(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय लघुकथा “निर्णय”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 128 – साहित्य निकुंज ☆
☆ लघुकथा – निर्णय ☆
“बाबूजी यह मैं क्या सुन रहा हूँ.. कि नीता कहीं और शादी करना चाहती है और वह लड़का अपनी जात बिरादरी का नहीं है।”
हाँ तुमने सही सुना है ..कोई बात नहीं जब उसकी यही मर्जी है तो उसे करने दो।”
” बाबू जी आपका दिमाग खराब हो गया है कोई ब्राह्मण पंजाबी लड़के से शादी करेगा क्या? मैं तो हरगिज भी उसकी शादी नहीं करूंगा।”
नीता के आते ही सुदीप ने कहा..” एक बात कान खोल कर सुन लो जहां हम चाहेंगे वही तुम्हारी शादी होगी घर से बाहर कदम निकाला तो टांग तोड़ देंगे।”
नीता भाई के डर के मारे उस वक्त कुछ कह न पाई और एक दिन उसने फैसला किया कि मैं अपनी जिंदगी इस घर में नहीं गुजार सकती और वह घर से निकल गई।” भाई को जैसे ही पता चला भाई ने माता-पिता से कहा कि खबरदार आपने जो इससे रिश्ता रखा तो आप मेरा मरा हुआ मुंह देखेंगे या मैं समझ लूंगा कि आप हमारे लिए मर गए।”
माता पिता डर के मारे उससे मिलने नहीं जाते थे। कुछ दिन बाद नीता ने एक बेटे को जन्म दिया।नीता माता पिता के दर्द और तड़प के कारण उसको बीमारी ने घेर लिया और एक दिन वह इस दुनिया को छोड़ कर चली गई।
अब सुदीप भैया के बेटी की शादी है भैया बहुत उत्साह के साथ अपनी बिटिया का विवाह कर रहे हैं क्योंकि बिटिया ने अपनी मनपसंद बंगाली लड़के को चुना है।
पिताजी यह सब देखकर अपने आपको रोक नहीं पाए और वक्त उनके मुंह से निकला “अगर तुमने यही सही निर्णय उस वक्त लिया होता तो आज शायद मेरी बेटी जिंदा होती।”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “बृज में उड़ती खूब गुलाल…”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
“नमस्कार पंत, हा तुमचा पेपर आणि आपल्या चाळीची बातमी आली आहे आजच्या पेपरात पान सहावर, ती आठवणीने वाचा, येतो मी !”
“कसली बातमी मोऱ्या ?”
“पंत तुम्ही वाचलीत तर तुम्हांला कळेल ना आणि त्या बातमीत माझं पण नांव छापून आलं आहे, अगदी फोटो सकट !”
“अरे गाढवा तू ती बातमी सांगितलीस तर तुझी जीभ काय झडणार आहे ? आणि तुझा फोटो कशासाठी छापलाय पेपरात ? तू साधा गल्लीतला नेता पण नाहीस अजून !”
“तसं नही पंत, तुमच्यामुळेच ती बातमी आणि माझा फोटो छापून आला आहे पेपरात !”
“माझ्यामुळे ? ते कसं काय ?”
“अहो पंत, तुम्हीच नाही का मला गेल्यावेळेस नवीन आयडिया दिलीत त्या बद्दलच ती बातमी आहे !”
“मोऱ्या, नेहमी तू मला ‘कोड्यात बोलू नका’ असं सांगतोस आणि आज तू स्वतःच कोड्यात बोलतोयस ! आता मला जर ती बातमी उलगडून नाही सांगितलीस तर उद्यापासून आमच्या पेपरला हात लावायचा नाही, कळलं ?”
“असं करू नका पंत ! अहो तुमचा पेपर वाचल्या शिवाय माझी ‘प्रातरविधी’ पासूनची सारी कामं अडतात हे तुम्हांला पण माहित आहे !”
“हॊ ना, मग आता मुकाट्यानं मला ती बातमी सांगतोस का उद्यापासून आमचा पेपर वाचण बंद करतोस ?”
“सांगतो सांगतो पंत ! आता तुम्ही माझ्या वर्मावरच वार करायला निघालात तर….”
“उगाच अलंकारिक बोलायला जाऊ नकोस, पट पट बोल !”
“पंत, अहो गेल्यावेळेला तुम्ही नाही का म्हणाला होतात, की आपल्या अहमद सेलरच्या आठ चाळीत रोज कोणाकडे ना कोणाकडे कसलं तरी मंगल कार्य असतं आणि लोकं हजारो रुपये खर्च करून DJ लावून ते साजर करीत असतात, त्या ऐवजी…….”
“त्याच पैशातून गरीब हुशार विद्यार्थ्यांना मदत करावी अथवा कुठल्यातरी सामाजिक संस्थेला देणगी द्यावी, असं मी सुचवलं होत खरं !”
“बरोबर पंत आणि चाळ कमिटीचा अध्यक्ष या नात्याने मी तो कार्यक्रम यशस्वीपणे राबवला त्याचीच बातमी आली आहे आजच्या पेपरात !”
“अरे व्वा ! तुझं अभिनंदन मोऱ्या !”
“धन्यवाद पंत, पण तुमच्यामुळेच हे शक्य झालं ! येतो आता !”
“मोऱ्या थांब जरा, माझं काम आहे तुझ्याकडे !”
“कसलं काम पंत ?”
“अरे माझा मित्र वश्या जोशी पूर्वी डोंबिवलीला रहात होता, अगदी स्टेशन जवळ आणि आता तो ठाण्यात घोडबंदरला आला आहे रहायला !”
“बरं मग ?”
“मोऱ्या वश्याला ठाण्यात आल्यापासून निद्रानाश जडला आहे, रात्रभर झोप म्हणून लागत नाही त्याला !”
“मग जोशी काकांना एखाद्या डॉक्टरकडे जायला सांगा ना !”
“अरे चार, पाच डॉक्टर करून झाले त्याचे पण काडीचा उपयोग झाला नाही त्याला, उगाच पैशा परी पैसे गेले ते वेगळेच !”
“पंत जोशी काकांच्या निद्रानाशावर जर चार पाच डॉक्टरांनी हात टेकले असतील तिथे मी बापडा काय करू शकणार सांगा ?”
“सांगतो ना ! अरे परवाच वश्याचा फोन आला होता आणि तो माझ्याकडे अगदी रडकुंडीला येवून, त्याच्या निद्रानाशावर काहीतरी उपाय सांग रे असं म्हणत होता ! त्यावर मी बराच विचार करून एक उपाय शोधला आहे, पण त्यासाठी मला तुझी मदत लागेल, म्हणून तुला थांब म्हटलं !”
“असं होय, बोला पंत काय मदत हवी आहे तुम्हाला माझ्याकडून ?”
“मोऱ्या त्या तुमच्या DJ च्या कर्कश्य आवाजावरूनच मला एक उपाय सुचलाय बघ !”
“कोणता?”
“सांगतो ना, अरे त्याची डोंबिवलीची जागा अगदी स्टेशन जवळ, म्हणजे दिवस रात्र ट्रेनचा खडखडाट बरोबर ?”
“बरोबर, मग ?”
“म्हणजे रोज रात्री झोपतांना वश्याला ट्रेनच्या खडखडाटाचे अंगाई गीत ऐकायची सवय आणि ते अंगाई गीत ठाण्यात त्याच्या कानावर पडत नाही, म्हणून वश्याला निद्रानाशाचा विकार जडला असावा असं माझं ठाम मत आहे !”
“मग पंत मी तुम्हाला यात काय मदत करू शकतो ते तर सांगा !”
“मोऱ्या तू मला फक्त एका CD वर, ट्रेनचा भरधाव जायचा आवाज, रेल्वे ट्रॅकच्या खडखडा सकट एखाद दुसऱ्या ट्रेनच्या हॉर्न बरोबर रेकॉर्ड करून दे, बास्स !”
“त्यानं काय होईल पंत ?”
“अरे तोच वश्याच्या निद्रा नाशावर उपाय, कळलं ?”
“नाही पंत !”
“अरे गाढवा, मी वश्याला सांगणार, ही CD घे आणि रात्री झोपतांना हे तुझं अंगाई गीत ऐकत ऐकत सुखाने झोप ! नाही तुला निद्रादेवी प्रसन्न झाली तर नांव बदलीन माझं !”
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘फाँस’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 91 ☆
☆ लघुकथा – फाँस ☆
अर्चना बालकनी में खड़ी बिजली के तार पर बैठी गौरैया को देख रही थी जिसने बच्चों के उड़ जाने के बाद अभी – अभी घोंसला छोड़ दिया था। घोंसला सूना पड़ा था। कुछ दिन पहले ही चूँ –चूँ की आवाजों से लॉन गूँजा करता था। जैसे बच्चों के रहने से घर में रौनक बनी रहती है। घोंसले का सूनापन घर के सन्नाटे को और बढ़ा रहा था। फ्लैशबैक की तरह पति की एक- एक बात उसके दिमाग में गूँज रही थी – ‘टू बेडरूम हॉल किचन के फ्लैट से क्या होगा ? कम से कम थ्री बेडरूम हॉल किचन का फ्लैट होना चाहिए। एक बेटे – बहू का, दूसरा बेटी- दामाद या कोई मेहमान आए तो उसके लिए और तीसरा बेडरूम हमारा। ऐश करेंगे यार, पैसे कमाए किस दिन के लिए जाते हैं।‘ बड़े चाव से खरीदे तीन बेडरूम के फ्लैट में आज सन्नाटा पसरा था। बेटी की शादी हो गई, कभी – कभार आ जाती हैं सुख – दुख में। बेटे को एम.एस करने विदेश भेजा था, वह वहीं रम गया। तीसरे में अकेली रह गई वह। क्यों ??? शादी के बीस साल बाद उसके पतिदेव को समझ में आया कि वे दोनों अब साथ नहीं रह सकते। उसने पति के फोन पर कई बार उसके ऑफिस की एक महिला की चैट पढ़ी थी। इस पर उसने सवाल भी किए थे पर पति ने उसे तो यही जताया कि ‘तुम हमें समझ ही नहीं सकीं। गल्ती तुम्हारी ही है जो मुझे बांधकर ना रख सकीं। यह तो औरतों का काम होता है पति और बच्चों को संभालना। मेरा क्या ? ‘जो भी राह में मिला, हम उसी के हो लिए’ गीत गुनगुना दिया उसने। दो बेडरूम खाली रह सकते हैं यह तो उसे मालूम था लेकिन तीसरा ?
फाँस बहुत गहरी चुभी थी। समझ ही नहीं पाई कि कहाँ, क्या गलत हो गया? खुद को कितना समझाती पर चुभन कम नहीं होती। फाँस कुरेद रही थी उसे भीतर ही भीतर – ‘ इतने वर्षों का साथ, पर एक पल नहीं लगा घरौंदा बिखरने में ? पति और बच्चों के इर्द- गिर्द ही तो जीवन था उसका। मकान को घर बनाने में उसने जीवन खपा दिया। किसी बात का कोई मोल नहीं ? ‘ आँसू थम नहीं रहे थे, दिल बैचैन जोर से धड़कने लगा, घबराकर फिर से बालकनी में जाकर घोंसले को देखने लगी। गौरैया आकाश में दूर उड़ गई। अर्चना हसरत भरी निगाहों से गौरैया को उड़ते देख रही थी।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “बहकते कदम दर कदम…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 96 ☆
☆ बहकते कदम दर कदम… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆
जिधर देखो उधर बस हंगामें की स्थिति नज़र आ रही है। कभी पिक्चर, कभी शोभा यात्रा, कभी अजान, कभी चालीसा। कोई भी कहीं थमना नहीं चाहता। बस भागम- भाग में अशांति का वातारण बनाते हुए दोषारोपण की राजनीति हो रही है। ऐसा लगता है मानो सारे निर्णय पलक झपकते ही होने लगे हैं। पहले तो वर्षों बीत जाते थे, फाइल खिसकने में तब कहीं जाकर कोर्ट से डेट मिलती वो भी इलास्टिक की तरह खींच- तान का शिकार होकर कई बार टूट कर अपना अस्तित्व तक खो देती थी।
शायद यही सब वजह है लोगों के इतना अशांत होने की। शांति और सन्नाटा दो अलग- अलग चीजे हैं। एक में सुकून की आहट छुपी होती है तो दूसरे में अनचाहा डर समाहित होता है। एक छोर को दूसरे छोर से मिलाने की होड़ में हम लोग अपने -अपने दायित्व भूलकर अधिकारों की माँग जब -तब उठाते हुए देखे जा सकते हैं। सही भी है लोगों ने हर चीज का इतना इंतजार किया है कि अब वे बात- बात पर भड़कने लगे हैं। इसी संदर्भ में एक किस्सा याद आता है।
पिक्चर देखकर लौटते हुए चार दोस्त आपस में बात- चीत करते हुए चले आ रहे थे। पहले ने कहा नाम देखकर ही पता चल जाता है कि पिक्चर अच्छी होगी या नहीं, दूसरे ने कहा इतंजार नाम था बेचारे दर्शक इंतजार ही करते रहे गए, तीसरे ने कहा गीत तो अच्छे थे हीरोइन भी अच्छी होती तो बात बन जाती। चौथे ने कहा अधूरी सी लग रही थी फिल्म इसका मतलब इंतजार करो, आगे भाग दो भी आयेगा, तब सारी मनोकामनाएँ पूरी हो जायेंगी।
क्या यार? यही तो मुश्किल है, पहले पहली तारीख़ का इंतजार करो फिर फ़िल्म के पहले शो का पहला टिकिट, फिर दोस्तों का,फिर फिल्म के पसंद आने का फिर इसके रिटर्न्स इंतजार 2 का बस यही जिंदगी है? ऐसा लगने लगा है।
दूसरे ने कहा तू इतने से ही घबरा गया अभी तो बहुत से इम्तहान बाकी हैं,तीसरे ने कहा बिल्कुल वैसे ही जैसे पिक्चर अभी बाकी है, चौथे ने दार्शनिक अंदाज़ में कहा इंतजार का फल मीठा होता है सखे।
चारो दोस्त खिलखिला कर हँस पड़े और गुनगुनाते हुए चल दिए …..
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री अनिल माधव दवेजी की पुस्तक “शिवाजी व सुराज” की समीक्षा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 110 ☆
☆ “शिवाजी व सुराज” … श्री अनिल माधव दवे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक – शिवाजी व सुराज
लेखक. अनिल माधव दवे, दिल्ली
पृष्ठ संख्या 224
प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
भारत के इतिहास में छत्रपति शिवाजी महाराज एक सर्वगुण संपन्न सुयोग्य शासक के रूप में प्रतिष्ठित है। उनका चरित्र वीरता , राज्य व्यवस्था, राजनैतीक चातुरी, परिस्थितियों की समझ, समस्याओं के समाधान निकालने की सूझबूझ और शांति की चिन्ता के गुण उन्हे युग युगों तक एक आदर्श राजा के रूप में याद करने को विवश करते रहेंगे। वे आदर्श राजा थे और विवेकशील निर्णय लेकर उसे जनहित में कार्यान्वित करने में अद्वितीय सफल शासक थे। भारत 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश शासन से मुक्त हो गया पर अभी तक सुराज स्थापित नहीं हो सका है। मार्ग में नित नई कठिनाइयाॅं आ पड़ती हैं। लेखक एक विवेकवान व्यक्ति है। अतः आज की परिस्थितियों में सुधार कैसे हो, सुराज की स्थापना कैसे की जाय इसकी चिंता है और इसी भावना को व्यक्त करने के लिये उन्होंने इस पुस्तक की रचना की है । जिसमें शिवाजी के राज्य काल की व्यवस्था उनके सफल निर्णयों की योग्यता, उनके जन हित कारी दृष्टिकोण से संकलित सभी कार्यो का प्रमाणिक प्रस्तुतीकरण कर (शिवाजी के राज्य व्यवस्था के विभिन्न दस्तावेजों की प्रति देते हुये) एक सही रीति नीति के अपनाये जाने का संकेत आज के शासन करता के लिये उपस्थित किया है। आज शिवाजी महाराज की रीति नीति अनुकरणीय है यही लेखक के द्वारा संकेत दिया गया है।
शिवाजी के बचपन से उनके राज्य के सुयोग्य शासक होने तक के विभिन्न प्रसंगों का उल्लेख मार्ग की समस्याओं और उनके सामयिक सफल निर्णयों का सहज उल्लेख कर लेखक ने शासन को सुखद और सफल रीति से संचालन को शिवाजी से सीखने का मनोभाव है। प्रतिकूलतायें व्यक्ति को तराषती हैं। गल्तियाॅं उपलब्धियाॅं और अवसर से हर रोज एक नया पाठ पढ़ाते है। समय के साथ चलते-चलते यही व्यक्तित्व एक आकार ग्रहण कर लेता है।
आज भारतीय राजनीति के विभिन्न पदों पर पहुॅंचने के लिये पाखण्ड प्रधान गुण बन गया है। छद्म विनम्रता का अभिनय, संस्था संगठन व सरकारों में चयन और निर्णयों के कारण बनने लगे तब हर शासक के लिये यह समय सम्हल कर चलने और स्वयं को सार्वजनिक जीवन में जीवन बनाये रखने के लिये पूर्व नायकों से सीख लेकर सत्य व धर्म की स्थापना कर सुव्यवस्थित सरकार चलाने की जरूरत का है। उन सबके लिये जो आज शासन में किसी भी पद पर है, शिवाजी के स्वराज संचालन के सभी गुण दिशा सूचक यंत्र बनें तथा उनके सफलता मंत्र भी। इस आस्था और विश्वास के साथ यह कृति सत्य के साधकों को सादर प्रस्तुत है।
व्यक्तिगत गुण – निर्भीकता, शीघ्र निर्णय क्षमता, परिस्थिति की सही समझ और दूरदर्शिता, सही समय पर निर्णायक चोट करने की योग्यता, जन साधारण के प्रति स्नेह भाव, चारित्रिक पवित्रता, धार्मिकता, आत्म विश्वास, स्त्री जाति के लिए सम्मान की भावना, ईमानदारी, देश प्रेम, सबके साथ सद्भाव व प्रामाणिक व्यवहार, शासन में सदाचार, कुशल शासन व्यवस्था, कृषि, व्यापार की प्रगति की नीति, न्याय की प्रखर व्यवस्था, जन संपर्क की सजगता कर्मचारियों के मन में विश्वास जगाना उनका उचित सम्मान, दुष्मन के प्रति कठोरता, विज्ञान की प्रगति, आवागमन के साधनों को बढ़ाना। विद्वत जनों की सुरक्षा तथा सम्मान योग्य मंत्रि मण्डल का गठन सेना का सही संगठन और प्रशिक्षण, कूटनीति, योजाना संचालन, भ्रष्टाचार पर रोक, विकास के उपक्रम व सुराज के संवर्धन की हार्दिक चाह और कार्य शिवाजी के मौलिक गुण हैं जो सबके लिए अनुकरणीय हैं।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं भावप्रवण कविता “पांचाली का चीर”.