हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 135 ☆ अंखियों के झरोखे से – कथाकार ज्ञानरंजन जी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक संस्मरण “अंखियों के झरोखे से – कथाकार ज्ञानरंजन जी”।)  

☆ संस्मरण # 135 ☆ “अंखियों के झरोखे से – कथाकार ज्ञानरंजन जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उन दिनों पहल पत्रिका के संपादक एवं कहानी जगत के जबरदस्त हस्ताक्षर ज्ञान रंजन जी हमारे पड़ोसी थे। कलाई में आज तक घड़ी न पहनने वाले ज्ञान जी समय के बड़े पाबंद, घड़ी भले फेल हो जाए पर वे समय को पकड़ कर चलते हैं।अतिथि सत्कार और अपनेपन का भाव तो कोई उनसे सीखे। बीच बीच में टाइपराइटर में खटर पटर करते फिर लुंगी लपेटकर छत में कूद फांद करने लगते।

एक दिन रात्रि को लगभग दस बजे कुम्हार मोहल्ले की तरफ से बीस बाईस बरस की दो लड़कियां भागती हुईं  सीढ़ी में आ छुपीं, सीढ़ी से लगा हुआ ज्ञान जी के घर का दरवाजा खुलता था, ज्ञान जी हड़बड़ी में बाहर आए, दोनों लड़कियां हाथ जोड़कर रोती हुई बोलीं – साहब हमें बचा लो, कुम्हार मोहल्ले के कुछ लड़के अपहरण कर हमारी इज्जत लूटना चाह रहे हैं। लड़कियों ने बताया कि- वे रिश्तेदारी में हुई गमी में आयीं थी और कुम्हार मोहल्ले होते हुए अपने घरों को लौट रही थीं कि रात्रि का फायदा उठा कर वे हमें पकड़ना चाहते थे इसीलिए यहां घुस आयीं। पुलिस का तो कोई भरोसा था नहीं, वो भी रात के वक्त दो जवान लड़कियों को पुलिस वालों के जिम्मे करना… सो ज्ञान जी ने तुरंत सीढ़ी के ऊपर कमरे नुमा जगह में उन लड़कियों को जाने कहा… ठंड का मौसम था अपने घर से कंबल चादर लाकर उनका ओढ़ने बिछाने का इंतजाम किया और भाभी जी से गरमागरम खाना बनवा कर उन्हें दिया।  रात भर एक पिता की भांति दौड़ दौड़कर गैलरी से सीढ़ी तक नजर गड़ाए जागते रहे।  फिर सुबह चाय पिलाकर उन्हें सुरक्षित घर की तरफ रवाना किया और फिर तैयार होकर कालेज चले गए। वे बड़े साहित्यकार हैं पर मानवता की सेवा उन्होंने रात भर फेंस के इधर और उधर नजरें गड़ाए दो लड़कियों की इज्जत की रक्षा में जी जान लगा दी फिर समय पर कालेज पहुंच गए। रात भर जागे फिर कालेज से लौटकर टाइपराइटर में खटर पटर करते “पहल” के काम में लग गए, कलाई में घड़ी भले नहीं थी पर समय को पकड़ कर लुंगी बांध वे छत पर फिर से कूदा फांदी में लग गए… हम अँखियों के झरोखों से देखते रह गए…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ दीवार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “दीवार” की अंतिम कड़ी।)

☆ आलेख ☆ दीवार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

दीवार शब्द सुन कर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की पुरानी फिल्म में उनके द्वारा किया गया उत्कृष्ट अभिनय की स्मृति मानस पटल पर आ जाती है।

हमारे जैसे यात्राओं के शौकीनों को चीन स्थित विश्व की सबसे बड़ी दीवार देखने की इच्छा प्रबल हो जाती हैं। देश भक्ति का सम्मान करते हुए, मन में विचार आया कि हमारे देश की  सबसे बड़ी दीवार खोजी जाए। भला हो गूगल महराज का उन्होंने ज्ञान दिया की विश्व की दूसरी बड़ी दीवार हमारे राजस्थान में कुंभलगढ़ किले की है। बचपन के मित्र का साथ था तो चल पड़े किले की दीवार फांदने। वैसे दीवार फांदना आईपीसी धारा में गैर कानूनी भी होता हैं।

उदयपुर से करीब नब्बे किलोमीटर दूरी है। ये ही वो पवित्र स्थल है, जहां देश के अभिमान महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। किले का नाम उनके वंश के कुंभल महराज के नाम से है। जिन्होंने बत्तीस किलों का निर्माण किया था। जिस प्रकार बत्तीस दांत जीभ की रक्षा करते है, उन्होंने ऐसा अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए किया था। किले की चढ़ाई सीधी है, और दूरी भी नौ सौ मीटर से अधिक है। रास्ते में सात गेट है, जहां बेंच पर विश्राम कर सकते हैं।

गाइड की व्यवस्था भी है। सात सौ रुपये  शुल्क है। एक परिचित ने कहा था, वहां एक बारह वर्ष की बच्ची पूरी कहानी सुना कर आपके मोबाईल में रिकॉर्ड भी कर देती है। उसको भी प्रेरित कर गाइड के स्थान पर उसकी सेवाएं उपयोग में ली। लड़की ने हम सबको थोड़ी दूर ले जाकर पूरी कहानी सुनाई। जब हमने उससे पूछा की इतना डर क्यों रही हो, तो वो बोली साहब “दीवारों के भी कान होते हैं,” आपने सुना होगा। चूंकि उसके पास गाइड का लाइसेंस नहीं है, इसलिए वो सब के सामने ऐसे कार्य नही कर सकती। दुनियादारी छोड़ मन की दीवारों (मतभेद) को तोड़ कर सुकून से जीवन व्यतीत करें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पनवाड़ी अंतिम भाग) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “पनवाड़ी” की अंतिम कड़ी।)

☆ आलेख ☆ पनवाड़ी (अंतिम भाग) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

समय के बदलाव के साथ ही साथ पनवाड़ियो ने भी अपने रंग ढंग बदल लिए। पहले इस व्यापार में “चौरसिया” लोग ही कार्यरत थे। पान के शौकीन अधिकतर पूर्वी राज्यों तक ही सीमित थे। धीरे धीरे उत्तर और पश्चिम दिशा में भी इसके सेवन करने वालों की संख्या में वृद्धि होती गई।

हमारा परिवार उत्तर भारत के  होने के कारण पान का सेवन नहीं करता था। सत्तर के दशक में शादी विवाह के समय जरूर इसका एक काउंटर लगता था। कॉलेज समय तक इसका स्वाद हमने नही चखा था। पान खाने वाले को “बिगड़ैल” की श्रेणी में गिना जाता था।                               

आज पनवाड़ी माहौल के अनुसार “बीटल” लिखने लग गए हैं। पान की कीमत भी दस रुपे से हज़ार तक में होती हैं। चांदी के वर्क में लिपटा हुआ “बीड़ा” कहीं कहीं सोने के वर्क में भी उपलब्ध करवाया जाता हैं। “पैसा फैंको और तमाशा देखो” बर्फ, आग के शोलों वाला पान और ना जाने कितने नए तरीकों से पान आपकी जिव्हा के स्वाद के लिए परोसा जाता हैं।               

कुछ पान वाले इसलिए भी मशहूर हो जाते हैं कि उनकी दुकान पर पान खाए हुए बड़े मंत्री पद पर आसीन हो गए हैं। उनकी पान खाते हुए की फोटो लगा कर व्यवसाय वृद्धि करते हैं, और पुरानी उधारी का जिक्र भी कर देते हैं। सही भी है, क्या बिना उधारी चुकाए ही बड़ा आदमी बना जा सकता हैं? 👄

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 133 ☆ अच्छा ही हुआ…! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरण “अच्छा ही हुआ…! ”।)  

☆ संस्मरण  # 133 ☆ अच्छा ही हुआ…! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

मेरे व्यंग्य के पहले गुरु आदरणीय हरिशंकर परसाई रहे हैं, बात उन दिनों की है जब आदरणीय श्री प्रताप सोमवंशी (संप्रति -संपादक, हिन्दुस्तान, दिल्ली) के निर्देश पर मैंने स्व हरिशंकर परसाई जी से लम्बा इंटरव्यू लिया था जो इलाहाबाद की पत्रिका ‘कथ्य रूप’ में सोमवंशी जी के संपादन में छपा था। इलाहाबाद की उस पत्रिका में छपने के कुछ साल बाद परसाई जी का निधन हो गया था। इस प्रकार ये इंटरव्यू परसाई के जीवन का अंतिम इंटरव्यू रहा। बाद में परसाई जी के चले जाने के बाद इस इंटरव्यू को साभार हंस पत्रिका ने छापा था। हालांकि, कुछ मित्रों ने मुझ पर व्यंग्य भी किया था, कि आप अभी उनका इंटरव्यू न लेते तो शायद परसाई जी कुछ साल और जी लेते।

कुछ साल बाद भारतीय स्टेट बैंक, राजभाषा विभाग, मुंबई के महाप्रबंधक एवं “प्रयास” पत्रिका के संपादक डॉ सुरेश कांत के निर्देश पर मैंने ख्यातिप्राप्त व्यंग्यकार हरि जोशी जी का भोपाल में इंटरव्यू लिया, जिसको प्रयास पत्रिका में छपने हेतु भेजा। किन्तु, श्री सुरेश कांत जी के मन में उहापोह की हालत बनी रही और उन्होंने इस इंटरव्यू को पेंडिग में डाल दिया जो ‘प्रयास’ पत्रिका में छपने के लिए आज तक पेंडिग में पड़ा है। न तो स्टेट बैंक की प्रयास पत्रिका ने वापस किया और न ही ये छप पाया ।

मैं भी खुश हूँ कि अच्छा हुआ नहीं छपा… नहीं तो खामोंखा मित्र लोग मेरे ऊपर फिर से व्यंग्य करने लगते …..!

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ राजी सेठ : बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ है बाकी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण ☆ राजी सेठ : बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ है बाकी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

राजी सेठ जिनसे बहुत कुछ सीखा और जाना व समझा। सन् 1975 फरवरी माह की बात है। मेरा चयन केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा अहिंदी भाषी लेखकों के लिए लगाये जाने वाले लेखन शिविर में हुआ था और यह शिविर अहमदाबाद में गुजरात विश्विद्यालय में होने जा रहा था। मैं उस समय मात्र तेईस वर्ष का था और छोटे से कस्बे नवांशहर का निवासी। इससे पहले कभी इतनी दूरी की रेल यात्रा नहीं की थी। हां, डाॅ नरेंद्र कोहली से परिचय था और वे दिल्ली रहते थे। बस। उन्हीं के पास पहुंचा और उन्होंने पूछा कि क्या अपनी सीट आरक्षित करवाई है? मैं कहां जानता था इस बारे में? बहुत डांटा मुझे और रेल पर बिठाने छोटे से बेटे को गोदी उठाये खुद गये मेरे साथ। भारतीय रेल का वही दृश्य जो सबने कभी न कभी देखा होगा सामने था। गाड़ी खोजने, प्लेटफॉर्म पर पहुंच कर सीट पाने की मारामारी तक डाॅ नरेंद्र कोहली मेरे साथ भागते दौड़ते रहे और आखिर गाड़ी में बिठा कर जब विदा होने लगे तब तक मुझे एक टीन के कनस्तर पर बैठने की जगह मिल पाई थी और इसी पर पूरे चौबीस घंटे बैठ कर अहमदाबाद पहुंचा था दूसरे दिन सबेरे।

लेखन शिविर के पहले दिन पहले सत्र में हमारी प्रिय विधा के अनुसार तीन विधाओं पर छोटे छोटे समूह बनाये गये -कथा, कविता और नाटक। मैंने कथा समूह चुना। फिर छोटा सा मध्यांतर जलपान का आया। चाय और कुछ खाने के लिए प्लेट में लेकर मैं अलग से खड़ा था कि दो महिलाएं मेरी ओर बढ़ती हुई आईं और सामने खड़ी हो गयीं। ऐनक के पीछे से झांकती आंखों में जिज्ञासा में पूछा -कहां से आए हो?

-पंजाब।

-पंजाबी बोलनी आती है?

-क्यों नहीं? पंजाबी पुत्तर हूं तो आती ही है।

-फेर पंजाबी च बोल भरा।

इस तरह हमारा परिचय जिन महिलाओं से हुआ वे राजी सेठ और उनकी छोटी बहन कमलेश सिंह थीं। वे उन दिनों अहमदाबाद में ही रहती थीं। मैंने पूछा -पंजाबी में ही बात क्यों?

-भरावा इत्थे पंजाबी च गल्ल करन लई तरस जाइदा। ऐसलई। यह कहते कहते अपनी प्लेट में से आलू की एक टिक्की मेरी प्लेट में सरका दी थी। मैंने भी बताया कि अच्छा किया क्योंकि कल रात से यहां का खाना नहीं खा रहा क्योंकि यह बिल्कुल उलट स्वाद वाला है। मीठे की जगह नमक और नमक की जगह मीठा डाल रहे हैं।

-अच्छा एह गल्ल ऐ?

-जी।

-फिर ठीक ऐ। दोपहर दी ब्रेक च खाना साडे घरे?

-रोज?

-की गल्ल? मंजूर नहीं?

-होर की चाहिदा?

इस तरह दोपहर का खाना राजी सेठ के घर हुआ मेरा पूरे सातों दिन। पर उन दिनों ही उनकी पहली कहानी ‘क्योंकर’ कहानी में प्रकाशित हुई थी और लेखिका का नाम था-राजेन् सेठ। यह उनका असली नाम था लेकिन उन्हें पुरूष समझ कर जब खत आने लगे तब उन्होंने नाम बनाया राजी सेठ। फिर इसी नाम से अब तक लिखा और हिंदी साहित्य में उन्हें जाना जा रहा है। वे सात दिन और हमारी कथा विधा की कक्षाएं कभी न भूलने वाले दिन रहे। विष्णु प्रभाकर जी हमारे शिक्षक या कहिए मार्गदर्शक थे। राजी सेठ, कमलेश सिंह और मैं तीनों इसी कक्षा में बैठते। मैंने अपनी एक अप्रकाशित कहानी पढ़ी थी-एक ही हमाम में। जो विष्णु प्रभाकर जी को पसंद आई थी। वे उन दिनों साप्ताहिक हिंदुस्तान में कहानियों का चयन करते थे। शाम को जब उनके साथ विश्विद्यालय में घूम रहा था तब विष्णु जी ने कहा कि यदि इसमें थोड़ा बदलाव कर लो तो मैं इसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में ले लूं। दूसरे दिन दोपहर को राजी सेठ को मैंने यह बात बताई तो उन्होंने सुझाव दिया कि इस लोभ में अपनी कहानी न बदल लेना कि एक बड़े साप्ताहिक में आ जायेगी। यदि बदलाव मन से आए तो करना नहीं तो न करना। मैंने रात भर विचार किया और अपनी कहानी को बार बार पढ़ा तब राजी सेठ का सुझाव अच्छा लगा और मैंने विष्णु जी को कहानी में बदलाव करने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। बाद में वह कहानी रमेश बतरा के संपादन में साहित्य निर्झर के कहानी विशेषांक में आई।

जिस दिन चलने का समय आया उस दिन उनकी सीख थी -कमलेश, बहुत सी बातें हमारी होती रहीं लेकिन आज एक सुझाव दे रही हूं, जिन लोगों के साथ बैठकर मन को खुशी और सुकून न मिले, वे कितने भी बड़े हों, उनके बीच मत बैठना। यह सीख, सुझाव मेरे अब तक बहुत काम आ रहा है। चलते चलते एक प्यारी सी डायरी,पैन और एक नयी नकोर शर्ट भी दी। मैं जल्द ही किनारा कर लेता हूं ऐसे लोगों से जिनके बीच बैठकर सुकून न मिल रहा हो। बहुत बड़ी सीख मिली। वे तब चालीस वर्ष की थीं और मेरा व उनका अंतर सत्रह वर्ष का। वे आज 87 की हो गयी हैं और मैं 70 में आ गया लेकिन वह लम्बा संबंध 47 वर्ष से चलता आ रहा है। विभाजन के बाद कुछ समय राजी सेठ के परिवार ने पंजाब के नकोदर में बिताया था। यह भी उन्होंने मुझे बताया था।

फिर राजी सेठ के पति सेठ साहब का तबादला दिल्ली हो गया और वे मालवीय नगर में आकर किराये के बंगले में रहने लगे। सेठ साहब आयकर विभाग में उच्चाधिकारी रहे हैं। मैं रमेश बतरा के दिल्ली आ जाने के बाद से काफी चक्कर दिल्ली के लगाने लगा। मेरे दो ही ठिकाने होते -टाइम्स ऑफ इंडिया में सारिका का ऑफिस और शाम को मालवीय नगर राजी सेठ के घर। वे अपने घर काम करने वाले पहाड़ी युवक दान सिंह को अपने बेटे की तरह ही मान कर रखे हुई थीं और मुझे पहले दिन ही कह दिया था कि कमलेश, दान सिंह को भूल कर भी हमारे घर का छोटा सा काम करने वाला न कहकर पुकारना। उस दान सिंह को राजी सेठ ने न केवल पढ़ाया लिखाया बल्कि वर्धा के महात्मा गांधी विश्विद्यालय में नौकरी भी लगवा दी। हालांकि दान सिंह की पत्नी और दोनों बेटियां आज भी राजी सेठ के साकेत स्थित बनाये बंगले में उनके साथ रहती हैं और दान सिंह भी वर्धा से आता जाता रहता है। दोनों बेटियां राजी सेठ को दादी ही कहती हैं और दान सिंह की पत्नी मुझे भैया पुकारती है। जब ये बच्चियां छोटी थीं तब राजी सेठ शाम के समय इन्हें घुमा लाने को कहतीं और वे भी शाम को घूम कर खुश हो जातीं। मुझे ऐसा लगता है कि ‘धर्मयुग’ में प्रकशित कहानी ‘गलत होता पंचतंत्र’ का नायक दान सिंह ही है। पर कभी कहा नहीं। मन ही मन समझ गया।

फिर राजी सेठ ने उपन्यास ‘तत्सम’ लिखना शुरू किया। उन दिनों जब भी घर गया तब टाइप पन्ने मुझे देकर कहतीं कि इन्हें पढ़ कर बताओ कि कैसे चल रहा है? इस तरह मैंने वह चर्चित उपन्यास टाइप होते ही पढ़ने की खुशी पाई। वे एक एक पंक्ति और एक एक शब्द पर कितना ध्यान देती थीं, यह जाना। जब तक किसी शब्द से संतुष्ट न हो जातीं तब तक काम अटका रहता। यह उपन्यास भी उन्होंने अपनी एक निकट संबंधी के जीवन से बीज रूप में लिया था जिसके पति की असमय मृत्यु हो गयी थी और राजी सेठ ने संदेश दिया है कि यदि हमारे घर की दहलीज किसी आग में जल कर खराब हो जाये तो बदल लेनी चाहिए। ऐसे ही यह जीवन यदि किसी एक घटना से दूभर बन रहा हो तो बदल लेना चाहिए यानी दूसरी शादी, नयी जिंदगी शुरू कर लेने का संदेश दिया है इस उपन्यास में। यानी तत्सम क्यों? वैसे का वैसा जीवन क्यों जीते चले जाओ? इसे बदलो। वे यह भी मानती हैं कि हर स्त्री का आर्थिक आधार होना चाहिए यानी नौकरी लेकिन सोच इससे भी ऊपर होनी चाहिए।

राजी सेठ ने दर्शन शास्त्र में एम ए की है और वे सचमुच दार्शनिक ही हैं। देखने, समझने और व्यवहार में। शांत सा चेहरा और दूसरे का सम्मान करना कोई इनसे सीखे। नंगे पांव खड़े रहकर मेहमान को खाना खिलाना और साहित्य की बातें करते रहना। फोन पर भी लम्बी बातें। दिल्ली आकर उन्हें प्रसिद्ध लेखक अज्ञेय जी का सहयोग व मार्गदर्शन मिला जिससे वे हिदी साहित्य में अपने परिश्रम व लेखन से स्थान बनाने में सफल रहीं। मेरी दो कहानियां भी इनके सहयोग से अज्ञेय जी द्वारा संपादित पत्रिका -‘नया प्रतीक’ पत्रिका में आईं और चर्चित रहीं। मेरे प्रथम कथा संग्रह ‘महक से ऊपर’ के प्रकाशन का सारा श्रेय उनको ही जाता है। मैं तो डाॅ महीप सिंह से संग्रह को प्रकाशन से पहले कभी मिला भी न था लेकिन सब किया राजी सेठ ने। इस तरह मेरे प्रथम कथा संग्रह की प्रेरक भी राजी सेठ ही रहीं। वे अपनी हर पुस्तक प्रकाशक से मुझे भिजवाती रहीं। मैं भी उनको अपनी हर पुस्तक भेजता हूं। उनका बेटा राहुल तब सिर्फ दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था, फिर वह अमेरिका गया। अब दिल्ली में ही मां पापा के साथ आ गया है और बन गया है लेखक राहुल सेठ। राहुल ने अपनी मां राजी सेठ की कहानी ‘तुम भी’ का नाट्य रूपांतर भी किया है और अपनी पुस्तक मां की तरह ही भेजी। सेठ साहब कहा करते हैं कि मैंने ज्यादा से ज्यादा समय राजी को लिखने के लिए दिया, खाना पकाने में समय लगाने से भरसक बचाये रखा क्योंकि वे खाना बनाने से बहुत बड़ा काम कर रही हैं लेखन का। हर स्त्री लेखन नहीं कर सकती और हर लेखिका को सेठ साहब नहीं मिलते। परिवार ने पूरा साथ दिया। छोटी बहन कमलेश सिंह का कहानी संग्रह भी राजी सेठ ने ही प्रकाशित करवाया। मेरी डाॅ इंद्रनाथ मदान वाली इंटरव्यू भी एक पत्रिका शायद ‘साक्षी’ में प्रकाशित की, जिसका वे अपने गुरु डाॅ देवराज के साथ सहसंपादन करती थीं। अपने समय का कैसे सदुपयोग करना है, शब्दों का कैसे चयन करना है, कृति को कैसे धैर्य के साथ संपन्न करना है और जब तक संतुष्टि न हो तब तक उस पर काम करते जाना है यह बिल्कुल करीब से जाना समझा है मैंने। राजी सेठ और उनका परिवार मुझे लघुकथा लेखन के चलते ‘लघुकुमार’ ही पुकारता है। इतनी चिट्ठियां लिख लिख कर मुझे समझाती रहती थीं जिंदगी और साहित्य के बारे में कि काश वे चिट्ठियां संजो कर रखी होतीं तो आज एक पुस्तक आ जाती। कभी कभार पुराने खतों में कोई खत मिल जाता है। बेटी रश्मि के विवाह पर शगुन का लिफाफा मिला तो उनके प्यार से आंखें भर आईं। नये लेखकों को पढ़ना और अपनी ओर से कुछ सलाह देना यह निरंतर जारी रहा। रमेश बतरा के संपादन में साहित्य निर्झर के लिए कहानी मंगवाई थी।

अभी दो साल पहले सपरिवार दिल्ली साकेत स्थित घर गया था तब वे अस्वस्थ जरूर थीं लेकिन वही गर्मजोशी, वही प्यार और वही आशीष। बहू बेटे, सेठ साहब सबको खाने की मेज पर बुलाया और कहा कि देखो, मेरा भरा केशी मिलने आया है। और बड़े लाड चाव से कहा कि मेरा केशी इतना बड़ा लेखक बन गया है। बहू उज्ज्वला से पहली बार ही मुलाकात हुई। चलते चलते एक लालटेन दी जो बिजली से रोशन कर सकती थी लेकिन सोचता हूं कि राजी सेठ सदैव मुझे जीवन, व्यवहार और साहित्य की रोशनी देती आ रही हैं। जब पंजाब सरकार की शिरोमणि साहित्यकार का पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो फोन लगाया और बोलीं कि बस। इसमें क्या, मैं तो लेखिका हूं और रहूंगी। ज्यादा सुनाई भी नहीं देता आजकल। या तो राहुल या फिर दान सिंह की पत्नी ही बताती हैं कि कमलेश भैया हैं फोन पर। तब वे उन्हें कुछ जवाब बताती हैं और इस तरह बातचीत चलती है हमारी। एक बार वे मुझे मन्नू भंडारी से मिलाने भी ले गयी थीं और दैनिक ट्रिब्यून के लिए उनका इंटरव्यू भी करवाया था। इसी तरह चंडीगढ़ आई थीं योजना रावत के कथा संग्रह के विमोचन पर तब गया था पंजाब विश्वविद्यालय में मिलने तब भी अपना इंटरव्यू न करवा कर निर्मला जैन का इंटरव्यू करवाया। अपने प्रचार से सदैव दूर रहीं। दूसरों के बारे में ज्यादा सजग और प्रेमभरी, प्रेममयी रहीं। अब क्या क्या याद करूं और क्या क्या भूलूं? बस। दीर्घायु हों और आशीष बना रहे। स्नेह बना रहे।

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 132 ☆ चिंता और चिंतन… ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरण “चिंता और चिंतन… ”।)  

☆ संस्मरण  # 132 ☆ चिंता और चिंतन… ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

गांव का खपरैल स्कूल है, सभी बच्चे टाटपट्टी बिछा कर पढ़ने बैठते हैं। फर्श गोबर से बच्चे लीप लेते हैं, फिर सूख जाने पर टाट पट्टी बिछा के पढ़ने बैठ जाते हैं।

मास्टर जी छड़ी रखते हैं और टूटी कुर्सी में बैठ कर खैनी से तम्बाकू में चूना रगड़ रगड़ के नाक मे ऊंगली डालके छींक मारते हैं फिर फटे झोले से सलेट निकाल लेते हैं। बड़े पंडित जी जैसई पंहुचे सब बच्चे खड़े होकर पंडित जी को प्रणाम करते हैं। हम सब ये सब कुछ दूर से खड़े खड़े देख रहे हैं। पिता जी हाथ पकड़ के बड़े पंडित जी के सामने ले जाते हैं। पहली कक्षा में नाम लिखाने पिताजी हमें लाए हैं। अम्मा ने आते समय कहा उमर पांच साल बताना, सो हमने कह दिया  पाँच साल… 

बड़े पंडित जी कड़क स्वाभाव के हैं, पिता जी उनको दुर्गा पंडित जी कहते हैं। दुर्गा पंडित जी ने बोला पाँच साल में तो नाम नहीं लिखेंगे। फिर उन्होंने सिर के उपर से हाथ डालकर उल्टा कान पकड़ने को कहा। कान पकड़ में नहीं आया, तो कहने लगे हमारा उसूल है कि हम सात साल में ही नाम लिखते हैं, सो दो साल बढ़ा के नाम लिख दिया गया। पहले दिन स्कूल देर से पहुँचेतो घुटने टिका दिया गया, सलेट नहीं लाए तो गुड्डी तनवा दी , गुड्डी तने देर हुई तो नाक टपकी। मास्टर जी ने खैनी निकाल कर चैतन्य चूर्ण दबाई फिर छड़ी की और हमारी ओर देखा।

बस यहीं से जीवन अच्छे रास्ते पर चल पड़ा। अपने आप चली आयी नियमितता,अनुशासन की लहर, पढ़ने का जुनून, कुछ बन जाने की ललक। पहले दिन गांधी को पढ़ा, कई दिन बाद परसाई जी का “टार्च बेचने वाला” पढ़ा, फिर पढ़ते रहे और पढ़ते ही गए … 

आज अखबार में पढ़ते हैं, मास्टर जी ने बच्चे का कान पकड़ लिया तो हंगामा हो गया… स्कूल का बालक मेडम को लेकर भाग गया… स्कूल के दो बच्चों के बीच झगड़े में छुरा चला … स्कूल के मास्टर ने ट्यूसन के दौरान बेटी की इज्जत लूटी … और न जाने क्या … क्या … !

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मोबाइल है, या मुसीबत – भाग – 3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “मोबाइल है, या मुसीबत” की अगली कड़ी। )

☆ आलेख ☆ मोबाइल है, या मुसीबत  – भाग – 3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

दिल्ली से वापसी के लिए हम स्टेशन पर स्थित आरक्षण काउंटर पर पहुंचे वहां एक दम pin drop silent जैसा माहौल था। जब फार्म मांगा तो उसने ऐसे देखा जैसे बैंक में आज कोई ड्राफ्ट बनवाने का फार्म मांगता है। काउंटर वाले बाबूजी भी कान से डोरी निकालते हुए बोले, क्यों मोबाइल नहीं है क्या ? जब पूरी दुनिया नेट से टिकट निकाल रही है, आप तो बाबा आदम के जमाने के लगते हो। हमने उससे झूठ बोलते हुए कहा अभी ट्रेन में चोरी हो गया है। फॉर्म के साथ हमने पांच सौ का नया कड़क नोट भी दिया, बोला छुट्टे 485 दो, अभी बोहनी कर रहा हूं। दिन के बारह बज रहे थे, चार घंटे से काउंटर चालू है। खैर हमने भी उसको सौ के चार और दस के नौ नोट दिए और बोला पांच आप दे दो। वो तुरंत बोला बैंक में कैशियर थे, भुगतान हमेशा सौ और दस के नोट से करने की आदत रही होगी। टिकट लेकर और बिना पांच वापिस लिए हम ऑटो स्टैंड पहुंच गए।              

कुछ वर्ष पूर्व तो ऑटो वाले लपक कर सूटकेस आदि झपट कर ऑटो तक ले जाते थे। उस समय रईस टाइप की फीलिंग आती थी। इस बार ऑटो वाला अपने ऑटो में शांत और कान में डोरी डाल कर बैठे है, कहीं हड़ताल तो नही है ना ? पेट्रोल के बढ़ते दामों के कारण। एक ऑटो वाले को हमने अपने गंतव्य स्थान के लिए कहा तो कान से डोरी निकाल कर सुस्ताते हुए गुस्से से उसने कहा पीछे बैठ जाओ। फिर उसने हमारे ब्रीफकेस को चेन से बांध कर lock लगा दिया। हमने जिज्ञासा से पूछा ये ताला क्यो तो वो बोला अभी आप भी अपने मोबाइल में मग्न हो जायेंगे तो उठाईगीर कई बार सामान उठा कर भाग जाते है, और कभी कभी सवारी भी ट्रैफिक जाम में तेजी से बढ़ते मीटर को देखकर भी ऑटो धीरे होने पर बिना पैसे दिए नो दो ग्यारह हो जाती है। इसलिए अपनी पेमेंट को भी सुरक्षित कर लेते है।

जब अपने रिश्तेदार के यहां पहुंचे तो वहां  अकेला पुत्र  ही था। तीन चार बार घंटी बजाने पर भी दरवाज़े नहीं खुला तो हमने अपने दिमाग के घोड़े दौड़ा कर, बंद मोबाइल को चालू किया और उसको घंटी दी, तब दरवाज़ा खुला तो बोला अंकल मैं मोबाइल पर music सुन रहा था, एकदम latest है, ” Amy winehouse – Back to Black”। लाइए, आप के मोबाइल में भी down load कर देता हूं। ना कोई दुआ ना सलाम, सच में मोबाइल है या मुसीबत ❓ 📱

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 131 ☆ जलेबी वाले जीजा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अविस्मरणीय संस्मरण “जलेबी वाले जीजा”।)  

☆ संस्मरण  # 131 ☆ जलेबी वाले जीजा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

हम पदोन्नति पाकर जब बिलासपुर आए तो हमारे बचपन के खास मित्र मदन मोहन अग्रवाल  ने बताया कि जीजा बिलासपुर में रहते हैं, गोलबाजार की दुकान में बैठते हैं और लिंक रोड की एक कालोनी में रहते हैं, बिलासपुर नये नये गए थे तो बैंक की नौकरी के बाद कोई बहाना ढूंढकर गोलबाजार की दुकान जीजा से मिलने पहुंच जाते,

जीजा शुरु शुरु में डरे कि कहीं ये आदमी उधार – सुधार न मांगने लगे तो शुरु में लिफ्ट नहीं दी। फिर जब देखा कोई खतरा नहीं है तो एक दिन घर बुला लिया। बिलासपुर के बिनोवा नगर मे हम अकेले रहते तो कभी कभी बोरियत लगती पर जीजा से बार बार मिलने में संकोच होता कि उनके व्यापार में डिस्टर्ब न होवे तो कई बार गोलबाजार के चक्कर लगा के लौट जाते। हांलाकि उन दिनों बिलासपुर छोटा और अपनापन लिए धूल भरा छोटा शहर जैसा था,और जबलपुर के छोटे भाई जैसा लगता था। गोलबाजार की उनकी मिठाई की दुकान बड़ी फेमस थी।  हम मिष्ठान प्रेमी भी थे मिठाईयों से उठती सुगंधित हवा सूंघने का आनंद लेते पर जीजा कभी कोई मिठाई को नहीं पूछते। कई बार लगता कहीं बड़े कंजूस तो नहीं हैं। जब छुट्टी में जबलपुर लौटते तो मित्र मदन गोपाल से टोह लेते तो पता चलता कि जीजा बड़े दिलेर हैं, जब भांवर पड़ रहीं थी तो दिद्दी की सहेली को लेकर भागने वाले थे। हम जब बिलासपुर लौटे तो इस बार मिठाइयों को देख देख जीजा की खूब तारीफ की, पर वे हंसी ठिठोली करने में माहिर, काहे को पिघलें, हमनें भी एक दिन गरमागरम जलेबी का आदेश दिया और बाहर खड़े होकर खाने लगे पर हाय रे जीजा,,  देखकर भी अनजान बन गए। जब पैसा देने गए तो मुस्कराते हुए हालचाल पूछा और बोले मिठाई कम खाना चाहिए …

* आज 24 साल बाद जब रिपोर्ट में बढ़ी हुई शुगर दिखाई दी तो लगा जीजा ठीक ही कहते थे। अब समझ में आया कि जीजा समझदार इंसान हैं तभी तो आत्मकथा की तीन चर्चित किताबें लिख डालीं। उनकी किताब जीवन से साक्षात्कार कराती है चलचित्र की तरह जीवन के अबूझ रहस्यों से सामना करने का हौसला देती है। 

© जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मोबाइल है, या मुसीबत – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “मोबाइल है, या मुसीबतकी अगली कड़ी। )

☆ आलेख ☆ मोबाइल है, या मुसीबत  – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत दिनों करीब दो वर्ष के पश्चात भारतीय रेल से दिल्ली की यात्रा की। मोबाइल से अग्रिम टिकट करवाना भूल चुके हैं, IRCTC का ID आदि भी मेमोरी से डिलीट हो गए है। विचार किया स्टेशन पर पहुंच कर टिकट लेकर बैठ जायेंगे। पांच घंटे की तो यात्रा है, Covid के कारण ट्रेन भी खाली ही चल रहीं होंगी, परंतु जब स्टेशन पहुंचे तो पता चला no room है। मरता क्या ना करता, साधारण टिकट लेकर बिना रिजर्वेशन वाले कोच में प्रवेश किया तो देखकर आश्चर्यचकित हो गए। एकदम शमशान भूमि जैसी शांति, कोई चिल्ल-पों नहीं हो रही। एक बैठे हुए यात्री से पूछा ये कौन सी क्लास का डिब्बा है। तो वो कान से यंत्र को निकलते हुए बोला, “जो हर क्लास में फेल हो वो यहां आ जाते हैं। हम समझ गए सही जगह आए हैं।”

सब अपने अपने मोबाइल में कुछ देख रहे थे या सुन रहे थे, बाकी के बोल रहे थे। कोई राजनैतिक, व्यवस्था विरोधी या सामाजिक चर्चा नहीं कर रहा था। नौकरी के दिन याद आ गए जब फर्स्ट क्लास में यात्रा करते थे तो सभी अंग्रेजी पेपर से अपना चेहरा छुपाकर बैठे रहते थे। Excuse me जैसा शब्द हमने वहीं पर सुना था। हमने अपना मोबाइल बंद करके रख दिया था, क्योंकि उसकी बैटरी  अधिकतम तीस मिनट ही चल पाती थी। उसके बाद उसे वेंटीलेटर पर लेना पड़ता था। स्टेशन पर कोई पेपर /पत्रिका बेचने वाला भी नहीं दिखा था, हां चार्जिंग पॉइंट पर लंबी लाइन लगी हुई थी। लाइन में लगे एक व्यक्ति से पूछा – “आपको कौन सी गाड़ी में जाना है?” तो वो बोला “पहले मोबाइल चार्ज हो जाए, फिर उसके बाद किसी भी गाड़ी से चले जाएंगे।”

दिल्ली के सराय रोहिल्ला स्टेशन पर उतर कर हमेशा की तरह हम पंडित चाय वाले के यहां गए, तो पंडितजी नहीं दिख रहे थे। एक युवा जो कि कान में यंत्र लगा कर चाय बना रहा था ने इशारा किया। हमने “एक कट फीकी चाय” बोला तो उसके समझ में नहीं आया, झुंझलाते हुए उसने कान से wire निकालकर हमको ऐसे घूर कर निहारा जैसे हमसे कोई बड़ी गलती हो गई हो। वो बोला “उधर बेंच में बैठ जाओ, आपकी बारी आएगी तो बताना।” मैंने पूछा “पंडितजी नहीं दिख रहे?” तो उसने एक माला पहनी हुई फोटो दिखाई और बोला “वो covid में सरक गए।” पहले समय में पंडितजी पूछते थे “कचोरी गर्म है, चाय के साथ लोगे या बाद में” अब वो युवा तो कानों में यंत्र डाल कर संगीत की दुनिया के मज़े ले रहा था। हमने भी अपनी फीकी चाय पी और चल पड़े ! युवक अभी भी अपनी मोबाइल की दुनिया में खोया हुआ था और उसको  पैसे लेने की भी याद नहीं थी। शायद इसी को “मोबाइल में मग्न” होना कहते है।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संसमरण # 130 ☆ परसाई के रुप राम ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अविस्मरणीय संस्मरण “परसाई के रुप राम ”।)  

☆ संस्मरण  # 130 ☆ परसाई के रुप राम ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जबलपुर के बस स्टैंड के बाहर पवार होटल के बाजू में बड़ी पुरानी पान की दुकान है।

रैकवार समाज के प्रदेश अध्यक्ष “रूप राम” मुस्कुराहट के साथ पान लगाकर परसाई जी को पान खिलाते थे। परसाई जी का लकड़ी की बैंच में वहां दरबार लगता था। इस अड्डे में बड़े बड़े साहित्यकार पत्रकार इकठ्ठे होते थे साथ में पाटन वाले चिरुव महराज भी बैठते। वही चिरुव महराज जो जवाहरलाल नेहरू के विरुद्ध चुनाव लड़ते थे। बाजू में उनकी चाय की दुकान थी। मस्त मौला थे।

आज उस पान की दुकान में पान खाते हुए परसाई याद आये, रुप राम याद आये और चिरुव महराज याद आये। पान दुकान में रुप राम की तस्वीर लगी थी, परसाई जी रुप राम रैकवार को बहुत चाहते थे। उनकी कई रचनाओं में पान की दुकान, रुप राम और चिरुव महराज का जिक्र आया है।

अब सब बदल गया है। बस स्टैंड उठकर दूर दीनदयाल चौक के पास चला गया। परसाई नहीं रहे और नहीं रहे रुप राम और चिरुव महराज…। पान की दुकान चल रही है रुप राम का नाती बैठता है। बाजू में पुलिस चौकी चल रही है। पवार होटल भी चल रही है। चिरुव महराज की चाय की होटल बहुत पहले बंद हो गई थी एवं वो पुराने जमाने का बंद किवाड़ और सांकल भी वहीं है और रुप राम तस्वीर से पान खाने वालों को देखते रहते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

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