आई मी आता मोठा झालोय बघ.. करून येऊ दे कि मला एकट्याने जंगलची सफर… घेऊ दे कि मला शिकारीचा अनुभव… कळू दे इतर प्राण्यांना या छोट्या युवराजची काय आहे ती ताकद… जंगल राजांच्या दरबारात मलाही जायचं राजांना मुजरा करायला… आलो आहे आता तर सामिल करुन घ्या मला तुमच्या सैनिक दलात.. मी लहान कि मोठा याचा फारसा करू नका विचार तुम्ही खोलात… बऱ्या बोलानं जे तुमचा हुकूम पाळणार नाहीत… त्यांची काही मी खैर ठेवणार नाही.. जो जो जाईल विरोधात या राजाच्या त्याचा त्याचा करीन मी फडशा फडशा… मग तो कुणी का असेना दिन दुबळा वा बलवान… त्याला राजा पुढे तुकवावी लागेलच आपली मान… राजाच्या पदरी मुलुखगिरीचा होईन मी शिपाईगडी.. स्वारीला जाऊन लोळवीन ना एकेका शत्रूची चामडी.. गाजवीन आपली मर्दुमकी मग खूष होऊन राजे देतीलच मला सरदारकी… मग दूर नाही तो दिवस चढेल माझ्या अंगावरती झुल सरसेनापतीची.. बघ आई असा असेल तुझ्या लेकराचा दरारा… भितील सारी जनाता कुणीच धजणार नाही माझ्या वाऱ्याला उभा राहायला.. मिळेल मला मग सोन्या रूप्याची माणिक मोत्यांची नि लाख होनांची जहागिरी.. जी माॅ साहेब म्हणतील तुला सदानकदा कुणबिणी वाड्यात करताना चाकरी… ते दिवस नसतील कि फार दूरवर बघ यशाचे आनंदाचे नि सुखाचे आपले दारी गज झुलती.. आई मी आता मोठा झालोय बघ करू दे कि मला राजाची चाकरी… “
“अरे तू अजून शेंबडं पोरं आहेस.. अजूनही तुझं तुला धुवायचं कळतं तरी का रे… नाही ना.. मग आपण नसत्या उचापतींच्या भानगडी मध्ये नाक खुपसू नये समजलं… आपला जन्म गुलामगिरी करण्यासाठी झालेला नाही.. ताठ मानेने नि स्वतंत्र बाण्याने जगणारं रे आपलं आहे कुळ… जीवो जीवस्य जीवनम हाच आहे आपल्या जगण्याचा मुलमंत्र… पण म्हणून काही उठसुठ विनाकारण आपण दीनदुबळ्यांची शिकार करत नाही… जगा आणि जगू द्या हाच निर्सागाचा नियम आपण पाळत असतो… आणि अत्याचार कुणी करत असेल इथे तर त्याला सोडत नसतो.. पण जे काही करतो ते स्वबळावर… कुणाच्या चाकरीच्या दावणीला बांधून गुलामगिरीचं जिणं कधीच जगत नाही… त्यांनी म्हटलं पाहिजे असा कनवाळू राजा दुसरा आम्ही कधी पाहीलाच नाही… असा ठेवलाय आपण प्रेमाचा दरारा सगळ्या जंगलाच्या वावरात… म्हणून तर आजही आपलं आदरानं नावं घेतलं जात घराघरात… तुला व्हायचं ना मोठं मग हे स्वप्न तू बाळगं आपल्या उराशी… राज्यं असलं काय नि नसलं काय काही फरकच पडत नसतो आपल्याला असल्या टुकार, लबाड, विचाराशी… आपणच आपल्याला कधी राजे म्हणवून घ्यायचंय नाही ते रयतेने विनयाने, आदराने म्हणत असतात ते पहा ते निघालेले दिसताहेत ना ते आमचे राजे आहेत… समजलं…
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सत्यवाद का स्कूल।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 47 – सत्यवाद का स्कूल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
गांव के बीचों-बीच एक पुराना पीपल का पेड़ था। उसी के नीचे सत्यवाद का स्कूल खुला था। नाम था – “अखिल भारतीय झूठ सत्यापन संस्थान।” बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था – “यहां केवल सत्य की जांच होती है, कृपया झूठ लेकर आएं।” गांव के लोग इसे ‘झूठ स्कूल’ कहते थे। गांववालों की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुका था।
गांव के प्रधान, रामभरोसे, उद्घाटन में बोले, “झूठ बोलना तो पुरानी कला है। मगर आजकल झूठ की गुणवत्ता गिर गई है। कोई ऐसा झूठ नहीं बोलता जिसे सुनकर दिल में कुछ हलचल हो। इसलिए यह स्कूल खुला है। यहाँ झूठ को परखकर ही उसे प्रामाणिक माना जाएगा।”
सत्यवाद का स्कूल जल्द ही लोकप्रिय हो गया। यहां गांव के हर व्यक्ति का कोई न कोई झूठ पहुंचता। मंगू काका सबसे ज्यादा चाव से आते थे। उनका एक मशहूर झूठ था, “मेरी गाय दूध देती है, मगर गोबर नहीं करती। उसे गंदगी पसंद नहीं।” हर बार जब मंगू काका यह बयान देते, स्कूल के सत्यापक ‘बूटी बाबू’ उनकी बात पर गहरी सोच में पड़ जाते। सत्यापन का झंडा लेकर वे काका की गाय के पीछे कई दिन तक दौड़ते, लेकिन फिर भी गोबर का एक निशान न मिलता।
गांव के साहूकार हरिराम का सबसे बड़ा झूठ था, “मैं गरीब हूं।” जब उन्होंने यह झूठ पेश किया, बूटी बाबू ने उनके घर की तलाशी ली। घर के अंदर सोने-चांदी के बर्तन, पैसे से भरे संदूक और गहनों का ढेर था। फिर भी हरिराम साहूकार रोते हुए कहता, “मेरे पास जो है, वो सब उधार का है। असली गरीब तो मैं हूं।” स्कूल ने इसे ‘ध्यान खींचने वाला झूठ’ की श्रेणी में डाल दिया।
फिर, गांव की चंडाल चौकड़ी आई। उनका झूठ था, “हम चोरी नहीं करते। हम ईमानदार लोग हैं।” बूटी बाबू ने उनकी गुप्त ‘सामान संग्रह कुटिया’ देखी, जहाँ उनके सारे चुराए हुए सामान सहेजे हुए थे। मगर सत्यापन के बाद यह तय हुआ कि चोरों का दावा सच था—वे चोरी को ‘सामाजिक सेवा’ मानते थे।
स्कूल के सबसे सम्मानित सदस्य थे पंडित जी, जो झूठ को सत्य की चादर में लपेटकर पेश करते। उनका एक बयान था, “मैं रोज चार घंटे पूजा करता हूं और आधे घंटे उपदेश देता हूं।” बूटी बाबू ने जांच की तो पाया कि पंडित जी पूजा के नाम पर मेवे खा रहे थे और उपदेश के नाम पर सपने देख रहे थे। सत्यवाद स्कूल ने इसे ‘सपनों की पूजा’ के तहत प्रमाणित किया।
फिर आई बारी सरकार की। तहसीलदार साहब ने एक झूठ भेजा, “हमारी योजनाएं लोगों की भलाई के लिए हैं।” सत्यवाद स्कूल के अध्यापक बूटी बाबू ने महीनों तक योजना के दस्तावेजों की जांच की। उन्होंने पाया कि योजना का फंड ‘लाल किले के रंगाई-पुताई’ में खर्च हो चुका था। मगर सत्यवाद स्कूल ने इसे ‘लाल झंडे वाला झूठ’ घोषित कर दिया।
झूठों की इस अद्भुत प्रदर्शनी ने सत्यवाद स्कूल को इतने प्रसिद्ध कर दिया कि अखबारों में खबरें छपने लगीं। एक दिन एक विदेशी पत्रकार गांव में आया और पूछा, “आपके गांव में झूठ बोलने की कला इतनी अद्भुत कैसे है?” बूटी बाबू ने उत्तर दिया, “हमारे गांव में झूठ बोलने को कला माना जाता है। सच तो हर कोई कहता है, मगर झूठ बोलना मेहनत का काम है। इसे रचने में कल्पनाशक्ति चाहिए, तर्क चाहिए और थोड़ा-सा पागलपन भी।”
पत्रकार ने यह सुनकर गांव को ‘झूठों का वैश्विक केंद्र’ का नाम दे दिया। सत्यवाद का स्कूल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर हो गया। लेकिन बूटी बाबू ने अंत में घोषणा की, “झूठ बोलना कला है, मगर सच सुनना साधना। झूठ की सीमाओं को समझना और सत्य के प्रकाश को ग्रहण करना ही हमारी अंतिम शिक्षा है।”
और इसी शिक्षा के साथ, सत्यवाद का स्कूल एक परंपरा बन गया। गांववालों ने झूठ को कला माना, मगर सच को जीवन का आधार। इस हास्य और व्यंग्य के बीच, हरिशंकर परसाई की शैली में यह कथा बताती है कि सत्य और झूठ के बीच का सफर, इंसान की आदतों और समाज की विडंबनाओं का खूबसूरत आईना है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा – “वॉइस नोट… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 345 ☆
लघु कथा – वॉइस नोट… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
बेटे बहू दुबई में बड़े पद पर काम करते हैं, रमेश जी उनके पास कुछ समय के लिए चले आया करते हैं। आज उनका वीजा समाप्त हो रहा था, उन्हें वापस दिल्ली लौटना पड़ेगा ।
रमेश जी के जागने से पहले ही बच्चे ऑफिस जा चुके थे। उन्होंने अपना बैग संभाला , तो केयर टेकर शांति दीदी दरवाजे पर एक थैले में टिफिन, पानी की बोतल और दवाइयों की छोटी डिब्बी लिए खड़ी थीं । रमेश जी बोले अरे यह रहने दो, मुझे फ्लाइट में ही खाने को कुछ मिलेगा ।
शांति ने कुछ कहा नहीं, उसने अपना मोबाइल चालू किया और एक वाइस नोट सुना दिया , शांति दीदी! वॉइस नोट में बहू की आवाज़ थी, “आज पापा दिल्ली वापस जा रहे हैं। वो मना करेंगे टिफिन ले जाने से, लेकिन आप उनकी मत सुनना। टिफिन पैक कर देना। दवाई और पानी भी साथ रख देना।”
रमेश जी चुपचाप बच्चे की तरह टिफिन तो लिया ही, साथ ही शांति के मोबाइल से वह वाइस नोट भी खुद को फॉरवर्ड कर लिया ।
दिल्ली में सुबह की चाय के साथ अपने कमरे में बैठे वे बारम्बार मोबाइल पर वही वाइस नोट सुन रहे थे । उनके चेहरे पर न दिखने वाली खामोश मुस्कान थी, और आँखों में नमी। वे रॉकिंग चेयर पर टिक गए। फिर से मोबाइल वही वाइस नोट दोहरा रहा था।
बहू से उनकी ज़्यादा बातें नहीं हो पातीं थी। वह ऑफिस में बड़े जिम्मेदारी के पद पर थी। लेकिन उन्हें एहसास हुआ कि उसकी अनबोली खामोशी में भी कितना अपनापन और फिक्र छुपी होती है।
वह वॉइस नोट सिर्फ शब्द नहीं थे , उसमें परिवार की धड़कन थी ।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुखद भविष्य की राह…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 239 ☆सुखद भविष्य की राह… ☆
अपने भविष्य का निर्माता व्यक्ति स्वयं होता है, यदि आप में लगनशीलता का गुण नहीं है तो कुछ दिनों तक जोर शोर से कार्य करेंगे फिर अचानक से बंद कर देंगे, इससे आप अन्य लोगों की तुलना में जो अनवरत कुछ न कुछ कर रहे हैं उनकी अपेक्षा पिछड़ जाते हैं। इस सब में धैर्य का बहुत महत्व होता है, अधीर प्रवृत्ति वाले लोग जल्दी ही टूट जाते हैं और जो भी हासिल करते हैं उसे तोड़- फोड़ कर नष्ट कर देते हैं।
अन्य लोगों की अपेक्षा भले ही आप बौद्धिक व शारीरिक रूप से कमजोर हों पर आप में यदि सबके प्रति स्नेह व मिल – बाँट कर रहने की आदत है तो आप जितना दूसरों को देते हैं उससे कई गुना आपको वापस मिल जाता है। अतः निःस्वार्थ देने की प्रवृत्ति को अपनाएँ जिससे सबके साथ – साथ आपका भी कल्याण हो और अपने सुखद भविष्य के निर्माता स्वयं बन सकें।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है – “हाइकु पर समीक्षात्मक लेख: ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की हाइकू की रचनाएँ।”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 207 ☆
☆ हाइकु पर समीक्षात्मक लेख: ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की हाइकू की रचनाएँ – गीत गरिमा☆ साभार – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
प्रस्तावना
हाइकु एक जापानी काव्य शैली है, जो अपनी संक्षिप्तता और गहनता के लिए जानी जाती है। परंपरागत रूप से यह 5-7-5 अक्षरों की संरचना में लिखा जाता है और प्रकृति, मौसम, और मानवीय भावनाओं को सूक्ष्मता से व्यक्त करता है। हिंदी साहित्य में हाइकु ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, जिसमें भारतीय संस्कृति और सामाजिक यथार्थ का समावेश होता है। ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” (जन्म: 26 जनवरी 1965, रतनगढ़, नीमच, मध्य प्रदेश) की प्रस्तुत रचनाएँ इसी हीपरंपरा का हिस्सा हैं। उनकी ये कविताएँ हाइकु की भावना को अपनाते हुए ग्रामीण जीवन, सामाजिक कुरीतियों और मानवीय संवेदनाओं को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं। यह लेख इन हाइकुओं की समीक्षा करता है।
हाइकु की संरचना और शैली
प्रकाश जी के हाइकु पारंपरिक 5-7-5 अक्षरों की संरचना से थोड़े स्वतंत्र हैं, किंतु इनमें हाइकु की मूल भावना—संक्षिप्तता, प्रकृति से जुड़ाव और एक क्षण का चित्रण—स्पष्ट रूप से झलकती है। प्रत्येक हाइकु तीन पंक्तियों में लिखा गया है, जो एक दृश्य या भाव को पूर्णता प्रदान करता है। उनकी भाषा सरल, सहज और ग्रामीण परिवेश से प्रेरित है, जो पाठक को तत्काल उस दृश्य से जोड़ देती है। उदाहरण के लिए, “जाड़े की रात~ तस्वीर साथ रखे सोती विधवा” में ठंडी रात का मौसमी संदर्भ और विधवा की भावनात्मक स्थिति का चित्रण हाइकु की परंपरा के अनुरूप है।
प्रमुख बिम्ब और भाव
प्रकृति और मानव का संवाद
हाइकु की मूल विशेषता प्रकृति से जुड़ाव यहाँ स्पष्ट है। “घना कोहरा~ कार में दबी माँ का मुख टटोला” और “शीत लहर~ आलू भुनती दादी चूल्हे के पास” में मौसम (कोहरा और शीत लहर) मानव जीवन के दुख और सुख के साथ जुड़ता है। “इन्द्रधनुष~ ताली बजाता बच्चा गड्ढे में गिरा” में प्रकृति की सुंदरता और जीवन की अनिश्चितता का मिश्रण एक मार्मिक चित्र प्रस्तुत करता है।
ग्रामीण जीवन का यथार्थ
प्रकाश जी के हाइकु ग्रामीण भारत की आत्मा को प्रतिबिंबित करते हैं। “नीम का वृक्ष~ दातुन लेकर माँ बेटे के पीछे” और “मुर्गे की बांग~ चक्की पर चावल पीसती दादी” में दैनिक जीवन की सादगी और पारिवारिक प्रेम झलकता है। वहीं, “पकी फसल~ लट्ठ से नील गाय मारे किसान” किसानों की मजबूरी और प्रकृति से संघर्ष को दर्शाता है।
सामाजिक विडंबनाएँ
“बाल वाटिका~ लड़की को दबोचे गुण्डा समूह” और “निर्जन गली~ माशुका के घर में झांकता पति” जैसे हाइकु सामाजिक कुरीतियों और नैतिक पतन को उजागर करते हैं। ये रचनाएँ नारी असुरक्षा और पुरुष की संदिग्धता पर करारा प्रहार करती हैं। “शव का दाह~ अंतरिक्ष सूट में चार स्वजन” आधुनिकता और परंपरा के टकराव को चित्रित करता है, जो संभवतः महामारी काल की ओर संकेत करता है।
नारी और उसकी पीड़ा
“शिशु रुदन~ गर्भिणी माँ के सिर गिट्टी तगाड़ी” और “जाड़े की रात~ तस्वीर साथ रखे सोती विधवा” में नारी के संघर्ष और एकाकीपन का मार्मिक चित्रण है। ये हाइकु नारी जीवन की कठिनाइयों को संवेदनशीलता से व्यक्त करते हैं।
हाइकु की विशेषताएँ और प्रभाव
प्रकाश जी के हाइकु संक्षिप्त होने के बावजूद गहरे भाव और चिंतन को जन्म देते हैं। प्रत्येक रचना एक क्षण को कैद करती है, जो पाठक के मन में लंबे समय तक रहता है। “झींगुर स्वर~ जलमग्न कुटी से वृद्धा की खाँसी” में प्रकृति की ध्वनि और मानव की सहायता का संयोजन हाइकु की गहराई को दर्शाता है। हालाँकि, इस हाइकु का दो बार प्रयोग संभवतः त्रुटि है, जो संग्रह की एकरूपता को प्रभावित करता है।
उनके हाइकु में मौसमी संदर्भ (जाड़े की रात, शीत लहर, घना कोहरा) और प्रकृति के तत्व (नीम का वृक्ष, इन्द्रधनुष, काँव का स्वर) पारंपरिक हाइकु से प्रेरणा लेते हैं, किंतु भारतीय परिवेश में ढलकर विशिष्ट बन जाते हैं।
कमियाँ और सुझाव
कुछ हाइकु, जैसे “बीन की धुन~ पत्थर लिए बच्चे क्रीड़ांगन में”, संक्षिप्तता के कारण पूर्ण भाव को व्यक्त करने में असमर्थ प्रतीत होते हैं। यहाँ चित्र स्पष्ट नहीं हो पाता, जिससे पाठक को और विवरण की आवश्यकता महसूस होती है। यदि इनमें और विविधता और स्पष्टता जोड़ी जाए, तो प्रभाव और गहरा हो सकता है।
निष्कर्ष
ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” के हाइकु हिंदी साहित्य में हाइकु परंपरा को भारतीय संदर्भ में समृद्ध करते हैं। इनमें ग्रामीण जीवन की सादगी, सामाजिक यथार्थ की कटुता और मानवीय संवेदनाओं की गहराई एक साथ समाहित है। ये रचनाएँ संक्षिप्त होते हुए भी विचारोत्तेजक और भावनात्मक हैं। हाइकु की आत्मा को जीवित रखते हुए ये कविताएँ पाठक को एक अनूठा अनुभव प्रदान करती हैं। प्रकाश जी का यह प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय है और हिंदी हाइकु साहित्य में एक महत्वपूर्ण योगदान है।
– गीता गरिमा
साभार – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
16-07-2024
संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र – ही घटना म्हणजे – दत्तसेवेबद्दलची नकळत माझ्या मनावर चढू पहाणारी सूक्ष्मशा अहंकाराची पुटं खरवडून काढण्याची सुरुवात होती हे त्या क्षणी मला जाणवलं नव्हतंच. पण आम्हा सगळ्यांचंच भावविश्व उध्वस्त करणाऱ्या पुढच्या सगळ्या घटनाक्रमांची पाळंमुळं माझ्या ताईच्या श्रद्धेची कसोटी बघणारं ठरलं एवढं खरं! त्या कसोटीला ताई अखेर खरी उतरली पण त्यासाठीही तिने पणाला लावला होता तो स्वतःचा प्राणपणाने जपलेला स्वाभिमानच!!)
“हे गजानन महाराज कोण गं?” त्यादिवशी मी कांहीशा नाराजीने ताईला विचारलेला हा प्रश्न. पण ‘ते कोण?’ हे मला पुढे कांही वर्षांनी पुलाखालून बरंच पाणी वाहून गेल्यानंतर समजलं. अर्थात तेही माझ्या ताईमुळेच. तिच्या आयुष्यात आलेल्या, तिला उध्वस्त करू पहाणाऱ्या चक्रीवादळातही गजानन महाराजांवरील अतूट श्रद्धेमुळेच ती पाय घट्ट रोवून उभी राहिलीय हे मी स्वतः पाहिलं तेव्हा मला समजलं. पण त्यासाठी मला खूप मोठी किंमत मोजावी लागली होती! तिचं उध्वस्त होत जाणं हा खरं तर आम्हा सर्वांनाच खूप मोठा धक्का होता! या पडझडीत ते ‘आनंदाचं झाड’ पानगळ सुरू व्हावी तसं मलूल होत चाललं.. आणि ते फक्त दूर उभं राहून पहात रहाण्याखेरीज आम्ही काहीही करू शकत नव्हतो. नव्हे आम्ही जे करायला हवे होते ते ताईच आम्हाला करू देत नव्हती हेच खरं. तो सगळाच अनुभव अतिशय करूण, केविलवाणा होता आणि टोकाचा विरोधाभास वाटेल तुम्हाला पण तोच क्षणभर कां होईना एका अलौकिक अशा आनंदाचा साक्षात्कार घडवणाराही ठरणार होता !!
एखाद्या संकटाने चोर पावलांनी येऊन झडप घालणे म्हणजे काय याचा प्रत्यय आम्हा सर्वांना आला तो ताईला गर्भाशयाचा कॅन्सर डिटेक्ट झाला तेव्हा! या सगळ्याबाबत मी मात्र सुरूवातीचे कांही दिवस तरी अनभिज्ञच होतो. मला हे समजलं ते तिची ट्रीटमेंट सुरू होऊन पंधरा दिवस उलटून गेल्यानंतर. कारण मी तेव्हा विदर्भ मराठवाड्यातल्या ब्रॅंचेसचा ऑडिट प्रोग्रॅम पूर्ण करण्यांत व्यस्त आणि अर्थातच घरापासून खूप दूर होतो. तेव्हा मोबाईल नव्हते. त्यामुळे मला वेळ मिळेल तसं मीच तीन चार दिवसांतून एकदा रात्री उशीरा लाॅजपासून जवळच असलेल्या एखाद्या टेलिफोन बूथवरून घरी एसटीडी कॉल करायचा असं ठरलेलं होतं. कामातील व्यस्ततेमुळे मी त्या आठवड्यांत घरी फोन करायचं राहूनच गेलं होतं आणि शिळोप्याच्या गप्पा मारायच्या तयारीने नंतर भरपूर वेळ घेऊन मी उत्साहाने घरी फोन केला, तर आरतीकडून हे समजलं. ऐकून मी चरकलोच. मन ताईकडे ओढ घेत राहिलं. ताईला तातडीनं भेटावंसं वाटत होतं पण भेटणं सोडाच तिच्याशी बोलूही शकत नव्हतो. कारण तिच्या घरी फोन नव्हता. ब्रँच ऑडिट संपायला पुढे चार दिवस लागले. या अस्वस्थतेमुळे त्या चारही रात्री माझ्या डोळ्याला डोळा नव्हता. आॅडिट पूर्ण झालं तशी मी लगोलग बॅग भरली. औरंगाबादहून आधी घरी न जाता थेट ताईला भेटण्यासाठी बेळगावला धाव घेतली. तिला समोर पाहिलं आणि.. अंहं… ‘डोळ्यात पाणी येऊन चालणार नाही. धीर न सोडता, आधी तिला सावरायला हवं.. ‘ मी स्वत:लाच बजावलं.
“कशी आहे आता तब्येत?”… सगळ्या भावना महत्प्रयासाने मनांत कोंडून टाकल्यावर बाहेर पडला तो हाच औपचारिक प्रश्न!
“बघ ना. छान आहे की नाही? सुधारतेय अरे आता.. “
ताईच्या चेहऱ्यावरचं उसनं हसू मला वेगळंच काहीतरी सांगत होतं! ती आतून ढासळणाऱ्या मलाच सावरू पहातेय हे मला जाणवत होतं.
केशवरावसुद्धा दाखवत नसले तरी खचलेलेच होते. त्यांच्या हालचालीतून, वागण्या बोलण्यातून, उतरलेल्या त्यांच्या चेहऱ्यावरून, बोलता बोलता भरून येतायत असं वाटणाऱ्या डोळ्यांवरून, त्यांचं हे आतून हलणं मला जाणवत होतं!
मी वयाने त्यांच्यापेक्षा खूप लहान. त्यांची समजूत तरी कशी आणि कोणत्या शब्दांत घालावी समजेचना.
“आपण तिला आत्ताच मुंबईला शिफ्ट करूया. तिथे योग्य आणि आवश्यक उपचार उपलब्ध असतील. ती सगळी व्यवस्था मी करतो. रजा घेऊन मी स्वत: तुमच्याबरोबर येतो. खर्चाची संपूर्ण जबाबदारी मी घेतो. तुम्ही खरंच अजिबात काळजी करू नका. ताई सुधारेल. सुधारायलाच हवी…. “
मी त्यांना आग्रहाने, अगदी मनापासून सांगत राहिलो. अगदी जीव तोडून. कारण थोडंसं जरी दुर्लक्ष झालं, उशीर झाला,.. आणि ताईची तब्येत बिघडली तर.. ? ती.. ती गेली तर?.. माझं मन पोखरू लागलेली मनातली ही भीती मला स्वस्थ बसू देईना.
केशवरावांनी सगळं शांतपणे ऐकून घेतलं. आणि मलाच धीर देत माझी समजूत घातली. बेळगावला अद्ययावत हॉस्पिटल आहे आणि तिथे सर्व उपचार उपलब्ध आहेत हे मला समजावून सांगितलं. त्यांनी नीट सगळी चौकशी केलेली होती आणि त्यांच्या म्हणण्याप्रमाणे सर्वदृष्टीने विचार केला तर तेच अधिक सोयीचं होतं. मी त्यापुढं कांही बोलू शकलो नाही. ते सांगतायत त्यातही तथ्य आहे असं वाटलं, तरीही केवळ माझ्याच समाधानासाठी मी तिथल्या डॉक्टरांना आवर्जून भेटलो. त्यांच्याशी सविस्तर बोललो. माझं समाधान झालं तरी रूखरूख होतीच आणि ती रहाणारच होती!
केमोथेरपीच्या तीन ट्रीटमेंटस् नंतर ऑपरेशन करायचं कीं नाही हे ठरणार होतं. ती वाचेल असा डॉक्टरना विश्वास होता. तो विश्वास हाच आशेचा एकमेव किरण होता! केमोचे हे तीन डोस सर्वसाधारण एक एक महिन्याच्या अंतराने द्यायचे म्हणजे कमीत कमी तीन महिने तरी टांगती तलवार रहाणार होतीच आणि प्रत्येक डोसनंतरचे साईड इफेक्ट्स खूप त्रासदायक असत ते वेगळंच.
ताईचं समजल्यावर माझी आई तिच्याकडे रहायला गेली. त्या वयातही आपल्या मुलीचं हे जीवघेणं आजारपणही खंबीरपणे स्वीकारून माझी आई वरवर तरी शांत राहिली. घरातल्या सगळ्या कामांचा ताबा तिने स्वतःकडे घेतला. तिच्या मदतीला अजित-सुजित होतेच. औषधं, दवाखाना सगळं केशवराव मॅनेज करायचे. ताईचे मोठे दीर-जाऊ यांच्यापासून जवळच रहायचे. त्यांचाही हक्काचा असा भक्कम आधार होताच. हॉस्पिटलायझेशन वाढत राहिलं तेव्हा योग्य नियोजन आधीपासून करून तिथं दवाखान्यांत थांबायला जायचं, आणि एरवीही अधून मधून जाऊन भेटून यायचं असं माझ्या मोठ्या बहिणीने आणि आरतीने आपापसात ठरवून ठेवलेलं होतं. प्रत्येकांनी न सांगता आपापला वाटा असा उचलला होता. तरीही ‘पैसा आणि ऐश्वर्य सगळं जवळ असणाऱ्या माझं या परिस्थितीत एक भाऊ म्हणून नेमकं कर्तव्य कोणतं?’ हा प्रश्न मला त्रास देत रहायचा. जाणं, भेटणं, बोलणं.. हे सगळं सुरू होतंच पण त्याही पलिकडे कांही नको? सुदैवाने ताईच्या ट्रीटमेंटचा संपूर्ण खर्च करायची माझी परिस्थिती होती. मला कांहीच अडचण नव्हती. ‘हे आपणच करायला हवं’ असं मनोमन ठरवलं खरं पण आजवर माझ्यासाठी ज्यांनी बराच त्याग केलेला होता त्या माझ्या मोठ्या बहिणीला आणि भावाला विश्वासात न घेता परस्पर कांही करणं मलाच प्रशस्त वाटेना. मी त्या दोघांशी मोकळेपणानं बोललो. माझा विचार त्यांना सांगितला. ऐकून भाऊ थोडा अस्वस्थ झाला. त्याला कांहीतरी बोलायचं होतं. त्याने बहिणीकडं पाहिलं. मग तिनेच पुढाकार घेतला. माझी समजूत काढत म्हणाली, ” तिच्या आजारपणाचं समजलं तेव्हा तू खूप लांब होतास. तू म्हणतोयस तशी तयारी मी आणि हा आम्हा दोघांचीही आहेच. शिवाय मी आणि ‘हे’ सुद्धा खरंतर लगेचच पैसे घेऊन बेळगावला भेटायला गेलो होतो. केशवरावांना पैसे द्यायला लागलो, तर ते सरळ ‘नको’ म्हणाले. ‘सध्या जवळ राहू देत, लागतील तसे खर्च करता येतील’ असंही ‘हे’ म्हणाले त्यांना, पण त्यांनी ऐकलं नाही. “मला गरज पडेल तेव्हा मीच आपण होऊन तुमच्याकडून मागून घेईन’ असं म्हणाले. मला वाटतं, या सगळ्यानंतर आता तू पुन्हा त्यांच्याकडे पैशाचा विषय काढून लहान तोंडी मोठा घास घेऊ नकोस. जे करायचं ते आपण सगळे मिळून करूच, पण ते त्या कुणाला न दुखावता, त्यांच्या कलानंच करायला हवं हे लक्षा़त ठेव. ” ताई म्हणाली.
केशवराव महिन्यापूर्वीच रिटायर झाले होते. फंड आणि ग्रॅच्युइटी सगळं मिळून त्यांना साडेतीन लाख रुपये मिळालेले होते. अजित आत्ता कुठे सी. ए. ची तयारी करीत होता. सुजितचं ग्रॅज्युएशनही अजून पूर्ण व्हायचं होतं. एरवी खरं तर इथून पुढं ताईच्या संसारात खऱ्या अर्थाने स्वास्थ्य आणि विसावा सुरू व्हायचा, पण नेमक्या त्याच क्षणी साऱ्या सुखाच्या स्वागतालाच येऊन उभं राहिल्यासारखं ताईचं हे दुर्मुखलेलं आजारपण समोर आलं होतं.. !
“तुला.. आणखी एक सांगायचंय…. ” मला विचारांत पडलेलं पाहून माझी मोठी बहिण म्हणाली.
पण…. आहे त्या परिस्थितीत ती जे सांगेल ते फारसे उत्साहवर्धक नसणाराय असं एकीकडे वाटत होतं आणि ती जे सांगणार होती ते ऐकायला मी उतावीळही झालो होतो… !!
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष— सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “हम जो समझ रहे अपना है…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #275 ☆
☆ हम जो समझ रहे अपना है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “झूठा भरम” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 99 ☆ झूठा भरम ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆