हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 345 ☆ लघुकथा – “वॉइस नोट…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 345 ☆

?  लघु कथा – वॉइस नोट…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

बेटे बहू दुबई में बड़े पद पर काम करते हैं, रमेश जी  उनके पास कुछ समय के लिए चले आया करते हैं। आज उनका वीजा समाप्त हो रहा था, उन्हें वापस दिल्ली लौटना पड़ेगा ।

रमेश जी के जागने से पहले ही बच्चे ऑफिस जा चुके थे। उन्होंने अपना बैग संभाला , तो केयर टेकर शांति दीदी दरवाजे पर एक थैले में टिफिन, पानी की बोतल और दवाइयों की छोटी डिब्बी लिए खड़ी थीं । रमेश जी बोले अरे यह रहने दो, मुझे फ्लाइट में ही खाने को कुछ मिलेगा ।

शांति ने कुछ कहा नहीं, उसने अपना मोबाइल चालू किया और एक वाइस नोट सुना दिया , शांति दीदी! वॉइस नोट में बहू की आवाज़ थी, “आज पापा दिल्ली वापस जा रहे हैं। वो मना करेंगे टिफिन ले जाने से, लेकिन आप उनकी मत सुनना। टिफिन पैक कर देना। दवाई और पानी भी साथ रख देना।”

रमेश जी चुपचाप बच्चे की तरह टिफिन तो लिया ही, साथ ही शांति के मोबाइल से वह वाइस नोट भी खुद को फॉरवर्ड कर लिया ।

दिल्ली में सुबह की चाय के साथ अपने कमरे में बैठे वे बारम्बार मोबाइल पर वही वाइस नोट  सुन रहे थे । उनके चेहरे पर न दिखने वाली खामोश मुस्कान थी, और आँखों में नमी। वे रॉकिंग चेयर पर  टिक गए। फिर से मोबाइल वही वाइस नोट दोहरा रहा था।

बहू से उनकी  ज़्यादा बातें नहीं हो पातीं थी। वह ऑफिस में बड़े जिम्मेदारी के पद पर थी। लेकिन उन्हें एहसास हुआ कि उसकी अनबोली खामोशी में भी कितना अपनापन और फिक्र छुपी होती है।

वह वॉइस नोट सिर्फ शब्द नहीं थे , उसमें परिवार की धड़कन थी ।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सपना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सपना ? ?

बहुत छोटा था जब एक शाम माँ ने उसे फुटपाथ के एक साफ कोने पर बिठाकर उसके सामने एक कटोरा रख दिया था। फिर वह भीख माँगने चली गई। रात हो चली थी। माँ अब तक लौटी नहीं थी। भूख से बिलबिलाता भगवान से रोटी की गुहार लगाता वह सो गया। उसने सपना देखा। सपने में एक सुंदर चेहरा उसे रोटी खिला रहा था। नींद खुली तो पास में एक थैली रखी थी। थैली में रोटी, पाव, सब्जी और खाने की कुछ और चीज़ें थीं। सपना सच हो गया था।

उस रोज फिर ऐसा ही कुछ हुआ था। उस रोज पेट तो भरा हुआ था पर ठंड बहुत लग रही थी। ऊँघता हुआ वह घुटनों के बीच हाथ डालकर सो गया। ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे ओढ़ने के लिए कुछ मिल जाए। सपने में देखा कि वही  चेहरा उसे कंबल ओढ़ा रहा था। सुबह उठा तो सचमुच कंबल में लिपटा हुआ था वह। सपना सच हो गया था।

अब जवान हो चुका वह। नशा, आलस्य, दारू सबकी लत है। उसकी जवान देह के चलते अब उसे भीख नहीं के बराबर मिलती है। उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं बची है। एकाएक उसे बचपन का फॉर्मूला याद आया। उसने भगवान से रुपयों की याचना की। याचना करते-करते सो गया वह। सपने में देखा कि एक जाना-पहचाना चेहरे उसके हाथ में कुछ रुपये रख रहा है। आधे सपने में ही उठकर बैठ गया वह। कहीं कुछ नहीं था। निराश हुआ वह।

अगली रात फिर वही प्रार्थना, फिर परिचित चेहरे का रुपये हाथ में देने का सपना, फिर हड़बड़ाहट में उठ बैठना, फिर निराशा।

तीसरी रात असफल सपने को झेलने के बाद भोर अँधेरे उठकर चल पड़ा वह शहर के उस चौराहे की तरफ जहाँ दिहाड़ी के लिए मज़दूर खड़े रहते हैं।

आज जीवन की पहली दिहाड़ी मिली थी उसे। रात को सपने में उसने पहली बार उस परिचित चेहरे में अपना चेहरा पहचान लिया था।

सुनते हैं, इसके बाद उसका हर सपना सच हुआ।

?

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 5.21 बजे, 18.7.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 66 – दहलीज… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दहलीज।)

☆ लघुकथा # 66 – दहलीज श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“उषा, उषा अरे उषा तुम कहां हो?” अचानक आई आवाज से उषा  सहम गई।

सोचने लगी आज भैया मुझे क्यों इतनी जोर-जोर से आवाज देकर बुला रहे हैं ? आज तक तो ऐसे कभी घबराए हुए देखा नहीं?

“क्या मुझसे कोई गलती हुई है भैया जो आप मुझे बुला रहे हैं ?”

तभी अचानक भैया ने आकर झकझोरा- “तू ठीक है न।”

उसके बड़े भाई अनुराग ने स्वयं को संभालते हुए कहा – “नहीं नहीं कुछ नहीं?”

“सुनो तुम अपना ख्याल रखना और घर से बाहर कोई भी काम हो तो मुझे बताना। मैं तुम्हारे सारे काम कर दूंगा?”

“क्यों भैया? मैं भी तो कर सकती हूं? आज से पहले तो भैया आपने ऐसी बात नहीं की। अचानक आपको  क्या हुआ?”

“तुम तो बड़ी क्लास में आ गई हो और अपनी जिम्मेदारियां को समझ जितना बोल रहा हूं उतना ही सुन कल से तुझे स्कूल भी मैं ही छोडूंगा।”

“भैया क्या मैंने दसवीं पास करके कोई गुनाह कर लिया क्या? कक्षा में सारे लोग मेरे ऊपर हसेंगे।”

“ज्यादा सवाल मत कर तू हम दोनों भाइयों के बीच में एक लाडली बहन है।”

“हां लेकिन भैयाजी छोटे को तो कुछ नहीं बोलते हो मेरे ऊपर क्यों शासन लगा रहे हो?”

“चाचा जी और उनके पड़ोस के लड़कों किसी से भी बात मत करना। उषा तुम छोटी बहन हो लेकिन मेरी बेटी जैसी हो। बाहर की दुनिया तुम नहीं समझोगी।”

अभी अभी बाहर से वह सभी देख कर आ रहा था जो वह  बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।

“आजकल तो ऐसा जमाना आ गया है की तेरी सहेली कविता के साथ क्या हुआ तुझे पता नहीं है आजकल तो घर में भी लोग सुरक्षित नहीं है।”

बाहर जो भी हुआ वह डरावने सपने जैसा उसकी आंखों के सामने बार-बार आ रहा था। दिनदहाड़े बीच बाजार में एक लड़की को सरेआम लूटा गया। वही देखकर उसका मन डर गया था।

“तू अपने घर की दहलीज कभी मत पर करना वह उसे लड़के को चाहती थी । किसी के ऊपर भी विश्वास और भरोसा नहीं करना चाहिए एक बात ध्यान रखना कि घर के बड़ों की बात मानना क्योंकि हम दोनों भाई हैं और हमारे घर में कोई नहीं है तुम्हारे सिवाय और तुम्हें समझाने के लिए । कभी भी अपने घर की दहलीज को मत पार करना।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 223 – लघुकथा – मौन रामलला ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा मौन रामलला”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 223 ☆

🌻लघु कथा🌻 🛕 मौन रामलला🛕

बरसों से अस्पताल के चक्कर महंगे ईलाज, गाँव का झाड़ फूँक, जगह-जगह  देवी देवताओं की मन्नत, करते-करते वह थक चुकी थी।

शायद उसके आँसू और हृदय की वेदना को समझने के लिए, अभी रामलला मौन है। यही कहकर सविता अपने आप को धीरज बाँधती थी।

भरा- पूरा परिवार, परिवार के ताने और शायद बच्चें की किलकारी के लिए तरसती सविता। वेदना से भरी।

पतिदेव की सांत्वना सब कुछ समय आने पर ठीक होगा। हजारों की संख्या में मंदिर में आज भक्त भगवान श्री रामनवमी का महोत्सव मना रहे थे। पूजा की थाल लिए पीछे खड़ी सविता अखियाँ बंद परंतु अश्रुं की धार अविरल बह रही थी। इतनी भीड़ में भी वह अकेली शायद प्रभु भी नहीं, मौन सिर्फ मौन।

थककर वह बैठ गई। अब तो दर्शन की चाहत भी नहीं, बस समय को जाते हुए देख रही थी। अचानक दस वर्ष का बालक सविता के आँखों को पोछते गले में बाहें डाल कहने लगा— माँ जल्दी दर्शन करो रामलला दिखने लगे। वह आवाज चारों तरफ देखने लगी। आश्चर्य से न जाने कहाँ से यह बच्चा इतनी भीड़ में आ गया। पीछे पतिदेव कंधे पर हाथ रख मुस्कुराते कहने लगे सविता यह तुम्हारा मौन रामलला।

बस स्वागत करो। सविता को समझते देर ना लगी। आज पतिदेव ने जो कर दिखाया। प्रभु राम को हाथ जोड़ थाली में रखा पुष्प हार पतिदेव को पहना, माथे तिलक लगा चरणों पर गिर पड़ी।

बस एक ही शब्द निकला – – –

मेरे रामलला, मौन भी एक कला। 🛕🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – लघुकथा – संस्मरण… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– संस्मरण… –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — संस्मरण…  — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

विश्व लेखक थामस के अद्भुत संस्मरणों की चार खंडीय नवीनतम कृति को विश्व पुरस्कार प्राप्त हो रहा था। पर कृति में उसका अपना एक भी संस्मरण नहीं था। उसने तमाम अनगढ़ लोगों से उनके संस्मरण पूछ कर अपने नाम से लिखे थे। उसने कहा उसके अपने संस्मरण न हो से वह पुरस्कार छोड़ रहा है। अपने इस सच के लिए थामस को एक विशेष पुरस्कार मिला। पुरस्कार में पैसा होने से उसने उन लोगों में बाँट दिया जिनके संस्मरण थे।

 © श्री रामदेव धुरंधर

17 – 03 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “यह घर किसका है ?” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “यह घर किसका है ?” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

अपनी धरती, अपने लोग थे। यहां तक कि बरसों पहले छूटा हुआ घर भी वही था। वह औरत बड़ी हसरत से अपने पुरखों के मकान को देख रही थी। ईंट ईंट को, ज़र्रे ज़र्रे को आंखों ही आंखों में चूम रही थी। दुआएं मांग रही थी कि पुरखों का घर इसी तरह सीना ताने, सिर उठाये, शान से खड़ा रहे।

उसके ज़हन में घर का नक्शा एक प्रकार से खुदा हुआ था। बरसों की धूल भी उस नक्शे पर जम नहीं पाई थी। कदम कदम रखते रखते जैसे वह बरसों पहले के हालात में पहुंच गयी। यहां बच्चे किलकारियां भरते थे। किलकारियों की आवाज साफ सुनाई देने लगीं। वह भी मुस्करा दी। फिर एकाएक चीख पुकार मच उठी। जन्नत जैसा घर जहन्नुम में बदल गया। परेशान हाल औरत ने अपने कानों पर हाथ धर लिए और आसमान की ओर मुंह उठा कर बोली- “या अल्लाह रहम कर। साथ खड़ी घर की औरत ने सहम कर पूछा- क्या हुआ ?”

– “कुछ नहीं।”

– “कुछ तो है। आप फरमाइए।”

– “इस घर से बंटवारे की बदबू फिर उठ रही है। कहीं फिर नफरत की आग सुलग रही है। अफवाहों का धुआं छाया हुआ है। कभी यह घर मेरा था। एक मुसलमान औरत का। आज तुम्हारा है। कल … कल यह घर किसका होगा? इस घर में कभी हिंदू रहते हैं तो कभी मुसलमान। अंधेर साईं का, कहर खुदा का। इस घर में इंसान कब बसेंगे ???”

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – चाबी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय लघुकथा चाबी)

☆ लघुकथा – चाबी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

बरसों बाद घर का मालिक घर लौटा था। घर की इमारत खंडहर में तब्दील हो गई थी। द्वार जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था, द्वार पर लटका ज़ंग खाया ताला बूढ़ा हो चला था। इस ताले ने बरसों अपनी बेटी चाबी के लौट आने का इन्तज़ार किया था। उसे वह क्षण कभी नहीं भूला, जब घर का मालिक उसे द्वार पर लटका, चाबी को जेब में डालकर चला गया था। लंबे इन्तज़ार के बाद ताले को लगने लगा था कि उसकी चाबी सामान की भीड़ में कहीं खो गई होगी, जैसे कोई बच्ची मेले में खो जाती है। अवसाद में डूबा ताला चाबी से मिलने की आशा छोड़ चुका था। घर के मालिक ने चाबी को दाएँ हाथ की उँगलियों में थामा।

उत्कंठित चाबी चिल्लाई – मैं आ गई हूँ मेरे प्यारे पिता!

मालिक ने बाएँ हाथ में ताले को थामा कि दाएँ हाथ में थामी चाबी से उसे खोल सके। हाथ लगते ही ताला मालिक के हाथ में आ गिरा।

चाबी बार-बार चिल्ला रही थी – मैं आ गई हूँ मेरे प्यारे पिता!

भला मर चुका ताला अपनी चाबी की बेसब्र आवाज़ को कैसे सुनता?

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 150 ☆ लघुकथा – चोर ओटी ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा ‘चोर ओटी। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 150 ☆

☆ लघुकथा – चोर ओटी☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

वह काम के लिए निकल ही रही थी कि स्वयं सेवी संस्थावालों का फोन आया कि वे आज बेटी को ले जाने के लिए आनेवाले हैं। काम से छुट्टी तो नहीं ले सकती, पहले ही बहुत नागा हो चुका है। आँसू पोंछती हुई वह काम पर निकल पड़ी। हमेशा की तरह डॉक्टर मैडम के घर समय से पहुँच गई। उसे देखते ही मैडम बोली- “संगीता जल्दी से झाड़ू-पोंछा कर दो बहू की ‘चोर ओटी’ की रस्म करनी है। “

“चोर ओटी? यह कौन सी रस्म होती है मैडम?”

 मैडम हँसते हुए बोली – “ हमारे यहाँ गर्भधारण के तीन महीने पूरे होने पर घर की औरतें गर्भवती स्त्री की गोद भरती हैं। उसके बाद ही उसके माँ बनने की खबर सबको दी जाती है। इसे ही ‘चोर ओटी’ कहते हैं। अब समझ में आया संगीता?”

संगीता के चेहरे का रंग उतर गया उसने मानों हकलाते हुए कहा- हाँ—हाँ मैडम!। उसके चेहरे पर भाव आँख-मिचौली कर रहे थे। वह सोचने लगी – मेरी बेटी के भी तो तीन महीने पूरे हो गए ——? जो भी हुआ उसमें मेरी बच्ची का क्या दोष है? कितने सपने देखे थे बेटी की शादी के लिए, एक पल में सब चकनाचूर हो गए। रोज की तरह काम करने गई थी, पीछे कौन आकर बेटी के साथ जबरदस्ती कर गया, पता ही नहीं चला।

 संगीता का काम में मन ही नहीं लग रहा था। जल्दी- जल्दी काम निपटाकर वह घर की ओर चल दी। रास्ते में उसने चूड़ियाँ और श्रृंगार का सामान खरीद लिया। घर आकर एक कोने में निर्जीव सी पड़ी बेटी को उठाकर उसको चूड़ियाँ पहनाई, बाल बनाएं। लाल चुनरी उढ़ाकर, माथे पर बिंदी लगाकर अंजुलि में चावल लेकर उसकी गोद भर दी। वह अपनी बेटी को खाली हाथ कैसे जाने देगी? संगीता सितारों से उसकी गोद भर देना चाहती है। वह बेटी को छाती से चिपकाए रो रही है। बलात्कार की शिकार नाबालिग बेटी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। संगीता मन ही मन कलप रही है – काश! वह भी सबको बता सकती कि उसकी बेटी माँ बनने वाली है।

स्वयंसेवी संस्थावाले दरवाजे पर आ गए हैं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #206 – बाल कथा – दौड़ता भूत – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विनोदपूर्ण बाल कथा दौड़ता भूत)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 206 ☆

☆ बाल कथा – दौड़ता भूत ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

ऊन का गोला यहीं रखा था. कहां गया? काफी ढूंढा. इधर-उधर खुला हुआ था. उसे खींच खींचकर समेटा गया. तब पता चला कि वह ड्रम के पीछे पड़ा था.

पिंकी ने जैसे ही गोले को हाथ लगाना चाहा वह उछल पड़ी. बहुत जोर से चिल्लाई, “भूत!  दौड़ता भूत.”

यह सुनते ही घर में हलचल हो गई. एक चूहा दौड़ता हुआ भागा. वह पिंकी के पैर पर चढ़ा. वह दोबारा चिल्लाई, “भूत !”

दादी पास ही खड़ी थी. उन्होंने कहा, “भूत नहीं चूहा है.”

“मगर वह देखिए. ऊन का गोला दौड़ रहा है.”

तब दादी बोली, “डरती क्यों हो?  मैं पकड़ती हूं उसे, ”  कहते हुए दादी लपकी.

ऊन का गोला तुरंत चल दिया. दादी झूकी थी. डर कर फिसल गई.

पिंकी ने दादी को उठाया. दादी कुछ संभली. तब तक राहुल आ गया था. वह दौड़ कर गोले के पास गया.

राहुल को पास आता देख कर गोला फिर उछला. राहुल डर गया, “लगता है गोले में मेंढक का भूत आ गया है.”

तब तक पापा अंदर आ चुके थे. उन्हों ने गोला पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया. गोला झट से पीछे खिसक गया.

“अरे यह तो खिसकता हुआ भूत है,”  कहते हुए पापा ने गोला पकड़ लिया.

अब उन्होंने काले धागे को पकड़कर बाहर खींचा, “यह देखो गोले में भूत!” कहते हुए पापा ने काला धागा बाहर खींच लिया.

सभी ने देखा कि पापा के हाथ में चूहे का बच्चा उल्टा लटका हुआ था.

“ओह ! यह भूत था,” सभी चहक उठे.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

21-04-2021

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – लड़की तो थी ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ लघुकथा  ☆ लड़की तो थी ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

फुलवा  बैगा जनजाति से संबंध रखती थी। गर्भवती  फुलवा का आठवाँ महीना शुरू हो चुका था।

पति मायो ने उसे साप्ताहिक बाजार में, साथ चलने के लिए कहा जो सात किलोमीटर दूर था। उन्हें जरूरत की लगभग सभी चीजें खरीदने बाजार जाना पड़ता था। उन्होंने आधा किलोमीटर पैदल चलकर एक ऑटो लिया।

सौदा सुलुफ खरीदने के बाद मायो ने देखा हल्की रिमझिम तेज बारिश में बदल गई। उन्होंने बहुत इन्तजार किया। टाइम पास के लिये भजिए और रंगीन जलेबी खाई।

अंधेरा घिरने लगा था बारिश में पहाड़ और जंगल का मौसम डराने लगता है। हल्की सी कालिमा और हवाओं के थपेड़े—जब लोगों का शोर थम जाता है तो जंगल बोलना शुरू कर देता है। फिर उसकी भाषा समझना आसान नहीं होता।

घर लौटना जरूरी था। जरा सी बारिश थमी तो उन्होंने एक ऑटोवाले को तैयार किया और चल पड़े। बीच में एक नाला पड़ता था। पुल पर से पानी बह रहा था अतः ऑटोवाले ने आगे जाने से इंकार कर दिया।

मायो फुलवा से बोला चल- इतना पानी तो हम पार कर लेंगे। पुल के बीच में पहुँचते ही, दोनों कुछ संभल पाते उससे पहले, पहाड़ों से होता हुआ पानी का जोरदार रेला आया और दोनों को बहा ले गया।

सुबह परिजन खोजने निकले तो बहुत दूर मायो जंगली झाड़ियों में फँसा पड़ा था। उसे निकाला गया।फुलवा की खोज शुरू हुई। पुलिस ने मृत फुलवा के शरीर को पोस्टमार्टम के लिये भेजा।

 घर में शोक पसरा हुआ था ।मायो की माँ को लोग सांत्वना देने  आने लगे —

बेचारी बहू  भी गई और बच्चा भी। बहुत बुरा हुआ।

मालूम हुआ – पेट में लड़की तो थी – मायो की माँ बोली।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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