हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #207 – हाइकु पर समीक्षात्मक लेख: ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की हाइकू की रचनाएँ – गीत गरिमा ☆ साभार – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है हाइकु पर समीक्षात्मक लेख: ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की हाइकू की रचनाएँ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 207 ☆

☆ हाइकु पर समीक्षात्मक लेख: ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की हाइकू की रचनाएँ – गीत गरिमा ☆ साभार – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

प्रस्तावना

हाइकु एक जापानी काव्य शैली है, जो अपनी संक्षिप्तता और गहनता के लिए जानी जाती है। परंपरागत रूप से यह 5-7-5 अक्षरों की संरचना में लिखा जाता है और प्रकृति, मौसम, और मानवीय भावनाओं को सूक्ष्मता से व्यक्त करता है। हिंदी साहित्य में हाइकु ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, जिसमें भारतीय संस्कृति और सामाजिक यथार्थ का समावेश होता है। ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” (जन्म: 26 जनवरी 1965, रतनगढ़, नीमच, मध्य प्रदेश) की प्रस्तुत रचनाएँ इसी हीपरंपरा का हिस्सा हैं। उनकी ये कविताएँ हाइकु की भावना को अपनाते हुए ग्रामीण जीवन, सामाजिक कुरीतियों और मानवीय संवेदनाओं को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं। यह लेख इन हाइकुओं की समीक्षा करता है।

हाइकु की संरचना और शैली

प्रकाश जी के हाइकु पारंपरिक 5-7-5 अक्षरों की संरचना से थोड़े स्वतंत्र हैं, किंतु इनमें हाइकु की मूल भावना—संक्षिप्तता, प्रकृति से जुड़ाव और एक क्षण का चित्रण—स्पष्ट रूप से झलकती है। प्रत्येक हाइकु तीन पंक्तियों में लिखा गया है, जो एक दृश्य या भाव को पूर्णता प्रदान करता है। उनकी भाषा सरल, सहज और ग्रामीण परिवेश से प्रेरित है, जो पाठक को तत्काल उस दृश्य से जोड़ देती है। उदाहरण के लिए, “जाड़े की रात~ तस्वीर साथ रखे सोती विधवा” में ठंडी रात का मौसमी संदर्भ और विधवा की भावनात्मक स्थिति का चित्रण हाइकु की परंपरा के अनुरूप है।

प्रमुख बिम्ब और भाव

प्रकृति और मानव का संवाद

हाइकु की मूल विशेषता प्रकृति से जुड़ाव यहाँ स्पष्ट है। “घना कोहरा~ कार में दबी माँ का मुख टटोला” और “शीत लहर~ आलू भुनती दादी चूल्हे के पास” में मौसम (कोहरा और शीत लहर) मानव जीवन के दुख और सुख के साथ जुड़ता है। “इन्द्रधनुष~ ताली बजाता बच्चा गड्ढे में गिरा” में प्रकृति की सुंदरता और जीवन की अनिश्चितता का मिश्रण एक मार्मिक चित्र प्रस्तुत करता है।

ग्रामीण जीवन का यथार्थ

प्रकाश जी के हाइकु ग्रामीण भारत की आत्मा को प्रतिबिंबित करते हैं। “नीम का वृक्ष~ दातुन लेकर माँ बेटे के पीछे” और “मुर्गे की बांग~ चक्की पर चावल पीसती दादी” में दैनिक जीवन की सादगी और पारिवारिक प्रेम झलकता है। वहीं, “पकी फसल~ लट्ठ से नील गाय मारे किसान” किसानों की मजबूरी और प्रकृति से संघर्ष को दर्शाता है।

सामाजिक विडंबनाएँ

“बाल वाटिका~ लड़की को दबोचे गुण्डा समूह” और “निर्जन गली~ माशुका के घर में झांकता पति” जैसे हाइकु सामाजिक कुरीतियों और नैतिक पतन को उजागर करते हैं। ये रचनाएँ नारी असुरक्षा और पुरुष की संदिग्धता पर करारा प्रहार करती हैं। “शव का दाह~ अंतरिक्ष सूट में चार स्वजन” आधुनिकता और परंपरा के टकराव को चित्रित करता है, जो संभवतः महामारी काल की ओर संकेत करता है।

नारी और उसकी पीड़ा

 “शिशु रुदन~ गर्भिणी माँ के सिर गिट्टी तगाड़ी” और “जाड़े की रात~ तस्वीर साथ रखे सोती विधवा” में नारी के संघर्ष और एकाकीपन का मार्मिक चित्रण है। ये हाइकु नारी जीवन की कठिनाइयों को संवेदनशीलता से व्यक्त करते हैं।

हाइकु की विशेषताएँ और प्रभाव

प्रकाश जी के हाइकु संक्षिप्त होने के बावजूद गहरे भाव और चिंतन को जन्म देते हैं। प्रत्येक रचना एक क्षण को कैद करती है, जो पाठक के मन में लंबे समय तक रहता है। “झींगुर स्वर~ जलमग्न कुटी से वृद्धा की खाँसी” में प्रकृति की ध्वनि और मानव की सहायता का संयोजन हाइकु की गहराई को दर्शाता है। हालाँकि, इस हाइकु का दो बार प्रयोग संभवतः त्रुटि है, जो संग्रह की एकरूपता को प्रभावित करता है।

उनके हाइकु में मौसमी संदर्भ (जाड़े की रात, शीत लहर, घना कोहरा) और प्रकृति के तत्व (नीम का वृक्ष, इन्द्रधनुष, काँव का स्वर) पारंपरिक हाइकु से प्रेरणा लेते हैं, किंतु भारतीय परिवेश में ढलकर विशिष्ट बन जाते हैं।

कमियाँ और सुझाव

कुछ हाइकु, जैसे “बीन की धुन~ पत्थर लिए बच्चे क्रीड़ांगन में”, संक्षिप्तता के कारण पूर्ण भाव को व्यक्त करने में असमर्थ प्रतीत होते हैं। यहाँ चित्र स्पष्ट नहीं हो पाता, जिससे पाठक को और विवरण की आवश्यकता महसूस होती है। यदि इनमें और विविधता और स्पष्टता जोड़ी जाए, तो प्रभाव और गहरा हो सकता है।

निष्कर्ष

ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” के हाइकु हिंदी साहित्य में हाइकु परंपरा को भारतीय संदर्भ में समृद्ध करते हैं। इनमें ग्रामीण जीवन की सादगी, सामाजिक यथार्थ की कटुता और मानवीय संवेदनाओं की गहराई एक साथ समाहित है। ये रचनाएँ संक्षिप्त होते हुए भी विचारोत्तेजक और भावनात्मक हैं। हाइकु की आत्मा को जीवित रखते हुए ये कविताएँ पाठक को एक अनूठा अनुभव प्रदान करती हैं। प्रकाश जी का यह प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय है और हिंदी हाइकु साहित्य में एक महत्वपूर्ण योगदान है।

 – गीता गरिमा

साभार – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 246 ☆ बाल गीत – हो अपना मधुर व्यवहार… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 246 ☆ 

☆ बाल गीत – हो अपना मधुर व्यवहार ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सहज , सरल जीवन बने

मानव कर उपकार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

बिगड़े अपने काम बनेंगे

जीवन को हम महकाएँ ।

सत्यनिष्ठ , आचरण सुगंधित

फूलों – सा हम मुस्काएँ।

 *

मन पावन हो आचरण

बाँटें जग में प्यार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

 *

द्वेष , कपट सब मिट जाते हैं

मन निर्मल हो जाता है ।

सोच  – समझकर मीठा बोलें

जटिल प्रश्न हल हो जाता है।।

 *

सदाचार का पाठ ही

है जीवन का सार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

 *

जो भी मधु – सा मीठा बोलें

अपना ही उपकार करें।

गन्ने का रस मीठा बनकर

तन – मन में संस्कार भरें।

 *

भोजन शाकाहार का

करें प्रचार – प्रसार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

 *

कोमल मन पहचान बनाए

मधुर नेह को उपजाता।

शौर्य पराक्रम स्वयं मिलेगा

मानव अंबर छू पाता।

 *

सदभावों , गुण,  प्रेम से

खुद का हो उपकार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ५१ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ५१ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र – ही घटना म्हणजे – दत्तसेवेबद्दलची नकळत माझ्या मनावर चढू पहाणारी सूक्ष्मशा अहंकाराची पुटं खरवडून काढण्याची सुरुवात होती हे त्या क्षणी मला जाणवलं नव्हतंच. पण आम्हा सगळ्यांचंच भावविश्व उध्वस्त करणाऱ्या पुढच्या सगळ्या घटनाक्रमांची पाळंमुळं माझ्या ताईच्या श्रद्धेची कसोटी बघणारं ठरलं एवढं खरं! त्या कसोटीला ताई अखेर खरी उतरली पण त्यासाठीही तिने पणाला लावला होता तो स्वतःचा प्राणपणाने जपलेला स्वाभिमानच!!)

“हे गजानन महाराज कोण गं?” त्यादिवशी मी कांहीशा नाराजीने ताईला विचारलेला हा प्रश्न. पण ‘ते कोण?’ हे मला पुढे कांही वर्षांनी पुलाखालून बरंच पाणी वाहून गेल्यानंतर समजलं. अर्थात तेही माझ्या ताईमुळेच. तिच्या आयुष्यात आलेल्या, तिला उध्वस्त करू पहाणाऱ्या चक्रीवादळातही गजानन महाराजांवरील अतूट श्रद्धेमुळेच ती पाय घट्ट रोवून उभी राहिलीय हे मी स्वतः पाहिलं तेव्हा मला समजलं. पण त्यासाठी मला खूप मोठी किंमत मोजावी लागली होती! तिचं उध्वस्त होत जाणं हा खरं तर आम्हा सर्वांनाच खूप मोठा धक्का होता! या पडझडीत ते ‘आनंदाचं झाड’ पानगळ सुरू व्हावी तसं मलूल होत चाललं.. आणि ते फक्त दूर उभं राहून पहात रहाण्याखेरीज आम्ही काहीही करू शकत नव्हतो. नव्हे आम्ही जे करायला हवे होते ते ताईच आम्हाला करू देत नव्हती हेच खरं. तो सगळाच अनुभव अतिशय करूण, केविलवाणा होता आणि टोकाचा विरोधाभास वाटेल तुम्हाला पण तोच क्षणभर कां होईना एका अलौकिक अशा आनंदाचा साक्षात्कार घडवणाराही ठरणार होता !!

एखाद्या संकटाने चोर पावलांनी येऊन झडप घालणे म्हणजे काय याचा प्रत्यय आम्हा सर्वांना आला तो ताईला गर्भाशयाचा कॅन्सर डिटेक्ट झाला तेव्हा! या सगळ्याबाबत मी मात्र सुरूवातीचे कांही दिवस तरी अनभिज्ञच होतो. मला हे समजलं ते तिची ट्रीटमेंट सुरू होऊन पंधरा दिवस उलटून गेल्यानंतर. कारण मी तेव्हा विदर्भ मराठवाड्यातल्या ब्रॅंचेसचा ऑडिट प्रोग्रॅम पूर्ण करण्यांत व्यस्त आणि अर्थातच घरापासून खूप दूर होतो. तेव्हा मोबाईल नव्हते. त्यामुळे मला वेळ मिळेल तसं मीच तीन चार दिवसांतून एकदा रात्री उशीरा लाॅजपासून जवळच असलेल्या एखाद्या टेलिफोन बूथवरून घरी एसटीडी कॉल करायचा असं ठरलेलं होतं. कामातील व्यस्ततेमुळे मी त्या आठवड्यांत घरी फोन करायचं राहूनच गेलं होतं आणि शिळोप्याच्या गप्पा मारायच्या तयारीने नंतर भरपूर वेळ घेऊन मी उत्साहाने घरी फोन केला, तर आरतीकडून हे समजलं. ऐकून मी चरकलोच. मन ताईकडे ओढ घेत ‌राहिलं. ताईला तातडीनं भेटावंसं वाटत होतं पण भेटणं सोडाच तिच्याशी बोलूही शकत नव्हतो. कारण तिच्या घरी फोन नव्हता. ब्रँच ऑडिट संपायला पुढे चार दिवस लागले. या अस्वस्थतेमुळे त्या चारही रात्री माझ्या डोळ्याला डोळा नव्हता. आॅडिट पूर्ण झालं तशी मी लगोलग बॅग भरली. औरंगाबादहून आधी घरी न जाता थेट ताईला भेटण्यासाठी बेळगावला धाव घेतली. तिला समोर पाहिलं आणि.. अंहं… ‘डोळ्यात पाणी येऊन चालणार नाही. धीर न सोडता, आधी तिला सावरायला हवं.. ‘ मी स्वत:लाच बजावलं.

“कशी आहे आता तब्येत?”… सगळ्या भावना महत्प्रयासाने मनांत कोंडून टाकल्यावर बाहेर पडला तो हाच औपचारिक प्रश्न!

“बघ ना. छान आहे की नाही? सुधारतेय अरे आता.. “

ताईच्या चेहऱ्यावरचं उसनं हसू मला वेगळंच काहीतरी सांगत होतं! ती आतून ढासळणाऱ्या मलाच सावरू पहातेय हे मला जाणवत होतं.

केशवरावसुद्धा दाखवत नसले तरी खचलेलेच होते. त्यांच्या हालचालीतून, वागण्या बोलण्यातून, उतरलेल्या त्यांच्या चेहऱ्यावरून, बोलता बोलता भरून येतायत असं वाटणाऱ्या डोळ्यांवरून, त्यांचं हे आतून हलणं मला जाणवत होतं!

मी वयाने त्यांच्यापेक्षा खूप लहान. त्यांची समजूत तरी कशी आणि कोणत्या शब्दांत घालावी समजेचना.

“आपण तिला आत्ताच मुंबईला शिफ्ट करूया. तिथे योग्य आणि आवश्यक उपचार उपलब्ध असतील. ती सगळी व्यवस्था मी करतो. रजा घेऊन मी स्वत: तुमच्याबरोबर येतो. खर्चाची संपूर्ण जबाबदारी मी घेतो. तुम्ही खरंच अजिबात काळजी करू नका. ताई सुधारेल. सुधारायलाच हवी…. “

मी त्यांना आग्रहाने, अगदी मनापासून सांगत राहिलो. अगदी जीव तोडून. कारण थोडंसं जरी दुर्लक्ष झालं, उशीर झाला,.. आणि ताईची तब्येत बिघडली तर.. ? ती.. ती गेली तर?.. माझं मन पोखरू लागलेली मनातली ही भीती मला स्वस्थ बसू देईना.

केशवरावांनी सगळं शांतपणे ऐकून घेतलं. आणि मलाच धीर देत माझी समजूत घातली. बेळगावला अद्ययावत हॉस्पिटल आहे आणि तिथे सर्व उपचार उपलब्ध आहेत हे मला समजावून सांगितलं. त्यांनी नीट सगळी चौकशी केलेली होती आणि त्यांच्या म्हणण्याप्रमाणे सर्वदृष्टीने विचार केला तर तेच अधिक सोयीचं होतं. मी त्यापुढं कांही बोलू शकलो नाही. ते सांगतायत त्यातही तथ्य आहे असं वाटलं, तरीही केवळ माझ्याच समाधानासाठी मी तिथल्या डॉक्टरांना आवर्जून भेटलो. त्यांच्याशी सविस्तर बोललो. माझं समाधान झालं तरी रूखरूख होतीच आणि ती रहाणारच होती!

केमोथेरपीच्या तीन ट्रीटमेंटस् नंतर ऑपरेशन करायचं कीं नाही हे ठरणार होतं. ती वाचेल असा डॉक्टरना विश्वास होता. तो विश्वास हाच आशेचा एकमेव किरण होता! केमोचे हे तीन डोस सर्वसाधारण एक एक महिन्याच्या अंतराने द्यायचे म्हणजे कमीत कमी तीन महिने तरी टांगती तलवार रहाणार होतीच आणि प्रत्येक डोसनंतरचे साईड इफेक्ट्स खूप त्रासदायक असत ते वेगळंच.

ताईचं समजल्यावर माझी आई तिच्याकडे रहायला गेली. त्या वयातही आपल्या मुलीचं हे जीवघेणं आजारपणही खंबीरपणे स्वीकारून माझी आई वरवर तरी शांत राहिली. घरातल्या सगळ्या कामांचा ताबा तिने स्वतःकडे घेतला. तिच्या मदतीला अजित-सुजित होतेच. औषधं, दवाखाना सगळं केशवराव मॅनेज करायचे. ताईचे मोठे दीर-जाऊ यांच्यापासून जवळच रहायचे. त्यांचाही हक्काचा असा भक्कम आधार होताच. हॉस्पिटलायझेशन वाढत राहिलं तेव्हा योग्य नियोजन आधीपासून करून तिथं दवाखान्यांत थांबायला जायचं, आणि एरवीही अधून मधून जाऊन भेटून यायचं असं माझ्या मोठ्या बहिणीने आणि आरतीने आपापसात ठरवून ठेवलेलं होतं. प्रत्येकांनी न सांगता आपापला वाटा असा उचलला होता‌. तरीही ‘पैसा आणि ऐश्वर्य सगळं जवळ असणाऱ्या माझं या परिस्थितीत एक भाऊ म्हणून नेमकं कर्तव्य कोणतं?’ हा प्रश्न मला त्रास देत रहायचा. जाणं, भेटणं, बोलणं.. हे सगळं सुरू होतंच पण त्याही पलिकडे कांही नको? सुदैवाने ताईच्या ट्रीटमेंटचा संपूर्ण खर्च करायची माझी परिस्थिती होती. मला कांहीच अडचण नव्हती. ‘हे आपणच करायला हवं’ असं मनोमन ठरवलं खरं पण आजवर माझ्यासाठी ज्यांनी बराच त्याग केलेला होता त्या माझ्या मोठ्या बहिणीला आणि भावाला विश्वासात न घेता परस्पर कांही करणं मलाच प्रशस्त वाटेना. मी त्या दोघांशी मोकळेपणानं बोललो. माझा विचार त्यांना सांगितला. ऐकून भाऊ थोडा अस्वस्थ झाला. त्याला कांहीतरी बोलायचं होतं. त्याने बहिणीकडं पाहिलं. मग तिनेच पुढाकार घेतला. माझी समजूत काढत म्हणाली, ” तिच्या आजारपणाचं समजलं तेव्हा तू खूप लांब होतास. तू म्हणतोयस तशी तयारी मी आणि हा आम्हा दोघांचीही आहेच. शिवाय मी आणि ‘हे’ सुद्धा खरंतर लगेचच पैसे घेऊन बेळगावला भेटायला गेलो होतो. केशवरावांना पैसे द्यायला लागलो, तर ते सरळ ‘नको’ म्हणाले. ‘सध्या जवळ राहू देत, लागतील तसे खर्च करता येतील’ असंही ‘हे’ म्हणाले त्यांना, पण त्यांनी ऐकलं नाही. “मला गरज पडेल तेव्हा मीच आपण होऊन तुमच्याकडून मागून घेईन’ असं म्हणाले. मला वाटतं, या सगळ्यानंतर आता तू पुन्हा त्यांच्याकडे पैशाचा विषय काढून लहान तोंडी मोठा घास घेऊ नकोस. जे करायचं ते आपण सगळे मिळून करूच, पण ते त्या कुणाला न दुखावता, त्यांच्या कलानंच करायला हवं हे लक्षा़त ठेव. ” ताई म्हणाली.

केशवराव महिन्यापूर्वीच रिटायर झाले होते. फंड आणि ग्रॅच्युइटी सगळं मिळून त्यांना साडेतीन लाख रुपये मिळालेले होते. अजित आत्ता कुठे सी. ए. ची तयारी करीत होता. सुजितचं ग्रॅज्युएशनही अजून पूर्ण व्हायचं होतं. एरवी खरं तर इथून पुढं ताईच्या संसारात खऱ्या अर्थाने स्वास्थ्य आणि विसावा सुरू व्हायचा, पण नेमक्या त्याच क्षणी साऱ्या सुखाच्या स्वागतालाच येऊन उभं राहिल्यासारखं ताईचं हे दुर्मुखलेलं आजारपण समोर आलं होतं.. !

“तुला.. आणखी एक सांगायचंय…. ” मला विचारांत पडलेलं पाहून माझी मोठी बहिण म्हणाली.

पण…. आहे त्या परिस्थितीत ती जे सांगेल ते फारसे उत्साहवर्धक नसणाराय असं एकीकडे वाटत होतं आणि ती जे सांगणार होती ते ऐकायला मी उतावीळही झालो होतो… !!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #275 – कविता – ☆ हम जो समझ रहे अपना है ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता हम जो समझ रहे अपना है” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #275 ☆

☆ हम जो समझ रहे अपना है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

हम जो समझ रहे अपना है

केवल सपना है

मृगमरीचिकाओं के भ्रम में

नाहक तपना है।

 

मौज मजे हैं साज सजे हैं

रोम-रोम संगीत बजे हैं

हो उन्मुक्त व्यस्त मस्ती में

दिन निद्रा में रात जगे हैं,

यही लालसा जग के

सब स्वादों को चखना है।….

 

साँझ-सबेरे लगते फेरे

दायें-बायें चित्र घनेरे

कुछ हँसते गाते मुस्काते

कुछ रोते चिल्लाते चेहरे,

द्वंद्व मचा भीतर अब

इनसे कैसे बचना है। ….

 

प्रश्नचिह्न है हृदय खिन्न है

अब उदासियाँ भिन्न-भिन्न है

भ्रमित भावनाओं के सम्मुख

खड़ा स्वयं का कुटिल जिन्न है,

बीती बर्फीली यादों में

कँपते रहना है।….

 

शिथिल शिराएँ बादल छाए

भटकन का अब शोक मनाए

फिसल रही है उम्र हाथ से

कौन साँझ को अर्घ्य चढ़ाए,

बीते पल-छिन गिनती गिन-गिन,

मन में जपना है

मृग-मरिचिकाओं के भ्रम में

नाहक तपना है।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 99 ☆ झूठा भरम ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “झूठा भरम” ।)       

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 99 ☆ झूठा भरम ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

ख़ालिश देशीपन छूटा,

बस झूठा भरम लिए।।

 

शहर उनींदा

आलस ओढ़े,

आँखें मींज रहा।

धूप अल्गनी

पर टाँगे मन,

दिवस पसीज रहा।

 

सूरज का छप्पर टूटा,

संझा ने कदम छुए।

 

गंध सुरमयी

नहीं चूमती,

फूलों का मस्तक।

खारेपन से

हुई कसैली,

रिश्तों की पुस्तक।

 

अपनापन लगता जूठा,

लज्जा बेशरम जिए।

 

देहरी पर आ

पसर गया,

बाज़ारों का जादू।

सिमट गये हैं

अंकल अंटी,

में दादी दादू।

 

नानी का बचपन रूठा,

घाव सभी बेरहम हुए।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ये मंज़ूर न होगा… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – ये मंज़ूर न होगा।)

✍ ये मंज़ूर न होगा… ☆ श्री हेमंत तारे  

बारहा समझाईश, ख़ता होती रहे, ये मंज़ूर न होगा

मेरा अपना मुझे अपना न कहे, ये  मंज़ूर न होगा

*

हक़ है तुझको भी के तू मुझसे सवालात करे

पर जीस्त मेरी और तू ज़ब्त करे,  ये मंज़ूर न होगा

वो रवादार है, बर्दाश्त कर रहा है सितम अब तक

पर ज़ुल्म की इंतेहा होती रहे, ये मंज़ूर न होगा

 *

मुमकिन है के पता ही न हो के मर्ज़ क्या है

पर जान कर भी तू ख़ामोश रहे, ये मंज़ूर न होगा

 *

तेरी हर क़ामयाबी पर ग़ुरूर है मुझको

पर शिकस्त हो और तू बिखर जाये, ये मंज़ूर न होगा

 *

शब को आने का वादा किया है तूने

तूने वादा बेवजह न निभाया तो, ये मंज़ूर न होगा

 *

मेरी कोशिश होगी ‘हेमंत’ के तल्ख़ियां न बढे

पर मैं ख़ामोश रहूं, और वो बदज़बानी करे, ये मंज़ूर न होगा

 (बारहा = बावजूद,  जीस्त = जिंदगी, ज़ब्त = नियंत्रित करना, रवादार = सहिष्णु)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 102 ☆ पड़ेगी गांठ चुभती उम्र भर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “पड़ेगी गांठ चुभती उम्र भर “)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 102 ☆

✍ पड़ेगी गांठ चुभती उम्र भर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जरा सी चोट लगते प्रेम धागा टूट जाता है

वफ़ा में खोट आते दिल का शीशा टूट जाता है

*

पड़ेगी गांठ चुभती उम्र भर जो जोड़कर फिर से

किसी इंसा से जब इंसा का रिश्ता टूट जाता है

*

समझ के साथ बढ़ता आदमी का नजरिया सच है

लुटा समझे जो बच्चे का खिलौना टूट जाता है

*

गुनाहों की सज़ा मुजरिम को दो रोको ये बुलडोजर

भुगतता है घराना जब घरौदा टूट जाता है

*

बड़ी जब शख्सियत कोई जहां से कूच है करती

फ़लक से लोग कहते हैं सितारा टूट जाता है

*

दिलों में फासला होता दिखावा करना जो कर लो

किसी का जब किसी पर से भरोसा टूट जाता है

*

ये मेरी बद नसीबी का सितम भी देखिये साहिब

जो साक़ी भेजती मुझको वो प्याला टूट जाता है

*

बचाना जिसको वो चाहे उसे फिर कौन मारेगा

शिकारी जो भी फैलाये वो फंदा टूट जाता है

*

शरीफों के लिए घर में लगाया जाता है इनको

हो कोई चोर तो कोई भी ताला टूट जाता है

*

इबादत में अक़ीदत की कसर होगी तो ये समझो

करोगे लाख कोशिश फिर भी रोज़ा टूट जाता है

*

जो तैयारी बिना मैदान में आ पेंच लड़वाओ

उड़ाओगे पतंग ऊँची तो मांजा टूट जाता है

*

अरुण कमजोर कड़ियों पर नजर दुश्मन रखें बचन

रहेगी गर पकड़ कच्ची तो घेरा टूट जाता है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 16 ☆ कविता – अस्तित्व बोध… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता – “अस्तित्व बोध“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 16 ☆

✍ अस्तित्व बोध… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

देह के अस्तित्व की रक्षा के लिए

हमने जंजीरें बनाई और तोड़ी

दीवारें बनाईं और तोड़ी

नानाविध व्यंजन बनाए

शाक सब्जी पेय चुने

पशु पक्षी खाद्य हेतु चुने

औषधि बनाई रस बनाए

पर देह रोग से  बचा न पाए

घर गांव शहर बसाए

तमाम देश बसाए।

 

काम की रक्षा के लिए

विवाह पद्धति बनाई

काम रक्षा न हो पाई

मदिरालय वैश्यालय बनाए

नये नये यौन अपराध बने

पर काम बकरार रहे।

क्रोध रक्षा के लिए

बहुत उपाय किए

मद रक्षा के लिए

लोभ रक्षा के लिए

क्या क्या न किये अनर्थ

अहंकार की रक्षार्थ

तीर तलवार बंदूक बनाई

युद्ध विभीषिका आई

कीट पतंग समान

तमाम देह हुई कुर्बान।

अपने हित में धर्म बनाए

अहित हेतु भी धर्म बनाए

तरह तरह के भवन बनाए

अपने अपने नाम बनाए

अपने गैरों के भेद बनाए

नियम उप नियम विनियम

विधान संविधान ग्रंथ प्रणयन

सब अस्तित्व रक्षा में लगे

पर अस्तित्व न मिला

क्रोध मिला काम मिला

अहंकार मिला

पर अस्तित्व न मिला।

 

देह है देह के अंग हैं

देह का अभिमान है

देह के नाम हैं

भाव हैं विचार हैं

विचार के आयाम हैं

हिंसा है अहिंसा है

अपना है पराया है

प्रेम है घृणा है

मन कहां आत्मा कहां

महसूस करती यहां

एक चेतना  सी है

सत्ता क्या उसी की है,?

उसके ही अस्तित्व की रक्षा

कैसे करे, कौन करे

कौनसी परीक्षा

अस्तित्व रक्षा

पर पहले हो

अस्तित्व बोध।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 66 – दहलीज… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दहलीज।)

☆ लघुकथा # 66 – दहलीज श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“उषा, उषा अरे उषा तुम कहां हो?” अचानक आई आवाज से उषा  सहम गई।

सोचने लगी आज भैया मुझे क्यों इतनी जोर-जोर से आवाज देकर बुला रहे हैं ? आज तक तो ऐसे कभी घबराए हुए देखा नहीं?

“क्या मुझसे कोई गलती हुई है भैया जो आप मुझे बुला रहे हैं ?”

तभी अचानक भैया ने आकर झकझोरा- “तू ठीक है न।”

उसके बड़े भाई अनुराग ने स्वयं को संभालते हुए कहा – “नहीं नहीं कुछ नहीं?”

“सुनो तुम अपना ख्याल रखना और घर से बाहर कोई भी काम हो तो मुझे बताना। मैं तुम्हारे सारे काम कर दूंगा?”

“क्यों भैया? मैं भी तो कर सकती हूं? आज से पहले तो भैया आपने ऐसी बात नहीं की। अचानक आपको  क्या हुआ?”

“तुम तो बड़ी क्लास में आ गई हो और अपनी जिम्मेदारियां को समझ जितना बोल रहा हूं उतना ही सुन कल से तुझे स्कूल भी मैं ही छोडूंगा।”

“भैया क्या मैंने दसवीं पास करके कोई गुनाह कर लिया क्या? कक्षा में सारे लोग मेरे ऊपर हसेंगे।”

“ज्यादा सवाल मत कर तू हम दोनों भाइयों के बीच में एक लाडली बहन है।”

“हां लेकिन भैयाजी छोटे को तो कुछ नहीं बोलते हो मेरे ऊपर क्यों शासन लगा रहे हो?”

“चाचा जी और उनके पड़ोस के लड़कों किसी से भी बात मत करना। उषा तुम छोटी बहन हो लेकिन मेरी बेटी जैसी हो। बाहर की दुनिया तुम नहीं समझोगी।”

अभी अभी बाहर से वह सभी देख कर आ रहा था जो वह  बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।

“आजकल तो ऐसा जमाना आ गया है की तेरी सहेली कविता के साथ क्या हुआ तुझे पता नहीं है आजकल तो घर में भी लोग सुरक्षित नहीं है।”

बाहर जो भी हुआ वह डरावने सपने जैसा उसकी आंखों के सामने बार-बार आ रहा था। दिनदहाड़े बीच बाजार में एक लड़की को सरेआम लूटा गया। वही देखकर उसका मन डर गया था।

“तू अपने घर की दहलीज कभी मत पर करना वह उसे लड़के को चाहती थी । किसी के ऊपर भी विश्वास और भरोसा नहीं करना चाहिए एक बात ध्यान रखना कि घर के बड़ों की बात मानना क्योंकि हम दोनों भाई हैं और हमारे घर में कोई नहीं है तुम्हारे सिवाय और तुम्हें समझाने के लिए । कभी भी अपने घर की दहलीज को मत पार करना।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 267 ☆ अनिकेत… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 267 ?

☆ अनिकेत ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(अल्पाक्षरी)

‘धरणीमाते पोटात घे’

म्हणणाऱ्या साऱ्याच लेकींसाठी

धरणी नाही दुभंगत!

आम्ही ना अरत्र ना परत्र,

आम्हा ना पाताळ,ना साकेत,

आमचं अवघं अस्तित्वच–

अनिकेत!!!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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