हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 111 – कविता – सुमित्र के दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – सुमित्र के दोहे ।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 111 – सुमित्र के दोहे ✍

दीप पर्व फिर आ गया, कहां गया था यार ।

वह तो मन में ही रहा, बाहर था अँधियार।।

आखिर कब तक रखोगे, मन में तिमिर संभाल ।

खड़ा द्वार पर उजेला, पहिनाओ जयमाल।।

तीर मारता उजाला, तो सह लो कुछ देर।

तुमने तो काफी सहा, रजनी का अँधेर।।

दीप – दीप कहते सभी, बाती भी तो बोल।

बाती ही तो कर रही, संगम ज्योति खगोल।।

दीवाली की दस्तकें, दीपक की पदचाप।

आओ खुशियां मनायें, क्यों बैठे चुपचाप।।

अंधियारे की शक्ल में, बैठे कई सवाल ।

 कर लेना फिर सामना, पहले दीप उजाल।।

कष्टों का अंबार है, दुःखों का अँधियार ।

हम तुम दीपक बनें तो, फैलेगा   उजियार।।

जितने उजले चेहरे, नहीं तुम्हारे मित्र।।

जिनकी श्यामल सूरते, संभव वही सुमित्र।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 113 – “आदमी हूँ…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “आदमी हूँ ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 113 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “आदमी हूँ” || ☆

 

गलतफहमी नहीं

छोटी सी कमी हूँ

आदमी हूँ

 

इस सफलता के

अधूरे दौर में

बन रहा था किस

तरह सिरमौर में

 

चाँदनी को मेरा

मिलना जरूरी

चाँद को भी मैं

यहाँ पर लाजिमी हूँ

 

खिड़कियों पर हिल

रहे रुमाल ज्यों

मैं किसी उम्मीद

का फिलहाल ज्यों

 

एक अर्वाचीन

सा संकेत ले

सधा किरदार

कोई मौसमी हूँ

 

शब्द वंचित इस

बड़े  सुनसान में

अभी बाकी बचा

हूँ अनुमान में

 

लुटाता रहा

खुशियाँ यहाँ पर

तुम्हारे लिये फिर

क्यों मातमी हूँ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

20-10-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 160 ☆ “चिंतन” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय आलेख – “चिंतन”)  

☆ आलेख # 160 ☆ “चिंतन” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

पाठक सबसे बड़ा समीक्षक होता है ,और सोशल  मीडिया शुध्द समीक्षक बनकर इन दिनों अपने जलवे दिखा रहा है , किताब खोलने और पढ़ने में लोग भले आलसी हो गए हैं पर सोशल मीडिया में पेन की जगह बेताब अंगुली  अपना करतब दिखा रही है , आगे चलकर तो ये होने वाला है कि अंगुली की जगह दिमाग में सोचे विचार सीधे टाईप होकर सोशल मीडिया में मिलने वाले हैं , तब कन्नी काटने वालों का भविष्य और उज्जवल हो जाएगा , क्योंकि तब निंदा रस दिमाग से अनवरत बहने लगेगा , ईष्या रूपी राक्षस दिमाग में कब्जा कर लेगा ,तब देखना मजा ही मजा आएगा , व्यंग्यकार ,कहानीकार पंतग की तरह सद्दी से कटते नजर आएंगे , बड़ी मुश्किल में व्यंग्य शूद्र से उठकर सर्वजातीय बनने के रास्ते में चला ,पर महत्वाकांक्षी लोग व्यंग्य की सूरत बिगाड़ने में तुले हैं, व्यंग्य लेखन गंभीर कर्म है, जिम्मेदारी से विसंगतियों और विद्रूपताओं पर प्रहार कर बेहतर समाज बनाने की सोच है व्यंग्य।

व्यंग्य का लेखक अपने युग ‘राडार’ के गुणों से युक्त होना चाहिए, अपने समय से आगे का ब्लु प्रिंट तैयार करने वाले वैज्ञानिक जैसा हो उसके पास ऐसी पेनी दृष्टि हो कि घटनाओं के भीतर छुपे हुए संबंधों के बीच तालमेल स्थापित कर सके, और एक चिकित्सक की तरह उस नासूर की शल्यक्रिया करने में वह माहिर हो, व्यंग्यकार वर्तमान समय के साथ ‘जागते रहो’ की टेर लगाता कोटवार हो उसे पुरस्कार और सम्मान की भूख न लगी हो, और अपनी रचना से समाज में जागृति ला सके, उसके अंदर बर्र के छत्ते को छेड़ने का दुस्साहस तो होना ही चाहिए।

व्यंग्य के लेखक के पास सूक्ष्म दृष्टि, संवेदना, विषय पर गहरी पकड़, निर्भीकता होनी आवश्यक है। व्यंग्य के लेखक में कटुता नही तीक्ष्णता ,सुई सी नोक या तलवार सी धार होना अनिवार्य् है। सबसे बड़ी बात ये है कि व्यंग्य लिखने के लिए पढ़ना बहुत जरूरी है, और असली बात ये है कि व्यंग्य को संवेदनशील पाठक ही समझ पाते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 103 ☆ # चलो एक दीपक जलाएं… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#चलो एक दीपक जलाएं …#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 103 ☆

☆ # चलो एक दीपक जलाएं… # ☆ 

आज अमावस की काली रात है

बु‌री आत्माओं की बरसात है

तारें भी टिम टिमा रहे हैं

अंधेरे को बढ़ा रहे हैं

रात नागिन सी चल रही है

धीरे धीरे, हौले हौले ढल रही है

नींद ने आगोश में भर लिया है

अपने सम्मोहन में कर लिया है

चलो रोशनी का कोई जरिया बनाऐ

चलो एक दीपक जलाएं

 

यह अट्टालिका यें जगमगा रही है

रोशनी इनसे छन कर आ रही है

आतिशबाजी मन लुभा रही है

अंबर पर रंगोली सजा रही है

पर इस बस्ती में कितना अंधेरा है

रात बैरन का यहीं पर डेरा है

भूख और गरीबी के सब मारें है

निर्धन, बेबस ईश्वर के सहारे है

इनके जीवन में कुछ खुशियां लाए

चलो एक दीपक जलाएं

 

जो उजाले में मेरे साथ साथ चले

बेपरवाह मेरे मिलते थे गले

साथ निभाने की कसमें खाई थी

मेरा दिन और रात जगमगाई थी

उसके चेहरे पर बरस रहा था नूर

अपने प्यार पर मुझको था गुरूर

अंधेरे से घबराकर अकेला छोड़ गए

पलभर में रिश्ते नाते तोड़ गए

प्रित की मजार पर

दिलों को जलाकर

कुछ रोशनी करें

कुछ फूल चढ़ायें

चलो एक दीपक जलाएं/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 103 ☆ स्वप्ने गोड असतात… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 103 ? 

☆ स्वप्ने गोड असतात… ☆

(विषय:- जगू पुन्हा बालपण…)

जगू पुन्हा बालपण,

होऊ लहान लहान

मौज मस्ती करतांना,

करू अ,आ,इ मनन.!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

आई सोबती असेल

माया तिची अनमोल,

सर कशात नसेल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

मना उधाण येईल

रात्री तारे मोजतांना,

भान-सुद्धा हरपेल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

शाळा भरेल एकदा

छडी गुरुजी मारता,

रड येईल खूपदा..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

कैरी आंब्याची पाडूया

बोरे आंबट आंबट,

चिंचा लीलया तोडूया..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

नौका कागदाची बरी

सोडू पाण्यात सहज,

अंगी येई तरतरी..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

नसे कुणाचे बंधन

कधी अनवाणी पाय,

देव करेल रक्षण..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

माय पदर धरेल

ऊन लागणार नाही,

छत्र प्रेमाचे असेल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

कवी राज उक्त झाला

नाही होणार हे सर्व,

भाव फक्त जागवीला..!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – पुष्प – भाग ४० – परिव्राजक १८. गोमंतक ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार– विचार–पुष्प – भाग ४० – परिव्राजक १८. गोमंतक ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

बेळगावहून स्वामीजी मार्मा गोवा मेलने निघाले आणि मडगाव येथे उतरले. बेळगावचे सुप्रसिद्ध डॉक्टर विष्णुपंत शिरगावकर यांनी गोव्यातल्या व्यवस्थेसाठी मडगाव इथले त्यांचे विद्वान मित्र सुब्राय लक्ष्मण नायक यांना परिचय पत्र दिले होते आणि स्वामीजींची निवास आणि भोजन व्यवस्था करायला सांगितली होती. स्वामीजींना घ्यायला स्टेशनवर नायक स्वत: जातीने हजर होते, तेही शेकडो लोकांच्या समवेत. आणि काय आश्चर्य त्यांनी स्वामीजींना घोडा गाडीतून मिरवणूक काढून समारंभपूर्वक घरी नेले. हे सर्व स्वामीजींना खूपच अनपेक्षित होते. आयुष्यात त्यांना असा अनुभव प्रथमच आला होता. स्वामीजींचा परिचय झाल्यावर त्यांनी सुब्राय नायक यांना आपला गोव्याला येण्याचा हेतु सांगितला. ख्रिस्त धर्माविषयीचे मूळ ग्रंथ त्यांना इथे अभ्यासायचे होते. ज्या ज्या प्रांतात जी जी वैशिष्ठ्ये असायची त्याची माहिती ते करून घेत.  

सुब्राय नायक हे तीव्र मेधाशक्ती असलेले वेदान्त आणि आयुर्वेद शास्त्राचे जाणकार होते. शिवाय संस्कृतमधील न्यायमीमांसा व  ज्योतिष यातही पारंगत होते. नायक हे त्यावेळी धार्मिक आणि सामाजिक नवजागरणाची धुरा वहात होते. त्यांच्यासाठी तर स्वामीजींचे आपल्या घरात वास्तव्य आणि सहवास म्हणजे एक चांगली पर्वणीच होती.

मठग्राम म्हणजेच मडगाव हे पोर्तुगीजांचा प्रभाव असलेले दक्षिण गोव्यातले ऐतिहासिक शहर. महाराष्ट्र आणि कर्नाटकच्या मध्यभागी  पश्चिम घाटात वसलेला गोवा समुद्र तटावरील रमणीय भूभाग म्हणून सर्वांनाच आकर्षित करतो. १५१० पासून हा भाग पोर्तुगीजांच्या हुकूमाखाली जवळ जवळ साडेचारशे वर्ष होता. पोर्तुगीजांनी साम, दाम, दंड, भेद य मार्गाने इथले अनेक तालुके काबीज केले होते. आशियातले सर्वात मोठे ख्रिश्चन यात्रा स्थळ, ‘बसिलिका ऑफ बॉम जिझस’ इथे गोव्यात आहे. प्राचीन मंदिरं आहेत. या वास्तू वैशिष्ठ्यपूर्ण वास्तूकलेसाठीही प्रसिद्ध आहेत. विवेकानंदांचा गोव्याला भेट देण्याचा हाच उद्देश होता. देवदर्शना बरोबरच गोव्यातली प्रमुख स्थळे, तिथली धर्मपीठे, जुने चर्च, फोंडा प्रदेशातील मंदिरे, पुरातन देवालये यांची माहिती करून घेणे आणि या प्रदेशातील ग्रामीण आणि शहरी लोकजीवन, समाजावरील धर्माचा प्रभाव व इतिहास जाणून घेणे हा पण दूसरा उद्देश होता.

सुब्राय नायक यांच्या घराला ऐतिहासिक पार्श्वभूमी आहे. चारशे वर्षापूर्वी धर्मांध ख्रिश्चनांनी मडगावची ग्रामदेवता असलेल्या श्री दामोदर मंदिराचा आणि गावातल्या इतर हिंदू मंदिरांचा विध्वंस केला. हिंदूंना गावात एकही मंदिर शिल्लक राहिलं नाही. अशा परिस्थितीत नायक कुटुंबाने श्री दामोदर या आपल्या कुलदेवतेला राहत्या घराच्या मोठ्या गर्भगृहात स्थान देऊन वाचविले आणि पुढे सर्व हिंदूंना ते भक्तीसाठी खुले करून दिले. इथेच नंतर मठग्रामस्थ हिंदू सभेची स्थापना केली गेली. मडगावातल्या आबाद फारीया  रोडवरचं ‘नायक मॅन्शन’ सामाजिक संस्कृतिक आणि नियमित उपक्रमाचं स्थान बनलं. याला दामोदर साल म्हणून ओळखतात. साल म्हणजे हॉल. गोव्यातील काही विशिष्ट घरांपैकी सुब्राय नायक यांचं पारंपारिक चौसोपी वाड्याचे एक प्रशस्त घर जिथे स्वामीजी काही दिवस राहिले होते.

स्वामीजींच्या सहवासामुळे त्यांची समाजोद्धाराची तळमळ, वैदिक तत्वज्ञानाद्वारे लोकांची उन्नती करण्याची त्यांची क्षमता, जीवनातील सर्वोच्च कर्तव्याविषयी असलेली अत्त्युच निष्ठा पाहून सुब्राय नायक प्रभावित झाले . स्वामीजींच्या गायन वादनातल्या परिपक्वतेचा अनुभव सुद्धा यावेळी गोवेकर मंडळींनी घेतला.

इथल्या वास्तव्यात स्वामीजींनी एकदा एक चीज काही रागातून पाऊण तास गायली. सर्वजण आश्चर्य चकित झाले. नायक यांनी, लयकारीची उत्तम जाण असलेले प्रसिद्ध तबला वादक व संगीतातल्या पिढीजात घराण्यात जन्मलेले खाप्रूजी अर्थात लक्ष्मणराव पर्वतकर, यांना बोलवून घेतले आणि स्वामीजींसमोर तबला वादन करायला सांगितले. त्यांनी सफाईदार तबलावादन सादर केले. हे ऐकून स्वामीजी म्हणाले, “लाकडाच्या खोक्याच्या कडेवर बोटे फिरवून आवाज काढता, तसाच आवाज वरच्या चामड्याच्या थरातून काढता आला पाहिजे”. खाप्रुजींना हे काही पटेना. त्यांना वाटलं स्वामी चेष्टाच करताहेत. तोच स्वामीजी उठले, कोचावरून खाली बैठक मारून बसले आणि तबल्याच्या चामड्यातून सुंदर आवाज काढून दाखविला. हा प्रकार पाहून सर्व श्रोते दि:ग्मूढ झाले. पर्वतकर यांनी स्वामीजींची क्षमा मागून साष्टांग नमस्कार घातला. याच खाप्रूमामा पर्वतकरांना पुढे १९३८ मध्ये प्रख्यात गायक अल्लादिया खाँ यांच्या हस्ते ‘लयभास्कर’ पदवीने गौरविण्यात आले. स्वामीजींची भेट ही पर्वतकर मामांच्या आयुष्यातली भाग्याचीच घटना म्हणायला हवी.

स्वामीजींना गोव्यातील ग्रंथालयात उपलब्ध असलेल्या पुरातन लॅटिन ग्रंथातून ख्रिश्चन धर्माचा इतिहास व तत्वज्ञान याचा अभ्यास करायचा होता. तिथल्या समाजावर होणार्‍या धर्मपरिवर्तनाचा प्रभाव जाणून घ्यायचा होता. असे दुर्मिळ ग्रंथ इथे उपलब्ध होते. रायतूर (राशेल) येथील सेमिनरी १५७६ मध्ये बांधलेले असे प्राचीन होते, तिथे प्राचीन हस्तलिखिते आणि मडगावतील प्रसिद्ध वकील जुजे फिलिप अल्वारीस यांना बोलवून स्वामीजीची ओळख करून दिली आणि सेमिनरी व तिथले ग्रंथ दाखविण्याची सोय नायक यांनी केली. तिथल्या पाद्रींची ओळख करून दिली, स्वामीजी दोन दिवस रायतूरला सेमिनरीत राहिले, स्वामीजींनी त्या सेमिनरीतल्या विद्यार्थ्यांची पण भेट घेऊन त्यांची मते जाणून घेतली. आजही त्या लायब्ररीत स्वामीजींचा फोटो लावला आहे.

रायतूरच्या भेटीनंतर मडगावात स्वामीजींच्या व्यक्तिमत्वाची जिकडे तिकडे चर्चा झाली. दूरदुरून पाद्री लोक तसेच ख्रिश्चन समाजातील अनेक विद्वान, जज्ज, बॅरिस्टर मडगावमध्ये त्यांना भेटायला येत. स्वामीजी फ्रेंच, लॅटिन, इंग्रजी भाषेत त्यांना आपली अभ्यासपूर्ण मतं समजाऊन सांगत. अशी अधिकारसंपन्न व्यक्ती सर्वजण प्रथमच पाहत होते, हे बघून सगळीकडे त्यांचं कौतुक होत होतं. सुब्राय नायक यांनी तर स्वामीजींच्या गुण गौरवासाठी श्री दामोदरच्या प्रांगणात मोठी सभा भरवली. याला लोक प्रचंड संख्येने हजर होते. त्यांनी शिकागोच्या धर्म परिषदेला जाण्यासाठी स्वामीजींना शुभेच्छा दिल्या. स्वामीजी वेंगुर्ल्याच्या नगर वाचनालयात ‘संचित,प्रारब्ध व क्रियामाण’ या विषयावर व्याख्यान द्यायला पण गेले होते. वेंगुर्ला हे अरब,डच, पोर्तुगीज या राजसत्तांनी निर्माण केलेलं महत्त्वाच व्यापारी बंदर होतं. इथे १६३८ मध्ये डच वखार होती. हा इतिहास जाणून घेण्यासाठी स्वामीजी प्रत्यक्ष तिथे गेल्याचे दिसते.

गोवा येथील कवळ्याच्या शांतादुर्गा मंदिरात त्यांनी काली मातेचं एक पद खड्या आवाजात म्हणून लोकांना मंत्रमुग्ध केलं होतं. म्हाडदोळच्या म्हाळसादेवी पुढे सुंदर ख्याल गायन केलं, श्री मंगेशाच्या देवळात रागदारीतलं ध्रुपद गायन केलं.

असा भरगच्च कार्यक्रम गोवा इथं पार पाडून स्वामीजी पुढच्या प्रवासासाठी धारवाडला जायला निघाले. तेंव्हा सुब्राय नायकांबरोबर अनेक प्रतिष्ठित लोक, शेकडो नागरिक, कॅथॉलिक पाद्री निरोप द्यायला आले होते. निघण्यापूर्वी नायकांनी स्वामीजींना एक फोटो काढून मागितला होता. हाच फोटो आज पण त्या दामोदर साल मध्ये लावला आहे. ज्या खोलीत ते राहिले ती खोली, त्या वस्तु आजही नायकांच्या वारसांनी सुरक्षित जपून ठेवल्या आहेत. सुब्राय नायकांनी पुढे १९१० मध्ये संन्यास घेतला आणि ते स्वामी सुब्रम्हण्यानंद तीर्थ म्हणून ओळखले जाऊ लागले.  

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 34 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 34 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

५२.

तुझ्या गळ्यातला गुलाबांचा हार

मागून घ्यावा असं वाटलं पण

मागायचं धाडस झालं नाही. सकाळ झाली.

तू निघून गेलास. बिछान्यावर काही पाकळ्या

राहिल्या होत्या आणि भिकाऱ्यासारखी मी

सकाळी एखाद- दुसरी पाकळी शोधीत राहिले.

 

अरे देवा! मला काय मिळालं?

तुझ्या प्रेमाची कोणती खूण?

फूल नाही, सुगंध नाही की गुलाबदाणी नाही.

विजेच्या आघातासारखी चमचमणारी

जडशीळ अशी तुझी तलवार!

 

चिवचिवाट करून पहाटपक्षी विचारत होता,

‘ बाई गं! तुला काय मिळालं?’

‘ नाही फूल, नाही अत्तराचा सुगंध,

 नाही गुलाबदाणी.फक्त तुझी भयानक तलवार!

 

मी विचार करीत बसले ‘ ही कसली तुझी भेट!’

ती मी कुठं लपवू? मी ती पेलू शकत नाही

याची शरम वाटते. कारण मी इतकी नाजूक!

मी ती पोटाशी धरते तेव्हा ती मला खुपते.

तरीसुद्धा तू दिलेल्या दु:खाच्या ओझ्याचा हा मान,

तुझी भेटवस्तू मी ऱ्हदयाशी धरते.

 

या जगात मला कसलीच भीती आता नाही.

माझ्या लढाईत तुझाच विजय होत राहील.

 

तू माझ्या सोबत्यासाठी मरण ठेवलंस.

मी त्याला आयुष्याचा शिरपेच चढवीन.

मला बंधनातून मोकळं करायला

तुझी ही तलवार आहे.

मला या जगात आता कशाचीच भीती नाही.

 

माझ्या ऱ्हदयस्वामी! क्षुद्र साजशृंगार मी

व्यर्ज केले आहेत.

आता कोपऱ्यात बसून मी रडणार नाही;

अवनत होणार नाही, उन्नत होईन व राहीन.

 

या तलवारीचा अलंकार तू मला बहाल केलास.

बाहुल्यांचा खेळ आता कशाला?

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #165 ☆ व्यंग्य – मोटी किताब लिखने के फायदे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक मज़ेदार व्यंग्य ‘मोटी किताब लिखने के फायदे ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 165 ☆

☆ व्यंग्य – मोटी किताब लिखने के फायदे

लेखकों-कवियों के ये दुर्दिन हैं। किताबें लिखी खूब जा रही हैं, छप भी रही हैं, लेकिन पढ़ने वाला कोई नहीं है। दूर-दूर तक बस धूल उड़ती दिखती है। कहाँ गया रे पाठक? कवि आँख मूँदे पुकार रहा है— ‘आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’, लेकिन मीत यानी पाठक ‘डोडो’ पक्षी की तरह अंतर्ध्यान हो गया है।

वैसे लेखक और कवि अभी पूरी तरह मायूस नहीं हुए हैं। जेब से पैसे लगाकर अपनी किताबें छपवा रहे हैं और प्रकाशकों की जेब गर्म कर रहे हैं। कोई कन्या के दहेज के लिए रखे पैसे निकाल रहा है तो कोई बीमारी-विपदा के लिए रखे पैसे बढ़ा रहा है। कुछ ऐसे समर्पित लेखक हैं जो पत्नी के ज़ेवर बेचकर अमर होने का इंतज़ाम कर रहे हैं। लेकिन इन पुस्तकों को पढ़ने वाला कहाँ है? यानी पकवान तो बन रहे हैं लेकिन उनका स्वाद लेने वाला ग़ायब है। अब लेखक ही लिखे और लेखक ही पढ़े।

ज़्यादातर प्रकाशक भी पाठकों के बूते किताबें नहीं छापते। उनकी नज़र या तो थोक ख़रीद पर रहती है या पुरस्कारों पर। प्रकाशक सही कमीशन देने को तैयार हो तो कितनी भी मँहगी किताब कितनी भी संख्या में बिक जाएगी। साहब से लेकर मुसाहब तक सब का हिस्सा देने के बाद किताबें विभागों को ढकेल दी जाएंगीं जहाँ उन्हें शेल्फों में ठूँस कर अंतिम प्रणाम कर लिया जाएगा। पाठक को छोड़कर लेखक, प्रकाशक, अफसर, बाबू सब खुश क्योंकि सबको ज्ञान का प्रसाद मिल जाता है। यानी किताब की स्थिति यह होती है कि ‘आये भी वो,गये भी वो, ख़त्म फ़साना हो गया’। इसीलिए आजकल उन लेखकों की किताबें आसानी से छपती हैं जो ऊँचे ओहदे पर या ताकतवर हैं और किताबें बिकवाने की कूवत रखते हैं।

बहुत से लेखकों को सामान्य पाठक पसन्द नहीं आते। वजह यह है कि बहुत से पाठक कुछ नासमझ यानी खरी खरी बात करने वाले होते हैं। लेखक की रचना पढ़कर बेबाक आलोचना कर देते हैं जो लेखक के दिल पर चोट करती है। ये नादान पाठक यह नहीं समझते कि लेखक बेहद संवेदनशील होता है, आलोचना उसे बर्दाश्त नहीं होती। ‘फुलगेंदवा न मारो, लगत करेजवा में चोट।’ ऐसे लेखक सामान्य पाठक को अपनी रचना के पास नहीं फटकने देते। दस बारह यारों को घर पर बुला लेते हैं और उच्च कोटि की जलपान व्यवस्था के बाद रचना पर अपनी बहुमूल्य राय प्रस्तुत करने का अनुरोध करते हैं। मित्रों को अपनी भूमिका मालूम होती है, अतः वे रचना का अंश कान में पड़ते ही सिर धुनना शुरू कर देते हैं। फिर वे गदगद स्वर में कहते हैं कि ऐसी महान रचना सुनकर वे स्तब्ध हैं और ऐसी रचना न पहले लिखी गयी, न भविष्य में लिखी जा सकती है।वे रुँधे कंठ से यह भी कहते हैं उन्हें पता नहीं था कि उनके बीच ऐसा गुदड़ी का लाल छिपा है। प्रशंसा से मगन लेखक अनुपस्थित आम पाठक को अँगूठा दिखा कर लंबी तान कर सो जाता है।

ताज्जुब है कि ऐसे शत्रु-समय में भी कुछ लेखक पूर्ण निष्ठा और मनोयोग से मोटी मोटी किताबें लिख कर साहित्य के प्रांगण में पटक रहे हैं। पृष्ठ संख्या पाँच सौ से हज़ार तक, कीमत पाँच सौ से छः सौ तक। हर साल ऐसे महाग्रंथ धरती पर उतर कर उस में कंपन उत्पन्न कर रहे हैं। ये कौन अटूट आशावादी लेखक हैं जो ज़माने की तरफ पीठ करके पोथे रचने में लगे हैं? उन्हें कौन पढ़ेगा? कौन खरीदेगा? लेखक से पूछिए तो उनका भोला सा उत्तर होगा कि विश्व के ज़्यादातर क्लासिक वज़नदार रहे हैं और जहाँ तक कीमत का सवाल है, महान साहित्य के लिए पाठकों को त्याग करना ही पड़ेगा।

ऐसी वज़नदार किताबें आते ही धड़ाधड़ उनकी समीक्षाएँ और लेखक के इंटरव्यू आना शुरू हो जाते हैं। इन समीक्षाओं और साक्षात्कारों  को लिखने के लिए अनेक रिटायर्ड लेखक धूल झाड़ कर पुनः प्रकट हुए हैं और अनेक नये समीक्षकों का जन्म हुआ है। सभी समीक्षाओं से एक बात स्पष्ट होती है कि साहित्य में नयी ज़मीन टूट चुकी है और पवित्र जल फूटने को ही है।

इन पोथों का विमोचन भी कम दिलचस्प नहीं होता। हिन्दी के एक लेखक अपनी पुस्तकों के प्रकाशन की धीमी गति से ऐसे अधीर हुए कि उन्होंने अपना प्रकाशन गृह खोल डाला और अपना एक भारी-भरकम उपन्यास छाप दिया। उपन्यास के लिए वित्त कहांँ से आया होगा यह सोचकर ही रूह काँपती है क्योंकि लेखक लक्ष्मी जी के लाड़ले नहीं थे।

पुस्तक के विमोचन हेतु एक मशहूर बुज़ुर्ग लेखक आमंत्रित हुए। बुज़ुर्ग लेखक ने अपने भाषण में जो कहा वह आँख खोलने वाला था। उन्होंने कहा कि उन्होंने वह पुस्तक तो नहीं पढ़ी थी, लेकिन लेखक की अन्य रचनाएं पढ़ी थीं जिनके आधार पर वह कह सकते थे कि—। यह बुज़ुर्ग लेखक की ईमानदारी थी कि उन्होंने स्वीकार कर लिया उन्होंने किताब पढ़ी नहीं थी, अन्यथा ऐसे वक्ता भी होते हैं जो पुस्तक को बिना पढ़े उस पर एक घंटा बोलने का माद्दा रखते हैं।

मोटी किताबों के प्रकाशन का गणित साफ है। यदि पाठक को खारिज कर दिया जाए तो मोटी और मँहगी किताबें लेखक, प्रकाशक और अफसरों-बाबुओं के लिए दुबली और सस्ती किताबों के मुकाबले ज़्यादा फायदेमन्द होती हैं। पच्चीस पचास किताबों की खरीद में ही वारे-न्यारे हो जाते हैं।

मोटी पुस्तकें पुरस्कार की दृष्टि से भी अच्छी होती हैं क्योंकि पुरस्कारों के सूत्र जिनके हाथों में होते हैं वे पुस्तकों को बाहर से ही देखते हैं। मोटी किताब रोब पैदा करती है और लेखक के दावे को पुख़्ता करती है। बाकी काम जुगाड़ से होता है जिसके लिए पुस्तक की उपस्थिति ही काफी होती है। पढ़कर विद्वान लेखक के प्रति अविश्वास कौन जताये? विश्वविद्यालयों में भी पीएच.डी. के लिए मोटा पोथा ज़रूरी माना जाता है।

वैसे पढ़ने की बात छोड़ दें तो मोटी पुस्तकों के बहुत से दीगर उपयोग हैं। घर में तकिया न हो तो मोटी किताब ख़ासा सुकून दे सकती है। आम लेखक अहिंसक होता है, घर में असलाह नहीं रखता, इसलिए घर में चोर-लुटेरा घुस आए तो पुस्तक फेंककर उसका जबड़ा तोड़ा जा सकता है। लेकिन इसके लिए पुस्तक का हार्ड बाउंड होना ज़रूरी है। पेपरबैक इस लिहाज से बेकार है।

चलते चलते आम लेखक के लिए यह नसीहत ज़रूरी है कि मोटी पुस्तक अपने खर्चे से न छपवाये वर्ना वह अपना जबड़ा भी तोड़ सकती है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 161 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 161 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆?

दीपावली, भारतीय लोकजीवन का सबसे बड़ा त्योहार है। कार्तिक मास की अमावस्या को सम्पन्न होने वाले इस पर्व में घर-घर दीप जलाये जाते हैं। अपने घर में प्रकाश करना मनुष्य की सहज और स्वाभाविक वृत्ति है किंतु घर के साथ परिसर को आलोकित करना उदात्तता है। शतपथ ब्राह्मण का उद्घोष है,

असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्मामृतं गमय…!

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ से भौतिक संसार में प्रकाश का विस्तार भी अभिप्रेत है। हर दीप अपने स्तर पर प्रकाश देता है पर असंख्य दीपक सामूहिक रूप से जब साथ आते हैं तो अमावस्या दीपावली हो जाती है।

इन पंक्तियों के लेखक की दीपावली पर एक चर्चित कविता है, जिसे विनम्रता से साझा कर रहा हूँ,

अँधेरा मुझे डराता रहा,
हर अँधेरे के विरुद्ध
एक दीप मैं जलाता रहा,
उजास की मेरी मुहिम
शनै:-शनै: रंग लाई,
अनगिन दीयों से
रात झिलमिलाई,
सिर पर पैर रख
अँधेरा पलायन कर गया
और इस अमावस
मैंने दीपावली मनाई !

कथनी और करनी दो भिन्न शब्द हैं। इन दोनों का अर्थ जिसने जीवन में अभिन्न कर लिया, वह मानव से देवता हो गया। सामूहिक प्रयासों की बात करना सरल है पर वैदिक संस्कृति यथार्थ में व्यष्टि के साथ समष्टि को भी दीपों से प्रभासित करने का उदाहरण प्रस्तुत करती है। सामूहिकता का ऐसा क्रियावान उदाहरण दुनिया भर में मिलना कठिन है। यह संस्कृति ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ केवल कहती नहीं अपितु अंधकार को प्रकाश का दान देती भी है।

प्रभु श्रीराम द्वारा रावण का वध करके अयोध्या लौटने पर जनता ने राज्य में दीप प्रज्ज्वलित कर दीपावली मनाई थी। श्रीराम सद्गुण का साकार स्वरूप हैं। रावण, तमोगुण का प्रतीक है। श्रीराम ने समाज के हर वर्ग को साथ लेकर रावण को समाप्त किया था। तम से ज्योति की यात्रा का एक बिंब यह भी है। स्वाभाविक है कि सामूहिक दीपोत्सव का रेकॉर्ड भी भारतीयों के नाम ही है। यह सामूहिकता, सामासिकता और एकात्मता का प्रमाणित वैश्विक दस्तावेज़ भी है।

तथापि सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि वर्तमान में चंचल धन और पार्थिव अधिकार के मद ने आँखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम त्योहार या उत्सव की मूल परम्परा ही भुला बैठे हैं। आद्य चिकित्सक धन्वंतरी की त्रयोदशी को हमने धन की तेरस तक सीमित कर लिया। रूप की चतुर्दशी, स्वरूप को समर्पित कर दी। दीपावली, प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने, मूल्यों की विजय एवं अर्चना का प्रतीक न होकर केवल द्रव्यपूजन का साधन हो गई।

उत्सव और त्योहारों को उनमें अंतर्निहित उदात्तता के साथ मनाने का पुनर्स्मरण हमें करना ही होगा। अपने जीवन के अंधकार के विरुद्ध एक दीप हमें प्रज्ज्वलित करना ही होगा। जिस दिन एक भी दीपक इस सुविधानुसार विस्मरण के अंधेरे के आगे सीना ठोंक कर खड़ा हो गया, यकीन मानिए, अमावस्या को दीपावली होने में समय नहीं लगेगा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 114 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 114 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 114) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 114 ?

Open Book… ☆

मैं कोई खुली क़िताब तो नहीं

कि दिलनशीं  हर कोई पढ़ ले…

पहले हासिल तो करो जनाब

फिर पढ़ने पढ़ाने की बात करो…!

☆☆ 

I am not an open book

that everyone could read

Just try getting it first

then talk about reading…!

☆☆☆☆☆

पहले लोग फना होते थे

उनकी रूहें भटकती थीं,

आजकल रूहें मारा करतीं हैं

और लोग भटकते रहते हैं…!

☆☆ 

Earlier people used to die,

their souls would wander…

Now souls keep dying and

people wander around…!

☆☆☆☆☆

 न हम मंज़िलों को और न

ही रहगुज़र को देखते हैं

अजब सफ़र है ये कि बस हम

सिर्फ हमसफ़र को देखते हैं…!

☆☆ 

Neither at the destination

nor do I look at the roads…

What a strange journey is this,

that I just gaze at my companion…!

☆☆☆☆☆

 इतना तो किसी ने

चाहा भी ना होगा,

जितना कि हमने…

सिर्फ सोचा है तुम्हें…!

☆☆ 

Nobody would have even

loved you so much

As much as I just…

thought about you…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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