हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 60 – खुद को मैंने पा लिया… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – खुद को मैंने पा लिया।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 60 – खुद को मैंने पा लिया… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

आज मैंने फिर, भुजाओं में तुम्हें लिपटा लिया

अपने दिल को ख्वाब में ही, इस तरह बहला लिया

*

मैं तो, तुमको देख करके झूम खुशियों से उठा 

जाने क्यों तुमने मगर मिलते ही मुँह लटका लिया

*

आज खाने में, तुम्हारे हाथ की खुशबू न थी 

याद यूँ आयी, निवाला हलक में अटका लिया

*

अपने घर वालों की यादों का करिश्मा देखिये 

बूट पालिश करने वाले बच्चे को सहला लिया

*

संस्कृति से कट गया है, ओहदा पाकर बड़ा 

प्यार की हल्दी का छापा, शहर में धुलवा लिया

*

जिस्म था मेरा, मगर इसमें न मेरी जान थी 

तुमको क्या पाया कि जैसे, खुद को मैंने पा लिया

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 134 – स्मृतियों के आँगन में… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “स्मृतियों के आँगन में…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 134 – स्मृतियों के आँगन में… ☆

स्मृतियों के आँगन में यह,

काव्य कुंज का प्रतिरोपण ।

रंग – बिरंगे पुष्पों जैसे,

भावों का तुमको अर्पण ।

*

कविताओं में अनजाने ही,

लिख बैठा मन की बातें ।

मैं कवि नहीं,न कविता जानूँ ,

न जानूँ जग की घातें ।

*

आँखों से जो झलकी बॅूंदें ,

उनको लिख कर सौंप रहा ।

मन के उमड़े भावों की मैं ,

हृदय वेदना रोप रहा ।

*

माटी की यह सौंधी खुशबू ,

जब छाएगी घर आँगन में ।

संस्कृतियों के स्वर गूँजगे ,

सदा सभी के दामन में ।

*

यही धरोहर सौंप रहा मैं,

तुम मेरी कविताएँ पढ़ना ।

जब याद तुम्हें मैं आऊॅं तो ,

अपने कुछ पल मुझको देना ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 16 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 16 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

‘चुपचाप रहो’

दो शब्दों का मेल

कहने वाले

सुनने वाले के भीतर

मचा देता है

विचारों का कोलाहल!

© संजय भारद्वाज  

8:36 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 401 ⇒ घर का जोगी जोगड़ा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घर का जोगी जोगड़ा।)

?अभी अभी # 401 ⇒ घर का जोगी जोगड़ा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब तक कोई गांव का व्यक्ति ग्लोबल नहीं होता, वह प्रसिद्ध नहीं हो सकता। आज का जमाना सिद्ध होने का नहीं, प्रसिद्ध होने का है। हमारे अपने अपने कूप हैं, जिन्हें हमने गांव, तहसील, जिला, शहर, महानगर और स्मार्ट सिटी नाम दिया हुआ है। इंसान डॉक्टर, प्रोफेसर, अफसर,

वैज्ञानिक, सी एम, पी एम, और महामहिम तो दुनिया के लिए होता है, उसका भी एक घर होता है, वह किसी का बेटा, और किसी का बाप और किसी का पति भी होता है। घर में न तो नेतागीरी झाड़ी जाती है और न अफसरी।

उज्जैन से कोई मुख्यमंत्री बन गया, तब हमें इतना आश्चर्य नहीं हुआ, जितना सन् १९६८ में, विक्रम विश्वविद्यालय के एक वैज्ञानिक डाॅ हरगोविंद खुराना को संयुक्त रूप से विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिलते वक्त हुआ। ।

तब हम कहां सन् २०१४ के नोबेल पुरस्कार विजेता, विदिशा के श्री कैलाश सत्यार्थी को जानते थे। लेकिन इनका नाम होते ही हम इन्हें जान गए। यही होता है जोगड़ा से जोगी होना।

प्रतिभाओं को कहां घर में पहचाना जाता है। कहीं कहीं तो घर से पलायन के पश्चात् ही प्रतिभा में निखार आता है तो कहीं कहीं पलायन के पश्चात् ही प्रतिभा को पहचान मिलती है। ब्रेन ड्रेन होगी कभी एक गंभीर समस्या आज इसे एक उपलब्धि माना गया है। ।

आज के जोगड़े भी बड़े चालाक हैं, जोगी बनते ही अपने गांव, शहर और देश को ही भूल जाते हैं। एक जोगड़े थे राजनारायण, जो रातों रात इंदिरा गांधी को हराकर आन गांव में सिद्ध हो गए थे। उनकी पत्नी को आज तक, कभी कोई नहीं जान पाया। वाह रे जोगी। इसी तरह मां बाप और परिवार को छोड़ कई जोगड़े आज विदेशों में नाम कमा रहे हैं। आजकल बुढ़ापे की लाठी, वैसे भी बच्चे नहीं, पैसा ही तो है, भिजवा देते हैं गांव में।

जोगड़े से जोगी बनना इतना आसान भी नहीं। कभी अपनों को छोड़ना पड़ता है, तो कभी अपनों के कंधों पर पांव रखकर आगे निकलना पड़ता है। स्वार्थ, मतलब, महत्वाकांक्षा के बिना आजकल कहां प्रतिभा में निखार आता है। व्यापम घोटाले से आज NET और NEET तक का सफर तो यही कहानी कहता नजर आता है। इन घोटालों की आड़ में गांव के बेचारे कई योग्य जोगड़े, कहीं जोगड़े ही ना रह जाए, और जो जुगाड़ और राजनीतिक प्रभाव वाले हैं, कहीं वे बाजी ना मार जाएं। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 161 ☆ “डेड एंड” (कहानी संग्रह) – लेखक – श्री पद्मेश गुप्त ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री पद्मेश गुप्त जी द्वारा लिखित  “डेड एंड” (कहानी संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 161 ☆

☆ “डेड एंड” (कहानी संग्रह) – लेखक – श्री पद्मेश गुप्त ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – डेड एंड (कहानी संग्रह)

लेखक  – श्री पद्मेश गुप्त

प्रकाशक – वाणी प्रकाशन

संस्कारण – पहला संस्करण २०२४,

पृष्ठ – १०० 

मूल्य – २९५  रु

ISBN – 978-93-5518-900-4

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

पिछली सदी में भारत से ब्रेन ड्रेन के दुष्परिणाम का सुपरिणाम विदेशों में हिन्दी का व्यापक विस्तार रहा है। जो भारतीय विदेश गये उनमें से जिन्हें हिन्दी साहित्य में किंचित भी रुचि थी, वह विदेशी धरती पर भी पुष्पित, पल्लवित, मुखरित हुई। विस्थापित प्रवासियों के परिवार जन भी उनके साथ विदेश गये। उनमें से जिनकी साहित्यिक अभिरुचियां वहां प्रफुल्लित हुईं उन्होंने मौलिक लेखन किया, किसी हिन्दी पत्र पत्रिका का प्रकाशन विदेशी धरती से शुरु किया । सोशल मीडिया के माध्यम से उन छोटे बड़े बिखरे बिखरे प्रयासों को हि्दी साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया। भोपाल से प्रारंभ विश्वरंग, विश्व हिंदी सम्मेलन, विदेशों में भारतीय काउंसलेट आदि ने प्रवासी हिन्दी प्रयासों को न केवल एकजाई स्वरूप दिया वरन साहित्य जगत में प्रतिष्ठा भी दिलवाई। प्रवासी रचनाकारों की सक्षम आर्थिक स्थिति के चलते भारत के नामी प्रकाशनो ने साहित्य के गुणात्मक मापदण्डो को किंचित शिथिल करते हुये भी उन्हें हाथों हाथ लिया। वाणी प्रकाशन, नेशनल बुक ट्र्स्ट, इण्डिया नेट बुक्स, शिवना प्रकाशन आदि संस्थानो से प्रवासी साहित्य की पुस्तकें निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। विदेश से होने के कारण भारत में प्रवासी रचनाकारों की स्वीकार्यता अपेक्षाकृत अधिक रही है। डॉ॰ पद्मेश गुप्त ब्रिटेन मे बसे भारतीय मूल केअत्यंत सक्षम  हिंदी बहुविध रचनाकार हैं। उन पर विकिपीडिया पेज भी है। डॉ॰ पद्मेश गुप्त ने यू॰के॰ हिन्दी समिति एवं `पुरवाई’ पत्रिका के माध्यम से हिन्दी को  प्रतिष्ठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मूलत: वे कवि हैं, किन्तु उनकी कहानियाँ भी बेहद प्रभावी हैं। उनका अनुभव संसार वैश्विक है, वे नये नये बिम्ब प्रस्तुत करते हैं। हाल ही लंदन बुक फेयर में आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में पद्मेश गुप्त के कहानी संग्रह ‘डेड एंड‘ का विमोचन संपन्न हुआ था। संयोगवश मैं भी लंदन प्रवास में होने से इस आयोजन में भागीदार रहा। इस संग्रह में कुल नौ कहानियां अस्वीकृति, औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है, डेड एंड, इंतजार, कशमकश, तिरस्कार, तुम्हारी शिवानी, कब तक और यात्रा सम्मिलित हैं।

कहानी अस्वीकृति में ई मेल बिछड़े प्रेमियों राजीव और अनीशा को फिर से मिलवाने का माध्यम बनती है। इस तरह का नया प्रयोग समकालीन कहानियों में नवाचारी और अपारंपरिक ही कहा जायेगा। पूर्ण समर्पण को उद्यत अनीशा के प्रस्ताव के प्रति समीर की अस्वीकृति से पल भर में  अनीशा के प्रेम, भावनाओ, और समर्पण की इमारत खंडहर हो गयी। कहानी “औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है” में पद्मेश गुप्त का कवि उनके कहानीकार पर हावी दिखता है। एक लम्बी काव्यात्मक अभिव्यक्ति से कथा नायक राम, सुजान के संग बिताये अपने लम्हे याद करता है। … सुजान के बेटे लव में राधिका ने राम की छबि देख ली थी, वह दुआ मांगने लगी कि अब किसी मोड़ पर कोई कुश न मिल जाये। …. औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है …. सुजान का वह वाक्य एक बार फिर राम के हृदय में गूंजने लगा। कहानी प्रेम त्रिकोण को नवीन स्वरूप में रचती है, जिसमें राम, राधिका, लव के पुरातन प्रतीको को लाक्षणिक रूप से किया गया प्रयोग भी कहानीकार की प्रतिभा और भारतीय मनीषा के उनके अध्ययन को इंगित करता है। ‘डेड एंड’ कहानी के गहन भाव और सुघड़ शिल्प ने पद्मेश गुप्त के कहानी बुनने के कौशल को उजागर किया है। हिन्दी कहानी के अंग्रेजी शब्दों के शीर्षक से विदेशों में बदलते हिन्दी के स्वरूप का आभास भी होता है। पुस्तक की अनेकों कहानियों में संवाद शैली का ही प्रयोग किया गया है। ढ़ेरों संवाद अंग्रेजी में हैं। … मिनी ने हँसते हुये उत्तर दिया ….  ” आई नो वी कांट विदाउट ईच अदर “। इंतजार वर्ष २००६ में लिखी गई पुरानी कहानी है, यह स्पष्ट होता है क्योंकि अंदर वर्णन में मिलता है ” आज २१ मार्च २००६ को शादी की पाँचवी वर्षगांठ का दिन दीपक ने शालिनी से अपने दिल की बात कहने के लिये चुना। … वह महसूस कर रहा था कि अंजली उसका बीता हुआ कल है और शालिनी भविष्य। किन्तु कहानी का ट्विस्ट और चरमोत्कर्ष है कि दीपक को एक पत्र बेड के पास मिलता है जिसमें लिखा था … मैं तुम्हारे जीवन से सदा के लिये जा रही हूं, मैं राजेश से विवाह कर रही हूं … शालिनी। कहानी के मान्य आलोचनात्मक माप दण्डो पर पद्मेश जी की कहानियां खरी हैं। कहानी ‘कब तक‘ आज के परिदृश्य में प्रासंगिक है। ये कहानियां स्वतंत्र प्रेम कथायें हैं। यदि कथाकार भाषा की समझ रखता है। उसमें समाज के मनोविज्ञान की पकड़ है तो प्रेमकथायें हृदय स्पर्शी होती ही हैं। पद्मेश की कहानियां भी पाठक के दिल तक पहुंच बनाती हैं। कशमकश संग्रह की सर्वाधिक लंबी कहानी है जिसमें कथानक का निर्वाह उत्तम तरीके से हुआ है। तिरस्कार से अंश उधृत है …सिमरन का घमण्ड चूर होने लगा। जिस गोरे रंग पर सिमरन को इतना नाज था, उसी के कारण आये दिन उसका तिरस्कार होता। …. राखी को लोगों से बहुत प्रशंसा मिली पर सिमरन ने यह कहकर उसका मजाक बनाया कि साँवली होने के कारण उसे एशियन लड़की भूमिका बहुत सूट कर रही थी। …. सिमरन अखबार उठाकर बैठ गई, अचानक उसकी नजर तीसरे पेज पर पड़ी … सिमरन चौंक गई … यह तसवीर उसकी छोटी बहन राखी की थी, नीचे लिखा था इस साल विश्वसुंदरी का खिताब भारत की राखी ने जीता है। कहानी इस चरम बिंदु के साथ स्किन कलर रेसिज्म और वास्तविक सौंदर्य पर अनुत्तरित सवाल खड़े करते हुये पूरी हो जाती है। तुम्हारी शिवानी भी रोचक है। ‘कब तक’ मिली-जुली संस्कृति के टकराव की व्याख्या करती है। यात्रा में लेखक के आध्यात्मिक चिंतन से परिचय मिलता है ” आत्मा अमर है, शरीर वस्त्र। आत्मा शरीर बदलती है, नया जन्म होता है।

कहानी में रुचि रखते हैं तो डेड एंड शब्दों  में बांधते हुये प्रेम को व्यक्त करता नये वैश्विक बिम्ब बनाता रोचक कहानी संग्रह है। सरल सहज खिचड़ी भाषा में बातें करता यह कहानी संग्रह समकालीन वैश्विक परिदृश्य को अभिव्यक्त करता पठनीय और संग्रहणीय है। कुल मिलाकर मुझे हर कहानी पठनीय मिली। सब का कथा विस्तार बताकर मैं आप का वह आनंद नहीं छीनना चाहता जो कहानी पढ़ते हुये उसकी कथन शैली में डुबकी लगाते हुये आता है। वाणी प्रकाशन से सीधे बुलाइये या अमेजन पर आर्डर कीजीये, पुस्तक सुलभ है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 196 – तुलादान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “तुलादान”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 196 ☆

🌻लघु कथा🌻 ⚖️ तुलादान ⚖️

अपने पुत्र के प्रतिवर्ष के जन्म दिवस पर तुला दान करके पिताजी गदगद हो दान स्वरूप अन्न, वस्त्र, फल, बर्तन, सूखे मेवे बाँटा करते थे।

आज पिताजी के दशगात्र  में विदेश में रहने वाला बेटा घर के सारे पुराने पीतल, काँसे के बर्तनों को निकाल कर पंडित जी के सामने तराजू पर रखकर कह रहा था… जो कुछ भी करना है,  इससे ही करना है। आप अपना हिसाब- किताब, दान- दक्षिणा सब इसी से निपटा लीजिएगा।

जमीन के सारे कागजात मैंने विक्रय के लिए भेजें हैं। इन फालतू के आडंबर और मरने के बाद मुक्ति – मोक्ष के लिए मैं विदेशी रुपए खर्च नहीं कर सकता।

मुझे वापस जाना भी है। पंडित जी ने सिर्फ इतना कहा… ठीक है मरने बाद पिंडदान होता है और पिंडदान के रूप में आप कुछ नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं।

आज आप स्वयं बैठ जाइए क्योंकि आपके पिताजी आपके लिए  सदैव तुलादान करते थे मैं समझ लूंगा यह वही है।

पास खड़ा उनका पुत्र भी कहने लगा.. बैठ जाइए पापा मुझे भी पता चल जाएगा कि भविष्य में ऐसा करना पड़ता है। तब मैं पहले से आपके लिए तुलादान की व्यवस्था करके रख लूंगा। बेटे ने देखा तराजू के तोल में वह स्वयं एक पिंड बन चुका है।

चुपचाप कमरे में जाता दिखा। पंडित जी मुस्कुराते हुए घर की ओर चल दिए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 89 – देश-परदेश – सुनो सुनो और सुनो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 89 ☆ देश-परदेश – सुनो सुनो और सुनो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन से वृद्धावस्था तक सुनते ही तो आ रहें हैं। कब तक सुनते रहेगें,हम उनकी ? ये वाक्य यादा कदा दिन मे उपयोग हो ही जाता हैं।

पुराने समय में पत्नियां भी अपनी सहेलियों से अक्सर ये शिकायत करती रहती थी, कि “हमारे ये तो सुनते ही नहीं हैं”, वो समय कुछ और था,जब अर्धांगनियां पति को संबोधन में कहती थी “अजी सुनते हो” अब समय शट अप से गेट लॉस्ट से भी आगे जा चुका हैं।

हमारे बॉलीवुड की सफलतम और एक अच्छे व्यक्तित्व की धनी श्रीमती अलका याग्नियक जी विगत कुछ दिनों से अपनी श्रवण शक्ति खो चुकी हैं।उनकी मधुर आवाज़ ही उनकी पहचान हैं।उन्होंने सभी से अपील की है, कि कान में हेडफोन (यंत्र नुमा) के अत्याधिक उपयोग से ऐसा हुआ हैं।

आजकल विशेषकर युवा पीढ़ी के लोग इयरफोन या हेडफोन से ही संगीत सुनना या कुछ भी सुनना पसंद करती हैं।पैदल सड़क पर,रेलपटरी, भोजन खाते समय,गाड़ी चलाते हुए या कुछ भी करते हुए इसका प्रचालन बहुत अधिक बढ़ गया हैं।परिणाम सामने है,दुर्घटनाएं और सुनने की क्षमता का कम होना,इस बात का प्रमाण हैं।

ये तो अच्छा हुआ कि व्हाट्स ऐप/ मेल आदि आ गए वरना ये सब फोन से बात करके ही संभव हो पता, कानों की क्या हालत होती ?

हमारे एक मित्र की बात भी सुन लेवें,उनके परिवार ने अब इयरफोन से तौबा कर ली है।घर में कुल अलग अलग रंग/डिजाइन के दस पुराने इयरफोन को जोड़ कर उसकी कपड़े सुखाने के लिए उपयोग कर रहे हैं। आप ने इसके रीयूज के लिए क्या विचार किया हैं ?

हमारी बातें भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देवें, इसी में मज़े हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #243 ☆ बरसात प्रीतीची… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 243 ?

☆ बरसात प्रीतीची ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

तिच्या नाजूक ओठांवर तिळाने स्वार का व्हावे ?

दिसाया कृष्णवर्णी तो तरी हे भाग्य लाभावे

*

मलाही वाटतो आता नकोसा जन्म हा माझा

मनी या एवढी इच्छा तिच्या ओठीच जन्मावे

*

सखा होण्यातही आता कुठे स्वारस्य हे मजला

उभा हा जन्मही माझा करावा मी तिच्या नावे

*

कळेना सूर मी कुठला तिच्या गाण्यातला आहे

मला तर एवढे कळते तिचे मी शब्द झेलावे

*

तिच्या कोशात मी इतका असा बंदिस्त का झालो ?

मुलायम रेशमी धागे कसे हे पाश तोडावे

*

तिच्या नजरेतली भाषा कळे नजरेस या माझ्या

तिच्या एकेक शब्दांचे किती मी अर्थ लावावे

*

किती बरसात प्रीतीची नदीला पूर आलेला

मिळालेली मने दोन्ही कशाला पूल बांधावे

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गा-हाणे… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

गा-हाणे... ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

चार दिवस पाउस कोसळला

बाकीचे आठ कोरडेच

उदास पुन्हा धरती रानमाळ

माती सांगे रोज गा-हाणे

आभाळाशी नाते बेभरोशी पंख

पाखरे शोधती ढगांस

धनधान्याविन घास दु:ख पाणी

 रिमझीम तरी ओल दे

आकाढ-श्रावणा निसर्ग थेंबांनी.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ भाऊसाहेबांची शायरी… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ भाऊसाहेबांची शायरी… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

प्रत्येक गावाची कलाक्षेत्राशी निगडीत एक विशीष्ट ओळखं असते. किंबहुना काही बहुआयामी प्रसिद्ध व्यक्तीमत्वाच्या व्यक्तींमुळे त्या गावाला एक वलय प्राप्त होतं. ते गाव जणू त्या कलाकारांमुळं प्रसिध्दीस येत. गावाचं नाव डोळ्यासमोर येताच आधी त्या कलाबाज व्यक्ती डोळ्यापुढं येऊन उभ्या ठाकतात.

माझे माहेर यवतमाळचे.यवतमाळच्या सुप्रसिद्ध व्यक्तींमधील एक मोती म्हणजे शायरीकार भाऊसाहेब पाटणकर. खरतरं “पिकतं तिथं विकत नाही”ही म्हण एकदम आठवली कारण यवतमाळात राहून सुध्दा भाऊसाहेब इतके कमालीचे शायरीकार होते हे उमगायलाच मुळी खूप कालावधी लागला. काही वेळेस आपल्याला त्यांच्या साहित्याची पूर्ण माहिती होईपर्यंत खरच खूप कालावधी निघून जातो.

श्री. वासुदेव वामन पाटणकर उर्फ भाऊसाहेब पाटणकर हे व्यवसायाने वकील, छंद शिकारीचा आणि अफलातून निर्मिती मराठी गझल व शायरींची. खरचं असा गुणांचा त्रिवेणी संगम त्यांच्यात एकवटला होता. भाऊसाहेबांचा जन्म 29 डिसेंबर 1908 चा व मृत्यू  20 जून 1997. वीस जून हा  त्यांचा स्मृतीदिन. त्यांना विनम्र अभिवादन. त्यांच्या गझल,शायरी बद्दल कितीही लिहीलं तरी कमीच. प्रामुख्याने त्यांची शायरी शुंगार,इष्क,जीवन,विनोद, मृत्यू ह्या संकल्पनांवर आधारित असायची.

सगळ्यात पहिले तर त्यांची शायरी समजून घ्यायची म्हणजे वाचक हा जिंदादिल हवाच ही त्यांची आंतरिक ईच्छा. त्यासाठी ते लिहीतात,

“उन्मेष ज्यांच्या यौवनाचा काहीच ना झाला कमी,

प्यायले जे खूप ज्यांना वाटे परी झाली कमी,

निर्मिली मी फक्त माझी त्यांच्याच साठी शायरी,

सांगतो इतरास “बाबा” वाचा सुखे “ज्ञानेश्वरी”.।।

प्रेम अनुभवतांना मान्य आहे एक वाट ही सौंदर्याचा विचार करते पण फक्त सौंदर्य म्हणजेच प्रेम नव्हे हे ही खरेच. प्रेम दुतर्फा असले,दोन्हीबाजुंनी जर ती तळमळ असली तरच तीच्यात खरा आनंद असतो हे त्यांच्याच शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“हसतील ना कुसूमे जरी,ना जरी म्हणतील ये,

पाऊल ना टाकू तिथे,बाग ती आमुची नव्हे,

भ्रमरा परी सौंदर्य वेडे,आहो जरी ऐसे अम्ही,

इष्कातही नाही कुठे, भिक्षुकी केली अम्ही.।।।

प्रेमात नेहमीच सदानकदा हिरवं असतं असं नव्हे, प्रेमात उन्हाळे पावसाळे हे असणारच. त्याबद्दल भाऊसाहेब म्हणतात,

“आसूविना इष्कात आम्ही काय दुसरे मिळविले,  

दोस्तहो माझे असो तेही तुम्ही ना मिळविले,

आता कुठे नयनात माझ्या चमकली ही आसवे,  

आजवरी यांच्याचसाठी गाळीत होतो आसवे.।।।

प्रेमात,जिव्हाळ्यात एक  महत्वपूर्ण अंक हा लज्जेचा पण असतो हे विसरून चालणार नाही.ह्या गोडबंधनाच्या सुरवातीला हा अंक असतो. ते हासून लाजणे अन् लाजून हासणे हे भाऊसाहेबांच्याच शब्दात पुढीलप्रमाणे

“लाजायचे नव्हतेस आम्ही नुसतेच तुजला बघितले,  

वाटते की व्यर्थ आम्ही नुसतेच तुजला बघितले,

उपमा तुझ्या वदनास त्याची मीही दिली असती सखे, 

थोडे जरी चंद्रास येते लाजता तुजसारखे.।।।

आंतरिक मानसिक प्रेम हे आपल्या जवळच्या व्यक्तीला सुखं देण्यातच असतं ना की तिला काही त्रास,तोशिस पोहोचवण्यात. आपल्या व्यक्तीला सर्वार्थानं जपणं हेच खर प्रेम. ते भाऊसाहेबांच्या शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“पाऊलही दारी तुझ्या जाणून मी नाही दिले,

जपलो तुझ्या नावास नाही बदनाम तुज होऊ दिले,

स्वप्नातही माझ्या जरी का येतीस तू आधी मधी,

स्वप्नही आम्ही कुणाला सांगितले नसते कधी.।।।

भाऊसाहेब म्हणतात प्रेम हे फक्त प्रणयातच असतं असं कुणी सांगितलं ,ते तर एकमेकांना जपण्यात,सांभाळण्यात,सावरण्यात पण असतं हे त्यांच्याच शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“चंद्रमा हासे नभी शांत शीतल चांदणे,

आमुच्या आहे कपाळी अमृतांजन लावणे,

लावण्या हे ही कपाळी नसतो तसा नाराज मी,  

आहे परि नशिबात हे ही अपुल्याच हाती लावणे.।।।

तरीही शेवटी मृत्यू हेच अंतीम सत्य असतं हे ही नाकारुन चालणार नाही हे ही भाऊसाहेबांनी जिवंतपणीच ओळखलं. मृत्यू नंतर ची सर्वसामान्य अवस्था त्यांच्याच शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“जन्मातही नव्हते कधी मी तोंड माझे लपविले, 

मेल्यावरी संपूर्ण त्यांनी वस्त्रात मजला झाकले,

आला असा संताप मजला काहीच पण करता न ये,

होती अम्हा जाणीव की मेलो आता बोलू नये.”।।।

सगळ्याचं विषयावरील भाऊसाहेबांची शायरी अप्रतिम असली तरी लिखाणात त्यांचा हातखंडा होता तो “इष्क,प्रणय आणि शुंगार ह्या प्रकारात. इष्क म्हणजेच प्रेम करणे ह्याला नजर हवी, हिंमत हवी हे भाऊसाहेबांचे म्हणणे त्यांच्याच शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“केव्हातरी बघुन जराशी हास बस इतुके पुरे,  

वाळलेल्या हिरवळीला चार शिंतोडे पुरे ।।  

“दोस्तहो हा इष्क काही ऐसा करावा लागतो,

ऐसे नव्हे नुसताच येथे जीव द्यावा लागतो,

वाटते नागीण ज्याला खेळण्या साक्षात हवी,

त्याने करावा इष्क येथे छाती हवी,मस्ती हवी.

प्रेमाची ओळख,त्याची जाण होणं हे त्यांच्याच शब्दांत पुढीलप्रमाणे,

“अपुल्यांच दाती ओठ अपुला चावणे नाही बरे,

हक्क अमुचा अमुच्यासमोरी मारणे नाही बरे, ।।। 

आणि ते ओळखायची खूण म्हणजे,

“धस्स ना जर होतसे काळीज तू येता क्षणी ,

अपुल्या मधे,कोणात काही नक्की जरा आहे कमी.।।

ह्या अशा शायरीत गुंतता गुंतता वार्धक्य कधी उंब-यावर येतं ते कळतचं नाही. अर्थात जिंदादिलीवर ह्याचा काहीच परीणाम होत नाही. ह्याच्याच विचाराने त्यांना जीवनाविषयी सुचलेली शायरी पुढीलप्रमाणे,

“दोस्तहो,वार्धक्य हे सह्य होऊ लागते,

थोडी जरा निर्लज्जतेची साथ घ्यावी लागते,

मूल्य ह्या निर्लज्जते ला नक्कीच आहे जीवनी,

आज ह्या वृध्दापकाळी ही खरी संजीवनी”।।

अर्थात भाऊसाहेबांच्या मते हा प्रेमाचा,ईष्काचा अनुभव हा स्वतःच्या मनाने घेतल्याने एक होतं आपल्याला ह्मात कुठल्याही प्रकारचा पश्चाताप मनात साचत नाही. ही जबाबदारी स्वतः घ्यायलाही खूप हिम्मत लागते ती पुढीलप्रमाणे,

“बर्बादीचा या आज आम्हा, ना खेद ना खंतही,

झाले उगा बर्बाद येथे सत्शील तैसे संतही,

इतुका तरी संतोष आहे,आज हा आमच्या मनी,

झालो स्वये बर्बाद आम्हा बर्बाद ना केले कुणी.।।।

कुठलही प्रेम हे प्रेमच असतं. ते अलवार प्रेम अनेक ठिकाणी वसू शकतं हे खरोखर इतक्या सहज वृत्तीने स्विकारलेल्या भाऊसाहेबांच्या शब्दांत पुढीलप्रमाणे  

“ऐसे नव्हे इष्कात अम्हां काही कमी होते घरी,

हाय मी गेलो तरीही दीनापरी दुस-या घरी,

अर्थ का ह्याचा कुणा पाहिले सांगितला,

आम्ही अरे गमतीत थोडा जोगवा मागितला.।।।

प्रेम हे प्रेमच असत ते शेवटास गेले तरी वा मध्येच अधांतरी राहिले जरी. त्याच्या गोड स्मृती ह्या शेवटच्या श्वासापर्यंत तशाच ताज्या राहतात जसे,  

दोस्तहो, ते पत्र आम्ही आजही सांभाळतो,

रुक्मिणीचे पत्र जैसा,श्रीहरी सांभाळतो,

येतो भरुनी ऊर आणि कंठही दाटतो,

एकही ना शब्द तिथला,आज खोटा वाटतो.।।।

अगदी शेवटी भाऊसाहेब म्हणतात, हा जिन्दादिल रसीक असेल तरच आमच्या शब्दांना अर्थ आहे.पोस्ट ची सांगता त्यांच्याच शब्दात त्यांच्या खास रसिकांसाठी पुढीलप्रमाणे,

“वाहवा ऐकून सारी आहात जी तुम्ही दिली,

मानू अम्ही आहे पुरेशी तुमच्यातही जिन्दादिली,

समजू नका वाटेल त्याला आहे दिली जिन्दादिली,

आहे प्रभूने फक्त काही भाग्यवंतांना दिली.।।।

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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