(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सरकारी मेहरबानी।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 43 – सरकारी मेहरबानी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
घाव करे गंभीर – सरकारी मेहरबानी
सरकारी कार्यालयों की हालत किसी पुराने खंडहर जैसी होती है—देखो तो लगता है अभी भरभराकर गिर पड़ेगी, लेकिन गिरती नहीं। अंदर जाओ तो पता चलता है कि ये खंडहर सरकारी कर्मियों की इच्छाशक्ति और जनता की मजबूरी से टिका हुआ है। हमारे मोहल्ले में एक आदमी था—रामसेवक मिश्रा। नाम से लगता था कि जनता की सेवा के लिए ही जन्मा हो, मगर असल में वो सरकारी अफसरों के चरणों की सेवा का प्रबल समर्थक था। उसने अपनी पूरी जवानी एक ही काम में लगा दी—‘साहब, मेरा काम हो जाएगा न?’ और साहब हर बार मुस्कुराकर कहते, ‘देखो मिश्रा जी, सिस्टम में टाइम लगता है, अब सिस्टम को तोड़ा तो हम भ्रष्टाचार करेंगे और अगर नहीं तोड़ा तो आप विलंब का रोना रोएंगे। आप ही बताइए, हम क्या करें?’ मिश्रा जी इस दार्शनिकता को समझ नहीं पाते और फिर चाय-नाश्ते की थाली बढ़ा देते।
मिश्रा जी का काम आखिरकार बीस साल में पूरा हुआ। बीस साल लग गए एक छोटे से मकान की नकल निकलवाने में। जब फाइल निकली तो उसमें से ऐसी खुशबू आई कि पूरा दफ्तर भावुक हो गया। बाबू बोला, ‘अरे! ये फाइल तो हमारे पूर्वजों की धरोहर निकली! इसे म्यूजियम में रखना चाहिए।’ मिश्रा जी की आंखों में आंसू थे—खुशी के नहीं, बल्कि अपने जीवन के बीस साल सरकारी गलियारों में गवां देने के। सोच रहे थे कि कहीं स्वर्ग में भी ‘कृपया प्रतीक्षा करें’ की पर्ची न काटनी पड़े।
बात वहीं खत्म नहीं हुई। सरकारी योजना आई—‘सबको आवास, मकान के साथ’। मिश्रा जी खुश हुए कि चलो अब सरकार सुधर गई, लेकिन जैसे ही आवेदन किया, बाबू ने फाइल को ऐसे देखा जैसे वो ससुराल से आई संदिग्ध मिठाई हो। बोले, ‘अरे मिश्रा जी, इस योजना के लिए पात्र नहीं हैं आप। इसमें उन्हीं को घर मिलेगा जिनके पास पहले से कोई घर नहीं है।’ मिश्रा जी बोले, ‘मगर मेरे पास भी तो कुछ नहीं है!’ बाबू ने चश्मा ठीक करते हुए कहा, ‘अरे नहीं, आपके पास सरकारी फाइलों में दर्ज आपका पुराना मकान है। सरकार फाइलों की मानती है, आपकी नहीं।’ मिश्रा जी सिर पकड़कर बैठ गए।
इसी बीच मोहल्ले में एक और आदमी था—पंडित हरिहर शरण। वो सरकारी योजनाओं के गुरु थे। उनकी जानकारी ऐसी थी कि सरकारी बाबू भी उनसे राय लेते थे। उन्होंने मिश्रा जी को सलाह दी, ‘देखिए, आपको बेघर बनना होगा, तभी घर मिलेगा।’ मिश्रा जी घबरा गए, ‘मतलब?’ पंडित जी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘मतलब ये कि अपनी जमीन दान कर दीजिए, फिर कागजों में बेघर हो जाइए, तब योजना में आपका नाम आएगा।’ मिश्रा जी बोले, ‘ये तो वही बात हो गई कि खाना मिले इसके लिए पहले भूख से मरना पड़े!’ पंडित जी बोले, ‘सरकार की योजना ऐसे ही चलती है। जो वास्तव में गरीब होता है, उसके पास इतनी जानकारी होती ही नहीं कि योजना तक पहुंच सके।’
अब मिश्रा जी ने सरकारी तंत्र के साथ खेलने की सोची। उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘रामसहाय बेघर’ रख लिया और आवेदन कर दिया। फाइल सीधे मंत्रालय तक पहुंची। मंत्री जी ने खुद साइन किए और कहा, ‘ये देखिए, हमारी सरकार ने बेघरों के लिए कितनी संवेदनशीलता दिखाई है।’ मगर जब मकान आवंटित हुआ तो उसके साथ एक शर्त आई—‘आप इसे अगले बीस साल तक बेच नहीं सकते, किराए पर नहीं उठा सकते और अगर इसमें कोई परिवार रखेंगे तो उनकी भी पात्रता जांची जाएगी।’ मिश्रा जी हंसते-हंसते रो पड़े। बोले, ‘सरकार ऐसे घर दे रही है जैसे शादी में हलवाई लड्डू दे और कहे कि इसे न खाओ, न बांटो, बस तस्वीर खिंचवाकर रख लो।’
सरकारी नीतियां जनता को ऐसे उलझाती हैं जैसे नाई बच्चे को बहलाने के लिए कैंची चलाने से पहले गुब्बारा पकड़ाता है। अब मिश्रा जी के घर के बाहर एक सरकारी बोर्ड टंग गया—‘यह मकान सरकार द्वारा दिया गया है, इसे बेचना गैरकानूनी है।’ मोहल्ले वालों ने देखा तो बोले, ‘वाह मिश्रा जी, आपको सरकार ने मकान दिया!’ मिश्रा जी बोले, ‘हाँ, मगर मैं इसमें रह नहीं सकता, इसे किराए पर नहीं उठा सकता और बेच भी नहीं सकता। ऐसा मकान मुझे मेरी ससुराल से भी मिल सकता था, सरकार से लेने की क्या जरूरत थी!’
इस पूरे किस्से से एक बात तो साबित हो गई कि सरकारी योजनाएं आम आदमी के लिए नहीं, बल्कि आंकड़ों के लिए बनाई जाती हैं। रिपोर्ट में लिखा जाएगा—‘हमने 10 लाख मकान दिए’, मगर उसमें एक लाइन नहीं लिखी जाएगी—‘इनमें से कोई भी रहने लायक नहीं।’ मिश्रा जी ने सोचा, ‘काश! मैं भी कोई नेता होता, तब शायद मुझे बिना मांगे ही सबकुछ मिल जाता। लेकिन आम आदमी होने की सजा यही है कि सरकार रोटियां पकाती है, मगर परोसती नहीं। भूख बढ़ाने का काम हमारा, खाना देने का काम उनकी फाइलों का।’
कहानी का अंत भी कम दिलचस्प नहीं था। एक दिन सरकार ने फिर से एक योजना निकाली—‘पुरानी योजनाओं का पुनर्विलोकन’। इसका अर्थ था कि जिन योजनाओं से जनता का फायदा नहीं हुआ, उन्हें दोबारा लागू किया जाए और फिर से फाइलें खोली जाएं। मिश्रा जी को लगा कि अब तो उनका सपना पूरा हो जाएगा, लेकिन जब नए सिरे से जांच हुई तो पाया गया कि उनका आवेदन नियमों के खिलाफ था। सरकारी बाबू ने कहा, ‘मिश्रा जी, आपको ये मकान गलती से मिल गया था, अब इसे सरकार वापस लेगी।’ मिश्रा जी ने सिर पर हाथ मारा और बोले, ‘वाह रे सरकार! पहले दिया, फिर रोका, फिर दोबारा मौका दिया, फिर वापस लिया! लगता है मैं सरकारी योजना नहीं, किसी टीवी सीरियल का पात्र हूं, जिसे कभी अमीर, कभी गरीब, कभी आशावादी, कभी हताश बना दिया जाता है!’
सरकार ने मकान वापस ले लिया। अब मिश्रा जी के पास न घर था, न जमीन। वो फिर वहीं आ गए, जहां से चले थे—सरकारी दफ्तर की लंबी कतार में। फर्क बस इतना था कि इस बार उनके हाथ में एक और आवेदन था—‘बेघर व्यक्ति के पुनर्वास हेतु सहायता।’ बाबू ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘मिश्रा जी, सिस्टम में टाइम लगता है…।’
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय एवं ज्ञानवर्धक आलेख – “हाइकु में व्यक्त भावों की अभिव्यक्ति के मूल स्वर”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 204 ☆
☆ आलेख – हाइकु में व्यक्त भावों की अभिव्यक्ति के मूल स्वर☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
हाइकु जापानी काव्य की एक संक्षिप्त किंतु प्रभावशाली विधा है, जो प्रकृति, मानवीय भावनाओं और जीवन के क्षणिक अनुभवों को 5-7-5 की वर्ण-संरचना में समेटती है। भारतीय साहित्य में हिंदी हाइकु ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, जहाँ यह जापानी शैली से प्रेरित होकर भी भारतीय संस्कृति, संवेदनाओं और जीवन के रंगों से सरोबार है। प्रस्तुत संग्रह में विभिन्न हाइकुकारों ने अपनी रचनात्मकता और भावनात्मक गहराई से जीवन के विविध आयामों को उकेरा है। यहां हम इन सभी हाइकुओं की समीक्षा करते हुए, इनके भाव, शिल्प और संदेश को प्रस्तुत करेंगे।
हमने हाइकु का समीक्षात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कोशिश की है कि इसमें प्रत्येक हाइकु को शामिल किया जाए। इसमें हाइकु की संक्षिप्तता और गहनता को ध्यान में रखते हुए, इनके भाव, शिल्प और संदेश को संतुलित रूप से विश्लेषित किया गया है। यह समीक्षा प्रेम, प्रकृति, जीवन, दर्शन, और सामाजिक संदर्भों के विविध पहलुओं को उजागर करती है।
~ प्रेम और व्यक्तिगत संवेदना
अनिता वर्मा ‘अन्नु’: ‘दिल में बसी/ अब होती हैं बातें/ यादों से तेरी।‘
यह हाइकु प्रेम की स्मृति और उसकी शाश्वतता को दर्शाता है। प्रिय की अनुपस्थिति में यादें संवाद का आधार बनती हैं, जो एक मार्मिक उदासी को व्यक्त करता है।
अनुपमा प्रधान: ‘वो मेरा प्यार/ न बन पाया मेरा/ रूठी किस्मत।‘
प्रेम की असफलता और भाग्य की विडंबना यहाँ प्रमुख है। “रूठी किस्मत” एक सशक्त प्रतीक है जो मानव की असहायता को रेखांकित करता है।
उषा पाण्डेय ‘कनक‘: ‘आँखों ने रोपे/ बीज, प्रेम भाव के/ दिल मुस्काये।‘
प्रेम की उत्पत्ति और उसका विकास इस हाइकु में बीज और मुस्कान के रूपक से सुंदरता से चित्रित हुआ है। यह प्रेम की सकारात्मक शक्ति को दर्शाता है।
निशा नंदिनी भारतीय: ‘तुम्हीं रोशनी/ तुमसे है जीवन/ हो अर्धांगिनी।‘
यह हाइकु दांपत्य प्रेम और जीवनसाथी के महत्व को उजागर करता है। “रोशनी” और “अर्धांगिनी” भारतीय संस्कृति में नारी की केंद्रीय भूमिका को प्रतिबिंबित करते हैं।
तपेश भौमिक: ‘तन्हाई पर/ याद आई उसकी/ वो हरजाई!‘
एकाकीपन में प्रेम की स्मृति और विश्वासघात का दर्द इस हाइकु में स्पष्ट है। “हरजाई” शब्द भावनात्मक तीव्रता को बढ़ाता है।
~ प्रकृति और ऋतु चित्रण
आशा पांडेय: ‘जाड़े की रात/ गुलजार अलाव/ कहानी झरे।‘
सर्द रात में अलाव की गर्माहट और कहानियों का प्रवाह इस हाइकु में ग्रामीण जीवन की सादगी को जीवंत करता है। “कहानी झरे” एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति है।
आशीष कुमार मीणा: ‘नाच उठा है/ देखो मन मयूर/ भीग वर्षा में।‘
वर्षा में मन का आनंद और स्वतंत्रता का चित्रण इस हाइकु की विशेषता है। “मन मयूर” एक सुंदर रूपक है जो प्रकृति और भाव का संनाद दर्शाता है।
जीवन की जटिलता और उससे मुक्ति की असंभवता यहाँ व्यक्त हुई है। यह एक रोचक रूपक है।
राजपाल सिंह गुलिया: ‘पेड़ रो रहे/ धुआँ पीकर ही ये/ बड़े हो रहे।‘
प्रदूषण और पर्यावरण की पीड़ा का यह हाइकु मार्मिक है। “पेड़ रो रहे” संवेदनशील चित्रण है।
लाडो कटारिया: ‘एहतियात/ है कोरोना अभी भी/ चौकस रहें।‘
महामारी के प्रति सतर्कता का यह हाइकु समकालीन संदर्भ में प्रासंगिक है।
विभा रानी श्रीवास्तव: ‘पक्षी का गीत―/ वोमेरेहोंठोपर/ ऊँगलीरखे।‘
प्रकृति और मौन का यह हाइकु सूक्ष्म संवेदना को व्यक्त करता है।
विमला नागला: ‘उर मूरत/ सांवली है सूरत/ कष्ट हरता।‘
प्रिय या ईश्वर की छवि और उसकी कृपा यहाँ व्यक्त हुई है।
शेख़ शहज़ाद उस्मानी: ‘सुस्वागतम/ आइये व जाइये/ रोका किसने?’
जीवन की स्वतंत्रता और उसकी क्षणभंगुरता का यह हाइकु हल्के व्यंग्य के साथ प्रस्तुत हुआ है।
डा. सरोज गुप्ता: ‘आज मौसम/ बड़ा खुशगवार/ हो जाए मस्ती।‘
मौसम की खुशी और जीवन का आनंद यहाँ सरलता से व्यक्त हुआ है।
~ निष्कर्ष
यह हाइकु संग्रह हिंदी साहित्य में हाइकु की व्यापकता और गहराई को प्रदर्शित करता है। प्रेम, प्रकृति, परिवार, दर्शन, और सामाजिकता के विविध रंग इन रचनाओं में संक्षिप्त किंतु प्रभावशाली ढंग से उभरे हैं। प्रत्येक हाइकु अपने आप में एक संपूर्ण भाव-चित्र है, जो पाठक को सोचने और अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है। ये रचनाएँ हाइकु की उस शक्ति को प्रमाणित करती हैं, जो कम शब्दों में गहन अर्थ समेट लेती है।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष— सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी होली पर्व पर एक भावप्रवण कविता “होली की हुडदंग, मेरे देश में…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #271 ☆
☆ होली की हुडदंग, मेरे देश में… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(अभिव्यक्ति परिवार के सभी भाई बहनों को रंगपर्व होली की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत एक गीत)
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “गाँव से अपने…”।)
जय प्रकाश के नवगीत # 95 ☆ गाँव से अपने… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “यक़ीनन वो कोई ख़ुद्दार होगा…“)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 99 ☆
यक़ीनन वो कोई ख़ुद्दार होगा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक, चंद कविताएं चंद अशआर” शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – कुछ रिवायतें होती हैं उर्दू अदब की..।)
कुछ रिवायतें होती हैं उर्दू अदब की… ☆ श्री हेमंत तारे ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “भुवन… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 12 ☆
लघुकथा – भुवन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
उसकी खबर मिलती रहती, कभी वाट्सएप पर, कभी फेसबुक पर। खबरों में ज्यादा तर अपनी तारीफ रहती जैसे उस पर पत्रिका में मेरी कविता छप गई, कहानी छप गई। मेरे लिखे हुए नाटक का मंचन हुआ और बहुत सराहा गया। जब जब उसकी खबर पढता तो भुवन याद आ जाता। भुवन मेरा दोस्त और नीता का पति। भुवन बहुत अच्छा रचनाकार था। कविता कहानी नाटक उपन्यास सब कुछ लिखता। उसके हर बोल में कविता होती, हर बात में कहानी। सबको इतना हँसाता कि पूछो मत। और उसकी जुबान पर अदब जैसे आसन जमा कर बैठा था।
भुवन के अवसान की खबर आई तो मैं एकदम रो पड़ा। हालांकि हम पास नहीं रहते पर उसकी मौजूदगी हमेशा बनी रहती। ऐसा लगता कि वह बाजू में खड़ा हँस रहा है। फोन पर तो घंटों बीत जाते पर बातें खत्म नहीं होतीं। उसके न रहने की खबर ने मुझे हिला कर रख दिया और नीता, उसका क्या होगा। उसकी दो छोटी छोटी बेटियाँ, क्या होगा। मैं लखनऊ गया था। नीता से मिला था। अपनी बेटियों को गोद में लेकर कह रही थी कि तुम दोनों मेरे होनहार बेटे हो। बेटा न होने का दंश मैंने महसूस किया। मैंने धीरे से पूछा था कि भुवन की रायल्टी वगैरह…. और नीता ने वाक्य पूरा नहीं होने दिया, काहे की रायल्टी, कौन देता है है रायल्टी? जब वो थे तो सब पूछते थे। अब वो नहीं हैं तो कोई पहचानता भी नहीं। उनके मित्र लेखक, कवि, पत्रकार सब मुझे देख कर दूर से ही कट जाते हैं। मैं तो उनके लिए किसी काम की नहीं हूँ न, उनकी रचनाएँ नहीं छपवा सकती, आकाशवाणी पर प्रसारण नहीं करवा सकती। बैंक में जो था बीमारी में लग गया। कोई बीमा नहीं, बैलेंस नहीं, पेशन नहीं। सपाट नजरों से पूछा था कि लेखकों के लिए सुरक्षित भविष्य की कोई योजना क्यों नहीं है ? मैं क्या उत्तर देता! रस्म अदायगी करके वापस आ गया।
घर आकर अपने काम में व्यस्त हो गया। जब कोई खबर नीता की देखता तो यह सब याद आ जाता। लाइक कमेंट भी करता। उसकी हिम्मत की सराहना भी मन ही मन करता पर उससे बात करने का साहस न होता। आज जब अखबार में पढा कि नीता को अपने उपन्यास पर बहुत बड़ा साहित्यिक पुरस्कार मिला है जिसके साथ अच्छी धनराशि भी है तो फिर आँखों से दो आँसू टपक पड़े। आसमान में देखा तो भुवन का चेहरा था जैसे कह रहा हो, यार यही जि़ंदगी है। उतार चढ़ाव आते रहते हैं और रास्ते भी निकलते रहते हैं। सोच रहा हूँ नीता को बधाई दे दूँ, पर पहले कभी हालचाल तक नहीं पूछे तो अब कैसे हिम्मत होगी। फिर एक मुस्कान आकर कह गई कि उसकी सफलता से खुश हो न, यही काफी है। भुवन तो देख रहा है न!
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनोखा रिश्ता।)
“रवि आज सुबह-सुबह कहां जा रहे हो इतनी जल्दी-जल्दी तैयार होकर?” पत्नी सुनंदा ने पूछा।
“तुम भी तैयार हो जाओ। आज हमें वृद्धा आश्रम चलना है। मां को घर लेकर आना है। विदेश से आए एक महीना हो गया है।”
“तुम जाओ मैं नहीं जाऊंगी?”
रवि ने वृद्धाश्रम पहुंचकर अपनी मां के बारे में पूछा तो पता चला कि उसकी मां यहां आई थी पर थोड़ी देर के बाद ही चली गई थी ?
“हमने आपके नंबर पर फोन करके आपको सूचित तो किया था। क्या आपको पता नहीं चला? आपने कभी कोई खबर भी नहीं की इन दो सालों में?”
“लेकिन मेरी पत्नी तो मां की खबर लेती थी और पैसे भी भेजती थी!”
“देखिए आप झूठ मत बोलिए ? हम लोगों को रखते हैं और सुविधा देते हैं तो पैसे लेते हैं। आप कोई रसीद हो तो दिखाइए? आप अपने मां-बाप को संभाल नहीं पाते हो और हमारे ऊपर इल्जाम लगा रहे”
वह अपने पुराने घर जाता है जिसे उसने बेच दिया था। वहां उसे अपनी मां नजर आती है और वह उसे घर में काफी खुश दिख रही थी।
उसे मकान मालिक (अजय) ने उसे अपने घर के अंदर घुसने से मना कर दिया और कहा कि- “जब तुम यह घर बेचकर चले गए तो यहाँ क्यों आए हो?”
उसने कहा “मां को लेने के लिए…।“
“बरसों बाद तुम्हें मां की कैसे याद आई? तुम्हारी मां अब तुम्हारी नहीं हैं? घर के साथ-साथ अब यह मेरी मां हो गई। हमें तो पता ही नहीं था कि आपकी मां है यह बेचारी इस घर के बाहर बैठे रो रही थी। पड़ोसियों से पता चला कि इस घर की मालकिन है। हमने अपने घर में रहने दिया। वे पूरे घर का काम कर देती थी और तरह-तरह के अचार पापड़ भी बना देती थी। हम इसे अपने रिश्तेदार और पड़ोसी को बेचने लगे। इतना मुनाफा कमाया जो कुछ भी है यह सब इनके कारण ही है। तुमने इन्हें बेसहारा कर दिया था और हम बेसहारों को मां मिल गई। अच्छा है कि मां को कुछ याद नहीं रहता। मुझे ही अपना बेटा मानती है। भगवान की कृपा से मुझे यह अटूट रिश्ता मिला है। तुम्हें सब कुछ मिला था पर तुमने खो दिया लालच में अब तुम जा सकते हो।”