हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #175 – एकांकी – छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक एकांकी – “छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 175 ☆

☆ एकांकी–छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

स्थान- घर का एक बरामदा की धूप का परिदृश्य

पात्र-

पिता– छत्रपति शिवाजी की सेना का एक वीर सैनिक

मां- इस वीर सैनिक की पत्नी

पुत्र- वीर सैनिक का पुत्र

पुत्री- वीर सैनिक की पुत्री

(दृश्य – घर के बरामदे में धूप में बैठी सैनिक की पत्नी उसकी पुत्री की चोटी गूंथ रही है।)

पुत्री- मां धीरे करो। दर्द होता है। (बालिका मुंह बनाते हुए)

मां- मैं तो धीरे ही चोटी गूंथ रही हूं। थोड़ा तो दर्द होगा ही। (माता उसके माथे पर एक हाथ से झटका देते हुए) थोड़ी देर तो चुप रहा कर।

पुत्री-वही तो कर रही हूं।

(मां चुपचाप चोटी गूंथने लगती है।)

(अचानक बालिका कुछ सुनते हुए अपनी गर्दन हिलाती है।)

पुत्री- मां! देखो तो।

मां- क्या देखूं? (मां इधर-उधर देखते हुए)

पुत्री- नहीं मां। देखो नहीं। ध्यान से सुनो।

मां- बेटी, घोड़े की टॉप की आवाज आ रही है।

(पास से घोड़े की टापों की आवाज पहले धीरे-धीरे आती है। और तेजी से बढ़ने लगती है। जैसे घोड़े धीरे-धीरे पास आ रहे हो।)

पुत्री- मां, लगता है बप्पा आ गए हैं।

मां- घोड़े की टॉप से तो ऐसा ही लगता है।

पुत्री- मां। क्या भैया की मांग पूरी हुई होगी?

मां- पता नहीं बेटी। (मां ने कहा और ध्यान से टापों की आवाज सुनाने लगी।)

पुत्री- हां मां, ध्यान से सुनो।

मां- तू सही कहती है पुत्री। यह एक नहीं दो घोड़े की टॉपों की आवाज आ रही है। (कहते हुए मां पुत्री को हाथों से धक्का देकर उठाते हुए कहती है) अंदर जा। स्वागत की थाली लेकर आ जा।

(पुत्री कमरे के अंदर जाकर स्वागत का थाल ले आती है। मां सिर पर अपना पल्लू सजाते हुए खड़ी हो जाती है।)

मां- लो। वे आ गए। (मां पुत्री के हाथ से स्वागत का थाल ले लेती है।)

पुत्री– हां मां। दोनों के चेहरे खिले हुए हैं।

मां– लगता है काम बन गया हैं। (कह कर मां दो कदम आगे बढ़ती है।) आपका हार्दिक स्वागत है!

पुत्र- हां मां! आपका आशीर्वाद फलीभूत हो गया है। (पुत्र मां के चरण स्पर्श करता हैं। तभी मां के हाथ आशीर्वाद के लिए ऊपर उठ जाते हैं।) तुम अपने पिता की तरह ही इस माटी का नाम रोशन करो।

पिता- आखिर बेटा किसका है? (तभी साथ आया हुआ आंगुतक पिता अपनी मूंछो पर ताव देते हुए कहता है।)

मां- बहादुर शेर पिता की तरह बहादुर शेर संतान है।

(मां आंगुतक पिता के तिलक लगा देती है। दोनों चारपाई पर बैठ जाते हैं। मगर पुत्र इधर-उधर घूमता रहता है। वह अधीरता से कहता है।)

पुत्र- मां! जानती हो मां दरबार में क्या हुआ था?

मां- हां बेटा। बता। मगर इस चारपाई पर बैठकर।

पुत्री- हां भैया! बताओ ना। वहां क्या हुआ था?

पुत्र- जानती हो मां, जब हम दरबार में पहुंचे तब क्या हुआ?

मां- क्या हुआ मेरे शेर। बता तो।

पुत्र- महाराज छत्रपति शिवाजी महाराज ने मेरी ओर देखकर कहा- इस बालक के मुख से एक अलौकिक तेज झलक रहा है।

मां- अच्छा बेटा। हमारे प्रिय महाराज ने ऐसा कहा था।

पुत्र- हां मां। मुझे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। महाराज शिवाजी ने कहा- बोलो वीर पुत्र! क्या चाहिए?

मां– अच्छा। उन्हें स्वयं ही पता चल गया कि तुम कुछ मांगने आए हो?

पुत्र- हां मां। महाराज छत्रपति शिवाजी जितने बहादुर, वीर और कुशल शासक हैं उतने ही दूसरे की मंशा पकड़ने में माहिर है। (कहते हुए पुत्र ने अपनी बहन की ओर देखा। वह वह अपलक अपने भाई को निहारे जा रही थी।)

मां– फिर?

पुत्र- मैंने कहा- महाराज छत्रपति शिवाजी की जय हो! वे सदा विजयी रहे! जिसे सुनकर महाराज छत्रपति शिवाजी मुस्कुरा दिए।

मां-अच्छा!

कब से चुपचाप बैठे हुए पिता ने कहा- सत्य कहता है हमारा पुत्र।

मां- फिर क्या हुआ?

पुत्र- मैंने कहा- महाराज आपका हौसला बुलंद हो। मुझे नाचीज को एक उम्दा किस्म का घोड़ा चाहिए।

मां- फिर?

पुत्र- फिर क्या मां। दरबार में सन्नाटा छा गया। इस वक्त एक मंत्री ने खड़े होकर कहा- महाराज गुस्ताखी माफ हो हुजूर!

मां- फिर?

पुत्र- तभी छत्रपति शिवाजी महाराज ने कहा- बोलिए मंत्री जी। क्या कहना चाहते हो? तब मंत्री जी ने कहा- महाराज! एक बालक को घोड़े देने में घोड़े की क्या उपयोगिता रहेगी?

मां-फिर क्या हुआ बेटा?

पुत्र- तब कुछ देर दरबार में सन्नाटा छाया रहा। तब छत्रपति शिवाजी महाराज ने मेरी और देखा- वीर बालक! इस बारे में तुम्हारी राय क्या है?

(कहते हुए बालक पिताजी के पास खड़ा हो गया) -पिता श्री! यही हुआ था ना?

पिता- हां पुत्र। कहते रहो। बहुत ठीक कह रहे हो।

पुत्र-तब मां मैंने कहा- महाराज की जय हो! यदि मंत्रीवार घोड़े की उपयोगिता जानना चाहते हो तो मुझे तलवार के दो-दो हाथ कर लें। तब उन्हें पता चल जाएगा कि मेरे लिए इस घोड़े की क्या उपयोगिता है?

मां- अच्छा! फिर?

पुत्र- फिर क्या मां, वह मंत्री यही चाहता था। वह तलवार लेकर मेरे पास आ गया- चलो बालक! तुम्हारी इस तमन्ना को पूरी कर देता हूं। कह कर वह इस तरह खड़ा हो गया जैसे किसी नादान बालक के सामने खड़ा हो।

मां- फिर क्या हुआ पुत्र?

पुत्र- होना क्या था मां, मैंने इस तरह तलवार चलाई कि वह चकित रह गया। तब वह सावधान होकर तलवार चलाने लगा। उसने कई दांवपेच चले। ताकि मुझे धूल चटा सके।

मां- फिर?

पुत्र- फिर क्या था मां। दरबार व महाराज छत्रपति शिवाजी भी मेरे तलवार कौशल को देखते रह गए। मंत्रीवर ने हारता देखकर अपना पैंतरा दिखाने की कोशिश की। मगर उनके सब पैंतरे फेल हो रहे थे।

पुत्री- फिर क्या हुआ भैया?

पुत्र-होना क्या था बहन। मैंने उसकी नजर बचाकर तलवार का एक पैंतरा लगाया। तलवार सीधे दोनों पैर के बीच से होकर कमर की ओर जाने लगी। यह देखकर उनके होश उड़ गए। तब मैंने तलवार पैर के ऊपर जोड़ के पास ले जाकर रोक दी।

(कब से चुप बैठे पिता ने कहा)

पिता- भाग्यवान! वह दृश्य देखने लायक था। दरबार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। महाराज छत्रपति शिवाजी अपने सिंहासन से उठकर नीचे आ गए।

मां- फिर?

पुत्र- उन्होंने आते ही मुझे अपने सीने से लगा लिया। शाबाश! मेरे वीर बालक! तुमने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी है। हमारे मंत्रीवर को हरा दिया।

मां- अच्छा! उन्होंने ऐसा कहा!

पुत्र- हां मां। 

पुत्री-अच्छा भैया!

पुत्र- हां बहन।

माँ- फिर?

पुत्र- फिर मैंने कहा- महाराज! मंत्रीवर हारे नहीं है। उन्होंने मुझे जीता दिया। तब महाराज ने चौक कर कहा- क्या मतलब है वीर बालक आपका?

मां- हूं।

पुत्र-तब मैंने कहा- महाराज! मंत्रीवर का अभ्यास छूटा हुआ है। इस कारण उन्होंने मुझे जीतने दिया। अन्यथा मैं कभी नहीं जीतता।

मां-अच्छा।

पुत्र- हां मां। तब महाराज छत्रपति शिवाजी ने कहा- बेटा! तुम बहादुर नहीं बल्कि बुद्धिमान बालक भी हो। तब सभी मंत्री जोर से बोल पड़े- वीर बालक की, जय हो!

मां- अच्छा!

पुत्र- हां मां। यह कहते हुए छत्रपति शिवाजी ने कहा- यदि धरती पर सभी लाल इसी तरह बुद्धिमान व बहादुर हो जाए तो यह देश कभी गुलाम नहीं हो सकता।

(मां यह सुनकर गर्व से खड़ी हो जाती है।)

मां-आखिर लाल किसका है?

पुत्री- मेरा भैया!

पिता- ऐसा पुत्र सबको मिले। ताकि सब माता-पिता उस पर गर्व कर सके।

(यह सुनकर सभी खिलखिला कर हंस पड़ते हैं और पर्दा गिर जाता है)

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

30-12-2024

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 209 ☆ बाल गीत – चंदा मामा मित्र हमारे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 209 ☆

☆ बाल गीत – चंदा मामा मित्र हमारे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

भरें उड़ानें चंद्रयान से

चंदा मामा मित्र हमारे।

शीतल छाया मनमोहक है

लाएँ आसमान से तारे।।

जय भारत की , जय इसरो की

विजय ज्ञान – विज्ञान की।

विजयी विश्व तिरंगा ऊँचा

है मानव कल्याण की।

 *

हर्ष – विमर्श जगत उजियारा

झूम उठे खुशियों से सारे।

चंदा मामा मित्र हमारे।।

 *

बना लिए निज ठाँव चंद्र पर

विक्रम लैंडर साथ गया है।

गौरवान्वित है राष्ट्र हमारा

ध्रुव दक्षिणी नया – नया है।

 *

घर अपना चंदा पर होगा

मजे करेंगे बच्चो प्यारे।

चंदा मामा मित्र हमारे।।

 *

नई – नई धातुएँ वहाँ पर

धरा और चट्टानें हैं।

खोज रहा है चंद्रयान सब

कौन खनिज की खानें हैं।

 *

टूर करेंगे चंद्रयान से

खेल करेंगे तारे न्यारे ।

चंदा मामा मित्र हमारे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पाऊसरेघ… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

पाऊसरेघ… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

वृक्षाच्या छायेखाली ,

उतरेल माज उन्हाचा.

शोधता सावलीला ,

लागला माग वार्‍याचा .

जमतील कदाचित येथे,

नभी अचानक मेघ.

क्षितिजावर आशेच्या कधीही,

उमटेल पाऊसरेघ.

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रवास  – – ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रवास  – – ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे☆

होतो कुठे, आलो कुठे, काही कळेना

 हरलो का जिंकलो, काही उमजेना

*

जीवनाच्या प्रवासात चालत राहिलो

आलेल्या प्रसंगाशी लढत राहिलो

*

खाच खळगे, काट्या झुडपातून मार्गस्थ झालो

धडपडत, चाचपडत, पडून, उभा राहिलो

तरतरीत, टवटवीत होऊन ताजातवाना झालो

पुढे मखमली गालिच्या वरून चालत राहिलो

पण

गालिच्या खालची टोकेरी दगड टोचत राहिली

जमिनीवरच्या मातीची आठवण देत राहिली

*

काही प्रसंगी हरून जिंकलो

तर

काही प्रसंगी जिंकून हरलो

*

काही लढाया डोक्याने लढलो

तर

काही लढाया मनाने जिंकलो

*

डोक्याच्या लढायांना सर्व साथीला होते

मनाच्या लढायांना फक्त हृदयच

साक्षीला होते

*

काय कमवले, काय गमवले हिशोब जुळत नाही

काय जमवले, काय हरवले काहीच कळत नाही

*

सुख दुःखाच्या खेळामध्ये कठपुतळी झालो

नशिबाच्या लाटेवर तरंगत वहात राहिलो

*

सुख काय, दुःख काय, सारे सारखे वाटत गेले

त्याच्या पलीकडे जाऊन

माणूस होऊन, दुसऱ्यांसाठी, जगावेसे वाटत राहिले

*

होतो कुठे, आलो कुठे, काही कळेना

हरलो का जिंकलो, काही उमजेना

पण महत्वाचे

जीवनाच्या प्रवासात चालत राहिलो

सुखदुःखाच्या पलीकडे बघत राहिलो

आणि फक्त नी फक्त

आनंदाची देवाण घेवाण करत राहिलो

आंनदाची देवाण घेवाण करत राहिलो

© श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

ठाणे

मोबा. ९८९२९५७००५ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग १३ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग १३ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- हा आशानिराशेचा खेळ पुढे अनेक महिने असाच सुरू राहिला. खूप प्रयत्न करूनही हाती काही न लागताच अखेर  हातातून सगळं निसटून गेलंच.स्टेट बॅंकेची पूर्वीची वेटिंग लिस्ट रद्द होऊन नवीन भरतीसाठी पेपरमधे पानभर जाहिरातही झळकली. केवळ भावाच्या आग्रहाखातर त्या जाहिरातीस प्रतिसाद म्हणून मी पुन्हा नव्याने अर्ज केला. त्याच दरम्यान माझ्या मेहुण्यांच्या ओळखीने शिवडीतल्या ‘स्वान मिल’च्या  पीडीएफ् डिपार्टमेंटला मला दिवसभर चरकातून पिळून काढणारी तुटपूंज्या पगाराची नोकरी मिळाली आणि नव्या खेळाला नव्याने सुरुवात झाली!

पुढे जे घडत गेलं ते सगळं योगायोग वाटावेत असंच, पण ते योगायोग मात्र अघटीत म्हणावेत असेच होते!

‘क्वचित कधी अपयश आलंच तरी ते आपल्या हितासाठीच होतं हे कालांतरानं जाणवतंच’ हे कधीकाळी ऐकलेले बाबांचे शब्द मी त्या संघर्षकाळात घट्ट धरून ठेवले होते आणि पुढे ते आश्चर्यकारकरीत्या शब्दशः खरेही ठरले.)

मिलमधल्या कामाचा ताण दिवसेंदिवस वाढतच होता.त्याच धकाधकीत स्टेट बॅंकेचा नव्याने केलेल्या अर्जामुळे पुन्हा रिटनटेस्टसाठी काॅल आला.ती टेस्ट होऊनही महिनाभर उलटून गेला.रोजचं रुटीन अक्षरश: कसंबसं रेटणं सुरु होतं. मिलमधली नोकरी एक तर खाजगी. मिलमजुरांची आणि इतर स्टाफची पीएफ् खाती वर्षानुवर्षे अपडेटच केलेली नव्हती. त्यामुळे ऑडिटर्सनी घेतलेल्या स्ट्रीक्ट ॲक्शनमुळे ते प्रदीर्घकाळ पेंडिंग असलेले काम शिकून घेऊन ठराविक मुदतीत पूर्ण करण्याचं प्रचंड दडपण माझ्यावर असायचं.आमचे मॅनेजर शास्त्रीसाहेब तर कायम कातावलेलेच असायचे. कामासंदर्भातल्या काही शंका असतील तर त्यांच्याकडे जाऊन सांगण्याशिवाय गत्यंतरच नव्हतं. मी अदबीने त्यांच्यासमोर जाऊन उभा राहिलो की मला पाहून त्यांचं कपाळ आठ्यांनी भरून जायचं. ते कामच अतिशय एकसूरी आणि किचकट असल्यामुळे खूप कंटाळवाणं वाटायचं न् तिथं माझ्या शंकांचं निरसन करुन कामाला गती देणारं कुणीही नव्हतं. तरीही ती नोकरी माझी गरज म्हणून मला टिकवणं भागच होतं. कामासाठी रोज रात्री उशीरपर्यंत बसायला लागायचं. खूप उशीर झाला की बस नसल्याने भुकेल्यापोटी शिवडीहून दादरपर्यंत चालत यावे लागे.या सगळ्या प्रतिकूल परिस्थितीत बहिणीच्या घरी मिळणारं घरपण हाच एकमेव दिलासा होता.

बहिणीचं मूळ सासरघर कोल्हापूरला होतं. तिथं घरी सर्वांना आणि इस्लामपूरला आमच्या आईबाबांनाही भेटण्यासाठी म्हणून बहिणीने रजा घेऊन थोडे दिवस तिकडं जाऊन यायचं ठरवलं.तिला पोचवायला मेहुणेही जाणार होते.दोन चार दिवस राहून ते परत येणार होते. त्या दरम्यान दादरला एकट्यानंच रहाणं माझ्या जीवावर आलं होतं. ते न सांगताच समजल्यासारखं माझी डोंबिवलीची मावशी एकदा दादरला बहिणीकडे आली होती, तेव्हा ती ‘तुम्ही जाऊन परत येईपर्यंत याचे इथे जेवणाचे हाल कशाला?थोडे दिवस बदल म्हणून मी याला डोंबिवलीला घेऊन जाते’ म्हणाली.मी चार दिवस मावशीकडे रहायचं आणि मेहुणे परत येतील तेव्हा मी त्यांना दादर स्टॅंडवर उतरवून घ्यायला यायचं न् मग दोघांनी दादरच्या त्यांच्या घरी जायचं असं सगळं आमचं  निघतानाच ठरलं. हे सगळं मला त्यावेळी सोईचं वाटलं खरं, पण तेच पुढं माझ्या आयुष्यात मात्र प्रचंड उलथापालथ करणार होतं याची तेव्हा आम्हा कुणालाच कल्पना नव्हती ! आज इतक्या वर्षानंतर ते सगळं आठवतं तेव्हा या सगळ्या घटनाक्रमात लपलेल्या अघटीत योगायोगाचं आश्चर्य वाटतं एवढं खरं!

ठरल्याप्रमाणे मी त्या रविवारी डोंबिवलीहून माझी बॅग घेऊन मेहुण्याना उतरवून घ्यायला निघालो. त्यांची बस रात्री साडेआठला येणार होती. उशीर व्हायला नको म्हणून मी आठ वाजताच तिथे जाऊन बसची वाट पहात थांबलो.बस अनपेक्षितपणे तासभर उशिरा आली. तिथून चित्रा टॉकीजसमोरच्या इस्माईल बिल्डिंगमधल्या घरी पोहोचेपर्यंत रात्रीचे साडेनऊ वाजून गेले होते. सामान घरी ठेवून,फ्रेश होऊन लगेच बाहेर जेवायला जायचं ठरलं होतं. आम्ही गडबडीने कुलूप काढून दार ढकललं तर समोरच शटरमधून आत टाकलेली दोन तीन पत्रे पडलेली होती. पुढे होऊन मी ती उचलली आणि पाहिलं तर त्यात एक लिफाफा चक्क माझ्या नावाचा होता ! इथे या पत्त्यावर आणि माझं पत्र? उत्सुकतेपोटी तो लिफाफा उचलला आणि घाईघाईने उघडून पाहिला तर आत ‘युनियन बॅंक आॅफ इंडिया’ कडून आलेलं एक पत्र होतं. मुंबईत आल्याबरोबर मी मेहुण्यांच्या सल्ल्याने माझ्या मनात नसतानाही इथल्या एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज मधे नाव नोंदवलं होतं त्याची आठवण करुन देणारं ते पत्र होतं! कारण ते पत्र म्हणजे एम्प्लॉयमेंट एक्स्चेंजद्वारे मागवलेल्या यादीनुसार नुकत्याच राष्ट्रीयीकरण झालेल्या युनियन बँक ऑफ इंडियाने मला पाठवलेलं ते रिटन टेस्टचं कॉल लेटर होतं! जीवघेण्या उकाड्यांत अनपेक्षितपणे मनाला स्पर्शून गेलेली ती गार वाऱ्याची झुळूकच होती जशीकांही! हे अनपेक्षित पत्र म्हणजे ‘स्वान मिल’ मधल्या रुक्ष,कोंदट वातावरणातून मला तात्काळ बाहेर पडणं सहजसुलभ  करणारी एक संधीच होती.त्या अनपेक्षित आनंदाच्या भरात क्षणाचाही विलंब न लावता मी ते कॉललेटर झरझर वाचून पूर्ण केलं आणि त्याचक्षणी सगळी शक्तीच कुणीतरी काढून घेतल्यासारखा मटकन् खुर्चीत बसलो. पत्र धरलेला माझा हात थरथरु लागला. डोळे नकळत भरून आले.

फ्रेश होऊन जेवायला जायच्या तयारीने मेहुणे बाहेर आले आणि मला पहाताच थबकले.

“काय रे? काय झालं? कुणाचं..कसलं पत्र आहे ते?”

मी सून्न होऊन गप्प बसलो.आता बोलण्यासारखं कांही शिल्लक होतंच कुठं? मी न बोलता ते पत्र त्यांच्या हातात दिलं.

“ओह्…” तो धक्का त्यांनाही अनपेक्षित होता. कारण प्रवासाला जाण्यापूर्वी दादरच्या घराला कुलूप लावलं होतं त्याच दिवशी हे पत्र इथं येऊन पडलं होतं,म्हणजे साधारण आठवडा होऊन गेला होता.पण ते आमच्या हातात पडायला मात्र बराच उशीर झाला होता. कारण रिटन-टेस्टची तारीख आदल्या दिवशीची म्हणजे शनिवारची आणि वेळ दुपारी अकराची होती. अर्थातच रिटर्न टेस्ट कालच होऊन गेलेली होती!

हातातोंडाशी आलेला सुग्रास घास पुन्हा एकदा हिरावला गेला होता!

मन कोंदट अंधाराने भरुन गेलेलं असतानाच पुढचे तीन साडेतीन तास असे झंझावातासारखे आले की अनपेक्षितपणे आकारलेल्या सकारात्मक घटनांनी त्या अंधारल्या मनात पुन्हा आशेची ज्योत पल्लवित झाली!

क्रमश:..  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “ती, आरसा, आणि मी…” भाग – १ ☆ सुश्री शीला पतकी ☆

सुश्री शीला पतकी 

🌸 जीवनरंग 🌸

☆ “ती, आरसा, आणि मी” भाग – १ ☆ सुश्री शीला पतकी 

नापास शाळेच्या ऍडमिशन सुरू झाल्या.. पालक विद्यार्थी हितचिंतक अशा नापास मुलांना घेऊन माझ्याकडे येत असत. कुणाकडे पैसे नाहीत, कोणी खूप गरीब आहे, दहावी मध्ये नववी मध्ये नापास होऊन शिक्षण थांबले आहे, असे खूप विद्यार्थी येतात. 

सकाळी नऊ वाजता माझे काम सुरू  झाले आणि एक रिक्षावाले गृहस्थ आले. त्यांनी आपली ओळख करून दिली आणि म्हणाले “माझी मुलगी येथील एका कन्या शाळेत होती पण शाळेने तिला काढून टाकले आहे. इयत्ता नववीमध्ये शिकत होती. तेव्हापासून ती घरीच आहे.”

मी त्यांना मध्येच थांबून विचारलं, “अहो पण शाळेतनं काढायचं कारण काय?”

त्यावर ते दोन मिनिट गप्प राहिले आणि मग त्यानी मला सांगायला सुरुवात केली. म्हणाले, “दोन वर्षांपूर्वी माझी मुलगी तळत्या तेलात पडून गंभीर जखमी झाली. तिचा चेहऱ्याचा भाग, मानेचा भाग, हात, म्हणजे जवळपास अर्ध शरीर भाजून निघाले तिचे.. सात आठ महिने दवाखान्यातच गेले ..ती जगेल असे मुळीच वाटत नव्हते. पण माहित नाही आमच्या सुदैवाने की तिच्या दुर्दैवाने ती जगली. त्यानंतर तिचा चेहरा, कातडी विद्रूप झाल्यामुळे तिच्या बाई म्हणतात की त्यांच्या शाळेतील मुली तिला घाबरतात, आणि अशी विद्रूप मुलगी आम्हाला वर्गात नको ” …..हे सांगताना त्यांना अक्षरशः रडायला येत होते. त्यांनी हुंदका दिला.

मी उठून त्यांना पाण्याचा ग्लास पुढे केला.. पाठीवरती थोपटलं ..आणि म्हणलं, “काळजी नका करू, आपण करू काहीतरी. ..तुम्ही मुलीला घेऊन या !”

ते म्हणाले, “बाई ती खूप निराश झाली आहे. आता दीड दोन वर्ष झाले ती घरीच आहे. कोणाशी फार बोलत नाही, मिसळायचा तर प्रश्नच नाही. तिला कोणी मिसळूनच घेत नाही. घरातली खोली आणि ती ! बरं, लहानगा जीव, काय समजते हो 14/ 15 वर्षाच्या मुलीला. आमच्या डोळ्यासमोर तिचं सगळं भविष्य उभं रहातं.”….

मलाही थोडं आश्चर्यच वाटलं .. “भाजली आहे ना, एवढं काय काळजी करण्यासारखं, होईल बरं. हल्ली प्लास्टिक सर्जरी वगैरे करतात.” 

ते म्हणाले, “हो, पण त्याला ठराविक कालावधी जावा लागेल…. मुलगी बऱ्यापैकी हुशार आहे. घरी बसून खूप कंटाळली आहे. तुम्ही तुमच्या शाळेत प्रवेश दिला तर फार उपकार होतील.”

मी म्हणाले, “उपकाराची भाषा करू नका. शिक्षण घेणं हा तिचा हक्क आहे. आपण तिला शिकवूयात.”

माझ्या शब्दाने त्यांना खूप धीर मिळाला. मी म्हणाले, “मुलीला घेऊन या. मी तिच्याशी बोलते आधी, आणि मग आपण ठरवू.”

ते थोडे सुखावले होते. त्यांना कुठेतरी खात्री वाटत होती की इथे माझ्या मुलीला प्रवेश मिळेल. ते तातडीने घरी गेले आणि एका तासाभराने आपल्या मुलीला आणि बायकोला घेऊन माझ्या ऑफिसमध्ये आले. 

तोपर्यंत काही ॲडमिशनचे इंटरव्यू चालले होते. मी मुलांशी, पालकांशी बोलत होते, त्यांचे समुपदेशन करत होते. त्यानंतर समोरचे पालक बाहेर पडले. मी खाली वाकून काही फॉर्मवरती टिपणं करत होते आणि हे  रिक्षावाले गृहस्थ पुन्हा ऑफिसमध्ये प्रवेश करते झाले. सोबत त्यांची पत्नीही होती. त्यानी सांगितले, “बाई, मुलीला घेऊन आलो आहे. आपण तिच्याशी बोला.” 

सुरुवातीला तिची आई माझ्याशी बोलली. त्या म्हणाल्या, “दिवाळीचं तळण तळत होते हो, आणि ही पोरगी धावत आली आणि त्या मोठ्या कढईत पडली.” ते सगळं ऐकताना माझ्या अंगावर काटा येत होता. त्या वेदना, ते हॉस्पिटल, सगळं त्या वर्णन करून सांगत होत्या. मी म्हणलं, “एवढ्या लहान लेकराने हे कसं सोसलं असेल ना ?” 

इतक्यात ती मुलगी आत आली. सुरेखा तिचं नाव होतं आणि मीही इतर मुलांना जसा दिलासा देण्यासाठी त्यांच्या नावाने हाक मारते ये ये …तसं मी हिला हाक मारली “ये ये सुरेखा …”

सुरेखा आत आली. तिला पाहिलं आणि मी खुर्चीवरून नकळत उठले. समोर तिचं रूप पाहून मला काय वाटलं मी सांगू शकत नाही.. भीती, किळस.. भयानक चेहरा होता.. डोळे बाहेर आलेले, गालाची हाडं वर आलेली, त्याच्यावर जळलेलं मास थोडंसं लोंबणारे.. जागोजागी असंख्य जळकट सुरकुत्या, मानेभोवती अशाच सुरकुत्यांचे जळकट जाळे.. केस तुटके तुटके भुरे.. डोक्यावर थोड्याशा जखमा भाजलेल्या.. ओठ भाजल्याने किंचित पुढं आलेले, कानाच्या पाळ्यांची तीच अवस्था.

मी तिच्या हाताशी पाहिलं, हातावरचं मांस दिसावं तसा तांबूस रंग होता. दोन्ही हाताची बोटं आतून मुडपलेली होती आणि अगदी बारीक बारीक बोटं म्हणजे नुकत्याच जन्मलेल्या पक्षाच्या पिलाचा जसा रंग असतो ना आणि शरीर असतं तसं ते सगळं होतं. …

मी एक क्षणभर म्हटलं हे रोज बघू शकतो का आपण…? मुळात तिच शरीर अतिशय कृश होतं. म्हणजे हाडं आणि लोंबणारी कातडी.. बाहेर आलेले डोळे.. तुटके केस ..  हे थोडक्यात वर्णन ….आणि मी स्वतःलाच प्रश्न विचारला ‘शीला पत्की, सामाजिक सेवा करायला निघाला आहात, हे सोसणार आहे का तुम्हाला ? दररोज नुसतं बघणं तरी काय भयानक होतं ते, छे छे, हे होणे नाही…!’

… पण माझ्या दुसऱ्या मनाने मला सांगितलं… ‘मग तू समाजसेवेचा खोटा आव आणतेस का? इतकं साधं तुला सोसता येत नाही.. फक्त बघायचे तर तुला एवढी किळस आली… ती कशी ते सगळं रूप घेऊन समाजात मिरवेल ना? काय सांगणार आहेस तिला तू ? ‘

… आणि मग कुठून अवसान आलं माहित नाही, आतून एक आवाज आला.. ‘नाही नाही, हीच माझी परीक्षा आहे’ ….आणि मी मलाच आजमावण्यासाठी असेल बहुदा.. तिला म्हणलं ” हाय सुरेखा….” आणि तिचा तो मांसल वेडावाकडा हात मी हातात घेतला… तो स्पर्श अगदी थंड होता. कुणीतरी पहिल्यांदा तिचा हात प्रेमाने हातात घेत होतं.. कुणीतरी तिला स्पर्श केला होता.. आणि तिच्या त्या चेहऱ्यावर ओठामधून एक छानसं हसू फुटलं. म्हणजे डब्यात ठेवलेल्या जाईच्या कळ्या उमललेल्या असाव्यात आणि एखादी तळातली कळी न उमललेली ..वरची फुलं काढल्यावर अलगद आणि पटकन उमलते ना तशी तशी ती हसली..! मला वाटतं खूप दिवसांनी ती हसली असावी….. मी माझी स्वतःची परीक्षा घेणं किंवा स्वतःला आजमावणं याच्यासाठी तो हात तिच्या हातात तसाच ठेवला आणि दोन मिनिटांनी त्या स्पर्शात काय संवेदना होती माहित नाही, मी तिच्या दुःखाशी तद्दूप झाले. क्षणभरात दिसणारे विद्रूप रूप माझ्यासमोरून नाहीस झालं आणि माझ्यासमोर दिसत होती एक छोटी मुलगी, तिला पुन्हा एकदा आपलं आयुष्य फुलवायचं आहे, माझ्या थोड्या मदतीची याचना ती करत होती. 

बस्, मी ठरवलं आणि तिला प्रवेश दिला. तिच्याशी खूप गप्पा मारल्या. बहुदा मी स्वतःला तिला सहन करू शकते का हे आजमावत होते.

तिला प्रवेश दिल्यामुळे तिचे आई-वडील दोघेही रडायला लागले‌. “बाई फार उपकार झाले. आज तुम्ही माझ्या मुलीला जवळ घेतलेत.”

मी त्यांच्याही पाठीवरून हात फिरवला. त्यांना धीर दिला… शाळेचे नियम समजावून सांगितले आणि सुरेखाचा प्रवेश झाला ..!

पण इथे मुद्दा संपला नव्हताच. आमच्या मुख्याध्यापकांना मी तिचा विषय समजून सांगितला. त्या दोघी खूप चांगल्या होत्या. मी त्यांना सांगितले, “आपल्याला त्या मुलीला समजून घ्यायचे आहे.”

…तिथे मुख्याध्यापक म्हणून काम करणारी माझी मैत्रीणच होती आणि त्या माझ्या शाळेच्या निवृत्त मुख्याध्यापिका होत्या, वयाने मोठ्या होत्या.. आई होत्या. त्यानी त्या गोष्टी समजून घेतल्या!

शाळा सुरू झाली. मुलींचा वर्ग, मुलांचा वर्ग सुरुवातीला एकत्रच असे. मग ऍडमिशन सगळ्या झाल्या की मुला मुलींचे वर्ग वेगळे करत असू…

मी तेव्हा सेवासदन मध्ये नोकरी करत होते. मी एक तास सकाळी आणि एक तास संध्याकाळी शाळेमध्ये उपस्थित राहत असे. बाकी सगळे व्यवस्थापन माझा स्टाफ पाहत होता. शाळा माझी अगदी माझ्या संस्थेला लागूनच होती त्यामुळे मुख्याध्यापकांच्या परवानगीने मधल्या सुट्टीतही मी एक चक्कर टाकून जात असे. त्याप्रमाणे मी मधल्या सुट्टीत गेले. मुख्याध्यापिका म्हणाल्या, “बाई बरं झालं तुम्ही आलात. एक प्रॉब्लेम आहे…”

मी म्हणाले, “काय झालं ..?”

त्या म्हणाल्या, “ह्या मुलीबरोबर कोणी डबा खायला तयार नाही, हिला कोणी एक एकत्र बसून घेत नाहीत. आम्ही खूप समजून सांगितलं दोन-तीन दिवस, पण मुली ऐकायलाच तयार नाहीत. तुम्ही काही करता का पहा…”

– क्रमशः भाग पहिला

© सुश्री शीला पतकी

माजी मुख्याध्यापिका सेवासदन प्रशाला सोलापूर 

मो 8805850279

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ जांभळीचे झाड – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

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☆ जांभळीचे झाड – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

(घराच्या मागच्या बाजूला तयार केलेल्या खड्यात जांभळीचे झाड उभे केले आणि त्यात माती भरली, शेणखत भरले वर पाणी ओतले.) – इथून पुढे — 

आता ते रस्त्यावरचे माझे लाडके जांभळीचे झाड माझ्या घराच्या आवरात उभे होते. माझ्या बायकोला हें काही पसंत नव्हते.ती झाड उभ करताना तिकडे फिरकली ही नव्हती.

आता झाड जगवणे हें महत्वाचे होते, आमच्या घरी कामाला येणारी शांता कडे मी या झाडाला रोज पाणी घालायची जबाबदारी सोपवली.

दुसऱ्या दिवशी मी पाहिले झाडाची पाने हिरवीगार होती, सायंकाळी घरी आल्यावर पाहिले, शांता ने पाणी घातले होते पण झाडें मलुल दिसत होती. मी रात्री उठून झाडाकडे गेलो, पाने आणि देठ पिवळे होतं होते. सकाळी पाहिले काही पाने गळून पडली होती, बरीच पाने पिवळी झाली होती. मी कॉलेजच्या वर्देसरांना फोन लावला, त्याचे म्हणणे, जुनी पाने गळून पडत असावीत, त्याची काळजी करू नका, नवीन कोंब येतात का पहा.

मी सकाळ दुपारी सायंकाळी मध्यरात्री झाडाकडे पहात होतो. पाणी शेणखत घालत होतो, पण काहीच प्रगती नव्हती.

मी निराश झालो. बायको म्हणत होते ते खरेच उगाचच रस्त्यावरचे झाड घरी आणले होते. मग आजूबाजूच्या लोकांचे सल्ले ऐकले, कोणी म्हणाले “असे झाड पावसाळ्यात लावायला हवे होते, या दिवसात जगणे कठीण,’.दुसऱ्याचे म्हणणे “रोज पाणी घालू नका, त्यामुळे मुळे कुजतात ‘.

एकांदरीत सर्व मला हसत होते, चेष्ठा करत होते.

मी दुःखी होतं होतो. एवढ्या अपेक्षेने आणि कोर्टात जाऊन या जांभळीच्या झाडाला मी घरी घेऊन आलो होतो, त्या करिता किती पैसे गेले होते? माझी किती मेहनत? आणि सर्वांनी माझी चेष्ठा करावी? बायकोने जाता येता टोमणे मारावे?

आज सहा दिवस झाले, जांभळीच्या झाडावरील सर्व पाने झडून गेली होती. त्यावर कोठेही नवीन कोंब येत नव्हते. माझा पराभव झाला होता, आता बायको काय बोलेल ते ऐकून घ्यावे लागणार होते. आजूबाजूची लोक, शेजारी यांना फुकटची करमणूक झाली होती.

माझे कशातच लक्ष नव्हते. अजूनही शांता पाणी घालतंच होती.

एका मलुल संध्याकाळी मी पुन्हा एकदा वर्दे सरांकडे गेलो. सरांकडे माझा पराभव मान्य केला. सरांनी शिवाजी विदयापीठतील biology चे प्रमुख डॉ सामंत यांचा नंबर दिला आणि त्यांचेशी बोलायला सांगितले.    

मी रात्री डॉ सामंत यांना फोन लाऊन सर्व हकीगत सांगितली. सामंत यांनी सर्व व्यवस्थित ऐकून घेतले, मग ते बोलू लागले 

डॉ सामंत -वकीलसाहेब, तुमच म्हणणं मी ऐकलं, तुम्ही रस्त्याच्या कडेला असलेले जांभळीचे झाड उपटून काढलंत आणि तुमच्या घराच्या आवारात लावलत.

पण तुम्ही विचार केला काय त्या झाडाला किती वेदना झाल्या असतील? तुम्हाला जर तुमच्या घरातून ओढून बाहेर काढलं आणि दुसऱ्या घरात नेलं, तर तुम्हाला राग नाही का येणार?

मी -येणार सर, निश्चित येणार, पण मी माणूस आहे आणि ते तर झाड..

डॉ सामंत -इथेच आपली गफलत होते. तुम्हाला काय वाटते, झाडाला संवेदना नाहीत? राग नाही? दुःख नाही? आनंद नाही? झाडांना सहवास, प्रेम नको असत?

मी -सर, मला काहीच माहित नाही याबद्दल..

डॉ सामंत -तुम्ही कोकणात राहता, तुमच्या घरा शेजारी एक नारळीच झाड बागेतील झाडापेक्षा पाचपट उत्पन्न देत, बरोबर..

मी विचार केला, डॉ बरोबर आहे. आमच्या घरच्या बाथरूम चे पाणी घरा शेजारील माडा ला जाते त्याला बागेतील झाडापेक्षा कितीतरी जास्त नारळ धरतात.

मी -हो डॉ साहेब, बरोबर.

डॉ सामंत -याचे कारण घराशेजारील झाडाला तुमच्या घरचंचा सहवास मिळतो.

भारतीय शस्त्रज्ञ् डॉ जगदीश्चंद्र बोस यांनी प्रयोगाद्वारे सिद्ध केले आहे, वनस्पतीना सुद्धा राग, दुःख, वेदना, आनंद असतो. त्याना सहवास हवा असतो.

मी -मग डॉ माझे काही चुकलं का?

डॉ सामंत -खूपच चुकलं. रस्त्यावर एवढी वर्षे वाढलेलंय झाडाला उपटून काढतांना तुम्ही त्या झाडाची परवानगी घेतली होती का?

मी -नाही.. नाही.. मला याची काही कल्पना नव्हती.

डॉ सामंत,-ते झाड दुःखी झालाय. तुम्ही त्या झाडाची क्षमा मांगा. त्याला जाता येता गोंजारा. त्याच्या बुंध्यवर डोकं टेकवा, सतत त्याच्या सानिध्यात राहा आणि एक महिन्या नंतर मला फोन करा.

डॉ नी फोन ठेवला.

मी हडबडलो. मला वनस्पतीच्या  सवेंदना, भावना या विषयी काही कल्पनाच नव्हती, शाळेत असताना जगदीशचंद्र बोस यांच विषयी धडा होता पण तो पाच मार्कचा एव्हडाच इंटरेस्ट.

मी घरामागे आलो, चांदण्यात जांभळीचे झाड निश्चिल उभे होते. त्याचावर नाही फादी नाही पान. मी त्याच्या बुंध्यावर डोकं टेकले आणि रडू लागलो “क्षमा कर मला, क्षमा कर, तुला न विचारता तुला उपटून काढलं मी. दुष्ठ माणूस आहे मी. माझ चुकलं… कितीतरी वेळ मी रडत होतो.

दुसऱ्या दिवशी उठल्या उठल्या मी झाडाकडे गेलो, आज मी स्वतः विहिरीतील पाणी काढून मुळाभोवती शिंपले. अर्धातास मी झाडासोबत होतो.मग मी कोर्टात गेलो, रोजची कामे करताना सुद्धा माझ्या डोळ्यसमोर ते जांभळीचे झाड होते. रात्री घरी आलो, हातपाय धुतले आणि झाडाकडे गेलो. परत परत त्याची क्षमा मागितली. झाडाला गोंजारले, त्याचाशी गप्पा मारल्या.

माझ्या बायकोने माझ्याशी बोलणे सोडल होते. माझे जे काय चाळे चालले होते, त्याची मनातल्या मनात ती चेष्ठा करत असणार.

शांता मात्र माझ्या सूचनेनुसार रोज झाडाकडे जात होती, परत एकदा पाणी घालत होती.

दहा दिवस झाले असतील, मी सकाळी उठून झाडाला पाणी देत होतो, एव्हड्यात शांता आली आल्या आल्या ती झाडाकडे आली, आणि मोठ्याने ओरडली “भाऊंनू, ह्या बघा, झाडाक कोंब येता.. हेकाच पुढे फादी येतली आणि पाना पण येतली ‘.

मी धावलो, खरंच झाडाला दोन कोंब फुटत होते.

मी झाडाच्या बुंध्यवर डोकं टेकले आणि रडू लागलो. शांता चे ओरडणे ऐकून बायको बाहेर आली, तिने पण ते दोन कोंब पाहिले आणि ती प्रथमच हसली.

माझे रोज सकाळी उठून झाडाला गोंजारणे, झाडाशी गप्पा मारणे पाणी घालणे सुरूच होते.

ते दोन कोंब हळूहळू मोठे होतं गेले. आणखी कोंब आले, आणखी कोंब आले… लालचुतुक पाने आली..

पाने जून झाली.. फाद्या मोठया झाल्या.. संपूर्ण जांभळाचे झाड पानांनी भरून गेले.

— समाप्त — 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ हर्क्युलस विमानाचा पराक्रम… माहिती संकलक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

? इंद्रधनुष्य ?

☆ हर्क्युलस विमानाचा पराक्रम… माहिती संकलक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

भारतीय सैन्याने आपल्या दोन दिवसांच्या धाडसी  कामगिरीमुळे  आंतरराष्ट्रीय ख्याती मिळविली,  युगांडामध्ये इस्रायलने पूर्वी केलेला पराक्रम व भारताने आता केलेला पराक्रम हा सारखाच आहे.  

 भारतीय वायुसेनेच्या या कृतीने जग आश्चर्यचकित झाले आहे आणि भारताच्या उदयाचे कौतुक करत आहे.  भारतीय युगाची ही सुरुवात आहे असे जग  म्हणू लागले आहे.

सुदान मध्ये घडलेली ही घटना खूप धक्कादायक आणि थरारक होती .  भारतीय हवाई दलाच्या विमानांनी युक्रेन आणि काबूलमधील भारतीयांची सुटका करणे ही फार मोठी गोष्ट नव्हती कारण ते नेहमीच्या औपचारिकतेसह योग्य विमानतळांवर दिवसा उजेडी घडलेल्या होत्या.  

सुदानमध्ये तसे झाले नाही,  सुदानची हवाई हद्द बंद आहे आणि कोणत्याही विमानाला उड्डाण करण्याची परवानगी नाही, फक्त अमेरिकेने आपल्या राजदूतांना वाचवण्यासाठी आपले हेलिकॉप्टर धाडसाने पाठवले आहेत. इतर सर्व देश तेथे ठप्प आहेत, विमानतळावरील लढाईमुळे उड्डाणे अशक्य होतात आणि इतर अनेक मार्गक्रमण  अशक्य होते.    

121 भारतीय देखील असेच अडकले होते आणि त्यांना वाचवणे हे मोठे आव्हान होते

पंतप्रधान मोदींनी भारतीय हवाई दलाला पूर्ण अधिकार दिले आणि भारतीय गुप्तचर सेवा आणि परराष्ट्र व्यवहार मंत्रालयासहीत  भारतीय हवाई दल उत्साहाने मैदानात उतरले.

विदेशी विमाने सुदानमध्ये उडू शकत नाहीत आणि उड्डाण केल्यास दोन्ही बाजूंनी भीतीपोटी हल्ला होऊ शकतो, याशिवाय मुख्य विमानतळ जीर्ण आहे, अशा परिस्थितीत सुदानच्या परवानगीशिवाय भारतीयांची सुटका करावी लागणार आहे. हे आव्हान त्यांच्यासमोर होते. 

भारतीय गुप्तचरांनी सुदानची चौकशी केली आणि राजधानीच्या पलीकडे 50 किमी अंतरावर एक मानवरहित, बंद विमानतळ शोधला. तेथे विमान उतरविता येईल पण अनेक अडचणी आहेत.  

सर्व प्रथम, त्या विमानतळावर  कोणीही नाही, वीज नाही, दिवे नाहीत, हवाई वाहतूक नावाचे कोणतेही मार्गदर्शन नाही, येथे विमान लँडिंग किंवा टेक ऑफ करणे असो, धोका जास्त आहे.

विमान आले तरी  सुदानुना  चुकवून येणे अवघड आहे.   तसे पाहिले तर भारतीय विमानांना उड्डाणासाठी पेट्रोलमुक्त मार्ग नाही.  त्यामुळे अनेक समस्या या कार्यात आहेत. 

प्रथम, भारतीय हवाई दलाने आपल्या कमांडोसह एक मोठे विमान सौदी जेद्दाहला पाठवले, तेथून ते सुदानच्या बाजूने होते, जेणेकरून एकच इंधन भरणे पुरेसे होते.

भारतीय हवाई दलाने अत्यंत गुप्ततेत सनसनाटी कामगिरी  पार पाडली  १२१ लोकांना  संध्याकाळी शांतपणे  मानवरहित विमानतळाजवळ गुपचुप आणून लपवून ठेवले.  

त्यानंतर भारतीय हवाई दलाच्या हर्क्युलस विमानाचा पराक्रम सुरू झाला. 

विमानात दिवे न लावता  अंधारात उड्डाण केले त्यामुळे कोणाच्याही नजरेस न पडता विमान ईप्सित स्थळी पोहोचले . हे उड्डाण करताना त्यांनी  नाईट व्हिजन अटॅक उपकरणे वापरली आणि उपग्रहाच्या मार्गदर्शनाखाली भारतीय विमानाने अंधारात उत्तम प्रकारे उड्डाण केले.

वैमानिकांनी रात्री विमान सुरक्षितपणे उतरवले आणि इंजिन चालूच ठेवले.  

विमानाचा दरवाजा उघडला आणि भारतीय कमांडो धावत आले आणि विजेच्या वेगाने विमानात १२१   जणांना घेऊन गेले. या गोष्टीस सात मिनिटे लागली.   सौदी अरेबियातील जेद्दाह येथे विजेच्या वेगाने जाणारे विमान उतरल्यानंतर भारतीय मायदेशी परतले. 

या घटनेचे जागतिक स्तरावर तीव्र पडसाद उमटत आहेत.  इस्त्राईल वगळता इतर कोणत्याही देशाने असे आव्हान स्वीकारले नाही आणि भारताने ते यशस्वी केले आहे.  हे ऑपरेशन खूप आव्हानात्मक होते , जर विमान अडकले किंवा लढाऊ विमानांनी  घेरले गेले असते  तर फार मोठा धोका होता. शनिवार २९.४.२०२३ रोजी हे घडले. 7 मिनिटांत सुदानमधून भारतीयांची सुटका झाली. 

प्रत्येक प्रकल्प सावधपणे परंतु धैर्याने संकल्पित केला जातो आणि आव्हान असतानाही तो कार्यान्वयीत केला जातो.  हा पराक्रम करणाऱ्या पायलट आणि क्रू चीफचे तपशील अद्याप जाहीर झालेले नाहीत. 

त्यांच्या नावांची पुरस्कारांसाठी घोषणा केव्हा होईल हे नक्की कळेल. 

भारतीय हवाई दलाने मोठी कामगिरी केली असून प्रत्येक भारतीयाने छाती उंच करून अभिमानाने अभिवादन करण्याची वेळ आली आहे.

माहिती संकलक : अज्ञात 

प्रस्तुती : अमोल केळकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “चहा…” – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री कमलाकर नाईक ☆

श्री कमलाकर नाईक

?  वाचताना वेचलेले  ? 

☆ “चहा…” – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री कमलाकर नाईक ☆

चहाला सोडा लागत नाही..

Tonic water लागत नाही..

प्रिंगल्स , खारवलेले काजू  , शेजवान , चकल्या लागत नाहीत…

साध्या चिनीमातीच्या कपात काम होतं !

crystal glass चे फालतु खर्च नाहीत..

गरमच प्यावा लागतो त्यामुळे सर्दी, घसादुखी होत नाही…

आबालवृद्धांसमोर बसून आबालवृद्ध पिऊ शकतात..

देव्हाऱ्यासमोर / देवळासमोर / देवळामागे / मार्गशीर्षात / गुरुवारी / शनिवारी / तीर्थक्षेत्री / चतुर्थी कधीही , कुठेही पिऊ शकतो..

कितीही महागाचा घेतलात तरी ६० ml चा जास्तीत जास्त खर्च ३०-४० रुपयेसुद्धा होणार नाही. 

” आत्ताच पिऊन आलो, ” असं न घाबरता तोंड वर करून सांगता येतं.

perfume मारावा लागत नाही.

centre fresh खावा लागत नाही.

१२० ml पिऊनसुद्धा कप खाली ठेवल्या ठेवल्या स्टिअरिंग हातात घेऊन बेफाम गाडी चालवू शकता.

Traffic police अडवत नाही.

चार मित्र मिळून प्यायला बसलात, तर मधेच उठून कुणी कुणाला मिठ्या मारत नाही, किंवा एकाएकी इंग्लिशही बोलत नाही.

चहामुळे कुणाला अद्याप जुन्या खटल्यांची आठवण येऊन, धाय मोकलून रडत, गजल आणि breakup songs लावल्याचं पहाण्यात नाही…

चहाचा कच्चा माल टेनेसी किंवा स्कॉटलंड किंवा रशियावरून यायची गरज नसते…

आसाम, दार्जिलिंग, केरळ वगैरे देशी ठिकाणी तयार होतो.

देशसेवासुद्धा होते.

काळ्या पिशव्यांची गरज नसते.

लाकूड तोडून त्याचे बॅरल्स लागत नाही..

गॅसशेगडी, म्हशीचं  ताजं दूध, चहाची पत्ती नि साखर एवढंच पुरतं.

असा हा निरागस, पण तितकाच चैतन्यदायी चहा, तुम्हाला आजन्म मिळत राहो अशी ईश्वरचरणी प्रार्थना.

सोबत उत्तम गरम गरम चहा करून, हातात आणून देणारा/देणारी मिळाली तर चहात वेलची !

कवी :अज्ञात

संग्राहक  : श्री कमलाकर नाईक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ भान… ☆ सुश्री उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

सुश्री उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – भान – ? ☆ सुश्री उज्ज्वला सहस्त्रबुद्धे ☆

सोना आणि मुन्ना बागेमध्ये आले, 

माती पाहून खेळायला लागले!

सोना म्हणाली’ आपण झाड लावू,’

मुन्ना म्हणाला,’ मी काय करू?’

*

सोनाने आणली पाण्याची झारी, 

मुन्नाला दिली मातीसाठी फावडी!

सोनाने आणले रोप हिरवेगार,

 जमिनीत लावूया वाढेल शानदार!

*

सोना सांगे मुन्नाला झाडांचे महत्त्व,

पर्यावरण जतन करू, हेच आपले तत्व!

“पर्यावरण टिकवू या, 

जीवन चांगले जगू या”

*

संदेश दिला मुलांनी छान,

 निसर्गाचे सर्वांनी राखूया भान !

© सुश्री उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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