श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बहारों, मेरा जीवन भी संवारो”।)  

? अभी अभी # 41 ⇒ बहारों, मेरा जीवन भी संवारो? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जब हमारे अंदर खुशी होती है, तो जिंदगी में मानो बहार ही आ जाती है। और अगर हमारा मन उदास हो, तो खिला गुलाब भी हमें आकर्षित नहीं कर पाता। क्या जैसा अंदर होता है, वैसा ही हमें बाहर भी प्रतीत होता है। क्या आप जानते हैं, बहार कैसी होती है।

कौन इंसान नहीं चाहता, वह हमेशा खुश रहे, उसकी ज़िंदगी में बहार आए। जो हमारे मन को प्रसन्न रखे, क्या वही बहार है। क्या हमारे अंदर ही बहार है, या बहार सिर्फ बाहर ही बाहर है, और हमारे अंदर सिर्फ सुनसान बियाबान है। ।

जब मौसम अंगड़ाई लेता है, हमारा मन मयूर भी नाच उठता है। गर्मी, बारिश और ठंड के पश्चात् ही तो वसंत का आगमन होता है। अमराई में आम बौरा जाते हैं, केसर की क्यारियां महकने लगती हैं। प्रकृति दुल्हन की तरह सजने लगती है। और जब यही अनुभूति हमारे अंदर भी प्रवेश कर जाती है, तो हमारे जीवन में भी बहार का आगमन हो जाता है।

तुम जो आये जिन्दगी में, बात बन गई। एक बार जब बात बन जाती है तो ऐसा लगता है मानो जीवन में बहार चली आई हो।

हमारा मन बहारों से बात करने लग जाता है। प्रकृति आपकी सखी, सहेली, महबूबा, प्रेयसी और न जाने क्या क्या बन जाती है। हम प्रकृति से कैसी कैसी उम्मीदें लगा बैठते हैं।

आने से उसके आए बहार, जाने से उसके जाए बहार। ।

किसी होटल में आप अधिकार से यह तो कह सकते हैं कि वेटर, एक कप चाय लाओ। लेकिन जब आप जब कभी रोमांटिक मूड में यह फरमाइश करते हो कि बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है, तो बड़ी हंसी आती है।

आप चाहते हो कि हवाएं आपके लिए रागिनी गाये।

लगता है, बहार को आपने खरीद लिया है।

क्या बहार के बिना हमारा काम नहीं चल सकता।

प्रकृति हमारे सुख दुख की साथी है। वह हमारे साथ उठती है, हमारे साथ ही सोती है। हम हमेशा उससे अपना सुख दुख बांटते हैं। सुबह की ठंडी हवा हमें सुख देती है, सूरज की रोशनी ही तो हमारे लिए विटामिन डी है। हमने कई सुहानी शामें और रंगीन रातें इस प्रकृति के साये में ही तो गुजारी हैं। बहार है तो हम हैं, हम हैं तो बहार है। ।

ये बहारें ही हमें भूले बिसरे पल और अतीत की यादों में ले जाती हैं। छुप गया कोई रे, , दूर से पुकार के। दर्द अनोखे हाय, दे गया प्यार के। ऐसी स्थिति में बहार ही हमारा आलंबन होती है। क्या भरोसा कब कोई प्यार से पाला हुआ पौधा फिर जी उठे, जिंदगी में फिर से बहार आ जाए।

भले ही हमारे माता पिता ने हमें जन्म दिया हो, लेकिन अगर वास्तव में देखा जाए तो हम इस प्रकृति की गोद में ही तो पलकर बड़े हुए हैं। इसी मिट्टी में, हमारा जन्म हुआ है, इस मिट्टी में हम खेले हैं और इसी मिट्टी में हमें मिल जाना है। हमारे सारे उत्सव और त्योहार प्रकृति से ही तो जुड़े हैं। होली हो, दीपावली हो अथवा सक्रांति का पर्व, चांद, सूरज, नदी पहाड़, पत्र पुष्प और फल बिना सभी अनुष्ठान अधूरे हैं। बागों में अगर बहार है, तो हमारी ज़िंदगी में भी बहार है। प्रकृति ही तो हमारी वत्सला मां है।

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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