हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 76 ☆ व्यंग्य – समर्थन मूल्य ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक समसामयिक व्यंग्य  “समर्थन मूल्य“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 76

☆ व्यंग्य – समर्थन मूल्य ☆

सब तरह के किसान परेशान हैं। भूख हड़ताल कर रहे हैं, अपने हक की मांग के लिए हड्डी गलाने वाली ठंड में ठिठुर रहे हैं। उधर दिल्ली के बाहरी इलाके में हजारों किसान पचीस दिनों से कड़कड़ाती ठंड में डटे हुए हैं, और इधर आधा बीघा जमीन का पट्टा बनवाने के लिए लंगोटी लगाए एक किसान पटवारिन बाई के पचास दिन से चक्कर पे चक्कर लगाए जा रहा है। जब समय खराब आता है तो सब तरफ से वक्त परीक्षा लेता है किसान के पुराने पट्टे को चूहों ने कुतर दिया था, उसके घर में मंहगी संदूक होती तो चूहों की हिम्मत न होती, भूखे किसान के घर में कुछ नहीं मिला तो भूमि के पट्टे को खा गए, पता नहीं ऊपर का पन्ना कैसे छोड़ दिया,अब वो पन्ना देखकर पटवारिन कह रही है कि नई  बनवाने के लिए एफआईआर दर्ज कराओ चूहों के खिलाफ।

भटकते भटकते जब पांव की बिवाईं फट के चिल्लाईं तो बात एक टुटपुंजिया पत्रकार तक पहुंच गई। पत्रकार अखबार का ऐजेंट था, दलाली भी करता था ,इस पार्टी से उस पार्टी में कूद फांद भी करता था। पत्रकार के पास किसान को लाया गया, किसान घबराया सा आया । पत्रकार टुटपुंजिया हो और दलाल भी हो तो किसी की भी लंगोटी बेच सकता है। पत्रकार ने पटवारिन से कहा कि कुछ खर्चा पानी लेकर उस बेचारे का पट्टा बना दो बहन। पटवारिन एक न मानी बोली- समर्थन मूल्य का डेढ़ गुना तो लगेगा ही।

पत्रकार बोला – समर्थन मूल्य पर काम कर दो न सरकार।  सरकार कहने पर पटवारिन आग बबूला हो गई बोली- जानते हो कि सरकार किसे बोला जाता है,  बात का बतंगड़ बनते देख किसान गश्त खाकर गिर गया। पत्रकार ने स्थिति बिगड़ते देख पटवारिन से क्षमा मांगी बोला- मेडम आपको गलतफेहमी हो रही है, आप सरकार की प्रतिनिधि हैं और किसान की भूमि के पट्टे बनाने का आपका काम है, इसीलिए किसान की तरफ से निवेदन किया था। पटवारिन का पारा चढ़ गया था….. बोली- तुम कौन होते हो हमें हमारी ड्यूटी बताने वाले, किसान का काम है तो फिरी में थोड़े न होगा, हमारे ऊपर वाले साहबों ने हर काम के समर्थन मूल्य तय कर के रखे हैं, साहब के लघु हस्ताक्षर कराने में हमें ऐड़ी चोटी एक करनी पड़ती है और समर्थन मूल्य तुरंत देना पड़ता है । पास खड़ा एक पढ़ा – लिखा किसान बहुत देर से ये सब सुन रहा था, कहने लगा किसान का पट्टा बनाकर देना आपकी ड्यूटी है इसी बात के लिए तो सरकार आपको वेतन देती है, आज कम्प्यूटर का जमाना है हर काम आनलाइन होता है, ये बात अलग है कि आनलाइन में बैठे कर्मचारी बिना पैसे लिए काम नहीं करते, पैसे न दो तो सर्वर डाउन का बहाना बनाकर चक्कर लगवाते हैं। मेडम ये बताईए कि जब किसान की भूमि का हर काम कम्प्यूटराइज हो गया है तो ये पट्टा आप हाथ से क्यों बनाती हो, इसलिए न कि हर किसान को भूमि का पट्टा चाहिए और पट्टा बिना खर्चा पानी दिए बनेगा नहीं। ये बेचारा गरीब किसान महीने दो महीने से भटक रहा है, इसके पास पैसा नहीं है, ऐसे में ये क्या करे ? पटवारिन झट से बोल उठी कि कहीं से उधार भी तो ले सकता है, और यदि उधार नहीं मिलता तो जमीन रहन रखकर पैसा उठा सकता है। पट्टा बनवाना है तो खर्चा पानी तो लगेगा, हम बना भी देंगे तो हमारा साहब बिना पैसे लिए सील दस्तखत नहीं करेगा। पैसे के मामले में वो बड़ा … है, गरीब हो अमीर हो सबसे निर्धारित समर्थन मूल्य के भाव से हमसे वसूल करता है। तो किसान दादा पहले पैसे का इंतजाम कर लो फिर हमारे पास आना… तुम्ही बताओ घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या ? और दादा तुम्हारे पुराने पट्टे को चूहे भी तो खा गए हैं। पट्टा नहीं रहेगा तो कैसे पता चलेगा कि कि तुम्हारे पास जमीन जायदाद है और तुम अन्नदाता कहलाने के पात्र हो।

किसान के पास पटवारी को देने के लिए खर्चा पानी का कोई जुगाड़ नहीं दिखा, इसलिए पत्रकार और वहां जुड़ गए पढ़े-लिखे किसानों ने तय किया कि जो किसान पटवारी और तहसीलदार से परेशान हैं, वे आमरण अनशन पर बैठेंगे  और सरकार से मांग करेंगे कि अब हर किसान को हाथ से बने भूमि के पट्टे से मुक्ति मिलनी चाहिए। किसान को कम्प्यूटराइज पट्टा निशुल्क दिया जाना चाहिए, तभी से किसानों का आंदोलन चल रहा है,  फर्क इतना है कि वो किसान कोरोना से मर चुका है जिसके पुराने पट्टे को चूहों ने कुतर दिया था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
(टीप- रचना में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।)
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 28 ☆ तुम सा मैं बन जाऊँ ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  कविता  “तुम सा मैं बन जाऊँ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 28 ☆ 

☆ तुम सा मैं बन जाऊँ

हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,

तुम सा मैं चमक उठूं, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

अंधकार के कितने बादल आये,

नीर की कितनी बारिश हो जाये,

रात की कितनी कलिमा छा जाये,

हे भास्कर, हे रवि, सारे अंधकार सारा नीर थम जाये,

तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

हर दिन चन्द्रमा तारे, काली रात को दोस्त बनाकर सबका मन लुभाते हैं,

रात की कलिमा सब प्रेमियों का दिल लुभाते हैं,

ये रात झूठी हो जाये, सूरज की किरणें छूने की आस लगाये,

तू एक उजाला, तू एक सूरज सारे जगत को रोशन करता,

तू असीम, तू अनन्त, तू आरुष का साथी ।

 

हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,

तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #23 ☆ रिश्ते ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है जिंदगी की हकीकत बयां करती एकअतिसुन्दर कविता “रिश्ते”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 23☆ 

☆ रिश्ते ☆ 

यह कैसे रिश्ते हैं

जिनके घाव

जीवन भर रिसते है

कोई मलहम या दवाई

जो आपने घाव पर लगाई

वो गर घाव नहीं भर पाई

तो वो कभी कभी

नासूर बन जाते है

हर कदम पर

तड़पाते हैं

और घाव अगर

भर भी जाये

तो भी टीस

बाकी रहती है

जो आखरी साँस तक

साथ साथ बहती है

पूरा जीवन चक्र भी

अधूरा पड़ जाता है

झूठा अहम बेवजह

अड़ जाता है

अगर कोई बिगड़े

रिश्ते सुधारना भी चाहें

महीन धागों से

बुनना भी चाहें

तो वो, पुरानी बातें

भूल जायें

रिश्तों में

मिठास घोल आयें

तब भी टूटे रिश्ते

जुड़ते जुड़ते

जुड़ते हैं

अथक प्रयास के

बाद ही

सही राह पर

मुड़ते हैं

क्योंकि कटुता

धीमा धीमा ज़हर है

रिश्तों के लिए कहर है

इसलिए,

क्यों ना हम

झूठे “मैं” को

भूल जायें ?

“मैं” की जगह

“हम” को अपनाये ?

क्योंकि मित्र,

रिश्ते बीते हुए

कल की अमानत है

आज के वर्तमान की

हकीकत है

और

आने वाले कल की

वसीयत है।

 

© श्याम खापर्डे 

भिलाई  05/12/20

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 30 ☆ ओढ़ ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 30 ☆ 

☆ ओढ….

ओढ कृष्णाची

मिरेस होती

कृष्ण ध्यासात

पूर्ण निमग्न ती

 

तिला नको होते

अजून ते काही

फक्त एक कान्हा

त्याची होण्यास ती पाही

 

तुपाचा घास तिला

विष भासत होता

प्रत्यक्ष विष प्याला

तिने प्यायला होता

 

दिली विष परीक्षा

ओढ प्रबळ झाली

त्या मुळेच विष

अमृतवेल बनली…

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 10 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 10 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

अंदमानच्या त्या रमणीय प्रवासाने माझ्या नृत्याच्या क्षेत्रात आणि माझ्या आयुष्यातही मानाचा शिरपेच खोचला गेला. अंदमान हून परतल्यानंतर मला ठिकठिकाणी नृत्याच्या कार्यक्रमासाठी आमंत्रणे येऊ लागली. अनेक छोट्यामोठ्या ठिकाणी अगदी गल्लीबोळातून सुद्धा मी माझे नृत्याचे कार्यक्रम सादर केले आणि माझ्या परीने सावरकर विचार जनमानसापर्यंत पोहोचविण्याचा प्रयत्न केला. माझी ती झेप आणि प्रयत्न खारुटीचा असला तरी माझ्या आणि रसिक प्रेक्षकांच्या मनात आनंद निर्माण करणारा होता. माझ्या या जिद्दीची दखल मिरजकर यांनी सुद्धा घेतली आणि 2011 च्या डिसेंबर महिन्यात झालेल्या मिरज महोत्सवांमध्ये “मिरज भूषण” हा पुरस्कार देऊन मला सन्मानित केले.

अपंग सेवा केंद्राच्या संस्थेने मला “जीवन गौरव” हा पुरस्कार देऊन पुरस्कृत केले. मी शिकत असलेल्या कन्या महाविद्यालयात “मातोश्री” हा पुरस्कार देऊन माझ्या विशेष सन्मान केला.

माझा नृत्याचा हा सुवर्णकाळ सुरू असताना माझ्या गुरु धनश्री ताई यांच्या मनामध्ये वेगळाच विचार सुरू होता. त्यांना केवळ एवढ्यातच मला समाधानी ठेवायचे नव्हते. त्यांचा विचार ऐकून मला केशवसुतांच्या कवितेच्या ओळी आठवल्या, “खादाड असे माझी भूक, चकोराने मला न सुख कूपातील मी नच मंडूक, मनास माझ्या कुंपण पडणे अगदी न मला हे  साहे. ”

आणि ताईनी मला भरत नाट्य घेऊन एम ए करण्याविषयी चा विचार माझ्यासमोर मांडला. ज्याला मी सहजच होकार दिला. कारण ताईंना अगदी प्राथमिक स्वरूपातली आणि नृत्याच्या वर्गात छंद म्हणून नृत्य करणारी मुलगी नको होती तर त्यांना माझ्यातून एक प्रगल्भ, परिपक्व आणि विकसित झालेली नर्तिका हवी होती कि जिच्या माध्यमातून भारतीय शास्त्रीय नृत्य “भरतनाट्यम” या प्रकाराचा प्रचार आणि प्रसार योग्यरीतीने सर्वत्र केला जावा.

ताइनी केवळ प्रेक्षकांचा प्रतिसाद आणि स्वतःच्या मनावर अवलंबून न राहता त्यांनी माझे नृत्य त्यांच्या गुरु सुचेता चाफेकर आणि नृत्यातील सहकारी वर्ग यांच्यासमोर सादर करून, त्यांच्याकडून पोच पावती मिळवली आणि मला एम ए करण्यासाठी हिरवा कंदील मिळाला.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 79 ☆ व्यंग्य – मेरा ग़रीबख़ाना और वे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मेरा ग़रीबख़ाना और वे’। इस सार्थक व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 79 ☆

☆ व्यंग्य – मेरा ग़रीबख़ाना और वे

फोकटी मास्टर को मुहल्ले में सब जानते हैं और सब उनसे बचते हैं। उनका असली नाम लोग भूल गये हैं क्योंकि अब पीठ पीछे यही नाम चलता है। यह नाम मुहल्लेवालों ने उनका चरित्र देखकर उन्हें सर्वसम्मति से प्रदान किया है। उनके मुँह पर लोग ‘मासाब’ कह कर काम चला लेते हैं।

कहीं पान या चाय के ठेले पर हम खड़े हों तो फोकटी मास्टर अचानक मिसाइल की तरह गिरते हैं। पान-चाय के बारे में जहाँ किसी ने मुँह छुआ कि फोकटी मास्टर प्रस्ताव को तुरन्त स्वीकार करके पानवाले को बताना शुरू कर देते हैं कि कौन कौन सा मसाला, ज़र्दा, किवाम, दस नंबर, बीस नंबर उनके पान में डाला जाएगा। कई बार लोग जानबूझकर उनसे पूछने में देर कर देते हैं तो फोकटी मास्टर धीरज खोकर खुद ही पूछ लेते हैं, ‘क्यों भैया, आज चाय नहीं पिलाओगे क्या?हम इतनी देर से खड़े हैं, तुम कुछ बोल ही नहीं रहे हो।’

फोकटी मास्टर की नज़र में दूसरों का पैसा हाथ का मैल है और अपना पैसा हाथ की शोभा। दूसरों पर पैसा खर्च करने में उनकी आत्मा शरीर से बाहर निकलने लगती है। चेहरा सफेद पड़ जाता है और हाथ-पाँव ठंडे हो जाते हैं। इसीलिए वे अकेले कभी पान की दूकान पर खड़े नहीं होते। आर्डर देकर दूर खड़े हो जाते हैं, और फिर चील की तरह झपट्टा मारकर पान की पुड़िया उठा कर खिसक लेते हैं। अगर आसपास कोई परिचित न दिखा तो पैसे दे देते हैं, अगर मानुस-गंध आयी तो ‘शाम को पैसे दूँगा’ कह कर बिना अगल-बगल देखे आगे बढ़ जाते हैं। इसी तरह फ़िज़ूलखर्ची से बचकर फोकटी मास्टर ने मुहल्ले में दोमंज़िला मकान खड़ा कर लिया है।

इन्हीं फोकटी मास्टर की आवाज़ उस दिन सबेरे सबेरे मेरे घर में सुनायी दी। वह सुहानी सुबह थी और मैं नहा-धो कर प्रसन्न भाव से भजन गुनगुनाता घूम रहा था। फोकटी की आवाज़ सुनकर मेरे मुँह का स्वाद बिगड़ गया। भजन की जगह मुँह से गाली निकली। मनहूस की आवाज़ सुनी, चेहरा भी देखना पड़ेगा। दिन का सत्यानाश होगा।

फोकटी चिल्ला रहे थे, ‘अरे भाई, कहाँ हो? बाहर निकलो। देखो हम किसे लाये हैं।’

मैं उत्सुकतावश बाहर आया। बाहर आकर जो देखा उससे मेरा माथा घूम गया। फोकटी मास्टर की बगल में बड़े रोब के साथ नज्जू विराजे थे। नज्जू हमारे इलाके के मशहूर गुंडे थे। इलाके में उनकी अघोषित सरकार चलती थी और हम तथाकथित शरीफ़ लोग उनसे बाँस भर की दूरी रखते थे। मुहल्ले के इसी रत्न को फोकटी मेरे घर में ले आये थे। मैं पशोपेश में था कि इस स्थिति से कैसे निपटूँ।

फोकटी मगन थे। उनके चेहरे से खुशी के कल्ले फूट रहे थे। उनके व्यवहार से लगता था जैसे कोई मैदान मार लिया हो। गर्व से अकड़े जा रहे थे।

मैंने बैठकर पूछा, ‘आज सबेरे सबेरे इस तरफ कैसे?’

फोकटी खुशी में अपना सिर हिलाते हुए बोले, ‘बस ऐसे ही। दो दिन पहले चौराहे पर नज्जू भाई मिल गये। हमसे कहने लगे कि हमारे लायक कोई काम हो तो बताइएगा। तो हमने सोचा कि इन्हें अपने सभी दोस्तों से मिलवा दें। जब नज्जू भाई मेहरबान हैं तो सब को फायदा मिलना चाहिए।’

मैंने धीरे से कहा, ‘अच्छा किया।’

फोकटी उमंग से बोले, ‘मैं तो नज्जू भाई की शराफत का कायल हुआ भाई। जब भी मिलते हैं, पहले ये ही सलाम करते हैं। इतने पावर वाले आदमी होते हुए भी घमंड छू नहीं गया है। ये सलाम में पहले हाथ उठा देते हैं तो हमें बड़ी शर्म लगती है। इनके सामने हम क्या हैं भई!’

नज्जू भाई पान चबाते हुए बड़ी शालीनता से बोले, ‘हमारा फर्ज बनता है। आप गुरू हैं। बच्चों को तालीम देते हैं।’

फोकटी भावविभोर होकर हाथ उठाकर बोले, ‘देखा, हम न कहते थे! इसी को कहते हैं शराफत।’

मैंने पूछा, ‘चाय तो चलेगी?’

नज्जू के कुछ बोलने से पहले फोकटी उत्साह में बोले, ‘क्यों नहीं चलेगी? नज्जू भाई पहली बार आये हैं। चाय भी नहीं पिलाओगे?’

और जिन नज्जू को देखकर मैं हमेशा कन्नी काट जाता था, उन्हीं के लिए चाय के इन्तज़ाम में लग गया।

चाय पर फोकटी बोले, ‘वह अपना कार्पोरेशन वाला मामला नज्जू भाई को समझा दो। ये तुम्हारा काम करा देंगे।’

नज्जू बोले, ‘हमें बता दीजिएगा। हम सब ठीक कर देंगे। लातों के भूत बातों से नहीं मानेंगे।’

मैंने जान छुड़ाने के लिए कहा, ‘मैं कागज़ात निकाल कर आपको समझा दूँगा।’

फोकटी बिस्कुट चबाते हुए बोले, ‘ऐसा करते हैं,एक दिन सब लोग नज्जू भाई के नेतृत्व में कार्पोरेशन चलें। मुहल्ले की जितनी समस्याएं हैं सब का एक बार में निपटारा हो जाए। क्यों नज्जू भाई?’

नज्जू भाई गंभीरता से सिर हिलाकर बोले, ‘हाँ, हाँ, कभी भी चलिए।’

फोकटी उमंग में बोले, ‘हम तो यह सोच रहे हैं कि मुहल्ले की एक कमेटी बनाकर नज्जू भाई को उसका अध्यक्ष बना दिया जाए। उनके साथ आप सेक्रेटरी बन जाइए। तब काम आसान हो जाएगा।’

मैंने घबराकर कहा, ‘पहले मुहल्ले वालों से बात कर लें। वैसे नज्जू भाई के साथ काम करने के लिए आप ही सही आदमी हैं।’

मेरी बात सुनकर फोकटी खुशी से दाँत निकालकर बोले, ‘हम तो हैं ही। जहाँ आप लोग कह देंगे, अड़ जाएंगे।’

फिर व्यस्तता से खड़े होते हुए बोले, ‘टाइम नहीं है। अभी नज्जू भाई को दो चार घरों में और ले जाना है। धीरे धीरे सब से मिला देंगे।’

फिर वे भीतर झाँकते हुए बोले, ‘भाभी जी कहाँ हैं?नज्जू भाई का उनसे भी परिचय करा देते।’

मैंने तुरन्त कहा, ‘वे अभी नहा रही हैं। टाइम लगेगा।’

फोकटी अपना सिर हिलाते हुए बोले, ‘आप कागज़ ज़रूर ढूँढ़ लीजिएगा। आप का काम हो जाएगा। मौके का फायदा उठाना चाहिए।’

फिर चलते चलते दरवाज़े पर रुककर बोले, ‘हमने तो नज्जू भाई से कह दिया है कि आपको आगे रहना है और हम सब आपके पीछे चलेंगे। मुहल्ले में ताकतवर आदमी हो और हम उसका फायदा न लें तो बेवकूफ तो हमीं हुए न! क्यों नज्जू भाई?’

नज्जू भाई अपने काले काले दाँत चमकाकर हँस दिये और फोकटी उनको अपनी बाँह में घेरकर बाहर ले गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 78 ☆ श्वेतपत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 78 ☆ श्वेतपत्र ☆

वर्ष बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं।  पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।

वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं..? यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?

मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।

वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।

पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेसकैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।

शायर लिखता है- ‘शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।’

मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 34 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 34 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 34) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 34☆

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वो एक अक्स जो पल

भर नज़रों में ठहरा था

तमाम उम्र का इक अब

सिलसिला  है  मेरे  लिए…

 

Image  that  was  held  for

a  moment  in  the  sight…

Now that only has become a

perpetual matter for the life!

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ना गिला किया, ना खफा हुए,

यूँ ही  रास्ते  में  जुदा  हुए

ना तू बेवफ़ा, ना मै बेवफ़ा,

जो गुजर गया, सो गुजर गया..!

 

Neither fussed nor got angry,

Parted in way just like that

Neither of us is unfaithful

Let  bygone  be  bygone..!

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बीती जाती है ज़िन्दगी ये

ढूँढने में कि ढूँढना क्या है…

जबकि मालूम ये भी नहीं,

कि जो है, उसका क्या करें

 

Life keeps on going in finding

what’s  there  to  find,  while

it’s  not  even  known  what

to do with what we have got

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हर रोज चुपके से…

निकल आते हैं नये पत्ते,

ख्वाहिशोंके दरख्तों में

क्यों पतझड़ नहीं होते…

 

Sneakingly  everyday

New leaves  shoot up,

Why isn’t there any autumn

In  the  trees  of desires

 

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© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 35 ☆ मुक्तक सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  कविता  ‘मुक्तक सलिला’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 35 ☆ 

☆ मुक्तक सलिला ☆ 

प्रात मात शारदा सुरों से मुझे धन्य कर।

शीश पर विलंब बिन धरो अनन्य दिव्य कर।।

विरंचि से कहें न चित्रगुप्त गुप्त चित्र हो।

नर्मदा का दर्श हो, विमल सलिल सबल मकर।।

*

मलिन बुद्धि अब अमल विमल हो श्री राधे।

नर-नारी सद्भाव प्रबल हो श्री राधे।।

अपराधी मन शांत निबल हो श्री राधे।

सज्जन उन्नत शांत अचल हो श्री राधे।।

*

जागिए मत हे प्रदूषण, शुद्ध रहने दें हवा।

शांत रहिए शोरगुल, हो मौन बहने दें हवा।।

मत जगें अपराधकर्ता, कुंभकर्णी नींद लें-

जी सके सज्जन चिकित्सक या वकीलों के बिना।।

*

विश्व में दिव्यांग जो उनके सहायक हों सदा।

एक दिन देकर नहीं बनिए विधायक, तज अदा।

सहज बढ़ने दें हमें, चढ़ सकेंगे हम सीढ़ियाँ-

पा सकेंगे लक्ष्य चाहे भाग्य में हो ना बदा।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – हे अजातशत्रु जन नायक ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी के जन्मदिवस पर एक भावप्रवण कविता “हे अजातशत्रु जन नायक। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  हे अजातशत्रु जन नायक  ☆

हे‌ राज नीति के भीष्म पितामह,

कवि हृदय हे अटल।

हे शांति ‌मसीहा प्रेम पुजारी,

हे जननायक अविकल।।1।।

 

तुम राष्ट्र धर्म की मर्यादा ‌हो,

चरित रहा उज्जवल।

दृढ़प्रतिज्ञ हो नया लक्ष्य ले,

आगे बढ़े अटल।

हे अजातशत्रु जन नायक।।2।।

 

आती हो अपार बाधायें ,

मुठ्ठी खोले बाहें फैलाए।

चाहे सन्मुख तूफ़ान खड़ा हो,

चाहे प्रलयंकर घिरें घटायें।

वो राह तुम्हारी रोक सके ना,

चाहे अंबर अग्नि बरसायें।

स्पृहारहित निष्काम भाव,

जो टले नहीं वो अटल।

।।हे अजातशत्रु जननायक।।3।।

 

थी राह कठिन पर रूके नहीं,

पीड़ा सह ली पर झुके नहीं।

अपने ईमान से डिगे नहीं,

परवाह किसी की किये नहीं।

मैं फिर आऊंगा कह करके,

करने से कूच न डरे थे वे।

धूमकेतु बन अंबर में ,

फिर एक बार चमके थे वे।

।।हे अजातशत्रु जन नायक।।4।।

 

काल के ‌कपाल पर ,

खुद ही लिखा खुद ही मिटाया।

शौर्य का प्रतीक बन,

हर बार गीत नया गाया।

लिख लिया अध्याय नूतन,

ना कोई अपना पराया ।

सत्कर्म से अपने सभी के,

आंख का तारा बने ।

पर काल के आगे बिबस हो,

छोड़कर सबको चले।

हम सभी ‌दुख से हैं कातर ,

श्रद्धा सुमन अर्पित किये।

हिय पटल पर छाप अंकित,

आप ने मेरे किये  ।

।। हे अजातशत्रु जननायक ।।5।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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