हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆☆”संदूक” – अंतिम भाग ☆☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “संदूक – अंतिम भाग”.)

☆ संस्मरण ☆ “संदूक” – अंतिम भाग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(यादों के झरोखे से)

सत्तरवें दशक के अंतिम वर्षों में संदूक सजावट और उपयोग की परिभाषा से मात्र उपयोग की ही वस्तु बन कर रह गया था।रेल यात्रा में जब तक थर्ड क्लास थी, लंबी दूरी की पारिवारिक यात्रा पर इसके बड़े लाभ थे, छोटा बच्चा आराम से सो कर निद्रा प्राप्त कर लेता था, वैसे इस पर बैठने की क्षमता दो लोगो को सुविधा पूर्वक यात्रा के लिए पर्याप्त हुआ करती थी।सह यात्री के पास भी संदूक होता था तो फिर साधारण लम्बाई के व्यक्ति की नींद में खलल नहीं पड़ता था। रेल का मैनेजर (गार्ड) अभी भी छोटे काले रंग  के संदूक को साथ लेकर गाड़ी की व्यवस्था बनाता हैं।

निम्न माध्यम वर्गीय परिवार अपनी पुरानी विरासत को जल्द विदा नहीं करता हैं। संदूक का उपयोग घरों में बैठने के लिए होने लगा। संदूक पर गद्दा बिछा कर उसको चादर से पूरा ढक कर इज्जत से स्थान दिया जाता था। एक जोड़ी संदूक को ईंट के ऊपर करीने से बैठक खाने में उपयोग आम बात हुआ करती थी। वो बात अलग है,मेहमान को कुर्सी आदि पर आसन प्रदान किया जाता था, मेज़बान इसका उपयोग स्वयं के लिए ही करता था।

ट्रंक या बॉक्स के नाम से जानने वाले घर में “बड़े ट्रंक” से भी भली भांति परिचित  होंगे। सर्दी की रजाई, कंबल या अनुपयोगी वस्तुओं के संग्रह में इसकी क्षमता का कोई सानी नहीं हैं। अब स्टील कि आलमारियों ने इनकी कमी पूरी करने के प्रयास किए हैं। बैंक में इसका उपयोग अनचाहा मेहमान (आडिटर) अपने गोपनीय कागज़ात को रखने के लिए करते थे। अब तो उनके पास भी  चलायमान कंप्यूटर ( लेप टॉप) है, जिसमें सब कुछ निजी रह सकता हैं।

टीवी सीरियल  सीआईडी में भी इसका उपयोग लाश या बड़ी धन राशि को ठिकाने लगाने में किया जाता हैं। पुराने समय में घर की बुजर्ग महिलाएं अपने संदूक को ताला लगाकर संचय की गई प्रिय, निजी वस्तुएं और थोड़ी सी जमा पूंजी को उनके विवाह में मिले संदूक में ही सुरक्षित रख पाती थी। उनके जाने के बाद उस संदूक को “दादी का खजाना” की विरासत की संज्ञा दी जाती थी। अब तो ये सब कहानियों और किस्से की बातें होकर रह गई हैं।

 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य#114 – लघुकथा – रात पाली ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “*रात पाली *”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 114 ☆

? लघु कथा- ⛈️? रात पाली  ?

शहर से दूर एक आलीशान अपार्टमेंट बन रहा था। गाँव से बहुत मजदूर वहाँ काम करने आए थे। इस में महिलाएं भी शामिल थी। उनके साथ केतकी अपनी माँ के साथ आई थी। 15 साल की भोली भाली लड़की जिसकी उसके माँ के अलावा इस दुनिया में कोई सगा संबंधी और जान पहचान वाला नहीं था। माँ बेटी मिलकर काम किया करते थे।

गाँव से दूर रहने का कोई ठिकाना नहीं था इसलिए सभी वहीं पर डेरा डाल कर रहने लगे थे। यौवन से भरपूर केतकी जब मिट्टी रेत का तसला उठा कर चलती तो सभी की नज़रें उस पर टिकी रहती थी।

आखिर बीमार माँ कब तक निगरानी कर पाती। वह दिन भर चिंता और परेशानी लिए बीमार रहने लगी। अपार्टमेंट में काम करने वाले ठेकेदार से लेकर कर वहाँ के जो भी लोग थे सभी केतकी की सुंदरता और उसकी खिलखिलाती हंसी पर सभी नजर लगा हुए रहते थे।

    ठंड अपनी चरम सीमा पर थी उस पर बारिश। सभी रजाई शाल पर दुबके शाम ढले चुपचाप बैठे थे। उसी समय केतकी की माँ की अचानक तबीयत खराब हो गई और वह दौड़ कर ठेकेदार के पास गई।

उसने कहा मेरी माँ की तबीयत बहुत खराब है, आप कुछ मदद कर दीजिए डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा। ठेकेदार ने समय की नाजुकता का फायदा उठा तत्काल कहा… तुम रात पाली  पर काम कर लो। तुम्हारी माँ को कुछ नहीं होगा।

माँ को अस्पताल भिजवा दिया गया। माँ अपनी ममता के पीछे केतकी ठेकेदार की मंशा भाप चुकी थी, परन्तु बेबस चुप रही।

सुबह सारे अपार्टमेंट और सभी के बीच हल्ला था कि ठेकेदार साहब बहुत भले आदमी है। कल रात उन्होंने केतकी की माँ की जान बचाई।

भगवान भला करे। ऐसे आदमी दुनिया में मिलते कहाँ हैं?

हम सब की उम्र भी उनको लग जाए। हम सब गरीबों के भगवान हैं। परन्तु केतकी की लगातार आँखों से बहते आँसू  कुछ और ही कह रह रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 126 ☆ निर्माल्याची ओटी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 126 ?

☆ निर्माल्याची ओटी ☆

तुझ्या प्रेमाखातर मी

हात ढगाचा सोडला

खाली येऊन पाहिले

माझा कणाच मोडला

 

खाचखळगे मिळाले

चाललोय धक्के खात

बांधावर मी थांबतो

मला आवडते शेत

 

वाहणाऱ्या ह्या नदीला

नको निर्माल्याची ओटी

काहीजण घासतात

तिथे भांडी खरकटी

 

सागराच्या भेटीसाठी

होउनीया आलो झरा

आत्मा माझा हा निर्मळ

आणि सोबती कचरा…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ लेखांक # 11 – मी प्रभा… आध्यात्माची वाट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ लेखांक# 11 – मी प्रभा… आध्यात्माची वाट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

या अकरा भागात मी तुम्हाला माझी जीवनकथा थोडक्यात सांगितली, म्हणजे ढोबळमानाने माझं जगणं….हे असंच आहे.सगळेच बारकावे, खाचाखोचा शब्दांकित करणं केवळ अशक्य!

पण खोटं, गुडी गुडी असं काहीच लिहिलं नाही, मी आहे ही अशी आहे,  साधी- सरळ, आळशी,वेंधळी,काहीशी चवळटबा ही,मी स्वतःला नियतीची लाडकी लेक समजते,खूप कठीण प्रसंगात नियतीने माझी पाठराखण केली आहे. ….मी नियती शरण आहे! गदिमा म्हणतात तसं,”पराधीन आहे जगती पुत्र मानवाचा” याचा प्रत्यय मी घेतला आहे!

अनेकदा मला माझं आयुष्य गुढ,अद्भुतरम्य ही वाटलेलं आहे….अनेकदा असं वाटतं, इथे प्रत्येक गोष्ट मनाविरुद्धच घडणार आहे का ?……पण पदरात पडलेलं प्रतिभेचं इवलंसं दान ही आयुष्यभराची संजीवनी ठरली आहे.अनेकदा माणसं उगाचच दुखावतात,अर्थात वाईट तर वाटतंच, पण कुणीतरी म्हटलंय ना, जब कोई दिलको दुखाता है तो गज़ल होती है……

कविता, लेखन आयुष्याचा अविभाज्य घटक!

सुमारे वीस वर्षापूर्वी माझ्याकडे अनेक वर्षे काम करणा-या कामवाल्या मावशींबरोबर हरिमंदिरात जाऊ लागले, नंतर बेळगावला जाऊन  कलावती आईंचा अनुग्रह घेतला, सरळ साधा भक्तिमार्ग, नामस्मरण, भजन, पूजन!शिवभक्ती, कृष्ण भक्ती! संसारात राहून पूर्ण आध्यात्मिक मार्ग  स्वीकारता येत नाही. मनाला काही बांध घालून घेतलेले…..आयुष्य पुढे पुढे चाललंय, जे घडून गेलं ते अटळ होतं, त्याबद्दल कुणालाच दोष नाही देत, मी कोण? पूर्वजन्म काय असेल? भृगुसंहितेत स्वतःला शोधावसं अनेकदा वाटलं,पण नाही शोधलं, आई म्हणतात, भविष्य विचारू नका कुणाला, सत्कर्म करत रहा, कलावतीआईंचा भक्तिमार्ग सरळ सोपा….त्या मार्गावर जाण्याचा प्रयत्न, दोन वर्षांपूर्वी मणक्याचं ऑपरेशन झालं, हाॅस्पिटलमधून कोरोनाची लागण झाली..सगळं कुटुंब बाधित झालं, हे सगळं आपल्यामुळे झालं असं वाटून प्रचंड मानसिक त्रास झाला, यातून नामस्मरण आणि ईश्वर भक्तीनेच तारून नेलं!

“मी नास्तिक आहे”  म्हणणारी माणसं मला प्रचंड अहंकारी वाटतात.कदाचित कुठल्याही संकटाला सामोरं जायची ताकद त्यांच्यात असावी.

पण ज्या ईश्वराने आपल्याला जन्माला घातलं आहे त्याला निश्चितच आपली काळजी आहे असा माझा ठाम विश्वास आहे.कोरोनाबाधित असताना मनःशांतीसाठी ऑनलाईन अनेक मेडिटेशन कोर्सेस केले, ऑनलाईन रेकी शिकायचा प्रयत्न केला.पण ते काहीच फारसं यशस्वी झालं नाही.

आपल्या आतच सद् सद्विवेक बुद्धी वास करत असते ती सतत जागृत ठेवून दिवसभरात एकदा केलेलं ईश्वराचं चिंतन, दुस-या कुणा व्यक्तीबद्दल द्वेष, मत्सर, ईर्षा न बाळगणे हेच सुलभ सोपं आध्यात्म आहे असं मला वाटतं!

लेखमाला समाप्त ?

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 78 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 78 –  दोहे ✍

असहायों को लूट कर, बनते श्री संपन्न ।

आँसू  उन्हें गरीब के, पल में करें विपन्न।

 

 आँसू निकले हर्ष में, आँसू  कहे विषाद ।

आँसू  का मतलब कभी अपने प्रिय की याद ।।

 

आँसू का क्या उत्स है, या पीड़ा या प्यार।

आँसू में ही भीग कर, चलता है संसार ।।

 

आँसू क्यों जन्मा भला, क्या कुछ थी दरकार।

 आँसू  निकलें जीत के, बतलाते हैं हार।।

 

जतलाता है अश्रु ही, परमात्मा का प्यार।

जड़ जीवन को सौंपता, सत्य शील, श्रृंगार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 78 – “एक पहेली माँ…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “एक पहेली माँ  …।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 78 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “एक पहेली माँ  …”|| ☆

कैसे भी दिन हों,  सिरहाने-

रखे हथेली माँ ।

संतति की रक्षा का संबल

एक अकेली माँ ।।

 

ठंड पड़े  तो रात देखती

क्या उघडा है तन-

बेटे का, सूखा रखती है

किसी तरह सावन

 

मौसम की हर उठा-पटक

से उसे बचाती है,

बरसों से ही सर्द-गर्म की

रही सहेली माँ ।।

 

जीवन की कठिनाई की

कितनी ही तलवारें

या कि  रोज-मर्रा की

टेढ़ी-मेढ़ी दरकारें

 

जो भी होनी-अनहोनी

सब उसकी छाती पर

अचल-अडिग झेला

करती है बनी नवेली माँ ।।

 

झुका कमर बिन थके

लगी रहती है कामों में

उसकी गिनती भाग्यवान

कितने ही नामों में

 

घूमा करती है पहिये सी

बिना रुके, शायद

पुरातत्व के लिये अनौखी

एक पहेली माँ ।।

 

शहर-दर-शहर पीड़ाओं का

समाहार करती

लोग-कई उपमाएँ देते

कहते हैं धरती

 

है उदाहरण भारी-भरकम

ममता के ऋण का

फिर लखनऊ में,काशी में

या रहे बरेली माँ  ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

09-02-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 125 ☆ “अन्तर्मन” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है बैंकर्स के जीवन पर आधारित एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “अन्तर्मन”।)  

☆ कविता # 125 ☆ “अन्तर्मन” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

तुम्हारा इस तरह से 

पलकों पे आके बैठ जाना 

फिर पलकों पे बैठकर 

दिन रात आंसू बहाना 

तुम्हारा यूं उठना बैठना 

और आंखों को झील बनाना 

छुप के चुपके से यहां बैठना 

फिर बेवजह जमीन कुरेदना

हर बात पर बहाना बनाना 

दिन रात यादों में खो जाना 

वायदा करके फिर भूल जाना 

पर हरदम तुम ये याद रखना 

अन्तर्मन में संघर्ष न पालना

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 69 ☆ # संत रविदास की बात # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# संत रविदास की बात  #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 69 ☆

☆ # संत रविदास की बात # ☆ 

दुनिया के कैसे कैसे रंग है

सम्मोहन के अनोखे ढंग है

देख के यह जादूगरी

हम तो भाई दंग है

 

जिसको जीवन भर दुत्कारा

ना कभी आंसू पोंछे, ना पुचकारा

जिसको किया सदा प्रताड़ित

लगा रहे उसके नाम का जयकारा

 

तोड़ा था जिसका कभी मंदिर

अहंकार की भेंट चढ़ा था मंदिर

फल, फूल, मिठाइयां चढ़ा रहे है

सजा रहे है आज उसी का मंदिर

 

आज तो हद ही हो गई

मानवता धरती पर आ गई

सारे माथा टेक रहे हैं

कटुता जाने कहां खो गई

 

कल तक छूना भी पाप था

साया पड़ जाए तो अभिशाप था

तिरस्कृत थे सब “वाल्मीकि”

‘रैदास’ उनका ही तो बाप था

 

क्या पक्ष या विपक्ष हो भाई

सभी नेताओं ने माला चढ़ाईं

“झांझ” बजाते देश के मुखिया की

मीडिया में खूब फोटो है छाई

 

क्या चुनाव का यह आकर्षण है

दिखावे का बस यह दर्शन है

मुंह में राम बगल में छुरी

क्या वोटरों को लुभाने

झूठ मूठ का अर्पण है

 

अंत:करण में बिठाइये

“रैदास” की यह बात

“कर्म” ही जाते हैं

मृत देह के साथ

 

संत रैदास कह गए-

जाति जाति में जाति है,

जो केतन के पात

रैदास” मनुष ना जुड़ सके

जब तक जाति न जात /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 70 ☆ सर्वात मोठं विद्यापीठ… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

? साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 70 ? 

☆ सर्वात मोठं विद्यापीठ… ☆

नखे काढता सहज

बालपण लीलया आठवलं

शिकवण मिळाली कधी

तिला मी पुन्हा अभ्यासलं…०१

 

आई सांगायची बाळा

नखे विषारी असतात

तांदूळ समजून चिमण्या

चिमण्या त्यास खातात…०२

 

चिमण्यांनी त्यास खाता

चिमण्या हकनाक मरतात

अबोल बिचाऱ्या चिमण्या

मुकाट्याने मरण स्वीकारतात…०३

 

सर्वात मोठं विद्यापीठ

आपली स्वतःची आई असते

शिकवण आईची निर्व्याज

त्याला कुठेच तोड नसते…०४

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग ५ – प्रेरणा ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर

डाॅ.नयना कासखेडीकर

[भारतीय संस्कृतीतमध्ये आपल्या जीवनात असणार्‍या गुरूंना अर्थात मार्गदर्शन करणार्‍या व्यक्तिंना अत्यंत महत्वाचे स्थान आहे, हे महत्व आपण शतकानुशतके वेगवेगळ्या पौराणिक, वेदकालीन, ऐतिहासिक काळातील अनेक उदाहरणावरून पाहिले आहे. आध्यात्मिक गुरूंची परंपरा आपल्याकडे आजही टिकून आहे. म्हणून आपली संस्कृतीही टिकून आहे.

एकोणीसाव्या शतकात भारताला नवा मार्ग दाखविणारे आणि भारताला आंतरराष्ट्रीय विचारप्रवाहात आणणारे, भारताबरोबरच सार्‍या विश्वाचे सुद्धा गुरू झालेले स्वामी विवेकानंद.

आपल्या वयाच्या जेमतेम चाळीस वर्षांच्या आयुष्यात, विवेकानंद यांनी  गुरू श्री रामकृष्ण परमहंस यांचे शिष्यत्व पत्करून जगाला वैश्विक आणि व्यावहारिक अध्यात्माची शिकवण दिली आणि धर्म जागरणाचे काम केले, त्यांच्या जीवनातील महत्वाच्या घटना आणि प्रसंगातून स्वामी विवेकानंदांची ओळख या चरित्र मालिकेतून करून देण्याचा हा प्रयत्न आहे.] 

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग ५ – प्रेरणा ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

एकोणीसाव्या शतकात मुंबईत उत्तमोत्तम वास्तु उभ्या राहत होत्या. साहेबाला लाजवेल असं उत्तम हॉटेल जमशेटजी टाटा यांना आपल्या देशात बांधायच होतं. गेटवे ऑफ इंडिया अजून निर्माण झालं नव्हतं. समुद्रात भराव घालून तिथं काम चालू होतं. त्यामुळे त्यांच्या दूरदृष्टीने ओळखलं की हीच जागा पुढे आकर्षण ठरेल म्हणून तिथेच जागा निश्चित करून हॉटेलचा मुहूर्त केला. जर्मनी, अमेरिका, बर्लिन, पॅरिस, टर्की इथून ऊंची शोभिवंत सामान आणले गेले. जो माणूस पोलाद कारखाना, इमारती, गिरण्या काढतो तो हा भटारखाना का चालू करतोय असा प्रश्न त्यांच्या बहिणीला पडला होता . पण जमशेटजी टाटांना आपल्या लाडक्या मुंबई शहराला एक ताजमहाल भेट द्यायचा होता. स्वत: लक्ष घालून ते काम पूर्ण करत होते. हेच ते जगप्रसिद्ध हॉटेल ताज. अशा अनेक वास्तूंबरोबरच नवनवे उद्योगधंदे भारतात टाटांनी उभे केले. जग फिरून आल्यानंतर माझ्या देशात पण असे प्रकल्प, अशी विद्यापीठे. संस्था झाल्या पाहिजेत अशी जमशेट टाटांची इच्छा होती. ‘स्वदेशी’ हाच त्यांचा उद्देश होता.     

इंग्लंड मध्ये सुधारणेचे वारे वाहत होते. ते भारतापर्यंत पोहोचले होते. हवामान खातं, विज्ञान केंद्र, प्रयोगशाळा, संस्था, विद्यापीठं यातही गुंतवणूक होऊन ती सुरू होत होती. मिशनर्‍यान्ची  कामं सुरू झाली होती. पण त्याच वेळी भारताच्या भविष्याचा विचार जमशेटजी करत होते. देशहिताच्या दृष्टीने भारतात, त्यांना एक विज्ञान संशोधन संस्था उभी करायची होती, ती विज्ञानाचा प्रसार करण्यासाठी आणि ते रुजण्यासाठी. त्यासाठी त्यांनी स्वामी विवेकानंदांना पत्र लिहिलं की, “काही वर्षापूर्वी आपण एका बोटीत सहप्रवासी होतो तेंव्हा आपल्यात बर्‍याच विषयांवर चर्चा झाली. देश आणि समाज या विषयावरच्या आपल्या मतांनी माझ्या मनात तेंव्हापासून घर केलंय. या कामात ध्येयवादी व्यक्तीनं काम केल्यास, परिणामकारकता वाढेल व देशाचं नावही गौरवानं घेतलं जाईल”.

ही भेट झाली होती, जेंव्हा स्वामी विवेकानंद शिकागोच्या धर्मपरिषदेत सहभागी होण्यासाठी जात होते. तर जमशेट टाटा, जपानहून अमेरिकेत शिकागो इथे औद्योगिक प्रदर्शनासाठी निघाले होते. योगायोग असा की ‘एम्प्रेस ऑफ इंडिया’ या बोटीवर दोघंही बरोबर प्रवास करत होते. या भेटीत एकमेकांची चांगली ओळख त्यांच्या विचारांच्या आदान प्रदानाने झाली होती. एकमेकांचे ध्येयवादी विचार बघून दोघंही भारावून गेले होते. त्यांना या स्वप्नांसाठी व प्रचारासाठी विवेकानंदांची साथ हवी होती. जमशेटजींच्या स्वप्नातील ही संस्था, भारतातील एक अद्वितीय अशी, विज्ञान संशोधन आणि शिक्षणात अग्रेसर असलेली, ‘इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ सायन्स’  आज बंगलोर इथं आहे. ही संस्था म्हणजे स्वामी विवेकानंदांच्या बरोबर झालेल्या संभाषणातून पेरलेलं बीजं च होतं. दोघांचंही ध्येय होतं मातृभूमीचं सर्वांगीण पुनरुत्थान.  

हे आज सांगायच कारण म्हणजे, अजूनही टाटा कुटुंबाचा हाच लौकिक कायम आहे. देशाच्या विकासात ,त्यांचा मोलाचा वाटा आहे. आज जगभरात कोरोना नं धुमाकूळ घातला आहे. देशादेशांचे सर्व व्यवहार ठप्प झाले आहेत. पुढचे आर्थिक संकट आ वासून उभे आहे. या संकटात टाटा ट्रस्ट कडून रतन टाटा यांनी मोठं योगदान दिलं आहे. १५०० कोटीची मदत त्यांनी देऊ केली आहे. देशसेवेत योगदनाची हीच ती काळाची गरज त्यांनी ओळखली. प्लेगच्या साथीत पण जमशेट टाटा यांनी असेच योगदान दिले होते. असं हे  टाटा कुटुंब आपल्या देशाचा ‘अभिमान’ आहे.

क्रमशः ....

 

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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