मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 17 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 17 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

[२४]

 दिवस ढळू लागला आहे,

 पक्षी गायचे थांबले आहेत,

 वाराही वहायचा थांबला आहे.

 अशा वेळी झोपेच्या पातळ पडद्याने,

 माझ्या भोवती अंधाराची चादर लपेटून

 कमळाच्या पाकळ्या मिटून घे.

 

प्रवास संपण्यापूर्वीच माझी शिदोरी संपली आहे

धुळीनं भरलेली माझी वस्त्रं फाटली आहेत

मी गलीतगात्र झालो आहे.

माझी लज्जा, माझं दारिद्र्य दूर कर.

 

दयामय रात्रीच्या पंखाखाली

एखाद्या पुष्पाप्रमाणं माझं जीवन पुन्हा उमलू दे.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

pmk2146@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #146 ☆ व्यंग्य – उदर-रोग आख्यान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘उदर-रोग आख्यान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 146 ☆

☆ व्यंग्य – उदर-रोग आख्यान

सेवा में सविनय निवेदन है कि मैं पेट का ऐतिहासिक मरीज हूँ। मर्ज़ अब इतना पुराना हो गया है कि मेरे व्यक्तिगत इतिहास में लाख टटोलने पर भी इसकी जड़ें नहीं मिलतीं। अब तक इस रोग के नाना रूपों और आयामों में से गुज़र चुका हूँ।

पेट का रोग संसार में सबसे ज़्यादा व्यापक है। शायद इसका कारण यह है कि अल्लाह ने भोजन करने का काम तो हमारे हाथ में दिया है लेकिन आगे के सारे विभाग अपने हाथ में ले रखे हैं। काश कोई ऐसा बटन होता जिसे दबाते ही भोजन अपने आप पच जाता और शरीर का सारा कारोबार ठीक से चलता रहता। कमबख्त पेट की गाड़ी ऐसी होती है जो एक बार पटरी से उतरी सो उतरी। फिर आप पेट के मरीज़ होने का गर्व करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते।

एक विद्वान ने कहा है कि जिसे हम अक्सर आत्मा का रोग समझ लेते हैं वह वास्तव में पेट का मर्ज़ होता है। जो लोग दार्शनिक या कवि जैसे खोये खोये बैठे रहते हैं यदि उनकी दार्शनिकता की तह में प्रवेश किया जाए तो कई लोग पेट के रोग से ग्रस्त मिलेंगे। इसीलिए दार्शनिकों और कवियों की पूरी जाँच होना चाहिए ताकि पता लगे कि कितने ‘जेनुइन’ कवि हैं और कितनों का कवित्व ‘मर्ज़े मैदा’ से पैदा हुआ है।

पेट का मरीज़ मेहमान के रूप में बहुत ख़तरनाक होता है। वह जिस घर में अतिथि बनता है वहाँ भूचाल पैदा कर देता है। उसे तली चीज़ नहीं चाहिए, धुली हुई दाल नहीं चाहिए, नींबू चाहिए, काला नमक चाहिए, दही चाहिए, अदरक चाहिए। ‘बिटिया, शाम को तो मैं खिचड़ी खाऊँगा। ईसबगोल की भूसी हो तो थोड़ी सी देना और ज़रा पानी गर्म कर देना।’ ऐसा मेहमान मेज़बान को कभी पूरब की तरफ दौड़ाता है, कभी पच्छिम की तरफ। ऐसी चीजें तलाशना पड़ती हैं जिनका नाम सुनकर दूकानदार हमारा मुँह देखता रह जाता है। घर के बाथरूम पर मेहमान का पूरा कब्ज़ा होता है। वे दो बार, चार बार, छः बार, जितने बार चाहें वहाँ आते जाते रहते हैं। कई लोग जो आठ बजे घुसते हैं तो फिर दस बजे तक पुनः दर्शन नहीं देते।

पेट का मरीज़ अपने साथ दुनिया भर का सरंजाम लेकर चलता है— नाना प्रकार के चूर्ण, लहसुन वटी, चित्रकादि वटी, द्राक्षासव, और जाने कितने टोटके। दवाइयों के हजारों कारखाने पेट के रोगियों के लिए चलते हैं। पेट के रोगी का बिगड़ा हुआ पेट बहुत से पेट पालता है।

पेट के रोगी के साथ मुश्किल यह होती है कि उसकी दुनिया अपने पेट तक ही सीमित रहती है। वह हर चार घंटे पर अपने पेट के स्वास्थ्य का बुलेटिन ज़ारी करता है। जिस दिन उसका पेट ठीक रहता है वह दिन उसके लिए स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य होता है। जब बाकी सब लोग अफगानिस्तान और ईरान की समस्या की बातें करते हैं तब वह बैठा अपना पेट बजाता है।

पेट का रोगी बड़ा चिड़चिड़ा, बदमिजाज़ और शक्की हो जाता है। इसलिए पेट के रोगी को कभी ज़िम्मेदारी के पद पर नहीं बैठाना चाहिए। ऐसा आदमी जज बन जाए तो रोज़ दो चार को फाँसी पर लटका दे, अफसर बन जाए तो रोज़ दो चार को डिसमिस करे, और किसी देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन जाए तो ज़रा सी बात पर जंग का नगाड़ा बजवा दे। घर और पड़ोस के लोग पेट के रोगी से त्रस्त रहते हैं क्योंकि वह हर बात पर काटने को दौड़ता है। उसका चेहरा बारहों महीने मनहूस बना रहता है।

पेट के रोग का यह वृतांत एक किस्से के साथ समाप्त करूँगा। एक दिन जब डॉक्टर के दवाखाने से पेट की दवा लेकर चला तो एक रोगी महोदय मेरे पीछे लग गये। वे स्वास्थ्य की जर्जरता  में मुझसे बीस थे।

उन्होंने मुझसे पूछा, ‘आप पेट के रोगी हैं?’

मेरे ‘हाँ’ कहने पर उन्होंने पूछा, ‘कितने पुराने रोगी हैं?’

जब मैंने पंद्रह वर्ष का अनुभव बताया तो वे प्रसन्न हो गये। उन्होंने बड़े जोश में मुझसे हाथ मिलाया। बोले, ‘मैं भी अठारह वर्ष की हैसियत का पेट का रोगी हूँ। मेरा नाम बी.के. वर्मा है।’

मैंने प्रसन्नता ज़ाहिर की तो वे बोले, ‘आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। दरअसल हमने इस शहर में ‘एक उदर रोगी संघ’ बनाया है। उसकी मीटिंग इतवार को शाम को होती है। मैं चाहता हूँ कि आप भी इसमें शामिल हों।’

इतवार की शाम उनके बताये पते पर पहुँचा। वह घर उनके संघ के अध्यक्ष का था जो पैंतालीस वर्ष की हैसियत के उदर रोगी थे।वहाँ अलग अलग अनुभव वाले लगभग पच्चीस उदर रोगी एकत्रित थे। उन्होंने बड़े जोश से मेरा स्वागत किया, जैसे उन्हें ‘बढ़त देख निज गोत’ खुशी हुई हो।

उस सभा में पेट के रोगों के कई आयामों की चर्चा हुई। कई नई औषधियों का ब्यौरा दिया गया। वहाँ उदर रोग के मामले में ‘सीनियर’ ‘जूनियर’ का भेद स्पष्ट दिखायी दे रहा था। जो जितना सीनियर था वह उतने ही गर्व में तना था।

उस दिन के बाद मैं उदर-रोगी संघ की मीटिंग में नहीं गया। करीब पंद्रह दिन बाद दरवाज़ा खटका तो देखा वर्मा जी थे। वे बोले, ‘आप उस दिन के बाद नहीं आये?’

मैंने उत्तर सोच रखा था। कहा, ‘क्या बताऊँ वर्मा जी। अबकी बार मैंने जो दवा ली है उससे मेरा उदर रोग काफी ठीक हो गया है। इसीलिए मैं आपके संंघ के लिए सही पात्र नहीं रह गया।’

वर्मा जी का मुँह उतर गया। वे बोले, ‘तो आपका रोग ठीक हो गया?’

मैंने कहा, ‘हाँ, लगता तो कुछ ऐसा ही है।’

वे बोले, ‘इतनी जल्दी कैसे ठीक हो सकता है?’

मैंने कहा, ‘मुझे अफसोस है। लेकिन बात सही है।’

वर्मा जी बड़ा मायूस चेहरा लिये हुए मुड़े और मेरे घर और मेरी ज़िंदगी से बाहर हो गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 144 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 144 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 1 ?

श्रीक्षेत्र आलंदी / श्रीक्षेत्र देहू से पंढरपुर तक 260 किलोमीटर की पदयात्रा है महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी। मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि-  वारी की जानकारी पूरे देश तक पहुँचे, इस उद्देश्य से 11 वर्ष पूर्व वारी पर बनाई गई इस फिल्म और लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। अनुरोध है कि महाराष्ट्र की इस सांस्कृतिक परंपरा को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने में सहयोग करें। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। 🙏

डॉक्यूमेंट्री फिल्म का यूट्यूब लिंक (कृपया यहाँ क्लिक करें) 👉  वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा

निर्माण – श्री  प्रभाकर बांदेकर 

लेखन एवं स्वर – श्री संजय भारद्वाज  

भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है-पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि  तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।

स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।

पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले  महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के  विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।

पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।

वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।

अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।

अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।

हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और  कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार। 

क्रमश:…

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 98 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 98 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 98) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 98 ?

 ☆

माना कि तुम्हें याद न करने

की  जिद  हमारी  थी…,

पर  भूल  जाने  में  तो,

आप भी कमाल निकले…

 

Agreed that it was my  

obstinacy not to miss you…

But you amazingly surpassed  

everyone in forgetting…

 जिंदगी में मंजिलों का

फितूर ही नहीं,  

कुछ सफर का

सुरूर भी जरूरी है…

 

Why alone the obsession of

the destinations in life,

Some euphoric inebriation of

the journey is also a must…

नीचे आ गिरती है

हर  बार  दुआ  मेरी,

पता नहीं किस ऊँचाई

पर  रब  रहता  है…

My benedictive prayers

kept crashing down…

Knoweth  not  at  what

height the Lord resides..!

कुछ इस तरह खूबसूरत

रिश्ते टूट जाया करते हैं,

जब दिल भर जाता है तो

लोग रूठ जाया करते हैं…

When heart gets satiated,

the people sulk away…

Some beautiful relations

break up like this also…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 98 ☆ मुक्तिका…अचेतन है ज़िंदगी… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित मुक्तिका…अचेतन है ज़िंदगी… )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 98 ☆ 

☆ मुक्तिका…अचेतन है ज़िंदगी… ☆

 ​.

बँधी नीलाकाश में

मुक्तता भी पाश में

.

प्रस्फुटित संभावना

अगिन केवल ‘काश’ में

.

समय का अवमूल्यन

हो रहा है ताश में

.

अचेतन है ज़िंदगी

शेष जीवन लाश में

.

दिख रहे निर्माण के

चिन्ह व्यापक नाश में

.

मुखौटों की कुंडली

मिली पर्दाफाश में

.

कला का अस्तित्व है

निहित संगतराश में

.

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

११.५.२०१६, ६.४५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #130 ☆ गरूड़ पुराण – एक आत्मकथ्य ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 130 ☆

☆ ‌आलेख – गरूड़ पुराण – एक आत्मकथ्य ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

वैसे तो  भारतीय संस्कृति मे हमारी जीवन शैली संस्कारों से आच्छादित है, जिससे हमारा समाज एक आदर्श समाज के रूप में स्थापित हो जाता है क्योंकि जो समाज संस्कार विहीन होता है, वह पतनोन्मुखी हो जाता है।  

संस्कार ही समाज की आत्मा है, संस्कारित समाज सामाजिक रिश्तों के ताने-बाने को मजबूती प्रदान करता है, अन्यथा यह समाज पशुवत जीवनशैली अपनाता है और सामाजिक आचार संहिता के सारे कायदे कानून तोड़ देता हैं।

ऐसा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जो हिंदू जीवन पद्धति का मूल है, जिसके कारण हमारे सामाजिक तथा पारिवारिक जीवन में दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे मानवीय मूल्य विकसित होते हैं। इसी क्रम में हमारे जीवन में कर्म कांडों का महत्व बढ़ जाता है। क्योंकि इन सारे कर्म काण्डों के मूल में हमारे शास्त्रों पुराणों उपनिषदों तथा वेदों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कुल चार वेद, छः शास्त्र, अठ्ठारह पुराण तथा उपनिषद है, और हर पुराण के मूल में कथाएं हैं, जो हमारे आचरण आचार विचार आहार विहार तथा व्यवहार पक्ष को निर्धारित करती है। संरचना के हिसाब से सारे पुराण अध्यायों तथा खंडों में विभाजित है तथा उनके आयोजन का एकमेव उद्देश्य है, मानव का कल्याण।

इस क्रम में श्रीमद्भा गवत कथा को मोक्ष की प्राप्ति कामना से श्रवण किया जाता है, जहां जिसका श्रवण मृत्यु को अवश्यंभावी जानकर प्राणी के मोक्ष हेतु आयोजन का विधान है, तो गरूण पुराण कथा का श्रवण का परिजनों की मृत्यु के बाद लोगों को अपने प्रिय जनों की बिछोह की बेला में दुख और पीड़ा से आकुल व्याकुल परिजनों को कथा श्रवण के माध्यम से दुःख सहने की क्षमता विकसित करता है। और दुखी इंसान को धीरे-धीरे गम और पीड़ा के असह्य दुख से उबार कर सामान्य सामाजिक जीवन धारा में वापस लौटने में मदद करता है। इसके पीछे मन का मनोविज्ञान छुपा है क्योकि जहां जन्म है वहीं मृत्यु भी है। प्राय:इस कथा का आयोजन हिंदू रीति रिवाजों के अनुसार मृत्यु के पश्चात मृतक शरीर की कपाल क्रिया अन्त्येष्टि संस्कार के बाद मृतक के परिजनों द्वारा आयोजित किया जाता है।

तब जब सारे मांगलिक आयोजन वर्जित माने जाते हैं। गरूण पुराण की कथा की बिषय वस्तु पंच तत्व रचित शरीर को मृत्यु के बाद जला देने तथा इसके बाद में इस शरीर में समाहित सूक्ष्म शरीर की परलोक यात्रा के विधान का वर्णन है। हमारे स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर होता है, जो मन के स्वभाव से आच्छादित होता है क्योकि मृत्यु शैय्या पर पडे़ व्यक्ति में कामनाएं शेष रहती है उस सूक्ष्म शरीर जिसे यमदूत लेकर धर्मराज की नगरी की यात्रा पर निकलते हैं, उसी यात्रा के वृतांत का वर्णन है। गरूण पुराण में जिसमें जिज्ञासु गरूण जी श्री नारायण हरि से प्रश्न करते हैं। और उनकी हर शंका समाधान भगवान विष्णु के द्वारा किया जाता है। उस जीव के भीतर व्याप्त मन जो  दुख और सुख की अनुभूति करता है के कर्मो का पूरा लेखा जोखा प्रस्तुत करते हैं तथा उस यात्रा के दौरान पड़ने वाले पड़ावों का मानव की सूक्ष्म शरीरी यात्रा व शुभ अशुभ कर्मों के परिणाम तथा दंड के विधान की झांकी प्रस्तुत की गई है जिसे देखकर कर सूक्ष्मशरीरी जीव कभी सुखी कभी भयभीत होता है।

इन कथा के श्रवण के पीछे भी लोक कल्याण का भाव समाहित है ताकि हमारा समाज अशुभ कर्मों के अशुभ परिणाम से बच कर, अच्छा कर्म करता हुआ सद्गति को प्राप्त हो अधोगति से बचें। इस कथा में कर्मफल तथा उसके भोग का विधान वर्णित है। इसके साथ ही  साथ ही साथ सामाजिक जीवन आदर्श आचार संहिता के पालन का दिशा निर्देश भी है। शांति पूर्ण ढंग से जीवन जीने की गाइडलाइन भी कह सकते हैं।

# ॐ सर्वे भवन्तु सुखिन: #

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ गोड गोडूला ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? 😍 गोड गोडूला ! 💓 ? ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆ 

न कळत्या वया मधे

धरून पुस्तक हाती

मन लावून शोधतो

जणू जगाची उत्पत्ती

पाहून ही एकाग्रता

चक्रावली मम मती

वाचाल तर वाचाल

हेच त्रिवार सत्य अंती

आदर्श गोड गोडुल्याचा

आजच्या पिढीने घ्यावा

चांगल्या पुस्तकात मिळे

तुम्हां ज्ञानामृताचा ठेवा

छायाचित्र – सुशील नलावडे, पनवेल.

© प्रमोद वामन वर्तक

१४-०६-२०२२

ठाणे.

मो – 9892561086

ई-मेल – pradnyavartak3@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #146 – ग़ज़ल-32 – “मुहब्बत अगर हो भी जाए…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मुहब्बत अगर हो भी जाए…”)

? ग़ज़ल # 32 – “मुहब्बत अगर हो भी जाए…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मुहब्बत से लबालब भरा किसी का भी हो दिल

नफ़रत का भी मकाँ है किसी का भी हो दिल।

 

मुहब्बत अगर हो भी जाए किसी को किसी से,

मुहब्बत का भ्रम टूटेगा किसी का भी हो दिल।

 

ग़ुलाब की तरह मुहब्बत काटों संग खिलती है,

वियोग ख़ार सा चुभता किसी का भी हो दिल।

 

कौंपल पंखुडियाँ मुरझा जाती नज़रों की तपिश से,

नफ़रत के ख़ार खिलते हो किसी का भी हो दिल।

 

आना-जाना क़ायदा है इस कायनात का ‘आतिश’

टूटता मुहब्बत में एक बार किसी का भी हो दिल,

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुक्तक – ।। पिता का  हाथ, अंधेरे में उजाले का साथ है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना ।पिता का  हाथ, अंधेरे में उजाले का साथ है)

☆ मुक्तक – ।। पिता का  हाथ, अंधेरे में उजाले का साथ है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

माँ स्नेह का    स्पर्श     तो

पिता धूप में      छाया   है।

माँ घर करती     देखभाल

तो पिता  धन     लाया   है।।

माँ बाप  के       आजीवन

ऋणी हैं    हम  सब      ही।

इनसे ही   प्राप्त   हुई   हम

सब को           काया     है।।

[2]

माँ ममता    की मूरत    तो

जैसे पिता        साया     है।

माँ से सबने     ही     बहुत

प्यार दुलार        पाया.   है।।

जीवन में      आती        है

जब   भी            कठिनाई।

पिता ने   साथी.  बन   कर

हाथ       बढ़ाया            है।।

[3]

माँ बाप ने   ऊँगली  पकड़

चलना          सिखाया   है।

बड़ा कर के          लिखना

पढ़ना            बताया     है।।

पिता से ही        जाना    है

कैसे   बनना          मजबूत।

बाजार से     खिलौने     तो

पिता     ही       लाया     है।।

[4]

माँ खुला   आंगन         तो

पिता     जैसे       छत    है।

जमाने से        बचने    की

हर सीख    का     खत   है।।

हम हैं संसार में          बस

माँ बाप     की      बदौलत।

माता पिता से    ही मिलता

संस्कारों का     तत्व       है।।

[5]

माता पिता ही      समझाते

अपने पराये   का       अंतर।

हमें बड़ा करने को     करते

वह दोनों    ही     हर  जंतर।।

पिता का हाथ    लगता    यूँ

जैसे अंधेरे      में     उजाला।

माता पिता की     सेवा    ही

जैसे   हर    पूजन  मंतर   है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 87 ☆ गजल – ’’पीड़ा का भारी बोझ…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “पीड़ा का भारी बोझ …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 87 ☆ गजल – पीड़ा का भारी बोझ …  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

चोटों पै चोट दिल पै कई खाये हुये है।

दुख-दर्दो को मुस्कानों में बहलाये हुये हैं।।

 

जब से है होश सबके लिये खपता रहा मैं

पर जिनको किया सब, वही बल खाये हुये हैं।।

 

करता रहा हर हाल मुश्किलों का सामना

पर जाने कि क्यों लोग मुँह फुलाये हुये हैं।।

 

गम खाके अपनी चोट किसी से न कह सका

हम मन को कल के मोह में भरमाये हुये हैं।।

 

लगता है अकेले कहीं पै बैठ के रोयें

किससे कहें कि कितने गम उठाये हुये हैं।।

 

औरों से शिकायत नहीं अपनों से गिला है

जो मन पै परत मैल की चिपकाये हुये हैं।।

 

दिल पूछता है मुझसे कि कोई गल्ती कहाँ है ?

धीरज धरे पर उसको हम समझाये हुये हैं।।

 

देखा है इस दुनियाँ में कई करके भी भलाई

अनजानों से बदनामी ही तो पाये हुये हैं।।

 

करके भी सही औरों को हम खुश न कर सके

पीड़ा का भारी बोझ ये उठाये हुये हैं।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares