हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #109 – बाल कविता – चूसेगा पप्पू  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल कविता – “चूसेगा पप्पू।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 109 ☆

☆ बाल कविता – चूसेगा पप्पू ☆ 

कच्चे आम हरेभरे है.

पक्के हैं पीलेपीले।

दस भरे रसीले है

लगते जैसे गीलेगीले ।।

 

इस को मूनिया खाएगी

रस बना, पी आएगी।

चूसेगा पप्पू राजा

पिंकी पी इतराएगी ।।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #103 – तू आणि मी…!  ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 103  – तू आणि मी…! 

तू आणि मी

मिळून पाहिलेली सारीचं स्वप्नं

आजही …

मनाच्या अडगळीत

तशीच पडून आहेत

तू आलीस की

आपण ती स्वप्न झटकून

पुन्हा त्यात नवे रंग भरूया…

फक्त तू येताना…

तुझ्याही मनाच्या अडगळीतली

सारीच स्वप्न घेऊन ये…!

कारण…

माझ्या मनातल्या

अडगळीतले

काही स्वप्नांचे रंग

आता..,रंगवण्याच्या

पलीकडे गेलेले आहेत…!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ब्रह्मवादिनी सुलभा☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये ☆

सौ कुंदा कुलकर्णी

? मनमंजुषेतून ?

☆ ब्रह्मवादिनी सुलभा ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी

वेद व पुराण काळातील महत्वाच्या स्त्रिया : ब्रह्मवादिनी सुलभा

वदिक काळात स्त्रियांना खूप मान होता. मुलांच्या बरोबरीने आवश्यक असे शिक्षण पण त्यांना मिळत असे. त्यांचे उपनयन सुद्धा होत असे.  ब्रह्मवादिनी स्त्रिया आजन्म ब्रह्मचर्य पाळत. विद्येचा आणि ब्रह्मविद्येचा अभ्यास करत. सुलभा कुमारी संन्यासिनी होती. ती अत्यंत चतुर विद्वान आणि बुद्धिमान होती. प्रधान नावाच्या राजाची ती कन्या. तिने आजन्म ब्रह्मचारी राहून वेद विद्येचा आणि ब्रह्मविद्येचा अभ्यास व स्वतंत्र लेखनही केलं. ब्रम्हा यज्ञाच्या वेळी केल्या जाणाऱ्या तर्प णात गार्गी ,मैत्रेयी, वाचक्नवी यांच्याबरोबरच सुलभा चे नाव घेतले जाते. ती आत्मज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी, तपअर्जिता, ओजस्वी आणि तेजस्वी स्त्री होती. तिने स्त्रियांच्या शिक्षणासाठी अनेक स्वतंत्र आश्रम उभे केले. परकायाप्रवेश याचे ज्ञान तिने मिळवले होते. त्याआधारे ती राजा जनकाच्या शरीरात प्रवेश करून विद्वानांच्या बरोबर शास्त्रशुद्ध चर्चा करत असे. ती सतत प्रवास करून धर्माचा उपदेश आणि प्रसार करत असे. तिला तिच्या योग्यतेचा वर मिळाला नाही म्हणून तिने लग्न केले नाही.

महाभारताच्या शांतिपर्वामध्ये जनक राजा आणि सुलभा यांचा संवाद विस्तारपूर्वक वाचायला मिळतो. तिने आपल्या वाणीचे आठ गुण आणि आठ दोष यावर विशेष अभ्यास केलेला आहे.

तिला एकदा कळले की राजा जनक‌ अहंकारी झाला आहे. तिने त्याला भेट देण्याचे ठरवले. त्याला भेटण्यासाठी  तिने आपल्या योगाच्या बळावर मूळ शरीर टाकून देऊन सुंदर रूप धारण केले. आणि मिथिला  नगरीत आली. भिक्षा मागण्याचा बहाणा करून राजा जनकाच्या समोर आली. राजा जनक तिच्या सौंदर्याने आश्चर्यचकित झाला त्याने तिचे स्वागत केले. पाय धुवून यथोचित पूजा करून उत्तम जेवण दिले. जनक राजाने विचारले.,”तू ब्राम्हणी संन्यासिनी आहेस का?”सुलभ उत्तरली” मी क्षत्रिय कन्या .योग्य पती न मिळाल्यामुळे   मी लग्न केले नाही. व्रतस्थ  राहते”. राजाने विचारले

“खरे शहाणे कोण?” सुलभा उत्तरली “ज्ञानी माणूस कधीही स्वतःची स्तुती करत नाही तो कमी बोलतो आणि मौनात राहतो.मग तो राजा असो ,ग्रहस्थ असो अथवा संन्यासी असो.” जनक राजाला आपली चूक समजली. तो म्हणाला ,,”सुलभा ,तू माझे डोळे उघडलेस. तू खरी ज्ञानी आहेस. मी तुझे बोलणे लक्षात ठेवून यापुढे वाणीवर संयम ठेवीन.”

अशाप्रकारे महाज्ञानी जनकराजाला वठणीवर आणणारी ब्रह्मवादिनी सुलभा. तिला कोटी कोटी प्रणाम.

© सौ. कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये

क्यू 17,  मौर्य विहार, सहजानंद सोसायटी जवळ कोथरूड पुणे

मो. 9527460290

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#123 ☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – “दोहे ” ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर कुछ “दोहे ”)

☆  तन्मय साहित्य  #123 ☆

☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – “दोहे ” ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

मात-पिता की लाड़ली, बच्चों का है प्यार।

संबल है पति की सखी, सुखी करे संसार।।

 

लक्ष्मी बन  घर में भरे, मंदिर जैसे  रंग।

होता है श्री हीन नर, बिन नारी के संग।।

 

इम्तिहान हर डगर पर, मातृशक्ति के नाम।

विनत भाव सेवा करे,  हो करके निष्काम।।

 

घर में गृहणी बन रहे,  बाहर है  तलवार।

जब जैसी बहती हवा, वैसी उसकी धार।।

 

नारी को समझें नहीं, कोई भी कमजोर।

नारी  के ही  हाथ में, पूरे  जग  की डोर।।

 

जीवन के  हर  क्षेत्र  में, है  विशिष्ट  अवदान।

मातृशक्ति नित गढ़ रही, नित नूतन प्रतिमान।।

 

करुणा  ममता  प्रेम का, मधुरिम सा  संचार।

निर्मल जल कल-कल बहे, बहता ऐसा प्यार।।

 

पर्वोत्सव व्रत-धर्म का,  पारम्परिक प्रवाह।

नारी के बल पर टिकी, ये सत्पथ की राह।।

 

सहनशक्ति धरती सदृश, ममतामय आकाश।

चंदा   सी   शीतलमना,   सूर्योदयी   प्रकाश।।

 

दीपक ने आश्रय दिया, खुश है बाती – तेल।

मेल-जोल  सद्भाव का,  उज्वलतम यह मेल।।

 

संस्कृति की संवाहिका, संस्कारों की खान।

प्रवहमान  गंगा  सदृश, फूलों  सी  मुस्कान।।

 

लछमी  जैसी  चंचला, शारद  सी  गंभीर।

दुर्गा सी तेजस्विनी, शीतल जल की झीर।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 99 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 10 – मनुस बली नहीं होत है… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 99 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 10 – मनुस बली नहीं होत है… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

मनुस बली नहीं होत है, समय होत बलवान।

भीलन लूटी गोपिका , बेई अर्जुन बेई वान॥

शाब्दिक अर्थ :- मनुष्य बलवान नहीं होता, समय बलवान होता है। एक समय ऐसा था कि वीर अर्जुन के समक्ष कोई भी बड़ा से बड़ा धनुर्धर नहीं तिक पाता था। अब समय ऐसा आया कि भीलों ने गोपियों को लूट लिया और वही धनुर्धर अर्जुन चुपचाप देखते रहे।

बीरा,जहाँ मैंने यह कहावत पहली बार सुनी, पन्ना जिले की अजयगढ़ तहसील का एक पिछड़ा व दूरस्थ  गाँव है,  जिसके एक ओर केन नदी बहती तो दूसरी ओर ब्रिटिश काल में निर्मित भापतपुर बांध से निकली नालानूमा विशाल नहर। यह उत्तरप्रदेश के बांदा जिले से लगा हुआ, मध्य प्रदेश का सीमांत गाँव है। चित्रकूट, बुंदेलखंड क्षेत्र का एक  प्रसिद्ध तीर्थ स्थल,  जहाँ अयोध्या से निर्वासित भगवान राम ने वनवास के 12 वर्ष बिताए थे, बीरा से ज्यादा दूर नहीं है। बीरा से अजयगढ़ के रास्ते, पिस्टा गाँव के निकट  एक  हरी भरी पहाड़ी है, नाम  है देव पर्वत,  कहते हैं भगवान राम ने विपत्ति भरे अपने वनवास के समय कुछेक रातें इस देव पर्वत पर भी बिताई थी। तुलसी दास भी लिख गए हैं “जा पर विपदा पडत है वह आवत यही देश”(देश मतलब हमारा गर्वीला, पथरीला, दर्पीला बुंदेलखंड)।  राजशाही के जमाने में अनेक ब्राह्मण व उनके चेले चपाटी यादव बांदा और उत्तर  प्रदेश के अन्य भागों से बीरा और उसके आसपास के गांवों में आकर बस गये और राज दरबार में अपने ब्राह्मणत्व का उपयोग कर जमींदारियाँ हासिल कर ली। गुरु ब्राह्मण के पास पोथिओं व पुराणों का ज्ञान था तो चेले यादव के पास शारीरिक बल और हाथ में लट्ठ। गुरु-चेले की इस जुगल जोड़ी ने बीरा जैसे पिछड़े गांवों में अपनी धाक जमा ली और उनका खेती किसानी, दुग्ध उत्पादन के साथ साथ पंडिताई का व्यवसाय फलने फूलने लगा। खेतिहर मजदूर पंडित जी की ज्ञान वाणी सुनते और उनके बहुत से काम बेगारी में ही हँसते मुस्कुराते कर देते। समय बदला देश स्वतंत्र हुआ शिक्षा फैली और समाजवादी नारे मध्यप्रदेश के इस दूर दराज स्थित क्षेत्र में भी सुनाई देने लगे। अब दलित मजदूर पंडित जी के पोथी पत्रा या यादव के बलिष्ठ शरीर  देखकर  प्रभावित न होते और बेगार के लिए तो आसानी से  न मानते। वे ना तो  चेले  के लट्ठ से विचलित होते और न ही बरम बाबा के श्राप से घबराते।

ऐसे ही संक्रमण काल में मेरी पदस्थापना वहाँ हुयी और मैं भारतीय स्टेट बैंक की बीरा शाखा में जनवरी 1990 से मई 1993 तक शाखा प्रबंधक के पद पर कार्यरत रहा। मैं गाँव  में ही रहता और समय बिताने पड़ोसी शुक्लजी (मास साब), उनके पुत्र रमेश व अन्य ग्रामीणों की पौड़ (बारामदा या दहलान) में बैठा करता। ऐसी ही एक सुबह माससाब  ने अपनी पौड़  में बैठे बैठे सामने से पायंलागी कर निकलते हुये एक अधेढ, कलुआ  कोरी,  को आवाज लगाई। कलुआ कोरी आशीर्वाद की लालच में माससाब के सामने आ खड़ा हुआ। माससाब ने उसे ‘खुसी रहा’ का आशीर्वाद दिया और घर के पीछे खलिहान में रखे गेहूँ को बंडा व खौड़ा में संग्रहित करने में मदद करने को कहा। कलुआ ताड़  गया की दो तीन घंटे से भी ज्यादा  का काम है और मजदूरी तो मिलने से रही अत: उसने कोई अन्य काम का बहाना बना इस गमरदंदोर में न फसने की सोची।

उसकी  यह आनाकानी  माससाब को क्रोधित करने के लिए पर्याप्त थी  और कलुआ का बुन्देली गालियों से “पानी उतारबौं” (बेज्जती करना)  चालू हो गया। माससाब ने तो उसे पनमेसुर के पूरे (कपटी व्यक्ति),   ‘मूतत के ना माड़ पसाउत के” (निकम्मा और अकर्मण्य) आदि न जाने क्या क्या कह दिया पर  कलुआ टस से मस न हुआ। वह उनकी बातें सुनता, कुछ प्रतिकार करता, बार बार बक्स देने को कहता  पर बेगारी के लिए तैयार न होता। अंतत: माससाब ने अपना ब्रह्मास्त्र चलाया और यह कहावत कलुआ पर जड़ दी “मनुस बली नहीं होत है, समय होत बलवान।भीलन लूटी गोपिका , बेई अर्जुन बेई वान॥ “ कोरी ने जैसे ही गोपिका और अर्जुन का नाम सुना उसे भगवान कृष्ण की भागवत याद आ गई और वह बोल पड़ा महराज जा  तो भागवत पुराण की बात है हमे भी ईखी की कथा सुना देओ तो जीवन तर जाए। माससाब समझ गए की मछली पटने वाली है और कलुआ अब भौंतेरे में बिदबई वारो है( जाल में फस जाना) लेकिन गला फाड़ चिल्ला चौंट से माससाब थक गए थे अत: उन्होने अपने पुत्र रमेश को कथा सुनाने का दायित्व दे ‘सुट्ट हो जाना’ (शांत रहना)  उपयुक्त समझा। फिर क्या रमेश की पंडिताई चालू हो गई और कथा ऐसे आगे बढ़ी; ‘का भओ कलुआ कै की तैं तो महाभारत की कथा जानत है, पांडवन खों राज दै कै भगवान द्वारका वापस आ गए अब आगे सुन’। एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व और नारद जी आदि ऋषि द्वारिका में पधारे। कलुआ ये सब ऋषि मुनि बड़े सिद्ध ब्राह्मण थे। उन्हे देखकर यादवों की अक्कल चरने चली गई और  सारण आदि यादव,  साम्ब को लुगाई (स्त्री) के वेश में सजा सवांर कर ब्राह्मण मुनियों के पास ले गए और बोले कि हे ब्राह्मण देवता यह महा तेजस्वी वभ्रु की पत्नी ‘पेट से हैं’ (गर्भवती है)। बताइए इसके गर्भ से क्या पैदा होगा। ब्राह्मण देवता रूपी मुनि उड़त चिरईया परखबे में माहिर हते,  वे समझ गए कि यादव लोग उनका मजाक उड़ा रहे हैं। वे क्रोध में बोले कि मूर्खो यह कृष्ण का पुत्र साम्ब स्त्री वेश में है, इसके पेट में मूसल छिपा है जिससे तुम सभी यादवों का नाश हो जाएगा। फिर क्या था, ब्राह्मण देवताओं का श्राप सुनकर  सारे यादव घबरा गए और महाराजा उग्रसेन (कृष्ण भगवान के नाना) के पास पहुँचे। उन्होने मूसल का चूरण बनाकर समुद्र में फिकवा दिया, ताकि मूसल से कोई नुकसान न होने पाये। कुछ दिनों बाद  इसी चूरण से जो काँस (एक प्रकार की घाँस) ऊगी उसे उखाड़ उखाड़ कर सारे यादव अहीर आपस में लड़ मरे। भगवान कृष्ण इससे  बड़े दुखी हो गए और उन्होने भी अपनी लीला ख़त्म करने की सोचते हुये अर्जुन को द्वारका  बुलाया और सभी सोलह हज़ार गोपियों को अपने साथ ले जाने को कहा। अर्जुन ने भगवान का कहना मानते हुये सभी को साथ लेकर  अपनी राजधानी इंद्रप्रस्थ की ओर चल पड़ा। रास्ते में जब अर्जुन ने अपना पड़ाव पंचनद क्षेत्र में  डाला तो वहाँ के लूटेरों ने आक्रमण कर सारा माल आसबाब और गोपियों को लूट लिया। अर्जुन जिसके पास गाँडीव जैसा धनुष था और जो उस समय का सबसे बडा वीर पुरुष था कुछ न कर सका, चुपचाप गोपियों को लुटता पिटता देखता रह गया क्योंकि अब भगवान उसके साथ नहीं थे और उसका समय खराब था। कहानी आगे बढ़ती कि कलुआ बीच में बोल पड़ा वाह महराज वाह भगवान को का भओ जा ओर बता देते तो मोरी आत्मा तर जाती। मासाब समझ गए कि लोहा गरम हो चुका है वे बोले ‘कलुआ पूरी भागवत एकई दिना में नई बाँची जात बाकी किस्सा और कोनऊ दिना आके सुन लईओ अबे तो तुम कलेवा कर लेओ और अपनी गैल पकड़ो।‘

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 16 ☆ गीत – चुनाव की छांव में ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक गीत  “चुनाव की छांव में”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 16 ✒️

?  गीत – चुनाव की छांव में —  डॉ. सलमा जमाल ?

झूठ फरेब का खेल रचें ,

चुनाव की छांव में ।

लुटेरे आए हैं ,आए हैं ,

मेरे गांव में ।।

 

जहां-जहां चुनाव है ,

वहां नहीं है करोना ,

घड़ियाली आंसू है ,

झूठ का ओढ़ना बिछौना ,

एक – एक रैली में हज़ार की,

भीड़ लगी है दांव में ।

लुटेरे ———————–।।

 

धरती पुत्रों के प्राण निछावर,

हुए अम्बर तले ,

टस से मस सरकार हुई ना ,

कितनों के घर जले ,

अभिव्यक्ति पर ताले वरना ,

जेल की छांव में ।

लुटेरे ———————–।।

 

संपत्ति बेचें जो देश की ,

कोई ना रोकने वाला ,

मंदिर – मस्जिद – गुरुद्वारा ,

लगा है चर्च पे ताला ,

राजनीति भवसागर जनता ,

काग़ज़ की छांव में ।

लुटेरे ———————–।।

 

ऊपरवाला कैसे करें ,

कलयुग में रखवाली ,

स्वयं की बगिया को उजाड़े ,

जब बाग़ का माली ,

कर्मों का फ़ल मिलेगा ,

“सलमा” फंसेंगे बलाओं में ।

लुटेरे ———————–।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #22 – परम संतोषी भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)   

☆ कथा – कहानी # 22 – परम संतोषी भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत फिर से, क्या करते हैं आप आज असहमत का कार्यक्रम सुबह फिर जलेबी-पोहा खाने का बना. सबेरे यही किया जाता है, ब्रेकफास्ट और कड़क चाय के बाद ही लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय होते हैं. तो घर से बाहर निकलकर, सीधे सीधे सत्तर कदम चलने के बाद नुक्कड़ पर असहमत के कदम थम गये. दो रास्ते थे, राईट जाता तो मंदिर पहुंचता और लेफ्ट जाता तो गरमागरम जलेबियाँ खाता. असहमत, स्वतंत्र विचारों की रचना थी, गरमागरम जलेबी खाने का फैसला अटल था तो राइट नहीं लेफ्ट ही जाना था. पर नुक्कड़ पर चौबे जी खड़े थे. दोनों एक दूसरे को नज़र अंदाज़ कर सकते थे पर जब असहमत ने चौबे जी से “हैलो अंकल” कहा तो बात से बात निकलने का सिलसिला शुरु हो गया. चौबे जी तो श्राद्ध पक्ष से ही असहमत से खार खाये बैठे थे तो मौके का भरपूर प्रयोग किया. “अरे प्रणाम पंडित जी कहो, अंगरेज चले गये औलाद छोड़ गये. “

असहमत : अरे पंडित जी औलाद नहीं अंगरेजी है, अंग्रेजी छोड़ गये.

चौबे जी: तुम्हारे जैसे अंग्रेजों के गुलाम ही हिंदू धर्म को कमजोर कर रहे हैं तुम नकली हिंदुओं के कारण ही हिंदू एक नहीं हो पाते.

असहमत: अरे चोबे जी, ऐसा तो मत कहो, मैं मंदिर जाता हूँ जब मेरा मन अशांत होता है. “इस्लाम खतरे में है ” बोलबोलकर उन्होंने सरहद पार आतंकवादियों की फसल तैयार कर दी, अब आप हमको क्या सिखाना चाहते हो. भक्त और भगवान का तो सीधा लिंक है फिर ये एकता वाली चुनावी बातें किसलिए.

चौबे जी : हमको ज्ञान मत बांटो, तुम्हारे जैसे दो टके के लोग वाट्सएप पढ़ पढ़ कर ज्ञानी बने घूमते हैं. चलो हमारे साथ, राईट टर्न लो जहाँ मंदिर है.

असहमत : मैं अभी तो लेफ्ट ही लूंगा क्योंकि गरमागरम जलेबी और पोहा मेरा इंतजार कर रहे हैं, डिलीवरी ऑन पेमेंट. चलना है तो आप चलो मेरे साथ. चौबे जी का मन तो था पर बिना मंदिर गये वो कुछ ग्रहण नहीं करते थे.

तो चौबे जी ने अगला तीर छोड़ा ” हिंदू धर्म मानते हो तुम, मुझे तो नहीं लगता.

असहमत : अरे पंडित जी, ऐसी दुश्मनी मत निकालो, बजरंगबली का भक्त हूं मैं, थ्रू प्रापर चैनल पहुंचना है राम के पास. मेरे धर्म में मंदिर हैं, दर्शन की कतारें हैं, पूजा है, आरती है, जुलूस हैं, भंडारे हैं, ऊंचे पर्वतों पर माता रानी बैठी हैं और गुफाओं में शिव, बजरंगबली के दर्शन कभी कभी मंगलवार को कर लेता हूं पर जब यन अशांत होता है तो जरूर मंदिर जाता हूं, बहुत शांति और ऊर्जा मिलती है मुझे.

असहमत के जवाबों और अंदर की आस्था ने, धर्म के ब्रांड एम्बेसडर को हिला दिया. तर्क का स्थान असभ्यता और अनर्गल आरोपों ने ले लिया.

चौबे जी : चल झूठे, दोगला है तू, साले देशद्रोही है.

अब पानी शायद असहमत के सर से ऊपर जा रहा था या फिर गरमागरम जलेबी ठंडी होने की आशंका बलवती हो रही थी पर देशद्रोही होने का आरोप सब पर भारी पड़ा. जलेबी और पोहे को भूलकर, असहमत ने चौबेजी से कहा: अब ये तो आपने वो बात कह दी जिसे कहने का हक आपको देश के संविधान ने दिया ही नहीं. आप मुझे नकली हिंदू कहते रहते हैं मुझे बुरा नहीं लगता पर देशद्रोही, कैसे

  1. मैं तिरंगे का अपमान नहीं करता
  2. जब राष्ट्र गीत बजता है तो मैं चुइंगम नहीं खाता.
  3. मैं रिश्वत नहीं खाता, चंदा नहीं खाता
  4. आपत्तिजनक नारे नहीं लगाता
  5. सेना में भर्ती होना चाहता था पर उनके मानदंडों पर पास नहीं हो पाया.
  6. न मैं देशविरोधी हूँ और ना तो मैं सोचता हूँ न ही मेरी औकात है
  7. मैं कोई अपराध भी नहीं हूँ, बेरोजगारी मुझे कभी कभी गुस्सा दिलाती है तो मैं जिम्मेदार लोगों की आलोचना करने लगता हूँ. मैं अपना वर्तमान सुधारने में लगा हूँ और वो इतिहास सुधारने में. अरे भाई लोगों मेरी चिंता करो, मुझे मेरे वोट का प्रतिदान चाहिये, मेरी समस्याओं का समाधान चाहिये, आपके वादों के परिणाम चाहिए. और आप हैं लगे हुये अगली वोटों की फसल उगाने में. एक फसल जाती है फिर दूसरी आती है और हमारे जैसे लोग हर गली हर नुक्कड़ पर इंतजार करते हैं वादों और सपनों के साकार होने का.

बात चौबे जी के लेवल की नहीं थी, उनके बस की भी नहीं तो उन्होंने इस मुलाकात का दार्शनिक अंत किया, वही संभव भी था और मंदिर की ओर बढ़ गये.

 “होइ हे वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढावे साखा”

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक १९ – भाग ३ – विद्या आणि कला यांचं माहेरघर – ग्रीस ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १९ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ विद्या आणि कला यांचं माहेरघर– ग्रीस ✈️

दुसऱ्या दिवशी सॅऺटोरिनी बेट ते अथेन्स हा प्रवास एका अवाढव्य क्रूझमधून केला. अडीच ते तीन हजार माणसं आणि कितीतरी मोटारी , ट्रक पोटात घेऊन ती क्रूझ, पोपटी पाण्यावर पांढऱ्या समुद्र फेसाची नक्षी काढत डौलात चालली होती. प्राचीन काळापासून ग्रीकांची समुद्रावर सत्ता होती. इथूनच धाडशी खलाशांनी आपली गलबतं रशिया आणि पार इंग्लंड फ्रान्स इटलीपर्यंत नेऊन व्यापार केला होता.  ग्रीसच्या वैभवात भर टाकली होती.

आज अथेन्सहून डेल्फी इथे जायचं होतं. ग्रीक पौराणिक कथांप्रमाणे झ्यूस हा देवांचा देव आहे.  डेल्फी हे झ्यूसच्या मुलाचं म्हणजे अपोलोचं ठिकाण आहे.  अथेन्सपासून डेल्फीपर्यंतचा रस्ता अतिशय सुंदर होता. पारोसनेस पर्वतांच्या निळ्या-हिरव्या सलग रांगा पसरल्या होत्या. सुपीक जमिनीत द्राक्षं, सफरचंद, पीच, चेरी यांच्या बागा व गहू मका अशी शेती होती. ऑलिव्ह वृक्षांच्या बागा होत्या. मेपल आणि बर्चची झाडं होती.ग्रीक पुराणकथेप्रमाणे झ्यूस देवाने  पृथ्वीचे मध्यवर्ती स्थान शोधण्यासाठी पूर्व आणि पश्चिमेला दोन गरुड पाठविले. त्यांची गाठ डेल्फी इथे पडली. म्हणून डेल्फी ही पृथ्वीची बेंबी आहे असं ग्रीक मानत.

पाच हजार वर्षांपूर्वी पर्वतांच्या कुशीमध्ये अपोलोचं व अथिनाचं अशी दोन महाप्रचंड देवालये होती. या धर्मकेंद्रात भाविकांचा ओघ असे. लोकप्रिय व श्रीमंत अशा या देवालयांनी  एक हजार वर्षांचा सुवर्णकाळ अनुभवला. नंतर रोमन सम्राट थिओडोसिअस याने डेल्फीचा नाश केला. नंतरच्या भूकंपामध्ये दोन्ही मंदिरे व डेल्फी जमिनीत गाडली गेली.  साधारण दोनशे वर्षांपूर्वी उत्खननातून हे अवशेष मिळाले.

उंचावरील अपोलोच्या देवळाच्या मूळ ४० खांबांपैकी आता सहाच खांब शिल्लक आहेत.पुढे ॲ॑फी  थिएटरचे अवशेष आहेत. आता या ठिकाणी प्राचीन नाट्यशास्त्र,पुरातत्व,नाटकं, संगीत या विषयांवरील परिषदा आणि कार्यशाळा आयोजित केल्या जातात.

म्युझियमची इमारत प्रशस्त, देखणी आहे. आतल्या तेरा मोठ्या दालनात प्राचीन इतिहास, संस्कृती, कला यांची झलक दाखविणारी शिल्प व इतर वस्तू आहेत.म्युझियमच्या प्रवेशद्वाराजवळ ओम्फालस म्हणजे नाभी- स्तंभ आहे.  उत्तम कोरीव काम असलेल्या या शिल्पाला कळीसारखा शेंडा आहे.

अपोलोची चार घोड्यांच्या रथावरील मूर्ती अतिशय देखणी आहे. स्त्री-पुरुषांच्या इतर अनेक शिल्पातून स्नायूंची प्रमाणबद्धता, मानवी शरीराची रचना, चेहऱ्यावरील भावभावना, पोशाख, केशरचना, दागिने यांचं मार्बलमधून कोरलेलं, जिवंत वाटणारं दर्शन होतं. मोझॅइक भित्तीचित्र आहेत. भाजलेल्या मातीचे रंगविलेले कलश,  उंच उभे रांजण, भूमितीमधील त्रिकोण, षट्कोन, वर्तुळ यांच्यातील सुंदर आकृती, दागिने ठेवण्याची नक्षीदार पात्रे, गर्भवती स्त्रिया, स्तनपान करणाऱ्या स्त्रिया अशा प्रकारच्या अनेक कलाकृतीतून एका समृद्ध, संपन्न संस्कृतीचं दर्शन होतं.

ब्रांझच्या रथाचा सारथी उजव्या हाताने घोड्याचा लगाम खेचतोय. त्याचा डावा हात अर्धवट तुटलेला आहे. पण त्याच्या पायघोळ वस्त्राच्या चुण्या, डोळ्यातील जिवंत भाव पहाण्यासारखे आहेत. सुवर्ण विभागात स्त्रियांच्या गळ्यातील नाजूक डिझाईनचे हार, नाना प्रकारचे रत्नजडित अलंकार, रत्नजडित भांडी, डिश, पेले आहेत. देवालयाच्या स्तंभांवरील कोरीव पट्टिका, सिंहाचं अंग आणि  मानवी चेहरा व पंख असलेला स्फिंक्स, डोक्यावर ब्रांझच्या मोठ्या  घमेल्यात यज्ञकुंड घेतलेली स्त्री ,मार्बलच्या कोरीव स्टॅन्डवरील तीन देवतांच्या मूर्ती अशा सार्‍या कलाकृती बघण्यासारख्या आहेत.

गाईडने एका उंचावरील हॉटेलमध्ये स्थानिक पद्धतीचं जेवण घेण्यासाठी नेलं. हॉटेलच्या काचेच्या खिडक्यांमधून दूरवरील डोंगर रांगा आणि खालची दरीतली घरं, हिरवी शेती, झाडं, दिसत होती. प्रथम लिंबाचं सरबत व उकडलेल्या, सॉस घातलेल्या  भाज्यांची डिश दिली.  त्या नंतर मोठ्या टोमॅटोमध्ये भरलेला भात आला.या भाताला  याहिस्ता असं म्हणतात. आम्ही एके ठिकाणी द्राक्षाच्या पानात गुंडाळलेला डोल्मा राईस खाल्ला होता. त्यापेक्षा याहिस्ता चविष्ट होता. सुवलाकी म्हणजे चिकन किंवा मेंढीचे मांस भाजून केलेला पदार्थ लोकप्रिय आहे. टोमॅटो राईसनंतर चॉकलेट पुडिंग्जचा आस्वाद घेऊन स्थानिक जेवणाला मनापासून सलाम केला. बाहेर बाजारात घेतलेली बकलावा म्हणजे ड्रायफ्रूट भरलेली छोटी गुंडाळी चविष्ट होती.

आम्ही ग्रीसला गेलो त्यावेळी ग्रीसची आर्थिक परिस्थिती डबघाईला आलेली होती. एक कोटीहून अधिक लोकसंख्या असलेला  ग्रीस, ‘आहे मनोहर तरी……..’ अशा परिस्थितीत होता. वरवर उत्तम, सुंदर दिसंत असलं तरी प्रत्यक्षात ग्रीसचा एक पोकळ डोलारा झाला होता. अर्थव्यवस्था घसरणीला लागली होती.१९७३ साली  ग्रीसमध्ये प्रजासत्ताक राज्याची स्थापना झाली. नंतर तो देश नाटोचा मेंबर झाला. १९८१ मध्ये ग्रीस युरोपियन युनियनचा सदस्य झाला. पश्चिम युरोपच्या मदतीने आर्थिक सुधारणांचा कार्यक्रम राबविण्यात येत आहे पण त्याची गती खूपच कमी आहे. क्षमतेपेक्षा जास्त कर्जाची उचल, वाढती वित्तीय तूट, आणि ती तूट भरून काढायला अधिक कर्ज असं दुष्टचक्र सुरू आहे. राजकीय अस्थैर्य वाढलं. बेरोजगारी आणि असंतोष वाढला .अथेन्समधील भिंती निषेधाच्या काळ्या रंगातील ग्राफिटीने भरून गेल्या होत्या. युरोपियन युनियनच्या आधीन झालेल्या या देशाला कडक आर्थिक निर्बंधाना तोंड द्यावं लागत  आहे.

सध्याच्या अतिवेगवान जगामध्ये इतिहासकालीन समृद्धीवर, स्मरणरंजनावर फार काळ जगता येणार नाही हा धडा ग्रीस कडून मिळाला आहे.

सॅ॑टोरीनी  बेटावर जाताना अथांग, पोपटी पारदर्शक समुद्राच्या दोन्ही कडांचे पर्वत पाहून ,’ समुद्र वसने देवी, पर्वत:स्तन मंडले….’ या श्लोकाची आठवण येत होती. सध्या या ‘विष्णुपत्नी लक्ष्मी’ चा ग्रीसवरील रुसवा घालविण्यासाठी प्रयत्न चालू आहेत.

भाग 3 व ग्रीस समाप्त

 © सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 24 – सजल – जल बिन करते आचमन… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “जल बिन करते आचमन… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 24 – दोहाश्रित सजल – जल बिन करते आचमन… 

समांत- ऊल

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 24

 

मेघ कहीं दिखते नहीं, राह गए हैं भूल।

अंतर्मन में चुभ रहे, बेमौसम के शूल।।

 

उल्टी पुरवा बह रही, हरियाली वीरान।

प्यासी धरती है गगन, बिन जल है निर्मूल।।

 

मानसून को देखकर, मानव है बेचैन।

हरे-भरे सब वृक्ष भी, सूख गए जड़-मूल।।

 

कृषक देखता मेघ को, रोपें कैसे धान।

खेतों में सूखा पड़ा, है उड़ती बस धूल।।

 

अखबारों में है छपा, उत्तर दक्षिण बाढ़।

मध्य प्रांत सूखा पड़ा, मौसम है प्रतिकूल।।

 

जल बिन करते आचमन, अंदर श्रद्धा भक्ति,

भादों में जन्माष्टमी, रहे कृष्ण हैं झूल।।

    

सभी बाग उजड़े पड़े, देख सभी हैरान ।

पूजन अर्चन के लिए, नहीं मिलें अब फूल।।

 

वर्षा ऋतु का आगमन, जल की नहीं फुहार ।

पूजन शिव परिवार का, हो वर्षा अनुकूल।।

 

इन्द्र देव से प्रार्थना, भेजो काले मेघ।

कृपा दृष्टि चहुँ ओर हो, यही मंत्र है मूल।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

10 जुलाई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा #110 – “विचारों का टैंकर” (व्यंग्य संग्रह) – श्री अशोक व्यास ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री अशोक व्यास जी की पुस्तक  “विचारों का टैंकर” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 110 ☆

☆ “विचारों का टैंकर” (व्यंग्य संग्रह)  – श्री अशोक व्यास ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

व्यंग संग्रह  … विचारों का टैंकर

व्यंगकार … श्री अशोक व्यास

पृष्ठ : १३२     मूल्य : २६० रु.

प्रकाशक : अयन प्रकाशन , दिल्ली

आईएसबीएन : ९७८९३८८३४७१४६६    

संस्करण : प्रथम , वर्ष २०१९

मैंने श्री अशोक व्यास को व्यंग्य पढ़ते सुना है. वे लिखते ही बढ़िया नही हैं, पढ़ते भी प्रभावी तरीके से हैं. व्यंग्य में निहित आनंद, चटकारे और अंततोगत्वा लेखन जनित संदेश का विस्तार ही  रचनात्मक उद्देश्य होता है, जो व्यंग्यकार को संतुष्टि प्रदान करता है. अशोक व्यास पेशे से इंजीनियर रहे हैं, सेवानिवृति के बाद वे निरंतरता से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं, उन्हें मैंने अखबारो में अनेक बार पढ़ा था, कुछ समय पूर्व उनका जबलपुर आगमन हुआ और भेंट भी. विचारों का टैंकर उनकी सद्यः प्रकाशित पहली व्यंग्य कृति है. किताब बढ़िया गेटअप में हार्ड बाउंड प्रकाशित हुई है. इसके लिये प्रकाशक को पूरे नम्बर जाते हैं. पुस्तक में संजोये  गये  व्यंग्य आलेख मैंने पिछले दो तीन दिनो में  पढ़े. वे व्यवहारिक बोलचाल की भाषा का उपयोग करते हैं. अंग्रेजी शब्दो का भी बहुतायत में प्रयोग है, तो  तत्सम शुद्ध शब्द कटाक्ष के लिये प्रयुक्त किये गये हैं.अशोक जी अधिकांशतः बातचीत की शैली में  लिखते हैं.

व्यंग्य अनुभव जनित लगते हैं. सच तो यह है कि  व्यंग्यकार की संवेदन शीलता उसके अपने व्यक्तिगत या उसके परिवेश में किसी अन्य के सामाजिक कटु अनुभव व विसंगती तथा लोगो का व्यवहारिक दोगलापन ही व्यंग्य लेखन के लिये प्रेरित करते हैं. व्यंग्यकार का रचनाकार संवेदन शील मन सामाजिक विडंबनाओ को पचा नही पाता तो उसके मन में विचारो का बवंडर खड़ा हो जाता है वह  अपने मन में चल रही उथल पु्थल और खलबली को  लिखकर किंचित शांति पाने का यत्न करता है. इस प्रक्रिया में जब रचनाकार अमिधा की जगह लक्षणा और व्यंजना शक्तियो का प्रयोग करता है तो उसके कटाक्ष पाठक को कभी गुदगुदाते हैं, कभी हंसाते हैं, कभी भीतर ही भीतर रुला देते हैं.अपने इन विचारो को ही अशोक जी ने एक टैंकर में  भर कर पाठको के सम्मुख सफलता पूर्वक रखा है.

पाठक या श्रोता व्यंग्य के आस पास से ही उठाये गये  विषय की वैचारिक विडम्बना पर सोचने को मजबूर हो जाता है.उनकी सफलता घटना का सार्वजनीकरण इस तरह करने में  है कि व्यक्ति कटाक्ष को पढ़कर, कसमसा कर रह जाने पर मजबूर हो जाता है.

व्यंग्य लेखन व्यंग्यकारों का उद्घोष है कि वह समाज की गलतियो के विरोध में अपनी कलम के साथ प्रहरी के रूप में खड़ा है. विडंबना यह है समाज इतनी मोटी चमड़ी का होता जा रहा है कि आज जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह उसे हास्य में उड़ा देता है और लगातार अंतिम संभावना तक कुतर्को से स्वयं को सही सिद्ध करने का यत्न करता रहता है. यही कारण है कि त्वरित प्रतिक्रिया का लेखन व्यंग्य, जो प्रायः अखबारो के संपादकीय पन्नो पर छपता है, अब पुस्तको का स्थाई स्वरूप लेने को मजबूर है. विडम्बनाओ, विसंगतियो को जब तक समाज स्थाईभाव देता रहेगा व्यंग्य की पुस्तके प्रासंगिक बनी रहेंगी. व्यंग्यकार की अभिव्यक्ति उसकी विवशता है. सुखद है कि व्यंग्य के पाठक हैं, मतलब सच के समर्थक मौजूद हैं, और जब तक नैसर्गिक न्याय के साथ लोग खड़े रहेंगे  तब तक समाज जिंदा बना रहेगा. आदर्श की आशा है.

पुस्तक के शीर्षक व्यंग्य विचारों का टैंकर में वे लिखते हैं ” अब उनके विचारों का प्रेशर समाप्त होने वाला था,… वे अगले दौर में फिर अपनी नई नई सलाहों के साथ हाजिर होंगें… मैंने भी सहमति में सिर हिलाया जिससे उनकी सलाह मेरे सिर से इधर उधर बिखर जावे… बिन मांगे सलाह देने वाले फुरसतियों पर यह अच्छा व्यंग्य है. कई नामचीन व्यंग्यकारो ने इस विषय पर लिखा है, क्योकि ऐसे बिना मांगे सलाह देने वाले चाय पान के ठेलो से लेकर कार्यालय तक कही न कही मिल ही जाते हैं. अशोक जी ने अपने लेखनी कौशल व स्वयं के अनुभव के आधार पर अच्छा लिखा है. शब्दो की मितव्ययता से और प्रभावी संप्रेषण संभव था.

जित देखूं उत मेरा लाल, कट आउट होने का दुख, युवा नेता से साक्षात्कार, टाइम नही है, ठेकेदार का साहित्त्य,दास्तान ए साड़ी, राग मालखेंच, घर का मुर्गा, भ्रष्टाचार की जड़, आम आदमी की तलाश, रिमोट कंट्रोल, चुप बहस चालू है, संसार का पहला एंटी हीरो, सरकार का चिंतन, सरकारी और गैर सरकारी मकान, मांगना एक श्वेत पत्र का, ज्ञापन से विज्ञापन तक, बारात की संस्कृति, जेलसे छूटने की पटकथा, राजनीति के श्वेत बादल, सम्मानित होने का भय, कुत्तो के रंगीन पट्टे, साहित्य माफिया, कटौती प्रस्ताव, इक जंगला बने न्यारा, क्रिकेट का असली रोमांच, आई डोंट केयर, वी आई पी कल आज और कल भी, नई सदी का नयापन, मरना उर्फ महान होना, एक घोटाले का सवाल है बाबा, ऐसा क्यो होता है, नागिन डांस वाले मुन्ना भाई, चर्चा चुनाव की, लेखन का संकट जैसे रोचक टाइटिल्स के सांथ कुल ३६ व्यंग्य आलेख किताब में हैं.

व्यंग्य के मापदण्डो पर इन लेखो में कथ्य है, कटाक्ष है, भाषाई करिश्मा पैदा करने के यत्न जहां तहां देखने मिलते हैं, सामयिक विषय वस्तु है, वक्रोक्ति हैं, घटना को कथा बनाने की निपुणता भी देखने मिलती है, किंचित  संपादन की दृ्ष्टि से स्वयं पुनर्पाठ या मित्र मण्डली में चर्चा से कुछ लेख और भी कसावट के साथ प्रस्तुत किये जाने की संभावना पढ़ने पर मिलती है. हमें अशोक जी की अगली किताबों में यह मूर्त होती मिलेगी. विचारो के टैंकर के लिये वे बधाई के सुपात्र हैं, वे शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी और परसाई परम्परा के ध्वज वाहक बने हैं, उन्हें कबीर के दिझखाये मार्ग पर बहुत आगे तक का सफर पूरा करना है. स्वागत और शुभकामना क्योकि इस राह में सम्मान मिलेगा तो कभी अपनो के पत्थर और गालियां भी पड़ेंगी, पर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना होगा.लेखकीय शोषण एवं हिन्दी पुस्तकों की बिक्री की जो वर्तमान स्थितियां है, वे  छिपी नहीं है, ऐसे समय में  सारस्वत यज्ञ का मूल्यांकन भविष्य जरूर करेगा, इसी आशा के साथ.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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