हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #130 ☆ व्यंग्य – व्यंग्यकार की शोकसभा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘व्यंग्यकार की शोकसभा’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 130 ☆

☆ व्यंग्य – व्यंग्यकार की शोकसभा

शहर के जाने-माने व्यंग्यकार अनोखेलाल ‘बेदिल’ अचानक ही भगवान को प्यारे हो गये। दरअसल हुआ यह कि एक स्थानीय अखबार के पत्रकार ने उनके नये व्यंग्य-संग्रह ‘गधे की दुलत्ती’ की समीक्षा छापी थी, जिसमें संग्रह की रचनाओं को घटिया और बचकानी बताया गया था। समीक्षा छपने के दो घंटे बाद ही ‘बेदिल’ जी को दिल का दौरा पड़ा था और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था। उनके दिल को लगा धक्का इतना ज़बरदस्त था कि दो दिन अस्पताल में रहने के बाद वे इस बेवफा दुनिया को अलविदा कह गये।

उनके निधन पर तत्काल दो तीन व्यंग्यकारों ने एक वक्तव्य देकर समीक्षा करने वाले पत्रकार की कठोर भर्त्सना की और शहर के साहित्य-जगत को हुई इस अपूरणीय क्षति के लिए उसे सीधे सीधे ज़िम्मेदार ठहराया।साथ ही अखबार के प्रबंधन से अपील की कि दोषी पत्रकार के खिलाफ कठोर कार्यवाही की जाए।

श्मशान में ‘बेदिल’ जी को विदाई देने के लिए 15-20 व्यंग्यकार इकट्ठे हुए।उन्हें उनके कंधों पर लटकते झोलों से पहचाना जा सकता था।सब वहाँ बनी सीमेंट की बेंचों पर बैठकर कार्यक्रम संपन्न होने का इंतज़ार करने लगे।

अचानक पता चला कि ‘बेदिल’ जी के दामाद वायु-मार्ग से आ रहे हैं और उन्हें वहाँ पहुँचने में कम से कम एक घंटा लग जाएगा।तब तक कार्यक्रम रुका रहेगा।

नगर के एक और सक्रिय व्यंग्यकार बेनी प्रसाद ‘खंजर’ के दिमाग़ में कुछ कौंधा और उन्होंने दो तीन साथियों से खुसुर-पुसुर की। उसके बाद उन्होंने सभी व्यंग्यकारों को सभा-भवन में इकट्ठा होने के लिए इशारा करना शुरू किया, कुछ उसी तरह जैसे शादियों में मेहमानों को भोजन- कक्ष में पहुंचने का इशारा किया जाता है।

सारे व्यंग्यकार सभा-भवन में इकट्ठे हो गए। ‘खंजर’ जी उनसे बोले, ‘भाइयो, अभी कार्यक्रम में कम से कम एक घंटा लगेगा। सोचा, क्यों न ‘बेदिल’ जी के सम्मान में एक व्यंग्य-गोष्ठी करके इस समय का सदुपयोग कर लिया जाए। इसलिए आप लोगों से अनुरोध है एक एक व्यंग्य सभी पढ़ें। आपके मोबाइल में रचनाएँ तो होंगी ही।’

एक व्यंग्यकार बोले, ‘हमने तो मोबाइल में नहीं डालीं।’

खंजर जी बोले, ‘स्मरण-शक्ति से सुना दीजिए। थोड़ा बहुत हेरफेर होगा, और क्या?’

दो तीन व्यंग्यकार अपना झोला बजाकर बोले, ‘हम तो हर जगह अपनी कॉपी लेकर चलते हैं। पता नहीं कहाँ पढ़ना पड़ जाए।’

व्यंग्य-गोष्ठी शुरू हो गयी। सभी पूरे जोश और तन्मयता से पढ़ते रहे। इस बीच दामाद साहब आ गये और उधर का कार्यक्रम शुरू हो गया।

थोड़ी देर में संदेश आया कि सब लोग चिता की परिक्रमा को पहुँचें। तत्काल तीन चार व्यंग्यकारों ने हाथ उठा दिया। कहा, ‘हम तो रह गये। यह ठीक नहीं है। हमें भी पढ़ने का मौका मिलना चाहिए।’

‘खंजर’ जी ने उन्हें आश्वस्त किया,कहा, ‘यहाँ अभी शोकसभा होगी। उसके बाद आप लोग यहीं रुके रहिएगा। कोई जाएगा नहीं। बचे हुए लोगों को भी अपनी रचना पढ़ने का मौका दिया जाएगा।’

शोकसभा के बाद सभी व्यंग्यकार वहीं रुके रहे। दूसरे लोगों के जाने के बाद गोष्ठी फिर शुरू हो गयी और बाकी व्यंग्यकारों को भी अपनी रचना पढ़ने का सुखद अवसर प्राप्त हुआ। उसके बाद सभी व्यंग्यकार ‘बेदिल’ जी के प्रति कृतज्ञता से भरे हुए अपने घर को रवाना हुए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 82 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 82 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 82) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 82☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मेरी उदासियाँ तुम्हें

नज़र आएँगी भी कैसे

तुम जब भी देखते हो

हम मुस्कुराने लगते हैं…

 

How would you ever

notice my sadness

Whenever you look at me

I begin to smile…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

तहजीब, अदब और सलीका

भी तो कोई चीज़ है…

झुका हुआ हर शख्स भला

बेचारा तो नहीं होता…!

 

Etiquettes, manners and grace

are something to reckon with

Every bowed down person is

not necessarily a destitute…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 ये तेरा वहम है कि

हम तुम्हें भूल जाएंगे ,

वो ‪शहर तेरा होगा, जहाँ

बेवफा लोग बसा करते हैं…

It’s your delusion only

that I’ll forget you,

That city will be yours where

unfaithful people live…!

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 128 ☆ स्टैच्यू…(2) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 128 ☆ स्टैच्यू…(2) ?

आलस्य रोदनं वापि भयं कर्मफलोद्भवम्।
त्वयीमानि न शोभन्ते जहि मनोबलैः॥

अर्थात अपनी इच्छाशक्ति की सहायता से आलस्य और रुदन छोड़ो, प्रारब्ध से मत डरो- ये सब तुम्हें शोभा नहीं देते।… इच्छाशक्ति सीधी परमात्मा के पास से आती है। तुम अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर जो चाहो, कर सकते हो।

‘स्टैच्यू’ शृंखला में आज इच्छाशक्ति के धनी एक और अनन्य व्यक्तित्व की चर्चा करेंगे। नाम है, स्टीफन विलियम हॉकिंग, प्रसिद्ध भौतिकी एवं ब्रह्मांड विज्ञानी। इक्कीस वर्ष की आयु में स्टीफन मोटर न्यूरॉन नामक असाध्य बीमारी के शिकार हुए। इस रोग में मनुष्य के सारे अवयव शनै:- शनै: काम करना बंद कर देते हैं। आगे चलकर श्वसन-नलिका भी बंद पड़ जाती है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। अलबत्ता मस्तिष्क को यह रोग नुकसान नहीं पहुँचा पाता।

स्टीफन के इस रोग से ग्रसित होने के बाद डॉक्टरों के अनुसार उनके पास जीवन के थोड़े ही वर्ष शेष बचे थे। अपार मेधा और अजेय इच्छाशक्ति के धनी स्टीफन बुदबुदाये,” मैं अभी 50 साल और जीऊँगा।”

इक्कीस वर्ष की अवस्था में कहे इस वाक्य को स्टीफन की जिजीविषा ने प्रमाणित कर दिया। उनका देहांत 76 वर्ष की आयु में हुआ।

मोटर न्यूरॉन के चलते उनके शरीर के सभी अवयव निष्क्रिय होने लगे। धीरे-धीरे पक्षाघात ने देह को जकड़ लिया। एक विशेष व्हीलचेयर पर उनका जीवन बीता। अपने सक्रिय मस्तिष्क की सहायता और व्हील चेयर पर लगाए विभिन्न बटनों के माध्यम से उन्होंने न केवल प्रकृति प्रदत्त शारीरिक पंगुता का सामना किया अपितु भौतिकी और ब्रह्मांड विज्ञान में अनेक अनुसंधान भी किए। अपनी आवाज़ खोने के बाद उन्होंने हस्तचालित स्विच से चलाये जा सकने वाले स्पीच जेनेरेटिंग डिवाइस के माध्यम से संवाद बनाये रखा। बीमारी के बढ़ते प्रभाव के कारण इस उपकरण को बाद में गाल की माँसपेशी की सहायता से सक्रिय किया गया।

स्टीफन हॉकिंग द्वारा विशेषकर ब्रह्मांड विज्ञान के क्षेत्र में प्रतिपादित सिद्धांतों को व्यापक स्वीकृति मिली। वैश्विक स्तर पर उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार मिले। इनमें अमेरिका का सर्वोच्च सम्मान, ‘प्रेसेडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम’ भी सम्मिलित है।

स्टीफन के संघर्ष के मूल में थी, उनकी जिजीविषा। स्टैच्यू बनी देह के भीतर बसी इस प्रवहमान जिजीविषा ने इतिहास रच दिया। उन्होंने जीवन ऐसा जिया कि समीप आकर खड़ी मृत्यु को उनकी देह ग्रसने के लिए 56 वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी।

शायद ऐसे ही बिरले लोगों के लिए कन्हैयालाल नंदन जी ने लिखा था,

जीवन के साथ थोड़ा बहुत / मृत्यु भी मरती है, इसलिए मृत्यु / जिजीविषा से बहुत डरती है..!

जीवन परमात्मा की देन है। जिजीविषा भी परमात्मा की दी हुई है। अपने जिजीविषा का उपयोग ना करना परमात्मा के प्रति कृतघ्न होना है। वैदिक दर्शन ने जिजीविषा को सर्वोच्च स्थान इसीलिए तो दिया है। आलेख के आरम्भ में उल्लेखित ‘आलस्य रोदनं…’ जैसा उद्घोष इसीके अनुरूप है।

ऐसे ही उद्घोष किसी स्टीफन हॉकिंग को बनाते हैं जो उद्घोष में प्राण संचारित कर शब्दों को जीवित कर देता है। मानवजाति का अनुभव जानता है कि जिसने शब्दों में प्राण फूँककर प्रेरणा को साकार कर लिया हो, उस को किसी तरह का कोई ‘स्टैच्यू’ बांध नहीं सकता।..इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह #83 ☆ सॉनेट गीत – मानव ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘सॉनेट गीत – मानव।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 83 ☆ 

☆ सॉनेट गीत – मानव ☆

(विधा- अंग्रेजी छंद, शेक्सपीरियन सॉनेट)

मानव वह जो कोशिश करता।

कदम-कदम नित आगे बढ़ता।

गिर-गिर, उठ-उठ फिर-फिर चलता।।

असफल होकर वरे सफलता।।

 

मानव ऐंठे नहीं अकारण।

लड़ बाधा का करे निवारण।

शरणागत का करता तारण।।

संयम-धैर्य करें हँस धारण।।

 

मानव सुर सम नहीं विलासी।

नहीं असुर सम वह खग्रासी।

कुछ यथार्थ जग, कुछ आभासी।।

आत्मोन्नति हित सदा प्रयासी।।

 

मानव सलिल-धार सम निर्मल।

करे साधना सतत अचंचल।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२७-२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #112 ☆ वसंत/मधुमास ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 112 ☆

☆ ‌आलेख – आत्मानंद साहित्य #112 ☆ ‌वसंत /मधुमास ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

इस धरती पर अनेक सभ्यता अनेक संस्कृति अनेक प्रकार के आहार विहार , तथा रहन सहन देश काल प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुसार, व्यवहार में प्रयुक्त होते है, कहीं कहीं बारहों मास एक जैसा प्राकृतिक  मौसम रहता है, इसी धरती पर कहीं  बारहों मास बरसात होती है तो कहीं भयानक  ठंड पड़ती है, तो कहीं मरूस्थलीय इलाके बिना बरसात के सूखे रहते हैं , लेकिन एक मात्र भारत वर्ष ही एकमात्र ऐसा देश है जहां  जाड़ा, गर्मी, बरसात, चार चार महीने के तीन मौसम है तो, दो दो महीने की छः ऋतुएं है जिसमें उष्म, ग्रीष्म,  शरद,  शिशिर, हेमंत, वसंत है ,यहां हमारी परिचर्चा का विषय वसंत/मधुमास है इस लिए चर्चा की विषय वस्तु  भी यही है।

हेमंत ऋतु की अवसान बेला के अंत में बसंत ऋतु का आगमन होता है ,उसका धरती पर प्राकट्योत्सव  हिंदू पंचांग के अनुसार माघ मास की  शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को, मनाया जाता है, बसंत के आगमन का संदेश खेतों में खिले सरसों के पीले पीले फूल मटर के सफेद गुलाबी फूल तथा अलसी के नीले रंग के फूल देते हैं, वृक्ष में  फूटती हुई कोंपले तथा उनके भीतर से निकले नव पल्लव  प्रकृति के सम्मोहक स्वरूप का दर्शन कराते है और मानव जीवन को नव चेतना तथा उमंग उत्साह से भर देते है। वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि तथा होली बासंती पर्व है,इनका बड़ा ही गहरा नाता प्राकृतिक रूप भारतीय  जीवन पद्धति से जुड़ा है। वहीं पर मधु मास का आरंभ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम तिथि एकम से आरंभ होता है,इसी पक्ष के प्रथम तिथि से

बासंतिक नवरात्र आरंभ होता है, तथा नवमी तिथि को रामनवमी के दिन  रामजन्म के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। और उसी दिन शारदीय नवरात्र का समापन होता है।

मधुमास के बारे में राम जन्म के प्रसंग में मधुमास का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं कि—–

नवमी तिथि मधुमास पुनीता।

सुखद पक्ष अभिजित हरि प्रीता।।

मध्यदिवस अति शीत न घामा।

पावन काल लोक विश्रामा।।

(रा०च०मा०बा०का०)

यह बसंत ऋतु के शैशव तथा युवा से प्रौढ़ावस्था में प्रवेश कर मधुमास के आगमन का संकेत देता है। इस समय बहुत तेजी के साथ प्राकृतिक परिवर्तन होता है। खेतों में फसलों की बालियां दानों से लद जाती है। बाग बगीचों अमराई में आम्र मंजरियों  कटहल तथा महुआ के फूलों और मधुमक्खियों के छत्तों से मधुरस टपकने लगता है, बगीचों से होकर गुजरने वाली भोर की ठंडी हवा के झोंको पर सवार  हो मादक सुगंध लेकर  सैर को निकलने वाली हवा मानव मन तथा जीवन को एक

अलग ही मस्ती से भर देती है, रामनवमी तथा बैसाखी का उत्सव मधुमास के त्योहार है , जिसमें पकने वाली फसलें खेत खलिहानों को समृद्ध कर देते हैं बगीचों में आम के टिकोरे, तथा  बगीचों की कर्मचारियों में खिलने वाले  गेंदा बेला गुलाब डहेलिया के पुष्प आकर्षक नजारों के मोह पास में मानव को जकड़ देते हैं ।  तभी तो ऋतु राज वसंत को कामदेव का प्रतिनिधि कहा जाता है ,और काम के प्रहार से नवयुवा मन त्राहि-त्राहि कर उठता है, और बिरहिनि का मन आकुल व्याकुल हो उठता है।

जिसमें संयोग जहां सुखद अनुभूति कराता है वहीं बियोग चैता तथा होली गीतों के सुर के साथ मुखरित हो उठता है।

– सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #102 – रेडिओवर…!! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 102  – रेडिओवर…! 

रेडिओवर….

सुख के सब साथी

दुःख मे नं कोई…..

हे गाणं लागलं ना की,

सारीच सुखं दुःखं

समोरासमोर येऊन उभी राहतात..

आणि भांडू लागतात

आपलं कोण आणि

परकं कोण..?

ह्या एकाच विषयावर..

रेडिओवर दुसरं…

गाणं सुरू होई पर्यंत..!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – प्रश्न- ?? ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे ☆

सुश्री उषा जनार्दन ढगे

 

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ?प्रश्न- ??  ? ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

तो प्रश्न अनुत्तरीत राहिला..

विचारला..तरी क्लृप्तीने टाळला…

चकविला जरी, मनांतच राहूनी गेला…

क्षणभर काहूर माजवूनी गेला…

का प्रश्न तो ऐकूच नाही गेला..?

अन् फिरून प्रश्नजाळ्यांंत गुंंतवूनी गेला..?

एक भला प्रश्न मागेच सोडूनी गेला…

प्रश्नचिन्ह बनूनी मग वेंगाडित राहिला…!

अन् मग प्रश्नाच्याच त्या,

संदिग्ध कोशपटलाला…

प्रत्युत्तराचा तो तीक्ष्ण तीर

आरपार छेदूनी गेला…!

चित्र साभार – सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

© सुश्री उषा जनार्दन ढगे

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #131 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल-19– “नुमाइश” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “नुमाइश…”)

? ग़ज़ल # 19 – “नुमाइश…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी खुशनुमा है जब दिल से दिल मिलता है,

जमाने में दिल को कहाँ सच्चा दिल मिलता है।

 

वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर आशियाने की,

रहते खुद के घर में पता दुश्मन का मिलता है।

 

मुहब्बत में गुमसुम लोगों से पता पूछते हो ?

ढूँढने पर उनको नहीं ख़ुद का पता मिलता है।

 

दोस्ती का खेल भी खूब खेला जा रहा आजकल,

काम निकला फिर कहाँ दोस्त का घर मिलता है।

 

रिश्ते नाते दिखावटी नुमाइश बन कर रह गए हैं,

आतिश प्यार माँगने पर ही अपनों से मिलता है।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

 

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 71 ☆ गजल – ’’ये जीवन है आसान नहीं’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “ये जीवन है आसान नहीं”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 71 ☆ गजल – ’’ये जीवन है आसान नहीं’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

ये जीवन है आसान नहीं जीने को झगड़ना पड़ता है

चलने की गलीचों पै पहले तलवों को रगड़ना पड़ता है।

मन के भावों औ’ चाहों को दुनिया ने किसी के कब समझा

कुछ खोकर भी पाने को कुछ, दर-दर पै भटकना पड़ता है।

सर्दी की चुभन, गर्मी की जलन, बरसात का गहरा गीलापन

आघात यहाँ हर मौसम का हर एक को सहना पड़ता है।

सपनों में सजायी गई दुनियाँ, इस दुनियाँ में मिलती है कहाँ ?

अरमान लिये बोझिल मन से संसार में चलना पड़ता है।

देखा है बहारों में भी यहाँ कई फूल-कली मुरझा जाते

जीने के लिये औरों से तो क्या ? खुद से भी झगड़ना पड़ता है।

तर होके पसीने से बेहद, अवसर को पकड़ पाने के लिये

छूकर के भी न पाने की कसक से कई को तड़पना पड़ता है।

अनुभव जीवन के मौन मिले लेकिन सबको समझाते हैं

नये रूप में सजने को फिर से, सड़कों को उखड़ना पड़ता है।

वे हैं ’विदग्ध’ किस्मत वाले जो मनचाहा पा जाते है

वरना ऐसे भी कम हैं नहीं जिन्हें बनके बिगड़ना पड़ता है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #81 – सत्य के तीन पहलू ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #81 – सत्य के तीन पहलू ☆ श्री आशीष कुमार

भगवान बुद्ध के पास एक व्यक्ति पहुँचा। बिहार के श्रावस्ती नगर में उन दिनों उनका उपदेश चल रहा था। शंका समाधान के लिए- उचित मार्ग-दर्शन  के लिए लोगों की भीड़ उनके पास प्रतिदिन लगी रहती थी।

एक आगन्तुक ने पूछा- क्या ईश्वर है? बुद्ध ने एक टक उस युवक को देखा- बोले, “नहीं है।” थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति पहुँचा। उसने भी उसी प्रश्न को दुहराया- क्या ईश्वर हैं? इस बार भगवान बुद्ध का उत्तर भिन्न था। उन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा- “हाँ ईश्वर है।” संयोग से उसी दिन एक तीसरे आदमी ने भी आकर प्रश्न किया- क्या ईश्वर है? बुद्ध मुस्कराये और चुप रहे- कुछ भी नहीं बोले। अन्य दोनों की तरह तीसरा भी जिस रास्ते आया था उसी मार्ग से वापस चला गया।

आनन्द उस दिन भगवान बुद्ध के साथ ही था। संयोग से तीनों ही व्यक्तियों के प्रश्न एवं बुद्ध द्वारा दिए गये उत्तर को वह सुन चुका था। एक ही प्रश्न के तीन उत्तर और तीनों ही सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न, यह बात उसके गले नहीं उतरी। बुद्ध के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा- अविचल निष्ठा थी पर तार्किक बुद्धि ने अपना राग अलापना शुरू किया, आशंका बढ़ी। सोचा, व्यर्थ आशंका-कुशंका करने की अपेक्षा तो पूछ लेना अधिक उचित है।

आनन्द ने पूछा- “भगवन्! धृष्टता के लिए क्षमा करें। मेरी अल्प बुद्धि बारम्बार यह प्रश्न कर रही है कि एक ही प्रश्न के तीन व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न उत्तर क्यों? क्या इससे सत्य के ऊपर आँच नहीं आती?”

बुद्ध बोले- “आनन्द! महत्व प्रश्न का नहीं है और न ही सत्य का सम्बन्ध शब्दों की अभिव्यक्तियों से है। महत्वपूर्ण वह मनःस्थिति है जिससे प्रश्न पैदा होते हैं। उसे ध्यान में न रखा गया- आत्मिक प्रगति के लिए क्या उपयुक्त है, इस बात की उपेक्षा की गयी तो सचमुच  ही सत्य के प्रति अन्याय होगा। पूछने वाला और भी भ्रमित हुआ तो इससे उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न होगी।”

उस सत्य को और भी स्पष्ट करते हुए भगवान बुद्ध बोले-  “प्रातःकाल सर्वप्रथम जो व्यक्ति आया था, वह था तो आस्तिक पर उसकी निष्ठा कमजोर थी। आस्तिकता उसके आचरण में नहीं, बातों तक सीमित थी। वह मात्र अपने कमजोर विश्वास का समर्थन मुझसे चाहता था। अनुभूतियों की गहराई में उतरने का साहस उसमें न था। उसको हिलाना आवश्यक था ताकि ईश्वर को जानने की सचमुच ही उसमें कोई जिज्ञासा है तो उसे वह मजबूत कर सके इसलिए उसे कहना पड़ा- “ईश्वर नहीं है।”

“दूसरा व्यक्ति नास्तिक था। नास्तिकता एक प्रकार की छूत की बीमारी है जिसका उपचार न किया गया तो दूसरों को भी संक्रमित करेगी। उसे अपनी मान्यता पर अहंकार और थोड़ा अधिक ही विश्वास था। उसे भी समय पर तोड़ना जरूरी था। इसलिए कहना पड़ा- “ईश्वर है।” इस उत्तर से उसके भीतर आस्तिकता के भावों का जागरण होगा। परमात्मा की खोज के लिए आस्था उत्पन्न होगी। उसकी निष्ठा प्रगाढ़ है। अतः उसे दिया गया उत्तर उसके आत्म विकास में सहायक ही होगा।”

“तीसरा व्यक्ति सीधा-साधा, भोला था। उसके निर्मल मन पर किसी मत को थोपना उसके ऊपर अन्याय होता। मेरा मौन रहना ही उसके लिए उचित था। मेरा आचरण ही उसकी सत्य की खोज के लिए प्रेरित करेगा तथा सत्य तक पहुँचायेगा।”

आनन्द का असमंजस दूर हुआ। साथ ही इस सत्य का अनावरण भी कि महापुरुषों द्वारा एक ही प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न क्यों होता है? साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि सत्य को शब्दों में बाँधने की भूल कभी भी नहीं की जानी चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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