श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ८ ☆
☆ लघुकथा ☆ ~ सन्नाटा ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆
मुकुंद साहब की गाड़ी के पोर्च में पहुंचते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया। इधर-उधर, आने -जाने और हर वक्त तफरी की मूड में रहने वाले कर्मचारी बाएं दाए हो लिये। गाड़ी के पास सिर्फ एक-दो गार्ड और चपरासी मिलन मोढ़ा के सिवाय कोई नहीं था।
गाड़ी के रुकने के साथ ही गार्ड ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला। मुकुंद साहब अपनी गाड़ी से उतर कर चेम्बर की ओर बढ़ गए। ऑफिस प्यून मिलन मोढ़ा ने बड़े साहब का ब्रीफकेस उठाया और उनके पीछे हो लिया।
इधर मुकुंद साहब, अपने चेम्बर में दाखिल हुए तो मिलन मोढ़ा पुनः वापस आकर बारामदे में बैठ गया।
मुकुंद साहब के ऑफिस में अभी कुछ देर पहले जहाँ शोर-गुल, चहल पहल थी, अचानक सन्नाटा सा छा गया।
मुकुंद साहब का एकाकी जीवन, उनसे न जाने कितने सवाल पूछ रहा था। वहीं आफिस से जुड़े अनेकों सवाल मुकुंद साहब का जीना हराम कर दिए थे।
मुकुंद साहब के ऑफिस की ढेर सारी जिम्मेदारियाँ तो अलग थीं हीं थीं, मुकुंद साहब के घर में ही नाग की तरह फन फैलाये हुए कई उलझें मामले उन्हें बेचैन करने के लिये काफी थे।
मुकुंद साहब के इकलौते बेटे की आदत, बड़े लोंगो की संगत, ऐशोआराम और हास्टल में रहने के कारण काफी खराब हो गई थी। इस बात की चिंता साहब को बार-बार बेचैन किये जा रही थी।
लेकिन साहब होने की सजा यह थी कि उनके पास इस बात को शेयर करने के लिए एक अदद आदमी नहीं था। वे अपने जूनियर अधिकारियों के सामने अपने घर का राज नही खोलना चाहते थे, वहीं अपने बॉस से ऐसी घरेलू बातें करना प्रोटोकॉल तोड़ना था।
आज मुकुंद साहब का मन बुरी तरह से घबरा रहा था। एक तरफ जहाँ ऑफिस की फाइलें उनका सिर नोच रहीं थी तो दूसरी तरफ घरेलू मानसिक तनाव से वे इस कदर परेशान थे कि अपने कमरे में अकेले बैठे हुए अपने सिर के बालों को अपने दोनों हाथों से नोच रहे थे।
मिलन मोढ़ा खिड़की की दरार से यह सबकुछ देख रहा था। उसका मन उससे बार-बार कह रहा था कि वह साहब से जाकर पूछ ले कि आखिर उन्हें परेशानी क्या है। लेकिन साहब के आगे कुछ कहने की क्या, मुंह खोलने की हिम्मत उसके पास नहीं थी। आखिरकार वे उसके विभाग के सबसे बड़े साहब थे।
अपने तनाव से मुकुंद साहब इतने परेशान हो गए कि अंततोगत्वा वे थक कर केबिन के पीछे बने रेस्ट रूम में पड़े बेड पर जाकर लेट गए।
एक बार तो उनके मन में आया कि वे अपनी इस बात को अपने आफिस चपरासी मिलन मोढ़ा को बुलाकर कह दे ताकि उनका तनाव कुछ हल्का हो जाए, लेकिन इतना कहने की भी हिम्मत वे जुटा नही पाए। जबकि उनके साथ सबसे अधिक समय बिताने वाला इकलौता मिलन मोढ़ा ही था। बाकी उन्हें तो अपने चेंबर में अकेले रहना ही रहना होता था।
कार के पास से उनकी ब्रीफकेस को आफिस तक ले जाने से लेकर पूरे टाइम, उनके नाश्ते – पानी का सारा इंतजाम मिलन मोढ़ा ही करता था। लेकिन वह उनके कमरे में देर तक रुकता ही कहां था। साहब का आदेश पूरा होता और वह बाहर आकर एक छोटी सी चेयर पर बैठ जाता था।
आफिस का हर कोई डरते डरते उनके कमरे में प्रवेश करता था और अपनी फाइल हो जाने के बाद, जी साहब नमस्ते! कहते हुए वहां से खिसक लेना चाहता था।
इधर साहब की हनक और आफिस के प्रोटोकॉल के कारण स्थिति ऐसी थी कि वे यह कैसे कह दे कि…नौटियाल साहब दो मिनट रुक जाइए, मुझे आपसे कुछ बातें करनी हैं।
जबकि नौटियाल साहब उनके आफिस में ए0ओ0 थे और बड़े ही मिलनसार एवं सज्जन प्रवृत्ति के व्यक्ति थे।
बड़े बाबू और साहब के बीच का रिश्ता फाइल, नोटशीट और प्रस्ताव से अधिक कुछ भी नहीं था।
मुकुंद साहब जिस आवासीय कॉलोनी में रहते थे उस कॉलोनी में उनके स्तर के दो तीन ही अधिकारी ही रहते थे, बाकी सभी मीडियम क्लास के लोग रहते थे।
उन्हें अपने आवासीय कैंपस के पार्क में भी अकेले ही टहलना पड़ता था। इसके लिए भी उन्हें अलग से समय निकालना पड़ता था ताकि कॉलोनी के अन्य सामान्य लोग उनसे टकरा न जाएं।
वैसे भी कॉलोनी के अन्य सारे रेजिडेंट उनको देखकर यह कहते हुए रास्ता बदल देते थे कि इनसे बातचीत करने से फायदा ही क्या है। ये तो बड़े लोग हैं, हम मध्यमवर्गीय लोगों से क्या बात करेंगे।
वहीं दूसरी तरफ पार्क के झूलों पर और वहां पड़े तखत पर बैठे, मध्य स्तर के लोंगो को आपस में मस्ती करते हुए देखकर मुकुंद साहब का मन दुखी हो जाता था लेकिन न जाने कौन सी ऐसी बात थी, जो उन्हें इन सामान्य लोगों से मिलने से रोक देती थी।
आखिरकार एक दिन मुकुंद साहब के अंदर का तनाव इस कदर बढ़ गया कि वे आफिस से घर जाने के लिए जल्दी निकल लिए। मेट्रो स्टेशन के पास पहुंच कर ड्राइवर को कार रोकने के लिए बोलते हुए कहा –
महेश ! तुम मुझे यहीं उतार दो और वापस लौट जाओ। मुझे कहीं और जाना है। महेश को कुछ भी समझ में नहीं आया कि आखिरकार साहब ने उससे ऐसा क्यों कहा। ऐसा तो उन्होंने आज तक कभी भी नहीं किया था। कहीं जाना भी होता था तो कार से ही जाते थे।
मुकुंद साहब ने ऐसा क्यों किया, यहां से वे कहां जाएंगे यह सब सोचते हुए, कार का ड्राइवर कार को लेकर वापस लौट गया।
आज बहुत दिनों बाद मिलन मोढ़ा समय से पहले घर वापस जा रहा था। कारण यह था कि साहब आज समय से पहले ही निकल गए थे, वरना तो हर रोज मिलन को घर पहुंचने में देर रात हो जाया करती थी। मिलन मोढा आज बहुत खुश था। बहुत दिनों के बाद मिलन को शाम के समय अपने परिवार- बच्चों के पास बैठने और उनसे बातचीत करने का मौका मिलने वाला था।
मिलन अपने घर के नजदीक के मेट्रो स्टेशन पर पहुंचकर स्टेशन से बाहर को निकला। मेट्रो स्टेशन के निकास द्वार के सबसे निचली सीढ़ी के एक किनारे एक व्यक्ति को अपने हाथ में ब्रीफकेस लिए हुए, सिर को दोनों घुटनों के बीच में झुकाए हुए बैठा देखकर मिलन मोढ़ा कुछ देर के लिए ठिठका लेकिन फिर वह आगे बढ़ लिया। उसे सीढ़ी बैठा हुआ व्यक्ति कुछ जाना पहचाना सा लगा।
कुछ दूर आगे बढ़कर उसने दुबारा पीछे मुड़कर देखा तो वह हक्का-बक्का रह गया। लेकिन वह खुद से इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि सीढ़ियों के पास लौटकर आकर पूछ ले कि साहब आप यहाँ ऐसे क्यों बैठे हैं।
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© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”
लखनऊ, उप्र, (भारत )
दिनांक 22-02-2025
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
हार्दिक आभार