हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #217 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – हमारा देश… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – हमारा देश। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 217

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – हमारा देश…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सागर में पथ दिखलाने को ज्यों ध्रुव तारा है ।

जो भटके राही का केवल एक सहारा है ॥

*

 इस दुनिया के बीच चमकता देश हमारा है।

 हम इसमें जन्मे इससे यह हमको प्यारा है ॥

*

हम सब भारतवासी हैं इसकी प्यारी सन्तान

सबमें स्नेह भावना है हम सब हैं एक समान

*

दुनिया भर में इसकी सबसे शोभा न्यारी है।

पर्वत, नदी, समुद्र, खेत सुन्दर हर क्यारी है ॥

*

 यह ही है वह देश जहाँ जन्मे थे राघव राम ।

प्रेम, त्याग औ’ न्याय, धर्म हित थे जिनके सब काम ॥

*

 यह ही है वह देश जहाँ पर है वृन्दावन धाम ।

 जहाँ बजी थी मुरली औ’ थे रमे जहाँ घनश्याम ॥

*

यह ही है वह देश जहाँ जन्मे थे बुद्ध महान् ।

सारी दुनिया को प्रकाश दे सका कि जिनका ज्ञान ॥

*

 यहीं हुये गाँधी जिनने पाई हिंसा पर जीत ।

जो उनका दुश्मन था वह भी था उनको तो मीत ॥

*

 अनुपम है यह देश प्रकृति ने जिसे दिया सब दान ।

महात्माओं ने ज्ञान और ईश्वर ने भी सन्मान ॥

*

हम इसके सुयोग्य बेटे बन रखे इसकी शान ।

हमें शक्ति वरदान आज इतना दीजे भगवान ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #269 ☆ मन अच्छा हो सकता है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख मन अच्छा हो सकता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 269 ☆

☆ मन अच्छा हो सकता है… ☆

“मन खराब हो, तो शब्द खराब ना बोलें, क्योंकि बाद में मन अच्छा हो सकता है, लेकिन शब्द नहीं।” गुलज़ार के यह शब्द मानव को सोच-समझकर व लफ़्ज़ों के ज़ायके को चख कर बोलने का संदेश देते हैं, क्योंकि ज़ुबान से उच्चरित शब्द कमान से निकले तीर की भांति होते हैं, जो कभी लौट नहीं सकते। शब्दों के बाण उससे भी अधिक घातक होते हैं, जो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं।

मानव को परीक्षा संसार की, प्रतीक्षा परमात्मा की तथा समीक्षा व्यक्ति की करनी चाहिए। परंतु हम इसके विपरीत परीक्षा परमात्मा की, प्रतीक्षा सुख-सुविधाओं की और समीक्षा दूसरों की करते हैं, जो घातक है। ऐसे लोग अक्सर परनिंदा में रस लेते हैं अर्थात् अकारण दूसरों की आलोचना करते हैं। हम अनजाने में कदम-कदम पर प्रभु की परीक्षा लेते हैं, सुख-ऐश्वर्य की प्रतीक्षा करते हैं, जो कारग़र नहीं है। ऐसा व्यक्ति ना तो आत्मावलोकन कर सकता है, ना ही चिंतन-मनन, क्योंकि वह तो ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम स्वीकारता है और दूसरे लोग उसे अवगुणों की खान भासते हैं।

आदमी साधनों से नहीं, साधना से महान् बनता है; भवनों से नहीं, भावना से महान बनता है; उच्चारण से नहीं, उच्च आचरण से महान् बनता है।  मानव धन, सुख-सुविधाओं, ऊंची-ऊंची इमारतों व बड़ी-बड़ी बातों के बखान से महान् नहीं बनता, बल्कि साधना, सद्भावना व अच्छे आचार- विचार, व्यवहार, आचरण व सत्कर्मों से महान् बनता है तथा विश्व में उसका यशोगान होता है। उसके जीवन में सदैव उजाला रहता है, कभी अंधेरा नहीं होता है।

जिनका ज़मीर ज़िंदा होता है, जीवन में सिद्धांत व जीवन-मूल्य होते हैं, देश-विदेश में श्रद्धेय व पूजनीय होते हैं। वे समन्वय व सामंजस्यता के पक्षधर होते हैं , जो समरसता के कारक हैं। वे सुख-दु:ख में सम रहते हैं और राग-द्वेष व ईर्ष्या-द्वेष से उनका संबंध-सरोकार नहीं होता। वे संस्कार व संस्कृति में विश्वास रखते हैं, क्योंकि संसार में नज़र का इलाज तो है, नजरिए का नहीं और नज़र से नज़रिये का,  स्पर्श से नीयत का, भाषा से भाव का, बहस से ज्ञान का और व्यवहार से संस्कार का पता चल जाता है।

‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ ब्रह्म अर्थात् सृष्टि-नियंता के सिवाय यह संसार मिथ्या है, मायाजाल है। इसलिए मानव को अपना समय उसके नाम-स्मरण व ध्यान में व्यतीत करना चाहिए। “ख़ुद से कभी-कभी मुलाकात भी ज़रूरी है/ ज़िंदगी उधार की है, जीना मजबूरी है” स्वरचित उक्त पंक्तियाँ आत्मावलोकन व आत्म-संवाद की ओर इंगित करती हैं। इसके साथ मानव को कुछ नेकियाँ व अच्छाइयाँ ऐसी भी करनी चाहिएं, जिनका ईश्वर के सिवा कोई ग़वाह ना हो अर्थात् ख़ुद में ख़ुद को तलाशना बहुत कारग़र है। प्रशंसा में छुपा झूठ, आलोचना में छुपा सच जो जान जाता है, उसे अच्छे-बुरे की पहचान हो जाती है। वह व्यर्थ की बातों से ऊपर उठ जाता है, क्योंकि हर इंसान को अपने हिस्से का दीपक ख़ुद जलाना पड़ता है, तभी उसका जीवन रोशन हो सकता है। दूसरों को वृथा कोसने कोई लाभ नहीं होता।

अहंकार व गलतफ़हमी मनुष्य को अपनों से अलग कर देती है। गलतफ़हमी सच सुनने नहीं देती और अहंकार सच देखने नहीं देता। इसलिए वह संकीर्ण मानसिकता से ऊपर नहीं उठ सकता और ऊलज़लूल बातों में फँसा रहता है। अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है और नम्रता साधारण व्यक्ति को भी फरिश्ता। इसलिए हमें जीवन में सदैव विवाद से बचना चाहिए और संवाद की महत्ता को स्वीकारना चाहिए। पारस्परिक संवाद व गुफ़्तगू हमारे व्यक्तित्व की पहचान हैं। जीवन में क्या करना है, हमें रामायण सिखाती है, क्या नहीं करना है महाभारत और जीवन कैसे जीना है– यह संदेश गीता देती है। सो! हमें रामायण व गीता का अनुसरण करना चाहिए और महाभारत से सीख लेनी चाहिए कि जीवन में क्या अपनाना श्रेयस्कर नहीं है अर्थात् हानिकारक है।

शब्द, विचार व भाव धनी होते हैं और  इनका प्रभाव चिरस्थाई होता है, लंबे समय तक चलता रहता है। इसके लिए आवश्यकता है सकारात्मक सोच की, क्योंकि हमारी सोच से हमारा तन-मन प्रभावित होता है। ‘जैसा अन्न, वैसा मन” से तात्पर्य हमारे खानपान से नहीं है, चिंतन-मनन व सोच से है। यदि हमारा हृदय शांत होगा, तो उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ये पांच विकार नहीं होंगे और हमारी वाणी मधुर होगी। इसलिए मानव को वाणी के महत्व को स्वीकारना चाहिए तथा शब्दों के लहज़े / ज़ायके को समझ कर इसका प्रयोग करना चाहिए। मधुर वाणी दूसरों के दु:ख, पीड़ा व चिंताओं को दूर करने में समर्थ होती है और उससे बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाता है।

क्रोध माचिस की भांति होता है, जो पहले हमें हानि पहुँचाता है, फिर दूसरे की शांति को भंग करता है। लोभ आकांक्षाओं व तमन्नाओं का द्योतक है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती जाती है। मोह सभी व्याधियों का मूल है, जनक है, जो विनाश का कारण सिद्ध होता है। काम-वासना मानव को अंधा बना देती है और उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट कर देती है। अहंकार अपने अस्तित्व के सम्मुख सबको हेय समझता है, उनका तिरस्कार करता है। सो! हमें इन पाँच विकारों से दूर रहना चाहिए। हमारा मन, हमारी सोच किसी के प्रति बदल सकती है, परंतु उच्चरित कभी शब्द लौट नहीं सकते। सकारात्मक सोच के शब्द बिहारी के सतसैया के दोहों की भांति प्रभावोत्पादक होते हैं तथा जीवन में अप्रत्याशित परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखते हैं। इसलिए मानव को जीवन में सुई बनकर रहने की सीख दी गई है; कैंची बनने की नहीं, क्योंकि सुई जोड़ने का काम करती है और कैंची तोड़ने व अलग-थलग करने का काम करती है। मौन सर्वश्रेष्ठ है, नवनिधियों व गुणों की खान है। जो व्यक्ति मौन रहता है, उसका मान-सम्मान होता है। लोग उसके भावों व अमूल्य विचारों को सुनने को लालायित रहते हैं, क्योंकि वह सदैव सार्थक व प्रभावोत्पादक शब्दों का प्रयोग करता है, जो जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों की संगति से मानव का सर्वांगीण विकास होता है। सो! गुलज़ार की यह सोच अत्यंत प्रेरक व अनुकरणीय है कि मानव को क्रोध व आवेश में भी सोच-समझ कर व शब्दों को तोल कर प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि मन:स्थिति कभी एक-सी नहीं रहती; परिवर्तित होती रहती है और शब्दों के ज़ख्म नासूर बन आजीवन रिसते रहती हैं।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #42 – गीत – अमराइयों के गाँव… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतअमराइयों के गाँव

? रचना संसार # 42 – गीत – अमराइयों के गाँव…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 गीत

 प्राण से प्यारे हमें सच्चाइयों के गाँव।

गंग से पावन सुनो अच्छाइयों के गाँव।।

 

प्रेम अरु करुणा भरी सदभाव की है तान,

मील के पत्थर बने हैं देख इसकी शान।

खोट वादों में नहीं छल छंद से हैं दूर,

नित नयी सौगात मिलती प्रेम से भरपूर।।

भोर की उतरी किरण अँगनाइयों के गाँव,

 *

मीत चहके कोकिला मधुकर करे गुंजार।

खिल रहा कचनार है फागुन करे मनुहार।।

फूलती सरसों यहाँ धरती करे शृंगार।

झूमता महुआ बड़ा मादक हुआ संसार।।

अब महकते देखिए अमराइयों के गाँव।

 *

प्रीति की गागर लिए वह रूपसी गुलनार।

लाज – बंधन में बँधी भूले नहीं संस्कार।।

सभ्यता जीवित अभी होता सदा आभास।

हैं शिवाला भी यहाँ पर और है विश्वास।।

आस की गठरी लदी पुरवाइयों के गाँव।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #269 ☆ गीत – यही जज्बात दिल में हैं… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपका एक भावप्रवण गीत यही जज्बात दिल में हैं…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 269 – साहित्य निकुंज ☆

☆ गीत – यही जज्बात दिल में हैं… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

मुझे मजबूर करते हो

मगर तुम सुन नहीं सकते।

मेरे नैनों की भाषा को ,

कभी तुम पढ़ नहीं सकते।

*

यही जज्बात दिल में हैं,

जिसे समझा नहीं तुमने।

तुम्हारी राह तकती हूँ,

मगर तुम आ नहीं सकते।

*

मुझे अब दर्द सहना है,

जिसे तुम छू नहीं सकते।

मेरी गलियों से गुजरे हो,

मगर तुम रुक नहीं सकते।।

*

मुझे मिलना है तुमसे अब,

कभी क्या मिल नहीं सकते।

ख्वाबों में ही मिलते हो,

जिन्हे हम पा नहीं सकते।।

*

मिलन के रंग लाया हूँ ।

मगर तुम छू नहीं सकते।

तेरी बातों में जादू है

मुझे बहला नहीं सकते।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #251 ☆ एक बाल गीत – हमें गधा कहते हैं सारे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपका – एक बाल गीत – हमें गधा कहते हैं सारे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 251 ☆

☆ एक बाल गीत – हमें गधा कहते हैं सारे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हमें  गधा  कहते   हैं   सारे

हम  हैं  लम्बी   मूंछों   बारे

सहज सरल स्वभाव हमारा

हम  पर  बोझा  डालें  सारे

*

गधा हमें  धोबी का  समझें

कान  हमारे  जबरन  उमठें

ढेंचू  ढेंचू कह कर  फिर भी

लाद  पीठ  पर  चलते प्यारे

हमें   गधा   कहते   हैं  सारे

*

रखता  सबसे  वो   है  यारी

पर अफसोस गधा को भारी

एक अरज करता  है  सबसे

कहिए गधा मुझे  मत  प्यारे

हमें   गधा   कहते   हैं  सारे

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 244 – गझल – आकाश भावनांचे…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 244 – विजय साहित्य ?

☆ गझल – आकाश भावनांचे…! ☆

आकाश भावनांचे गझले तुझ्याचसाठी,

हे विश्व आठवांचे मतले तुझ्याचसाठी…! 

  *         

आकाश बोलणारे जमले तुझ्याचसाठी,

हे पंख, ही भरारी, इमले तुझ्याचसाठी…!

 *   

माणूस वाचताना, टाळून पान गेलो.

काळीज आसवांचे, तरले तुझ्याचसाठी..!

*

सारे ऋतू शराबी, देऊन झींग गेले

प्याले पुन्हा नव्याने, भरले तुझ्याचसाठी..! 

*

हा नाद वंचनांचा , झाला मनी प्रवाही

वाहतो कुठे कसा मी?, रमलो तुझ्याच साठी..!       

*

जखमा नी वेदनांची,आभूषणे मिळाली

लेऊन  साज सारा, नटलो तुझ्याचसाठी..!

*

काव्यात प्राण माझा, शब्दांत अर्थ काही

प्रेमात प्रेम गात्री, वसले तुझ्याचसाठी..!

*

आयुष्य सांधताना,जाग्या  अनेक घटना

हे देह भान माझे हरले तुझ्याचसाठी…!

*

कविराज रंगवीतो, रंगातल्या क्षणांना

चित्रात भाव माझे, उरले तुझ्याचसाठी..!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 149 ☆ लघुकथा – आस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा ‘आस। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 149 ☆

☆ लघुकथा – आस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

“सर! अनाथालय से एक बच्ची का प्रार्थना पत्र आया है।”

“अच्छा, क्या चाहती है वह?”

“पत्र में लिखा है कि वह पढ़ना चाहती है।”

यह तो बड़ी अच्छी बात है। क्या नाम है उसका?

रेणु।

“रेणु? अरे! वही जो अभी तक स्कूल आने के लिए तैयार ही नहीं थी ? कितना समझाया था हम लोगों ने उसे लेकिन वह पढ‌ना ही नहीं चाहती, स्कूल आना तो दूर की बात है। हम सब कोशिश करके थक गए पर वह बच्ची टस से मस नहीं हुई। अब अचानक वह स्कूल आने के लिए कैसे मान गई , ऐसा क्या हो गया? — वह अचंभित थे।”

“सर! आप रेणु का यह प्रार्थना- पत्र पढ़िए” – स्कूल की शिक्षिका ने पत्र एक उनके हाथ में देते हुए कहा।

“टीचर जी! मुझे बताया गया है कि विदेश से कोई मुझे गोद लेना चाहते हैं| मुझे मम्मी पापा मिलने वाले हैं| मुझे अंग्रेजी नहीं आएगी तो मैं अपने मम्मी पापा से बात कैसे करूंगी ? कब से इंतजार कर रही थी मैं उनका, मुझे उनसे बहुत सारी बातें करनी हैं ना! मुझे स्कूल आना है, खूब पढ़ना है।”

——

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 236 ☆ हाथों में ले हाथ… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना हाथों में ले हाथ। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 236 ☆ हाथों में ले हाथ…

स्नेह शब्द में इतना जादू है कि इससे इंसान तो क्या जानवरों को भी वश में किया जा सकता है। मेरी  सहेली रमा  जब भी  मुझसे मिलती यही कहती कि कोई मुझे स्नेह  नहीं करता,  मैंने उससे कहा सबसे पहले तुम खुद से प्यार करना सीखो,  जो तुम दूसरों से चाहती हो वो तुम्हें खुद करना होगा  सबसे पहले खुद को व्यवस्थित रखो,  स्वच्छ भोजन,  अच्छे कपड़े, अच्छा साहित्य व सकारात्मक लोगों के साथ उठो- बैठो। जैसी संगति होगी वैसा ही प्रभाव  दिखाई देता है।  जीवन में एक लक्ष्य जरूर होना चाहिए जिससे उदासी हृदय में घर नहीं करती।  हृदय की शक्ति बहुत विशाल है यदि हमने दृढ़ निश्चय कर लिया तो किसी में हिम्मत नहीं कि वो हमारे  फैसले को बदल सके।

कोई भी कार्य शुरू करो तो मन में तरह- तरह के विचार उतपन्न होने लगते हैं क्या करे क्या न करे समझ में ही नहीं आता। कई लोग इस चिंता में ही डूब जाते हैं कि इसका क्या परिणाम होगा बिना कार्य शुरू किए परिणाम की कल्पना करना व भयभीत होकर कार्य की शुरुआत  न करना।

ऐसा अक्सर लोग करते हैं,  पर वहीं कुछ  ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने लक्ष्य के प्रति सज़ग रहते हैं और सतत चिंतन करते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती रहती है।

द्वन्द हमेशा ही घातक होता है फिर बात  जब अन्तर्द्वन्द की हो तो विशेष ध्यान रखना चाहिए क्या आपने सोचा कि जीवन भर कितनी चिन्ता की और इससे क्या  कोई लाभ मिला?

यकीन मानिए इसका उत्तर शत- प्रतिशत लोगों का  नहीं  होगा।  अक्सर हम रिश्तों को लेकर मन ही मन उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि सामने वाले को मेरी परवाह ही नहीं जबकि मैं तो उसके लिए जान निछावर कर रहा हूँ ऐसी स्थिति से निपटने का एक ही तरीका है आप किसी भी समस्या के दोनों पहलुओं को समझने का प्रयास करें। जैसे ही आप  हृदय व सोच को विशाल  करेंगे सारी समस्याएँ स्वतः हल होने लगेंगी।

सारी चिंता छोड़ के,  चिंतन कीजे नाथ।

सच्चे  चिंतन मनन से,  मिलता सबका साथ।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 44 – सरकारी फाइलों का महाप्रयाण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सरकारी फाइलों का महाप्रयाण )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 44 – सरकारी फाइलों का महाप्रयाण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

पुरानी तहसील की वह धूल भरी अलमारी वर्षों से इतिहास का बोझ उठाए खड़ी थी। उसमें रखी फाइलें बूढ़ी हो चली थीं, जैसे सरकारी बाबू के बुढ़ापे का प्रतीक। लाल फीते से बंधी हुई, कुछ को दीमक चाट चुकी थी, तो कुछ को समय की मार ने जर्जर बना दिया था। मगर फाइलें थीं कि आज भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही थीं। मानो किसी वृद्धाश्रम में फेंक दिए गए बुजुर्गों की तरह, जिन्हें देखने वाला कोई नहीं। बस, आदेश आते रहे, चिट्ठियां बढ़ती रहीं, और इन फाइलों की किस्मत सरकारी टेबलों के बीच कहीं खो गई। 

तभी एक दिन एक अफसर आया, जो फाइलों की सफाई करने का कट्टर समर्थक था। उसने आदेश दिया—”पुरानी फाइलें रद्दी में बेच दो।” अफसर की आवाज सुनकर फाइलों में हलचल मच गई। “हमारा क्या होगा?” एक फाइल ने कांपते हुए पूछा। “कहीं कचरे में तो नहीं फेंक दिया जाएगा?” दूसरी फाइल सुबक पड़ी। वर्षों तक सरकारी आदेशों की साक्षी रही वे फाइलें, जो कभी महत्वपूर्ण दस्तावेजों की रानी थीं, आज कबाड़ में बिकने वाली थीं। यह लोकतंत्र का कैसा न्याय था? 

एक चपरासी आया, उसने एक गठरी उठाई और बाहर ले जाने लगा। फाइलें बिलख उठीं। “अरे, हमें मत ले जाओ! हमने तो वर्षों तक सरकार की सेवा की है!” मगर चपरासी कौन-सा उनकी आवाज सुनने वाला था! वह तो बस सोच रहा था कि कबाड़ बेचकर कितने पैसे मिलेंगे और उन पैसों से कितने समोसे खरीदे जा सकते हैं। अफसर अपनी कुर्सी पर मुस्कुरा रहा था—”समाप्त करो इस फाइल-राज को!” जैसे कोई अत्याचारी सम्राट अपनी प्रजा पर कहर बरपा रहा हो। 

फाइलों की अंतिम यात्रा शुरू हो चुकी थी। सड़क किनारे एक कबाड़ी की दुकान पर उन्हें फेंक दिया गया। वहां पड़ी दूसरी फाइलें पहले ही अपने भविष्य से समझौता कर चुकी थीं। एक फाइल, जिसमें कभी किसी गांव को जल आपूर्ति देने का आदेश था, कराह उठी—”जिस पानी के लिए मैंने योजनाएं बनवाई थीं, आज मेरी स्याही भी सूख गई!” दूसरी फाइल, जो कभी शिक्षा विभाग से संबंधित थी, बुदबुदाई—”जिस ज्ञान के लिए मुझे बनाया गया था, आज मैं ही कूड़े में पड़ी हूं!” 

कबाड़ी ने उन फाइलों को तौलकर अपने तराजू में रखा। हर किलो पर कुछ रुपये तय हुए। “ये तो अच्छी कीमत मिल गई!” उसने खुशी से कहा। वहीं पास में खड़ा एक लड़का पुरानी कॉपियों से नाव बना रहा था। अचानक एक पन्ना उठाकर बोला, “अरे, देखो! इस पर किसी मंत्री का दस्तखत है!” मगर अब उस दस्तखत की कीमत नहीं रही थी। जो कभी सरकारी आदेश था, वह अब एक ठेले पर रखी रद्दी थी। 

बारिश शुरू हो गई। बूंदें उन फाइलों पर गिरने लगीं। जिन कागजों ने कभी लाखों के बजट पास किए थे, वे अब गलकर नाले में बह रहे थे। यह सरकारी दस्तावेजों का महाप्रयाण था! “हमने बड़े-बड़े घोटालों को देखा, बड़े-बड़े अफसरों की कुर्सियां हिलते देखीं, मगर अपनी ही विदाई का ऐसा दृश्य कभी नहीं सोचा था!” एक आखिरी फाइल ने कहा और पानी में घुल गई। सरकारी फाइलों की उम्र खत्म हो चुकी थी, मगर घोटाले अब भी नए-नए फाइलों में जन्म ले रहे थे!

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #205 – व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 205 ☆

☆ व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए वहमिल जाएगा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मन नहीं मान रहा था। स्वयं के लिए स्वयं प्रयास करें। मगर, पुरस्कार की राशि व पुरस्कार का नाम बड़ा था। सो, मन मसोस कर दूसरे साहित्यकार से संपर्क किया। बीस अनुशंसाएं कार्रवाई। जब इक्कीसवे से संपर्क किया तो उसने स्पष्ट मना कर दिया।

“भाई साहब! इस बार आपका नंबर नहीं आएगा।” उन्होंने फोन पर स्पष्ट मना कर दिया, “आपकी उम्र 60 साल से कम है। यह पुरस्कार इससे ज्यादा उम्र वालों को मिलता है।”

हमें तो विश्वास नहीं हुआ। ऐसा भी होता है। तब उधर से जवाब आया, “भाई साहब, वरिष्ठता भी तो कोई चीज होती है। इसलिए आप ‘उनकी’ अनुशंसा कर दीजिए। अगली बार जब आप ‘सठिया’ जाएंगे तो आपको गारंटीड पुरस्कार मिल जाएगा।”

बस! हमें गारंटी मिल गई थी। अंधे को क्या चाहिए? लाठी का सहारा। वह हमें मिल गया था, इसलिए हमने उनकी अनुशंसा कर दी। तब हमने देखा कि कमाल हो गया। वे सठियाए ‘पट्ठे’ पुरस्कार पा गए। तब हमें मालूम हुआ कि पुरस्कार पाने के लिए बहुत कुछ करना होता है।

हमारे मित्र ने इसका ‘गुरु मंत्र’ भी हमें बता दिया। उन्होंने कहा, “आपने कभी विदेश यात्रा की है?” चूंकि हम कभी विदेश क्या, नेपाल तक नहीं गए थे इसलिए स्पष्ट मना कर दिया। तब वे बोले, “मान लीजिए। यह ‘विदेश’ यात्रा यानी आपका पुरस्कार है।”

“जी।” हमने न चाहते हुए हांमी भर दी। “वह आपको प्राप्त करना है।” उनके यह कहते ही हमने ‘जी-जी’ कहना शुरू कर दिया। वे हमें पुरस्कार प्राप्त करने की तरकीबें यानी मशक्कत बताते रहे।

सबसे पहले आपको ‘पासपोर्ट’ बनवाना पड़ेगा। यानी आपकी कोई पहचान हो। यह पहचान योग्यता से नहीं होती है। इसके लिए जुगाड़ की जरूरत पड़ती है। आप किस तरह इधर-उधर से अपने लिए सभी सबूत जुटा सकते हैं। वह कागजी सबूत जिन्हें पासपोर्ट बनवाने के लिए सबसे पहले पेश करना होता है।

सबसे पहले एक काम कीजिए। यह पता कीजिए कि पुरस्कार के इस ‘विदेश’ से कौन-कौन जुड़ा है? कहां-कहां से क्या-क्या जुगाड़ लगाना लगाया जा सकता है? उनसे संपर्क कीजिए। चाहे गुप्त मंत्रणा, कॉफी शॉप की बैठक, समीक्षाएं, सोशल मीडिया पर अपने ढोल की पोल, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें वोट दूंगा, तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा, जैसी सभी रणनीति से काम कीजिए। ताकि आपको एक ‘पासपोर्ट’ मिल जाए। आप कुछ हैं, कुछ लिखते हैं। जिनकी चर्चा होती है। यही आपकी सबसे बड़ी पहचान है। यानी यही आपका ‘पासपोर्ट’ होगा।

अब दूसरा काम कीजिए। इस पुरस्कार यानी विदेश जाने के लिए अर्थात पुरस्कार पाने के लिए वीजा का बंदोबस्त कीजिए। यानी उस अनुशंसा को कबाडिये जो आपको विदेश जाने के लिए वीजा दिला सकें। यानी आपने जो पासपोर्ट से अपनी पहचान बनाई है उसकी सभी चीजें वीजा देने वाले को पहुंचा दीजिए। उससे स्पष्ट तौर पर कह दीजिए। आपको विदेश जाना है। वीजा चाहिए। इसके लिए हर जोड़-तोड़ व खर्चा बता दे। उसे क्या-क्या करना है? उसे समझा दे।

सच मानिए, यह मध्यस्थ है ना, वे वीजा दिलवाने में माहिर होते हैं। वे आपको वीजा प्राप्त करने का तरीका, उसका खर्चा, विदेश जाने के गुण, सब कुछ बता देंगे। बस आपको वीजा प्राप्त करने के लिए कुछ दाम खर्च करने पड़ेंगे। हो सकता है निर्णयको से मिलना पड़े। उनके अनुसार कागज पूर्ति, अनुशंसा या कुछ ऐसा वैसा छपवाना पड़ सकता है जो आपने कभी सोचा व समझ ना हो। मगर इसकी चिंता ना करें। वे इसका भी रास्ता बता देंगे।

बस, आपको उनके कहने अनुसार दो-चार महीने कड़ी मेहनत व मशक्कत करनी पड़ेगी। हो सकता है फोन कॉल, ईमेल, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि पर इच्छित- अनिच्छित व अनुचित चीज पोस्ट करनी पड़े। इसके लिए दिन-रात लगे रहना पड़ सकता है। कारण, आपका लक्ष्य व इच्छा बहुत बड़ी है। इसलिए त्याग भी बड़ा करना पड़ेगा।

इतना सब कुछ हो जाने के बाद, जब आपको विदेश जाने का रास्ता साफ हो जाए और वीजा मिल जाए तब आपको यात्रा-व्यय तैयार रखना पड़ेगा। तभी आप विदेश जा पाएंगे।

उनकी यह बात सुनकर लगा कि वाकई विदेश जाना यानी पुरस्कार पाना किसी पासपोर्ट और वीजा प्राप्त करने से कम नहीं है। यदि इसके बावजूद विदेश यात्रा का व्यय पास में न हो तो विदेश नहीं जा पाएंगे। यह सुनकर हम मित्र की सलाह पर नतमस्तक हो गए। वाकई विदेश जाना किसी योग्यता से काम नहीं है। इसलिए हमने सोचा कि शायद हम इस योग्यता को भविष्य में प्राप्त कर पाएंगे? यही सोचकर अपने आप को मानसिक रूप से तैयार करने लगे हैं।

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© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29-01- 2025

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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