हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ प्रिय क्या तुझको यह अहसास है? ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की एक भावप्रवण कविता।)

 

☆ प्रिय क्या तुझको यह अहसास है?

 

प्रिय क्या तुझको यह अहसास है,

तू उर में अब भी रहती मेरे पास है।

प्रिय क्या तुझको यह आभास है,

पूर्ववत तू अब भी मेरी सांस है ।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – -पास हो।

 

उर वीणा की वही मादक झंकार है,

बंधा हुआ अब भी तेरा नेह पाश है।

अब भी बज रहा नित प्रणय राग है,

खिल रहा मन में नेह का पलाश है।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – —- पास हो।

 

आई कालचक्र की निर्दयी हुंकार है,

प्रिय टूट गई हमारे प्रणय की सांस है।

अनगिनत बंधनों की क्रूरतम पुकार है,

फिर भी मन में ज्वलित कोई आस है।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – —– – पास हो।

 

क्यों बस रहा फिर वो मोही संसार है,

पल रहा मन में अनचाहा संत्रास है।

मृगतृष्णा का निरंतर बढ़ता अंबार है,

चुभती उर में कोई अनचाही फांस है।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – – – – पास है।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ दीमक बनकर चाट रहा है, स्वांग यह भाईचारे का ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  एक भावप्रवण कविता।)

 

दीमक बनकर चाट रहा है, स्वांग यह भाईचारे का 

 

बेटियाँ बचाने का नारा,

सुन कर माँ हर्षायी थी।

तब लेके बिटिया की बलाएँ,

वह ममता बरसायी थी।।

 

नहीं जानती थी वह माता,

यहाँ दरिंदे रहते हैं।

दरिंदगी की हदें पार कर,

खुद को मानव कहते हैं।।

 

नन्हीं कलियाँ नहीं सुरक्षित,

अपने ही गलियारों में।

जीना उनका दुष्कर हो गया,

घर बाहर चौबारों में।।

 

कब तक माँ आँचल में रखकर,

कैसे उसे सुरक्षा दे।

बंद कोठरी में बिटिया को,

रखकर कैसे शिक्षा दे।।

 

दीमक बनकर चाट रहा है,

स्वांग यह भाईचारे का ।

घर-घर में अब पतन हो रहा,

नैतिकता के नारे का।।

 

©मालती मिश्रा मयंती✍️

दिल्ली
मो. नं०- 9891616087

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ निःशेष ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(कल पितृ दिवस पर स्वर्गीय पिताजी की स्मृति में लिखी कविता प्रकाशित करने का साहस न कर पाया जिसे आज प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह एक कल्पना है कि अस्पताल के आई सी यू में वेंटिलेटर पर  पिताजी के मस्तिष्क में  मृत्युपूर्व क्या चल रहा होगा?)

 

☆  निःशेष ☆

 

हे! ईश्वर!

इतनी बड़ी सजा?

मेरे परिजनों का प्रयास तो था कि –

सांस चलती रहे।

मौत की घड़ी टलती रहे।

 

कुछ समझ पाता

या कि

कुछ संभल पाता

इसके पूर्व

मेरी समस्त इन्द्रियां

जकड़ दी गईं।

समस्त नसें भेद दी गईं।

श्वसन तंत्र भी

और तो और

मेरी आवाज भी।

 

हे प्रभु!

कम से कम

आवाज तो छोड़ देते।

मैं

पड़ा रहा

कितना असहाय।

 

देख सकता हूँ

अश्रुपूर्ण नेत्र

परिजनों के

अपने चारों ओर।

साथ ही

अपनी ओर आते

मौत के कदम

चुपचाप।

 

सारी उम्र

कभी चुप न रहने वाले

मुख को जड़वत कर दिया।

श्वसन तंत्र को

मशीनी सांसों से (वेन्टिलेटर)

भर दिया गया।

 

लगता है कि अब

कुछ भी नहीं है मेरा

मशीनों-दवाओं का

कब्जा है मुझपर।

 

ये साँसे भी मेरी नहीं हैं।

किन्तु,

मेरे विचार

सिर्फ मेरे हैं

जीवन-मृत्यु की लडाई

से भी परे हैं।

मैं

देख सकता हूँ

अपना अतीत

किन्तु,

मेरी घड़ी की सुई

नहीं बढ पा रही है

वर्तमान से आगे।

एक

पूर्णविराम की तरह।

 

यह शाश्वत सत्य ही है

किसी को समझने के लिये

पूरा जीवन लग जाता है

और

स्वयं को समझने के लिये

कई जीवन भी कम हैं।

 

चेष्टा करता हूँ ।

अतीत में झाँकने की

एक अबोध बालक

कंधों पर बस्ता लिये

चल पड़ता है

नंगे पांव

गांव-गांव

शहर-शहर

और

पहुंचा देता है

अपने अंश विदेशों  तक।

 

इस दौड़ का

कोई नहीं है अन्त

सब कुछ है अनन्त।

 

शायद!

इस वट वृक्ष की

जड़ें गहरी हैं

टहनियाँ-पत्तियाँ

भी हरी-भरी हैं।

 

शायद!

गाहे-बगाहे

जाने-अनजाने

कभी कुछ कम

कभी कुछ ज्यादा

बोल दिया हो।

कभी कुछ भला

कभी कुछ बुरा

बोल दिया हो।

तो

जीवन का हिसाब समझ

भूल-चूक

लेनी-देनी समझ

माफ कर देना

मन-मस्तिष्क से सब कुछ

साफ कर देना।

 

क्योंकि,

मैं नहीं जानता कि

क्या है?

शून्य के आगे

और

शून्य के पीछे।

 

क्षमता भी नहीं रही

कुछ जानने की।

क्षीण होता शरीर

क्षीण होती साँसे

बस

एक ही गम है

सांस आस से कम है

और

मेरे ही बोल

मेरे लिये अनमोल है।

 

6 दिसम्बर 2010

 

(स्वर्गीय पिताश्री के देहावसान पर उनको समर्पित)

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पिता का मान करें उन पर अभिमान करें ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की पितृ दिवस पर प्रेषित कविता कल अपरिहार्य कारणों से प्रकाशित न कर सका और अपने स्वर्गीय पिता की स्मृति में  मैं अपनी कविता प्रकाशित करने का साहस न कर सका जिसे आज प्रकाशित कर रहा हूँ।  फिर माता एवं पिता की  स्मृतियाँ तो सदैव हृदय में बसी रहती हैं।)

 

☆ पिता का मान करें उन पर अभिमान करें

 

जो पत्नी को देकर निज अर्धांश,

संतानों की रचना किया करता है।

जो सृजन में भार्या को दे प्रेमांश,

संतानों को जन्म दिया करता है।।

 

वो पत्नी के स्वास्थ्य का ध्यान रख,

उत्तम खान टीकाकरण कराता है।

शिशु जन्म में जो तनाव सह कर,

मधु वार्ता से प्रसव पीड़ा हरता है।।

 

जो जन्मे शिशु की देखभाल करता,

शिशु के सब टीकाकरण कराता है।

शिशु का स्वास्थ्य सुनिश्चित करता,

पर्याप्त पोषण का प्रबंध कराता है।।

 

जो बच्चे में देखे नित अपना बचपन,

बच्चों में सुंदर सपने बुनना सिखाता।

खिलौने लाता कभी खिलौना बनता,

उत्साह भर उनके व्यक्तित्व बनाता।।

 

अभाव न हो उसके बच्चों को कभी,

इसलिए कड़ा परिश्रम वो करता है।

उत्तम शिक्षा पाएं उसके बच्चे सभी,

अर्पित निज सारा जीवन करता है।।

 

जुंआ, नशा, अपराध से वह दूर रह,

अपने बच्चों को सुंदर संस्कार देता।

परिवार में वह घरेलू हिंसा से दूर रह,

नारी सम्मान बढ़ाने का जिम्मा लेता।।

 

बच्चों का जीवन खुशियों से भरता,

जिम्मेदार नागरिक वह उन्हें बनाता।

बच्चे न भटकें कड़ी दृष्टि वह रखता,

भटके बच्चों को सही राह पर लाता।।

 

पिता है तो बच्चे सुख की नींद सोते,

निश्चिंत रहते सभी सारे सुख मिलते।

अच्छी शिक्षा, खान पान, वस्त्र पाते,

वो हो तो बच्चों को दुख नहीं मिलते।।

 

अंदर से कोमल पर कठोर वो बाहर से,

अनुशासन से बच्चों को उत्तम बनाता।

प्यार करता पर निष्ठुर लगता बाहर से,

राष्ट्र प्रेम पढ़ा देश भक्त उन्हें बनाता।।

 

पिता जिन्हें मिलते खुश किस्मत होते हैं,

साए में पिता के दुर्दिन भी सुदिन होते हैं।

पितृहीन जो होते वो बदकिस्मत होते हैं,

पिता न हों तो सुदिन भी दुर्दिन होते हैं।।

 

पिता का मान करें उन पर अभिमान करें,

उन्होंने कल किया आपके लिए कुर्बान,

उम्र कोई हो, नहीं उनका अपमान करें,

उनके लिए अपना आज कुर्बान करें।।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पितृ दिवस पर विशेष – ☆ मेरे पिता….. ☆ – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  की  पितृ दिवस पर  स्व। पिताजी की स्मृति में रचित कविता मेरे पिता”।) )

 

☆ मेरे पिता….. ☆

 

सजग साधक

रत, सुबह से शाम तक

दो घड़ी मिलता नहीं

आराम तक

हम सभी की दाल-रोटी

की जुगत में

जो हमारी राह के कांटे

खुशी से बीनता है,

वो मनस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

सूर्य को सिर पर धरे

गर्मी सहे जो

और जाड़ों में

बिना स्वेटर रहे जो

मौसमों के कोप से

हमको बचाते

बारिशों में असुरक्षित

हर समय जो भींगता है,

वो तपस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

स्वप्न जो सब के

उन्हें साकार करने

और संशय, भय

सभी के दूर हरने

संकटों से जूझता जो

धीर और गंभीर

पुलकित, हृदय में

नहीं खिन्नता है,

वो यशस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

जो कभी कहता नहीं

दुख-दर्द अपना

घर संवरता जाए

है बस एक सपना

पर्व,व्रत, उत्सव

मनाएं साथ सब

जिसकी सबेरे – सांझ

भगवन्नाम में तल्लीनता है,

वो महर्षि कौन?

वो मेरे पिता है।

 

मौन आशीषें

सदा देते रहे जो

नाव घर की

हर समय खेते रहे जो

डांटते, पुचकारते, उपदेश देते

सदा दाता भाव

मंगलमय,विनम्र प्रवीणता है,

वो  दधीचि कौन?

वो मेरे पिता हैं।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पितृ दिवस पर विशेष – ?? पापा ??☆ – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पितृ दिवस पर विशेष 

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

 

(डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी की  *”पितृदिवस”* पर पिताजी का अपनी कविता द्वारा पुण्य स्मरण।)

 

?? पापा ??

 

खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है।

मेरे नन्हें हाथ थामकर,
तुमने चलना सिखलाया
जीवन पथ पर आगे बढ़ने,
सदा नेक पथ दिखलाया
बचपन में दी सीख आज तक,
भूले नहीं भुलाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

रोज सबेरे दफ्तर जाकर,
शाम ढले वापस आते
धूम मचाते पूरे घर में,
नया कभी जब कुछ लाते
इन बातों की स्वप्न श्रृंखला,
बचपन में लौटाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

 

मुझे पढ़ाने की इच्छा को,
तुमने लक्ष्य बनाया था
घर बाहर सुविधाएँ देकर,
अध्ययन पूर्ण कराया था
बात सदा आगे बढ़ने की,
नित उत्साह जगाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

जब भी मुझको मिली सफलता,
शाबाशी उपहार मिली
कभी निराशा हाथ लगी तो,
संबल की पतवार मिली
सहनशीलता अपनाने की,
बात तुम्हारी भाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

शादी बच्चे घर होने पर,
हृदय आपका हर्षाया
मेरी उलझन को सुलझाने,
सदा तुम्हें तत्पर पाया
तुमसे जानी साख, निडरता,
साहस मेरा बढ़ाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

हुआ अगर मैं निकट तुम्हारे,
जब तब गले लगा लेते
हाथों के स्पर्श तुम्हारे,
तन मन नेह जगा देते
सब हैं फिर भी ‘कमी तुम्हारी’,
मन उदास कर जाती है
खुशियों के हर क्षण में पापा,
याद तुम्हारी आती है

 

© डॉ विजय तिवारी  “किसलय”जबलपुर

 

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ एहसास ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(साठवें दशक के उत्तरार्ध एवं पूर्व जन्मी मेरे समवयस्क पीढ़ी को समर्पित।)

 

☆  एहसास   ☆

 

जब कभी गुजरता हूँ तेरी गली से तो क्यूँ ये एहसास होता है

जरूर तुम्हारी निगाहें भी कहीं न कहीं खोजती होंगी मुझको।

 

बाग के दरख्त जो कभी गवाह रहे हैं हमारे उन हसीन लम्हों के

जरूर उस वक्त वो भी जवां रहे होंगे इसका एहसास है मुझको।

 

बाग के फूल पौधों से छुपकर लरज़ती उंगलियों पर पहला बोसा

उस पर वो झुकी निगाहें सुर्ख गाल लरज़ते लब याद हैं मुझको।

 

कितना डर था हमें उस जमाने में सारी दुनिया की नज़रों का

अब बदली फिजा में बस अपनी नज़रें घुमाना पड़ता है मुझको।

 

वो छुप छुप कर मिलना वो चोरी छुपे भाग कर फिल्में देखना

जरूर समाज के बंधनों को तोड़ने का जज्बा याद होगा तुमको।

 

सुरीली धुन और खूबसूरत नगमों के हर लफ्ज के मायने होते थे

आज क्यूँ नई धुन में नगमों के लफ्ज तक छू नहीं पाते मुझको।

 

वो शानोशौकत की निशानी साइकिल के पुर्जे भी जाने कहाँ होंगे

यादों की मानिंद कहीं दफन हो गए हैं इसका एहसास है मुझको।

 

इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी

खो गये कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा न मिले मुझको।

 

दुनिया के शहरों से रूबरू हुआ जिन्हें पढ़ा था कभी किताबों में

उनकी खूबसूरती के पीछे छिपी तारीख ने दहला दिया मुझको।

 

अब ना किताबघर रहे ना किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई

सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट रहे हैं मुझको।

 

अब तक का सफर तय किया एक तयशुदा राहगीर की मानिंद

आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें है न मुझको।

 

© हेमन्त  बावनकर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #3 ☆ कुछ नहीं बदला ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।   साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “कुछ नहीं बदला ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # ☆

 

☆ कुछ नहीं बदला ☆

 

दशहरे के पर्व पर

जला दिया गया रावण

हर वर्ष की भांति

परंतु कहां मिट पाई

आम जन की भ्रांति

क्या अब नहीं होंगे

अपहरण के हादसे

नहीं लूटी जाएगी चौराहे पर

किसी मासूम की अस्मत

न ही दांव पर लगाई जाएगी

किसी द्रौपदी की इज़्ज़त

शतरंज की बिसात पर

 

रावण लंका में

सिर्फ़ एक ही था…

परंतु अब तो हर घर में

गली-गली में,चप्पे-चप्पे पर

काबिज़ हैं अनगिनत

कार्यस्थल हों या शिक्षा मंदिर

नहीं उसके प्रभाव से वंचित

 

पति, भाई, पिता के

सुरक्षा दायरे में

मां के आंचल के साये में

यहां तक कि मां के भ्रूण में भी

वह पूर्णत: असुरक्षित

 

पति का घर

जिसे वह सहेजती

सजाती, संवारती

वहां भी समझी जाती वह

आजीवन अजनबी

सदैव परायी

दहशत से जीती

और मरणोपरांत भी

उस घर का

दो गज़ कफ़न

नहीं उसे मयस्सर

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ मुखौटा ☆ – सुश्री रक्षा गीता

सुश्री रक्षा गीता 

 

(सुश्री रक्षा गीता जी का e-abhivyakti में स्वागत है।  आपने हिन्दी विषय में स्नातकोत्तर किया है एवं वर्तमान में कालिंदी महाविद्यालय में तदर्थ प्रवक्ता हैं । आज  प्रस्तुत है उनकी कविता  “मुखौटा”।)

संक्षिप्त साहित्यिक परिचय 

  • एम फिल हिंदी- ‘कमलेश्वर के लघु उपन्यासों का शिल्प विधान
  • पीएचडी-‘धर्मवीर भारती के साहित्य में परिवेश बोध
  • धर्मवीर भारती का गद्य साहित्य’ नामक पुस्तक प्रकाशित

 

☆ मुखौटा 

 

मेरे चेहरे पर

स्वयं

मुखौटा चढ़

जाता है,

मन घबरा जाता है,

पूरी आत्मीयता से

जब मुस्कुराता है,

उसे देख कर ,

नफरत तो नहीं जिससे,

मगर प्रेम भी तो नहीं ।

मुखौटा हंसता है !

मन कहीं रोता है ,

ऐसा कहीं होता है!

मगर सोच कर

जरा भी-

हैरान नहीं होता है।

जबकि सब ओर चढ़े हैं

मुखौटे !!

पल-पल बदलते हैं

सामने  मुख़ौटे के हिसाब से रंग रूप रंग लेते हैं

मुखौटा

पर ये मुखौटा ?

सच्चा है ?

रंग रूप में कच्चा है।

चेहरों को देख ,

डर से घबरा जाता है

बदल लेता है राह

कभी रंग रूप पककर

सख्त हो जाएंगें

इस चेहरे पर भी कई मुखौटे

चढ़ जाएंगे

फिर

ना डरेगा

ना घबराएगा

ना

बदलेगा राह।

 

© रक्षा गीता ’✍️

दिल्ली

 

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ सवाल ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता।)

 

☆ सवाल

 

ये दिल मेरा कितना खाली है

पर इसमें सवाल बेहिसाब हैं

मैं जवाब की तलाश में

दर-दर भटक रही हूँ

पर मेरे दिल की तरह

मेरे जवाबों की झोली भी

खाली है।

ये दिल मेरा….

भरा है माता-पिता के प्रति

कृतज्ञता से

भाई-बहनों के प्रति

प्यार और दुलार से

माँ की दी हुई सीख से

पिता के दिए हुए ज्ञान से

दादा-दादी के दुलार से

सबने सिखाया तरह-तरह से

अलग-अलग ढंग से

बस एक ही सीख

औरों के लिए जीना

औरों की खुशी में खुश रहना

बहुत सा ज्ञान भरा है मेरे उर में

पर फिर भी

ये दिल मेरा..कितना खाली है

वो दिल…

जिसमे परिवार के लिए

प्यार भरा है

पत्नी का त्याग भरा है

माँ की ममता का सागर

हिलोरें लेता है

बहू के कर्तव्यों से भरा है

अहर्निश की अनवरत

खुशियाँ बाँटने का

प्रयास भरा है

फिर भी….

ये मेरा दिल.. कितना खाली है…

इस खाली दिल में

बच्चों के टिफिन की

खुशबू

उनकी पुस्तकों के हरफ

भरे हैं

पति की फाइलों को करीने से

रखने की फिक्र

ससुर जी की दवाइयों की

उड़ती गंध और

सासू माँ के घुटनों की मालिश

के तेल की चिकनाहट

भरी है

देवर ननद के

इस्त्री के लिए

दिए गए कपड़ों की

सिलवटें भरी हैं

जिम्मेदारियों को सिससिलेवार

पूरा करने की ख्वाहिशों में

कितनी सफल और

कितनी असफल हुई

ऐसे भी अनगिनत

सवालों का अंबार भरा है

फिर भी….

ये दिल.. कितना खाली है…

एक खाली टीन के डब्बे सा

जो रिश्तों की थाप से

भरे होने का भ्रम पैदा करता है

किन्तु भीतर शून्यता का

बोध कराता है

इस संसार में मैं क्या हूँ

कौन हूँ मैं

ये आज तक जाना ही नहीं

मेरी पहचान जो औरों से

परिचय कराती है मेरा

उसमें भी मेरा अपना क्या है?

पहले पिता

फिर पति का नाम

जुड़ा हुआ यूँ लगता है

मानों मैं परछाई हूँ

बिना किसी अस्तित्व के,

मेरा अस्तित्व तो मेरे पिता या पति हैं

वह परछाई जो

उजाले में प्रत्यक्ष होती है

अँधेरे में विलुप्त हो जाती है

रैन-दिवा मैं कर्मरत

पर मेरा कोई कर्म

स्वतंत्र रूप से मेरा नही

मेरा ये दिल….

कितना खाली है..

पर इसमें सवालों की

कभी न खत्म होने वाली

वो पूँजी है

जो कभी समाप्त ही नहीं होती।

ये दिल मेरा….कितना खाली है?????

 

©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️
दिल्ली
मो. नं०- 9891616087

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