ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १३ मार्च – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆  १३ मार्च -संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

दत्तात्रय कोंडो घाटे

दत्तात्रय कोंडो घाटे ऊर्फ कवी दत्त (27 जून 1875 – 13 मार्च 1899). हे मूळचे श्रीगोंद्याचे. त्यांचे शालेय शिक्षण नगरमध्ये, तर महाविद्यालयीन शिक्षण मुंबई, इंदूर, कलकत्ता येथे झाले. नंतर ते पुण्याच्या नू. म. वि.मध्ये शिक्षक होते.

रेव्ह. ना. वा. टिळक, कविवर्य चंद्रशेखर  वि कवी दत्त या तिघांचे सख्य होते.

‘बा नीज गडे ‘ ही कवी दत्तांची लोकप्रिय कविता. त्यांनी 1897-98 मध्ये बहुसंख्य कविता लिहिल्या. त्या वेगवेगळ्या नियतकालिकांतून प्रसिद्ध झाल्या. त्यापैकी 48 कवितांचा ‘दत्तांची कविता ‘हा संग्रह त्यांचे पुत्र शिक्षणतज्ज्ञ व साहित्यिक वि. द. घाटे यांनी 1922 साली प्रसिद्ध केला. डॉ. मा. गो. देशमुखसंपादित संग्रहात त्यांच्या सर्व म्हणजे 51 कविता आहेत.

आकाशानंद

आकाशानंद ऊर्फ आनंद बालाजी देशपांडे (1933-13 मार्च 2014). आकाशानंद हे पूर्वी नागपूर नभोवाणी केंद्रात कार्यक्रम निर्माते होते. नंतर 1972 पासून मुंबई दूरदर्शन केंद्रात आले.1992 साली ते तिथे उपसंचालक पदावरून  निवृत्त झाले.

त्यांनी सादर केलेले ‘ऐसी अक्षरे ‘, ‘शालेय चित्रवाणी’  व ‘ज्ञानदीप ‘हे कार्यक्रम अतिशय लोकप्रिय झाले.

1988मध्ये ‘ज्ञानदीप’ या कार्यक्रमावर बीबीसीच्या एलिझाबेथ स्मिथ यांनी 45 मिनिटांचा लघुपट केला. याच कार्यक्रमावर अमिता भिडे यांनी पीएचडी मिळवली.

‘ज्ञानदीप’वर आधारित असलेले ‘ज्योत एक सेवेची’ हे मासिक त्यांनी 25 वर्षे चालवले.

1992मध्ये निवृत्त झाल्यावर त्यांनी पहिल्या ‘ज्ञानदीप’ मंडळाची स्थापना केली. त्यांचा विस्तार होऊन राज्यात 1500 मंडळे स्थापन झाली.

त्यांनी ‘माध्यम चित्रवाणी’ वगैरे  पाच पुस्तके व बालसाहित्यात 300 गोष्टीची पुस्तके लिहिली.

त्यांच्या ‘माध्यम चित्रवाणी’ या दूरचित्रवाणी या विषयावरील पहिल्या मराठी पुस्तकाला राज्यसरकारचा सर्वोत्कृष्ट पुस्तकाचा पुरस्कार मिळाला.

याशिवाय त्यांना गोंदियाभूषण व सेवाश्री पुरस्कारही मिळाले.

मालतीबाई किर्लोस्कर

मालतीबाई किर्लोस्कर या विख्यात मराठी संपादक व लेखक शंकरराव किर्लोस्करांच्या कन्या.

त्या सांगलीच्या विलिंग्डन कॉलेजमध्ये मराठीच्या प्राध्यापिका होत्या. त्या अतिशय सुंदर शिकवत असत.

पक्की वाङ्‌मयीन व वैचारिक बैठक, भारदस्त व्यक्तिमत्त्व व विपुल व्यासंग ही त्यांची प्रमुख वैशिष्ट्ये. त्या परखड व स्पष्टवक्त्या होत्या.

त्या ‘किर्लोस्कर’, ‘स्त्री’ व ‘मनोहर’ मध्ये अधूनमधून लिहीत असत.

‘भावफुले’ व ‘फुलांची ओंजळ’ हे त्यांचे व्यक्तीचित्रसंग्रह प्रसिद्ध आहेत.

13 मार्च 2017 ला त्यांचे निधन झाले.

रमेश मुधोळकर

बालसाहित्यकार व चित्रकार रमेश मुधोळकर (19.07.1935 – 13.03.2016) यांचा जन्म व प्राथमिक शिक्षण मलकापूर येथे झाले.पुढे ते मुंबईला आले. तिथे माध्यमिक शिक्षण घेतल्यानंतर जे. जे. कला महाविद्यालयातून कमर्शियल आर्टचे शिक्षण घेतले.

1972मध्ये त्यांचे अनुवादित पुस्तक प्रसिद्ध झाले.1974 मध्ये त्यांनी ‘शालापत्रक’ हे मासिक सुरू केले. बालकुमारांवर संस्कार करणारी सुमारे 300 पुस्तके त्यांनी लिहिली. त्यात ‘इसाप’, ‘गलिव्हरच्या गोष्टी’, ‘बिरबल आणि बादशहाच्या 175 गोष्टी’ यांचा समावेश आहे.

जयको पॉकेट बुक्स व अमर चित्रकथा तसंच एको बुक्स या पुस्तक मालिकांच्या निर्मितीत त्यांचा मोठाच वाटा आहे.

देशोदेशीच्या रसाळ कथा, तसंच खगोलशास्त्र, चित्रकला, अक्षरचित्रांसह अंकलिपी, भारतीय विज्ञान सप्तर्षी, भारतरत्न, पक्षी, प्राण्यांचे बंड, बडबडगीत असे बरेच लेखन त्यांनी मराठी व इंग्रजीतून केले. त्याचप्रमाणे शंकरमहाराज व दिगंबरदास महाराज यांच्या गोष्टींमधून त्यांनी संदेशपर लेखन केले.

‘अखिल भारतीय मराठी बालकुमार साहित्य संमेलन’ या संस्थेचे ते संस्थापक -सदस्य होते.

2009मध्ये त्यांच्या लेखनाची नोंद ‘लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड’मध्ये करण्यात आली.

13 मार्च 2016 मध्ये पुणे येथे त्यांचा देहांत झाला.

कवी दत्त, आकाशानंद, मालतीबाई किर्लोस्कर व रमेश मुधोळकर यांना स्मृतिदिनानिमित्त सादर अभिवादन.  ??

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ :साहित्य साधना कऱ्हाड, शताब्दी दैनंदिनी. विकिपीडिया, इंटरनेट. मराठीसृष्टी. कॉम

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ मातेच्या प्रेमा उपमा नाही ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? मातेच्या प्रेमा उपमा नाही ! ? ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆ 

जरी फिराल सारे ब्रह्मांड

अथवा शोधाल दिशा दाही,

असो मानव वा मुकाप्राणी

मातेच्या प्रेमा उपमा नाही !

उभी गोमाता तप्त उन्हात

बसे बछडा तिच्या छायेत,

मातृप्रेमाची अनोखी रीत

ना पाहिली दूजी या जगात !

छायाचित्र – श्री सुधीर बेल्हे,कॅलिफोर्निया

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

१९-०२-२०२२

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #132 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल-20 – “होली पर बात करेंगे” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “होली पर बात करेंगे…”)

? ग़ज़ल # 20 – “होली पर बात करेंगे” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

दिल खुलने लगे कुछ बात करेंगे,

मोबाइल न लाना कुछ बात करेंगे।

 

दिन बुरे गुजरे कोरोना के संग,

अब बातों बातों में रात करेंगे।

 

निपटे मंदिर-मस्जिद के झगड़े,

प्यार मुहब्बत की बात करेंगे।

 

बहुत हुए फ़ासले लोगों के बीच,

आपस में मिला एक पाँत करेंगे।

 

छँटा आशंका का मनहूस साया,

रंग ओ गुलाल बरसात करेंगे।

 

दिमाग़ी धुँध भी छँटेगी ज़रूर,

दिल से दिल की बात करेंगे।

 

तुम बस चले भर आओ आज,

होली पर ढीले जज़्बात करेंगे।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#72 ☆ गजल – ’’कला और गुण की बहुत कम है कीमत’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “कला और गुण की बहुत कम है कीमत”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 72 ☆ गजल – ’’कला और गुण की बहुत कम है कीमत’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

जो देखा औ’ समझा, सुना और जाना

किसे कहें अपना औ’ किसको बेगाना।

यहाँ कोई दिखता नहीं है किसी का

अधिकतर है धन का ही साथी जमाना।

कला और गुण की बहुत कम है कीमत

जगत ने है धन को ही भगवान माना।

धनी में ही दिखते है गुण योग्यतायें

सहज है उन्हें सब जगह मान पाना।

गरीबों की दुनियाँ  में हैं विवशताएँ

अलग उनके जीवन का है ताना-बाना।

उन्हें जरूरत तक को पैसे नहीं हैं

धनी खोजते खर्च का कोई बहाना।

है जनतंत्र में कुछ नये मूल्य विकसे

बड़ा वह जिसे आता बातें बनाना।

सदाचार दुबका है चेहरा छुपायें

दुराचार ने सीखा फोटो छपाना।

विजय काँटों को हर जगह मिल रही है

सही न्याय युग गया हो अब पुराना।

सही क्या, गलत क्या ये कहना कठिन है

न जाने कहाँ जा रहा है जमाना।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#82 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #82 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा था जो एक आश्रम को संरक्षण दे रहा था। यह आश्रम एक जंगल में था। इसके आकार और इसमें रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही थी और इसलिए राजा उस आश्रम के लोगों के लिए भोजन और वहां यज्ञ की इमारत आदि के लिए आर्थिक सहायता दे रहा था। यह आश्रम बड़ी तेजी से विकास कर रहा था। जो योगी इस आश्रम का सर्वेसर्वा था वह मशहूर होता गया और राजा के साथ भी उसकी अच्छी नजदीकी हो गई। ज्यादातर मौकों पर राजा उसकी सलाह लेने लगा। ऐसे में राजा के मंत्रियों को ईर्ष्या होने लगी और वे असुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन उन्होंने राजा से बात की – ‘हे राजन, राजकोष से आप इस आश्रम के लिए इतना पैसा दे रहे हैं। आप जरा वहां जाकर देखिए तो सही। वे सब लोग अच्छे खासे, खाते-पीते नजर आते हैं। वे आध्यात्मिक लगते ही नहीं।’ राजा को भी लगा कि वह अपना पैसा बर्बाद तो नहीं कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर योगी के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान भी था। उसने योगी को बुलवाया और उससे कहा- ‘मुझे आपके आश्रम के बारे में कई उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिली हैं। ऐसा लगता है कि वहां अध्यात्म से संबंधित कोई काम नहीं हो रहा है। वहां के सभी लोग अच्छे-खासे मस्तमौला नजर आते हैं। ऐसे में मुझे आपके आश्रम को पैसा क्यों देना चाहिए?’

योगी बोला- ‘हे राजन, आज शाम को अंधेरा हो जाने के बाद आप मेरे साथ चलें। मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं।’

रात होते ही योगी राजा को आश्रम की तरफ लेकर चला। राजा ने भेष बदला हुआ था। सबसे पहले वे राज्य के मुख्यमंत्री के घर पहुंचे। दोनों चोरी-छिपे उसके शयनकक्ष के पास पहुंचे। उन्होंने एक बाल्टी पानी उठाया और उस पर फेंक दिया। मंत्री चौंककर उठा और गालियां बकने लगा। वे दोनों वहां से भाग निकले। फिर वे दोनों एक और ऐसे शख्स के यहां गए जो आश्रम को पैसा न देने की वकालत कर रहा था। वह राज्य का सेनापति था। दोनों ने उसके भी शयनकक्ष में झांका और एक बाल्टी पानी उस पर भी उड़ेल दिया। वह व्यक्ति और भी गंदी भाषा का प्रयोग करने लगा। इसके बाद योगी राजा को आश्रम ले कर गया। बहुत से संन्यासी सो रहे थे।उन्होंने एक संन्यासी पर पानी फेंका। वह चौंककर उठा और उसके मुंह से निकला – शिव-शिव। फिर उन्होंने एक दूसरे संन्यासी पर इसी तरह से पानी फेंका। उसके मुंह से भी निकला – हे शंभो। योगी ने राजा को समझाया – ‘महाराज, अंतर देखिए। ये लोग चाहे जागे हों या सोए हों, इनके मन में हमेशा भक्ति रहती है। आप खुद फर्क देख सकते हैं।’ तो भक्त ऐसे होते हैं।भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही करते रहें। भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है।

भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है। जिसे मैं भक्ति कहता हूं उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है। भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है। उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मायेचे पीठ… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मायेचे पीठ… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

पहाटच्या पाऱ्यामंधी

माझी माय दळे पीठ ,

घरघरत्या जात्यावरी

तिचा घास दळे नीट .

               जात्याच्या भवताली

               मायेचे पीठ सांडे,

               सुखी घरादारासाठी

               दुःख जात्याशीच मांडे .

रोज  दळता  दळण

माय गात ऱ्हाते ओवी ,

तिच्या ममतेत सारे

घरदार सुखी होई .

               माय दळून कांडून

               अशी झिजतच जाते ,

               घरघरत्या जात्याला

               तिचे जितेपण येते .

 

© प्रा.अरुण कांबळे बनपुरीकर

बनपुरी ता.आटपाडी जि.सांगली

मो ९४२११२५३५७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 93 – आक्रंदन पिडीतांचे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 93 – आक्रंदन पिडीतांचे ☆

गगनांतरी भिडाले

आक्रंदन पिडीतांचे।

झांजावाती निघाले

तांडव महापूराचे।

 

ओठाता स्तब्ध झाल्या

निःशब्द भावना या।

निजधाम सोडूनिया

कित्येक गेले विलया.

अशूंचे गोठ नयनी

आक्रंदतात कोणी।

शून्यात नेत्र दोन्ही

स्वप्नेच गेली विरूनी।

 

देईना साथ कोणी

थारा न देई धरणी।

जावे कुठे जीवांनी

घरट्याविना पिलांनी

भांबावल्या मनांना

समजावूनी कळेना।

सेल्फीत दंग मदती

जगण्याची प्रेरणा ना।

  

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कोनाडा… भाग 2 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

 

? जीवनरंग ❤️

☆ कोनाडा… भाग 2 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

ती जशी प्रेमळ ,तशी त्रासदायकही होती.तिचं कुणी ऐकलं नाही की ती त्या गोष्टीचा इतका पिच्छा पुरवायची की शेवटी कंटाळून तिचं ऐकावच लागायचं.

एकदा आठवतंय् दिवस पावसाळ्याचे होते.

पण म्हणावा तसा पाऊस अजुन कोसळत नव्हता.त्या दिवशी तर चक्क उन पडलं होतं.

आभाळ अगदी मोकळं,निरभ्र होतं..तरीही घरातून निघताना जीजी म्हणाली,

“छत्री घे….”

काय तरी काय? इतक्या कडक उन्हात मी छत्री घेतली तर माझ्या मैत्रीणी मला हंसतील..आणि मी छत्री कुठेतरी विसरेनही..

पण गंमत झाली. संध्याकाळी वातावरण एकदम बदललं.. आकाश काळंकुट्ट झालं.

ढगांचा गडगडाट .विजांचा लखलखाट. वादळी वारा आणि मुसळधार पाऊस. ओली झालेली मी कशीबशी बसमधून टेंभी नाक्यावर उतरले. तर बस स्टाॅपवर जीजी डोक्यावर एक आणि हातात एक छत्री घेऊन उभी..!!

ते चित्र कायम माझ्या डोळ्यासमोर आहे.

त्या दिवसाची तिची ती काळजीभरली प्रेममय नजर मनात कोरली गेली आहे.

“अग!!तू कशाला आलीस इतक्या पावसात?”

“कार्टे तुला सकाळी छत्री घेउन जायला सांगितलं तर ऐकलं नाहीस. हट्टी द्वाड..

किती भिजली आहेस…न्युमोनिया झाला तर? परीक्षा जवळ आली आहे…””

रस्ताभर ती बोलत होती.

घरात शिरल्याबरोबर, स्वत:च्या पदरानेच तिनं माझं डोकं खसाखसा पुसलं.. गरम पाण्यात चमचाभर ब्रांडीही पाजली..

कितीतरी वेळ नुसती अस्वस्थ होती…

लहानपणी  मला वरचेवर सर्दी, खोकला ताप यायचा.. डांग्या खोकल्याने मी दोन महिने आजारी होते. कितीतरी औषधे.. इंजेक्शने झाली.पण खोकला काही थांबायचा नाही. एक दिवस कंटाळून मी जीजीला म्हटलं,

“जीजी आता तूच मला बरं कर..तू दिलेलं

कितीही कडु औषध मी पीईन! पण हा खोकला थांबव.. नाहीतर मी मरुन जाईन..”

तिच्या अंत:करणातला मायेचा झरा, तिच्या डोळ्यातून ठिबकला. एरवी मला सतत ‘कार्टी भामटी’म्हणणारी.. तिनं मला पदरात वेढून घेतलं…

“असं बोलू नकोरे बाबा… संध्याकाळच्या वेळी कसलं हे अभद्र बोलणं..मी कशी मरु देईन तुला?”

अन् तिने माझे मटामट मुके घेतले…

मग ती सकाळीच घराबाहेर पडली.. कुठे गेली कोण जाणे! पण परत आली तेव्हां तिच्या हातात हिरवीगार अढुळशाची पानं होती..

तिनं ती स्वच्छ धुवून पाट्यावर वाटली. आणि त्याचा रस काढला.

आणि तो कडु रस, अच्च्युताय नम:, गोविंदाय नम: असं म्हणत माझ्या घशात उतरवला… लागोपाठ सात दिवस या धन्वंतरीची ट्रीटमेंट याच पद्धतीने घेतली..

आणि खरोखरच माझा तो जीवघेणा खोकला बरा झाला…

तिची श्रद्धा,तिची मेहनत आणि तिच्या ममतेपुढे तो रोग नमला. तिला इतकी आयुर्वेद उपचारपद्धती कशी माहित होती, ते गुपीतच होतं.. पण तिने केलेले लेप, गुट्या चाटणे, काढे यांच्यामुळे आमच्या व्याधी झटकन् बर्‍या व्हायच्या..

जीजी सार्‍यांसाठी झटायची. तिला आमच्यापैकी कुणाचंही काही करताना कधीही कंटाळा आला नाही.तिच्या मनात आमच्याबद्दल अत्यंत माया होती… ओलावा होता..

जीजीची तिसरी नात छुंदा..आमच्या सर्वांपेक्षा ती हुशार. अत्यंत अभ्यासु. जीजीला तिचा फार अभिमान.

“हा माझा अर्जुन हो!..” असं सगळ्यांना सांगायची.

पण जीजीची ही नात फार रडकी आणि खेंगट.. शाळेत जाताना रडायची.म्युनिसीपालिटीची बारा नंबरची शाळा तिला आवडायची नाही. पण घराजवळची शाळा म्हणून आमचे सर्वांचेच प्राथमिक शिक्षण तिथेच झालं. आम्ही कुणीच शाळेत जाताना त्रास दिला नाही. पण छुंदाने खूप त्रास दिला. जीजी रोज तिच्याबरोबर शाळेत जायची. शाळा सुटेपर्यंत पायरीवर बसून रहायची. ना भूक ना तहान… छुंदा वर्गातून बाहेर येउन खात्री करुन घ्यायची, जीजी पायरीवर असल्याची… छुंदा पाचवीत जाईपर्यंत ही जोडगोळी शाळेत जायची. छुंदा वर्गात अन् जीजी पायरीवर.

पुढेपुढे छुंदाच्या वर्गबाईंनाही जीजीची सवय झाली.ही एवढी म्हातारी बाई नातीसाठी ५—६ तास पायरीवर बसून राहते याचं त्यांनाही प्रचंड कुतुहल वाटायचं.. कधी कधी तर बाईंना काही काम असलं तर त्या जीजीलाच वर्ग सांभाळायला सांगायच्या..

वर्गातल्या सार्‍यांचीच ती आजी झाली होती…

पुढे छुंदा ऊच्च श्रेणीत केमीकल इंजीनीअर झाली. आजही ती म्हणते… “जीजी नसती तर मी शिकले असते का…??”

इंजीनीअरींगचं सर्टीफिकेट जीजीच्या हातात देत ती म्हणाली होती..

“खरं म्हणजे हे सर्टीफिकेट तुलाच दिलं पाहिजे….”

त्याक्षणी तिच्या चेहर्‍यावरचा आनंद, डोळ्यातलं पाणी अवर्णनीय होतं…

क्रमश:…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 123 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 123 ☆

☆ बहुत तकलीफ़ होती है

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 122 ☆ कविता – स्त्री क्या है ? ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक भावप्रवण कविता स्त्री क्या है ?। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 122– साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – स्त्री क्या है ? ☆

क्या तुम बता सकते हो

एक स्त्री का एकांत

स्त्री

जो है बेचैन

नहीं है उसे चैन

स्वयं की जमीन

तलाशती एक स्त्री

क्या तुम जानते हो

स्त्री का प्रेम

स्त्री का धर्म 

सदियों से

वह स्वयं के बारे में

जानना चाहती है

क्या है तुम्हारी नजर

मन बहुत व्याकुल है

सोचती है

स्त्री को किसी ने नहीं पहचाना 

कभी तुमने

एक स्त्री के मन को है  जाना

पहचाना

कभी तुमने उसे रिश्तो  के उधेड़बुन में

जूझते देखा है..

कभी उसके मन के अंदर झांका है

कभी पढ़ा है

उसके भीतर का अंतर्मन .

उसका दर्पण.

कभी उसके चेहरे को पढ़ा है

चेहरा कहना क्या चाहता है

क्या तुमने कभी महसूस किया है

उसके अंदर निकलते लावा को

क्या तुम जानते हो

एक स्त्री के रिश्ते का समीकरण

क्या बता सकते हो

उसकी स्त्रीत्व की आभा

उसका अस्तित्व

उसका कर्तव्य

क्या जानते हो तुम ?

नहीं जानते तुम कुछ भी..

बस

तुम्हारी दृष्टि में

स्त्री की परिभाषा यही है ..

पुरुष की सेविका ……

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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