हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 247 – दो ध्रुवों के बीच ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 247 ☆ दो ध्रुवों के बीच ?

इसी सप्ताह की घटना है। मैं दोपहिया वाहन से घर लौट रहा था। बाज़ार से दूर स्थित बैंक के पास एक वृद्ध सज्जन खड़े दिखाई दिए। जाने क्यों लगा कि लिफ्ट चाहते हैं पर कह नहीं पा रहे हैं। कुछ आगे जाकर मैं रुका और पूछा कि उन्हें कहाँ जाना है? उन्होंने बताया कि  लम्बे समय से ऑटोरिक्शा की प्रतीक्षा कर रहे हैं पर कोई रिक्शा आया ही नहीं। फिर जानना चाहा कि क्या मैं उन्हें उनके गंतव्य तक छोड़ सकता हूँ? मैंने उन्हें बिठाया और उनके गंतव्य पर छोड़ दिया।

वे धीरे से उतरे। बोले,”रिक्शा की प्रतीक्षा में खड़ा-खड़ा मैं बहत थक गया था। आपने बड़ी सेवा की।” फिर एकाएक उन्होंने मेरे पैर छू लिए।

इस अप्रत्याशित व्यवहार से मैं संकोच से गड़ गया। कुछ कह पाता, उससे पूर्व अप्रत्याशित का कल्पनातीत अगला संस्करण भी सामने आ गया। उन्होंने जेब से रुपये दस का नोट निकाला और फिर बोले,” इतना ही दे सकता हूँ। कृपया इस बूढ़े के पैसे से एक कप चाय पी लीजिएगा।” अपमान और क्रोध से माथा भन्ना उठा। मैंने उन्हें हाथ जोड़े। नोट हाथ में लिए वे खड़े रहे और मैं वहाँ से एक तरह से रफूचक्कर हो गया।

गाड़ी की बढ़ी हुई गति के साथ विचारों को भी हवा मिली। अपने अपमान के भाव से आरम्भ हुआ विचार, वृद्ध के स्वाभिमान तक जा पहुँचा।

निष्कर्ष निकला कि वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे। अनेक लोग ऐसे होते हैं जो किसीका एक नए पैसे का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष ऋण अपने ऊपर नहीं चाहते। बैंक से उनके गंतव्य तक संभवत: शेयर रिक्शा दस रूपये ही लेता होगा। फलत:  उन्होंने मुझे दस रुपये देने का प्रयास किया था।

अनुभव हुआ कि ध्रुवीय अंतर है आदमी और आदमी के बीच। एक ओर किसीका किसी भी तरह का ऋण अपने माथे पर ना रखनेवाला यह निर्धन है तो दूसरी ओर वित्तीय संस्थानों के हज़ारों करोड़ डकार जाने वाले कथित धनिक।

अनुभव कहता है कि संस्कार से विचार उद्भूत होता है। विचार, कृति का जनक होता है। कृति, व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करती है।

ऋग्वेद का उद्घोष है-

‘‘अग्निना रयिमश्नवत पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्।’’

संदेश स्पष्ट है कि हम धन अवश्य कमाएँ पर नीति-रीति से ही कमाएँ। अनीति से फटाफट धन की चाह, लोभ उत्पन्न करती है। लोभ अतृप्ति ढोने को अभिशप्त है।

अपनी कविता ‘पुजारी’ स्मरण हो आई-

मैं और वह

दोनों काग़ज़ के पुजारी,

मैं फटे-पुराने,

मैले-कुचले,

जैसे भी मिलते

काग़ज बीनता, संवारता,

करीने से रखता,

वह इंद्रधनुषों के पीछे भागता,

रंग-बिरंगे काग़ज़ों के ढेर सजाता,

दोनों ने अपनी-अपनी थाती

विधाता के आगे धर दी,

विधाता ने

उसके माथे पर अतृप्त अमीरी

और मेरे भाल पर

 समृद्ध संतुष्टि लिख दी..!

संत ज्ञानेश्वर महाराज पसायदान में कहते हैं,

जो जे वांछील तो ते लाहो ।

हरेक अपना वांछित पा सकता है।  तृप्ति या अतृप्ति, तोष या असंतोष, अनन्य मानव जीवन में अपना वांछित स्वयं तय करो।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ लहू के गुलाब – श्री अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆

प्रो. नव संगीत सिंह

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ लहू के गुलाब – श्री अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆

पुस्तक चर्चा 

पुस्तक – लहू के गुलाब (हिन्दी गजल संग्रह)

लेखक  – अमृतपाल सिंह ‘शैदा’

प्रकाशक – शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला,

पृष्ठ – 96

मूल्य – 200/-

☆ “लहू के गुलाब” ~  सामाजिक विसंगतियों की परिचायक: प्रो. नव संगीत सिंह ☆

अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ग़ज़ल को समर्पित त्रिभाषी कवि हैं। उन्होंने अब तक पंजाबी में 4 संपादित और 2 मौलिक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें ‘गरम हवावां’ (कहानियां, 1985), ‘जुगनू अतीत दे’ (कविताएं, चरणजीत सिंह चड्ढा, 2003), ‘सांझ अमुल्ली बोली दी’ (ग़ज़लें, 2021), ‘सथ्थ जुगनुआं दी’ (कहानियाँ, 2021) (सभी संपादित); ‘फसल धुप्पां दी’ (गज़ल, 2019), ‘टूणेहारी रुत्त दा जादू’ (ग़ज़लें, 2022) (दोनों मौलिक) शामिल हैं। वह सहजता और ठहराव के कवि हैं। पिछले 40 वर्षों से उन्होंने स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कवि दरबारों/मुशायरों सहित त्रिभाषी कवि दरबारों की शोभा बढ़ाई है। उन्होंने दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो कार्यक्रमों में भी भाग लिया है। वे 1979 से ‘त्रिवेणी साहित्य परिषद’ पटियाला से जुड़े हुए हैं और 1985 से वे भाषा विभाग, पंजाब की साहित्यिक गतिविधियों से संबंधित हैं। ग़ज़ल की बारीकियां उन्हें अपने दिवंगत पिता श्री गुरबख्श सिंह शैदा की संगति से मिली।

समीक्षाधीन पुस्तक (‘लहू के गुलाब’, शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला, पृष्ठ 96, मूल्य 200/-) अमृतपाल सिंह शैदा की हिंदी ग़ज़लों की पहली मौलिक पुस्तक है, जिसमें 72 ग़ज़लें शामिल हैं। इस पुस्तक की प्रस्तावना एवं तब्सिरा में क्रमशः डाॅ. सुरेश नाइक (राजपुरा, पंजाब) और प्रो. सग़ीर तबस्सुम (पाकिस्तान) ने पुस्तक की विस्तृत और बारीकी से समीक्षा की है। शिरोमणि हिन्दी साहित्यकार डाॅ. मनमोहन सहगल ने भी पुस्तक पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखी है।

दरअसल, वर्तमान समय में ग़ज़ल भी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह आडंबर/फंतासी/शाही दरबारों के चक्र से मुक्त होकर सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को चुनौती देती दिखाई देती है। पुस्तक का शीर्षक “लहू के गुलाब” संघर्ष और प्रगति को दर्शाता है, अर्थात् गुलाब अब केवल सुगंधि या खुशबू का केन्द्र बिन्दु नहीं रहा, बल्कि उसके लाल रंग से कवि को रक्त/क्रान्ति का झंडा लहराता नजर आता है। और जब कवि को कोमल/नाज़ुक चीजों से भी रक्त का संचार दिखाई दे, तो समझ लेना चाहिए कि ‘ताज़ो-तख्त’ गिरने वाले हैं।

शायर ने सभी ग़ज़लों में शेयरों की संख्या सात तक सीमित कर दी है और लगभग हर ग़ज़ल के अंत में अपना उपनाम ‘शैदा’ इस्तेमाल किया है। उन्होंने अधिकतर ग़ज़लों में दो-दो शब्दों के दोहराव से वक्रोक्ति पैदा करने की कोशिश की है। किताब की दूसरी ग़ज़ल में ही यह जादू प्रमुखता से उभरता नज़र आता है:

गुलशन-गुलशन सहरा-सहरा, जंगल-जंगल आग लगी है

आँगन-आँगन मरघट-मरघट, आंचल-आंचल आग लगी है

मौसम-मौसम मातम-मातम, पल-पल-पल-पल आग लगी है

धरती-धरती झुलसी-झुलसी, बादल-बादल आग लगी है

                                                     (पृष्ठ 20)

हर समाज में हर तरह के लोग होते हैं – अच्छे भी और बुरे भी। कुछ मददगार साबित होते हैं, कुछ लूटपाट/हत्या करने में लगे रहते हैं। कवि इस लम्बे चौड़े आख्यान को एक ही शेयर में कैसे समेटता है:

बस्ती पर जब संकट आया, कुछ लोगों ने लंगर खोले

कुछ लोगों ने लूट मचाई, कुछ ने जुगनू बांटे थे

                                                    (पृष्ठ 22)

शीर्षक ग़ज़ल में कई मुद्दों/विषयों को छुआ गया है और काफिया-रदीफ़ में ‘लहू के गुलाब’ का दोहराव है। पूरी दुनिया को जीतने की चाहत रखने वाला सिकंदर आखिरकार खाली हाथ चला गया। कवि ने इस तथ्य को जीवन की सच्चाई से कितनी गहराई से जोड़ा है:

जो चाहता था दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना, 

थे हाथ उसके ख़ाली जनाज़े से बाहर

खिलाता रहा उम्र भर ही अना के,

वो अहमक़ सिकंदर लहू के गुलाब।     

(पृष्ठ 24)

क़लम की ताकत को ‘शैदा’ जैसा बुद्धिमान ग़ज़लगो ही समझ सकता है, अन्यथा आम लोग तो लेखक को मूर्ख ही समझते हैं:

तुम नहीं ताक़त क़लम की जानते, सोचो ज़रा

इन्किलाबों का है ये इक कारगर हथियार क्यों

जिस के फ़न को सोने-चांदी से खरीदा जा सके

उसको हम, ‘शैदा’ कहेंगे साहिबे-किरदार क्यों

                                                     (पृष्ठ 26)

आज के मनुष्य के तनावपूर्ण और जटिल जीवन को देखकर ऐसा लगता है कि वह एक ही समय में कई हिस्सों में बंटा हुआ है। वह करता कुछ और है, सोचता कुछ और; देखता कुछ और है, लिखता कुछ और.. और ऐसी परेशानी में उससे कोई काम अच्छे से नहीं हो पाता। मेरा मानना है कि इसका प्रमुख कारण प्रौद्योगिकी है, जिसने मनुष्य के विखंडन में प्रमुख भूमिका निभाई है:

 दिल कहीं, रुह कहीं, जिस्म कहीं पर होगा

तुम हवाओं में उड़ोगे तो बिखर जाओगे

अक़्लमंदों की जो सोहबत में रहोगे ‘शैदा’

अपने क़द से भी कहीं ऊंचा उभर जाओगे

(पृष्ठ 32)

जिंदगी सिर्फ जाम-ओ-सुराही, लबो-रुख़सार के  पेचो-ख़म की उलझनों में ही नहीं उलझी है, बल्कि उसे भूख, अस्तित्व और निजता जैसी कठिनाइयों और चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। मनुष्य की जवांमर्दी इसी में है कि वह ज़ुल्मो-सितम से लड़ने के लिए किसी और के सहारे को न ढूंढे, किसी से मदद मांगने के लिए हाथ न फ़ैलाए, बल्कि अपनी पूरी ताकत से, जितनी तेजी से संभव हो, कूद पड़े। रात चाहे कितनी भी भयानक और अंधेरी क्यों न हो, आने वाला कल अवश्य खुशनुमा होगा। कवि आशावादी सोच और भविष्य के सुनहरे सपनों को प्रमुखता से रेखांकित करते हुए लिखता है:

जुगनू की दिलेरी से, लीजेगा सबक़ कोई

लड़ता है अकेला ही, ज़ुलमात के लश्कर से

नस्लें ही चलो अपनी, पुरनूर सहर देखें

आओ कि लड़ें जमकर, हम रात के लश्कर से

                                                    (पृष्ठ 33)

 शैदा’ एक ऐसा संवेदनशील शायर हैं जो लोगों के दुखों, आंसुओं और परेशानियों से हमेशा विचलित रहता है। कवि ने इस पुस्तक को “संसार की सुख शांति, समृद्धि व सलामती को समर्पित” किया है। सांसारिक समस्याओं से डरना और भागना भी कायरता की निशानी है। सच्चा योद्धा वही होता है जो सिर पर कफ़न बांधकर युद्ध के मैदान में जूझता है:

 मेरे शे’रों में लोगों के दुःख हैं, आँसू हैं, खुशियाँ हैं

हर पल चिंतन और मनन ने हक़ सच का परचम लहराया

जीना बेशक रास न आया, सारा जीवन, ‘शैदा’ मुझ को

पर संघर्ष की राह अपनाई, मर जाना न मन को भाया

(पृष्ठ 34)

 

गहरी नींद से जागो, उट्ठो, और संघर्ष में जूझो

वक्त की नाद सुनो बंधु, तुम को ललकार पड़ी है

                          ‌‌                       (पृष्ठ 53)

पृष्ठ 48 पर कवि ने ‘ऐ दोस्त’ अलग-अलग वर्तनी में लिखे हैं, लेकिन हिंदी में ‘ऐ दोस्त’ ही सही है। शायर ने क़िताब की ग़ज़लों को हिंदी ग़ज़लों का नाम दिया है लेकिन इनमें प्रस्तुत शब्द/वाक्यांश अधिकतर फ़ारसी/अरबी हैं। कवि ने इन्हें अरबी-फ़ारसी के अनुसार लिखा है। इस पुस्तक की ख़ूबी यह है कि अंत में कठिन शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। लेकिन सभी कठिन शब्द यहां नहीं आ सके। शब्दार्थ-विधि भी सही नहीं है। उन्हें क्रमांकित या पृष्ठांकित किया जाना चाहिए था या फ़ुटनोट में लिखा जाना चाहिए था। जोश, प्रेरणा और संघर्ष की बातें कहतीं ‘शैदा’ की यह ग़ज़लें तहक़ीक़-ओ-तवारीख़ में भूचाल लाने की क्षमता रखती हैं, ऐसा मेरा मानना है!

© प्रो. नव संगीत सिंह

# अकाल यूनिवर्सिटी, तलवंडी साबो-१५१३०२ (बठिंडा, पंजाब) ९४१७६९२०१५.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ The Grey Lights# 52 – “My Blood…” ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

? The Grey Lights# 52 ?

☆ – “My Blood ☆ Shri Ashish Mulay 

My sons and daughters

don’t fail this blade

nor the sophistication of its hilt

for it’s born of tears and service

 *

be of a service to the species

do the ‘khidmat’ as they say

for it will only bring you contentment

not the gold or the blood or a wine

 *

oh you my firstborn

be the first in service

you are just the representative

of your equal siblings

 *

what great can we do

if not united as single heart

heart full of love and tears

heart full of greatness and values

 *

though the blood binds us

thought merges us

into a single blade of spear

which belongs to all humankind

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 405 ⇒ || ढंग की बात || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| ढंग की बात ||।)

?अभी अभी # 405 ⇒ || ढंग की बात || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कौन नहीं चाहता, अपने मन की बात कहना, कोई कह पाता है, और कोई मन में ही रख लेता है। मन की बात कही तो बहुत जाती है, लेकिन मन की बात सुनने वाला कोई बिरला(ओम बिरला नहीं) ही होता है।

एक होती है मन की बात, और एक होती है ढंग की बात। कहीं कहीं बात करने का ढंग ही इतना प्रभावशाली होता है कि, बात भले ही ढंग की ना हो, श्रोताओं पर अपना प्रभाव जमा लेती है। वैसे मन की बात का वास्तविक उद्देश्य शायद आम आदमी की नब्ज टटोलना ही रहा होगा। देश का प्रधानमंत्री जब आपको संबोधित करता है, तो उसकी कुछ बातें तो अवश्य मन को छू जाती होंगी।।

हम पिछले ११० महीनों से मन की बात कार्यक्रम नियमित रूप से, हर महीने के अंतिम रविवार को सुबह 11:00 बजे आकाशवाणी और दूरदर्शन पर सुनते आ रहे हैं। आम चुनाव के तीन महीने के अंतराल के बाद शायद यह सिलसिला पुनः प्रारंभ हो।

अगर मन की बात कुछ ढंग की हो, तो श्रोता का भी सुनने का आकर्षण बढ़ जाता है। मन की बात के नाम पर केवल अपनी ही तारीफ करना, अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना और केवल अपनी सफलताओं का डंका बजाना कुछ समय तक तो कारगर रहता है, लेकिन बाद में वह नीरस और उबाऊ होता चला जाता है। फिर वह मन की बात नहीं रह जाती ;

फिर तेरी कहानी याद आई

फिर तेरा फसाना याद आया ;

हां अगर मन की बात, साथ साथ में ढंग की बात भी हो, तो क्या कहने। लेकिन ढंग की बात कहना जितना आसान है, लिखना उतना आसान नहीं। अब ढंग को ही ले लीजिए, इसमें ढ के ऊपर तो बिंदी है, लेकिन नीचे नहीं। ढोर, ढोल, ढाल और ढक्कन में भी ढ के नीचे बिंदी नहीं लगती।

लेकिन यही ढ जब शब्द के अंत में आ जाता है, तो आषाढ़, दाढ़ और बाढ़ बन जाता है, यानी ढ के नीचे बिंदी लग जाती है। बढ़िया, सिलाई – कढ़ाई, और पढ़ाई में ढ बीच में है, फिर भी ढ के नीचे बिंदी है।

लेकिन फिर भी ढ के रंग ढंग हमें समझ में नहीं आते। बेढब बनारसी में नीचे बिंदी गायब है। बड़ा बेढंगा है यह ढ। इसकी बढाई की जाए अथवा इसे बधाई दी जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।।

जब ढ के ही ऐसे रंगढंग हैं, तो ढंग की बात कितनी ढंग की हो सकती है यह विचारणीय है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप इस बार मन की बात सुनना चाहते हैं, अथवा ढंग की बात।

हमारे मन की बात तो यही है कि बहुत हो गई मन की बात, अब कुछ ढंग की बात भी हो जाए। संसद में केवल तालियां ही नहीं बजें, किसी की शान में केवल कसीदे ही नहीं कढ़े जाएं, कुछ तर्क वितर्क, सवाल जवाब हो, जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जनता की समस्याओं पर बात करें, केवल अपने नेता की जय जयकार ही नहीं करते बैठें। गहमा गहमी हो, दोनों ओर से संयम और सौहार्दपूर्ण वातावरण का नज़ारा हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 193 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा सलिला…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 193 ☆

☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

निज माता की कीजिए, सेवा कहें न भार।

जगजननी तब कर कृपा, देंगी तुमको तार।।

*

जन्म ब्याह राखी तिलक गृह-प्रवेश त्योहार।

सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।

*

कोशिश करते ही रहें, कभी न मानें हार।

पहनाए मंजिल तभी, पुलक विजय का हार।।

*

डरकर कभी न दीजिए, मत मेरे सरकार।

मत दें मत सोचे बिना, चुनें सही सरकार।। 

*

कमी-गलतियों को करें, बिना हिचक स्वीकार।

मन-मंथन कर कीजिए, खुद में तुरत सुधार।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२.४.२०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पं च सू त्री ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ पं च सू त्री !  ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

काम करतांना कुठलेही

अधिर व्हायचे नसते,

ते पूर्ण होई पर्यंत तरी

धीराने घ्यायचे असते !

*

बाजूला ठेवून “मी”पणा

सोडून द्या मनातले हट्ट,

नंतर प्रयत्न तरी करा

नाती होण्या सारी घट्ट !

*

ठेवा सवय ऐकायची

दुसऱ्याचे पण बोलणे,

वाजवू नका नेहमी

तुमचेच तुम्ही तुणतुणे !

*

राग येता कधी कोणाचा

नका काढू दुसऱ्यावर,

शिका थोडा ठेवायला 

ताबा आपल्या मनावर !

*

आणि

*

लोकं म्हणतात नेहमी

नाही स्वभावाला औषध,

पण ठेवून बघा जीभेवर

थोडासा मधाळ मध !

थोडासा मधाळ मध !

 

© प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ एक थेंब पावसाचा… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?  कवितेचा उत्सव ?

☆ एक थेंब पावसाचा… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

एक थेंब पावसाचा

धरतीच्या अंगावर

रत्नखाण झाली तिची

धन्य सारे खरोखर॥

*

एक थेंब पावसाचा

डोंगराच्या माथ्यावर

स्वर्ग लोकातील गंगा

दरी घेई कडेवर॥

*

एक थेंब पावसाचा

कुसुमाच्या पाकळीत

सव्वा लाखाचा हा हिरा

जणू जपला मुठीत॥

*

एक थेंब पावसाचा

बळीराजाच्या कपोली

डोळ्यातील एक थेंब

उराउरी भेट झाली॥

*

एक थेंब पावसाचा

प्रेमिकांच्या कायेवर

चेतावली तने मने

येई प्रेमाला बहर॥

*

एक थेंब पावसाचा

अडव ,जीरव आता

मानवा कल्याण करी

होसी सृष्टीचा तू त्राता॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ प्रतिक्षा… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ प्रतिक्षा… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट

कुठल्याही व्यक्तीच्या जीवनात कठीण वा परीक्षा बघणारी कोणती गोष्ट असेल तर ती म्हणजे वाट बघणं,प्रतिक्षा. कुठलीही आनंदाची गोष्ट अगदी अचानक मिळाली तर आपण ह्या “वाट बघणं”वा “प्रतिक्षा”फेजला सरळसरळ मुकतो. पण एखाद्या आनंदाच्या गोष्टीची मिळण्याची खात्री असेल तर ह्या फेजमधून आपल्या प्रत्येकाला हे जावंच लागतं. ह्या फेजला आपल्याआपल्या गमतीच्या भाषेत “धाकधूक वा पाकपुक होणं” असं म्हंटतो. पण खर सांगायच़ तर ह्या फेजमधून जाणं तसं अवघड असतं बघा. आणि मजेशीर गोष्ट म्हणजे असं वाटतं ही फेज मेली संपता संपत नाही लवकर. असं वाटतं हा कालावधी खूप प्रदीर्घ आहे. असो

ही फेज आत्ता आठवायचं कारण म्हणजे आता नुकताच पावसाळा सुरू होतोय. तमाम शेतकरी वर्ग चांगल्या दमदार पावसाच्या प्रतीक्षेत असतो.पावसाळा सुरू झाला म्हणजे पाऊस हा येणारच नक्की. त्यामुळे तमाम शेतकरी वर्ग घरातील,स्वतः जवळील असेल नसेल ते पणाला लावून पेरणी,मशागत करायला लागतो. त्याचे डोळे मात्र आभाळाकडे लागलेले असतात आणि मन चित्त सगळं वाट बघण्यात,पावसाच्या प्रतिक्षेत,अगदी चातक पक्षासारखं.

हल्लीची पिढी सुदैवी म्हणावी की नाही ह्या बाबतीत संभ्रमच आहे. कारण नशीबाने ह्या पिढीवर कुठल्याही बाबतीत वाट बघण्याची वेळ फार कमी येते,नशीबाने त्यांनी तोंडातून काढताक्षणी हवे ते मिळण्याचं भाग्य त्यांच्या नशिबी असतं. पण त्यामुळेच का होईना त्यांना वाट बघणं माहित नसल्याने कदाचित त्या मिळणाऱ्या गोष्टीची खरी किंमत ही कळतच नाही हे खरं. आणि ती गोष्ट मिळवितांना देणा-याला आणि घेणाऱ्या ला काय काय कष्ट पडतात हे त्यांचं त्यांनाच माहित.

प्रतिक्षा,सहनशक्ती,धीर संयम ही सगळी सख्खी भावंडच.कुठलिही गोष्ट मिळवितांना जरा प्रतिक्षा करावी लागली तर तिची किंमतही कळते आणि गोडीही जाणवते.ती गोष्ट मिळेपर्यंत धीर धरला,संयम बाळगला,तर आपल्याला पुढील वाटचालीत खूप लाभ हा होतोच.गोष्ट सहजासहजी मिळाली नाही तरी नाउमेद न होण्यासाठी सहनशक्ती कामी येते.

आताही पेरणी झालेल्या शिवारात आभाळाकडे डोळे लावून बसणा-या बळीराजाला बघितले की खरंच पोटात कालवाकालव होते.म्हणूनच त्याला एकाअर्थी बळीराजा हे नाव सार्थ ही वाटतं. असं वाटतं त्याची ही प्रतिक्षा लौकर संपावी व सगळी भुमी सुजलाम सुफलाम व्हावी.

आताही विदर्भात खास करून अमरावती जिल्ह्यात कडक उन्हाचा सामना करतांना अक्षरशः नाकी नऊ येणं म्हणजे नेमके काय हे समजले. परंतू आता कालपासून असं वाटतंय आता एक दोन दिवसांत प्रतीक्षा संपून पावसाच्या जलधारा नक्कीच बरसणार. त्याप्रमाणेच गुरुवारी पहाटे पहाटे थोडा का होईना पाऊस पडल्याने अनेक शेतकऱ्यांना, नागरिकांना दिलासा मिळाला.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ क्लेप्टोमॅनिया — भाग-२ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? जीवनरंग ❤️

☆ क्लेप्टोमॅनिया — भाग-२ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

(किती हो गुणी मुलगी आहे सुरुची.  देवाने हा असला दुर्मिळ आजार या सोन्या सारख्या मुलीला का द्यावा?” माहीच्या डोळ्यात पाणी आलं..).. इथून पुढे —

दोघी मैत्रिणी खुशीत मावशीच्या फार्म हाऊसवर गेल्या..  खूप मजा केली त्यांनी.. मावशीने खूप लाड केले त्यांचे. दोघी खूप हिंडल्या, दंगामस्ती केली,धबधब्याखाली मनसोक्तभिजल्या. रोज जेवल्यावर  माहीला हळूच आपली पर्स दाखवायची सुरुची.. त्यात कधी चमचे कधी टिशू पेपर असल्या फुटकळ वस्तू असत तर कधी काहीही नसे.. माही गुपचूप सगळ्या वस्तू जागेवर ठेवून देई.. सुरुचीला अत्यंत गिल्टी वाटे .ती माहीला म्हणायची,”माही,कोण होतीस तू माझी मागच्या जन्मी?किती मला संभाळून घेतलंस ग आजपर्यंत? पण कायम अशी तुझ्यावर अवलंबून कशी रहाणार मी?काय आहे माझ्याभविष्यात देव जाणे.” खिन्न होऊन सुरुची म्हणायची..

“होईल ग सगळं ठीक!आत्तापर्यंत नाही का झालं तसंच होईल”  माही म्हणाली..

दोघींचे रिझल्ट्स लागलेआणि दोघींनाही पहिल्याच लिस्ट मध्ये मेडिकलला ऍडमिशन मिळाली.

दोघींचा आनंद गगनात मावेना..  छोट्या डबक्यातले मासे आता नदीत पोहायला जाणार होते,क्षितिजे विस्तारणार होती..

नवीन कॉलेज सुरू झाले.. दोघींच्या टर्म्स नशिबाने एकत्रच लागल्या.. अभ्यास प्रॅक्टिकल्स करताना दिवस कसे कुठे जात ते दोघींनाही समजत नसे..  माहीची परिस्थिती जरा बेताची होती..माही परीक्षेच्या दिवसात सुरुचीकडे रहायलाच यायची.. सुरुचीच्या बेडरूम मध्ये कॉट वर पडून दोघी आपली स्वप्नं रंगवत..”माही, मी नोकरी करणार नाही. स्वतःचेच क्लिनिक सुरू करीन.उगीच दुसऱ्या हॉस्पिटल मध्ये जाऊन माझा हा आजार लक्षात आला तर किती बदनामी होईल माझी..”  शहाणी सुरुची म्हणायची. .माहीला या गुणी मैत्रिणीबद्दल फार वाईट वाटायचे..

दिवस भरभर उलटत होते.. बघताबघता दोघीही  चांगले मार्क्स मिळवून पास झाल्यासुद्धा.. माहीने पुढे पोस्ट ग्रॅज्युएशन ला प्रवेश घेतला. कितीही आग्रह करूनही सुरूचीने ठाम निर्णय घेतला, मी पुढे काहीही करणार नाही.. मला स्पेशलायझेशन करायचं नाही.मी सरळ आता दवाखाना उघडणार. बाबांच्या बंगल्यातला खालचा मजला घेईन छान रिनोव्हेट करून..”कितीही सांगून माही ,सुरुचीचे बाबा दमले तरी सुरूचीने ऐकलं नाहीच..  “बाबा, इतके दिवस माझ्या मागे  माही ढाली सारखी उभी राहिली म्हणून निभावलं. तिला तिचं आयुष्य नाहीये का? तिलाही पुढे शिकू दे,दुसरे मित्र मैत्रिणी जमवू दे.. आता मात्र नको बाबा..चोरटी  डॉक्टर म्हणून मला मोठ्या हॉस्पिटल मध्ये जाऊन बदनामी नाही करून घ्यायची..हे कधीतरी लोकांना  समजणार हो बाबा..त्यापेक्षा माझे स्वतःचे क्लिनिकच बरे… झाकली मूठ राहू दे झाकलेलीच राहील तितकी..” सुरुचीच्या डोळ्यात पाणी आलं..

बाबा,अजून आठवतं हो मला,लहानशी सुरुची कोपऱ्यात उभी असलेली आणि बस मधली मुलं तिच्याकडे संशयाने बघत असलेली!  पण त्याचा गाजावाजा झाला नाही.. मला चांगलं काही दिसलं की ते उचलायची अनावर उर्मी यायचीच.. आणि नंतर ती नाहीशीही व्हायची..  तेव्हा तुम्ही ,माही,शाळेतले सहृदय फादर माझ्यासाठी उभे राहिलात..म्हणून तर आजचे हे दिवस मला दिसत आहेत..

नशिबाची फार परीक्षा बघू नये असं तुम्हीच म्हणता ना? मी इथेही छान यशस्वी होऊन दाखवीन बाबा.  “सुरुची म्हणाली.  ठीक आहे म्हणून बाबा मागे फिरले.  त्यांनी सुरुचीला खालचा मजला सुंदर रिनोव्हेट करून दिला.. सुरूचीने दवाखाना सुरूकेला..कॉलनीत  दुसरा डॉक्टर नव्हताच..सुरुचीच्या गोड बोलण्याने,उत्तम रोगनिदानाने बघता बघता तिचा उत्तम जम बसला. सुरूचीने माया म्हणून हुशार रिसेप्शनिस्ट नेमली होती..कोणत्याही  पेशंटने आपली कोणतीही वस्तू पर्स काहीही आत आणायचे नाही..

तपासण्याच्या रूममध्ये रिकामे जायचे हा कडक नियम होता सुरुचीच्या दवाखान्यात..  त्याचे कारण फक्त सुरुचीलाच माहीत होते..त्या दिवशी माही सुरुचीला भेटायला आली.  वॉव सुरुची..केवढी गर्दी ग दवाखान्यात.

मिंटिंग मनी हं? ग्रेट.  अगदी अचूक ठरला तुझा निर्णय ग. .शाबास!!”माही मनापासून म्हणाली..

बरं हे पेढे घ्या..झाली तुझी मैत्रीण एम डी.. अजूनही कष्ट संपत  नाहीत”..हसत हसत माही म्हणाली..” हो ग माही,सोपी आहे का तुझी ही वाट?पण मग  सोन्याची फळंही मिळतील बरं.”सुरुची हसून म्हणाली..  सुरुचीच्या आईबाबांना तिच्या लग्नाचे वेध लागले..आपली ही गुणी मुलगी चांगल्या मुलाच्या हातात पडावी असं मनापासून वाटायचं त्यांना..इतकी गुणी, हुशार भरपूर पैसे मिळवणारी मुलगी  कदर असणाऱ्या मुलाला मिळावी या अपेक्षेत  गैर काय होते? सुरुचीची अट होती. मला कोणालाही फसवून लग्न करायचे नाही.मला क्लेप्टोमॅनिया आहे हे सांगूनच मी लग्न करणार. मग भले मी तशीच राहिले तरी चालेल. सुरुची आपल्या म्हणण्यावर ठाम होती..  नंतर ते लग्न मोडण्यापेक्षा आधीच सत्य माहीत असलेले केव्हाही चांगले असे सुरुचीचे मत…दरम्यान माही लग्न होऊन परदेशात गेली..  सुरुचीची प्रॅक्टिस आणखीच जोरात चालायला लागली.  एक दिवस तिच्या दवाखान्या समोर एक  कार येऊन उभी राहिली..  सुरुची खाली मान घालून काहीतरी काम करत होती.. वर बघितलं तर हे कोण आहे?असं तिने प्रश्नार्थक नजरेने बघितलं..बसा ना, मी ओळखलं नाही तुम्हाला.  सुरुची म्हणाली.. 

आठवतो का मी? शिरीष? तुझ्या वर्गात होतो शाळेत.. तुझं कसं लक्ष जाणार म्हणा? बॅक बेंचर आम्ही आणि तू स्कॉलर!  पटतेय का ओळख?”त्याने हसून विचारलं..

अरे हो!  शिरीष तू? बस ना..इथे कसा आलास?” सांगतो. माही भेटली होती मला अमेरिकेत.. मी गेलो होतो तिकडे कॉन्फरन्स साठी..अर्थात तुझी चौकशी केलीच मी..  माही मस्त आहे तिकडे. तुम्ही आहात ना रोज  टेक्स्ट वर?  मस्त चाललंय तिचं. तर मला माहीने तुझ्याबद्दल सगळं सांगितलंय.मी डॉक्टर झालो पण इथून नाही,, गुजरात मधून.. .म्हणून मला इथली तुमची काहीच माहिती नव्हती. आता पुण्यात आलोय आणि ऑर्थोपेडिक हॉस्पिटलला जॉब करतोय. सुरुची, मला लग्न करायचं आहे तुझ्याशी..ते क्लेप्टोमॅनिया बद्दल मला सगळं सांगितलंय माहीने.मी त्याला महत्व देत नाही.उगीच त्याचा बाऊ करू नकोस. तुझ्या सगळ्या गुण दोषांसकट तू मला हवी आहेस..” बोल काय ते. आधीच उशीर झालाय. आता नाही म्हणू नकोस.”  सुरुचीच्या डोळ्यात पाणी आलं. उठून उभं रहात तिने घट्ट मिठीच मारली  शिरीषला.. शिरीष हसायला लागला .सुरुची लाजून दूर झाली.  दोनच महिन्यात सुरुची आणि शिरीषचं शुभमंगल झालं .. सुरुचीच्या आईवडिलांना स्वप्नात कल्पना केली नव्हती असा जावई मिळाला..आज सुरुचीला दोन मुलगे आहेत आणि तिचा संसार मस्त चाललाय.  याचं श्रेय शिरीष आणि सुरुची अर्थात माहीला देतात. बालवर्गापासून ते आपल्या लग्नापर्यंत सतत आपल्या मागे सावली सारख्या उभ्या असलेल्या माही सारख्या आधारवडाला विसरणे, सुरुचीला  शक्य  तरी होते का?

– समाप्त – 

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “दगडातला देव …” भाग – १ ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆

सुश्री नीता कुलकर्णी

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☆ “दगडातला देव …” भाग – १ ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

जोशी काकांबरोबर कोकणातली  ट्रिप सुरू होती. संध्याकाळ झाली होती. आम्हाला जायचं होतं ते ठिकाण अजून लांब होत. 

अचानक एका देवळासमोर गाडी थांबली. आम्हाला काही कळेना.इथे का थांबलो?…. 

खाली उतरलो.काका म्हणाले

“गणपतीचे दर्शन घेऊया “

एक साधेच  नेहमी असते तसे देऊळ होते. दर्शन घेतले. 

काका म्हणाले “आता सगळेजण आपण इथे बसून अथर्वशीर्ष म्हणुया”

काकांच हे काय चालल आहे आम्हाला कळेना..

तेवढ्यात काकांनी खणखणीत आवाजात सुरुवातही  केली. 

“ओम भद्रं कर्णेभि: शृणुयाम देवा:..”

आम्ही पण सगळे म्हणायला लागलो..

“हरि ओम् नमस्ते गणपतये…”

अथर्वशीर्ष म्हणून झाल्यावर बाहेर आलो.

देवळाच्या आवारात छोटे छोटे असंख्य दगड टाकलेले होते आणि त्याच्या मधून छान  रस्ता केलेला होता.

काका म्हणाले

“या देवळाच्या आसपासचे हे दगड बघितलेत का?”

“दगड.”

“हो ..दगडच “

त्यात काय बघायचं ?..आम्हाला समजेना..

“तुम्हाला या देवळाची एक विशेष गोष्ट सांगायची आहे.

तुम्ही देवळाची प्रदक्षिणा करा आणि कुठलाही एक दगड उचला..

तो गणपतीच आहे…

अट एकच आहे फक्त एकदाच दगड उचलायचा…”

“म्हणजे?”

काका काय म्हणत आहेत हेच आम्हाला कळेना …त्यांनी परत सगळे सांगितले.

असं कसं असेल?

आम्हाला वाटल काका आमची मजा करत आहेत.

पण काका अगदी गंभीरपणे सांगत होते.

“स्वतः करून बघा तुम्हीच…”ते म्हणाले..

आम्ही प्रदक्षिणा करून आलो..

आता गंमत सुरू झाली.

कुठला दगड उचलावा हे कळेचना… आम्ही सर्वजण उभे होतो.

काका एकदम म्हणाले

“गणपती बाप्पा मोरया…”

आणि आम्ही प्रत्येकाने खाली वाकुन एक एक दगड उचलला.

प्रचंड उत्सुकता…. कुतूहल ….अपेक्षा….

दगडाच निरीक्षण  सुरू झालं…

आणि मग काय मजाच सुरू झाली….

प्रत्येकाला त्याच्या दगडात बाप्पा दिसायला लागला. तुझा बघु …. माझा बघ… प्रत्येकाने निरीक्षण केलं…

कोणाला डोळा दिसत होता ..कोणाला सोंड दिसत होती ..

काहीजण हिरमुसले… त्यांना बाप्पा दिसला नाही .मग कुणीतरी म्हटलं पालीचा आणि लेण्याद्रीच्या गणपतीचा  भास होतो आहे…..

कितीतरी वेळ आम्ही त्याच नादात होतो.

काकांनी परत एकदा गणपती बाप्पाचा गजर केला.आणि  म्हणाले 

“चला बसा गाडीत “पुढच्या प्रवासाला निघालो.. 

काही जणांना ती गंमत वाटली त्यामुळे त्यांनी तो दगड टाकून  दिला. तर काही जणांनी तो  दगड श्रद्धेनी बरोबर घेतला..

गाडी सुरू झाली आणि लक्षात आलं की मगाशी हळूहळू  गचके खात चालणारी   गाडी आता सुसाट चालली होती…

गाडी दुरुस्त झाली होती.

अरेच्चा अस होत तर….

तेवढा वेळ काकांनी आम्हाला गुंगवून ठेवले होते .आणि नकळतपणे आम्ही पण त्या खेळात रंगून गेलो होतो…

गाडी बिघडली… असे सांगितले असते तर आमचा हिरमोड झाला असता. आम्ही कंटाळलो असतो… त्यासाठी काकांनी ही युक्ती केली होती.

काकांना किती छान सुचलं नाही का?

विघ्न आलं…  संकट आलं की घाबरायचं नाही .आपलं लक्ष दुसऱ्या एखाद्या चांगल्या सकारात्मक  गोष्टीकडे लावायचं. त्यात मन रमवायचं ….काही वेळ जाऊ द्यायचा कदाचित प्रश्न सुटतातही….

पण एक मात्र सांगू का?

त्या दिवशी आम्हाला खरंच प्रत्येकाच्या दगडात थोडा का होईना देव दिसला…..

बस मधून उतरताना काका म्हणाले…..

“आज दगडातला देव बघितलात. आता माणसातला देवही बघत जा बरं का….. देवाशी वागता तस माणसाशीही वागुन बघा …”

आम्ही सगळे स्तब्ध झालो …

त्या छोट्याशा वाक्यातून काकांनी आम्हाला खूप काही सांगितले शिकवले….

हळूहळू आम्ही शिकत आहोत.

त्या गणपतीकडे बघितले की मला हे सर्व आठवते.

माझा तो दगड अहं …गणपती आता माझ्याकडे आहे.

मला त्यात बाप्पा दिसतो…

आज काका नाहीत ..

पण त्यांनी सांगितलेले जीवनाचे तत्वज्ञान तुम्ही पण लक्षात ठेवा हं..ते आयुष्यभर पुरणारे आहे…

– क्रमशः भाग पहिला 

© सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

मो 9763631255

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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