मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #109 – माझी आई…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 109 – माझी आई…! ☆

माझ्यासाठी किती राबते माझी आई

जगण्याचे मज धडे शिकवते माझी आई

तिची कविता मला कधी ही जमली नाही

अक्षरांची ही ओळख बनते माझी आई…

 

अंधाराचा उजेड बनते माझी आई

दु:खाला ही सुखात ठेवे माझी आई

कित्तेक आले वादळ वारे हरली नाही

सूर्या चा ही प्रकाश बनते माझी आई…

 

देवा समान मला भासते माझी आई

स्वप्नांना ही पंख लावते माझी आई

किती लिहते किती पुसते आयुष्याला

परिस्थिती ला सहज हरवते माझी आई…

 

ठेच लागता धावत येते माझी आई

जखमेवरची हळवी फुंकर माझी आई

तिच्या मनाचे दुःख कुणाला दिसले नाही

सहजच हसते कधी न रडते माझी आई…

 

अथांग सागर अथांग ममता माझी आई

मंदिरातली आहे समई माझी आई

माझी आई मज अजूनही कळली नाही

रोज नव्याने मला भेटते माझी आई…

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#131 ☆ नदियों में न पानी है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “नदियों में न पानी है…”)

☆  तन्मय साहित्य # 131 ☆

☆ नदियों में न पानी है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(नदी श्रृंखला की 6वीं प्रस्तुति)

नदियों में न पानी है

पूलों की जुबानी है

अपनी पीड़ाएँ ले कर चली

सिंधु प्रिय को सुनानी है।

 

सिर्फ देना है जिसका धरम

तौल पैमाना कोई नहीं

कौन है देखने वाला ये

कब से नदिया ये सोई नहीं,

 

खोज में अनवरत चल रही

राह दुर्गम अजानी है

पूलों की जुबानी है….।

 

चाँद से सौम्य शीतल हुई

सूर्य के ताप की साधिका

स्वर लहर बाँसुरी कृष्ण की

प्रेम रस में पगी राधिका,

 

साक्ष्य शुचिता के तटबंध ये

दिव्यता की कहानी है

पूलों की जुबानी है….।

 

फर्क मन में कभी न किया

कौन छोटा, बड़ा कौन है

हो के समदर्शिता भाव से

खुद ही बँटती रही मौन ये,

 

भेद पानी सिखाता नहीं

सीख सुंदर सुहानी है

पूलों की जुबानी है….।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 31 – आत्मलोचन – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से  मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 31 – आत्मलोचन– भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

आत्मलोचन ने अंबानी – अदानी परिवार में मुँह में सोने का चम्मच दबाये हुये जन्म नहीं लिया था, बल्कि एक अत्यंत साधारण परिवार में जन्मजात कवच कुंडल जड़ित गरीबी के साथ धरती पर अवतरित हुये थे. बड़ी मुश्किल से मां बाप ने संतान का मुख देखा था तो इस दुर्लभ संतान का उपहार पाकर ईश्वर का वो सिर्फ आभार ही प्रगट कर सकते थे.

आत्मलोचन शिक्षा के प्रारंभिक काल से ही मेधावी छात्र निकले और उनके मुँह में सोने का चम्मच तो नहीं था पर इरादों में TMT के सरिया जैसी मजबूती जरूर थी. पता नहीं कब, पर बहुत जल्द उनको ये समझ आ गया था कि इस गरीबी को इस तरह से उतार फेंकना है कि उनके जीवन भर फिर कभी गरीबी से सामना करने की नौबत न आये. और इसका सिर्फ एक ही रास्ता था कि पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित करके सबसे बेहतर परिणाम हासिल किये जायें.

 ऐसा हुआ भी, धीरे धीरे उनकी निष्ठा, श्रम और इंटेलीजेंस से वो सारे इम्तिहान नंबर वन की पोजीशन से पास करते गये पर ये सफलता सिर्फ एकेडमिक थी. उनका स्वभाव दिन-ब-दिन कठोर और निर्मोही होता गया और निरंतर बढ़ते मेडल और पुरस्कार उनके मित्रों की संख्या भी कम करते गये. शायद उन्हें इनकी जरूरत भी महसूस नहीं हुई क्योंकि ये सब भी परिवार की आनुवांशिक गरीबी के शिकार थे और आत्मलोचन अपने जीवन से न केवल गरीबी हटाना चाहते थे, बल्कि वो सारे लोग वो सारी यादें भी, जो उन्हें गरीबी की याद दिलाती हों, हमेशा के लिये त्यागना चाहते थे. इतना ही नहीं बल्कि गरीबरथ पर यात्रा करने या गरीबी रेखा से संबंधित चैप्टर उनकी किताबों से और जेहन से गायब थे.

फिल्म एक फूल दो माली के “गीत गरीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा” पर उनका बिल्कुल भी विश्वास नहीं था और वो उसे अनसुना करने का पूरा प्रयास करते थे. गरीबी को मात देने की ये लड़ाई उन्होंने अपने TMT सरिया जैसे मज़बूत इरादों से आखिर जीत ही ली जब उन्होंने देश की सबसे कठिन, सबसे ज्यादा स्पर्धा वाली UPSC की परीक्षा भी प्राइम प्लेसमेंट के साथ क्लियर की और प्रशिक्षण के लिये लालबहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन मसूरी प्रस्थान किया.

गरीबी की आखिरी निशानी उनके शिक्षक मां-बाप थे जो उनके सपनों की उड़ान के सहभागी थे और फ्लाइट के टेकऑफ करने का इंतज़ार कर रहे थे. सामान्यतः IAS होने से बेहतर और प्रतिष्ठित सफलता का मापदंड भारतीय समाज़ में आज भी दूसरा नहीं है. तो अतीत की गरीबी के जन्मजात कवच कुंडल को अपनी काया और अपने मन मस्तिष्क से पूरी तरह त्यागकर “आत्मलोचन” ने अपने सुनहरे भविष्य की ओर अपने मज़बूत इरादों के साथ उड़ान भरी.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 108 ☆ अमरकंटक का भिक्षुक – 1 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी – “अमरकंटक का भिक्षुक”। )

☆ संस्मरण # 108 – अमरकंटक का भिक्षुक – 1  ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

साँवला रंग, पांच फीट के लगभग ऊंचाई, दुबली पतली काया, आखों में बहुत थोड़ी रोशनी और उमर इकहत्तर वर्ष, ऐसे एक जूनूनी व्यक्ति से मेरा परिचय हुआ मार्च 2020 के प्रथम सप्ताह में। वे भोपाल एक कार्य से आए थे और हमें फोन कर बोले कि ‘डाक्टर एच एम शारदा ने आपसे मिलने को बोला था, कब और कहाँ मुलाक़ात हो सकती है।’ मैं तब शासकीय मिडिल स्कूल खाईखेडा में स्मार्ट क्लास को बच्चों को समर्पित करने के कार्यक्रम  में व्यस्त था सो शाम को पांच बजे का समय मुलाक़ात हेतु नियत हुआ। वे समय से पहले ही आ गए और प्रतीक्षारत बाहर खड़े थे। प्रेम से मिले और अपने भोपाल आने की व्यथा-कहानी सुनाते रहे। बीच-बीच में बैगा आदिवासियों की भी चर्चा करते, अपने अमरकंटक में आ बसने की कहानी सुनाते, गरीबों के बारे में अपनी प्रेम और करुणा व्यक्त करते रहे। मैं तो दिन भर का थका हारा था सो चुपचाप सुनता रहा। जब जाने लगे तो मुझे आमंत्रित किया कि पोंडकी आश्रम जरूर आएँ ऐसी ‘दादा’ शारदा की भी इच्छा है। उनकी सरलता, विनम्रता  और महानता का एहसास तब  हुआ, जब जाते जाते उन्होंने हाथ जोड़े और अचानक मेरे चरणों की ओर झुक गए। मैं अचकचा गया, और गले लगाकर कहा कि ‘दादा आप उम्र में बड़े हैं ऐसा क्यों कर रहे हैं ?’ उन्होंने उतनी ही विनम्रता से उत्तर दिया ‘आप बच्चों के लिए काम करते हैं, ‘दादा’ शारदा ने आपकी बहुत तारीफ़ की थी, मेरी बैगा बच्चियों के लिए भी आप अमरकंटक आइये।’

उनके आमंत्रण को अस्वीकार करना मुश्किल था, पर कोरोना संक्रमण ने बाधित कर दिया और फिर मुहूर्त आया जब  डाक्टर एच एम शारदा ने बताया कि ‘पोंडकी आश्रम’ में एक हाल के निर्माण हेतु भूमि पूजन समारोह 31 अक्टूबर को होना है, शामिल होने जा सकते हैं क्या ?’ मैं तो अवसर की तलाश में ही था, फ़ौरन हाँ कर दी और 29 अक्टूबर 2020 को अमरकंटक एक्सप्रेस में बैठकर 30 अक्टूबर के सुबह सबेरे पेंड्रा रोड स्टेशन उतर गया। आश्रम से जीप आई थी लेने और जब मैं पांच बजे सुबह पहुंचा तो वे कृशकाय बुजुर्ग बाट जोहते बैठे थे, प्रेम से मिले और दिन भर के प्रोग्राम के बारे में बताया, दस बजे नाश्ता करने के बाद फर्रीसेमर गाँव चलेंगे, तब तक आप आराम कीजिए, कहकर चले गए। 

नींद तो आखों से गायब थी और जैसे ही सूर्योदय हुआ, मैं अतिथि गृह से बाहर निकल कर आश्रम में चहल कदमी करने लगा। दूर एक निर्माणाधीन बरामदे में वे दिख गए, मिस्त्रियों द्वारा किये गए  काम का मुआयना कर रहे थे। मैं उनके पास पहुँच गया, फिर क्या था, उन्होंने पूरा आश्रम घुमाया। स्कूल के पांच कमरे और एक प्राचार्य कक्ष उन्होंने, भारत सरकार के आदिवासी कल्याण मंत्रालय, दक्षिण पूर्व कोयला परियोजना व जनसहयोग से, थोड़ी थोड़ी राशि एकत्रित कर बनवाये हैं। दक्षिण पूर्व कोयला परियोजना  के एक महाप्रबंधक ने आर्थिक सहयोग का आश्वासन दिया था, लेकिन अचानक उनका स्थानान्तरण हो गया तो नीचे फर्श का काम अटक गया। इसी काम को ठेकेदार ने पूरा करने का आश्वासन इस शर्त के साथ दे दिया कि ‘जब रुपया आ जाये तो दे देना’ और उन्होंने ने भी ईश्वर के भरोसे हाँ कह दी। आश्रम में भारतीय जीवन बीमा निगम और दक्षिण पूर्व कोयला परियोजना के सहयोग से दो भवन बनाए गए हैं जिनमे एक सौ छात्राएं निवास करती हैं। मदनलाल शारदा फैमली फ़ाउंडेशन ने, छात्रावास की निवासिनी छात्राओं के लिए दस पलंग व दो अति आधुनिक शौचालय बनवाकर आश्रम को दिए हैं। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि फ़ाउंडेशन के कर्ता-धर्ता डाक्टर शारदा उनसे आजतक प्रत्यक्ष नहीं मिले हैं, केवल फोन पर चर्चा हुई है, और सहयोग कर रहे हैं। जयपुर के एक जैन परिवार ने अपनी माता स्वर्णा देवी की स्मृति में चिकित्सालय हेतु भवन बनवाकर दिया है और होम्योपैथिक व एलोपैथिक दवाइयों के मासिक खर्च की प्रतिपूर्ति किशनगढ़, राजस्थान के श्री डी कुमार द्वारा की जाती हैं। भारतीय स्टेट बैंक अमरकंटक व पूर्व सांसद मेघराज जैन ने एक-एक एम्बुलेंस दान दी है, जिसका प्रयोग पैसठ ग्रामों में निवासरत विलुप्तप्राय बैगा जनजाति के आदिवासियों को चिकित्सा सुविधा प्रदान करने में होता है। स्कूल के सामने स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा एक मंदिर में स्थापित है और समीप ही छात्राओं के भोजन हेतु हाल व रसोईघर है। कुछ निर्माण कार्य चल रहे हैं, श्री फुन्देलाल सिंह द्वारा प्रदत्त विधायक निधि (75%) व जनसहयोग (25%) से एक हाल निर्माणाधीन है, जिसका उपयोग व्यवसायिक गतिविधियों के प्रशिक्षण हेतु होगा और यहाँ हथकरघा, सिलाई-कढाई आदि की मशीनें  स्थापित की जाएँगी ताकि आदिवासियों को  स्वरोजगार उपलब्ध हो सके। पांच गायों की गौशाला है, फलोद्यान है, साग-सब्जी का बगीचा है, जिसके उत्पाद छात्राओं के हेतु हैं। यह सब कुछ जनसहयोग  से हुआ है। और इसको मूर्तरूप दिया है पांच फुट के दुबले-पतले डाक्टर प्रबीर सरकार ने जो 1995 में जेब में 1040/- रुपया लेकर यहाँ आये थे और ‘माई की बगिया’ में एक झोपडी में रहकर आदिवासियों की सेवा करने लगे। इसीलिये स्वामी विवेकानंद के इस भक्त को मैंने ‘अमरकंटक का भिक्षुक’ कहा है। वे जब चर्चा करते हैं तो स्वामीजी के अमृत वचन भी सुनाते रहते हैं, आप भी आत्मविभोर होकर पढ़िए :

“नाम, जश, ख्याति, प्रतिपत्ति, पद, धन, सम्पत्ति, सबकुछ केवल कुछ दिन के लिए है। वह व्यक्ति सच्चा जीवन बिताता है जो दूसरे के लिए अपना जीवन समर्पण करता है।”

पुनश्च :- मैं तीन दिन पौंडकी में रुका, तीन गाँव और उनके तीन मोहल्ले देखे, सेवा कार्य किया, आश्रम के आयोजनों में भाग लिया, डाक्टर साहब, उनके वालिटियर्स, प्रणाम नर्मदा युवा संघ के युवाओं से व ग्रामीणों से चर्चा की। यह अनुभव विलक्षण ही है ऐसा मेरा मानना है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 131 ☆ निवांत क्षण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 131 ?

☆ निवांत क्षण… ☆

(वृत्त- पृथ्वी)

कसे उमलणे फुलास कळते नसे आरसा

कुणा समजले तुरूंग बनली कशी नर्मदा

तुला जमतसे स्वतःत रमणे सदासर्वदा

 

फुले बहरती तशीच सुकती असा जीव हा

मला  समजले तुला उमगले  तरी दूर का

तुझे परतणे असे  बहरणे नसे हा गुन्हा

असेच जगणे निखालसपणे मिळे ना पुन्हा

 

कशात असते कुणास मिळते इथे शांतता

परी बरसते उगा तरसते मनी भावना

सदैव करते तुझ्याच करिता अशी प्रार्थना

तुलाच सगळी सुखे अन मला मिळो आर्तता

 

 जगात असते असेच गहिरे अथांगा परी

मनी विलसते तिथेच फुलते  जपावे तरी

नसे कळत का तुला चिमुकल्या मनाची व्यथा

मिळेल जर ना निवांत क्षण तो हवा एकदा

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक २१ – भाग ६ – कॅनडा ऽ ऽ राजा सौंदर्याचा ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २१ – भाग ६ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ कॅनडा ऽ ऽ  राजा सौंदर्याचा ✈️

व्हॅ॑कूव्हरच्या पश्चिमेकडील पॅसिफिक महासागराच्या किनाऱ्यावरील स्टॅन्ले पार्क एक हजार एकरवर पसरला आहे.( मुंबईच्या शिवाजी पार्कचा विस्तार सहा एकर आहे ) इथे कृत्रिम आखीव-रेखीव बाग-बगीचे नाहीत .नैसर्गिकरित्या पूर्वापार जशी झाडं वाढली आहेत तसाच त्यांचा सांभाळ केलेला आहे. अपवाद म्हणून तिथे केलेली गुलाबाची एक बाग फारच देखणी आहे. नाना रंग गंधांच्या॑॑ हजारो गुलाबांनी या बागेला एक वेगळे सौंदर्य, चैतन्य लाभले आहे.

दुसऱ्या दिवशी व्हॅ॑कूव्हर पोर्टला जायला निघालो. वाटेत दोन्ही बाजूंना गव्हाची प्रचंड मोठी शेती आहे. शिवाय बदामाची झाडं, स्ट्रॉबेरी, ब्लूबेरी, चेरी यांचेही मोठ मोठे बगीचे आहेत. गाईड म्हणाला की ही सर्व शेती तुमच्या भारतातून आलेल्या शिख कुटुंबियांच्या मालकीची आहे.  शंभराहून अधिक वर्षांपूर्वी ही पंजाबमधील शीख कुटुंबे ब्रिटिशांबरोबर शेतमजूर म्हणून इथे येऊन स्थिरावली आहेत. धाडस, मेहनत व स्वकर्तृत्वाने त्यांनी हे वैभव मिळविले आहे. आज अनेक शीख बांधव कॅनडामध्ये उच्च पदावर कार्यरत आहेत. तसेच अनेक जण सिनेटरही आहेत.

या धनाढ्य शिखांपैकी बहुतेकांचा स्वतंत्र खलिस्तानला  सक्रिय पाठिंबा होता. खलिस्तान चळवळीच्या वेळी कॅनेडियन विमानाचा झालेला (?) भीषण विमान अपघात, पंजाबमधील अतिरेक्यांच्या निर्घृण कारवाया, त्यांच्याशी प्राणपणाने लढणारे आपले पोलीस अधिकारी, सुवर्ण मंदिरातील ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’,  जनरल वैद्य यांची तसेच इंदिरा गांधी यांची हत्या आणि त्यानंतरचा इतिहास सर्वश्रुत आहे. अजूनही हा खलिस्तानचा ज्वालामुखी धुमसत असतो आणि भारत सरकारला तेथील घडामोडींवर डोळ्यात तेल घालून लक्ष ठेवावे लागते.

आता कॅनडामध्ये दिल्लीपासून तामिळनाडूपर्यंत अनेक प्रांतातले लोक विविध उद्योगधंद्यात विशेषतः हॉटेल बिझिनेसमध्ये कार्यरत आहेत. टोरांटो, व्हॅ॑कूव्हर अशा मोठ्या विमानतळांवर फ्लाईट शेड्युल ‘गुरुमुखी’मधून सुद्धा लिहिलेले आहे. तसेच हिंदी जाहिरातीही लावलेल्या असतात.

व्हिसलर माउंटन, व्हॅ॑कूव्हर, बुशार्ट गार्डन्स

व्हॅ॑कूव्हर पोर्टहून व्हॅ॑कूव्हरच्या दक्षिणेला असलेल्या व्हिक्टोरिया आयलंडवर जायचे होते. त्या अवाढव्य क्रूझमध्ये आम्ही आमच्या बससह प्रवेश केला. एकूण ६०० मोटारी व २२००  माणसे आरामात प्रवास करू शकतील अशी त्या महाप्रचंड क्रूझची क्षमता होती. बसमधून बोटीत उतरून लिफ्टने बोटीच्या सहाव्या मजल्यावर गेलो.अथांग सागरातून बोट डौलाने मार्गक्रमण करू लागली. दूर क्षितिजावर निळसर हिरव्या पर्वतरांगा दिसत ंहोत्या. देशोदेशींचे प्रवासी फोटो काढण्यात गुंतले होते. बोटीवरील प्रवासाचा दीड तास मजेत संपला. बोटीतील लिफ्टने दुसऱ्या मजल्यावर येऊन आमच्या बसमधून व्हिक्टोरिया आयलंडवर उतरलो.

पॅसिफिक महासागराच्या या भागाला strait of Juan de fuca असे म्हणतात. सागरी सौंदर्य आणि इतिहास यांचा वारसा या बेटाला लाभला आहे. पार्लमेंट हाऊस, सिटी हॉल ,म्युझियम या इमारतींवर ब्रिटिश स्थापत्यशैलीची छाप आहे. राणी व्हिक्टोरियाचा भव्य पुतळा पार्लमेंटसमोर आहे. गहू, मका, अंजीर, स्ट्रॉबेरी अशी शेतीही आहे.

बेटावरील बुशार्ट गार्डनला पोहोचलो. ५० एकर जमिनीवर फुलविलेली बुशार्ट गार्डन्स जेनी आणि रॉबर्ट बुशार्ट यांच्या अथक मेहनतीतून उभी राहिली आहे. देशोदेशींचे दुर्मिळ वृक्ष, फुलझाडे, क्रोटन्स आहेत. मांडवांवरून, कमानींवरून सोडलेले वेल नाना रंगांच्या, आकाराच्या फुलांनी भरलेले होते. मोठ्या फ्लॉवरपॉटसारखी फुलांची रचना अनेक ठिकाणी होती. गुलाबांच्या वेली, तऱ्हेतऱ्हेची कारंजी, कलात्मक पुतळे यांनी बाग सजली आहे. देशी-विदेशी पक्ष्यांसाठी घरटी तयार केली आहेत. इटालियन गार्डन, जपानी गार्डन, देशोदेशींच्या गुलाबांची सुगंधी बाग असे पहावे तेवढे थोडेच होते. अर्जुन वृक्ष, अमलताशची (बहावा ) हळदी रंगाची झुंबरं, हिमालयात उगवणार्‍या ब्लू पॉपिजची झुडपे भारताचे प्रतिनिधीत्व करत होती. २००४ मध्ये या बागेचा शतक महोत्सव साजरा झाला. दरवर्षी लक्षावधी प्रवासी बुशार्ट गार्डनला भेट देतात. आजही या उद्यानाची मालकी बुशार्ट वंशजांकडे आहे.

व्हॅ॑कूव्हरपासून दीड तासावर असलेल्या व्हिसलर पर्वताच्या पायथ्याशी गेलो. तिथून एका गंडोलाने ( केबल कार ) व्हिसलर पर्वत माथ्यावर गेलो. व्हिसलर पर्वतमाथ्यावरून ब्लॅक कॉम्बो या पर्वतमाथ्यावर जाण्यासाठी दुसर्‍या गंडोलामध्ये बसलो. गिनिज बुकमध्ये नोंद असलेली, १४२७ फूट उंचीवरील आणि ४.५ किलोमीटर अंतर कापणारी ही जगातील सर्वात जास्त लांबीची व सर्वात उंचीवरून जाणारी गंडोला आहे. या गंडोलामधून जाताना खोलवर खाली बर्फाची नदी, हिरव्या पाण्याची सरोवरे, सुरूचे उंच वृक्ष, पर्वत माथे, ग्लेशिअर्स असा अद्भुत नजारा दृष्टीस पडला. ब्लॅककोम्ब पर्वतमाथ्यावर बर्फात खेळण्याचा आनंद लुटला. परत येताना काळ्या रंगाचे व सोनेरी रंगाचे अस्वल दिसले. पर्वतमाथ्यापर्यंत गंडोलातून सायकली नेऊन पर्वतउतारावरून विशिष्ट रस्त्याने सायकलिंग करत  येण्याच्या शर्यतीत तरुण मुले-मुली उत्साहाने दौडत होती. येताना उंचावरुन कोसळणारा शेनॉन फॉल बघितला.

जगामध्ये कॅनडा आकाराने दुसऱ्या नंबरवर ( पहिला नंबर रशियाचा ) आहे.९९८४६७० चौरस किलोमीटर क्षेत्रफळ कॅनडाला लाभले आहे. एकूण क्षेत्रफळापैकी ५४ % भाग हा घनदाट जंगलांनी व्यापलेला आहे.साधारण अडीच कोटी लोकसंख्या असलेल्या कॅनडाचा चार पंचमांश भाग अजूनही निर्मनुष्य आहे. कॅनडाच्या उत्तरेकडील अतिथंड बर्फाळ विभागात एस्किमो लोकांची अगदी थोडी वस्ती आहे. पण हा बर्फाळ भाग खनिज संपत्तीने समृद्ध आहे. शिवाय तेथील भूगर्भात खनिज तेलाचे व नैसर्गिक वायूचे प्रचंड साठे आहेत. पूर्वेकडे अटलांटिक महासागर, पश्चिमेकडे पॅसिफिक महासागर, उत्तरेकडे आर्किक्ट महासागर व दक्षिणेकडे अमेरिकेची सरहद्द आहे. दोन देशांना विभागणारी जगातील सर्वात लांब आंतरराष्ट्रीय सीमारेषा ही कॅनडा आणि अमेरिकेच्या दरम्यान असून तिची लांबी ८८९१ किलोमीटर आहे. जगातील सर्वात मोठी किनारपट्टी कॅनडाला लाभली आहे. सामन, ट्राऊट, बास, पाईक असे मासे प्रचंड प्रमाणात मिळतात. त्यांची निर्यात केली जाते. लेक ओंटारिओ,लेक एरी, लेक ह्युरॉन अशी ३६०० गोड्या पाण्याची सरोवरे समुद्रासारखी विशाल आहेत. प्रचंड प्रमाणात जलविद्युत निर्मिती होते व अमेरिकेला पुरविली जाते.

ॲसबेस्टास, झिंक, कोळसा, आयर्न ओर, निकेल, कॉपर,सोने, चांदी अशी सर्व प्रकारची खनिजे व धातू मिळतात. अर्धीअधिक जंगले फर, पाईन, स्प्रुस अशा सूचीपर्णी वृक्षांनी भरलेली आहेत. जगभरातील न्यूज प्रिंट पेपर व इतर पेपर्स बनविण्यासाठी मोठ-मोठ्या वृक्षांचे ओंडके तसेच पेपर पल्प यांचा कॅनडा सर्वात मोठा निर्यातदार आहे.

मेपल वृक्षाचे, हाताच्या पंजासारखे लाल पान हे कॅनडाचे राष्ट्रीय चिन्ह आहे. या मेपल वृक्षाच्या चिकापासून बनविलेले मेपल सिरप लोकप्रिय आहे. काळी अस्वले, कॅरिबू,मूस,एल्क,जंगली कोल्हे,गोट्स जंगलात सुखेनैव भटकत असतात. क्यूबेक,  नोव्हा स्कॉटिया, न्यू फाउंड लॅ॑ड असे पठारी विभाग सर्वोत्तम शेती विभाग आहेत. उत्पादनापैकी ८० टक्के गहू निर्यात केला जातो. प्रचंड मोठी कुरणे व धष्टपुष्ट गाईगुरे यांच्या प्रेअरिज आहेत.

कॅनडामध्ये जगातल्या वेगवेगळ्या २०० देशातील ४५ वंशाचे लोक राहतात. स्थलांतरित चायनीज लोकांचा पहिला नंबर आहे तर भारतीय वंशाचे लोक तिसऱ्या नंबरवर आहेत. भारतीय डॉक्टर्सना सन्मानाने वागविले जाते. गेली बावन्न वर्षे  ओटावाजवळ राहात असलेले, मूळचे बडोद्याचे असलेले डॉक्टर प्रकाश खरे – न्यूरॉलॉजिस्ट व डॉक्टर उल्का खरे- स्त्रीरोगतज्ञ यांची या प्रवासात हृद्य भेट झाली. इथल्या बहुरंगी संस्कृतीमुळे सर्वांच्या चालण्या-बोलण्यात एक प्रकारची खिलाडू वृत्ती आहे.

समृद्ध, संपन्न, विशाल कॅनडा बाहेरून जसा देखणा आहे तसंच त्याचं अंतरंगही देखणे आहे याची प्रचिती आली. कॅनडाचे तरुण पंतप्रधान जस्टिन त्रुडो यांनी सीरीयामधून येणाऱ्या निर्वासितांसाठी कॅनडाचे दार उघडले. येणाऱ्या निर्वासितांना समाजात सामावून घेण्यासाठी सर्वसामान्य नागरिकांना पुढे येण्याचं आवाहन केले. या आवाहनाला कॅनेडियन नागरिकांनी भरभरून प्रतिसाद दिला. कॅनडात आता अनेक कुटुंबे एकत्र येऊन सिरीयन कुटुंबाचे पालक बनतात. वर्गणी काढून निर्वासितांच्या घरांचं भांडं, कपडेलत्ते याचा खर्च करतात. त्यांच्या मुलांच्या शिक्षणाची जबाबदारी उचलतात. त्यांना इंग्लिश शिकायला, स्थानिक संस्कृती समजावयाला मदत करतात. आपल्या मुलांना निर्वासित कुटुंबातील मुलांबरोबर मैत्री करण्यासाठी प्रोत्साहन देतात . आळीपाळीने आपल्या घरी बोलावितात. अशी मदत करणाऱ्या इच्छुकांची संख्या एवढी मोठी आहे की सर्वच्या सर्व सीरीयन निर्वासितांना कोणत्या ना कोणत्या कुटुंबाचा आधार मिळाला आहे.

आज सर्व जगभर द्वेषावर आधारित समाजनिर्मिती करण्याचा प्रयत्न स्वतःची राजकीय पोळी भाजण्यासाठी केला जात आहे. अशा वेळी निरपराधी लोकांना जिवाच्या भीतीने आपला देश, घरदार, माणसे सोडून परागंदा व्हावे लागते. युक्रेनचे ताजे उदाहरण आपल्यापुढे आहेच. आपली सारी मूळं तोडून टाकून लहान मुले, स्त्रिया यांच्यासह दुसऱ्या देशात आसरा घेणे हे अपार जीवघेणे दुःख आहे . कॅनेडियन नागरिकांनी मानवतेला लागलेला काळीमा पुसण्याचा केलेला हा प्रयत्न निश्चितच कौतुकास्पद आहे.

भाग-६ व कॅनडा समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 32 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 32 – मनोज के दोहे

(बरसे, होलिका, होली, छैला, महान)

बरसे

गाँवों की चौपाल में, बरसे है रस-रंग।

बारे-बूढ़े झूमकर, करते सबको दंग।।

होलिका

जली होलिका रात में, हुआ तमस का अंत।

अपनी संस्कृति को बचा, बने जगत के कंत।।

होली

कवियों की होली हुई, चले व्यंग्य के बाण।

हास और परिहास सुन, मिला गमों से त्राण।।

छैला

छैला बनकर घूमते, गाँव-गली में यार।

बनें मुसीबत हर घड़ी, कैसे हो उद्धार।।

महान

हाथ जोड़कर कह रहा, भारत देश महान।

शांति और सद्भाव से, हो मानव कल्यान।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 112 – “मन पवन की नौका” … कुबेर नाथ राय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  कुबेर नाथ राय जी  की पुस्तक “मन पवन की नौका” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 112 ☆

“मन पवन की नौका” … कुबेर नाथ राय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ 

पुस्तक – मन पवन की नौका

लेखक   – कुबेर नाथ राय

प्रकाशक – प्रतिश्रुति प्रकाशन कोलकाता

मूल्य – ₹३५०

 पृष्ठ  – १४४

ललित निबंध साहित्य की वह शैली है जिसमें कविता सा लालित्य, निबंध का ज्ञान, उपन्यास सा प्रवाह, कहानी सा आनन्द सम्मलित होता है. यदि निबंधकार कुबेर नाथ जी जैसा महान साहित्य मर्मज्ञ हो जिसके पास अद्भुत अभिव्यक्ति का कौशल हो, अथाह शब्द भंडार हो, इतिहास, संस्कृति, समकालीन अध्ययन हो तो सचमुच निबंध ललित ही होता है. हजारी प्रसाद द्विवेदी से ललित निबंध की परम्परा हिनदी में देखने को मिलती है, कुबेरनाथ जी के निबंध उत्कर्ष कहे जा सकते हैं. प्रतिश्रुति का आभार कि इस महान लेखक के निधन के बीस से ज्यादा वर्षो के बाद उनकी १९८३ में प्रकाशित कृति मन पवन की नौका को आज के पाठको के लिये सुंदर कलेवर में प्रस्तुत किया गया है. ये निबंध आज भि वैसे ही प्रासंगिक हैं, जैसे तब थे जब वे लिखे गये. क्योकि विभिन्न निबंधो में उन भारतीय समुद्रगामी अभीप्साओ का वर्णन मिलता है जिसकी बैजन्ती  अफगानिस्तान से जावा सुमात्रा तक ख्याति सिद्ध है. जिसके स्मारक शिव, बुद्ध, राम कथाओ, इनकी मूर्तियो लोक संस्कृति में अब भी रची बसी है. मन पवन की नौका पहला ही निबंध है, सिन्धु पार के मलय मारुत, अगस्त्य तारा, एक नदी इरावदी, जल माता मेनाम, मीकांग्ड गाथा, जावा के देशी पुराणो से, बाली द्वीप का एक ब्राह्मण, क्षीर सागर में रतन डोंगियां, यायावर कौण्डिन्य निबंधो में ज्ञान प्रवाह, सांस्कृतिक विवेचना पढ़ने मिलती है. किताब पढ़ना बहुत उपलब्धि पूर्ण है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆रिएलिटी शोज : कितने रियल ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “रिएलिटी शोज : कितने रियल ?।)

☆ आलेख ☆ रिएलिटी शोज : कितने रियल ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मनोरंजन के साधन में जब से इडियट बॉक्स( टीवी) ने बड़े पर्दे ( सिनेमा) को पछाड़ कर प्रथम स्थान प्राप्त किया, तो उसमें रियलिटी शोज का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्षों चलने वाले सीरियल्स जब ज्यादा ही सीरियस / स्टीरियो टाइप होने लगे तो दर्शकों ने रिएलिटी शोज को सरताज़ बना डाला हैं। वैसे अंग्रेजी की एक कहावत है कि “majority is always of fools”.

विगत एक दशक से अधिक समय से तो संगीत, नृत्य और विविध प्रकार के रियलिटी शोज का तो मानो सैलाब सा आ गया हैं।

अधिकतर भाग लेने वाले बच्चे गरीब घरों से होते हैं, या उनकी गरीबी और पिछड़ेपन से दर्शकों की भावनाओ के साथ खिलवाड़ किया जाता है। कोई अपने घर की एक मात्र आजीविका गाय पशु को बेच कर मायानगरी में आकर सितारा  बनना चाहता है, तो कोई ऑटो चालक का बच्चा ऑटो की बलि देकर मुंबई आता है। क्या माध्यम या उच्च वर्ग के बच्चे इन कार्यक्रमों में कीर्तिमान स्थापित नहीं कर सकते हैं?

कार्यक्रम के प्रायोजक/ चैनल विजेता बनने के लिए अपनी शर्तें और नियम का हवाला देकर आपको जीवन भर या लंबे समय के लिए “बंधुआ मज़दूर” बनने के लिए मजबूर कर देते हैं।                             

अब लेखनी को विराम देता हूं, क्योंकि मेरे सब से चहेते कार्यक्रम का फाइनल जी नही फिनाले का समय हो गया है। टीवी पर रिमाइंडर आ गया है, इसलिए मिलते है, अगले भाग में।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #137 ☆ ठिणगी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 137  ?

☆ ठिणगी ☆

येउनी स्वप्नात माझ्या, रोज ती छळतेच आहे

जखम भरु ती देत नाही, दुःख माझे हेच आहे

 

ऊल झालो शाल झालो, हे तिला कळलेच नाही

ती मला पत्थर म्हणाली, काळजाला ठेच आहे

 

सागराच्या मी किनारी, रोज घरटे बांधणारा

छेडणारी लाट येते, अन् मला भिडतेच आहे

 

आंधळ्या प्रेमास माझ्या, सापडेना मार्ग काही

ती निघाली हात सोडुन, शल्य मज इतकेच आहे

 

कान डोळे बंद करने, हे मला जमलेच नाही

टोमण्यांची धूळ येथे, रोज तर उडतेच आहे

 

ही पुराणातील वांगी, आजही पिकतात येथे

नारदा तू टाक ठिणगी, रान मग जळतेच आहे

 

रोज देहातून पाझर, वाढतो आहे उन्हाळा

भाकरीचे पीठ कायम, त्यात ती मळतेच आहे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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