हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 115 ☆ लघुकथा – मक्खी – सा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा मक्खी – सा । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 115 ☆

☆ लघुकथा – मक्खी – सा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

उसने गिलास में दूध लाकर रखा ही था कि कहीं से एक मक्खी भिनभिनाती हुई आई और उसमें गिर पड़ी । उसने मक्खी को उंगली और अंगूठे से बड़ी सावधानी से पकड़ा और निकालकर दूर फेंक दिया । फर्श पर पड़ी मक्खी हँस पड़ी और बोली – ‘ कहावत बनी तो मुझ पर है लेकिन लागू तुम इंसानों पर होती है । मैं तो कभी- कभी गलती से तुम्हारे दूध में गिर जाती हूँ पर तुम तो काम निकल जाने पर जब जिसे चाहो दूध की मक्खी – सा निकाल बाहर करते हो। ‘

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – काल☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा –काल ??

घातक हथियार लिए वह मेरे सामने खड़ा था। चिल्लाकर बोला, “मैं तुम्हें मार दूँगा। तुम्हारा काल हूँ मैं।”

मैं हँस पड़ा। मैंने कहा, “तुम मेरी अकाल मृत्यु का कारण भर हो सकते हो पर काल नहीं हो सकते।”

” क्यों, मैं क्यों नहीं हो सकता काल? मैं खुद नहीं मरूँगा पर तुम्हें मार दूँगा। मैं ही हूँ काल?”

” सुनो, काल शाश्वत तो है पर अमर्त्य नहीं है। ऊर्जा की तरह वह एक देह से दूसरी देह में जाकर चेतन तत्व हर लेता है। हारा हुआ अवचेतन हो जाता है, काल चेतन हो उठता है। खुद जी सकने के लिए औरों को मारता है काल।… याद रखना, जीवन और मृत्यु व्युत्क्रमानुपाती होते हैं। जीवन का हरण अर्थात मृत्यु का वरण। मृत्यु का मरण अर्थात जीवन का अंकुरण। तुम आज चेतन हो, अत: कल तुम्हें मरना ही पड़ेगा। संभव हो तो चेत जाओ।”

थरथर काँपता वह मारने से मरने के पथ पर आ चुका था।

© संजय भारद्वाज 

(प्रात: 8:51 बजे, 21 अक्टूबर 2021)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ “राजनीति” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “राजनीति”.)

☆ लघुकथा ☆ “राजनीति” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

अंधो की सभा थी.

विषय था किसे राजा बनाया जाय.

” मुझे बनाइये, मैं काना हूँ ” .एक अंधा बोला. ” चाहे तो आप देख लीजिए. “

” मगर हम देख नहीं सकते.” अंधे बोले.

” पर सुन तो सकतै हो ! आपने कहावत सुनी ही होगी कि ” अंधों में काना राजा होता है ” वैसे मैंने अपने घोषणापत्र में ब्रेललिपि में साफ लिख दिया है कि मेरे राजा बनते ही ” सरकारी आइ कॅम्पो” मे आपकी आंखों का मुफ्त इलाज होगा. तब देख भी लेना. “

सारे अंधे चुपचाप वोट देने चले गृए यह जानते हुए भी कि “सरकारी आइ कॅम्पो” के करण ही वे अंधे हुए थे। पर लोकतंत्र की मजबूती के लिए वोट देना उनका कर्तव्य है और संविधान की कहावत को मानना उनकी विवशता।

चुनावी विश्लेषण:- ” अंधो में “काना” राजा नहीं; अंधों में “सयाना” राजा होता है।”

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ एक मुर्दा गांव ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपका  एक विचारणीय लघुकथा  ‘‘संपादक का घर।)

☆ लघुकथा – एक मुर्दा गांव ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

गांव से शहर पढ़ने चले गये लड़के को जल्दी ही अपने गांव की याद सताने लगी। वर्ष बीतते न बीतते वह गांव की यादों से महरूम होने लगा। एक दिन गांव से शादी के मिले निमंत्रण पत्र ने उसका गांव जाने का रास्ता आसान कर दिया। वह खुशी-खुशी अपने गांव पहुंच गया।

गांव पहुंचते ही उसे उदासी ने घेर लिया। बचपन में ढेरों ढेर पक्षी आंगन नदी तालाब में उड़ान भरते थे। पूरा बचपन पक्षियों की सोहबत में बीता था।

उसे वे तीतर, बटेर, गौरैया, फडकुल-गल गल देखने नहीं मिल रहे थे। चकवी चकवा का वह जोड़ा जो शाम होते ही नदी के इस पार उस पार चले जाते थे। उसने अपने अभिन्न मित्र के साथ पूरी कोशिश की थी की उस जोड़े को पकड़ कर क्यों ना एक साथ रखा जाए पर सदियों से बना प्रकृति का वह नियम कैसे टूटता भला?

खेत खलिहान, नदी तालाब सब खाली पड़े थे। पक्षी राज्य का नामोनिशान तक नहीं था। ‌ मित्र बोला-खेतों में कीटनाशक दवा के छिड़काव ने और शहर से आकर शिकारियों ने चोरी छुपे पक्षी मारना शुरू कर दिया तो बेचारे पक्षी कहां रहते भला?

‘यह गांव तो मुरदा हो गया है।’ मुश्किल से बोल पाया मित्र।

‘किस बात का गांव जहां पक्षियों का बसेरा ना हो—उनका कलरव ना हो–उनकी आकाश छूती उड़ान ना हो–‘ मित्र भावुक हुआ जा रहा था।

दूसरे दिन वह उदास-उदास गांव से शहर लौट गया। ऐसे मुर्दा गांव में अब एक पल भी ठहरना उसे मुश्किल हो रहा था।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कृष्णस्पर्श भाग-3 – हिन्दी भावानुवाद – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  कथा-कहानी  ☆ कृष्णस्पर्श भाग – 3 – हिन्दी भावानुवाद – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

आज उत्तरंग में माई जी कुब्जा की कथा सुनाने वाली थी। माई कहने लगी, ‘‘हमने पूर्वरंग में देखा, कि मनुष्य के बाह्य रूप की अपेक्षा उसके अंतरंग की भावना महत्त्वपूर्ण है। ईश्वर को भी भाव की भूख होती है। ईश्वर पर नितान्त श्रद्धा रखने वालों को कुब्जा की कथा ज्ञात होगी ही। चलो। आज हम सब मथुरा चलते हैं।

मथुरा में आज भगवान् कृष्ण पधार रहे हैं। आज कुछ खास होने वाला है। सबका मन अस्वस्थ है। दिल में अनामिक कुतुहल हैं, साथ-साथ कुछ चिंता, बेचैनी भी है। अष्टवक्रा (जिस का तन आट जगह टेढ़ा-मेढ़ा है) कुब्जा मन में विचार कर रही है,

‘‘आज मुझे कृष्णदर्शन होंगे ना? क्या मैं उनके पैरों पर माथा टेक सकूँगी? उन्हे चन्दन लगा सकूँगी?

कितने दिन हो गए, उस पल को! सारा जग निद्रित था। मध्यरात्रि का समय था। मैं यमुनास्नान के लिए गई थी। कोई देखकर मेरे रूप का उपहास न करे, ताने न कसे, इसले लिए, मध्य प्रहर में ही स्नान करने का प्रण कितने ही दिनों से लिया था मैंने। उस दिन, नहीं. नहीं. उस मध्याह्नरात में, नदी के उस पार से आनेवाली कृष्ण जी की मुरली की धुन सुनी और मुझे लगा, मेरा जीवन सार्थक हो गया।”

सुश्री मानसी काणे

माई जी के रसीले विवेचन ने श्रोताओं के सामने साक्षात् कुब्जा खड़ी कर दी। उसका मन स्पष्ट हो रहा था। काली स्लेट पर लिखे सफेद अक्षरों की तरह श्रोता कुब्जा का मन पढ़ने लगे थे। हाथ पीछे करके माई जी ने कुसुम को ईशारा किया। वह गाने लगी।

अजून नाही जागी राधा अजून नाही जागे गोकुळ

अशा अवेळी पैलतिरावर आज घुमे का पावा मंजुळ।

(अभी राधा सोई हुई है। सारा गोकुल सोया है। ऐसे में उस पार बाँसुरी की यह मधुर धुन क्यों बज रही है।)

मुरली की वह धुन अब कुसुम को भी सुनाई देने लगी। उसके कान में वे सुर गूँजने लगे।

विश्वच अवघे ओठा लावून । कुब्जा प्याली तो मुरली रव।

(जैसे पूरा विश्व अपने होठों से लगाकर कुब्जा ने मुरली की ध्वनि पी ली।)

कुब्जा कहाँ? वह कुस्मी थी। या कृष्णयुग की वही कुब्जा, आज के युग की कुस्मी बनी थी और धीरे-धीरे अपने भूतकाल में प्रवेश कर रही थी।

माई जी कहने लगी, ‘‘मथुरा के राजमार्ग पर सभी श्रीकृष्ण् की राह देख रहे थे। इतनें में कुब्जा लड़खड़ाती हुई आगे बढ़ी। कुछ लोग बोलने लगे…”

कुसुम ने साकी गाना प्रारंभ किया,

नकोस कुब्जे येऊ पुढ़ती SSS करू नको अपशकुना SSS

येईल येथे क्षणी झडकरी नंदाचा कान्हा SSS

(कुब्जा तुम आगे मत बढ़ो। मनहूस न बनो। अपशकुन मत करो। अब यहाँ किसी भी क्षण नंद का कान्हा आएगा।)

माई जी ने विवेचन करना प्रारंभ किया… कुब्जा पूछने लगी, ‘‘क्या मेरे दर्शन से भगवान् को कभी अपशकुन होगा? भक्तन से मिलने पर भगवान् को कभी अपशकुन हुआ है? फिर वे कैसे भगवान्?”

वह मन ही मन कहने लगी, ‘‘कितने साल हो गए, इस क्षण की प्रतिक्षा में ही मैं जिंदा रही हूँ। इसी क्षण के लिए मैंने अपनी ज़िंदगी की हर साँस ली है…।”

सभामंडप में उपस्थित श्रोता निश्चलता से साँस रोककर माई जी को सुन रहे थे। कुब्जा की भावना चरम सीमा पर पहुँची थी।

माई आगे की कथा सुनाने लगी। इतने में ‘‘आया, आया, कृष्णदेव आ गया। गोपालकृष्ण महाराज की जय।” मथुरा के प्रजाजन ने कृष्णदेव का जयजयकार किया।”… इसी समय माई जी के आवाज में अपनी आवाज मिलाकर सभामंडप में उपस्थित श्रोताओं ने भी जयजयकार किया।

‘‘…कृष्णदेव आ गए। कुब्जा आगे बढ़ी। सैनिकों ने उसे पीछे खींच लिया। पर आज उसमें न जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गई थी, उन्हें ढकेलकर कुब्जा आगे बढ़ी। हाथ में चाँदी की कटोरी, कटोरी में चंदन, दूसरे हाथ में मोगरे की माला… यह सब बनाने के लिए उसे सारी रात कष्ट उठाना पड़ा था। कृष्ण को यह सब अर्पण करके उस का कष्ट सार्थक होने वाला था।”

माई जी ने कुसुम को इशारा किया। वह गाने लगी।

शीतल चन्दन उटी तुझिया भाळी मी रेखिते

नवकुसुमांची गंधित माला गळा तुझया घालते

भक्तवत्सला भाव मनीचा जाणून तू घेई

कुब्जा दासी विनवितसे रे ठाव पदी मज देई

(मैं तुम्हारे माथे पर चन्दन टीका लगा रही हूँ। नवकोमल सुगन्धित पुष्पमाला तुम्हें पहना रही हूँ। हे भक्तवत्सल, मेरे मन का भाव तू जान ले। यह कुब्जा दासी तुम्हें विनती करती है, कि अपने चरणों में मुझे जगह दे।)

‘कुब्जा को भगवान् को चन्दन लगाना था। उसके गले में माला पहनानी थी, किन्तु वह इतनी लड़खड़ा रही थी, कि उसके हाथ और कृष्ण का माथा, गला इनका मेल नहीं हो रहा था। जब कृष्ण ने अपने पैर के अंगूठे से कुब्जा का पैर दबाया, तो लड़खड़ाने वाली कुब्जा स्थिर हो गई। उसने चन्दन लगाकर कृष्ण को माला पहनाई और अनन्य भाव से कृष्ण की शरण में आई। अपना सिर कृष्ण के पैरों पर रख दिया। उस के बाहु पकड़कर कृष्ण ने उसे उठाया और कितना आश्चर्य…

‘स्पर्शमात्रे कुरूप कुस्मी रूपवती झाली

अगाध लीला भगवंताची मथुरे ने देखिली

देव भावाचा भुकेला… भावेवीण काही नेणे त्याला’   

(उसके स्पर्श से कुरूप कुस्मी रूपवती बन गई। भगवान् की अगाध लीला मथुरा के समस्त नागरिकों ने देख ली। भगवान् भक्त के मन का भाव, श्रद्धा देखते हैं। श्रद्धाभाव के सिवा भगवान् को कुछ भी नहीं चाहिये।)

कुसुम ने भैरवी गाने का प्रारम्भ किया था। उसके अबोध मन ने कुब्जा की जगह स्वयं को देखा था और भैरवी में कुब्जा न कहते हुए, कुस्मी कहा था। माई के ध्यान में सब गड़बड़ी आ गई, किन्तु श्रोताओं की समझ में कुछ नहीं आया। शायद उन्हें पूर्व कथानुसार कुब्जा ही सुना दिया हो।

कुसुम गाती रही… गाती रही… गाती ही रही। माई ने कई बार इशारे से उसे रोकने का प्रयास किया, पर कुसुम गाती ही रही। मानो, कुस्मी ने भगवान् के चरणों पर माथा टेका हो। वह उनके चरणों में लीन हो गई हो। भगवान् ने अपने हाथों से उठाया, और क्या? कुसुम रूपवती हो गई। अब भगवान् के गुणगान के सिवा उसकी ज़िंदगी में कुछ भी बचा नहीं था। कुछ भी… कुसुम गाती रही… गाती रही… गाती ही रही।

छ: बज चुके थे। कीर्तन समाप्त करने का समय हो गया था। कुसुम का गाना रुक नहीं रहा था। आखिर उसे वैसे ही गाते छोड़कर माई जी कथा समाप्ति की और बढ़ी।

‘हेचि दान देगा देवा। तुझा विसर न व्हावा। विसर न व्हावा। तुझा विसर न व्हावा।’

(हे भगवान्! हमें इतना ही दान दे दे, कि हम तुम्हें कभी भूले नहीं।)

ऐसा कहते हुए उन्होंने प्रार्थना की और आरती जलाने को कहा।

आरती शुरू हो गई, तो कुसुम को होश आ गया। वह गाते गाते रुक गई। गाना रुकने के साथ-साथ, उसके चेहरे की चमक भी लुप्त हो गई। अपनी भूल का उसे अहसास हो गया। वह डर गई। हड़बड़ा गई। और ही बावली लगने लगी। तितली की शायद इल्ली बनने की शुरुआत होने लगी।

आरती का थाला घुमाया गया। उसमें आए पैसे, फल, नारियल, किसी ने समेटकर माई जी को दे दिए। देशमुख जी ने माई जी को रहने के लिए जो कमरा दिया था, उसकी ओर माई जाने लगी। उनके पीछे-पीछे डरती-सहमती, पाँव खींचती, खींचती, इल्ली की तरह कुसुम भी जाने लगी।

आज पहली बार माई को महसूस हुआ, कि कुसुम इतनी विरूप नहीं है, जितनी लोग समझते हैं। वह कुरूप लगती है, इसका कारण है, आत्मविश्वास का अभाव। गाते समय वह कितनी अलग, कितनी तेजस्वी दिखती है, मानो कोश से निकलकर इल्ली, तितली बन गई है… रंग विभारे तितली।

माई नें ठान ली, अब इस तितली को वे फिर से कीड़े-मकोड़े में परिवर्तित नहीं होने देगी। आत्मविश्वास का ‘कृष्णस्पर्श’ उसे देगी। अब वह उसे किसी अच्छे उस्ताद के पास गाना सिखाने भेजेगी। कीर्तन सिखाएगी। उसे स्वावलंबी, स्वयंपूर्ण बनाएगी। उनके दिल में कुसुम के प्रति अचानक प्यार का सागर उमड़ आया।

क्या आज माई के विचारों को भी ‘कृष्णस्पर्श’ हुआ था?

☆  ☆  ☆  ☆  ☆ 

प्रकाशित – मधुमती डिसंबर – २००८   

मूल मराठी कथा – कृष्णस्पर्श

मूल मराठी लेखिका – उज्ज्वला केळकर    

हिंदी अनुवाद – मानसी काणे

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ शाश्वत प्रेम ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा शाश्वत प्रेम।

☆  लघुकथा – शाश्वत प्रेम

अपनी जिंदगी का लंबा सफर मिलकर तय कर चुके हैं अशोक तथा गायत्री जी। 50 सालों के वैवाहिक जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों को महसूस करते आज भी अपने दमखम पर जीवन यापन कर रहे हैं। शाम की सैर करने के बाद जब अशोक जी घर आए तो उनके हाथ में एक पैकेट था।पत्नी को बोले- “जरा आईने के पास चलो।“ उसने हैरानी से पूछा- “क्या बात है?” अशोक जी बोले – “तुम चलो तो सही…”

 वहां जाकर उन्होंने पैकेट खोला और उसमें से फूलों का महकता गजरा निकालकर पत्नी के बालों में लगा दिया। एक लाल गुलाब का फूल उसके हाथों में थमा दिया। वे बोलीं- “ इस बुढ़ापे में यह सब क्या! “ अशोक जी बोले – “आज वैलेंटाइन डे है प्रेम का प्रतीक और प्रेम कोई जवानों की बपौती नहीं। प्रेम तो शाश्वत निर्मल धारा है जो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में बहती है।“ पत्नी तो प्रेम से अभिभूत हो गई।

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कृष्णस्पर्श भाग-2 – हिन्दी भावानुवाद – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  कथा-कहानी  ☆ कृष्णस्पर्श भाग-2 – हिन्दी भावानुवाद – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

अब बापू के मित्र भी उसे छोड़ गए थे। बापू के पास कुछ भी बचा नहीं था। खेत चिड़िया चुग गई थी। बाद में बापू बीमार हो गए। साँस लेना भी दुष्कर हो गया। जितना हो सके, माई पत्नी का कर्तव्य निभाती रही। बापू की सेवा करती रही, किन्तु पति-पत्नी में प्यार का रिश्ता कभी बना ही नहीं था। अपने जीवन का अर्थ तथा साफल्य माई ने कीर्तन में ही खोजा। उनका सूनापन कीर्तन से ही दूर होता रहा।

ऐसे में एक दिन बापू का स्वर्गवास हो गया। स्वर्गवास या नरकवास पता नहीं, किन्तु बापू चल बसे। माई अब एकदम नि:संग हो गई। ऐसे नालायक, गैर जिम्मेदार पति से कोई संतान नहीं हुई, इस बात की उन्हें खुशी ही थी। ससुराल की किसी भी बात की निशानी न रहे, एसलिए वाई का घर-बार बेचकर वह हमेशा के लिए नासिक चली गई।

सुश्री मानसी काणे

माई जी को कीर्तन करते हुए लगभग बीस साल हो गए। उनका नाम हो गया। कीर्ति बढ़ गई। हर रोज कहीं ना कहीं कीर्तन के लिए आमंत्रण आता था, या आने-जाने में दिन गुजरता था। आज देशमुख जी के मंदिर में उनका कीर्तन है। निरूपण के लिए उन्होंने संत चोखोबा का अभंग चुना था।

उस डोंगा परि रस नोहे डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा॥

(ऊस टेढ़ा-मेढ़ा होता है। मगर उस का रस टेढ़ा-मेढ़ा नहीं होता, ऐसे में तुम ऊपरी दिखावे पर क्यों मोहित हो रहे हो?)

नदी डोंगी परि जल नाही डोंगे।

(नदी टेढ़ी-मेढ़ी बहती है, पर जल टेढ़ा नहीं होता।)

देखते देखते पूरा सभामंडप कुसुम के सुरों के साथ तदाकार हो गया। सुरीली, साफ, खुली खड़ी आवाज, फिर भी इतनी मिठास, मानो कोई गंधर्वकन्या गा रही हो। श्रोताओं को लगा, यह गाना पार्थिव नहीं, स्वर्गीय है। ये अलौकिक स्वर जिस कंठ से झर रहे हैं, वह मनुष्य नहीं, मनुष्य देहधारी कोई शापित गंधर्वकन्या है।

कुसुम गंधर्वकन्या नहीं थी, किन्तु शापित जरूर थी।

कुसुम माई की मौसेरी ननद की बेटी थी। वह पाँच छ: साल की थी, तब उसकी माँ दूसरे बच्चे को जन्म देनेवाली थी। प्रसूति के समय माँ अपने जने हुए नवशिशु को साथ लेते हुए चल बसी। कुछ सूझ-बूझ आने के पहले ही घर की जिम्मेदारी कुसुम के नाजुक कंधों पर आ पड़ी। कली हँसी नहीं, खिली नहीं। खिलने से पहले ही मुरझा गई। वह दस साल की हुई नहीं, कि एक दिन पीलिया से, उसके पिता की मौत हुई। उसके बाद तो, उसके होठ ही सिल गए।

साल-डेढ़ साल उसके ताऊ ने उसकी परवरिश की। अपने तेज और होशियार चचेरे भाई-बहनों के सामने, सातवी कक्षा में अपनी शिक्षा समाप्त करनेवाली यह लड़की एकदम पगली सी दिखती थी। काली-कलूटी और कुरूप तो वह थी ही। उसे बार-बार अपने भाई-बहनों से तथा उनके स्नेही-सहेलियों से ताने सुनने पड़ते। ये लोग उसे चिढ़ाते, परेशान करते, उपहास करते हुए, स्वयं का मनोरंजन करते। लगातार ऐसा होने के कारण वह आत्मविश्वास ही खो बैठी। इन दिनों, वह पहले, कुसुम से कुस्मी और बाद में कुब्जा बन गई।

कोई उससे बात करने लगे, तो वह गड़बड़ा जाती। फिर उससे गलतियाँ हो जाती। हाथ से कोई ना कोई चीज़ गिर जाती। टूटती। फूटती। ‘पागल’ संबोधन के साथ कई ताने सुनने पड़ते। एक दिन ताऊ जी ने उसे उसका सामान बाँधने को कहा और उसे माई के घर पहुँचा दिया।

माई परेशान हो गई। उनकी नि:संग ज़िंदगी में, यह एक अनचाही चीज़ यकायक आकर उनसे चिपक गई। वह भी कुरूप, पागल, देखते ही मन में घृणा पैदा करने वाली। उसकी जिम्मेदारी उठाने वाला और कोई दिखाई नहीं दे रहा था। कुसूम जैसी काली-कलूटी, विरूप लड़की की शादी होना भी मुश्किल था। माई को लगा, यह लड़की पेड़ पर चिपके परजीवी पौधे की तरह, मुझसे चिपककर मेरे जीवन का आनंद रस अंत तक चसूती रहेगी। पर अन्य कोई चारा तो था नहीं। उसे घर के बाहर तो नहीं निकाला जा सकता था। दूर की ही सही, वह उनकी भानजी तो थी। मानवता के नाते उसे घर रकना माई ने जरुरी समझा। माई सुसंस्कृत थी। कीर्तन-प्रवचन में लोगों को उपदेश करती थी। अब उपदेश के अनुसार उन्हें बरतना था।

कुसुम अंतिम चरण तक पहुँची।

चोखा डोंगा परि भाव नाही डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा।

(चोखा टेढ़ा-मेढ़ा है, पर उसके मन का भाव वैसा नहीं। अत: ऊपरी दिखावे से क्यों मोहित होते हो…?)

कुसुम को लगा, अभंग में तल्लीन लोगों से कहे,

कुसुम कुरूप है, किन्तु उस का अंतर, उसमें समाये हुए गुण कुरूप नहीं हैं।

माई जी ने दोनों हाथ फैलाकर कुसुम को रुकने का इशारा किया। सभागृह में बैठे लोगों को सुध आ गई। कुसुम सोचने लगी, अभंग गाते समय उससे कोई भूल तो नहीं हुई? वह डर गई। गाते समय उसके चेहरे पर आई आबा अब लुप्त सी हो गई। बदन हमेशा की तरह निर्बुद्ध सा दिखने लगा।

माई जी ने अभंग का सीधा अर्थ बता दिया। फिर व्यावहारिक उदाहरण देकर, हर पंक्ति, हर शब्द के मर्म की व्याख्या की।

‘देखिये, नव वर्ष के पहले दिन, गुढ़ी-पाड़वा के दिन हम कडुनिंब के पत्ते खाते हैं। कड़वे होते है, पर उन्हें खाने से सेहत अच्छी रहती है। आरोग्य अच्छा रहता है। आसमान में चमकनेवाली बिजली… उस की रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होती है, किन्तु उसकी दीप्ति से आँखे चौंध जाती है। नदी टेढ़ी-मेढ़ी बहती है, लेकिन उसका पानी प्यासे की प्यास बुझाता है।

एक तृषार्त राजा की कहानी, अपने रसीले अंदाज में उन्होंने सुनाई और अपने मूल विषय की ओर आकर कहा, ‘‘चोखा डोंगा है, मतलब टेढ़ा-मेढ़ा है, काला कलूटा है, पर उसकी अंतरात्मा सच्चे भक्तिभाव से परिपूर्ण है। सभी संतों का ऐसा ही है। ईश्वर के चरणों पर उनकी दृढ़ श्रद्धा है। अपना शरीर रहे, या न रहे, उन्हें उसकी कतई परवाह नहीं है। उनकी निष्ठा अटूट है।”

माई जी ने पीछे देखकर कुसुम को इशारा किया, और कुसुम गाने लगी,

देह जावो, अथवा राहो। पांडुरंगी दृढ़ भावो।

यह शरीर रहे, या न रहे। पांडुरंग के प्रति मेरी भक्तिभावना दृढ़ रहे। सच्ची रहे। फिर एक बार पूरा सभामंडप कुसुम के अलौकिक सुरों के साथ डोलने लगा। माई को थोड़ी फुरसत मिल गई। माई की बढ़ती उमर आज-कल ऐसे विश्राम की,? फुरसत की, माँग कर रही थी। इस विश्राम के बाद उनकी आगे चलने वाली कथा में जान आ जाती। जोश आ जाता। विगत तीन साल से कुसुम माई के पीछे खड़ी रहकर उनका गाने का साथ दे रही है। माई जी निरूपण करती है और बीच में आनेवाले श्लोक, अभंग, ओवी, साकी, दिण्डी, गीत सब कुछ कुसुम गाती है। उसकी मधुर आवाज और सुरीले गाने से माई जी का कीर्तन एक अनोखी उँचाई को छू जाता है। माई जी का कीर्तन है सोने का गहना, और कुसुम का स्वर है, जैसे उस में जड़ा हुआ झगमगाता हीरा।

कुसुम का गाना अचानक ही माई के सामने आया था। जब से वह घर आई थी, मुँह बंद किए ही रहती थी। जरूरी होने पर सिर्फ हाँ या ना में जवाब देती। देखनेवालों को लगता, गूँगी होगी। माई के घर आने के बाद, वह घर के कामकाज में माई का हाथ बँटाने लगी। उसे तो बचपन से ही काम करने की आदत थी। धीरे-धीरे उसकी जिम्मेदारियाँ बढ़ने लगीं। माई गृहस्थी के काम-काज में उस पर अधिकतर निर्भर रहने लगी। उसके घर आने से माई को पढ़ने के लिए, नये-नये आख्यान रचने के लिए, ज्यादा फुरसत मिलने लगी। बाहर से आते ही उन्हें चाय या शरबत अनायास मिलने लगा। खाना पकाना, बाज़ार में जाकर आवश्यक चीज़े खरीदना, घर साफ-सुथरा रखना, यह काम कुसुम बड़ी कुशलता से करती, पर कोई पराया सामने आए, तो न जाने क्या हो जाता, वह गड़बड़ा जाती। उसके चेहरे पर उभरा पागलपन का भाव देखकर माई को चिढ़ आने लगती और वह चिल्लाती, ‘‘ऐ, पागल, ध्यान कहाँ है तेरा?” तो कुसुम हड़बड़ी में और कोई न कोई गलती कर बैठती।

माई को कभी-कभी अपने आप पर ही गुस्सा आ जाता। उसमें उस बेचारी की क्या गलती है? रूप थोड़े ही किसी के हाथ होता है! मैं खुद प्रवचन में कहती फिरती हूँ, ‘काय भुललासी वरलिया रंगा?’ (ऊपरी रंग पर क्यों मोहित होते हो?) यह सब क्या सिर्फ सुनने-सुनाने के लिए ही है? फिर कुसुम के बारे में उनके मन में ममता उभर आती। पर उसे व्यक्त कैसे करे, उनके समझ में नहीं आता। पिछले छ: सात सालों से कुसुम के बारे में करुणा और घृणा दोनों के बीच उनका मन आंदोलित होता रहता था। अट्ठारह साल की हो गई थी कुसुम। चुप्पी साधे हुए घर का सारा काम निपटाती थी, इस तरह, कि देखने वालों को लगता लड़की गूँगी है।

उस दिन पालघर से कीर्तन समाप्त करने के बाद माई घर लौटी, तो घर से अत्यंत सुरीली आवाज में उन्हे गाना सुनाई दिया।

धाव पाव सावळे विठाई का मनी धरली अढ़ी?

(हे साँवले भगवान, विठूमैया, तुम क्यों रुष्ट हो? अब मुझ पर कृपा करो।)

माई के मन में आया, ‘‘इतनी सुरीली आवाज में कौन गा रहा है। कीर्तन का आमंत्रण देनेवालों में से तो कोई नहीं है? माई अंदर गई। घर में दूसरा कोई नहीं था। कुसुम अकेली ही थी। अपना काम करते-करते गा रही थी। एकदम मुक्त… आवाज में इतनी आर्तता, इतना तादात्म्य मानो, सचमुच उस साँवले विठ्ठल के साथ बात कर रही हो? माई के आने की जरा भी सुध नहीं लगी उसे। वह गा रही थी और माई सुन रही थी।

अचानक उसका ध्यान माई की ओर गया और वह घबरा गई। गाना एकदम से रुका। ताज़ा पानी भरने के लिए हाथ में पकड़ा फूलदान जमीन पर गिरा और टूट गया। उसके बदन पर पागलपन की छटा छा गई। डरते-डरते वह काँच के टुकड़े समेटने लगी। ‘‘कुसुम फूलदान टूट गया, तो ऐसी कौन सी बड़ी आफत आ गई? कोई बात नहीं। इसमें इतनी डरने वाली क्या बात है?” माई ने कहा।

आज पहली बार माई ने उसे पागल, न कहकर उसके नाम से संबोधित किया था। जिस मुँह से अंगार बरसने की अपेक्षा थी, उसमें से शीतल बौछार करने लगी, तो उसका बदन और भी बावला सा दिखने लगा।

यह क्षण माई के लिए दिव्य अनुभूति का क्षण था। उन्हें लगा, ईश्वर ने कुसुम से रूप देते समय कंजूसी ज़रूर की है, किन्तु यह कमी, उस को दिव्य सुरों का वरदान देकर पूरी की है। अपना सारा निर्माण कौशल्य भगवान् ने उसका गला बनाते समय, उसमें दिव्य सुरों के बीज बोते समय इस्तेमाल किया है। उस दिन उसका गाना सुनकर माई ने मन ही मन निश्चय किया कि वह उसे कीर्तन में गाए जाने वाले अभंग सिखाएगी और कीर्तन में उसका साथ लेगी। उन्होंने यह बात कुसुम को बताई और कहा, ‘‘कल से रियाज शुरू करेंगे।” कीर्तन में गाए जाने वाले पद, ओवी अभंग, साकी दिण्डी, दोहे सब की तैयारी माई अपने घर में ही करती थी। हार्मोनियम, तबला बजाने वाले साजिंदे रियाज के लिए कभी-कभी माई के घर आते। हमेशा घर में होता हुआ गाने का रियाज सुनते-सुनते कुसुम को सभी गाने कंठस्थ थे। माई जब कुसुम को कीर्तन में गाए जाने वाले गाने सिखाने लगी, तो उन्हें महसूस हुआ, कि कुसुम को ये सब सिखाने की ज़रूरत ही नहीं है। उसे सारे गाने, उसके तर्ज़सहित मालूम है। उसमें कमी है, तो बस सिर्फ आत्मविश्वास की। यों तो अच्छी गाती, किन्तु बजाने वाले साथी आए, तो हडबड़ा जाती। सब कुछ भूल जाती। उसने डरते-सहते एक दिन माई से कहा,

‘‘ये मुझसे नहीं होगा। लोगों के सामने मैं नही गा पाऊंगी।”

अब थोड़ा सख्ती से पेश आना ज़रूरी था। माई ने धमकाया,

‘‘तुझे ये सब आएगा। आना ही चाहिये, अगर तुझे इस घर में रहना है, तो गाना सीखना होगा। मेरा साथ करना होगा।”

बेचारी क्या करती? उसे माई के सिवा चारा था ही कहाँ? माई ने धमकाया। साम-दाम-दण्ड नीति अपनाई और कुसुम का रियाज शुरू हुआ। अब कुसुम गाने लगी, माई से भी सुंदर, भावपूर्ण, सुरीला गाना। गाते समय वह हमेशा की पगली-बावली कुसुम नहीं रहती थी। कोई अलग ही लगती। गंधर्वलोक से उतरी हुई एखादी गंधर्वकन्या। पिछले तीन सालों से माई के पीछे खड़ी होकर वह कीर्तन में माई के साथ गाती आ रही थी।

माई जी ने भजन करने के लिए कहा, ‘‘राधाकृष्ण गोपालकृष्ण” – ‘‘राधाकृष्ण-गोपालकृष्ण”

पूरा सभामंडप गोपालकृष्ण की जयघोष से भर गया। तबला और हार्मोनियम के साथ तालियाँ और शब्द एकाकार हो गए। भजन की गति बढ़ गई।

क्रमशः…

प्रकाशित – मधुमती डिसंबर – २००८   

मूल मराठी कथा – कृष्णस्पर्श

मूल मराठी लेखिका – उज्ज्वला केळकर    

हिंदी अनुवाद – मानसी काणे

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #135 – “बाल कहानी – कुछ मीठा हो जाए” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक कहानी बाल कहानी – कुछ मीठा हो जाए)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 135 ☆

 ☆ “बाल कहानी – कुछ मीठा हो जाए” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’   

गोलू गधे को आज फिर मीठा खाने की इच्छा हुई। उसने गबरू गधे को ढूँढा। वह अपने घर पर नहीं था। कुछ दिन पहले उसी ने गोलू को मीठी चीज ला कर दी थी। वह उसे बहुत अच्छी लगी थी। मगर वह क्या चीज थी? उसका नाम क्या था? उसे मालूम नहीं था।

आज ज्यादा मिर्ची वाला खाना खाने से उसका मुँह जल रहा था। उसे अपने मुँह की जलन मिटानी थी। इसलिए वह पास के खेत पर गया। यहीं से गबरू गधा वह खाने की चीज लाया था। वहाँ जाकर उसने इधर-उधर देखा। खेत पर कोई नहीं था। तभी उसे मंकी बन्दर ने आवाज दी, “अरे गोलू भाई किसे ढूंढ रहे हो? इस पेड़ के ऊपर देखो।”
“ज्यादा मिर्ची वाला खाना खाने से मेरा मुँह जल रहा है। मुझे कुछ मीठा खाना है।” गोलू ने कहा तो मंकी बन्दर कुछ फेंकते हुए बोला, “लो पकड़ो। इसे चूस कर खाओ। यह मीठा है।”

“मगर, इसका नाम क्या है?” गोलू ने पूछा तो मंकी बोला, “इसे आम कहते हैं।” 

“जी अच्छा, ” कह कर गोलू ने आम चूसा। मगर, वह खट्टा-मीठा था। उसे आम अच्छा नहीं लगा।

“मुझे तो मीठी चीज़ खानी थी,” यह कहते हुए गोलू आगे बढ़ गया।

कुछ दूर जाने पर उसे हीरू हिरण मिला।

“मुझे कुछ मीठी चीज खाने को मिलेगी ? मेरा मुंह जल रहा है,” गोलू ने उसका अभिवादन करने के बाद कहा तो हीरू ने उसे एक हरी चीज पकड़ा दी, “इसे खाओ। यह मीठा लगेगा।”

गोलू ने वह चीज खाई, “यह तो तुरतुरीऔर मीठी है। मगर मुझे तो केवल मीठा खाना था,” यह कहते हुए गोलू आगे बढ़ गया। उसके दिमाग में गबरू की लाई हुई मीठी चीज़ खाने की इच्छा थी। मगर उसे उस चीज़ का नाम याद नहीं आ रहा था।

वह आगे बढ़ा। उसे चीकू खरगोश मिला। वह लाल-लाल चीज़ छील-छील कर उसके दाने निकाल कर खा रहा था। गोलू ने उससे अपनी मीठा खाने की इच्छा जाहिर की। चीकू ने वह लाल-लाल चीज उसे पकड़ा दी, “इसे खाओ। यह फल मीठा है। इसे अनार कहते हैं।”

गोलू ने अनार खाया, “यह उस जैसा मीठा नहीं है,” कहते हुए वह आगे बढ़ गया। 

रास्ते में उसे बौबौ बकरी मिली। उसने बौबौ को भी अपनी इच्छा बताई, “आज मेरा मुँह जल रहा है। मुझे मीठा खाने की इच्छा हो रही है।”

बौबौ ने एक पेड़ से पीली- पोली दो लम्बी चीजें दीं, “इस फल को खा लो। यह मीठा है।”

गोलू ने वह फल खाया, “अरे वाह! इसका स्वाद बहुत बढ़िया है। मगर उस चीज जैसा नहीं है। मुझे वही मीठी चीज खानी है,” कहते हुए गोलू आगे बढ़ गया।

अप्पू हाथी अपने खेत की रखवाली कर रहा था। उसके पास जाकर गोलू ने अपनी इच्छा जाहिर की, “अप्पू भाई!  आज मुझे मीठा खाने की इच्छा हो रही है।”

यह सुनकर अप्पू बोला, “तब तो तुम बहुत सही जगह आए हो।”

यह सुनकर गोलू खुश हो गया, “यानी मीठा खाने की मेरी इच्छा पूरी हो सकती है।”

“हाँ हाँ क्यों नहीं,” अप्पू ने कहा, “मीठी शक्कर जिस चीज से बनती है, वह चीज मेरे खेत में उगी है।” कहते हुए अप्पू ने एक गन्ना तोड़ कर गोलू को दे दिया, “इसे खाओ।”
गोलू ने कभी गन्ना नहीं चूसा था। उसने झट से गन्ने पर दांत गड़ा दिए। गन्ना मजबूत था। उसके दांत हिल गए।

“अरे भाई अप्पू। तुमने मुझे यह क्या दे दिया। मैंने तुम से मीठा खाने के लिए माँगा था। तुमने मुझे बाँस पकड़ा दिया। कभी बाँस भी मीठा होता है।” यह कहते हुए गोलू ने बुरा-सा मुँह बनाया।

यह देखकर अप्पू हँसा, “अरे भाई गोलू! नाराज क्यों होते हो। इसे ऐसे खाते (चूसते) हैं, ” कहते हुए अप्पू ने पहले गन्ना छीला, फिर उसका थोड़ा-सा टुकड़ा तोड़ कर मुँह में डाला। उसे अच्छे से चबाकर चूसा। कचरे को मुँह से निकाल कर फेंक दिया।

“इसे इस तरह चूसा जाता है। तभी इसके अन्दर का रस मुँह में जाता है।” 

यह सुनकर गोलू बोला, “मगर, मुझे तो लम्बी-लम्बी, लाल-लाल और पीछे से मोटी और आगे से पतली यानी मूली जैसी लाल व मीठी चीज़ खानी है। वह मुझे बहुत अच्छी लगती है।”

यह सुन कर अप्पू हँसा, “अरे भाई गोलू। यूँ क्यों नहीं कहते हो कि तुम्हें गाजर खाना है,” यह कहते हुए अप्पू ने अपने खेत में लगे दो चार पौधे जमीन से उखाड़कर उनको पानी से धो कर गोलू को दे दिए।

“यह लो। यह मीठी गाजर खाओ।”

बस! फिर क्या था? गोलू खुश हो गया। उसे उसकी पसन्द की मीठी चीज खाने को मिल गई थी। उसने जी भर कर मीठी गाजर खाई। उसका नाम याद किया और वापस लौट गया।

वह रास्ते भर गाजर, गाजर, गाजर, गाजर रटता जा रहा था। ताकि वह गाजर का नाम याद रख सके। इस तरह उसकी गाजर खाने की इच्छा पूरी हो गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – बीज ??

वह धँसता चला जा रहा था। जितना हाथ-पाँव मारता, उतना दलदल गहराता। समस्या से बाहर आने का जितना प्रयास करता, उतना भीतर डूबता जाता। किसी तरह से बचाव का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, बुद्धि कुंद हो चली थी।

अब नियति को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।

एकाएक उसे स्मरण आया कि जिसके विरुद्ध क्राँति होनी होती है, क्राँति का बीज उसीके खेत में गड़ा होता है।

अंतिम उपाय के रूप में उसने समस्या के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना आरम्भ किया। आद्योपांत निरीक्षण के बाद अंतत: समस्या के पेट में मिला उसे समाधान का बीज।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कृष्णस्पर्श – भाग-1- सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  कथा-कहानी  ☆ कृष्णस्पर्श – भाग – 1 – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

(सौ. उज्ज्वला केळकर जी की मौलिक एवं रोचक कथा तीन भागों में प्रस्तुत है.)

देशमुख जी की हवेली के पास ही उनका अपना मुरलीधर जी का मंदिर है। भगवान् कृष्ण की जन्माष्टमी का उत्सव होने के कारण मंदिर भक्तों से खचाखच भरा हुआ था। सुबह प्रवचन, दोपहर कथा-संकीर्तन, रात में भजन, एक के बाद एक कार्यक्रम संपन्न हो रहे थे। उत्सव का आज छटा दिन था। आज माई फड़के का कीर्तन था। रसीली बानी, नई और पुरानी बातों का एक दुसरे से सहज सुंदर मिलाप करके निरूपण करने का उनका अनूठा ढंग, ताल-सुरों पर अच्छी पकड, सुननेवालों की आँखो के सामने वास्तविक चित्र हूबहू प्रकट करने का नाट्यगुण, इन सभी बातों के कारण कीर्तन के क्षेत्र में माई जी का नाम, आज कल बड़े जोरों से चर्चा में था।

सुश्री मानसी काणे

वैसे उनका घराना ही कीर्तनकारों का ठहरा। पिता जी हरदास थे। माँ बचपन में ही गुजर गई थी। अत: कहीं एक जगह घर बसा हुआ नहीं था। पिता जी के साथ गाँव गाँव जा कर कीर्तन सुनने में उनका बचपन गुजर गया। थोड़ी बड़ी होने पर पिता जी के पीछे खड़ी होकर उनके साथ भजन गाने में समय बीतता गया। पिता जी ने जितना जरूरी था, पढ़ना-लिखना सिखाया। बाकी ज्ञान उन्होंने, जो भी किताबें हाथ लगीं, पढ़कर आत्मसात् किया। तेरह-चौदह की उम्र में उन्होंने स्वतंत्र रूप से कीर्तन करना शुरू किया।

क्षणभर के लिए माई जी ने अपनी आँखे बंद की और श्लोक प्रारंभ किया।

                वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनं

                देवकी परमानंदं कृष्ण वंदे जगद्गुरुं ॥

उनकी आवाज सुनते ही मंदिर में जमे भक्तों ने आपस की बातचीत बंद करते हुए अपना ध्यान माई जी की ओर लगाया। माई जी ने सब श्रोताओं को विनम्र होकर प्रणाम किया और विनंती की, ‘‘आप सब एकचित्त होकर अपना पूरा ध्यान यहाँ दे, तथा आप कृष्ण-कथा का पूरा आस्वाद ले सकेंगे। कथा का रस ग्रहण कर सकेंगे। आप का आनंद द्विगुणित, शतगुणित हो जाएगा।” उन्होंने गाना आरंभ किया।

           राधेकृष्ण चरणी ध्यान लागो रे       

           कीर्तन रंगी रंगात देह वागो रे

मेरा पूरा ध्यान राधा-कृष्ण के चरणों में हो। मेरा पूरा शरिर कीर्तन के रंगों में रँग जाए। कीर्तन ही बन जाए।

मध्य लय में शुरू हुआ भजन द्रुत लय में पहुँच गया। माई जी ने तबला-हार्मोनियम बजानेवालों की तरफ इशारा किया। वे रुक गए। पीछे खड़ी रहकर माई जी का गाने में साथ करनेवाली कुसुम भी रुक गई। माई जी ने निरूपण का अभंग शुरू किया। आज उन्होंने संकीर्तन के लिए चोखोबा का अभंग चुना था।

ऊस डोंगा परि रस नोहे डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा॥

(ईख टेढ़ामेढ़ा होता है, पर रस टेढ़ा नहीं होता। वह तो सरल रूप से प्रवाहित होता है। तो बाहर के दिखावे के प्रति इतना मोह क्यों?)

माई जी को कीर्तन करते हुए लगभग बीस साल हो गए। वाई में कृष्णामाई के उत्सव में माई जी के पिता जी को आमंत्रण दिया गया था। माई जी की उम्र उस वक्त करीब सत्रह-अट्ठारह की थी। अपने पिता जी के पीछे रहते हुए मधुर सुरों में गानेवाली यह लड़की, कीर्तन सुनने आयी हुई आक्का को बहुत पसंद आई। उन्होंने माई जी के पिता जी, जिन्हें सब आदरपूर्वक शास्त्री जी कहकर संबोधित करते थे, के पास अपने लड़के के लिए, माई का हाथ माँगा। वाई में उन की बड़ी हवेली थी। पास के धोम गाँव में थोड़ी खेती-बाड़ी थी। वाई के बाजार में स्टेशनरी की दुकान थी। खाता-पिता घर था। इतना अच्छा रिश्ता मिलता हुआ देखकर शास्त्री जी खुश हो गए। आए थे कीर्तन के लिए, पर गए अपनी बेटी को विदा करके।

शादी के चार बरस हो गए। आक्का और आप्पा, माई जी के सास-ससुर, उनसे बहुत प्यार करते थे। पर जिसके साथ पूरी ज़िंदगी गुजारनी थी, बह बापू, एकदम नालायक-निकम्मा था। अकेला लड़का होने के कारण, लाड-प्यार से, और जवानी में कुसंगति से वह पूरा बिगड़ चुका था। वह बड़ा आलसी था। वह कोई कष्ट उठाना नहीं चाहता था। शादी के बाद बेटा अपनी जिम्मेदारियाँ समझ जाएगा, सुधर जाएगा, आक्का-आप्पा ने साचा था, किन्तु उनका अंदाज़ा चूक गया।

घर-गृहस्थी में बापू की कोई दिलचस्पी नहीं थी। अपने यार दोस्तों के साथ घूमना फिरना, ऐश करना, इसमें ही उसका दिन गुजरता था। अकेलापन महसूस करते करते माई जी ने सोचा, क्यूँ न अपना कथा-संकीर्तन का छंद बढ़ाए। किन्तु बापू ने साफ इन्कार कर दिया। उसने कहा, ‘‘यह गाना बजाना करके गाँव गाँव घूमने का तुम्हारा शौक मुझे कतई पसंद नहीं। तुम्हें खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने में कोई कमी है क्या यहाँ?”

माई के पास कोई जवाब नहीं था। आक्का और आप्पा जी की छाया जब तक उनके सिर पर थी, तब तक उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं महसूस हुई। पर क्या ज़िंदगी में सिर्फ खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना ही पर्याप्त है किसी के लिए? खासकर के किसी औरत के लिए? औरत के केंद्र में सिर्फ उसका पति ही तो है न? वहाँ पति के साथ मिलकर अपने परिश्रमों से घर-गृहस्थी चलाने का, सजाने का सुख माई को कहाँ मिल रहा था? बापू बातें बड़ी बड़ी करता था, किन्तु कर्तृत्व शून्य। कहता था, ‘‘जहाँ हाथ लगाऊंगाँ, वहाँ की मिट्टी भी सोने की कर दूँगा।” ऐसा बापू कहता तो था, किन्तु कभी किसी मिट्टी को उसने हाथ तक नहीं लगाया।

कुछ साल के बाद पहले आप्पा और कुछ दिन बाद, आक्का का भी देहांत हो गया। अब बापू को रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं रहा। अपने यार-दोस्तों के साथ उसका जुआ खेलना बढ़ गया। अब आप्पा-आक्का के गुज़रने के बाद उसने घर में ही जुए का अड्डा बना दिया। झूठ मूठ के बड़प्पन के दिखावे के लिए, हर रोज यार-दोस्तों को घर में ही खाना खिलाना शुरू हो गया। दारू शारू पार्टी, गाना-बजाना, तवायफों का नाचना दिन-ब-दिन बढ़ता ही गया। धीरे-धीरे खेत, दुकान, यह सब बेचकर आये हुए पैसे, चले गए।

अब कोई चारा नहीं, देखकर माई ने कीर्तन की बात फिर से सोची। ऐसे में भी बापू तमतमाया,

‘‘मेरे घर में ये कीर्तनवाला नाटक नही चाहिये।”

‘‘तो ठीक है। मै घर ही छोड़ देती हूँ। आपका घर आपके दोस्त, सब आपको मुबारक। गले लगाकर बैठिए। घर का सारा सामान खत्म हुआ है। आपकी और मेरी रोजी रोटी के लिए बस, मैं इतना हि कर सकती हूँ।” माई ने जवाब दिया। और कोई चारा न देखकर बापू चुप रहा। स्वयं उसे, कोई काम करने की आदत तो थी नहीं।

माई ने ग्रंथ-पुराण-पोथी पढ़ना प्रारंभ किया। हार्मोनियम, तबला, झांज़ बजानेवाले साथी तैयार किए। कथा-कीर्तन का अभ्यास, सतसंग करना शुरू किया। शुरू में अपने गाँव में ही कीर्तन करना उन्होंने प्रारंभ किया। बचपन में वह कीर्तन करती ही थी। मध्यांतर में सब छूटा था। किन्तु जब उन्होंने ठान लिया, की बस्स, अब यही अपने जीवन का सहारा है, उन्हें छूटा हुआ पहला धागा पकड़ने में कोई कठिनाई नहीं महसूस हुई। देखते देखते उनकी ख्याति बढ़ गई। धीरे-धीरे पड़ोस के गाँवों में भी उन्हें आदरपूर्वक कथा-कीर्तन के लिए आमंत्रण आने लगा। कीर्तन के लिए जाने से पहले, या आने के बाद घर में कभी शांति या चैन की साँस लेना उन्हे नसीब नहीं होता। जब तक माई घर में होती, बापू कुछ न कुछ पिटपिटाता, झगड़ता रहता। पर माई का मन जैसे पत्थर बन गया था। वह न कुछ जवाब देती, न किसी बात का दु:ख करती। आये दिन वह अधिकाधिक स्थितप्रज्ञ होती जा रही थी।

क्रमशः…

प्रकाशित – मधुमती डिसंबर – २००८   

मूल मराठी कथा – कृष्णस्पर्श

मूल मराठी लेखिका – उज्ज्वला केळकर    

हिंदी अनुवाद – मानसी काणे

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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