हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 262 ☆ आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 262 ☆

? आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता ?

निर्विवाद है। समय के साथ यदि बड़ी से बड़ी घटना का दोहराव बदलती पीढ़ी के सम्मुख न हो तो वर्तमान की आपाधापी में गौरवशाली इतिहास की कुर्बानियां विस्मृत हो जाती हैं। हमारी संस्कृति में दादी नानी की कहानियों का महत्व यही सुस्मरण है।

भारतीय संदर्भो में राष्ट्रीय एकता का विशेष महत्व है। भारत पाकिस्तान का बंटवारा कर अंग्रेजो ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण किया था। शेष भारत विभिन्नता में एकता के स्वरूप में मुखरित हुआ है। देश में अनेको भाषायें, ढ़ेरों बोलियां, कई संस्कृतियां, विभिन्न धर्मावलम्बी, क्षेत्रीय राजनैतिक दल हैं। यही नही नैसर्गिक दृष्टि से भी हमारा देश रेगिस्तान, समुद्र, बर्फीली वादियों और मैदानी क्षेत्रो से भरा हुआ है, हम विविधता में देश के रूप में एकता के जीवंत उदाहरण के लिए सारी दुनियां के लिये पहेली हैं। जाति, वर्ग, धर्म आदि अनेक व्यैक्तिक मान्यताओं में भेद होने के बावजूद एकता और परस्पर शांति, प्रेम सद्भाव के अस्तित्व पर हमारी शासन व्यवस्था और समाज का ताना बाना केंद्रित है। विविधता में यह एकता राष्ट्र की शक्ति है। विशिष्ट रीति-रिवाजों के साथ लोग हमारे देश में शांत तरीके से अपना जीवनयापन करते हैं, यहाँ मुसलमान, सिख, हिंदू, यहूदी, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी सहअस्तित्व के संग जोश और उत्साह के साथ अपने धार्मिक त्यौहार मनाते हैं।

जब इस तरह का परस्पर सद्भाव होता है तो विचारों में अधिक ताकत, बेहतर संचार और बेहतर समझ होती है। अंग्रेजों के भारत पर शासन के पहले दिन से लेकर भारत की आज़ादी के दिन तक भारतीयों की आजादी का संघर्ष सभी समुदायों की धार्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अलग होने के बावजूद जनता के संयुक्त प्रयास किए बिना आजादी संभव नहीं थी। जनता सिर्फ एक लक्ष्य से प्रेरित थी और यह भारत की आजादी प्राप्त करने का उद्देश्य था। यही कारण है कि भारत की स्वतंत्रता संग्राम विविधता में एकता का एक अप्रतिम उदाहरण है।

आजादी के लिये गांधी जी की अहिंसा वाली धारणा के समानांतर आत्म बलिदानी क्रांतिकारियों, सेनानियों का योगदान निर्विवाद है। आत्मोत्सर्ग की पराकाष्ठा हंसते हुये फांसी के फंदे पर भारत माता की जय का जयकारा लगाते हुये झूल जाने वाले बलिदानी शहीद, काला पानी की प्रताड़ना सहने वाले वीर और सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के सेनानियों सहित गुमनाम रहकर वैचारिक क्रांति के आंदोलन रचने वाले प्रत्येक क्रांतिवीर का योगदान अप्रतिम है जिसका ज्ञान नई पीढ़ी को होना ही चाहिये। फिल्में, किताबें, शैक्षिक पाठ्यक्रम और साहित्य इस प्रयोजन में बड़ी भूमिका निभाता है।

क्रांतिकारी भगतसिंह युवाओ के लिये पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेरणा स्त्रोत हैं। उनका दार्शनिक अंदाज, क्रांतिकारी स्वभाव, उनका संतुलित युवा आक्रोश, उनके देश प्रेम का जज्बा जिल्द बंद किताबों में सजाने के लिये भर नहीं है। उनको किताबों से बाहर लाना समय की आवश्यकता है। भगत सिंह की विचारधारा और उनके सपनों पर बात कर उनको बहस के केन्द्र में लाना युवा पीढ़ी को दिशा दर्शन के लिये वांछनीय है। बदलती राजनीति शहीदो के सपने साकार करने की राह से भटके हुये लगते हैं। समय की मांग है कि देश भक्त शहीदो के योगदान से नई पीढ़ी को अवगत करवाने के निरंतर पुरजोर प्रयास होते रहने चाहिये। भगतसिंह ने कहा था कि देश में सामाजिक क्रांति के लिये किसान, मजदूर और नौजवानो में एकता होनी चाहिए। साम्राज्यवाद, धार्मिक-अंधविश्वास व साम्प्रदायिकता, जातीय उत्पीड़न, आतंकवाद, भारतीय शासक वर्ग के चरित्र, जनता की मुक्ति के लिए क्रान्ति की जरूरत, क्रान्तिकारी संघर्ष के तौर-तरीके और क्रान्तिकारी वर्गों की भूमिका के बारे में उन्होने न केवल मौलिक विचार दिये थे बल्कि अपने आचरण से उदाहरण रखा था। उनके चरित्र, त्याग की भावना के अनुशीलन और विचारों को आत्मसात कर आज के प्रबल स्वार्थ भाव समाज को सही दिशा दी जा सकती है। उनके विचार शाश्वत हैं, आज भी प्रासंगिक हैं।

क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के विचारो की प्रासंगिकता का एक उदाहरण वर्तमान साम्प्रदायिकता की समस्या के हल के संदर्भ में देखा जा सकता है। आजादी के बरसो बाद आज भी साम्प्रदायिकता देश की बड़ी समस्या बनी हुई है। जब तब देश में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठते हैं। युवा भगत सिंह ने 1924 में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे देखे थे। भगतसिंह विस्मित थे कि दंगो में दो अलग अलग धर्मावलंबी परस्पर लोगो की हत्या किसी गलती पर नही वरन अकारण केवल इसलिये कर रहे थे, क्योकि वे परस्पर अलग धर्मो के थे। उनका युवा मन आक्रोशित हो उठा। स्वाभाविक रूप से दोनो ही धर्मो के आदर्श सिद्धांतो में हत्या को कुत्सित और धर्म विरुद्ध बताया गया है। धर्म के इस स्वरूप से क्षुब्ध होकर व्यक्तिगत रूप से स्वयं भगत सिंह तो नास्तिकता की ओर बढ़ गये। उन्होने अवधारणा व्यक्त की, कि धर्म व्यैक्तिक विषय होना चाहिये, सामूहिक नही। आज भी यह सिद्धांत समाज के लिये सर्वथा उपयुक्त है। राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। साम्रदायिक वैमनस्य को समाप्त करने की जरूरत सबने महसूस की। साम्प्रदायिकता की इस समस्या के निश्चित हल के लिए भगत सिंह के क्रान्तिकारी आन्दोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये। जून 1928 के पंजाबी मासिक ‘कीर्ती’ में उनके द्वारा धार्मिक उन्माद विषय के कारण तथा समाधान पर लेख छापा गया। भगत सिंह के अनुसार ” साम्प्रदायिक दंगों का मूल कारण आर्थिक असंपन्नता ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर समाज में अविश्वास-सा हो गया। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। तोंद जहाँ पूंजीपतियों की प्रतीक है, वहीं निराला की रचना में पीठ से चिपकता पेट गरीबी प्रदर्शित करता है। भगतसिंह मानते थे कि दंगों का स्थाई समाधान भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। कलकत्ते के दंगों में एक अच्छी बात भी देखने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें अपने कार्य वर्ग की चेतना थी और वे अपने वर्ग हित को अच्छी तरह पहचानते थे। इस तरह उन्होंने पाया कि कार्य वर्ग चेतना का यही रास्ता साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है। इसी से भगत सिंह ने मजदूरो, किसानो को एकजुट होने और आर्थिक आत्मनिर्भरता व विकास के लिये काम करने और साम्राज्यवाद के विरुद्ध खड़े करने के प्रयत्न किये।

आज हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी भी जाति से ऊपर विकास का रास्ता ही साम्प्रदायिकता का हल बता रहे हैं। आज राष्ट्रीय प्रगति पथ पर सबके साथ चलते हुये धार्मिक मसलों को न्यायपालिका के निर्देशानुसार हल किया जा रहा है। इसी से भगत सिंह की दूरगामी सोच और गहरे चिंतन की स्पष्ट झलक मिलती है। देश में आम नागरिको की आर्थिक संपन्नता के लिये आज सतत विकास और जनसंख्या नियंत्रण ही एक मार्ग है।

जो कुछ दिखता रहता है लोग उसे ही तो स्मरण करते हैं, मंदिरो में भगवान रहता हो या नही किंतु शायद मंदिरो की इस सार्थकता से मना नहीं किया जा सकता कि सड़क किनारे के मंदिर भी हमें उस परम सत्ता का निरंतर स्मरण करवाते रहते हैं। भगत सिंह को नई पीढ़ी भूल चली है, उन्हें जीवंत बनाये रखकर सामाजिक समस्याओ पर उनके वैचारिक चिंतन के अमृत तथ्यो का अनुसरण आवश्यक है। देश हित में भगत सिंह के निस्वार्थ बलिदान को प्रेरणा दीप बनाकर पाठक तक उनके समर्पण का प्रकाश पहुंचे। फिर फिर पहुंचे।

देश के तमाम शहीदो को जिन्होने किसी प्रतिसाद की अपेक्षा के बिना अपने सुखो का और परिवार का परित्याग करके देश व समाज के लिये अपना जीवन दांव पर लगा दिया उन्हें और आज भी देश की सीमाओ पर नित शहीद होते उन वीर जवानो को, जो केवल आजीविका से परे, देश की रक्षा के लिये लड़ते हुये शहीद हो जाते हैं, उन सब को समर्पित करते हुये यह कृति प्रस्तुत है। इसके लिये इंटरनेट पर ढ़ेरो माध्यमो से सहज उपलब्ध कराई गई शहीद भगत सिंह की ही सामग्रियो तथा पूर्व प्रकाशित कुछ किताबो के अध्ययन से संदर्भ उपयोग किये है। मुक्त ज्ञान की इस रचनात्मक दुनियां का आभार।

शहीद भगतसिंह की प्रमुख कार्यस्थली रहा लाहौर शहर अब पाकिस्तान में है। लाहौर तब भी था और आज भी है। लाहौर प्रतीक है भविष्य की संभावना का, जो शहीदे आजम की कुर्बानी के नाम पर ही सही पाकिस्तान को साम्प्रदायिक, संकुचित, कट्टरपंथी आतंकी विचार धारा से मुक्त कर भारत के नक्शे कदम पर चलने की प्रेरणा दे यही कामना है। शहीद भगत सिंह के पुनर्स्मरण के इस प्रयास को पाठकीय आशीर्वाद की अपेक्षा के साथ… 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 295 ⇒ दाहिना हाथ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दाहिना हाथ।)

?अभी अभी # 295 ⇒ दाहिना हाथ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

right hand

हम सबके शरीर में दो हाथ और दो पांव हैं। दाहिना और बायां।

एक पांव से भी कहीं चला जाता है। कुछ जानवर तो चौपाये भी होते है, वहां उन्हें दो हाथों की सुविधा नहीं होती। एक से भले दो। एक अकेला थक जाता है इसलिए दोनों हाथ मिल जुलकर आसानी से काम निपटा लेते हैं। किसी से अगर दो दो हाथ करने पड़े, तो दोनों हाथ एक हो जाते हैं। एक हाथ से कहां काम होता है, प्रार्थना में भी दोनों हाथ जुड़ ही जाते हैं।

खाने के लिए मुंह हमें भगवान ने भले ही एक दिया हो, लेकिन वहां भी वह देखने के लिए मस्त मस्त दो नैन और सुनने के लिए दो दो कान देना नहीं भूला। नासिका भले ही हमें एक ही नजर आती हो, लेकिन वहां भी उसके दो द्वार हैं, आगम निगम। सांस इधर से अंदर, उधर से बाहर। हम भले ही ज्यादा अंदर नहीं झांकें, फिर भी दो दो किडनी और एक दिल और सौ अफसाने।।

वैसे तो अपना हाथ जगन्नाथ है ही, लेकिन हमारे दाहिने हाथ के साथ कुछ विशेष बात है। आपने शायद एक्स्ट्रा ab के बारे में नहीं सुना हो, लेकिन हर व्यक्ति के पास एक एक्स्ट्रा दाहिना हाथ होता है, जिसे आप अंग्रेजी में राइट हैंड भी कह सकते हैं। लेकिन यह हाथ अदृश्य होते हुए भी, मौका आने पर सबको नज़र आता है।

यह कोई पहेली नहीं, महज एक कहावत नहीं, एक हकीकत है। जो व्यक्ति संकट में, मुसीबत में, अथवा जरूरत पड़ने पर हमेशा आपके काम आता है, उसे आपका दाहिना हाथ ही कहा जाता है। कहीं कहीं तो गर्व से उस व्यक्ति का परिचय भी कराया जाता है। ये मेरे दाहिने हाथ हैं।

He is my right hand.

He or she, it doesn’t matter. कभी मेरी बहन मेरी राइट हैंड थी, तो उसके बाद एक परम मित्र मेरे जीवन में आए, जो वास्तव में मेरे दाहिने हाथ ही थे।।

हम सबके जीवन में कभी ना कभी ऐसे हितैषी अथवा सहयोगी का प्रवेश अवश्य होता है, जो हमारे हर काम में हमारा हाथ बंटाता है। उसके पीछे उसका कोई स्वार्थ नहीं होता। केवल

परिस्थितिवश ही ऐसे दाहिने हाथ हमसे अलग हो सकते हैं, जिसका हमें हमेशा मलाल और अफसोस बना रहता है।

राजनीति में आपको कई दाहिने हाथ नजर आ जाएंगे, लेकिन कौन कब तक साथ निभाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। यहां दाहिने हाथ तो कम ही होते हैं, strange bed fellows ही अधिक होते हैं। कोई नीतीश कब किसके साथ नातरा कर ले, कुछ कहा नहीं जा सकता। समय समय का फेर है। फिलहाल तो सत्ता के आसपास, एक नहीं कई, दाहिने हाथ नजर आ रहे हैं, जिनमें आजकल हाथ तो काम, पंजे ही अधिक दिखाई दे रहे हैं।।

जब तक इस संसार में इंसानियत है, हमारी नीयत साफ है, हमारे जीवन में भी, ऐसे दाहिने हाथ जरूर आते रहते हैं। अपने दोनों हाथों के लिए तो हम ईश्वर को धन्यवाद देते ही हैं, साथ ही उन सभी दाहिने हाथों को भी नमन करते हैं, जिन्होंने मुसीबत में किसी का हाथ थामा है, सुख दुख में सदा उनका साथ दिया है। निर्बल के बल राम। हम भी किसी के दाहिने हाथ बन सकें, ईश्वर हमें भी ऐसा अवसर प्रदान करे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 294 ⇒ हालचाल ठीक ठाक हैं… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हालचाल ठीक ठाक हैं।)

?अभी अभी # 294 हालचाल ठीक ठाक हैं? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब तक दफ्तर में काम करते रहे, साहब की गुड मॉर्निंग का जवाब, गुड मॉर्निंग से देते रहे, जिसने राम राम किया, उसको राम राम किया और जिसने जय श्री कृष्ण किया, उनसे जय श्री कृष्ण भी किया। इक्के दुक्के जय जिनेन्द्र वाले भी होते थे। आप इसे सामान्य अभिवादन का एक सर्वमान्य तरीका भी कह सकते हैं।

बहुत कम ऐसा होता है कि अभिवादन का जवाब नहीं दिया जाए। कहीं अभिवादन की पहल होती है और कहीं उसका जवाब दिया जाता है। जहां भी साधारण परिचय है, वहां मिलने पर इसे आप एक सहज अभिव्यक्ति कह सकते हैं। औपचारिक होते हुए भी आप इसे व्यावहारिक जगत का एक अभिन्न अंग कह सकते हैं।।

मुझे नमस्ते अभिवादन में उतनी ही सहज लगी, जितनी लोगों को गुड मॉर्निंग, राम राम, जय श्री कृष्ण अथवा जय श्री राम लगती है। लेकिन राम राम का जवाब राम राम से देना और जय श्री कृष्ण का जवाब जय श्री कृष्ण से देना ही ज्यादा उचित होता है।

तकिया कलाम की तरह सबके अपने अपने अभिवादन होते हैं। कहीं जय माता दी तो कहीं जय बजरंग बली। जय सियाराम से चलकर आज यह कहीं जय श्री राम, तो कहीं जय साईं राम तक पहुंच गई है। कहीं कहीं तो अभी भी भोले, गुरु और उस्ताद से ही काम चल रहा है।।

कुछ लोगों का तो यह भी आग्रह रहता है कि फोन पर हेलो की जगह भगवान अथवा अपने इष्ट का नाम ही लिया जाए। आजकल व्हाट्सएप और मैसेंजर पर गुड मॉर्निंग के रंग बिरंगे, सूर्योदय, नदी पहाड़ और फूल पत्तियों से सुजज्जित हिंदी अंग्रेजी में फॉरवर्डेड मैसेज आते हैं, जिन्हें गमले की तरह, सिर्फ इधर से उठाकर उधर रख दिया जाता है। कुछ लोगों को यह औपचारिकता भी पसंद नहीं आती।

व्यावसायिक की तुलना में, एक उम्र के बाद, व्यक्तिगत फोन वैसे भी कम ही आते हैं। जहां बाल बच्चे और परिजन परदेस में होते हैं, वहां नियमित समय बंधा रहता है, वीडियो कॉल पर ही बात होती है। मन फिर भी नहीं भरता। लेकिन दुनिया में ऐसा कहां, सबका नसीब है।।

कहीं कहीं परिस्थितिवश स्थिति एकांगी हो जाती है। यानी मिलने जुलने वाले लोगों का आना जाना कम हो जाता है और फोन कॉल्स भी इक्के दुक्के ही आते हैं। सामान्य तरीके से हालचाल पूछे जाते हैं, जिसका जवाब भी ठीक ठाक ही देना पड़ता है। आप कैसे हैं, हां ठीक है। सामने वाले को तसल्ली हो जाती है। जब कि दिल का हाल तो अपनों को ही सुनाया जाता है।

ज्ञानपीठ वाले गुलजार के ही शब्द हैं, जो ऐसे लोगों का दर्द बयां कर जाते हैं ;

कोई होता जिसको अपना

हम अपना कह लेते यारों।

पास नहीं तो दूर ही होता

लेकिन कोई मेरा अपना।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 261 ☆ आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 261 ☆

? आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले ?

पाठक लेखक के साथ उसकी लेखन नौका पर सवार होकर रचना में अभिव्यक्त वैचारिक  प्रवाह की दिशा में पाठकीय सफर करता है। यह लेखक के रचना कौशल पर निर्भर होता है कि वह अपने पाठक के रचना विहार को कितना सुगम, कितना आनंदप्रद और कितना उद्देश्यपूर्ण बना कर पाठक के मन में अपनी लेखनी की और विषय की कैसी छबि अंकित कर पाता है। रचना का मंतव्य समाज की कमियों को इंगित करना होता है। इस प्रक्रिया में लेखक स्वयं भी अपने मन के उद्वेलन को  रचना लिखकर शांत करता है। जैसे किसी डाक्टर को जब मरीज अपना सारा हाल बता लेता है, तो इलाज से पहले ही उसे अपनी बेचैनी से किंचित मुक्ति मिल जाती है। उसी तरह लेखक की दृष्टि में आये विषय के समुचित प्रवर्तन मात्र से रचनाकार को भी सुख मिलता है। लेखक समझता है कि ढ़ीठ समाज उसकी रचना पढ़कर भी बहुत जल्दी अपनी गति बदलता नहीं है पर साहित्य के सुनारों की यह हल्की हल्की ठक ठक भी परिवर्तनकारी होती है। व्यवस्था धीरे धीरे ही बदलतीं हैं। साफ्टवेयर के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रो में जो पारदर्शिता आज आई है, उसकी भूमिका में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखी गई व्यंग्य रचनायें भी हैं। शारीरिक विकृति या कमियों पर हास्य और व्यंग्य अब असंवेदनशीलता मानी जाने लगी है। जातीय या लिंगगत कटाक्ष असभ्यता के द्योतक समझे जा रहे हैं, इन अपरोक्ष सामाजिक परिवर्तनों का किंचित श्रेय बरसों से इन विसंगतियों के खिलाफ लिखे गये साहित्य को भी है। रचनाकारों की यात्रा अनंत है, क्योंकि समाज विसंगतियों से लबरेज है।

पुस्तक दीर्घ जीवी होती हैं। वे संदर्भ बनती हैं। आज या तो डोर स्टेप पर ई कामर्स से पुस्तकें मिल जाती हैं, या एक ही स्थान पर विभिन्न पुस्तकें लाइब्रेरी या पुस्तक मेले में ही मिल पाती हैं। अतः पुस्तक मेलों की उत्सव धर्मिता बहु उपयोगी है। और नई किताबों से पाठको को जोड़े रखने में हमेशा बनी रहेगी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 72 – देश-परदेश – लीप वर्ष ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 72 ☆ देश-परदेश – लीप वर्ष ☆ श्री राकेश कुमार ☆

प्रत्येक चार वर्ष के पश्चात लीप वर्ष याने वर्ष का सबसे छोटा माह फरवरी भी थोड़ा सा बड़ा हो जाता हैं।

कुछ दिन पूर्व एक पेंशनर साथी ने फोन कर जानकारी मांगी थी, क्या फरवरी की पेंशन दो/ तीन जल्दी याने कि हर माह साताईस को मिलती है, तो क्या इस बार पच्चीस तारीख को मिलेगी ना। उनके तर्क में दम हैं।

मन में विचार आया कि जो दिहाड़ी/ दैनिक वेतन पर भुगतान प्राप्त करते हैं, उनका तो इस माह नुकसान रहेगा।

पेपर में उपभोक्ता सामान पर लीप डिस्काउंट भी आरंभ हो गया हैं। रेडीमेड शर्ट विक्रेता एक के साथ तीन शर्ट और खरीदने पर छूट के लुभाने ऑफर दे रहें हैं।

होटल वाले भी आपके लिए ” लीप की शाम” का ऐलान करने लगे हैं। पैसा फैंक तमाशा देख।

आज एक मित्र का मैसेज आया कि उन्नतीस को क्या कार्यक्रम हैं। हमने कहा कुछ नहीं घर पर ही रहेंगे, आ जाओ। मित्र बोला इस बार की उन्नतीस कुछ खास है, चार वर्ष के बाद फरवरी में ये तारीख़ आती है। सर्दी भी वापस हो रही है, कहीं आस पास सब मित्र भ्रमण हेतु चलते हैं। मज़ाक में बोला क्या पता हम लोग की ये आखरी उन्नतीस फरवरी हो।

हमारे ये मित्र भी जिंदादिल है, मौका ढूंढते रहते है, सब को साथ मिल कर कुछ नया करने का कार्यक्रम जमा देते हैं।

आपने, अपने मित्र/ परिवार के साथ कोई कार्यक्रम बनाया या  नहीं ? हमारा काम तो, था आपको आगाह करने का, आगे आपकी मर्जी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। ई -अभिव्यक्ति में आज से प्रत्येक सोमवार आप आत्मसात कर सकेंगे एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  महाकोशल क्षेत्र के एक लोकप्रिय सौम्य, गरिमामय व्यक्तित्व के धनी, प्रखर कवि, लेखक, पत्रकार, संपादक व  जनेता – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी”)

☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆

पंडित भवानी प्रसाद तिवारी☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(सौम्य, गरिमामय व्यक्तित्व के धनी, प्रखर कवि लेखक व संपादक)

कवि, पत्रकार और राजनेता के रूप में समान लोकप्रियता के धनी पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जनसभाओं में प्रतिष्ठित राजनेताओं और साहित्यकारों के बीच में से श्रोताओं की सहज श्रद्धा और लोकप्रियता के एक मात्र पात्र बनने की सामर्थ्य रखते थे। सात बार जबलपुर नगर निगम के महापौर चुने गए थे, लम्बे समय राज्यसभा सांसद रहे। वे ‘प्रहरी’ पत्रिका के ऐसे सफल सम्पादक थे जिन्होंने देश को समर्थ और लोकप्रिय हरिशंकर परसाई जैसा व्यंग्यकार दिया, परसाई जी की पहली रचना और पहला कालम ‘नर्मदा के तट से’ प्रहरी से ही प्रारंभ हुआ। कवि के रूप में आदरणीय तिवारी जी जन जन के बीच लोकप्रिय थे। राजनीति और साहित्य के पारस्परिक संबंधों के बारे में उनका कहना था…

“जब राजनीति पथभ्रष्ट होती है तब साहित्य विद्रोही हो जाता है”

1942 के जन आंदोलन के समय पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जी जबलपुर नगर कांग्रेस के अध्यक्ष थे, और पूरे देश में यह अकेला शहर था जहां सेना के जवान अपनी बैरकों से बाहर आ गए थे,यह तिवारी जी के समर्थ नेतृत्व का ही परिणाम था कि 1942 में जबलपुर का अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन समूचे महाकौशल में जन जाग्रति का वाहक बनकर फैला। सन् 1942 में गिरफ्तार हो उन्हें जेल यात्रा करनी पड़ी,जेल में भी उनका समय व्यर्थ नहीं गया  यहीं उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ का अध्ययन मनन किया और गीतांजलि का अनु -गायन जैसा उनके द्वारा संभव हुआ।आज भी हिन्दी में प्रकाशित कोई भी अनुवाद उसके समक्ष बेसुरा प्रतीत होता है, गीतांजलि अनु गायन के प्रकाशित होते ही उनकी यश-कीर्ति नगर और राज्य की सीमा लांघकर सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में फैली…

‘दिखते हैं प्रभु कहीं,

यहाँ नहीं यहाँ नहीं,

फिर कहाँ? अरे वहाँ,

जहां कि वह किसान दीन,

वसनहीन तन मलीन,

जोतता कड़ी जमीन,

प्रभु वहीं कि जहां पर

वह मजूर करता है

चोटों से पत्थर को चूर’

प्राण पूजा’ और ‘प्राण धारा’ उनके मूल कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे,’तुम कहां चले गए’ शोक कविताओं का लघु संग्रह है, ‘जब यादें उभर आतीं हैं’ उनके संस्मरणात्मक वैयक्तिक निबंधों का संग्रह है, ‘गांधी जी की कहानी’ गांधी के महान व्यक्तित्व को सरल भाषा में किशोरोपयोगी बनाने का प्रयास था। कथा वार्ता उनकी कथात्मक एवं समीक्षात्मक रचनाओं का संग्रह है। श्री तिवारी जी की ‘प्रहरी’ पत्रिका में प्रकाशित ‘हाथों के मुख से’ और ‘संजय के पत्र’ , ‘हमारी तुमसे और तुम्हारी हमसे’ जैसे स्तंभों में छपी सेंकड़ों पृष्ठों की सामग्री हिंदी साहित्य के क्षेत्र में रचनात्मक योगदान के रूप में याद रखी जाएगी।

एक पूरी की पूरी साहित्यिक पीढ़ी जिसमें सर्वश्री केशव पाठक, रामानुज लाल श्रीवास्तव, सुभद्रा कुमारी चौहान, नर्मदा प्रसाद खरे, हरिशंकर परसाई, रामेश्वर गुरू, जैसे महान साहित्यकार उनकी प्रहरी पत्रिका में प्रकाशित हुए। राजनेता और पत्रकार से भिन्न उनका साहित्यिक व्यक्तित्व सर्वोपरि था जो उनके इन दोनों रूपों को सहज ही आच्छादित किए रहता था, और मंच से बोलते हुए तिवारी जी के भाषण और भंगिमा में इस व्यक्तित्व का इतना अधिक प्रभाव रहता था कि उनके साहित्यिक श्रोताओं को तिवारी जी की काव्य पंक्तियां याद आने लगतीं थीं। लोग बताते हैं कि होली जैसे जन पर्व के अवसर पर या शरद पूर्णिमा के कवि सम्मेलन में उनकी मधुर संवेदनशील वाणी सहज ही गूंज जाती थी….

‘फूल ने पांवड़े बिछाए हैं,

      कौन ये मेहमान आये हैं ‘

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 293 ⇒ त्याग पत्र उर्फ इस्तीफा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “त्याग पत्र उर्फ इस्तीफा।)

?अभी अभी # 293 ⇒ त्याग पत्र उर्फ इस्तीफा… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भोग से विरक्ति को त्याग कहते हैं, और पद से त्याग को त्याग पत्र कहते हैं। जिस तरह निवृत्ति से पहले प्रवृत्ति आवश्यक है, उसी प्रकार त्याग पत्र से पहले किसी पद पर नियुक्ति आवश्यक है। सेवा मुक्त भी वही हो सकता है जो कहीं सेवारत हो। सेवा से रिटायरमेंट और टर्मिनेशन से बीच की स्थिति है यह त्याग पत्र।

सेवा चाहे देश की हो अथवा समाज की, शासकीय हो अथवा गैर सरकारी, जिसे आजकल सुविधा के लिए प्राइवेट जॉब कहते हैं।

जॉब शब्द से काम, धंधा और मजदूरी की गंध आती है, जब कि सेवा शब्द में ही त्याग, सुकून और चारों ओर सुख शांति नजर आती है। शासकीय सेवा, भले ही सरकारी नौकरी कहलाती हो, लेकिन कभी शादी के रिश्ते की शर्तिया गारंटी कहलाती थी। लड़का शासकीय सेवा में है, यह एक तरह का चरित्र प्रमाण पत्र होता था।।

वैसे तो सेवा अपने आप में एक बहुत बड़ा त्याग है, लेकिन कभी कभी परिस्थितिवश इंसान को इस सेवा से भी त्याग पत्र देना पड़ता है। जहां अच्छे भविष्य की संभावना हो, वहां वर्तमान सेवा से निवृत्त होना ही बेहतर होता है। ऐसी परिस्थिति में औपचारिक रूप से त्याग पत्र दिया जाता है और साधारण परिस्थितियों में वह मंजूर भी हो जाता है। आधी छोड़ पूरी का लालच भी आप चाहें तो कह सकते हैं।

एक त्याग पत्र मजबूरी का भी होता है, जहां आप व्यक्तिगत कारणों के चलते, स्वेच्छा से त्याग पत्र दे देते हैं। लेकिन कुछ देश के जनसेवकों पर लोकसेवा का इतना दायित्व और भार होता है, कि वे कभी पद त्यागना ही नहीं चाहते। अतः उनके पद भार की समय सीमा बांध दी जाती है। उस समय के पश्चात् उन्हें इस्तीफा देना ही पड़ता है।।

जो सच्चे देशसेवक होते हैं, वे कभी देश सेवा से मुक्त होना ही नहीं चाहते। जनता भी उन्हें बार बार चुनकर भेजती है। ऐसे नेता ही देश के कर्णधार होते हैं। इन्हें सेवा में ही त्याग और भोग के सुख की अनुभूति होती है।

लेकिन सबै दिन ना होत एक समाना। पुरुष के भाग्य का क्या भरोसा। कभी बिल्ली के भाग से अगर छींका टूटता है, तो कभी सिर पर पहाड़ भी टूट पड़ता है। अच्छा भला राजयोग चल रहा था, अचानक हायकमान से आदश होता है, अपना इस्तीफा भेज दें। आप हवाले में फंस चुके हैं।।

एक आम इंसान जब नौकरी से रिटायर होता है तो बहुत खुश होता है, अब बुढ़ापा चैन से कटेगा। लेकिन एक सच्चा राजनेता कभी रिटायर नहीं होता। राजनीति में सिर्फ त्याग पत्र लिए और दिए जाते हैं, राजनीति से कभी सन्यास नहीं लिया जाता।

आज की राजनीति सेवा की और त्याग की राजनीति नहीं है, बस त्याग पत्र और इस्तीफे की राजनीति ही है। जहां सिर्फ सिद्धांतों को त्यागा जाता है और अच्छा मौका देखकर चलती गाड़ी में जगह बनाई जाती है।

अपनों को छोड़ा जाता है, और अच्छा मौका तलाशा जाता है। जहां त्याग पत्र एक हथियार की तरह इस्तेमाल होता है, और इस्तीफा, इस्तीफा नहीं होता, धमाका होता है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 292 ⇒ कंधा और बोझ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कंधा और बोझ।)

?अभी अभी # 292 ⇒ कंधा और बोझ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हाथ जहां से शुरू होते हैं, उसे कंधा कहते हैं जितने हाथ उतने ही कंधे।

अक्सर हम जिन हाथों को मजबूत करने की बात करते हैं, वे खुद मजबूत कंधों पर आश्रित होते हैं।

अगर कंधा कमजोर हुआ, तो हाथ किसी काम का नहीं। फिल्म नया दौर में दिलीप साहब हाथ बढ़ाने की बात करते हैं। साथी हाथ बढ़ाना साथी रे। एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना। यहां पूरा बोझ तो कंधों पर है, और श्रेय हाथ ले रहे हैं।

एक फिल्म आई थी जागृति। उसमें भी कुछ ऐसा ही गीत था। हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के। इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के। यानी पूरा बोझ बेचारे मासूम बच्चों पर। क्या आपको उनके कंधों पर लदे भारी बस्ते का बोझ नजर नहीं आता। और पूरे देश का बोझ उन पर लादने चले हो। बच्चे की जान लोगे क्या।।

हम जब छोटे थे तो कुछ औरतों को सर पर टोकनी उठाए देखते थे। किसी में सब्जी तो किसी में बर्तन।

ये मोहल्ले में फेरी लगाती थी। बर्तन वाली औरतें घर के पुराने कपड़ों के एवज में नए घर गृहस्थी के बर्तन देती थी। एक तरह का एक्सचेंज ऑफर था यह।

कपड़े दे दो, बर्तन ले लो, पैसे दे दो, जूते ले लो, की तर्ज पर। याद कीजिए फिल्म, हम आपके हैं कौन।

ऐसी ही कोई कपड़े बर्तन वाली औरत राह चलते, हमें रोक लेती थी। बोझा जब जमीन पर होता है, तो उसे सर पर लादने के लिए किसी की मदद लेनी पड़ती है। जब वह हमसे मिन्नत करती, बेटा जरा हाथ लगा दो, बहुत भारी है, तो हम पहले आसपास देखते थे, लेकिन फिर अनिच्छा से ही सही, हाथ लगा ही देते थे। वाकई, बोझा बहुत भारी होता था। कुछ समय के लिए हम सोच में भी पड़ जाते थे, इतना वजन, यह औरत कैसे उठा लेती है, लेकिन फिर सजग हो, अपने रास्ते चल पड़ते थे। उसकी दुआ जरूर हमें सुनाई देती थी, जिसे हम भले ही अनदेखा कर देते थे, लेकिन मन में किसी को मदद की संतुष्टि का भाव फिर भी आ ही जाता था।।

किसके कंधों पर कितनी जिम्मेदारियों का और कितनी मजबूरियों का बोझ है, यह केवल वह ही जानता है। शरीर के बोझ से मन का बोझ अधिक भारी होता है, लेकिन आप मानें या ना मानें, वह बोझ भी यही कंधे ढोते रहते हैं।

किसी के झुके हुए कंधों से ही पता चल जाता है, यह बेचारा, काम के बोझ का मारा, कुछ लेते क्यों नहीं, हमदर्द का सिंकारा।

जब बच्चे थे, तो पिताजी के कंधे पर बैठकर घूमने जाते थे। बड़े खुश होते थे, हम कितने बड़े हो गए हैं। जब असल में बड़े हुए तो असलियत पता चली, हमारे कंधों पर कितना बोझ है।।

चलो रे, डोली उठाओ कहार, पीया मिलन की रुत आई। लेकिन आजकल कहां कहार भी डोली उठाते हैं। चार पहियों की चमचमाती कार से, ब्यूटी पार्लर से सज धजकर आई दुल्हन, विवाह मंडप में प्रवेश करती है। कंधों से अधिक, कानों पर डायमंड इयररिंग्स का बोझ।

जमाना कितना भी आगे बढ़ जाए, जब इंसान यह संसार छोड़ता है तो चार कंधों की अर्थी पर ही जाना पड़ता है। यानी जन्म से अंतिम समय तक कंधे का साथ नहीं छूटता। अर्थी का बोझ भी मजबूत कंधे ही उठा पाते हैं। हमने तो जिधर भी कंधा लगाया है, अर्थी उधर ही झुकी है। कहीं से लपककर मजबूत कंधे आते हैं, और अर्थी से अधिक हमें राहत महसूस होती है। ईश्वर ना करे, हमें कभी किसी को कंधा देना पड़े, बोझ के मारे, हमारा कंधा उतर भी सकता है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 230 – चुंबकत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 230 ☆ चुंबकत्व ?

यात्रा पर हूँ और गाड़ी की प्रतीक्षा है। देख रहा हूँ कि कुछ दूर चहलकदमी कर रही चार- पाँच साल की एक बिटिया अपनी माँ से मोबाइल लेकर जाने किससे क्या-क्या बातें कर रही है। चपर-चपर बोल रही है। बीच-बीच में ज़ोर से हँसती है। ध्यान देने पर समझ में आया कि मोबाइल के दोनों छोर पर वही है। जो डायल कर रहा है, वही रिसीव भी कर रहा है। माँ के आवाज़ देने पर बोली, ‘अरे मम्मा, फोन पर बात कर रही हूँ, झूठी-मूठी की बात…’ और खिलखिला पड़ी। अलबत्ता उसके झूठमूठ में दुनिया भर की सच्चाई भरी हुई है। सच्चे मोबाइल पर सच्ची सहेली से बातें। सब कुछ इतना सुथरा, इतना पारदर्शी, इतना सच्चा कि मोबाइल सैटेलाइट की जगह मन के तारों से कनेक्ट हो रहा है।

छोटे बच्चों के चेहरे तपाक से कनेक्ट कर लेते हैं। निष्पाप, सदा हँसते, ऊर्जा से भरपूर। उनकी सच्चाई का कारण स्पष्ट है, जो डायल कर रहा है, वही रिसीव कर रहा है। भीतर-बाहर कोई भेद नहीं। भीतर-बाहर एक। द्वैत भीड़ में अद्वैत।

इस एकात्म ‘डायलर-रिसीवर फॉर्मूले को क्या हम नहीं अपना सकते? याद कीजिए, पिछली बार अपने आप से कब बातचीत की थी? अपने आप से बात करना याने अपने सर्वश्रेष्ठ मित्र से बात करना, ऐसी आत्मा से बात करना जिससे अपना भीतर आ-बाहर कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। अपने आप से वार्तालाप याने परमात्मा से संवाद।

एकाएक बिना कोई नंबर फिराए अपने आप से बात कर रहा हूँ। अनुभव कर रहा हूँ कि यों चपर- चपर बोलना और खिलखिलाना ज़रा भी कठिन नहीं। भीतर नई ऊर्जा प्रवाहित हो रही है।

संभव है कि मेरी बातों से तुम मेरी ओर खिंचे चले आओ, पर सुनो! सदा लौह बने रहने के बजाय चुंबक बनने का प्रयास करो। खुद को डायल करो, खुद रिसीव करो, चुंबकत्व खुद तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाएगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 291 ⇒ पीठ सुनती है… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पीठ सुनती है।)

?अभी अभी # 291 ⇒ पीठ सुनती है… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब दीवारों के कान हो सकते हैं, तो पीठ क्यों नहीं सुन सकती ? एक समय था, जब दीवारें भी मजबूत हुआ करती थीं, आज की तरह चार इंच की नहीं। मोटी मोटी दस इंच की दीवारें, जिनमें आले भी, होते थे और ताक भी, और तो और अलमारी भी। कमरों की दीवारों में या तो खिड़कियां होती थीं, या फिर रोशनदान। खिड़की अथवा रोशनदान ही संभवतः दीवारों के कान होते होंगे, जिनसे हवा के साथ कई रहस्य भी दीवारों तक पहुंच जाते होंगे। शायर लोग दीवारों से सर यूं ही नहीं टकराया करते। दीवारें जरूर उनके कान में कुछ कहती होंगी।

जब हम दीवार की ओर पीठ करके खड़े होते हैं, तो शायद हमारी पीठ भी कुछ तो सुनती ही होगी। मुझे अच्छी तरह याद है, बचपन में मैं दीवार से सटकर बैठता था, तो शरीर में कुछ सिहरन, कुछ सरसरी सी होती थी, ऐसा महसूस होते ही, जहां हाथ उस जगह पहुंचा, अनायास खटमल हाथ में आ जाता था। खटमलों की टोली पीठ पर चढ़कर आस्तीन तक पहुंच जाती थी। हमने आस्तीन में सांप ही नहीं, खटमल भी पाले हैं।।

हम जब किसी की तारीफ करते हैं, तो उसकी पीठ थपथपाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के वक्त सभी सदस्य मेज़ थपथपाया करते हैं। किसी प्रस्ताव को ध्वनिमत से पास करने पर भी मेज़ थपथपाई जाती है। पीठ को थपथपाने पर पीठ को भी कुछ कुछ होता है, पीठ तो सहलाने पर वह भी अभिभूत हो जाती है। पीठ सब सुनती भी है, और महसूस भी करती है।

इंसान का सबसे ज्यादा बोझ उसकी पीठ ही वहन करती है। कंधों पर भी तो बोझ होता है, लेकिन दोनों कंधे भी तो पीठ पर ही लदे रहते हैं। इंसान हो या कछुआ, पीठ तो दोनों की ही मजबूत होती है। हमारा तो छोड़िए, पूरी पृथ्वी का भार वहन करते कूर्मावतार।।

पीठ पीछे तारीफ ही नहीं, बुराई भी होती है। युद्ध में बुजदिल पीठ दिखाते हैं, कायर पीठ पीछे छुरा भी भोंकते हैं, पीठ पीछे लोग क्या क्या गुल खिलाते हैं, कभी पलटकर भी देखिए। हमें अपनी पीठ नजर नहीं आती, सामने सीना जरूर नजर आता है क्योंकि हमने सीना तानकर ही चलना सीखा है। हम अपनी पीठ ना तो देखते हैं, और ना ही किसी को दिखाते हैं। जिसकी बुराई करना हो, निःसंकोच उसके मुंह पर करते हैं, लेकिन पीठ पीछे उसकी तारीफ ही करते हैं।

हमारी पीठ ही हमारी रीढ़ है, शरीर की सबसे मजबूत और लचीली हमारी रीढ़ ही है। यह हमें झुकना भी सिखाती है और तनकर खड़े रहना भी। स्थूल और सूक्ष्म, मूलाधार से सहस्रार, पंच तत्व और सातों लोक इसी में समाए हैं। लोग आस्तीन में सांप पालते हैं, जब कि असली सर्पिणी रूपी ज्ञानवती कुंडलिनी तो यहीं विराजमान है।।

विद्या और ज्ञान को हम पीठ कभी नहीं दिखाते। विद्यापीठ, ज्ञानपीठ सृजन पीठ और व्यास पीठ हमारे ज्ञान के आगार हैं। श्रुति, स्मृति से यह ज्ञान पुस्तकों में आया और बच्चों की पीठ पर किताबों का बोझ लाद दिया गया। बच्चों की पीठ पर किताबें हैं, या गेहूं का बोरा।

जो पढ़ लिख गया और लिखने, पढ़ने, छपने लग गया, उसे जीवन में कभी सरस्वती सम्मान, व्यासपीठ सम्मान अथवा ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिल सकता है। ज्ञान की पीठ इनमें सर्वश्रेष्ठ होती है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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