हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 98 ☆ स्वतन्त्रता दिवस विशेष – जयहिंद! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 98 ☆ स्वतन्त्रता दिवस विशेष – जयहिंद! ☆

विश्व के हर धर्म में स्वर्ग की संकल्पना है। सद्कर्मों द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति का लक्ष्य है। हमारे ऋषि-मुनियों ने तो इससे एक कदम आगे की यात्रा की। उन्होंने प्रतिपादित किया कि मातृभूमि स्वर्ग से बढ़कर है, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध हमारे राजाओं का संघर्ष इसी की परिणति था।

कालांतर में अँग्रेज़ आया। संघर्ष का विस्तार हुआ। आम जनता भी इस संघर्ष में सहभागी हुई।

संघर्ष और स्वाधीनता का परस्पर अटूट सम्बन्ध है। स्वाधीन होने और स्वाधीन रहने के लिए निरंतर संघर्ष अनिवार्य है। मृत्यु का सहज वरण करने का साहस देश और देशवासियों की अखंड स्वतंत्रता का कारक होता है।

एक व्यक्ति ने एक तोता पकड़ा। उड़ता तोता पिंजरे में बंद हो गया। वह व्यक्ति तोते के खानपान, अन्य सभी बातों का ध्यान रखता था। तोता यूँ तो बिना उड़े, खाना-पीना पाकर संतुष्ट था पर उसकी मूल इच्छा आसमान में उड़ने की थी। धीरे-धीरे उस व्यक्ति ने तोते को मनुष्यों की भाषा भी सिखा दी। एक दिन तोते ने सुना कि वह व्यक्ति अपनी पत्नी से कह रहा था कि अगले दिन उसे सुदूर के एक गाँव में किसी से मिलने जाना है। सुदूर के उस गाँव में तोते का गुरु तोता रहता था। तोते ने व्यक्ति से अनुरोध किया कि गुरू जी को मेरा प्रणाम अर्पित कर मेरी कुशलता बताएँ और मेरा यह संदेश सुनाएँ कि मैं जीना चाहता हूँ। व्यक्ति ने ऐसा ही किया। शिष्य तोते का संदेश सुनकर गुरु तोते अपने पंख अनेक बार जोर से फड़फड़ाए, इतनी जोर से कि निष्चेष्ट हो ज़मीन पर गिर गया।

लौटकर आने पर व्यक्ति ने अपने पालतू तोते सारा किस्सा कह सुनाया। यह सुनकर दुखी हुए तोते ने पिंजरे के भीतर अपने पंख अनेक बार जोर-जोर से फड़फड़ाए और निष्चेष्ट होकर गिर गया। व्यक्ति से तोते की देह को बाहर निकाल कर रखा। रखने भर की देर थी कि तोता तेज़ी से उड़कर मुंडेर पर बैठ गया और बोला, ” स्वामी, आपके आपके स्नेह और देखभाल के लिए मैं आभारी हूँ पर मैं उड़ना चाहता हूँ और उड़ने का सही मार्ग मुझे मेरे गुरु ने दिखाया है। गुरुजी ने पंख फड़फड़ाए और निश्चेष्ट होकर गिर गए। संदेश स्पष्ट है, उड़ना है, जीना है तो मरना सीखो।”

नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी जून 1944 के अपने ऐतिहासिक भाषण में अपने सैनिकों से यही कहा था। उनका कथन था,” किसी के मन में स्वतंत्रता के मीठे फलों का आनंद लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। एक लंबी लड़ाई अब भी हमारे सामने है। आज हमारी केवल एक ही इच्छा होनी चाहिए- मरने की इच्छा ताकि भारत जी सके। एक शहीद की मौत मरने की इच्छा जिससे स्वतंत्रता की राह शहीदों के खून से बनाई जा सके।”

देश को ज़िंदा रखने में मरने की इस इच्छा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। 1947 का कबायली हमला हो, 1962, 1965, 1971 के युद्ध, कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद, कारगिल का संघर्ष या सर्जिकल स्ट्राइक, बलिदान के बिना स्वाधीनता परवान नहीं चढ़ती। क्रांतिकारियों से लेकर हमारे सैनिकों ने अपने बलिदान से स्वाधीनता को सींचा है।स्मरण रहे, थे सो हम हैं।

आज स्वाधीनता दिवस है। स्वाधीनता दिवस देश के नागरिकों का सामूहिक जन्मदिन है। आइए, सामूहिक जन्मोत्सव मनाएँ, सबको साथ लेकर मनाएँ। इस अनूठे जन्मोत्सव का सुखद विरोधाभास यह कि जैसे-जैसे एक पीढ़ी समय की दौड़ में पिछड़ती जाती है, उस पीढ़ी के अनुभव से समृद्ध होकर देश अधिक शक्तिशाली और युवा होता जाता है।

देश को निरंतर युवा रखना देशवासी का धर्म और कर्म दोनों हैं। चिरयुवा देश का नागरिक होना सौभाग्य और सम्मान की बात है। हिंद के लिए शरीर के हर रोम से, रक्त की हर बूँद से ‘जयहिंद’ तो बनता ही है।…जयहिंद!

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #94 – मानसून की पहली बूंदे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता   ‘मानसून की पहली बूंदे….….। )

☆  तन्मय साहित्य  # 94 ☆

 ☆ मानसून की पहली बूंदे…. ☆

मानसून की पहली बूंदे

धरती पर आई

महकी सोंधी खुशबू

खुशियाँ जन मन में छाई।

 

बड़े दिनों के बाद

सुखद शीतल झोंके आए

पशु पक्षी वनचर विभोर

मन ही मन हरसाये,

बजी बांसुरी ग्वाले की

बछड़े ने हाँक लगाई।

 

ताल तलैया पनघट

सरिताओं के पेट भरे

पावस की बौछारें

प्रेमी जनों के ताप हरे,

गाँव गली पगडंडी में

बूंदों ने धूम मचाई।

 

उम्मीदों के बीज

चले बोने किसान खेतों में

पुलकित है नव युगल

प्रीत की बातें संकेतों में,

कुक उठी कोकिला

गूँजने लगे गीत अमराई।

मानसून की पहली बूंदें

धरती पर आई

महकी सुध खुशबू

जन-जन में छाई।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #77 – 15 – जिम उर्फ़ जेम्स एडवर्ड कार्बेट ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 15 – जिम उर्फ़ जेम्स एडवर्ड कार्बेट”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #77 – 15 – जिम उर्फ़ जेम्स एडवर्ड कार्बेट☆ 

भारत लम्बे समय तक ब्रिटिश राज के आधीन रहा और जहाँ एक ओर उसने  जनरल डायर सरीखे खूंखार मानवद्रोहियों के अत्याचार सहे तो ऐसे अनेक अंग्रेज भी इस धरा पर आये जिन्होंने यहाँ के निवासियों का दिल अपनी सेवा भावना व न्यायप्रियता से जीता । उस वक्त संयुक्त प्रांत या आज के उत्तरप्रदेश के अंग रहे उत्तराखंड को, ऐसी ही दो महान हस्तियों का सानिध्य मिला, एक बन्दूक के शौक़ीन जिम कार्बेट और दूसरी अहिंसा की पुजारिन लन्दन में जन्मी  कैथरीन उर्फ़ सरला देवी ।

जिम यानी जेम्स एडवर्ड कार्बेट 1875 में कालाढुँगी के पोस्टमास्टर की ग्यारहवीं संतान के रूप में जन्मे और जब वे केवल चार वर्ष के नन्हे बालक थे तो उनके पिता की मृत्यु हो गई । कुमाऊं के अपेक्षाकृत मैदानी इलाके में बसे कालाढुँगी के खूबसरत जंगल जानवरों और परिंदों से भरे थे और यहाँ के बृक्ष, हिंसक जानवर,कोसी के अज़गर, चारा चरते हिरण और आसमान में उड़ते परिंदे नन्हे जिम के पहले साथी बने । आठ वर्ष की उम्र में, गुलेल और तीर कमान से जंगली मुर्गियों और मोरों का शिकार करने वाला यह नन्हा शिकारी, दुनाली भरतल बंदूक का मालिक बना । ऐसी बंदूक जिसकी  दाईं नाल फटी हुई थी और पीतल के तारों से बन्दूक के कुंदे और नालों को आपस में जोड़कर बांधा गया था । पर इससे क्या ? नन्हे शिकारी के लिए यह थी तो गर्व की बात । और यह गौरव पूर्ण क्षण जिम ने सबसे पहले अपने चाचा की उम्र के  कुंवर सिंह के साथ साझा किये जिसने उसे शिकार खेलने की बारीकियां समझाई और साथ ही पेड़ों पर चढ़ना भी सिखाया । बाद के दिनों में कुंवर सिंह अफीमची हो गया और बहुत बीमार पड़ा तब जिम कार्बेट ने उसकी बड़ी सेवा की और मौत के मुंह से बाहर निकाला ।   

जिम, जिसे कुमाऊं के पहाड़ी लोग आदर से कापेट साहब कहते थे , ने अठारह वर्ष की उम्र में अपनी स्कूली शिक्षा नैनीताल से पूरी की और फिर रेलवे में नौकरी कर ली । इस सिलसिले में उन्हें अपने प्रिय जंगलों से हज़ार किलोमीटर दूर बिहार के मोकामा घाट में जाना पडा । यहाँ रहते हुए उन्होंने अपने कामगारों के बच्चों के लिए स्कूल खोला और इस काम में उनके साथी बने स्टेशन मास्टर रामसरन, जो खुद तो ज्यादा पढ़े लिखे न थे पर शिक्षा का महत्व समझते  थे । बाद में सरकार ने स्कूल को अधिकृत कर मिडिल स्कूल  बना दिया और जिम के साथी रामसरन को ‘राय साहब’ का खिताब मिला । खेलकूद के शौक़ीन जिम ने मैदान साफ़ करवाकर फुटबाल और हॉकी के खेल शुरू किए और इसी दौरान वे प्रथम विश्वयुद्ध के समय वे सेना में भर्ती हो गये । मोकामाघाट में ही उन्होंने माल लदाई का ठेका लिया ।

सेना की नौकरी से त्यागपत्र देकर जिम 1922 में कालाढुँगी आकर बस गए । यहाँ उन्होंने खेती की जमीनें खरीदी, जंगली जानवरों से खेतों की रक्षा के लिए लम्बी बाउंड्री वाल बनवाई, सत्रह कृषक  परिवारों को न केवल बसाया वरन  उनके लिए पक्के मकान बनवाये, अपने लिए एक शानदार बँगला बनवाया । जिम का यह बँगला कोई दो हेक्टेयर जमीन के एक छोटे से हिस्से में बना था । और इसमें वे अपनी बहन मैगी और शिकारी कुत्ते रोबिन के साथ सर्दियों के मौसम में रहते थे । उनकी गर्मिया व्यतीत होती थी नैनीताल के गुर्नी हाउस में । 1947 में भारत आज़ाद हुआ और जिम ने भरे मन से अपने इस प्यारे देश, जहाँ उसका जन्म हुआ और नाम व प्रसिद्धि मिली, को अलविदा कह दिया और वे अपनी बहन के साथ केन्या में जा बसे, जहाँ उनकी मृत्यु 1955 में हो गई । जब वे भारत छोड़ कर जा रहे थे तब   कालाढुँगी  का बँगला चिरंजीलाल को बेच दिया और खेती की जमीनें कृषकों के नाम कर दी । वन विभाग ने इस बंगले को 1965 में खरीदकर, जिम कार्बेट के द्वारा उपयोग में लाई गई अनेक वस्तुएं, बर्तन, मेज-कुर्सी, शिकार व अन्य गतिविधियों को दर्शाते उनके चित्रों व छायाचित्रों को संग्रहित कर संग्रहालय का स्वरुप दिया है । ऐसा कर उत्तराखंड के वन विभाग ने इस महान शिकारी, अद्भुत लेखक और एक शानदार इंसान, जिसे अपने लोगों व सहकर्मियों से और इस देश के वाशिंदों से बेपनाह प्यार  था, को सच्ची श्रद्धांजलि दी है ।

जिम कार्बेट जब केन्या में बस गए तो उन्हें भारत में बिताए अपने पचहत्तर से कुछ कम वर्षों की बहुत याद आती और अपनी इन्ही यादों को, शिकार की कहानियों को, भारत के जंगल की वनस्पतियों व जानवरों को, जंगल के प्राकृतिक सौन्दर्य और सबसे बढ़कर नैनीताल की हरी-भरी  वादियों से लेकर कालाडुंगी के मैदानों और फिर सूदूर बिहार के मोकामाघाट के भोले-भाले ग्रामीणों के साथ बिताए दिनों का शानदार वर्णन उन्होंने कोई आधा दर्जन किताबों के माध्यम से किया । उनकी चर्चित कृतियों में कुमाऊं के नरभक्षी, जीती जागती कहानी जंगल की और मेरा हिन्दुस्तान बहुत लोकप्रिय है । कुमाऊं के नरभक्षी की कहानियां तो महाविद्यालय के अंग्रेजी  पाठ्यक्रम में लम्बे समय तक शामिल रही ।

जिम कार्बेट का जंगल ज्ञान अद्भुत था । उन्हें पत्ता खडकने, वृक्षों को देखकर, जानवरों के पदचिन्ह देखकर जंगल में क्या घटने वाला है इसका अंदाजा हो जाता था । वे शेर की आवाज निकालने में माहिर थे और अक्सर नरभक्षी शेर को मादा शेर की आवाज निकालकर अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे । कुमाऊं के प्रशासन ने जंगलों में पनाह लिए दुर्दांत दस्यु सुल्ताना को पकड़ने के लिए जिम कार्बेट की मदद ली थी और उन्होंने अनेक बार पुलिस टीम को जंगल में भटकने से बचाया था ।  उनका निशाना इतना गजब का था कि शायद ही कोई गोली बेकार गई हो । अपनी बहादुरी और जंगल ज्ञान के कारण उन्होंने कोई दस नरभक्षी शेरों का शिकार हिमालय की तराई में बसे जंगलों में किया । वे 1931में गिर्जिया गांव के पास मोहन नरभक्षी शेर का शिकार करने नैनीताल जिला प्रशासन द्वारा भेजे गए। शेर के संबंध में जानकारियां एकत्रित करते वक्त ग्रामीणों ने  बताया कि जब कभी रात में शेर गांव में आता है तो रूक-रूककर हल्के कराहने की आवाज सुनाई देती है । जिम ने उनके द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर अंदाज लगाया कि शेर घायल हैं और बंदूक की गोली या साही के नुकीले कांटे ने उसके पैर में जख्म बना दिए हैं । ग्रामीण जिम की बात से असहमत थे क्योंकि उन्होंने दिन में इसी शेर को पूर्णतः स्वस्थ देखा है। लेकिन जब जिम ने इस नरभक्षी का शिकार किया तो ग्रामीणों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि उसके अगले बाएं पैर से साही के चार से पांच इंच तक लंबे तीस कांटे निकले । इन्हीं घावों ने इस शेर को नरभक्षी बना दिया और चलते वक्त उसके कराहने की आवाज ग्रामीणों को सुनाई देती थी।

हम सब, कभी न कभी जंगल , वन अभ्यारण्य या वाघ संरक्षण केन्द्रों का , आनन्द लेने  जिप्सी सफारी से गए होंगे और अगर  हमने जंगल में बाघ, तेंदुए  या अन्य किसी बड़ी बिल्ली को नहीं देखा होगा तो चिड़ियाघरों में तो वनराज के दर्शन अवश्य करे होंगे । इस दौरान आपने कभी गौर किया कि जंगल में जब बाघ विचरता होगा तो कैसा दृश्य निर्मित होता होगा ? इसका शानदार चित्रण जिम कॉर्बेट ने अपनी पुस्तक ‘Man Eaters of Kumaon’ के एक अध्याय ‘The Bachelor of Powalgarh’ में किया है । कुमायूं के जंगलों में विचरण करने वाला यह 10 फीट 7 इंच लंबा मानवभक्षी बाघ अंतत: जिम की बन्दूक  से निकली गोली का शिकार बना पर शिकार होने से पहले 1920 से 1930 तक इसकी उपस्थिति मात्र से पहाड़ के बहादुर निवासी भी अपने-अपने घरों में दुबक जाते थे । आप भी जिम की इस कहानी के छोटे से हिस्से का मजा लीजिये ।   

Sitting on a tree stump and smoking, I had been looking at this scene for sometimes when the hind nearest to me raised her head, turned in my direction and called ; and a movement later the Bachelor stepped Into the open, from the thick bushes below me.  For a long minute he stood with head held high surveying the scene, and then with slow unhurled steps started to cross the glade. In his rich winter coat, which the newly risen sun was lighting up, he was a magnificent sight as, with head turning now to the right and now to the left, he walked down the wide lane the deer had made for him. At the stream he lay down and quenched his thirst, then sprang across and, as he entered the dense tree jungle beyond, called three times ।n acknowledgement of the homage the jungle folk had paid him, for from the time he had entered  the glade every chital had called, every jungle fowl had cackled, and every one of a troupe of monkeys on the trees had chattered.

जिम कार्बेट को जंगल के जानवरों की न्यायप्रियता पर इंसानों से ज्यादा भरोसा था । एक बार जंगल में उन्होंने इसका अद्भुत नज़ारा देखा । जंगल के खुले मैदान में एक शेरनी महीने भर के बकरी के बच्चे का पीछा करते हुए जिम को दिखी । मेमना शेरनी को आते हुए देखकर मिमियाने लगा और शेरनी ने भी दबे पाँव उसका पीछा करना बंद किया और सीधे उसकी तरफ बढी । जब शेरनी मेमने से कुछ ही गज दूर थी तो बच्चा शेरनी से मिलने उसकी तरफ बढ़ा । शेरनी के बिलकुल नज़दीक पहुंचकर उसने अपना मुख आगे बढ़ाकर शेरनी को सूंघा । दिल में होने वाली  दो-चार  धडकनों तक जंगल की रानी और मेमना नाक से नाक मिलाये खड़े रहे । फिर अचानक शेरनी पलटी और जिस रास्ते आई थी उसी रास्ते वापस चली गई । जिम ने इस घटना को द्वितीय विश्वयुद्ध मे ख़त्म होने पर ब्रिटिश राज के बड़े नेताओं द्वारा हिटलर और दुश्मन देशों के नेताओं को ‘जंगल का क़ानून ‘ लागू करने संबंधी बयान पर आपत्ति दर्ज करते हुए अपने संस्मरणों में लिखा है कि ‘यदि ईश्वर ने वही क़ानून इंसानों के लिए बनाया होता जो उसने जंगली जानवरों के लिए बनाया है तो कोई जंग होती ही नहीं क्योंकि तब इंसानों में जो ताकतवर होते उनके दिल में अपने से कमजोर लोगों के लिए वही जज्बा होता जोकि जंगल के क़ानून में हम अभी देख चुके हैं ।’

जिम की कहानियों में उन ग्रामीणों का भी वर्णन है जो बड़ी मुफलिसी और गरीबी में अपने दिन गुजार रहे थे । उनकी इन कहानियों के पुनवा, मोती, कुंती, पुनवा की माँ जैसे अनेक नायक हैं जो ईमान की खातिर रुपये पैसे की परवाह नहीं करते थे । उनकी ऐसी ही कहानी का नायक उच्च जाति का ग्रामीण पहाड़ी है जो  जंगल में दलित परिवार के दो  बिछुड़े बच्चों को खोजकर लाता है और जब उसे घोषित ईनाम के पचास रुपये गाँव के लोग देने की बात करते हैं तो वह यह रकम लेने से ही इनकार कर देता है, क्योंकि उसकी निगाह में पुण्य का कोई मोल नहीं है । जिम की इन काहनियों से हमें तत्कालीन भारत की गरीबी, बाल विवाह, जात-पात, ऊँच नीच के भेदभाव का वर्णन मिलता है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 45 ☆ मौत से रूबरू ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘मौत से रूबरू । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 45 ☆

☆ मौत से रूबरू

वैसे तो मुझे यहां से जाना ना था,

मुझे अभी तो और जीना था,

कुछ मुझे अपनों के काम आना था,

कुछ अभी दुनियादारी को निभाना था,

एक दिन अचानक मौत रूबरू हो गयी,

मैं घबरा गया मुझे उसके साथ जाना ना था,

मौत ने कहा तुझे इस तरह घबराना ना था,

मुझे तुझे अभी साथ ले जाना ना था,

सुनकर जान में जान आ गयी,

मौत बोली तुझे एक सच बतलाना था,

बोली एक बात कहूं तुझसे,

यहाँ ना कोई तेरा अपना था ना ही कोई अपना है,

मैं मौत से घबरा कर बोला,

मैं अपनों के बीच रहता हूँ यहां हर कोई मेरा अपना है,

 

मैंने मौत से कहा तुझे कुछ गलतफहमी है,

सब मुझे जी-जान से चाहते हैं हर एक यहां मिलकर रहता है,

मौत बोली बहुत गुमान है तुझे अपनों पर,

तेरे साथ तेरा कोई नहीं जायेगा जिन पर तू गुमान करता है,

मैंने भी मौत से कह दिया,

तुझ पर भरोसा नहीं, तुझ संग कभी इक पल भी नहीं गुजारा है,

भले अपने कितने पराये हो जाये,

मुझे इन पर भरोसा है इनके साथ सारा जीवन बिताया है ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 97 ☆ स्फुट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 97 ☆

☆ स्फुट ☆

मी डोळे उघडले सकाळी

सात वाजता,

तेव्हा नवरा स्वतःचा चहा करून घेऊन, टेरेस वरच्या फुलझाडांना पाणी द्यायला गेलेला!

मी फेसबुक, व्हाटस् अॅप वर नजर टाकली…..

काल रात्री एक कवयित्री मैत्रीण म्हणाली,

“अगं तू “सुंदर” का म्हणालीस त्या पोस्टला? किती खोटं आहे ते सगळं…..”

खरंतर न वाचताच सांगीवांगी

मी त्या पोस्टला “सुंदर” म्हटलेलं,

मग फेसबुक वर जाऊन वाचलं ते

आणि

काढून टाकलं लाईक आणि कमेन्ट

खरंतरं न वाचताच मत देत नाही मी कधीच पण अगदी जवळच्या व्यक्तीनं भरभरून कौतुक केलेलं पाहून,  मी ही ठोकून दिलं….”सुंदर”!

आता ते ही डाचत रहाणार दिवसभर….!

 

तिनं सांगितलं….एका कवीनं स्वतःचीच तारीफ करण्यासाठी फेसबुक वर

खोटी अकाऊंटस उघडल्याची आणि ते उघडकीस आल्यावर त्याला नोकरीवरून काढून टाकल्याची बातमी!

खोट्या पोस्ट टाकणा-यांनाही होईल अशीच काही शिक्षा!

 

बापरे…आत्मस्तुतीसाठी काहीही…..

 

काल रात्रीचा भात कावळ्याला ठेवण्यासाठी टेरेसवर गेले तर…

नवरा मोबाईल वर कुणाचा तरी “समझौता” घडवून आणत असलेला….

मी खुडली मोग-याची फुलं,

वीस मिनिटं कोवळी  उन्हं अंगावर घेत,

नाष्टा बनवायला खाली उतरले,

पण मोबाईल वाजला…

दोन मिनिटं बोलली सखी छानसं…

 

तर मोबाईल वर दिलीप सायरा ची छबी!

आजकाल मला सायरा सती सावित्री वाटायला लागली आहे,

पुन्हा पुन्हा  नव-याचे प्राण वाचवणारी…..

 

हे स्फुट टाईपत बसले,

आणि नव-यानं झापलं..”हे काय नाष्टा नाही बनवला?”

 मोबाईल ठेवून किचनकडे वळले,

साडेनऊ ची वेळ पाळली चहा नाष्ट्याची!

तरीही नव-याच्या बोलण्यातली धार जाणवली ……

 

टोचत राहते नेहमीच,

“आपण खुपच निकम्मे आहोत की काय?” ही टोचणी,

आजूबाजूचे बरेच जण स्वतःला

खुपच ग्रेट समजत असताना!

 

खरंच हे किती बरं आहे, न्यूनगंडच असल्याचे, मला आठवते…. मी नेहमीच, ”  ” शुक्रिया, आपने मुझ नाचिज को इस काबिल समझा। 

म्हटल्याचे!

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 83 ☆ रंग भरा तोहफ़ा ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “रंग भरा तोहफ़ा। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 83 ☆

☆ रंग भरा तोहफ़ा ☆

वो सीली सी महक…

वो यादों की चहक…

मजबूर कर रही थी मुझे

कुछ बंद कमरे खोलने के लिए…

कुछ भी तो नहीं था बस में मेरे,

और चल पड़ी मैं

दिल के मकाँ के अन्दर बने

इन ख़ाली-ख़ाली से कमरों में…

 

धूल से ऐसी मटमैली लग रही थीं दीवारें

और कमरे के कैनवास के रंग इतने मलिन थे,

कि मुड़कर मैं वापस आने ही वाली थी…

पर…पर…नज़र आ गयी वो रंगीन डायरी,

जिसका रंग अभी भी बरक़रार था…

 

मैंने दीवारों को साफ़ किया,

कैनवास को पोंछा,

और फिर अपने थरथराते हाथों में लिए हुए

वो हसीं सी डायरी,

उसका लम्हा-लम्हा अपने हथेलियों पर रख

उसे निहारने लगी!

 

उन लम्हों के बुलबुलों में

कुछ ग़म था, तो कुछ ख़ुशी;

पर मेरी छुअन से

ग़म के बुलबुले फूटने लगे

और ख़ुशी के बुलबुले और रंगीन होने लगे!

 

यह रंग भरा तोहफ़ा

मैंने अपनी रूह की तिजोरी में

क़ैद कर लिया

और ख़ुद को गले से लगाकर कहा

“मुझे तुमसे प्यार है!”

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 2 ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 2 ☆ हेमन्त बावनकर

 

लोकतन्त्र का उत्सव

मतदान

लोकतन्त्र का पर्व !

शायद इसीलिए

कुछ लोग मना लेते हैं

सपरिवार महापर्व ।

 

दलदल

सजग मतदाताओं ने

घंटों पंक्तिबद्ध होकर

किया मताधिकार

मनाया – लोकतन्त्र का पर्व!

  

किसी ने अपने विवेक से

किसी ने अविवेक से।  

किसी ने धर्म से प्रेरित होकर

किसी ने जाति से प्रेरित होकर।

 

अंत में जो जीता

उसने बदल लिया

अपना ही दल।

 

किंकर्तव्यमूढ़ मतदाता !

देख रहा है

लोकतन्त्र का भविष्य?

समझ नहीं पा रहा है कि

वह किसी दल में है

या

किसी दलदल में?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

15 जून 2021 प्रातः7.57

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 108 ☆ पं. रामेश्वर गुरू – आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकार  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित रामेश्वर गुरू स्मृति शताब्दि समारोह के अवसर पर वैचारिक आलेख – पं. रामेश्वर गुरू – आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकारइस ऐतिहासिक रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

रामेश्वर गुरू स्मृति शताब्दि समारोह के अवसर पर वैचारिक आलेख 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 108 ☆

? पं. रामेश्वर गुरू – आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकार ?

पं. रामेश्वर गुरू  कलम से ही नहीं मैदानी कार्यो से भी आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकार 

वर्ष १९५० का दशक, तब जबलपुर एक छोटा शहर था। कुल दो कालेज थे। विश्वविद्यालय नहीं था। तब शहर के साहित्य के केंद्र में पं. भवानी प्रसाद तिवारी तथा रामेश्वर गुरू थे।शहर के अन्य व्यक्ति जो बहुत अध्ययनशील तथा रचनाशील थे, वे थे बाबू रामानुजलाल श्रीवस्तव ऊंट’, नाटककार बाबू गोविंद दास, सुभद्रा कुमारी चौहान भी थी, जिनका बड़ा रौब-दाब था। परसाई जी व अन्य युवा लेखक व पत्रकार इन सुस्थापित व्यक्तित्वो से संपर्क में रहकर अपनी कलम को दिशा दे रहे थे. पं रामेश्वर गुरु ने पत्रकारिता के शिक्षक की भूमिका भी इन नये लेखको के लिये स्वतः ही अव्यक्त रूप से निभाई. 

‘अमृत बाजार पत्रिका’ दैनिक समाचार पत्र के प्रतिनिधि के रूप में पं रामेश्वर गुरू

वर्ष १९४६ में पं. रामेश्वर गुरू जी जबलपुर के प्रतिष्ठित क्राइस्ट चर्च के हाई स्कूल में अध्यापक थे पर साथ ही वे आजीवन एक सजग पत्रकार भी रहे । उनकी पत्रकारिता में भी रचनात्मक गुण थे। अपने लेखन से ‘अमृत बाजार पत्रिका’ दैनिक समाचार पत्र के प्रतिनिधि के रूप में उन्होने जबलपुर की सकारात्मक छबि राष्ट्रीय स्तर पर बनाई. 

प्रहरी के संपादक   

वर्ष १९४७ मे तिवारी जी और गुरू जी के संपादकत्व में ‘प्रहरी’ साप्ताहिक पत्र जबलपुर से निकला। यह तरूण समाजवादियों का पत्र था और प्रखर था। इसी पत्र में परसाई उपनाम से हरिशंकर परसाई जी की  पहली रचना छपी. परसाई जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि प्रहरी के माध्यम से ही  गुरू जी से उनका परिचय हुआ। वे उनके घर जाने लगे। उनके निकट जाने पर परसाई जी को मालूम हुआ कि गुरू जी कितने अध्ययनशील साहित्य प्रेमी और रचनाकार थे। 

प्रहरी’ में वे नियमित लिखते थे। गंभीर भी, आलोचनात्मक भी और व्यंग्यात्मक भी। उनकी भाषा बहुत प्रखर और बहुत जीवंत थी। वे ‘प्रहरी’ में इस प्रतिभा के साथ बहुत धारदार लेख लिखते थे। उनके लेखों में  गहरी संवेदना होती थी। वे गरीबों, शोषितों के पक्षधर थे। इस वर्ग के लोगों पर उनके रेखाचित्र बहुत संवेदनपूर्ण और बहुत मार्मिक है। दूसरी तरफ़ वे सत्ता और उच्चवर्ग की आत्मकेंद्रित जीवन शैली के विरोधी थे। सत्ता चाहें राजनैतिक हो या आर्थिक या साहित्यिक- उस पर वे प्रहार करते थे। घातक प्रव्रत्तियों में लिप्त बड़े व्यक्तियों पर वे बिना किसी डर के बहुत कटु प्रहार करते थे।

पं. रामेश्वर गुरू का व्यंग काव्य 

 ‘प्रहरी’ में वे व्यंग्य काव्य भी लिखते थे जिसका शीर्षक था- बीवी चिम्पो का पत्र। यह हर अंक में छपता था और लोग इसका इंतजार करते थे। उसी पत्र में ‘राम के मुख से’ कटाक्ष भी वे लिखते थे।

पं. रामेश्वर गुरू का बाल साहित्य  

‘प्रहरी’ में एक पृष्ठ बच्चों के लिए होता था। उसे गुरू जी संपादित करते थे और इसमें लिखते भी थे। यह पृष्ठ सुदन और मुल्लू के नाम से जाता था। “सुदन” पं भवानी प्रसाद तिवारी जी का घर का नाम था और “मुल्लू” गुरू जी का। गुरू जी बाल साहित्य में बहुत रूचि लेते थे और उन्होंने बच्चों के लिए नाटक भी लिखे थे। ‘प्रहरी’ की फ़ाइलों में उनका लिखा ढेर सारा बाल साहित्य है, जिसके संकलन तैयार किये जाने चाहिये.

‘वसुधा’ मासिक पत्रिका में सहयोग 

पं. रामेश्वर गुरू का बहुत महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य ‘वसुधा’ मासिक पत्रिका का पौने तीन वर्षों तक प्रकाशन था। इस पत्रिका में सहयोग सबका था, पर ‘वसुधा’ तब बिखरे हुए प्रगतिशील साहित्यकारों की पत्रिका थी।गुरू जी बौद्धिक भी थे और भावुक भी। वे छायावादी युग के थे, मगर छायावादी कविताएं उन्होंने नहीं लिखी। वे दूसरे प्रकार के कवि थे। माखनलाल चतुर्वेदी का प्रभाव उन पर था, पर वह प्रभाव प्यार, मनुहार, राग का नहीं, राष्ट्र्वाद का था। भाषा श्री माखनलाल जी से प्रभावित थी। कवि भवानी प्रसाद मिश्र उनके अभिन्न मित्र थे। कुछ प्रभाव उनका भी रहा होगा। गुरू जी की कविताओं पर न निराला का प्रभाव है, न पंत का। इस मामले में वे सर्वथा स्वतंत्र थे। उनकी कविताओं में देश प्रेम, सुधारवादिता, और जनवादिता है। वे संवेदनशील थे और गरीब शोषित वर्ग के प्रति उनकी स्थाई सहानुभूति थी। वे इस वर्ग के संघर्ष, अभाव और दुख पर कविताएं लिखते थे। वे उदबोधन काव्य भी लिखते थे। तरूणों का, मजदूरों का, संघर्ष और परिवर्तन के लिए आव्हान अपनी कविताओं में वे करते थे। 

उनकी शब्द-सामर्थ्य बहुत थी और वे मुहावरों के धनी  थे। वे बहुत अच्छी बुंदेली जानते थे और उनकी बुंदेली कविताएं बहुत अच्छी है। व्यंग्य काव्य अकसर वे बुंदेली में लिखते थे।

पं. रामेश्वर गुरू  मैदानी कार्यो से भी जनता के प्रतिनिधी पत्रकार 

पं. रामेश्वर गुरू ने जनता के प्रतिनिधी पत्रकार की भूमिका न केवल कलम से वरन अपने मैदानी कार्यो से भी निभाई है.  सुभद्राकुमारी चौहान की प्रतिमा की स्थापना नगर निगम कार्यालय के सामनेवाले लान में उन्होने ही  कराई। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के अभिनंदन में समारोह आयोजित किया। चिकित्सक और राजनीतिज्ञ डा. डिसिल्वा की स्मृति में उन्होंने डिसिल्वा रतन श्री माध्यमिक विद्यालय की  स्थापना कराई। वे जब शहर के मेयर बने, तब महात्मा गांधी और पंडित मदनमोहन मालवीय की आदमकद प्रतिमाओं की स्थापना उन्होने करवाई। अपने मित्र प्रसिद्ध पत्रकार हुकुमचंद नारद की स्मृति में उन्होंने विक्टोरिया अस्पताल में विश्राम-कक्ष भी बनवाया।

इस तरह पं. रामेश्वर गुरू  ने पत्रकारिता के वास्तविक मायने और आदर्श हमारे सामने रखे हैं, जिनके अनुसार पत्रकारिता केवल स्कूप स्टोरी या सनसनी फैलाना नही वरन समाज और लोकतंत्र के चौथे  स्तंभ के रूप में जनहितकारी सशक्त भूमिका का निर्वहन है. 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 89 –विनाश और विकास के मध्य संतुलन !!– ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीयआलेख  विनाश और विकास के मध्य संतुलन !!। इस सामयिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 89 ☆

 ? आलेख – विनाश और विकास के मध्य संतुलन !!  ?

आपने कभी सोचा कि हर प्रार्थना का उत्तर नहीं आता है और कई बार भगवान का भेजा हुआ संदेश इंसान समझ नहीं पाता है?? ऐसा क्यों होता है कि – अपनों का साथ बीच में ही छूट जाता है?

आज जो विषम परिस्थितियां बनी हैं। वे पहले भी बन चुकी हैं। एक सृष्टिकर्ता केवल सृष्टि करते जाए तो सोचिए क्या होगा ? वसुंधरा तो पूरी तरह नष्ट हो जाएगी न। इसीलिए विनाश या जिसे प्रलय या नष्ट होना कहा जाता है। इसका होना भी नितांत आवश्यक है।

विनाश और विकास के बीच संतुलन कैसे हो इस पर किसी कवि की सुंदर पंक्तियां हैं….

सब कुछ करता रहता फिर भी मौन है

सब को नचाने वाला आखिर कौन है

आज देखा जाए तो कोई भी ऐसा इंसान नहीं है जिसने अपनों को नहीं खोया है। सारी सृष्टि हाहाकार कर उठी है। विनाश की ज्वाला ने धधक कर लाशों का ढेर बना दिया  और ऐसा विनाश रचा कि मानव मन भी आशंकित है।

किसी को किसी अपनों का कांधा नसीब नहीं हुआ तो किसी को अंतिम दर्शन भी नहीं मिले। यह विडंबना प्रकृति का एक ज्वलंत रूप ही है। आज का दृश्य सदियों बाद याद किया जायेगा। 

आज हम हैं कल हमारी यादें होंगी

जब हम ना होंगे हमारी बातें होंगी

कभी पलटोगे जिंदगी के पन्ने

तब शायद आपकी आंखों में भी बरसात होगी

यह विनाश की कहानी हमारी आने वाली कई पीढ़ियां याद करेगी। प्रकृति का नियम है और गीता में श्री कृष्ण जी ने कहा है…. मां के पेट से और पृथ्वी पर जन्म लेने वाला जो है उसका अंत उसी के चुने हुए कर्मों से होता है। पर विनाश सुनिश्चित है।

हम सब माया मोह के बंधन में भूल जाते हैं मेरा घर, मेरा बेटा, मेरा परिवार और मैं ही सर्वशक्तिमान, उस परम शक्ति को एक किनारे कर देते हैं। इस पर एक सुंदर सी घटना आपको याद दिलाती हूँ। एक राजा अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था। सारे जतन कर उसने वरदान प्राप्त किया कि…. जिसे भी वह छुए सब सोना हो जाए। विधाता ने तथास्तु कहकर सब नियंत्रित किया।

राजा की बेटी ने मांगा था कि उसकी मृत्यु अपने पिता के हाथों हो। राजा सब कुछ बड़े ध्यान से छूता। पर क्षण भर में ही वरदान उससे विनाश की ओर ले चला। राज्य का सारा राजपाट हर वस्तु सोने की हो निर्जीव हो गई।

बेटी खेलते खेलते आई राजा परेशान था। बेटी को गले लगाना चाहा पर।  यह क्या बात हुई वह छूते ही सोने की हो गई।

सृष्टि ने राजा को विकास और विनाश की घटना क्षणभर की ही लिखी थी।

ठीक वैसा ही मानव सब कुछ अपने हाथों लेकर आतताई बनने लगा था, परंतु सृष्टि की गतिविधि सभी को अलग-अलग कर नष्ट नहीं कर सकती थी। कहीं तूफान, कहीं जल का भयंकर प्रकोप, कहीं सूखा, तो कहीं कोरोना जैसी महामारी।

समूचा विश्व नष्ट होने की कगार पर था। उसने अपने शक्ति का आभास कराया और कुछ महात्मा जीव के कारण कहीं जीवन दायक हवा बनी, कहीं टीका बना और कहीं जीवन रक्षक दवाइयां, कहीं अच्छी चीजों का आविष्कार हुआ। शक्ति का संतुलन फिर से बनने लगा।

आत्मा कभी मर नहीं सकती, ना जल सकती है, न टूट सकती है, और ना खत्म हो सकती है, आत्मा अमर है।

नैन छिंदन्ती शस्त्राणि, नैन दहति पावकः

न चैनः क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः

बस एक नयी काया कवच से जीवन का फिर से आरंभ होता है। यही प्रकृति की विनाश और विकास की प्रक्रिया है। बिना दर्द के आंसू बहते नहीं है इसीलिए यह वक्त आया जो बहुत कुछ सिखा गया।

संपूर्ण जीवन की परिभाषा विकास विनाश से ही होकर गुजरती है। रेगिस्तान भी हरा हो जाता है।

जब अपने अपनों के साथ खड़े हो जाते हैं।  अब हमें हमारे जो अपने हैं उन्हें फिर से जीवन की आश नहीं छोड़नी चाहिए अपनों को समेट कर नई जिंदगी की शुरुआत करनी चाहिए।

चलिए जिंदगी का जश्न

कुछ इस तरह मनाते हैं

कुछ अच्छा याद रखते हैं

कुछ बुरा भूल जाते हैं

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 97 ☆ जिद्द पेरली ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 97 ☆

☆ जिद्द पेरली ☆

जीवनाच्या मातीमध्ये

जिद्द पेरली मी होती

केले अश्रुंचे सिंचन

कुठे होती सोपी शेती

 

माझ्या सागराच्या तळी

गाळ साठलेला किती

पापण्यांच्या शिंपल्यात

काही पिचलेले मोती

 

घरामध्ये नाही तेल

आणू कुठून मी वाती

तुला ओवळण्यासाठी

फक्त माझ्या दोन ज्योती

 

आला मेघ भेटायला

तहानलेल्या घागरी

सोडा कोरडा विचार

ठोवा पाणी हे भरुनी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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