हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 146 – नववर्ष की बधाइयाँ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है बीते कल औरआज को जोड़ती एक प्यारी सी लघुकथा “नववर्ष की बधाइयाँ ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 146 ☆

🌺लघुकथा 🥳 नववर्ष की बधाइयाँ 🥳

एक बहुत छोटा सा गाँव, शहर से कोसों दूर और शहर से भी दूर महानगर में, आनंद अपनी पत्नी रीमा के साथ, एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। अच्छी खासी पेमेंट थी।

दोनों ने अपनी पसंद से प्रेम  विवाह किया था। जाहिर है घर वाले बहुत ही नाराज थे। रीमा तो शहर से थी। उसके मम्मी – पापा कुछ कहते परंतु बेटी की खुशी में ही अपनी खुशी जान चुप रह गए, और फिर कभी घर मत आना। समाज में हमारी इज्जत का सवाल है कह कर बिटिया को घर आने नहीं दिया।

आनंद का गाँव मुश्किल से पैंतीस-चालीस घरों का बना हुआ गांव। जहाँ सभी लोग एक दूसरे को अच्छी तरह जानते तो थे, परंतु पढ़ाई लिखाई से अनपढ़ थे।

बात उन दिनों की है जब आदमी एक दूसरे को समाचार, चिट्ठी, पत्र-कार्ड या अंतरदेशीय  और पैसों के लिए मनी ऑर्डर फॉर्म से रुपए भेजे जाते थे। या ज्यादा पढे़ लिखे लोग तीज त्यौहार पर सुंदर सा कार्ड देते थे।

आनंद दो भाइयों में बड़ा था। सारी जिम्मेदारी उसकी अपनी थी। छोटा भाई शहर में पढ़ाई कर रहा था। शादी के बाद जब पहला नव वर्ष आया तब रीमा ने बहुत ही शौक से सुंदर सा कार्ड ले उस पर नए साल की शुभकामनाओं के साथ बधाइयाँ लिखकर खुशी-खुशी अपने ससुर के नाम डाक में पोस्ट कर दिया।

छबीलाल पढ़े-लिखे नहीं थे। जब भी मनीआर्डर आता था अंगूठा लगाकर पैसे ले लेते थे। यही उनकी महीने की चिट्ठी होती थी।

परंतु आज इतना बड़ा गुलाबी रंग का कार्ड देख, वह आश्चर्य में पड़ गए। पोस्ट बाबू से पूछ लिया…. “यह क्या है? जरा पढ़ दीजिए।” पोस्ट बाबू ने कहा “नया वर्ष है ना आपकी बहू ने नए साल की बधाइयाँ भेजी है। विश यू वेरी हैप्पी न्यू ईयर।”

पोस्ट बाबू भी ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था आगे नहीं पढ़ सका। इतने सारे अंग्रेजी में क्या लिखा है। अंतिम में आप दोनों को प्रणाम लिखी है। वह मन ही मन घबरा गये और इतना सुनने के बाद…

छबीलाल गमछा गले से उतार सिर पर बाँध हल्ला मचाने लगे… “सुन रही हो मैं जानता था यही होगा एक दिन।”

“अब कोई पैसा रूपया नहीं आएगा। मुझे सब काम धाम अब इस उमर में करना पड़ेगा। बहू ने सब लिख भेजा है इस कार्ड पर पोस्ट बाबू ने बता दिया।”

दोनों पति-पत्नी रोना-धोना मचाने लगे। गाँव में हवा की तरह बात फैल गई कि देखो बहू के आते ही बेटे ने मनीआर्डर से पैसा भेजना बंद कर दिया।

बस फिर क्या था। एक अच्छी खासी दो पेज की चिट्ठी लिखवा कर जिसमें जितनी खरी-खोटी लिखना था। छविलाल ने पोस्ट ऑफिस से पोस्ट कर दिया, अपने बेटे के नाम।

रीमा के पास जब चिट्ठी पहुंची चिट्ठी पढ़कर रीमा के होश उड़ गए। आनंद ने कहा…. “अब समझी गाँव और शहर का जीवन बहुत अलग होता है। उन्हें बधाइयाँ या विश से कोई मतलब नहीं होता और बधाइयों से क्या उनका पेट भरता है?

यह बात मैं तुम्हें पहले ही बता चुका था। पर तुम नहीं मानी। देख लिया न। मेरे पिताजी ही नहीं अभी गांव में हर बुजुर्ग यही सोचता है। “

आज बरसों बाद मोबाइल पर व्हाटसप चला रही थी और बेटा- बहू ने लिखा था.. “May you have a wonderful year ahead. Happy New Year Mumma – Papa “..

रीमा की उंगलियां चल पड़ी “हैप्पी न्यू ईयर मेरे प्यारे बच्चों” समय बदल चुका था परंतु नववर्ष की बधाइयाँ आज भी वैसी ही है। जैसे पहली थीं।

आंनद रीमा इस बात को अच्छी तरह समझ रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 15 – देशीय उड़ान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “  परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 15 – देशीय उड़ान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

यात्रा के अगले चरण में शिक्षा के लिए विश्व प्रसिद्ध शहर बोस्टन जाने के लिए घर बैठे ऑनलाइन टिकट बुक कर, विमानतल में स्कैन द्वारा स्वचलित बोर्डिंग पास प्राप्त करने का प्रथम अवसर था, तो पुराने समय की याद आ गई, जब प्रथम बार एटीएम से राशि प्राप्त कर जो खुशी मिली थी, आज भी कुछ ऐसा ही आभास हुआ।

एक छोटे संदूक को विमान के अंदर ले जाने के अलावा बड़े संदूक का अतिरिक्त भुगतान करना पड़ा, जो हमारे जैसे यात्रियों के लिए अचंभा था।

विमानतल पर  देश के भीतर यात्रा पर भी कड़ी जांच के मद्दे नज़र” जूता उतार” जांच से बचने के लिए हमने अपनी बाटा की हवाई चप्पल का ही उपयोग किया, क़मर बेल्ट जांच से भी बचने के लिए नाड़े वाले पायजामा के साथ कुर्ता पहन कर देशी परिधान ग्रहण कर लिया।                      श्रीमतीजी ने आपत्ति उठाते हुए कहा आप अकेले व्यक्ति विमानतल पर ऐसे परिधान पहन कर अलग से दिख रहें हैं। तभी वहां प्रतीक्षा रत एक अस्सी वर्ष की उम्र वाले व्यक्ति  पुस्तक पढ़ते हुए दिख गए,वो भी सब से अलग दिख रहे थे।

सबसे आश्चर्य हुआ एक युवती ऊन से कुछ बुनाई कर रही थी। हमारे यहां तो अब ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं भी हाथ में ऊन और सलाई लिए हुए भी नहीं नज़र आती है। अमेरिका जैसे विकसित देश में हवाई यात्रा के समय नवयुवती के हाथ में ये देखकर लगा कि हस्तकला कभी समाप्त नहीं हो सकती।

बोस्टन उतरने के पश्चात जब बड़े संदूक का इंतजार करते हुए, वहां उपलब्ध ट्रॉली खींची, तो उसको दीवार से अटका हुआ पाया, क्योंकि छः डॉलर शुल्क भुगतान के पश्चात ही सुविधा का उपयोग संभव था। हमारे पास खींचने के लिए अब छोटा और बड़ा दो संदूक थे, वो तो अच्छा हुआ जो नीचे चक्के लगे हुए थे। वैसे हम लोग तो “चमड़ी चली जाय पर दमड़ी ना जाय” को मानने वाली पीढ़ी से जो हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ संकल्प… ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ संकल्प… ☆ सौ राधिका भांडारकर

सरले हे वर्ष मनुजा

स्वागत करुया नववर्षाचे

किती बेरजा किती वजा

क्षण आठवू सुखदु:खाचे..

 

कालचक्र हे अखंड चाले

 पुन्हा  न येते गेली वेळ

झटकू आळस कष्ट करु

जीवनाची फुलवू वेल..

 

ध्यानी असू दे एक तत्व

आयुष्या नसतो लघुमार्ग

नसते सुट्टी ना आराम

यत्ने अंती फुलेल स्वर्ग…

 

करा संकल्प नववर्षाचा

एक कूपी करा रिकामी

सुगंध नवा त्यात भरा

झटकून टाका जे निकामी..

 

नव्या पीढीचे तुम्ही स्तंभ

आण बाळगा सृजनाची

युद्ध नको शांती हवी

जगास द्या हाक  प्रेमाची…

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #169 ☆ कौलारू घर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 169 ?

☆ कौलारू घर…  ☆

आयुष्याला पुरून उरलो आहे मी तर

पदोपदी हा झाला होता जरी अनादर

 

ऊब सोबती तुझी मिळाली कधीच नाही

पांघरण्याला मला दिली तू ओली चादर

 

ह्या गुढघ्यांनी हात टेकले असे अचानक

आधाराला निर्जिव काठी चढलो दादर

 

शीतलतेची होती ग्वाही म्हणुन बांधले

शेण मातिचे चार खणाचे कौलारू घर

 

ओढे नाले ढकलत होते वहात गेलो

अंति भेटला खळाळणारा अथांग सागर

 

जरी सुखाच्या रथात बसुनी प्रवास केला

खड्ड्यांचा हा रस्तोरस्ती होता वावर

 

जीवन म्हणजे असतो कापुर कळले नाही

अल्प क्षणातच जळून गेला होता भरभर

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! – विधायक कार्य ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

 😂 चं म त ग ! 😅 विधायक कार्य ! 🤠 ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

“गुडमॉर्निंग पंत”

“नमस्कार, नमस्कार. पण आज तुझ्या आवाजात उत्साह वाटत नाही.”

“पंत कसा असणार उत्साह ? बारा तेरा दिवस सारखं घरात बसून कंटाळणार नाही का माणूस ?”

“तू म्हणतोयस ते बरोबरच  आहे. अरे सारखं सारखं घरात बसून, मला पण मी US ला मुलाच्या घरी तर नाही ना, असं वाटायला लागलंय हल्ली ! पण मग तुझ्या घरातल्या कामांचे काय, सगळी कामं संपली की काय ?”

“पंत आता साऱ्या कामांची एवढी सवय झाल्ये की… “

“दोन तीन तासात तू मोकळा होत असशील ना रोज ? “

“हो ना, मग करायच काय हा प्रश्न आ वासून उभा राहतो.”

“अरे मग बायको बरोबर गप्पा मारायच्या !”

“आता लग्नाला दोन वर्ष होऊन गेली, सगळ्या गप्पा बिप्पा मारून संपल्या.”

“काय सांगतोस काय, दोन वर्षात गप्पा संपंल्या ? पण आमच्या लग्नाला चाळीस वर्ष झाली तरी आमच्या गप्पा अजून काही संपत नाहीत !”

“काय सांगता काय पंत, तुमच्या लग्नाला चाळीस वर्ष झाली तरी तुमच्या गप्पा अजून…. “

“अरे म्हणजे ही गप्पा मारते आणि मी गप्प राहून फक्त हुंकार देत त्या ऐकतो एव्हढेच ! ते सोड, गप्पा नाही तर नाही बायको बरोबर पत्ते बित्ते तरी…… “

“नाही पंत, ती पुण्याची असल्यामुळे तिला पत्त्यांचा तिटकाराच आहे, लहानपणा पासून.”

“मग काही वाचन…… “

“अहो पंत, वाचून वाचून वाचणार तरी किती आणि काय काय ? आणि दुसरं असं की वाचायला सुरवात केली,  की झोप अनावर होते आणि झोपून उठलं की पहिली पाच सात मिनिट कळतच नाही, की आपण दुपारचे झोपून उठतोय का रात्रीचे ?”

“पण मग टीव्ही आहे ना बघायला ?”

“अहो पंत त्यावर पण हल्ली सगळे जुने जुने एपिसोड दाखवतायत, काही ‘राम’ नाही उरला आता त्यात !”

“मग टीव्ही वरच्या बातम्या….”

“त्या करोना व्हायरस घालवायला चांगल्या आहेत !”

“म्हणजे, मी नाही समजलो.”

“पंत, म्हणजे त्या बातम्या करोना व्हायरसला दाखवल्या ना, तर तो त्या बघून स्वतःहून पळून जाईल चीनला !”

“काही तरीच असतं तुझ बोलण !  आता मला सांग, आज काय काम काढलेस माझ्याकडे ?”

“पंत, माझ्याप्रमाणेच आपल्या चाळीतले सगळे रहिवाशी बोअर झालेत आणि…. “

“चाळ कमिटीचा अध्यक्ष या नात्याने ते तुला मोबाईलवरून सारखे फोन करून यावर काहीतरी उपाय करा, टाइम पास कसा होईल ते सांगा, असे सतवत असतात, बरोबर ?”

“कस अगदी बरोबर ओळखत पंत !”

“अरे चाळीस वर्षांचा तजुरबा आहे मला चाळकऱ्यांचा, सगळ्यांची नस अन नस ओळखून आहे म्हटलं मी !”

“हो पंत, आपल्या चाळीतील तुम्हीच सर्वात जुने रहिवासी, त्यामुळे तुम्हाला… “

“मस्का बाजी पुरे, तुझा प्रॉब्लेम माझ्या लक्षात आलाय आणि त्यावर माझ्याकडे उपाय सुद्धा आहे !”

“सांगा सांगा पंत, तुमचा उपाय ऐकायला मी अगदी आतुर झालोय !”

“सांगतो, सांगतो, जरा धीर धरशील की नाही !”

“हो पंत, पण एक प्रॉब्लेम… “

“आता कसला प्रॉब्लेम?”

“अहो सध्या सगळेच कोरोनाच्या संकटामुळे आपापल्या घरी अडकलेत आणि एकमेकांना भेटू…”

“शकत नाहीत, माहित्ये मला.

खरच दुर्भाग्याची गोष्ट आहे ना ?”

“यात कसली दुर्भाग्याची गोष्ट, साऱ्या जगावरच संकट ओढवलं आहे त्याला… “

“अरे त्या बद्दल नाही बोलत मी.”

“मग कशा बद्दल बोलताय पंत ? “

“आता हेच बघ ना, गेल्या बारा तेरा दिवसात मुंबईची हवा, कसलेच पोल्युशन नसल्या मुळे कधी नव्हे इतकी शुद्ध झाली आहे आणि त्याचा आनंद घ्यायचे लोकांच्या नशिबातच नाही. उलट लोकांना मास्क लावून फिरायची पाळी आली आहे.”

“हो ना पंत, पण माझी बायको म्हणते मी अजिबात मास्क नाही लावणार.”

“का, ती पुण्याची आहे म्हणून का ?”

“म्हणजे ?”

“अरे जसा पूर्वी पुणेकरांचा हेल्मेटला विरोध होता तसा मला वाटलं मास्कला पण आहे की काय, म्हणून मी विचारलं.”

“तस नाही पंत, त्या मागे तीच वेगळेच लॉजिक आहे.”

“कसलं लॉजिक ?”

“ती म्हणते ‘मी मास्क लावला तर, मी रागावून गाल फुगवून बसल्ये हे तुम्हाला कस काय कळणार ?”

“खरच कठीण आहे रे तुझ !”

“ते जाऊ दे पंत, आता दोन वर्षात मला सवय झाल्ये त्याची.  पण आधी मला सांगा तुमच्याकडे टाइमपास साठी काय… “

“अरे नेहमीच टाइमपास न करता, सध्याच्या परिस्तिथीत थोडे विधायक कार्य पण करायला शिका ! एकदा का या संकटातून सुटका झाली की मग जन्मभर टाइमपासच करायचा आहे.”

“म्हणजे, मी नाही समजलो?”

“सांगतो, आता आपल्या चाळीत एका मजल्यावर पंधरा बिऱ्हाड आणि चार मजले मिळून साठ, बरोबर ?”

“बरोबर !”

“तर तू चाळ कमिटीचा अध्यक्ष या नात्याने सगळ्यांना सांग, येत्या रविवारी सगळ्यांनी घरटी दहा दहा पोळ्या आणि त्यांना पुरेल इतकी कुठलीही भाजी भरून ते डबे चाळ

कमिटीच्या ऑफिस मधे आणून द्यावेत.”

“आणि ?”

“तू आज एक काम करायचस,  आपल्या के ई एम हॉस्पिटल मधे जाऊन तिथल्या अधिकाऱ्यांना भेटून सांगायचं,  की येत्या रविवारी आमच्या अहमद सेलर चाळी तर्फे,  आम्ही जेवणाचे साठ डबे पाठवणार आहोत. ते आपल्या हॉस्पिटल मधे कार्यरत असणाऱ्या डॉक्टर, नर्सेस आणि वॉर्ड बॉईजना वाटायची व्यवस्था करा.”

“काय झकास आयडिया दिलीत पंत, त्या निमित्ताने सगळ्यांचा वेळ पण जाईल आणि काहीतरी विधायक कार्य हातून घडल्याचा आनंद पण मिळेल ! धन्यवाद पंत !”

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

०३-०२-२०२३

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 119 – गीत – शिरोधार्य आदेश तुम्हारा… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – शिरोधार्य आदेश तुम्हारा…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 119 – गीत – शिरोधार्य आदेश तुम्हारा…  ✍

शिरोधार्य आदेश तुम्हारा

चाहे जो हो हाल हमारा।

 

बूँद बूँद को तरसा जीवन

पिया मरुस्थल सारा।

किरन किरन को हीँड़ा जीवन

पिया जिया अँधियारा।

 

औचक ही मिल गई चाँदनी

क्षण में किया किनारा।

 

सुरसरि सा पावन तट पाकर

चाहा प्यास बुझाना

देख परख कर रूप रश्मियाँ

चाह रहा था गाना।

 

कंठ रुद्ध हो गया अचानक

ज्यों निगला हो पारा।

 

करमजलों का जीना क्या है

साँसों की मजबूरी।

देह धरे का दंड भोगना

शायद बहुत जरूरी।

 

मेरी अपनी हस्ती क्या है

सपनों का बंजारा।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 121 – “झोंके छतनार कहीं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “झोंके छतनार कहीं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 121 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “झोंके छतनार कहीं…” || ☆

ये पत्ते नीम के ।

कड़वे लगते जैसे

नुस्खे हक़ीम के।।

 

दुबले-पतले हिलते।

लगे, हाथ हैं मलते।

 

भूखे-प्यासे जैसे

बेटे यतीम के ।।

 

डाल-डाल लहराते ।

टहनी में फहराते ।

 

झूमते-मचलते

नशे में अफीम के ।।

 

हरे-भरे रहते हैं।

खरी-खरी कहते हैं।

 

जैसे कि  तकाजे

हवा के मुनीम के।

 

झोंके छतनार कहीं।

झुकते साभार वहीं ।

 

शाख पर सजे

जैसे दोहे रहीम के।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

 

29-12-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 168 ☆ “महासुख का राज रजाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर, विचारणीय एवं चिंतनीय  व्यंग्य – “महासुख का राज रजाई”)

☆ व्यंग्य # 168 ☆ “महासुख का राज रजाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

जाड़े का मौसम है, हर बात में ठंड…. हर याद में ठंड और हर बातचीत की भूमिका में ठंड की बातें और बातों – बातों में रजाई… वाह रजाई… हाय रजाई… महासुख का राज रजाई।

सबकी अपनी-अपनी ठंड है और ठंड दूर करने के लिए सबकी अलग अपने तरीके की रजाई होती है। संसार का मायाजाल मकड़ी के जाल की भांति है जो जीव इसमें एक बार फंस जाता है वह निकल नहीं पाता है ऐसी ही रजाई की माया है कंपकपाती ठंड में जो रजाई के महासुख में फंस गया वो गया काम से। ठंड सबको लगती है और ठंड का इलाज रजाई से बढ़िया और कुछ नहीं है रजाई में ठंड दूर करने के अलावा अतिरिक्त संभावनाएं छुपी रहती हैं रजाई में चिंतन-मनन होता है योजनाएं बनतीं हैं रजाई के अंदर फेसबुक घुस जाती है मोबाइल से बातें होतीं हैं जाड़े पर बहस होती है जाड़े की चर्चा से मोबाइल गर्म होता है रजाई सब सुनती है कई बड़े बड़े काम रजाई के अंदर हो जाते हैं रजाई की महिमा अपरंपार है दफ्तर में बड़े बाबू के पास जाओ तो रजाई ओढ़े कुकरते हुए शुरू में कूं कूं करता है फिर धीरे-धीरे बोल देता है जाड़ा इतना ज्यादा है कि पेन की स्याही बर्फ बन गई है जब पिघलेगी तब काम चालू होगा। इस प्रकार अधिकांश आफिस के लोग ठंड के बहाने सबको टरका देते हैं और कह देते हैं कि ठंड सबको लगती है आफिस की सब फाइलें ठंड में रजाई ओढ़ के सो रहीं हैं जबरदस्ती जगाओगे तो काम बिगड़ सकता है फिर आफिस के सब लोग रजाई के महत्व पर भाषण देने लगते हैं।

ठंड से मौत के सवाल पर मंत्री जी के मुंह में बर्फ जम जाती है रजाई में घुसे – घुसे कंबल बांटने के आदेश हो जाते हैं अलाव से प्रदूषण फैलता है लकड़ी काटना अपराध है कंबल खरीदने से फायदा है कमीशन भी बनता है। रजाई के अंदर से राजनीति करने में मजा है।

जब से हमने रजाई को आधार से जुड़वाया है तब से रजाई में खुसफुसाहट सी होने लगी है रजाई हमें पहचानने लगी है शुरू – शुरू में नू – नुकुर करती थी अब पहचान गई है आधार ही ऐसी चीज है जिसमें पहचान से लेकर सेवाओं तक में होने वाली धोखाधड़ी ये रजाई पहचानने लगती है। जाड़े में रज्जो की रजाई में रज्जाक घुसने में अब डरता है क्योंकि वो जान गया है कि सरकार ने आधार को हर सेवा से जोड़ने की कवायद कर ली है। पर गंगू रजाई की बात में कन्फ्यूज हो जाता है पूछने लगता है कि यदि रज्जो की रजाई चोरी हो जाएगी तो क्या आधार नंबर की मदद से मिल जाएगी ? इसका अभी सरकार के पास जबाब नहीं है क्योंकि सरकार का मानना है कि भुलावे की खुशी जीवन में कई दफा ज़्यादा मायने रखती है। गंगू की इस बात पर सभी को सहमत होना चाहिए कि यदि कोई इन्टरनेट बैंकिंग या डिजिटल पेमेंट से रजाई खरीदता है तो उसे जीएसटी में पूरी छूट मिलनी चाहिए। हालांकि गंगू ये बात मानता है कि एक देश एक कर प्रणाली (जीएसटी) ने देश का आर्थिक चेहरा बदलने की शुरुआत की है पर गुजरात के चुनाव ने सबको डरा दिया है जाड़े में चुनाव कराना ठीक नहीं है रजाई के दाम बढ़ने से वोट बंट जाने का खतरा बढ़ जाता है जयपुरी रजाई के दाम तो ऐसे बढ़ते हैं कि दाम पूछने में जाड़ा लगने लगता है। जैसे ही ठंड का मौसम आता है गंगू को अपने पुराने दिन याद आते हैं उसे उन दिनों की ज्यादा याद आती है जब पूस की कंपकपाती रात में खेत की मेढ़ में फटी रजाई के छेद से धुआंधार मंहगाई घुस जाती थी और दांत कटकटाने लगते थे भूखा कूकर ठंड से कूं… कूं करते हुए रजाई के चारों ओर रात भर घूमता था और रातें और लंबी हो जातीं थीं, पर पिछले साल से ठण्ड में कुछ राहत इसलिए मिली कि नोटबंदी के चक्कर में कोई बोरा भर नोट खेत में फेंक गया और गंगू ने बोरा भर नोट के साथ थोड़ी पुरानी रुई को मिलाकर नयी रजाई सिल ली थी नयी रजाई में नोटों की गर्मी भर गई थी जिससे जाड़े में राहत मिली थी इस रजाई से ठंड जरूर कम हुई थी पर अनजाना डर बढ़ गया था जो सोने में दिक्कत दे रहा था गंगू ने कहीं सुन लिया था कि नोटबंदी के बाद बंद हुए पुराने नोट पकडे़ जाने पर सजा का प्रावधान है। गंगू चिंतित रहता है कि भगवान की कृपा से पहली बार नोटभरी रजाई सिली और ठंड में राहत भी मिली पर ये साले चूहे बहुत बदमाशी करते हैं कभी रजाई को काट दिया तो नोट बाहर दिखने लगेंगे और रजाई जब्त हो जाएगी। खैर जो भी होगा देखा जाएगा अभी तो ये नयी रजाई ओढ़कर सोने में जितना मजा आ रहा है उतना मजा वित्तमंत्री को मंहगी जयपुरी रजाई ओढ़ने में नहीं आता होगा।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 110 ☆ # नया वर्ष… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#नया वर्ष …#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 110 ☆

☆ # नया वर्ष … # ☆ 

बीत गया पुराना साल

लाल हुआ अंबर का भाल

अरुणोदय के संग

किरणों के रंग बिरंगे रंग

बिखेर रहे अपनी छटा

स्याह जुल्फों को हटा

आलोकित करते

फूल और कलियां

गुंजायमान करती

हुई गलियां

नव प्रभात के स्वागत गीत

गा रही है

नई सुबह अंगड़ाई लेकर

हौले-हौले आ रही है

 

वसुंधरा ने

शुभ्र शालू ओढ़ा है

ठंड ने अपना रिकॉर्ड तोड़ा है

जमे हुए पांव, कंपकंपाते हाथ

ठिठुरते हुए बदन

चुभती हुई सर्द हवाएं

अब ढूंढ रही है तपन

लिहाफ में दुबके हुए जिस्म

आंखें खोल रहे हैं

बाहरी ठंड के अहसास को

आलिंगन में तोल रहे हैं

सारी कायनात प्रेम में

खोई हुई है

सब पे दीवानगी सी

छाई हुई है

हर पल एक खुशनुमा

आहट है

नववर्ष आने की

शायद सुगबुगाहट है

बीते वर्ष की कड़वाहट को

भुलाने का समय

आ गया है

प्यार बांटने

खुशियां मनाने

नया वर्ष

अब आ गया है /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 111 ☆ अभंग… स्मरा कृष्ण… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 111  ? 

☆ अभंग… स्मरा कृष्ण… ☆

श्रेष्ठ सज्जनांचा, संत महंतांचा

आणि आचार्यांचा, मान ठेवा.!!

 

अहंकार जावा, धर्म आचरावा

गर्व ही नसावा, मनांतरी.!!

 

सात्विक आहार, सुंदर विचार

हृदयी आदर, नित्य हवा.!!

 

श्रीकृष्ण प्राप्तीची, उत्कंठा असावी

अप्राप्ती भावावी, श्रीमुर्तीची.!!

 

कवी राज म्हणे, चालता बोलता

उठता बसता, स्मरा कृष्ण.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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