हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 161 ☆ “डेड एंड” (कहानी संग्रह) – लेखक – श्री पद्मेश गुप्त ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री पद्मेश गुप्त जी द्वारा लिखित  “डेड एंड” (कहानी संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 161 ☆

☆ “डेड एंड” (कहानी संग्रह) – लेखक – श्री पद्मेश गुप्त ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – डेड एंड (कहानी संग्रह)

लेखक  – श्री पद्मेश गुप्त

प्रकाशक – वाणी प्रकाशन

संस्कारण – पहला संस्करण २०२४,

पृष्ठ – १०० 

मूल्य – २९५  रु

ISBN – 978-93-5518-900-4

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

पिछली सदी में भारत से ब्रेन ड्रेन के दुष्परिणाम का सुपरिणाम विदेशों में हिन्दी का व्यापक विस्तार रहा है। जो भारतीय विदेश गये उनमें से जिन्हें हिन्दी साहित्य में किंचित भी रुचि थी, वह विदेशी धरती पर भी पुष्पित, पल्लवित, मुखरित हुई। विस्थापित प्रवासियों के परिवार जन भी उनके साथ विदेश गये। उनमें से जिनकी साहित्यिक अभिरुचियां वहां प्रफुल्लित हुईं उन्होंने मौलिक लेखन किया, किसी हिन्दी पत्र पत्रिका का प्रकाशन विदेशी धरती से शुरु किया । सोशल मीडिया के माध्यम से उन छोटे बड़े बिखरे बिखरे प्रयासों को हि्दी साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया। भोपाल से प्रारंभ विश्वरंग, विश्व हिंदी सम्मेलन, विदेशों में भारतीय काउंसलेट आदि ने प्रवासी हिन्दी प्रयासों को न केवल एकजाई स्वरूप दिया वरन साहित्य जगत में प्रतिष्ठा भी दिलवाई। प्रवासी रचनाकारों की सक्षम आर्थिक स्थिति के चलते भारत के नामी प्रकाशनो ने साहित्य के गुणात्मक मापदण्डो को किंचित शिथिल करते हुये भी उन्हें हाथों हाथ लिया। वाणी प्रकाशन, नेशनल बुक ट्र्स्ट, इण्डिया नेट बुक्स, शिवना प्रकाशन आदि संस्थानो से प्रवासी साहित्य की पुस्तकें निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। विदेश से होने के कारण भारत में प्रवासी रचनाकारों की स्वीकार्यता अपेक्षाकृत अधिक रही है। डॉ॰ पद्मेश गुप्त ब्रिटेन मे बसे भारतीय मूल केअत्यंत सक्षम  हिंदी बहुविध रचनाकार हैं। उन पर विकिपीडिया पेज भी है। डॉ॰ पद्मेश गुप्त ने यू॰के॰ हिन्दी समिति एवं `पुरवाई’ पत्रिका के माध्यम से हिन्दी को  प्रतिष्ठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मूलत: वे कवि हैं, किन्तु उनकी कहानियाँ भी बेहद प्रभावी हैं। उनका अनुभव संसार वैश्विक है, वे नये नये बिम्ब प्रस्तुत करते हैं। हाल ही लंदन बुक फेयर में आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में पद्मेश गुप्त के कहानी संग्रह ‘डेड एंड‘ का विमोचन संपन्न हुआ था। संयोगवश मैं भी लंदन प्रवास में होने से इस आयोजन में भागीदार रहा। इस संग्रह में कुल नौ कहानियां अस्वीकृति, औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है, डेड एंड, इंतजार, कशमकश, तिरस्कार, तुम्हारी शिवानी, कब तक और यात्रा सम्मिलित हैं।

कहानी अस्वीकृति में ई मेल बिछड़े प्रेमियों राजीव और अनीशा को फिर से मिलवाने का माध्यम बनती है। इस तरह का नया प्रयोग समकालीन कहानियों में नवाचारी और अपारंपरिक ही कहा जायेगा। पूर्ण समर्पण को उद्यत अनीशा के प्रस्ताव के प्रति समीर की अस्वीकृति से पल भर में  अनीशा के प्रेम, भावनाओ, और समर्पण की इमारत खंडहर हो गयी। कहानी “औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है” में पद्मेश गुप्त का कवि उनके कहानीकार पर हावी दिखता है। एक लम्बी काव्यात्मक अभिव्यक्ति से कथा नायक राम, सुजान के संग बिताये अपने लम्हे याद करता है। … सुजान के बेटे लव में राधिका ने राम की छबि देख ली थी, वह दुआ मांगने लगी कि अब किसी मोड़ पर कोई कुश न मिल जाये। …. औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है …. सुजान का वह वाक्य एक बार फिर राम के हृदय में गूंजने लगा। कहानी प्रेम त्रिकोण को नवीन स्वरूप में रचती है, जिसमें राम, राधिका, लव के पुरातन प्रतीको को लाक्षणिक रूप से किया गया प्रयोग भी कहानीकार की प्रतिभा और भारतीय मनीषा के उनके अध्ययन को इंगित करता है। ‘डेड एंड’ कहानी के गहन भाव और सुघड़ शिल्प ने पद्मेश गुप्त के कहानी बुनने के कौशल को उजागर किया है। हिन्दी कहानी के अंग्रेजी शब्दों के शीर्षक से विदेशों में बदलते हिन्दी के स्वरूप का आभास भी होता है। पुस्तक की अनेकों कहानियों में संवाद शैली का ही प्रयोग किया गया है। ढ़ेरों संवाद अंग्रेजी में हैं। … मिनी ने हँसते हुये उत्तर दिया ….  ” आई नो वी कांट विदाउट ईच अदर “। इंतजार वर्ष २००६ में लिखी गई पुरानी कहानी है, यह स्पष्ट होता है क्योंकि अंदर वर्णन में मिलता है ” आज २१ मार्च २००६ को शादी की पाँचवी वर्षगांठ का दिन दीपक ने शालिनी से अपने दिल की बात कहने के लिये चुना। … वह महसूस कर रहा था कि अंजली उसका बीता हुआ कल है और शालिनी भविष्य। किन्तु कहानी का ट्विस्ट और चरमोत्कर्ष है कि दीपक को एक पत्र बेड के पास मिलता है जिसमें लिखा था … मैं तुम्हारे जीवन से सदा के लिये जा रही हूं, मैं राजेश से विवाह कर रही हूं … शालिनी। कहानी के मान्य आलोचनात्मक माप दण्डो पर पद्मेश जी की कहानियां खरी हैं। कहानी ‘कब तक‘ आज के परिदृश्य में प्रासंगिक है। ये कहानियां स्वतंत्र प्रेम कथायें हैं। यदि कथाकार भाषा की समझ रखता है। उसमें समाज के मनोविज्ञान की पकड़ है तो प्रेमकथायें हृदय स्पर्शी होती ही हैं। पद्मेश की कहानियां भी पाठक के दिल तक पहुंच बनाती हैं। कशमकश संग्रह की सर्वाधिक लंबी कहानी है जिसमें कथानक का निर्वाह उत्तम तरीके से हुआ है। तिरस्कार से अंश उधृत है …सिमरन का घमण्ड चूर होने लगा। जिस गोरे रंग पर सिमरन को इतना नाज था, उसी के कारण आये दिन उसका तिरस्कार होता। …. राखी को लोगों से बहुत प्रशंसा मिली पर सिमरन ने यह कहकर उसका मजाक बनाया कि साँवली होने के कारण उसे एशियन लड़की भूमिका बहुत सूट कर रही थी। …. सिमरन अखबार उठाकर बैठ गई, अचानक उसकी नजर तीसरे पेज पर पड़ी … सिमरन चौंक गई … यह तसवीर उसकी छोटी बहन राखी की थी, नीचे लिखा था इस साल विश्वसुंदरी का खिताब भारत की राखी ने जीता है। कहानी इस चरम बिंदु के साथ स्किन कलर रेसिज्म और वास्तविक सौंदर्य पर अनुत्तरित सवाल खड़े करते हुये पूरी हो जाती है। तुम्हारी शिवानी भी रोचक है। ‘कब तक’ मिली-जुली संस्कृति के टकराव की व्याख्या करती है। यात्रा में लेखक के आध्यात्मिक चिंतन से परिचय मिलता है ” आत्मा अमर है, शरीर वस्त्र। आत्मा शरीर बदलती है, नया जन्म होता है।

कहानी में रुचि रखते हैं तो डेड एंड शब्दों  में बांधते हुये प्रेम को व्यक्त करता नये वैश्विक बिम्ब बनाता रोचक कहानी संग्रह है। सरल सहज खिचड़ी भाषा में बातें करता यह कहानी संग्रह समकालीन वैश्विक परिदृश्य को अभिव्यक्त करता पठनीय और संग्रहणीय है। कुल मिलाकर मुझे हर कहानी पठनीय मिली। सब का कथा विस्तार बताकर मैं आप का वह आनंद नहीं छीनना चाहता जो कहानी पढ़ते हुये उसकी कथन शैली में डुबकी लगाते हुये आता है। वाणी प्रकाशन से सीधे बुलाइये या अमेजन पर आर्डर कीजीये, पुस्तक सुलभ है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 196 – तुलादान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “तुलादान”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 196 ☆

🌻लघु कथा🌻 ⚖️ तुलादान ⚖️

अपने पुत्र के प्रतिवर्ष के जन्म दिवस पर तुला दान करके पिताजी गदगद हो दान स्वरूप अन्न, वस्त्र, फल, बर्तन, सूखे मेवे बाँटा करते थे।

आज पिताजी के दशगात्र  में विदेश में रहने वाला बेटा घर के सारे पुराने पीतल, काँसे के बर्तनों को निकाल कर पंडित जी के सामने तराजू पर रखकर कह रहा था… जो कुछ भी करना है,  इससे ही करना है। आप अपना हिसाब- किताब, दान- दक्षिणा सब इसी से निपटा लीजिएगा।

जमीन के सारे कागजात मैंने विक्रय के लिए भेजें हैं। इन फालतू के आडंबर और मरने के बाद मुक्ति – मोक्ष के लिए मैं विदेशी रुपए खर्च नहीं कर सकता।

मुझे वापस जाना भी है। पंडित जी ने सिर्फ इतना कहा… ठीक है मरने बाद पिंडदान होता है और पिंडदान के रूप में आप कुछ नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं।

आज आप स्वयं बैठ जाइए क्योंकि आपके पिताजी आपके लिए  सदैव तुलादान करते थे मैं समझ लूंगा यह वही है।

पास खड़ा उनका पुत्र भी कहने लगा.. बैठ जाइए पापा मुझे भी पता चल जाएगा कि भविष्य में ऐसा करना पड़ता है। तब मैं पहले से आपके लिए तुलादान की व्यवस्था करके रख लूंगा। बेटे ने देखा तराजू के तोल में वह स्वयं एक पिंड बन चुका है।

चुपचाप कमरे में जाता दिखा। पंडित जी मुस्कुराते हुए घर की ओर चल दिए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 89 – देश-परदेश – सुनो सुनो और सुनो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 89 ☆ देश-परदेश – सुनो सुनो और सुनो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन से वृद्धावस्था तक सुनते ही तो आ रहें हैं। कब तक सुनते रहेगें,हम उनकी ? ये वाक्य यादा कदा दिन मे उपयोग हो ही जाता हैं।

पुराने समय में पत्नियां भी अपनी सहेलियों से अक्सर ये शिकायत करती रहती थी, कि “हमारे ये तो सुनते ही नहीं हैं”, वो समय कुछ और था,जब अर्धांगनियां पति को संबोधन में कहती थी “अजी सुनते हो” अब समय शट अप से गेट लॉस्ट से भी आगे जा चुका हैं।

हमारे बॉलीवुड की सफलतम और एक अच्छे व्यक्तित्व की धनी श्रीमती अलका याग्नियक जी विगत कुछ दिनों से अपनी श्रवण शक्ति खो चुकी हैं।उनकी मधुर आवाज़ ही उनकी पहचान हैं।उन्होंने सभी से अपील की है, कि कान में हेडफोन (यंत्र नुमा) के अत्याधिक उपयोग से ऐसा हुआ हैं।

आजकल विशेषकर युवा पीढ़ी के लोग इयरफोन या हेडफोन से ही संगीत सुनना या कुछ भी सुनना पसंद करती हैं।पैदल सड़क पर,रेलपटरी, भोजन खाते समय,गाड़ी चलाते हुए या कुछ भी करते हुए इसका प्रचालन बहुत अधिक बढ़ गया हैं।परिणाम सामने है,दुर्घटनाएं और सुनने की क्षमता का कम होना,इस बात का प्रमाण हैं।

ये तो अच्छा हुआ कि व्हाट्स ऐप/ मेल आदि आ गए वरना ये सब फोन से बात करके ही संभव हो पता, कानों की क्या हालत होती ?

हमारे एक मित्र की बात भी सुन लेवें,उनके परिवार ने अब इयरफोन से तौबा कर ली है।घर में कुल अलग अलग रंग/डिजाइन के दस पुराने इयरफोन को जोड़ कर उसकी कपड़े सुखाने के लिए उपयोग कर रहे हैं। आप ने इसके रीयूज के लिए क्या विचार किया हैं ?

हमारी बातें भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देवें, इसी में मज़े हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #243 ☆ बरसात प्रीतीची… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 243 ?

☆ बरसात प्रीतीची ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

तिच्या नाजूक ओठांवर तिळाने स्वार का व्हावे ?

दिसाया कृष्णवर्णी तो तरी हे भाग्य लाभावे

*

मलाही वाटतो आता नकोसा जन्म हा माझा

मनी या एवढी इच्छा तिच्या ओठीच जन्मावे

*

सखा होण्यातही आता कुठे स्वारस्य हे मजला

उभा हा जन्मही माझा करावा मी तिच्या नावे

*

कळेना सूर मी कुठला तिच्या गाण्यातला आहे

मला तर एवढे कळते तिचे मी शब्द झेलावे

*

तिच्या कोशात मी इतका असा बंदिस्त का झालो ?

मुलायम रेशमी धागे कसे हे पाश तोडावे

*

तिच्या नजरेतली भाषा कळे नजरेस या माझ्या

तिच्या एकेक शब्दांचे किती मी अर्थ लावावे

*

किती बरसात प्रीतीची नदीला पूर आलेला

मिळालेली मने दोन्ही कशाला पूल बांधावे

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गा-हाणे… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

गा-हाणे... ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

चार दिवस पाउस कोसळला

बाकीचे आठ कोरडेच

उदास पुन्हा धरती रानमाळ

माती सांगे रोज गा-हाणे

आभाळाशी नाते बेभरोशी पंख

पाखरे शोधती ढगांस

धनधान्याविन घास दु:ख पाणी

 रिमझीम तरी ओल दे

आकाढ-श्रावणा निसर्ग थेंबांनी.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ भाऊसाहेबांची शायरी… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ भाऊसाहेबांची शायरी… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

प्रत्येक गावाची कलाक्षेत्राशी निगडीत एक विशीष्ट ओळखं असते. किंबहुना काही बहुआयामी प्रसिद्ध व्यक्तीमत्वाच्या व्यक्तींमुळे त्या गावाला एक वलय प्राप्त होतं. ते गाव जणू त्या कलाकारांमुळं प्रसिध्दीस येत. गावाचं नाव डोळ्यासमोर येताच आधी त्या कलाबाज व्यक्ती डोळ्यापुढं येऊन उभ्या ठाकतात.

माझे माहेर यवतमाळचे.यवतमाळच्या सुप्रसिद्ध व्यक्तींमधील एक मोती म्हणजे शायरीकार भाऊसाहेब पाटणकर. खरतरं “पिकतं तिथं विकत नाही”ही म्हण एकदम आठवली कारण यवतमाळात राहून सुध्दा भाऊसाहेब इतके कमालीचे शायरीकार होते हे उमगायलाच मुळी खूप कालावधी लागला. काही वेळेस आपल्याला त्यांच्या साहित्याची पूर्ण माहिती होईपर्यंत खरच खूप कालावधी निघून जातो.

श्री. वासुदेव वामन पाटणकर उर्फ भाऊसाहेब पाटणकर हे व्यवसायाने वकील, छंद शिकारीचा आणि अफलातून निर्मिती मराठी गझल व शायरींची. खरचं असा गुणांचा त्रिवेणी संगम त्यांच्यात एकवटला होता. भाऊसाहेबांचा जन्म 29 डिसेंबर 1908 चा व मृत्यू  20 जून 1997. वीस जून हा  त्यांचा स्मृतीदिन. त्यांना विनम्र अभिवादन. त्यांच्या गझल,शायरी बद्दल कितीही लिहीलं तरी कमीच. प्रामुख्याने त्यांची शायरी शुंगार,इष्क,जीवन,विनोद, मृत्यू ह्या संकल्पनांवर आधारित असायची.

सगळ्यात पहिले तर त्यांची शायरी समजून घ्यायची म्हणजे वाचक हा जिंदादिल हवाच ही त्यांची आंतरिक ईच्छा. त्यासाठी ते लिहीतात,

“उन्मेष ज्यांच्या यौवनाचा काहीच ना झाला कमी,

प्यायले जे खूप ज्यांना वाटे परी झाली कमी,

निर्मिली मी फक्त माझी त्यांच्याच साठी शायरी,

सांगतो इतरास “बाबा” वाचा सुखे “ज्ञानेश्वरी”.।।

प्रेम अनुभवतांना मान्य आहे एक वाट ही सौंदर्याचा विचार करते पण फक्त सौंदर्य म्हणजेच प्रेम नव्हे हे ही खरेच. प्रेम दुतर्फा असले,दोन्हीबाजुंनी जर ती तळमळ असली तरच तीच्यात खरा आनंद असतो हे त्यांच्याच शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“हसतील ना कुसूमे जरी,ना जरी म्हणतील ये,

पाऊल ना टाकू तिथे,बाग ती आमुची नव्हे,

भ्रमरा परी सौंदर्य वेडे,आहो जरी ऐसे अम्ही,

इष्कातही नाही कुठे, भिक्षुकी केली अम्ही.।।।

प्रेमात नेहमीच सदानकदा हिरवं असतं असं नव्हे, प्रेमात उन्हाळे पावसाळे हे असणारच. त्याबद्दल भाऊसाहेब म्हणतात,

“आसूविना इष्कात आम्ही काय दुसरे मिळविले,  

दोस्तहो माझे असो तेही तुम्ही ना मिळविले,

आता कुठे नयनात माझ्या चमकली ही आसवे,  

आजवरी यांच्याचसाठी गाळीत होतो आसवे.।।।

प्रेमात,जिव्हाळ्यात एक  महत्वपूर्ण अंक हा लज्जेचा पण असतो हे विसरून चालणार नाही.ह्या गोडबंधनाच्या सुरवातीला हा अंक असतो. ते हासून लाजणे अन् लाजून हासणे हे भाऊसाहेबांच्याच शब्दात पुढीलप्रमाणे

“लाजायचे नव्हतेस आम्ही नुसतेच तुजला बघितले,  

वाटते की व्यर्थ आम्ही नुसतेच तुजला बघितले,

उपमा तुझ्या वदनास त्याची मीही दिली असती सखे, 

थोडे जरी चंद्रास येते लाजता तुजसारखे.।।।

आंतरिक मानसिक प्रेम हे आपल्या जवळच्या व्यक्तीला सुखं देण्यातच असतं ना की तिला काही त्रास,तोशिस पोहोचवण्यात. आपल्या व्यक्तीला सर्वार्थानं जपणं हेच खर प्रेम. ते भाऊसाहेबांच्या शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“पाऊलही दारी तुझ्या जाणून मी नाही दिले,

जपलो तुझ्या नावास नाही बदनाम तुज होऊ दिले,

स्वप्नातही माझ्या जरी का येतीस तू आधी मधी,

स्वप्नही आम्ही कुणाला सांगितले नसते कधी.।।।

भाऊसाहेब म्हणतात प्रेम हे फक्त प्रणयातच असतं असं कुणी सांगितलं ,ते तर एकमेकांना जपण्यात,सांभाळण्यात,सावरण्यात पण असतं हे त्यांच्याच शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“चंद्रमा हासे नभी शांत शीतल चांदणे,

आमुच्या आहे कपाळी अमृतांजन लावणे,

लावण्या हे ही कपाळी नसतो तसा नाराज मी,  

आहे परि नशिबात हे ही अपुल्याच हाती लावणे.।।।

तरीही शेवटी मृत्यू हेच अंतीम सत्य असतं हे ही नाकारुन चालणार नाही हे ही भाऊसाहेबांनी जिवंतपणीच ओळखलं. मृत्यू नंतर ची सर्वसामान्य अवस्था त्यांच्याच शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“जन्मातही नव्हते कधी मी तोंड माझे लपविले, 

मेल्यावरी संपूर्ण त्यांनी वस्त्रात मजला झाकले,

आला असा संताप मजला काहीच पण करता न ये,

होती अम्हा जाणीव की मेलो आता बोलू नये.”।।।

सगळ्याचं विषयावरील भाऊसाहेबांची शायरी अप्रतिम असली तरी लिखाणात त्यांचा हातखंडा होता तो “इष्क,प्रणय आणि शुंगार ह्या प्रकारात. इष्क म्हणजेच प्रेम करणे ह्याला नजर हवी, हिंमत हवी हे भाऊसाहेबांचे म्हणणे त्यांच्याच शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“केव्हातरी बघुन जराशी हास बस इतुके पुरे,  

वाळलेल्या हिरवळीला चार शिंतोडे पुरे ।।  

“दोस्तहो हा इष्क काही ऐसा करावा लागतो,

ऐसे नव्हे नुसताच येथे जीव द्यावा लागतो,

वाटते नागीण ज्याला खेळण्या साक्षात हवी,

त्याने करावा इष्क येथे छाती हवी,मस्ती हवी.

प्रेमाची ओळख,त्याची जाण होणं हे त्यांच्याच शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“अपुल्यांच दाती ओठ अपुला चावणे नाही बरे,

हक्क अमुचा अमुच्यासमोरी मारणे नाही बरे, ।।। 

आणि ते ओळखायची खूण म्हणजे,

“धस्स ना जर होतसे काळीज तू येता क्षणी ,

अपुल्या मधे,कोणात काही नक्की जरा आहे कमी.।।

ह्या अशा शायरीत गुंतता गुंतता वार्धक्य कधी उंब-यावर येतं ते कळतचं नाही. अर्थात जिंदादिलीवर ह्याचा काहीच परीणाम होत नाही. ह्याच्याच विचाराने त्यांना जीवनाविषयी सुचलेली शायरी पुढीलप्रमाणे,

“दोस्तहो,वार्धक्य हे सह्य होऊ लागते,

थोडी जरा निर्लज्जतेची साथ घ्यावी लागते,

मूल्य ह्या निर्लज्जते ला नक्कीच आहे जीवनी,

आज ह्या वृध्दापकाळी ही खरी संजीवनी”।।

अर्थात भाऊसाहेबांच्या मते हा प्रेमाचा,ईष्काचा अनुभव हा स्वतःच्या मनाने घेतल्याने एक होतं आपल्याला ह्मात कुठल्याही प्रकारचा पश्चाताप मनात साचत नाही. ही जबाबदारी स्वतः घ्यायलाही खूप हिम्मत लागते ती पुढीलप्रमाणे,

“बर्बादीचा या आज आम्हा, ना खेद ना खंतही,

झाले उगा बर्बाद येथे सत्शील तैसे संतही,

इतुका तरी संतोष आहे,आज हा आमच्या मनी,

झालो स्वये बर्बाद आम्हा बर्बाद ना केले कुणी.।।।

कुठलही प्रेम हे प्रेमच असतं. ते अलवार प्रेम अनेक ठिकाणी वसू शकतं हे खरोखर इतक्या सहज वृत्तीने स्विकारलेल्या भाऊसाहेबांच्या शब्दांत पुढीलप्रमाणे  

“ऐसे नव्हे इष्कात अम्हां काही कमी होते घरी,

हाय मी गेलो तरीही दीनापरी दुस-या घरी,

अर्थ का ह्याचा कुणा पाहिले सांगितला,

आम्ही अरे गमतीत थोडा जोगवा मागितला.।।।

प्रेम हे प्रेमच असत ते शेवटास गेले तरी वा मध्येच अधांतरी राहिले जरी. त्याच्या गोड स्मृती ह्या शेवटच्या श्वासापर्यंत तशाच ताज्या राहतात जसे,  

दोस्तहो, ते पत्र आम्ही आजही सांभाळतो,

रुक्मिणीचे पत्र जैसा,श्रीहरी सांभाळतो,

येतो भरुनी ऊर आणि कंठही दाटतो,

एकही ना शब्द तिथला,आज खोटा वाटतो.।।।

अगदी शेवटी भाऊसाहेब म्हणतात, हा जिन्दादिल रसीक असेल तरच आमच्या शब्दांना अर्थ आहे.पोस्ट ची सांगता त्यांच्याच शब्दात त्यांच्या खास रसिकांसाठी पुढीलप्रमाणे,

“वाहवा ऐकून सारी आहात जी तुम्ही दिली,

मानू अम्ही आहे पुरेशी तुमच्यातही जिन्दादिली,

समजू नका वाटेल त्याला आहे दिली जिन्दादिली,

आहे प्रभूने फक्त काही भाग्यवंतांना दिली.।।।

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोलायचे राहून गेले – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळुस्कर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ बोलायचे राहून गेले – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

वंदना बाहेर पडण्याची तयारी करत होती.  एव्हड्यात तिची मैत्रीण सीमा चा फोन आला. सीमाचा खुप दिवसांनी फोन, म्हणून वंदना आंनदीत झाली.

वंदना –” काय सीमे? आज एवढ्या लवकर उठलीस वाटतं?”

सीमा –” म्हणजे काय वंदे? मी लवकर उठत नाही अस म्हणायचंय तुला?”

वंदना –”उठतेस ग, पण कामाशिवाय तू फोन करणाऱ्यातील नाही, म्हणून आश्यर्य वाटलं.”

सीमा –” ते बरोबर ओळखलस, बर वंदे, मी फोन केला म्हणजे तुमची मिता आणि अश्विन यांचा प्रेमप्रकरण जोरात सुरु आहे, तुला माहित आहे ना?”

वंदना –” काय? मिता आणि अश्विन? नाही ग, मला आत्ताच समजतंय, आता खडसवून विचारते मिताला, नोकरीं वगैरे बघायची सोडून प्रेम करते? आणि ते पण अश्विन, तो उनाड पोरगा?”

सीमा –”अग पण अश्विन तुझा मित्र ना?”

वंदना –” हो ना, एका नाटकाच्या ग्रुपमध्ये आहोत आम्ही चार वर्षांपासून. पण मैत्री फक्त ग्रुप मध्ये आणि नाटकात, वैयक्तिक आयुष्यात नाही. तो कसा आहे फुलपाखरासारखा हें मला माहित आहे. आज पर्यत तीन चार मुलीबरोबर दिसायचा. पण आता माझ्या बहिणीबरोबर? थांब विचारते दोघांनाही.”

सीमा –” ए बाई, माझं नाव घेऊ नकोस हा?”

वंदना –”नाही घेणार पण दोघांनाही सरळ करते की नाही बघ.” 

सीमाने फोन खाली ठेवला.

वंदनाचा संताप संताप झाला. जेमतेम वीस वर्षाची ही आपली बहिण, गेल्या वर्षी B. Sc झालेली, पुढे काही शिक म्हटलं तर टाळाटाळ करणारी, आईच्या पेन्शनवर जगणारी प्रेमाचे इष्क उडवू लागली आहे आणि कुणाबरोबर? तर त्या खुशालचेंडू अश्विनबरोबर?

वंदना कडाडली ” मिता, आत्ता माझ्यासमोर ये, ताबडतोब “

तिचे ओरडणे ऐकून त्या दोघींची आई घरातून बाहेर आली 

” काय झालं ग, कशाला ओरडू लागलीस?

“अग आई, ही आपली मिता त्या अश्विनबरोबर प्रेमाचे चाळे करते आहे म्हणे जोरात “

“अग पण तुला कोणी सांगितलं?”

“मला कोणी सांगितले हें महत्वाचे नाही, तिला विचार खरे का खोटे?”

“ती बाथरूममध्ये गेली आहे ‘

आईने हें वाक्य म्हणता म्हणता मिता आंघोळ करून बाहेर आली 

“काय कशाला आवाज वाढवलास वंदनाताई?

“तुझाच विषय, मी तुला म्हंटल पुढे शिक किंवा चांगला कोर्स कर, स्वतःच्या पायावर उभी राहा. आईच्या अर्ध्या पेन्शनवर राहू नकोस,तर तुला जमत नाही आणि त्या अश्विनबरोबर फिरते आहेस म्हणे गावभर “

“कुणी सांगितलं तुला?”

“खोटे आहे का सांग. अश्विनला जाऊन विचारू? बाबा रे, तू कमवतोस किती? दोन वर्षांपूर्वी त्या नयना बरोबर तुझे प्रेमाचे चाळे चालले होते, त्या आधी मामेबहिणीबरोबर, आता तुला माझी बहिण मिळाली का,? विचारू त्याला?”

“आमचं एकमेकांवर प्रेम आहे, आम्ही लग्न करणार आहोत.”

“होय काय?”

“मग तीन वर्षांपूर्वी तो त्याच्या मामेबाहिणी लग्न करणार होता, आता ती कुठे गेली कोण जाणे, मग नयना बरोबर करणार होता, नयना मागे पडली, आता तू मिळालीस?”

“ते सगळे जुने विषय झाले ताई “

“आई बघितलंस, तुझं लाडकं कोकरू कस तुरुतुरु बोलतंय ते? तोंड फोडीन मिते, पहिलं काही कमवायला शिक, मग प्रेम कर, मग लग्न कर, लग्न करून खाणार काय? की परत आईकडे भीक मागणार?”

“ताई, आई आम्ही लग्न करणार आहोत.

“कशी लग्न करतेस तेच पहाते. जिथे असशील तेथे येऊन बडवीन, त्या अश्विनला पण पहाते “

“पण अश्विन तुझा मित्र ना ताई?”

“मित्र नाटकाच्या ग्रुपमध्ये, वैयक्तिक आयुष्यात नाही, तो स्टेजवर कलाकार म्हणून चांगला आहे, तो शाळा कॉलेजमध्ये जाऊन नाटकें बसवतो म्हणून तुम्ही मुली त्याच्या प्रेमात पडता, पण वैयक्तिक आयुष्यात अश्विन कसा आहे तो माझ्याएवढा कुणाला माहित नाही. म्हणून परत परत सांगते मिता, तू अश्विनचा नाद सोड. आई तिला सांग, एवढे मी बोलून सुद्धा तिचे प्रेमाचे चाळे सुरु राहिले, तर माझ्याएवढी वाईट कुणी नाही “

मिता रागारागाने आपल्या खोलीत गेली आणि कॉटवर झोपून रडू लागली.

डोकं गरम झालेलीं वंदना बाहेर पडली, तिने आपली स्कुटी चालू केली आणि कॉलेजला जायच्याऐवजी ती अश्विनच्या घरी पोहोचली. अश्विनची आई स्वयंपाक घरात भाजी चिरत होती. तिला पहाताच ती म्हणाली,

“वंदे, किती दिवसांनी वाट मिळाली? नवीन नाटकाच्या तालमी सुरु होणार की काय?”

“नाही हो काकू, सहज आलेले. अश्विन कुठे गेला?”

“झोपलाय.?”

“झोपलाय? “ वंदनाने घड्याळात पाहिले. साडेनऊ वाजले होते.

“अजून झोपलाय?”

“काय सांगायचं वंदे, रात्री उशिरा येतो बाराला आणि दहापर्यत झोपून असतो, त्याच्यासाठी नोकरी बघ कुठेतरी, घरखर्च कसा चालवायचा? थोडं  भाडं  येत त्याचावर संसार “.

“मग प्रेम करायला कस जमत? नोकरी नाही, दोन पैसे कमवत नाही, पण वर्षाला एक पोरगी पटवायला जमते कशी?”

“आता बाई नवीन कोण? माझ्या भावाची मुलगी रेश्मा तिच्याबरोबर लग्न करायचं म्हणत होता, मग काय झालं कोण जाणे, आता तीच नाव काढत नाही “

“आता माझ्या धाकट्या बहिणीबरोबर मिताबरोबर प्रेमाचे चाळे सुरु आहेत म्हणे, पण त्याला सांग, गाठ माझ्याशी आहे, हातपाय मोडून ठेवीन “

तेवढ्यात खोलीतून झोपलेला अश्विन बाहेर आला. तिला पहाताच चपापला, मग म्हणाला “वंदे, सकाळी सकाळी?”

वंदना एक शब्द पण बोलली नाही. पण अश्विनची आई त्याला म्हणाली,”वंदी चिडली आहे, तू म्हणे तिच्या बहिणीबरोबर सध्या फिरतो आहेस?”

“हो हो.. म्हणजे हो.. प्रेम करायला आणि संसार करायला कुणाची बंदी आहे की काय..”

“प्रेम नंतर कर रे, आधी दोन पैसे कमव, तुझ्या आईला दोन पैसे आणून दे, नुसत्या सिगरेटी ओढून आणि बिअर पिऊन संसार होतं नाही “

“आमच्यात तू पडू नकोस वंदे, मिताची ताई असलीस म्हणून काय झाल.?”.

“मिताची ताई असलीस तर काय झाल? मोडून ठेवीन अश्विन. तो नारायण माहित असेल तुला आपल्या ग्रुपमधला, माझ्यावर लाईन मारू पहात होता, मला जाता येता धक्के मारू लागला, त्याचा हात आणि पाय मोडून ठेवला सर्वासमोर. माझ्यासमोर हुशारी करू नकोस, दरवर्षी नवीन नवीन मुली फिरवतोस चांगल्या घरातल्या. या मूर्ख मुली, डोळयांवर पट्ट्या बांधतात की काय कोण जाणे. स्टेजवरचा हिरो स्वतःच्या आयुष्यात झीरो असतो, हे यांना कळतच नाही.

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ होडी ☆ सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

? मनमंजुषेतून ?

☆ होडी ☆ सुश्री तृप्ती कुलकर्णी 

तसं पावसाशी फार जीवाभावाचं नातं नसलं तरी काही गोष्टींसाठी पाऊस हवासा वाटतो. त्यातली एक गोष्ट म्हणजे पावसाच्या पाण्यात होड्या सोडणे. लहानपणी पावसाळ्यातल्या सुरुवातीच्या दिवसांची आतुरतेने वाट पाहायचे ते यासाठीच. 

आम्ही चाळीत राहत होतो तेव्हा पहिल्या काही दिवसांत इतकं पाणी साचायचं की घराच्या मागे आणि पुढे अक्षरशः दुथडी भरून व्हायचं. आमचं घर मध्यावर होतं चढणीवरून पाणी हळूहळू उताराकडे वहायचं. तेव्हा त्या पाण्याला खूप जोर असायचा. मग घरात पावसामुळे अडकलेली आम्ही मुलं, कागदाच्या होड्या करून सोडण्यात दंग राहायचो.

राजा राणीची होडी, शिडाची होडी असे होडीचे वेगवेगळे प्रकार असायचे. एकमेकांशी स्पर्धा असायची. कोणाची होडी जास्त लांबपर्यंत जाते हा एक चर्चेचा विषय असायचा. 

काही मुलं तर उत्साहाने छत्री घेऊन पळत पळत होडी कुठपर्यंत जाते ते बघायला जायची. 

रस्त्यावर खड्डे असल्याने कुठे गोल खळगा तयार व्हायचा आणि त्यातलं पाणी असं गोल गोल फिरत राहायचं ते बघायला मजा यायची. पण एखादी होडी चुकून त्या खळग्यात अडकली किती तिथल्या तिथे गोल गोल फिरत राहायची. ज्याची तशी होडी अडकेल त्याला फार वाईट वाटायचं. 

याशिवाय गंमत वाटायची ती कॉलनीमधल्या रस्त्यावरच्या दिव्याची. उंच उंच केशरपिवळ्या रंगाचा झोत टाकणारे ते दिवे… पावसाच्या पाण्यात थरथरतायत आहेत असा भास व्हायचा. त्यांच्या प्रकाशात खाली पडणार पाणी त्या रंगाचं वाटायचं. तेव्हा शॉवर हा प्रकार आम्हा मुलांना नुकताच माहीत झाला होता. अशा दिव्याखालून पडणाऱ्या पाण्यात रंगीत शॉवर खाली भिजण्यात मुलांना वेगळीच मौज वाटायची. मला खरंतर पावसात भिजणं हा प्रकार कधीच आवडला नाही. पण पाण्यामध्ये पडणारी लाईटची प्रतिबिंब किती वेगवेगळी दिसतात. ते बघण्यात मला कुतूहल वाटायचं. क्वचित कुणाची तरी दुचाकी असायची पण त्यातलं पेट्रोल पाण्यात पडलं की जे वेगवेगळे रंग उमटायचे ते बघण्यासाठी आमची गर्दी व्हायची. 

पाण्यामध्ये उठणारे तरंग, त्यात कोणी खडा टाकेल… कोणी पाय आपटेल… त्यानंतर होणारे वेगवेगळे आकार… आपापलं प्रतिबिंब पाण्यात बघण्याची हौस… वेडे वाकडे चेहरे करून पाण्यात बघणं. एकमेकांना दाखवणं. एक फार वेगळी मौज असायची. या सगळ्यांमध्ये नेहमीचे मैदानी खेळ खेळता येत नाही याचं शल्य नसायचं. 

चाळ असल्यामुळे आजूबाजूला झाडं नव्हती. पण घरांची, कौलांची प्रतिबिंब पाण्यात दिसायची. कौलातून निथळणारं पाणी झेलायला देखील मजा यायची. अगदी साधी राहणी आणि साध्या सुद्धा गोष्टी आणि त्यातून आनंद शोधणं असा साधाकाळ होता. 

अलीकडे पाऊस पडल्यावर काय करायचं हा प्रश्न मुलांना पडतच नसेल कारण त्यांच्याकडे मोबाईल, टीव्ही असे भरपूर ऑप्शन्स आहेत. पण आमच्या वेळी हे काहीही नव्हतं आणि तेच बरं होतं असं आम्हाला वाटतं. 

तर दोन दिवसांपासून पडणारा पाऊस बघून बालपणीच्या या अशा होडीच्या आठवणीं ओल्या झाल्या. मला एक छोटीशी साधीसुधी बालकविता सुचली..‌. 

तिकडून आला मोठा ढगुला

मला म्हणाला चल भिजूया

दोघे मिळून खेळ खेळूया

पाण्यामध्ये होड्या सोडूया 

 

होड्या सोडल्या पाण्यात

वाहू लागल्या वेगात

आली लाट जोरात

मासोळी पडली होडीत 

 

मी होडी उपडी केली 

मासोळी‌ चट सुटून गेली

ढगुल्याच्या डोळां पाणी 

माझ्या ओठी पाऊसगाणी

©  सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ डार्क वेब : भाग – 2 ☆ श्री मिलिंद जोशी ☆

श्री मिलिंद जोशी

? इंद्रधनुष्य ?

 ☆ डार्क वेब : भाग – 2 ☆ श्री मिलिंद जोशी ☆ 

(ही अतिशय महत्वपूर्ण माहिती देणारी लेखमाला दर सोमवारी आणि मंगळवारी प्रकाशित होईल) 

इंटरनेटची दुनिया खूप मोठी आहे. ज्यावेळी आपण टेलिफोन प्रोव्हायडर किंवा सॅटेलाईटच्या माध्यमातून आपल्या कॉम्प्युटर / मोबाईल / किंवा अन्य कोणत्या गोष्टींना इतर कॉम्प्युटरसोबत कनेक्ट करतो त्यावेळी आपणही इंटरनेटचा एक भाग बनतो. हे सगळ्यांनाच माहिती आहे. पण ज्यावेळी आपण त्यात अजून थोडी माहिती मिळवतो त्यावेळी त्यातही प्रकार आहेत हे आपल्याला समजते. ते प्रकार म्हणजे सर्फेस वेब, डीप वेब आणि डार्क वेब. 

असे म्हणतात की सर्फेस वेब हे १०% वापरले जाते तर इतर दोन प्रकार मिळून ९०% वापर होतो. सर्फेस वेब तसेच डीप वेब वरील साईट आपण आपल्या रेग्युलर ब्राउजर मध्ये बघू शकतो. पण डार्क वेब वरील साईट बघण्यासाठी आपल्याला एका खास ब्राउजरची गरज लागते. ज्याला टोर ( TOR ) ब्राउजर असे म्हणतात. डार्क वेबच्या साईट आपल्याला नॉर्मल ब्राउजरमध्ये बघता येत नसल्याने ते काहीतरी वेगळे आहे असे वाटू लागते आणि उरलेली कसर युट्युबवरील अनेक युट्युबर भरून काढतात. 

युट्युबवर तुम्ही फक्त ‘डार्क वेब’ हा शब्द शोधला तर आपल्या समोर जे चित्र विचित्र पोस्टर येतात ते बघून आपली उत्सुकता चाळवते. आपण तो व्हिडिओ बघायला लागतो आणि त्याबद्दल माहिती देणारी व्यक्ती सांगते, “डार्कवेबपर बहोत भयंकर कांड होते है | आप भूल से भी उसे देखने की कोशिश ना करे |” आणि आपल्या मनात भीती तयार होते. पण खरच का हे असेच आहे?

एक गोष्ट लक्षात घ्या. इंटरनेटचा प्रकार कोणताही असो. त्याचे कार्य सारखेच असते. एका कॉम्प्युटरवरील माहिती दुसऱ्या कॉम्प्युटरवर दाखवणे. मग ती टेक्स्ट / पिक्चर / ऑडिओ किंवा व्हिडिओ यापैकी कोणत्याही स्वरूपात असो. मग यात वेगळेपण काय आहे? 

वेगळेपण आहे फक्त आपल्याला हवी ती माहिती तत्काळ मिळू शकेल किंवा नाही यात. यातील वेगळेपण एका वाक्यात सांगायचे तर ते खालील प्रमाणे सांगता येईल.

सर्फेस वेब : जे वेबपेज गुगल किंवा कोणतेही सर्चइंजिन शोधू शकते त्याला सर्फेस वेब म्हणतात.

डीप वेब : जे वेबपेज गुगल किंवा कोणतेही सर्चइंजिन शोधू शकत नाही. तसेच जे वेबपेज इंडेक्स नसते. पण आपले रेग्युलर ब्राऊजरमध्ये दिसू शकते. ( उदा. एखाद्या कंपनीचे / बँकेचे वेबबेस अप्लिकेशन किंवा  ERP Software ) त्याला डीप वेब म्हणतात.

डार्क वेब : जे वेबपेज इंडेक्स नसल्याने गुगल किंवा इतर कोणतेही सर्चइंजिन शोधू शकत नाही. त्याच सोबत ते रेग्युलर ब्राउजर मध्येही दिसू शकत नाही. त्यासाठी वेगळ्या ब्राउजरची गरज असते, त्याला डार्क वेब म्हणतात. 

एखाद्या ठिकाणी जाणे अवघड असेल तर त्याबद्दल अनेक अफवा उठतात. लोकांना त्या खऱ्याही वाटतात. पण ज्याचे स्वरूप जितके वाढवून सांगितले जाते तितके ते खचितच नसते. डार्क वेबच्या बाबतीतही ही गोष्ट प्रामुख्याने दिसून येते. डार्क वेबचा वापर मुख्यतः आपली ओळख लपवून कोणत्याही माहितीचे आदानप्रदान करण्यासाठी केला जातो. 

डार्कवेबला कोणती गोष्ट घातक बनवते? ते आपल्याला वापरता येऊ शकते का? ते वापरणे गुन्हा आहे का? त्याचा वापर करणारा माणूस तिथून बाहेर पडू शकत नाही यात कितपत तथ्य आहे? कोणतेही सरकार यावर नियंत्रण का ठेऊ शकत नाही? या आणि अशा काही प्रश्नांची उत्तरे मात्र पुढील भागात.

— क्रमशः भाग दुसरा 

©  श्री मिलिंद जोशी

वेब डेव्हलपर

नाशिक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ इंग्रजांना नोकर म्हणून ठेवणारा सांगलीचा पठ्ठ्या… – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? इंद्रधनुष्य ? 

इंग्रजांना नोकर म्हणून ठेवणारा सांगलीचा पठ्ठ्या… – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

श्री. आबासाहेब गरवारे 

इंग्रजांच्या घरात घुसून त्यांचेच घर विकत घेऊन, त्यांनाच नोकर म्हणून ठेवणारा सांगलीचा पठ्ठ्या जेव्हा संपूर्ण भारत ब्रिटिशांच्या गुलामगिरीत खितपत पडला होता. भारतीयांना आपल्या भविष्याची खात्री नव्हती, गोऱ्यांची क्रूरता निष्पाप भारतीयांचं जगणं मुश्किल करून टाकत होती होती, अशा काळात सांगलीच्या एका चुणचुणीत तरुणाने थेट ब्रिटिश राजकुमाराचीच गाडी विकत घेऊन अख्ख्या इंग्लंडमध्ये ती दिमाखात फिरवली. आपल्या या कृतीने त्यांनी गोऱ्यांच्या मनात खदखद निर्माण केली. त्यांच्याच घरात घुसून भारताचा झेंडा फडकविला. त्याचे हे कार्य त्याकाळात कोणत्याही क्रांतिकारी घटनेपेक्षा कमी नव्हते.

कोण होता कोण हा तरुण? तो कोणी क्रांतिकारक नव्हता, की स्वातंत्र्यसेनानी नव्हता. तो होता सांगलीतील तासगावातला भालचंद्र गरवारे अर्थातच आबासाहेब गरवारे.

गरवारे म्हटलं की आठवतं ते पुण्यातलं गरवारे कॉलेज आणि गरवारे चौक. यापलीकडे आपल्याला काय माहितीये? मित्रांनो पुण्यातल्या या कॉलेजला गरवारे नाव का दिलं गेलं? ते कॉलेज आबासाहेबांनी उभं केलं का? तर नाही. त्या कॉलेजचे संस्थापक आबासाहेब गरवारे नव्हते, मग का बरं गरवारे नाव दिलं गेलं असेल? जे जाणून घेण्यासाठी आपल्याला शंभर वर्ष मागं जावं लागेल.

तासगाव मध्ये 21 डिसेंबर 1903 रोजी एका शेतकरी कुटुंबात भालचंद्रचा जन्म झाला. घरच्या आर्थिक परिस्थितीमुळे कसेबसे 6वी पर्यंतचे शिक्षण त्याने पूर्ण केले. पूर्ण कसले सहावीच्या मार्कलिस्टवर नापासचा शेरा मिळाला. भालचंद्रच्या वडिलांचं नाव दिगंबर गरवारे. वडिलांनी भालचंद्रला मुंबईला पाठवले. या सहावी नापास भालचंद्राने 1918 साली म्हणजे वयाच्या जेमतेम 15 व्या वर्षी मुंबईच्या झगमगाटात पहिलं पाऊल टाकलं.

ब्रिटिशांचं वर्चस्व असणाऱ्या मुंबईत वावरणं थोडं कठीणच होतं. मुंबईत ब्रिटिशांनी लोकांचं जगणं नकोस करून टाकलं होतं. रस्त्यावरुन एखादा गोरा अधिकारी जात असेल, तर लोक जिथे जागा मिळेल तिथे लपून बसायचे, कारण गोरे कधी काय करतील याचा काही नेम नव्हता. अशा परिस्थितीत भालचंद्र एका गॅरेजमध्ये काम करू लागला. गॅरेजमध्ये राहून तो गाड्या रिपेअरिंगची कामे शिकू लागला. मनापासून काम करून तो चारचाकी आणि दुचाकी गाड्या रिपेयरची कामे शिकला. गॅरेजमध्ये असताना भारतीयांचे होणारे हाल त्याने उघड्या डोळ्यांनी पहिले होते. पण बिचारा एकटा भालचंद्र ब्रिटिशांविरुद्ध कसा आवाज उठवणार होता, त्यामुळे आपण आणि आपलं काम इतक्यापुरताच तो मर्यादित राहायचा. ब्रिटिशांचं प्रगत तंत्रज्ञान आणि आधुनिकीकरणामुळे पुढच्या काही वर्षात ही वाहनं भारतीयांची गरज बनणार हे त्याने तेव्हाच हेरलं होतं. गॅरेजमध्ये काम करून भालचंद्रच्या ओळखी वाढल्या. 

वयाच्या 17 व्या वर्षी  गिरगावमध्ये डेक्कन मोटार एजन्सीची स्थापना करून तो जुन्या गाड्या खरेदी-विक्री करणारा एजंट बनला. सोबतच तो स्पेअर पार्ट, टायरची वगैरे विक्री करू लागला. थोड्याच दिवसात या व्यवसायात त्याचा चांगलाच जम बसला. त्याच्या गोडाऊनमध्ये आता गाड्यांना जागा नव्हती. सर्वसामान्य माणसापासून ते मुंबईतल्या राजे-रजवाड्यांपर्यंत सगळेजण डेक्कन मोटार एजन्सीमधून गाड्या घेऊ लागले. मुंबईत गाडी घ्यायचं म्हटलं की, प्रत्येकाच्या ओठांवर फक्त एकच नाव डेक्कन मोटार एजन्सी. एजन्सीचा नावलौकिक वाढला होता. त्यासोबतच भालचंद्र गरवारे मुंबईचे आबासाहेब म्हणून ओळखले जाऊ लागले. आबासाहेबांना पत, प्रतिष्ठा मिळू लागली. खिशात एक रुपयाही नसताना मुंबईत आलेला भालचंद्र आता आबासाहेब झाला होता. ब्रिटिशदेखील आबासाहेबांकडूनच गाड्या विकत घेऊ लागले. 

एकदा एक ब्रिटिश अधिकारी आबासाहेबांकडे गाडी खरेदी करण्यासाठी आला, गाड्यांची किंमत पाहून तो ब्रिटिश म्हणाला, ‘We get cheaper cars in England than here and now prices have fallen considerably due to the recession there.’ हे ऐकताच आबासाहेबांनी त्याच्याकडून अजून माहिती काढून घेतली, इंग्लंडमध्ये कमी किमतीतल्या गाड्या मिळतात हे ऐकल्यावर त्यांना वेध लागले ते इंग्लंड दौऱ्याचे. व्यवसायातून आलेल्या पैशांतून त्यांनी तडक इंग्लंड गाठले. इंग्लंडमधील पहिली सेकंड हँड गाडी त्यांनी 40 पौंडला विकत घेतली. हळूहळू त्यांनी एकापेक्षा एक चांगल्या दर्जाच्या सेकंड हँड गाड्या विकत घेतल्या. सेकंड हँड गाड्यांच्या दुनियेत आबासाहेबांनी लंडनमध्ये चांगलाच जम बसविला आणि तिथूनच ते नवनवीन बनावटीच्या जुन्या गाड्या भारतात पाठवू लागले.

आबासाहेबांनी केवळ गाड्यांचाच व्यवसाय केला नाही, तर त्यांनी प्लॅस्टिक बनविणारे कारखाने देखील विकत घेतले. ज्याकाळात भारतीयांना प्लॅस्टिक म्हणजे काय? हे देखील माहीत नव्हतं, अशा काळात आबासाहेबांनी भारतात प्लॅस्टिक बटणं, नायलॉन यार्न, प्लॅस्टिक इंजेक्‍शन मोल्डिंग, ब्लो मोल्डिंग, नायलॉन ब्रिस्टल्स, फिशिंग नेट अशी प्लॅस्टिकची अनेक उत्पादने घेऊन गरवारे मोटर्स, गरवारे प्लॅस्टिक, गरवारे वॉल रोप्स, गरवारे  नायलॉन्स, गरवारे पेंट्स, गरवारे फिलामेंट कॉर्पोरेशन अशा अनेक कंपन्यांची उभारणी केली. या व्यापारात त्यांनी भरपूर पैसा कमविला. ज्या गोऱ्यांनी भारतीयांचे जिणे हराम करून सोडले होते. त्या गोऱ्यांची नाचक्की करायचं हे आबासाहेबांनी आधीच ठरवलं होतं. लंडनमध्ये असताना बकिंगहॅम पॅलेसमध्ये जाऊन प्रिन्स ऑफ वेल्सची,  इंग्लंडच्या राजपुत्राचीच गाडी विकत घेतली. ती गाडी आणि त्यावर एक गोरा शोफर ठेऊन ते ताठ मानेने लंडनमध्ये फिरू लागले.

इतकंच नाही तर १९३४ साली त्यांनी लंडनमध्ये ३ एकर जमीन आणि काही अन्य मालमत्ता २२०० पौंडाला खरेदी करून त्या मालकालाच आपल्याकडे नोकरीस ठेवले. जेव्हा भारतात गुजराती, मारवाडी उद्योगपतींचा जन्म होऊ लागला होता, महाराष्ट्रात परप्रांतीय आपल्या उद्योगाचे बस्तान बसवत होते. त्याकाळात सांगलीच्या या तरुणाने चक्क इंग्लंडमध्ये आपल्या व्यवसायाचे बस्तान बसवलं. त्यांनी केलेला प्रत्येक उद्योग हा भारतीयांची अस्मिता जपण्यासाठीचा एक प्रयत्न होता.

जे ब्रिटिश भारतीयांना गुलाम म्हणून वागवत होते, त्याच ब्रिटीशांना आबासाहेबांनी त्यांच्यात घरात घुसून त्यांचेच घर विकत घेऊन, त्यांनाच नोकर म्हणून आपल्या पदरी ठेवून एक स्वाभिमानी, यशस्वी, देशप्रेमी मराठी उद्योजक बनण्याचा मान मिळविला होता. आबासाहेबांनी केवळ उद्योगच केला नाही, तर आपल्या कर्तुत्वाने ब्रिटीशांना तोंडात बोटं घालायला लावली. आबासाहेबांनी केवळ व्यापारच नाही केला तर शैक्षणिक, सामाजिक संस्थांना देखील सढळ हाताने मदत केली. भारत स्वतंत्र झाल्यावर 1959 साली त्यांची मुंबईचे शेरीफ म्हणून नियुक्ती करण्यात आली. शेरीफ म्हणजे नगरपाल. आबासाहेबांनी पुणे महाराष्ट्र एज्युकेशन सोसायटीला चांगलीच आर्थिक मदत केली आणि त्यामुळेच संस्थेने कॉलेज आणि हायस्कूलला 1945 साली आबासाहेब गरवारे कॉलेज ऑफ कॉमर्स आणि सौ. विमलाबाई गरवारे हायस्कूल अशी नावे दिली. मुंबई university च्या अंतर्गत त्यांनी सांगलीत मुलींसाठी महाविद्यालय सुरू केले,

त्यांच्या याच कार्यकर्तुत्वामुळे त्यांना आर्थिक अभ्यास संस्थेतर्फे उद्योगरत्न पुरस्कार प्रदान करण्यात आला. यासोबतच 1971 मध्ये त्यांना भारत सरकारच्या पद्मभूषण पुरस्काराने सन्मानित करण्यात आले. सांगलीतील एका खेड्यातल्या मुलाचा गॅरेजमध्ये काम करण्यापासून ते पद्मभूषण पुरस्कार मिळवण्यापर्यंतचा  प्रवास खरच विस्मयकारक होता. हिमालयाच्या मदतीला सह्याद्री धावला असं आपण यशवंतराव चव्हाणांच्या अतुलनीय कामाबद्दल अनेकदा म्हणतो, पण मित्रांनो हा भालचंद्र नामक सह्याद्री देखील हिमालयाच्या प्रत्येक अडीअडचणीत धावून गेला होता हे देखील विसरून चालणार नाही. त्यांच्या विचारांची ज्योत आज प्रत्येकाने आपल्या मनात निरंतर तेवत ठेवली पाहिजे….

लेखक : अज्ञात 

प्रस्तुती : सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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