हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 149 ☆ खाली झोली भरते देर नहीं लगती… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “खाली झोली भरते देर नहीं लगती…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 149 ☆

☆  खाली झोली भरते देर नहीं लगती… ☆

भागादौड़ी के चलते हर कार्य अधूरे रह जाना, सबको खुश रखने के चक्कर में सबको दुःखी कर देना, हर कार्य में मुखिया की तरह स्वयं को प्रस्तुत करना, ये सब जो भी करता है वो विलेन के रूप में अनजाने ही कार्यों को बिगाड़ने लगता है ।

अक्सर आपने देखा होगा कि जो व्यक्ति सबके दुःख सुख में शामिल होता है उसकी जरूरत के समय लोग उससे पल्ला झाड़ लेते हैं, क्योंकि कोई मानता ही नहीं कि उसने कभी कुछ अच्छा किया है। उसकी नकारात्मक छवि लोगों के हृदय में बन जाती है ।

कहते हैं जीत और हार एक सिक्के के दो पहलू  होते हैं। माना कि जीतना एक कला है किंतु इसे सम्हाल कर पाना एक कुशलता है। अयोग्य व्यक्ति को जब भी छप्पर फाड़ कर सफलता मिलती है तो थोड़े समय में ही थोथा चना बजे घना जैसी स्थितियाँ पैदा करते हुए वह उत्साह में खूब हो हल्ला करता है। पर जल्दी ही पता नहीं किसकी नज़र लग जाती है और सब कुछ एक झटके में बिखर जाता है ।

इधर जोड़- तोड़ के खिलाड़ी हारी बाजी को अपने तरफ करते हुए मुखिया के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। जो लोग पूर्वाग्रह को छोड़कर  चरैवेति- चरैवेति  के सिद्धांत को अपनाते हैं, उनकी मदद ईश्वर स्वयं करते हैं। किसी ने सही कहा है- हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं।

मदारी की तरह भले ही डुगडुगी बजानी पड़े किन्तु लक्ष्य को सदैव सामने रखना चाहिए। खाली झोली भरते, चमत्कार होते देर नहीं लगती। बहुमत का क्या वो तो समय के अनुसार बदलता रहता है। वैसे भी कुरुक्षेत्र में एक नारायण के आगे पूरी नारायणी सेना को हारते देर नहीं लगती। सब कुछ छोड़कर बस ईमानदारी से चलते रहिए मंजिलें स्वयं आपकी झोली भरती रहेंगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 43 ⇒ कुछ मीठा हो जाए… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कुछ मीठा हो जाए”।)  

? अभी अभी # 43 ⇒ कुछ मीठा हो जाए? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हमारे भारतीयों के जीवन में मिठास का कारण हमारा मीठा स्वभाव, मीठे बोल, मीठे मीठे रस्म रिवाज हैं। गरीब से गरीब के घर में प्याज रोटी के साथ, एक गुड़ की डली तो आपको नसीब होगी ही। कलेक्टर के आवास में चपरासी रोज प्रवेश करता है, लेकिन कलेक्टर महोदय तो चपरासी के घर यदा कदा ही रुख करते होंगे और वह भी किसी विशेष प्रयोजन के अवसर पर। कितना खुश होता होगा, उनकी आवभगत करके, उनके साथ तस्वीर खिंचा के। उसे लगता है उसका जीवन धन्य हो गया।

अधिकतर कलेक्टर तो यह जिम्मेदारी भी अपने मातहत पर डाल देते हैं। इन छोटे लोगों को इतना मुंह लगाना ठीक नहीं। कल से ही मुंह लगने लगेगा।।

मीठे पर तो एक चींटी का भी अधिकार है। हमारे जीवन के सुख दुख मीठे नमकीन में ही गुजर जाते हैं। इस स्वाभाविक मिठास को भी बड़े अभियात्य तरीके से हमसे दूर किया जा रहा है। छोरा गंगा किनारे वाला, अपनी संस्कृति भूल भारतीय सांस्कृतिक उत्सवों पर कैडबरी चॉकलेट का विज्ञापन सालों से करते आ रहे हैं, कुछ मीठा हो जाए। थोड़े अपने दांत खराब कर लिए जाएं, बड़े बूढ़ों को लालच दिलाकर उन्हें शुगर का पेशेंट बनाया जाए।

परीक्षा का पर्चा देते वक्त, घर से निकलने के पहले मां के हाथ से एक चम्मच मीठा दही, कितना बड़ा शगुन था। मन में लड्डू फूट रहे हैं, शादी तय हो गई है, किससे कहें, किससे छुपाएं, चाची सब समझ जाती, कहती, लल्ला, आपके मुंह में घी शक्कर, ये बात कोई छुपने वाली है, रिश्ता तो हमने ही कराया है, घोड़ी भी हमीं चढ़ाएंगे।।

तब हमने कहां कॉफी, आइस्क्रीम और केक, पेस्ट्री का नाम सुना था। बस संतरे के शेप वाली गोली, जे. बी.मंघाराम के गोली बिस्किट और एकमात्र रावलगांव। आजकल तो बिस्किट को भी कुकीज कहने का फैशन है। हम दही छाछ पीने वाले क्या जाने कोक, पेप्सी और हेल्थ ड्रिंक का स्वाद।।

हमने कभी मीठे को स्वीट्स माना ही नहीं। हमारे लिए वह हमेशा लड्डू, पेड़ा, जलेबी, इमरती और रबड़ी ही रही। तब किसने सुन रखी थी, शुगर की बीमारी, ब्लड प्रेशर और कोलोस्ट्रोल का नाम। इधर खाया, उधर पचाया।।

हमने अंग्रेजों के दिन नहीं देखे, लेकिन इनके तौर तरीके सब सीख रखे हैं।हम उनकी तरह सुबह कलेवे की जगह ब्रेकफास्ट करने लग गए, लेकिन पोहे जलेबी और आलू बड़े का, और वह भी कड़क मीठी चाय के साथ। जमीन पर बैठकर खाना और पाखाना

दोनों हम भूल चले। 2BHK का फायदा। इस कुर्सी से उठकर बस उस कमोड कर ही तो बैठना है। इसे लैट्रिन, बाथ, किचन कहते हैं। कोई मेहमान आए हॉल में आकर हालचाल पूछने लगे। कुछ मीठा तो लेना ही पड़ेगा।।

बच्चे को कैडबरी पकड़ाई, खुश हो गया।

एक कैडबरी आपको कितनी परेशानियों से बरी करती है। कौन रवे, आटे, गाजर और बादाम का हलवा बनाए, लोग देखते ही मुंह सिकोड़ लेते हैं, एक चम्मच खाकर, मुंह बनाकर रख देते हैं, अच्छा है, क्या करू परहेज है।।

जो बिग बी से प्यार करे, वह कैडबरी से कैसे करे इंकार। बहन की राखी पर भी कैडबरी और कन्या की शादी की विदाई पर भी कैडबरी। लडकियां पन्नी से चॉकलेट निकाल चाटती जा रही है अपने लिपस्टिकी अधरों के बीच, और एक ऐसे वीभत्स रस का प्रदर्शन कर रही है, जो किसी अश्लील प्रदर्शन से कम नहीं।।

रात्रि का भोजन भी तब तक पूरा नहीं हो जाता, जब तक कोई मीठी डिश ना परोसी जाए। बड़ी बड़ी होटलों में तो स्टार्टर, तीन चार तरह के सूप और एक दर्जन सलाद और पापड़ तो अपीटाइजर में लग जाते हैं। पता नहीं, इन्हें भूख कब लगती है।पास्ता, मंचूरियन, मोमोजऔर पिज्जा की तो यहां भी खैर नहीं। बेचारे दाल चावल भी निराश हो जाते हैं, मेरा नंबर कब आएगा।

लेकिन जबान का पक्का आता है, एक चम्मच चावल और दाल ग्रहण कर उन्हें धन्य कर देता है।

जब आप जन गण मन की अवस्था में होते हैं, तो मैन शैफ आपसे अदब से पूछता है, सर कुछ डेजर्ट में लाऊं ? और आप बगले झांकने लगते हैं। सभी आइसक्रीम की वैरायटी, फ्रूट कस्टर्ड, खस शरबत, चीकू शेक और बनाना शेक। बहुमत जानता है, डेजर्ट क्या होता है, और आज का मुर्गा कौन है। बड़ी मुश्किल से आज पकड़ में आया है और फिर आइसक्रीम और चॉकलेट की ऐसी जुगलबंदी चलती है कि ठंड में नौबत तो हॉट आइसक्रीम तक आ जाती है। लगता है कोई आइसक्रीम में कार का जला हुआ ऑयल डाल रहा है। बंदर क्या जाने हॉट आइसक्रीम का स्वाद, जानकार लोग हमें क्षमा करें। फिर कभी मत कहना, कुछ मीठा हो जाए।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 42 ⇒ धुन और ध्यान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धुन और ध्यान।)  

? अभी अभी # 42 ⇒ धुन और ध्यान? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जो अपनी धुन में रहते हैं, उन्हें किसी भी चीज का ध्यान नहीं रहता ! तो क्या धुन में रहना ध्यान नहीं ? जब किसी फिल्मी गीत की धुन तो ज़ेहन में आ जाती है, लेकिन अगर शब्द याद नहीं आते, तो बड़ी बैचेनी होने लगती है ! सीधा आसमान से संपर्क साधा जाता है, ऐसा लगता है, शब्द उतरे, अभी उतरे। कभी कभी तो शब्द आसपास मंडरा कर वापस चले जाते हैं। याददाश्त पर ज़बरदस्त ज़ोर दिया जाता है और गाने के बोल याद आ जाने पर ही राहत महसूस होती है। इस अवस्था को आप ध्यान की अवस्था भी कह सकते हैं, क्योंकि उस वक्त आपका ध्यान और कहीं नहीं रहता।

धुन और ध्यान की इसी अवस्था में ही कविता रची जाती है, ग़ज़ल तैयार होती है। संगीत की धुन कंपोज की जाती है। सारे आविष्कार और डिस्कवरी धुन और ध्यान का ही परिणाम है। जिन्हें काम प्यारा होता है, वे भी धुन के पक्के होते हैं। जब तक हाथ में लिया काम समाप्त नहीं हो जाता, मन को राहत नहीं मिलती। ।

ध्यान साधना का भी अंग है।

किसी प्यारे से भजन की धुन, बांसुरी अथवा अन्य वाद्य संगीत की धुन, मन को एकाग्र करती है और ध्यान के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करती है। आजकल आधुनिक दफ्तर हो, या सार्वजनिक स्थल, होटल हो या रेस्त्रां, और तो और अस्पतालों में भी वातावरण में धीमी आवाज़ में संगीत बजता रहता है। मद्धम संगीत वातावरण को शांत और सौम्य बनाता है।

धुन बनती नहीं, आसमान से उतरती है ! आपने फिल्म नागिन की वह प्रसिद्ध धुन तो सुनी ही होगी ;

मन डोले, मेरा तन डोले

मेरे दिल का गया करार

रे, ये कौन बजाए बांसुरिया।

गीत के शब्द देखिए, और धुन देखिए। आप जब यह गीत सुनते हैं, तो आपका मन डोलने लगता है। लगता है, बीन की धुन सुन, अभी कोई नागिन अपने तन की सुध बुध खो बैठेगी। कैसे कैसे राग थे, जिनसे दीपक जल जाते थे, मेघ वर्षा कर देते थे। संगीत की धुन में मन जब मगन होता है, तो गा उठता है ;

नाचे मन मोरा

मगन तिथ धा धी गी धी गी

बदरा घिर आए

रुत है भीगी भीगी

ऐसी प्यारी धुन हो, तो ध्यान तो क्या समाधि की अवस्था का अनुभव हो जाए, क्योंकि यह संगीत सीधा ऊपर से श्रोता के मन में उतरता है।

रवीन्द्र जैन धुन के पक्के थे।

वे जन्मांध थे, लेकिन प्रज्ञा चक्षु थे। घुंघरू की तरह, बजता ही रहा हूं मैं। कभी इस पग में, कभी उस पग में, सजता ही रहा हूं मैं। ।

इतना आसान नहीं होता, प्यार की धुन निकालना ! देखिए ;

सून साईबा सुन

प्यार की धुन !

मैंने तुझे चुन लिया

तू भी मुझे चुन।।

हम भी जीवन में अगर एक बार प्यार की धुन सुन लेंगे, हमारा ध्यान और कहीं नहीं भटकेगा। वही राम धुन है, वही कृष्ण धुन है। धुन से ही ध्यान है, धुन से ही समाधि है। कबीर भी कह गए हैं, कुछ लेना न देना, मगन रहना।

नारद भक्ति सूत्र में कीर्तन का महत्व बतलाया गया है। कुछ बोलों को धुन में संजोया जाता है और प्रभु की आराधना में गाया जाता है। चैतन्य महाप्रभु हों या एस्कॉन के स्वामी प्रभुपाद।

नृत्य और कीर्तन ही इस युग का हरे रामा, हरे कृष्णा है। जगजीत सिंह की धुन सुनिए, मस्त हो जाइए ;

हरे रामा, हरे रामा

रामा रामा हरे हरे।

हरे कृष्णा, हरे कृष्णा

कृष्णा कृष्णा हरे हरे। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 66 – किस्साये तालघाट… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 66 – किस्साये तालघाट – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का कार्यदिवस चुनौतियों को टीमवर्क के द्वारा परास्त करने के रूप में सामने आया और विषमताओं और विसंगतियों के बावजूद शाखा की हार्मोनी अखंड रही. इस दैनिक लक्ष्य को पाने के बाद स्टाफ विश्लेषण में व्यस्त हो गया. जो दैनिक अपडाउनर्स थे, उन्होंने अपराध बोध के बावजूद दोष रेल विभाग और राज्यपरिवहन को सुगमता से दान कर दिया. पर इस शाखा में एक लेखापाल महोदय भी थे. वैसे दैनिक तो नहीं पर साप्ताहिक अपडाउनर्स तो वो भी थे पर इसे असामान्य मानते हुये उन्होंने DUD याने डेली अपडाउनर्स से इशारों इशारों में बहुत कुछ कह भी दिया. अगर चाहते तो प्रशासनिक स्तर पर नंबर दो होते हुये समस्या के हल की दिशा में संवाद भी कर सकते थे पर उनका यह मानना था कि ये सब तब तक शाखाप्रबंधक के कार्यक्षेत्र में आता है जब तक कि यह दायित्व उनके मथ्थे नहीं पड़ता. ऐसी स्थिति स्थायी रूप से उन्होंने कभी आने नहीं दी और स्थानापन्न की स्थिति में भी प्रदत्त फाइनेंशियल पॉवर्स का प्रयोग सिर्फ पेटीकेश के वाउचर्स पास करने तक ही सीमित रखा. लेखापाल के पद पर उन्होंने स्वयं ही अपना रोल स्ट्रांग रूम और अपनी सीट तक सीमित करके रखा था. याने उनका कार्यक्षेत्र अटारी और वाघा बार्डर के बीच ही सीमित था.                  

जब पुराने जमाने में शाखाप्रबंधक को बैंक ने “ऐजेंट”पदनाम नवाजा था तब उनका रुतबा किसी राजा के सूबेदार से कम नहीं होता था. बैंक परिसर के ऊपर ही उनका राजनिवास हुआ करता था और यह माना जाता था कि लंच/डिनर/शयन के समय के अलावा उनका रोल शाखा की देखरेख करना ही है. बैंक परिसर के बाहर अगर वे शहर और बाजार क्षेत्र में भी जायें तो उनका पहला उत्तरदायित्व बैंक के वाणिज्यिक हितों का संरक्षण और प्रमोशन ही होना चाहिए. उस जमाने में बैंक विशेषकर अपने बैंक के “ऐजेंट”का रुतबा जिले या तहसील के सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारियों से कम नहीं माना जाता था. पर जब भारतीय जीवन निगम ने अपने घुमंतू बिजनेस खींचको को यही परिचय नाम दिया तो बैंक में ऐजेंट का पद भी रातोंरात “शाखाप्रबंधक” बन गया और बैंक के इस प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण पद की मानमर्यादा की रक्षा हुई. लगा जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी का दौर खत्म हुआ और ईस्ट टू वेस्ट और नार्थ टू साउथ सिर्फ और सिर्फ एक नाम से बैंकिंग के नये दौर की शुरुआत हुई जो आजादी के बाद बने भारत की तरह ही बेमिसाल और अतुलनीय थी. कश्मीर से कन्याकुमारी तक सिर्फ भारत ही नहीं हमारा बैंक भी एक ही है और हमारी कहानियां भले ही कुछ कुछ अलग लगती हों, हमारे धर्म, जाति, भाषा और प्रांतीयता के अलग होते हुये भी ये बैंक का मोनोग्राम ही है जिसके अंदर से हम जैसे ही गुजरते हैं, एक हो जाते हैं. आखिर हम सबकी सर्विस कंडीशन्स और वैतनिक लाभ भी तो एक से ही हैं. विभिन्नता पद और लेंथ ऑफ सर्विस में भले ही हो पर भावना में हमारे यहाँ बैंक के लिए जो मैसेंजर सोचता है, वही मैनेजर भी सोचता है कि यह विशाल वटवृक्ष सलामत रहे, मजबूत रहे और सबकी उम्मीदों को, सबके वर्तमान और भविष्य को संरक्षित करता रहे.

नोट: इस भावना में तालघाट शाखा के लेखापाल का परिचय अधूरा रह गया जो अगले भाग में सामने लाने की कोशिश करूंगा. इन महाशय के साथ का सौभाग्य हमें भी प्राप्त हुआ था तो ये चरित्र काल्पनिक नहीं है, पर नाम की जरूरत भी नहीं है. हो सकता है हममें से बहुत लोग इस तरह की प्रतिभाओं से रूबरू हो चुके हों. पर उनके व्यक्तित्व को चुटीले और मनोरंजक रूप में पेश करना ही इस श्रंखला का एकमात्र उद्देश्य है. किस्साये तालघाट जारी तो रहेगा पर अगर आप सभी पढ़कर इसके साथ किसी न किसी तरह जुड़े तो प्रोत्साहन मिलेगा.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 41 ⇒ बहारों, मेरा जीवन भी संवारो… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बहारों, मेरा जीवन भी संवारो”।)  

? अभी अभी # 41 ⇒ बहारों, मेरा जीवन भी संवारो? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जब हमारे अंदर खुशी होती है, तो जिंदगी में मानो बहार ही आ जाती है। और अगर हमारा मन उदास हो, तो खिला गुलाब भी हमें आकर्षित नहीं कर पाता। क्या जैसा अंदर होता है, वैसा ही हमें बाहर भी प्रतीत होता है। क्या आप जानते हैं, बहार कैसी होती है।

कौन इंसान नहीं चाहता, वह हमेशा खुश रहे, उसकी ज़िंदगी में बहार आए। जो हमारे मन को प्रसन्न रखे, क्या वही बहार है। क्या हमारे अंदर ही बहार है, या बहार सिर्फ बाहर ही बाहर है, और हमारे अंदर सिर्फ सुनसान बियाबान है। ।

जब मौसम अंगड़ाई लेता है, हमारा मन मयूर भी नाच उठता है। गर्मी, बारिश और ठंड के पश्चात् ही तो वसंत का आगमन होता है। अमराई में आम बौरा जाते हैं, केसर की क्यारियां महकने लगती हैं। प्रकृति दुल्हन की तरह सजने लगती है। और जब यही अनुभूति हमारे अंदर भी प्रवेश कर जाती है, तो हमारे जीवन में भी बहार का आगमन हो जाता है।

तुम जो आये जिन्दगी में, बात बन गई। एक बार जब बात बन जाती है तो ऐसा लगता है मानो जीवन में बहार चली आई हो।

हमारा मन बहारों से बात करने लग जाता है। प्रकृति आपकी सखी, सहेली, महबूबा, प्रेयसी और न जाने क्या क्या बन जाती है। हम प्रकृति से कैसी कैसी उम्मीदें लगा बैठते हैं।

आने से उसके आए बहार, जाने से उसके जाए बहार। ।

किसी होटल में आप अधिकार से यह तो कह सकते हैं कि वेटर, एक कप चाय लाओ। लेकिन जब आप जब कभी रोमांटिक मूड में यह फरमाइश करते हो कि बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है, तो बड़ी हंसी आती है।

आप चाहते हो कि हवाएं आपके लिए रागिनी गाये।

लगता है, बहार को आपने खरीद लिया है।

क्या बहार के बिना हमारा काम नहीं चल सकता।

प्रकृति हमारे सुख दुख की साथी है। वह हमारे साथ उठती है, हमारे साथ ही सोती है। हम हमेशा उससे अपना सुख दुख बांटते हैं। सुबह की ठंडी हवा हमें सुख देती है, सूरज की रोशनी ही तो हमारे लिए विटामिन डी है। हमने कई सुहानी शामें और रंगीन रातें इस प्रकृति के साये में ही तो गुजारी हैं। बहार है तो हम हैं, हम हैं तो बहार है। ।

ये बहारें ही हमें भूले बिसरे पल और अतीत की यादों में ले जाती हैं। छुप गया कोई रे, , दूर से पुकार के। दर्द अनोखे हाय, दे गया प्यार के। ऐसी स्थिति में बहार ही हमारा आलंबन होती है। क्या भरोसा कब कोई प्यार से पाला हुआ पौधा फिर जी उठे, जिंदगी में फिर से बहार आ जाए।

भले ही हमारे माता पिता ने हमें जन्म दिया हो, लेकिन अगर वास्तव में देखा जाए तो हम इस प्रकृति की गोद में ही तो पलकर बड़े हुए हैं। इसी मिट्टी में, हमारा जन्म हुआ है, इस मिट्टी में हम खेले हैं और इसी मिट्टी में हमें मिल जाना है। हमारे सारे उत्सव और त्योहार प्रकृति से ही तो जुड़े हैं। होली हो, दीपावली हो अथवा सक्रांति का पर्व, चांद, सूरज, नदी पहाड़, पत्र पुष्प और फल बिना सभी अनुष्ठान अधूरे हैं। बागों में अगर बहार है, तो हमारी ज़िंदगी में भी बहार है। प्रकृति ही तो हमारी वत्सला मां है।

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 34 – देश-परदेश – शोक ☆ श्री राकेश कुमार ☆

 

 

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 34 ☆ देश-परदेश – शोक ☆ श्री राकेश कुमार ☆

एक कॉलेज के मित्र ने शुभ रात्रि का व्हाट्स ऐप मैसेज भेजा, वर्षों से उसकी स्वयं की फोटू डीपी पर लगी हुई थी। आज किसी वृद्ध महिला की फोटू देखी तो उसकी डीपी पर ” स्वर्गीय एलिजाबेथ द्वितीय” की फोटू लगी हुई हैं।

मोबाईल में बहुत सारे मैसेज उनके निधन की जानकारी से भरे हुए थे।एक मुम्बई के मित्र ने तो ये भी लिख दिया की हो सकता है, नौ सितंबर को लोकल ट्रेन के प्रसिद्ध डिब्बावाले (King Charles के चहेते) शोक में अवकाश ना रख लेवें। उसको दोपहर के भोजन की चिंता सताने लगी हैं।                        

एक अन्य मित्र ने कहा “फूल” (पुष्प) की मांग की पूर्ति के लिए हमारे देश से विशेष विमान फूल लेकर जाएंगे ताकि उनकी ताज़गी बनी रहे।

जयपुर शहर में एक सड़क “Queen’s Road” के नाम से एक अन्य सड़क “King’s Road” के नाम से कम जाने वाली सड़कों में से एक हैं। King’s Road पर निवास करने वाले लोग तो ये भी कह रहे हैं, कि उनके क्षेत्र में भी अब जमीन के भाव बढ़ जायेंगे।लोगों का काम है, कहना। लोगों का क्या?

स्कॉटलैंड में इंग्लैंड की रानी ने अंतिम सांस ली इससे स्कॉटलैंड के नाम के साथ एक और landmark जुड़ गया है।

इससे पूर्व स्कॉटलैंड के साथ “Scotland💂‍♂️ Yard” और “Scottish🥃 Whiskey” भी जाने जाते हैं।

एक समय पूरी दुनिया में राज़ करने वाले “राज शाही” के शोक में हमारा नमन।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे (मातृदिन) – एक पहलू ऐसा भी…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

☆ “अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे (मातृदिन) – एक पहलू ऐसा भी…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

नमस्कार पाठकगण,

अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे (मई महीने का दूसरा रविवार) अर्थात मातृदिन की सबको शुभकामनाएं! 🌹

यह मातृदिन आज के ही दिन क्यों मनाया जाता है, इस प्रश्न का उत्तर ढूंढते हुए मुझे कुछ दिलचस्प और साथ ही विचारणीय जानकारी हाथ लगी| मदर्स डे का सबसे पुराना इतिहास ग्रीस के साथ जुड़ा है| वहाँ ग्रीक देवी देवताओं की माता की आदर सहित पूजा की जाती थी| माना जाता है कि, यह मिथक भी हो सकता है | परन्तु आज अस्तित्व में रहे मदर्स डे की शुरुवात करने का श्रेय ज्यादातर लोग अॅना रीव्ह्ज जार्विस (Anna Reeves Jarvis) को ही देते हैं| उसका अपनी माता के प्रति (अॅन मारिया रीव्ह्ज- Ann Maria Reeves) अत्यधिक प्रेम था| जब उसकी माता का ९ मई १९०५ को निधन हुआ, तब अपनी माता तथा सभी माताओं के प्रति आदर और प्रेम व्यक्त करने हेतु एक दिन होना चाहिए ऐसा उसे बहुत तीव्रता से एहसास होने लगा| इसलिए उसने बहुत अधिक प्रयत्न किये और वेस्ट व्हर्जिनिया में आन्दोलन की शुरुवात की| तीन साल के बाद (१९०८) अँड्र्यूज मेथोडिस्ट एपिस्कोपल चर्च में प्रथम अधिकृत मदर्स डे सेलिब्रेशन का आयोजन किया गया| वर्ष १९१४ को अमरीका के राष्ट्राध्यक्ष वुड्रो विल्सन ने अॅना जार्विस की कल्पना को मान्यता देते हुए मई महीने के प्रत्येक दूसरे रविवार को राष्ट्रीय अवकाश (छुट्टी) को मान्यता देनेवाले विधेयक पर हस्ताक्षर किये| फिर यह दिन धीरे धीरे अमरीका से युरोपीय और अन्य देशों में और बाद में सारे जगत में अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे के रूप में मान्य किया गया|

कवी तथा लेखिका ज्यूलिया वॉर्ड होवे (Julia Ward Howe) ने इस आधुनिक मातृदिन के कुछ दशक पहले अलग कारण के लिए ‘मातृशांति दिन’ मनाये जाने के लिए प्रचार किया। अमरीका और युरोप में युद्ध के चलते हजारों सैनिक मारे गए, अनेक प्रकार से जनता ने कष्ट और पीड़ा झेली और आर्थिक हानि हुई सो अलग| इस पार्श्वभूमि पर एकाध दिन युद्धविरोधी कार्यकर्ताओं ने एक साथ आकर मातृदिन मनाये जाने की कल्पना जग में फैलनी चाहिए, ऐसा ज्यूलिया को लग रहा था| उसकी कल्पना यह थी कि, महिलांओं को वर्ष में एक बार चर्च या सोशल हॉल में एकत्रित होने के लिए, प्रवचन सुनने के लिए, अपने विचार प्रकट करने के लिए , ईश्वरभक्ति के गीत प्रस्तुत करने के लिए और प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और उनके लिए ऐसा एकाध दिन तय करना चाहिए। इस कृति से शांति में वृद्धि होगी और युद्ध का संकट टल जायेगा, ऐसा उसे लग रहा था|

परन्तु ‘एकसंध शांतता-केंद्रित मदर्स डे’ मनाये जाने के ये प्रारंभिक प्रयत्न पीछे रह गए क्योंकि, तब तक व्यक्तिगत रूप से मातृदिन मनाया जाने की दूसरी संकल्पना ने जोर पकड लिया था| इसका कारण था व्यापारीकरण! नॅशनल रिटेल फेडरेशन द्वारा २०१९ में प्रकाशित हुए आंकड़ों के अनुसार आजकल मदर्स डे अमरीका में $२५ अरब जितना महँगा अवकाश का दिन बन गया है| वहाँ लोग इस दिन मां पर सबसे अधिक खर्चा करते हैं| ख्रिसमस और हनुक्का सीझन (ज्यू लोगों का ‘सिझन ऑफ जॉय’) को छोड़ मदर्स डे के लिए सब से अधिक फूल खरीदे जाते हैं| आलावा इसके गिफ्ट कार्ड, भेंट की चीजें, गहने, इन पर $५ अरब से भी अधिक खर्चा किया जाता है| इसके अतिरिक्त विविध स्कीम के अंतर्गत स्पेशल आउटिंग भी बहुत लोकप्रिय है|

अॅना रीव्ह्ज जार्विस को इसी कारण मातृप्रेम पर आधारित उसकी कल्पना के बारे में दुःख हो रहा था| उसके जीवन काल में, वह फ्लोरिस्ट्स (फूल बेचने वाली इंडस्ट्री) के आक्रमक व्यापारीकरण के विरोध में अकेले लडी. परन्तु दुर्भाग्य ऐसा था कि, इस बात के लिए उसे ही जेल जाना पडा| इस अवसर पर माता के प्रति भावनाओं का गलत तरीके से राजनितिक लाभ उठाना, धार्मिक संस्थाओं के नाम पर निधि इकठ्ठा करना, ये बातें भी उसकी आँखों के सामने घटित हो रही थीं|  जार्विस ने वर्ष १९२० में एक अत्यंत महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किया| उसने कहा, ‘यह विशेष दिन अब बोझिल और फालतू बन गया है| माँ को महंगे गिफ्ट देना, यह  मदर्स डे मनाने का योग्य मार्ग नहीं है|’  वर्ष १९४८ में, ८४ की उम्र में, जार्विस की एक सॅनेटोरियम में एकाकी रूप में मृत्यु हुई| तब तक उसने अपना सारा पैसा मदर्स डे की छुट्टी के व्यापारीकरण के खिलाफ लडने के लिए उपयोग कर खर्च कर दिया था| इस बहादुर और उन्नत विचारों की धनी वीरांगना स्त्री को आज के मातृदिवस पर मैं नतमस्तक हो कर प्रणाम करती हूँ| उसका छायाचित्र लेख के साथ जोडा है|

मित्रों, जब मैंने यह जानकारी पढी तब मेरे मन में विचार आया कि, क्या सचमुच ही माँ की ऐसी महँगी अपेक्षाएं रहती हैं? सच में देखें तो, अपेक्षा रहित प्रेम करना ही स्थायी मातृभाव होता है| फिर उसे व्यक्त करने के लिए इस खालिस व्यापारिक रवैये को बढ़ावा देकर पुष्ट करना क्या ठीक है? बहुतांश माताओं को ऐसा लगता है कि, इस दिन उनके बच्चों ने उन्हें केवल अपना समय देना चाहिए, उनसे प्रेम के दो शब्द बोलना चाहिए, माँ के साथ बिताए सुंदर क्षणों की यादें ताज़ातरीन करनी चाहिए। गपशप करना और साथ रहना, बस! इसमें एक ढेले का भी खर्चा नहीं होगा। मेरे विचार में यहीं सबसे बहुमूल्य गिफ्ट होगा आज के मदर्स डे का अर्थात मातृदिन का!

धन्यवाद!  🌹

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

दिनांक – १४ मई २०२३

फोन नंबर: ९९२०१६७२११

(टिपण्णी- इस लेख के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी उपयोग किया है| कृपया लेख को अग्रेषित करना हो तो मेरा नाम एवं फोन नंबर उसमें रहने दें!)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 40 ⇒ लाखों का सावन…☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लाखों का सावन ।)  

? अभी अभी # 40 ⇒ लाखों का सावन? श्री प्रदीप शर्मा  ?  ०००

 एक वह भी ज़माना था, (आप समझ गए) हाँ, वह कांग्रेस का ज़माना था, जब सावन लाखों का होता था, और नौकरी दो टके की, यानी 90-ढाई की ! मास्टर गाँव में पड़ा रहता था, और नई नवेली बहू शहर में सास-ससुर की सेवा करते हुए आनंद बक्षी का यह गीत सुनकर पति-परमेश्वर को कोसा करती थी।

उसे भी अपने मायके के सावन के झूले याद आया करते थे।

अब वह न घर की थी, न नाथ की।

समय बदलते देर नहीं लगती।

जो नौकरी कभी टके की थी, वह लाखों की हो गई, और लाखों का सावन टके का हो गया। सावन लगने पर किसी को आज उतनी खुशी नहीं होती, जितनी तनख्वाह में इन्क्रीमेंट लगने पर होती है।

तब भी सावन लगने से ज़्यादा खुशी हमें गुरुवार को शहर के थिएटर में नई फिल्म लगने पर होती थी। आज भी अच्छी तरह से याद है कि आया सावन झूम के जब रिलीज़ हुई थी, तो झूमकर बारिश हुई थी। जिनके पास छाते नहीं थे, वे सावन का मज़ा झूमकर ही नहीं भीगकर भी ले रहे थे। ।

कितनी फुरसत थी, जब सावन आता था ! श्रावण सोमवार को गाँधी-हॉल का बगीचा खचाखच महिलाओं और बच्चों से भर जाता था। पेड़ों पर झूले बाँध दिये जाते थे, जिन पर युवतियां जोड़े से झूला करती थी। ऊपर जाना, नीचे आना, ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव को हँसते-हँसते झेलना, यही तो ज़िन्दगी का मेला होता था। बच्चों के लिए तो पुंगी और फुग्गे ही काफी थे। घास में लोटना और कोड़ा-बदाम छाई खेलना। घर की बनाई पूरी/पराँठे के साथ आलू/भिंडी की सब्जी, प्याज-अचार, और गाँधी-हॉल के गेट से दो रुपये का नमकीन मिक्सचर। बगीचे की घास पर मूँगफली के बचे हुए छिलके थे। बस, यही लाखों का सावन था।

समय ने करवट बदली ! सियासत ने अपना रंग बदला, ढंग बदला।

सावन की जगह बदले का मौसम आ गया। 60 साल से सोलह साल तक का पागल मन तलत का यह गीत गुनगुनाने लग गया !

बदली, बदली दुनिया है मेरी। वह बादल की बदली की नहीं, डिजिटल इंडिया की बात कर रहा है, वह सावन की बारिश में भीगकर बंद एटीएम तक नहीं जाना पसंद करता। paytm का आनंद लेता है, और  रेडियो मिर्ची पर मन की बात सुना करता है।

आजकल की फिल्मों ने भी सावन का दामन छोड़ दिया है,

संगीत ने मधुरता खो दी है,

तो गानों ने अर्थ खो दिया है।

व्यर्थ की फिल्में करोड़ों कमा रही है तो पद्मिनी पद्मावत बनी जा रही है। सावन कहीं प्यासा है तो  कहीं अभी से ही सावन-भादो की झड़ी लगी जा रही है। संगीत की स्वर-लहरियां मेरे कानों में गूँज रही हैं। नेपथ्य में फ़िल्म आया सावन झूम के का गाना बज रहा है। मन भी आज यही कह रहा है, सावन आज भी लाखों का है, सावन को आने दो।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 190 ☆ जानना और मानना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 190  जानना और मानना ?

मनुष्य अन्वेषी प्रवृत्ति का है। इसी प्रवृत्ति के चलते कोलंबस ने अमेरिका ढूँढ़ा, वास्को-डी-गामा भारत तक आया। शून्य का आविष्कार हुआ। मनुष्य ने दैनिक उपयोग के अनेक छोटे-बड़े उपकरण बनाए। खेती के औज़ार बनाए, कुआँ खोदने के लिए, कुदाल, फावड़ा बनाए। स्वयं को पंख नहीं लगा सका तो उड़ने के अनुभव के लिए हवाई जहाज और अन्यान्य साधन बनाए। समय के साथ वर्णमाला विकसित हुई, संवाद के लिए पत्र का चलन हुआ। शनै:- शनै: यह तार, टेलीफोन, मोबाइल, ई-मेल तक पहुँचा। कोरोनावायरस में ऑनलाइन मीटिंग एप बने। आँखों दिखते भौतिक को जानना चाहता है मनुष्य और जानने के बाद मानने लगता है मनुष्य।

विसंगति देखिए कि विचार या दर्शन के स्तर पर, बहुत सारी बातें जानता है मनुष्य पर मानता नहीं मनुष्य। कुछ-कुछ हैं जो मानने लगते हैं पर इस प्रक्रिया में लगभग सारा जीवन ही बीत जाता है। अधिकांश तो वे हैं जिनकी देह की अवधि समाप्त हो जाती है पर भीतर की जड़ता सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होती। झूठ बोलने वाला जीवन भर अपने असत्य को स्वीकार नहीं करता। आलसी अपने आलस को अलग-अलग कारणों का जामा पहनाता है लेकिन खुद को आलसी ठहराता नहीं। अहंकारी अपनी सारी साँसें अहंकार को समर्पित कर देता है पर जताता यों है, मानो उस जैसा विनम्र धरती पर दूसरा ना हो। अटल मृत्यु का सच प्रत्येक को पता है। हरेक जानता है कि एक दिन मरना होगा लेकिन इस शाश्वत सत्य को जानते हुए भी व्यक्ति इतने पाखंडों में जीता है, जैसे कभी मरेगा ही नहीं…और जब मरता है तो जीवन का हासिल शून्य होता है। अर्थात मरा भी तो ऐसे जैसे कभी जिया ही न हो। सच तो यह है कि जानने से मानने तक का प्रवास मनुष्य को मनुष्यता प्रदान करता है। मनुष्यता ही आगे संतत्व का द्वार खोलती है।

गुजरात के भूकंप के समय की घटना किसी परिचित ने सुनाई थी। सेवानिवृत्त एक उच्च पदाधिकारी अपनी हाईक्लास हाऊसिंग सोसायटी के पीछे स्थित झोपड़पट्टी से बहुत ख़फ़ा थे। उच्चवर्गीय क्षेत्र में यह झोपड़पट्टी उन जैसे संभ्रांतों के लिए धब्बा थी। नगरनिगम को बीच-बीच में इसके अनधिकृत होने और हटाने के लिए पत्र लिखते रहते थे। भूकम्प में उनका भी घर ध्वस्त हुआ। बेहोश होकर वे एक झोपड़ी पर जाकर गिरे। सरकारी सहायता पहुँचने तक झोपड़ी में रहनेवाले परिवार ने चावल का माँड़ पिलाकर उन्हें जीवित रखा। बाद में अस्पताल में उनका इलाज हुआ।

मनुष्य कुल के अद्वैत को जानते तो वे भी होंगे पर मानने के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। दैनिक जीवन में यह और इस जैसे अनेक उदाहरण हमारे सामने आते हैं।

हमारे पूर्वज विषय के विभिन्न आयामों को समझने के लिए शास्त्रार्थ करते थे। सामनेवाले विद्वान से शास्त्रार्थ में यदि पराजित हो जाते तो उसके तत्व को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लेते थे। यह जानने से मानने की ही यात्रा थी।

बहुत कुछ है, जो हम जानते हैं, बस जिस दिन मानना आरंभ कर देंगे, जीवन की दिशा बदल जाएगी। जानना सामान्य बात है, मानना असामान्य। स्मरण रहे, मनुष्य जीवन सामान्य के लिए नहीं अपितु असामान्य होने के लिए मिला है। निर्णय हरेक को स्वयं करना है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

💥 अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक 💥

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 39 ⇒ कृत्रिम बुद्धिमत्ता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कृत्रिम बुद्धिमत्ता।)  

? अभी अभी # 39 ⇒ कृत्रिम बुद्धिमत्ता? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हमने साधारण और असाधारण बुद्धि के लोग तो देखे थे, सामान्य और विशिष्ट की भी हमें पहचान थी, लेकिन असली और नकली की पहचान कहां इतनी आसान थी। जिसे आज आर्टिफिशियल कहा जाता है, हम कभी उसे बनावटी और कृत्रिम ही तो कहा करते थे। प्राकृतिक और सामान्य जीवन में तब कहां कृत्रिमता का स्थान होता था। गुरुदत्त ने कागज़ के फूल में यह भोगा है। असली फूल और शुद्ध जल का आज भी इंसाफ के मंदिर में कोई विकल्प नहीं है।

बनावटी हंसी, इमिटेशन के नाम पर आर्टिफिशियल ज्वेलरी, बनावटी चेहरे और बनावटी मुस्कान वैसे भी हमें एक कृत्रिम जीवन जीने को मजबूर कर रही है। ।

हमारी पीढ़ी किताबों से पढ़ी, पाठ्य पुस्तकों से पढ़ी, कुंजी, गैस पेपर, गाइड और नकल से नहीं। मेरे एक मित्र ने कॉलेज में अंग्रेजी विषय तो ले लिया, लेकिन अंग्रेजी में उसका हाथ तंग था। अच्छे खासे पहलवान थे, एक दिन हमें घेर लिया, आप कब फ्री हो, अंग्रेजी की इस किताब की गाइड नहीं छपी है, किसी दिन बैठकर इसे शुद्ध हिंदी में समझा दें। वे सबको शुद्ध हिंदी में ही समझाते थे, हमने भी उन्हें शुद्ध हिंदी में समझा दिया, वे परीक्षा की वैतरिणी अन्य कृत्रिम संसाधनों की सहायता से आखिर पार कर ही गए। वे आगे जाकर वकील बने और हम बैंक के बाबू ! इसे कहते हैं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कमाल।

हम कितने ओरिजनल थे कभी, औलाद नहीं हुई, नीम हकीम, मंदिर, मन्नत, ताबीज, गंडे, टोटके और व्रत उपवास क्या नहीं किए और अगर ईश्वर को मंजूर नहीं था, तो किसी बच्चे को गोद ले लिया, उसे अपने बच्चे जैसा प्यार दिया, लेकिन कभी कृत्रिम गर्भाधान और टेस्ट ट्यूब बेबी की ओर रुख नहीं किया। पहले यशोदा भी मां होती थी, आजकल सरोगेट मदर भी होने लग गई। ।

पहले बच्चे ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरुकुल जाते थे, गुरु सेवा करते थे, उनकी सेवा ही गुरु दक्षिणा होती थी, गुरु का गुण देखिए, गुरु गुड़ और सत्शिष्य शक्कर निकल आता था। कितने खुश होते हैं हमारे जीवन को संवारने वाले पुराने शिक्षक, जिनके ज्ञान के झरने में स्नान कर आज की पीढ़ी विश्व में उनका नाम रोशन कर रही है।

अंग्रेजी एक ऐसी भाषा है जो आपको आसानी से प्रभावित कर देती है। आर्टिफिशियल शब्द डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप और शाइनिंग इंडिया की तरह इतना प्रचलित हो गया है, कि इसके आगे सामान्य, नैसर्गिक, और असली शब्द बौने नजर आने लगे हैं। चार्ल्स शोभराज और नटवरलाल से लगाकर किंगफिशर तक, शुरू से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का ही तो राज रहा है। जब घी सीधी उंगली से नहीं निकलता, तो उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है। साइबर क्राइम का जमाना है, आर्डिनरी इंटेलिजेंस इनका कोई इलाज नहीं। ।

हमारे टीवी, मोबाइल, लैपटॉप और गूगल सर्च सब आर्टिफिकल इंटेलिजेंस ही तो है। संसार को आगे बढ़ना है, तो रोबोट को चौराहे पर खड़ा होना ही है। अ, आ, इ, ई और abcde सब आजकल a और i पर आकर रुक गए हैं। आज की दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दुनिया है, इसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता कहकर जलील ना करें। कभी a कहीं का असिस्टेंट होता था, वह भी आजकल आर्टिफिशियल हो गया है। ।

बहुत ही जल्द विश्व का कोई विश्वविद्यालय जब मास्टर ऑफ एंटायर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की डिग्री प्रदान करेगा, तब विपक्ष के कलेजे में ठंडक पहुंचेगी। अगर हिम्मत है तो जाओ और चैलेंज करो एंटायर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की डिग्री को, यू आर्टिफिशियल देशभक्त और असली देशद्रोही विपक्ष। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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