर से, हमको आया चेत।

डूब गए मझधार में, अपनी नाव समेत।।

 

हृदय विकल है तो रह, इसमें किसका दोष।

भिखमंगो के वास्ते, क्या राजा का कोष।।

 

देखा है जब जब तुम्हें, दिखा नया ही रूप ।

कभी दहकती चांदनी, कभी महकती धूप।।

 

पैर रखा है द्वार पर, पल्ला थामें पीठ ।

कोलाहल का कोर्स है, मन का विद्यापीठ।।

 

मानव मन यदि खुद सके, मिलें बहुत अवशेष ।

दरस परस छवि भंगिमा, रहती सदा अशेष।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना – #64 ☆ भगवद्गीता अति रमणम् ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में प्रस्तुत है एक गीत भगवद्गीता अति रमणम्।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री  निशा नंदिनी  जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  #64 ☆

☆ भगवद्गीता अति रमणम् ☆

 

मंदम् मंदम् अधरम् मंदम्

स्मित पराग सुवासित मंदम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

विरचित व्यासा लिखिता गणेश:

अमृतवाणी अति मधुरम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

मनसा सततम् स्मरणीयम्

वचसा सततम् वदनीयम्

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

अतीव सरला मधुर मंजुला

अमृतवाणी अति मधुरम्

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

विश्व वंदिता भगवद्गीता

नीति रीति भवतु साधकम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

सगुणाकारम् अगुणाकारम्

भक्ति ज्ञान कर्म विज्ञानम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

भजंति एते भजंतु देवम्

करतल फलमिव कुर्वाणम्

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 14 – गुमशुदा कोई …. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “गुमशुदा  कोई ….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 14 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ गुमशुदा  कोई ….☆

जून की

पीली महकती

यह सुबह

 

गंध से भीगे

करोंदों की

उमर पर

तरस खाती

सी हवा लगती

मगर पर

 

उभर आती

है हरी

गीली सतह

 

बाँह पर रखे

हुये सिर

पड़ी कल से

ऊँघती है

स्मृति में जो

अतल -तल सी

 

स्वप्न में

कोई चुनिंदा

सी बजह

 

इधर करवट

लिये धूमिल

है निबौरी

पान की मुँह

में दबाये

सी गिलौरी

 

गुमशुदा कोई

गिलहरी

की तरह

 

© राघवेन्द्र तिवारी

22-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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