आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (6) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।।6।।

कर्मेन्द्रिय निष्क्रिय मगर मन से है कोई व्यस्त

तो यह मिथ्याचार है, आडंबर मात्र समस्त।।6।।

 

भावार्थ :  जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है।।6।।

He who, restraining the organs of action, sits thinking of the sense-objects in mind, he, of deluded understanding, is called a hypocrite. ।।6।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ दीप अपने अपने – नया दृष्टिकोण ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  की कविता  “स्त्री स्वतन्त्रता  पर आधारित  “नया  दृष्टिकोण” । ऐसे विषय पर नारी ही नारी के हृदय को समझ कर  इतना कुछ कल्पना कर सकती हैं।  आदरणीया डॉ मुक्ता जी की लेखनी को नमन । )

-: दीप अपने अपने :- 

☆ नया दृष्टिकोण ☆

 

मैं हर रोज़

अपने मन से वादा करती हूं

अब औरत के बारे में नहीं लिखूंगी

उसके दु:ख-दर्द को

कागज़ पर नहीं उकेरूंगी

दौपदी,सीता,गांधारी,अहिल्या

और उर्मिला की पीड़ा का

बखान नहीं करूंगी

 

मैं एक अल्हड़, मदमस्त, स्वच्छंद

नारी का आकर्षक चित्र प्रस्तुत करूंगी

जो समझौते और समन्वय से कोसों दूर

लीक से हटकर,पगडंडी पर चल

अपने लिये नयी राह का निर्माण करती

‘खाओ-पीओ, मौज-उड़ाओ’

को जीवन में अपनाती

‘तू नहीं और सही’ का मूल-मंत्र स्वीकार

रंगीन वातावरण में हर क्षण को जीती

वीरानों को महकाती,गुलशन बनाती

पति व उसके परिवारजनों को

अंगुलियों पर नचाती

उन्मुक्त आकाश में विचरण करती

नदी की भांति निरंतर बढ़ती चली जाती

 

परंतु यह सब त्याज्य है,निंदनीय है

क्योंकि न तो यह रचा-बसा है

हमारे संस्कारों में

और न ही है यह है

हमारी संस्कृति की धरोहर

 

खौल उठता है खून

जब महिलाओं को

शराब के नशे में धुत्त

सड़कों पर उत्पात मचाते

क्लबों में गलबहियां डाले

नृत्य करते

अपहरण व फ़िरौती की

घटनाओं में लिप्त

दहेज के इल्ज़ाम में

निर्दोष पति व परिवारजनों को

जेल की सीखचों के पीछे पहुंचा

फूली नहीं समाती

अपनी तक़दीर पर इतराती

नशे के कारोबार को बढ़ाती

देश के दुश्मनों से हाथ मिलाती

अंधी-गलियों में फंस

स्वयं को भाग्यशाली स्वीकारती

खुशनसीब मानती

क्योंकि व सबला हैं, स्वतंत्र हैं

और हैं नारी शक्ति की प्रतीक…

जो निरंकुश बन

अपनी इच्छा से करतीं

अपना जीवन बसर

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ छुटकारा ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी का e-abhvyakti में हार्दिक स्वागत है। आप एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। हम भविष्य में ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए आपकी चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।)  

 

☆ छुटकारा ☆

 

“अभिनव, पापा जी को बोलो न, वे वहाँ खड़े-खड़े क्या सामान गिन रहे हैं? एक तरफ जाकर बैठ क्यों नहीं जाते? कहीं किसी मजदूर का सामान ले जाते हुए धक्का लग गया तो व्यर्थ ही अस्पताल भागना पड़ेगा और तुम तो जानते ही हो कि अभी हम यह जोखिम नहीं उठा सकते। नये मकान में कितना काम पड़ा है। जाओ और उन्हें समझा दो कि हम केवल अपना ही सामान ले जा रहे हैं, वे निश्चिंत रहें, हम उनका कुछ भी नहीं ले जाएंगे।” पाठक जी को बरामदे में खड़ा देख कर नेहा ने कुढ़कर पति से कहा।

“हाँ, तुम ठीक कह रही हो, अभी कहता हूँ।” अभिनव ने कहा।

“अरे पापा जी, क्या आप से चैन से बैठा नहीं जाता? आते-जाते किसी मजदूर का धक्का लगेगा तो आपका तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, बैठे-बिठाए हम मुसीबत में पड़ जाएंगे। जाइये, अपने कमरे में आराम से बैठिये।” अभिनव ने मानो पिता को वहाँ से धकेलते हुए कहा।

सहसा पुत्र की झिड़की का कोई जवाब नहीं दे सके पाठक जी, चुपचाप अपने कमरे में आज्ञाकारी बालक की भाँति जा बैठे। उधर सामान ट्रक में लादा जा चुका था। तभी पाठक जी का पोता डुग्गू उन्हें ढूँढ़ता हुआ वहाँ पहुँच गया और बोला, “अरे दादू आप यहाँ क्यों बैठे हैं, क्या आप को चलना नहीं है? सारा सामान तो लादा जा चुका है और आप अभी तक तैयार भी नहीं हुए? चलिये जल्दी करिये।”

“अरे नहीं डुग्गू, मैं वहाँ भला कैसे जा सकता हूँ, यहाँ भी तो कोई रहना चाहिये ना!” पाठक जी ने अपने अंदर उठते तूफान को थामते हुए बोला।

“तो ठीक है, मैं अभी पापा जी को कह देता हूँ कि मैं भी यहीं रहूंगा। वैसे भी आप अकेले यहाँ कैसे रहेंगे? कोई तो आपके साथ होना चाहिये ना?” डुग्गू जैसे सहसा बहुत बड़ा हो गया था।

“चलो डुग्गू, देर हो रही है, गाड़ी में बैठो। आप भी पापा जी इसे बातों में उलझाए हुए हैं, क्या आपको दिखाई नहीं देता कि हम कितने व्यस्त हैं?”  नेहा ने पाठक जी को डांटते हुए कहा।

“मैं दादू के साथ ही रहूंगा मम्मी, यहाँ अकेले दादू कैसे रहेंगे? देखती नहीं हो कि दादू कितने बीमार हैं? मैं जाऊंगा तो दादू को भी ले जाना पड़ेगा।” डुग्गू ने जैसे अपना निर्णय सुना दिया।

“डुग्गू तुम्हारी बहुत जुबान चलने लगी है, चलो अब बकवास बंद करो और चलकर गाड़ी में बैठो। बड़ी मुश्किल से तो इनसे छुटकारा मिला है। रात भर खाँसते हैं, न खुद सोते हैं और न दूसरों को सोने देते हैं।” नेहा डुग्गू को बाजू से पकड़कर खींचकर ले जाते हुए बड़बड़ाई।

 

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

 

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ पहिली नेत्र पल्लवी. . . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  द्वारा   रचित  एक भावप्रवण कविता )

 

☆ पहिली नेत्र पल्लवी. . . ! ☆

(लिनाक्षरी.)

 

नेत्र पल्लवी पहिली फुलारली

भावनेचा चैत्र तेथे विसावली.

 

भेटायचे दिले निमंत्रण खासे

नेत्रपल्लवी सावध टाकी फासे.

 

खेळ चालला युगायुगांचा छंद

दोन मनांचे , भावप्रीतीचे बंध.

 

आहे अवखळ ,नजरेची भाषा

जाते सांधत , प्रेम प्रीतीच्या रेषा .

 

एक असावी, उरात दैवी जागा.

नेत्र पल्लवी, हाच प्रीतीचा धागा.

 

क्षणी वेचले, नेत्र पल्लवी, लेणे

आठवणी या, तव ह्रदयाचे,  देणे.

 

© विजय यशवंत सातपुते

100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी, सहकार नगर नंबर 2, दशभुजा गणपती रोड, पुणे. 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Touching human lives with laughter ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Touching human lives with laughter ☆

During the last hundred days, we (Radhika, my wife, and me) have laughed with more than a thousand people. It has really been a life changing experience! We are now proud to have a life skill with us with which we can connect to any group of people anywhere, anytime and make them laugh unconditionally. We feel cheerful throughout the day. The life is full of joy. We have converted our bodies into factories that utilize oxygen from the atmosphere, rejuvenate each and every cell of our system and manufacture feel good endorphins. We are as healthy and energetic as one can be, touch wood, and have not taken any medication since we turned Laughter Yogis. We feel deeply fulfilled as we are instruments of happiness and health for others and are able to touch their lives with a new joyous way of life. Our lives now have a meaning and a mission – to make others happy and healthy!

I had my tryst with Laughter Yoga one fine morning in Mumbai, more than a decade ago. Dr Madan Kataria and Madhuri Kataria, the founders of laughter yoga, were leading a laughter session in Lokhandwala park. The experience was simply out of the world! I had to wait for more than a decade after that. In the month of October this year, Radhika and myself, along with more than 20 laughter professors from all over the globe, were baptised by Dr Kataria himself at Bengaluru.We have never looked back after that..

We run two laughter clubs – the Suniket Laughter Club and Laughter Club of State Bank Learning Centre, Indore – regularly. Here are some experiences shared by the members..

Let us begin with ourselves. The pain in my knee joints is a thing of the past. I get up early in the morning every day and work till late in the night without any feeling of fatigue. Radhika doesn’t need her blood pressure pills any more and her frequents bouts of sinusitis have simply disappeared.

Many among a group of newly promoted bank officers felt nervous to face the audience in their public speaking sessions. They were asked to join laughter yoga sessions, after which they shed all their inhibitions, and gathered the courage to speak freely.

Another group was required to appear for a tough test for promotion to the next cadre. They felt tired at the day end and had no energy left to study. Those who attended laughter exercises in the morning not only improved their attention span in classes but could also study for a couple of hours more in the evenings.

An elderly businessman felt severe pain in his neck which travelled across his shoulders and back. The pain was acute and disabling. After he joined our laughter club, the pain is gone. He has developed a regular habit of getting up and going for morning walk. His wife tells us that he seldom laughed earlier and never mixed socially with people. She is pleasantly surprised at the transformation.

An income tax officer, who has retired recently, has shared that his lungs are fully cleared after the laughter session and the feeling of freshness lingers throughout the day. We get feedback of feelings of well being, energy and health on a continual basis from our member friends.

We were also invited to conduct a laughter therapy session for about 80 persons in a camp organized recently by the National Institute of Naturopathy, Pune at the Naturopathy and Yoga Research Centre, Indore. The response was overwhelming. They found such great value in this alternate therapy that they decided to honour us on the spot after going through our session. The standing ovation, with chants of Very Good Very Good Yay, lasted for more than ten minutes..

We look forward to touch many lives with joy and bliss.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (5) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।।5।।

 

बिना कर्म के एक क्षण, कभी न कोई व्यक्ति

प्रकृतिदत्त है कर्म के प्रति सबकी अनुरक्ति।।5।।

 

भावार्थ : निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है।।5।।

 

Verily none can ever remain for even a moment without performing action; for, everyone is made to act helplessly indeed by the qualities born of Nature. ।।5।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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English Literature – Poetry – ☆ The end of King Parikshit ☆– Ms Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(We present Ms. Neelam Saxena Chandra ji‘s thought provoking poem based on the mythological character King Parikshit’s Karma and Dharma.)

 

☆ The end of King Parikshit ☆

 

By a snake bite cursed to die

King Parikshit, in a tall tower locks

Isolated from subjects, children and wives

Paces in his room, unable to talk

 

Petrified he is, does not eat or sleep

Finally his curse, to everyone reveals

Every inlet to the tower is guarded

No slithering Naga should come to kill

 

On the seventh day, the famished Parikshit

Disgustedly, darts into a fruit

Hidden inside is a little worm

Which transforms into a serpent’s suit

 

Takshaka is the name

Its deadly fangs into Parikshit’s skin sinks

Spreads rapidly the venom

And soon breathes his last, the king

 

Destiny can never change

The fate of a pauper or royale

Providence decides whatever is deserved

Karma and dharma are inevitable

 

© Ms Neelam Saxena Chandra, Pune 

 

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Poetry,
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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ उदासी ☆ – श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 

 

(श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है श्री अरोड़ा जी की मानवीय संवेदनाओं पर आधारित लघुकथा ‘उदासी’। हम भविष्य में श्री अरोड़ा जी से उनके चुनिन्दा साहित्य की अपेक्षा कराते हैं।)

 

☆ उदासी ☆

 

‘कभी कभी ऐसा क्यूँ हो जाता है कि बिना वजह हमे उदासी घेर लेती है? ‘

‘ तुम उदास हो क्या?’

‘ उदास तो नहीं पर खुशी भी महसूस नहीं कर पा रहा ।’

‘ मेरा साथ तो तुम्हें पसन्द है और मैं तुम्हारे साथ हूँ । फिर भी तुम उदास हो । कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारा मन मुझसे भर गया है ? ‘

‘ ऐसी बातें मत करो । इससे मेरी उदासी बढ़ जायेगी । ‘

‘ फिर तुम भी उदास होने की बात मत करो ।’

‘ यार! एक बात बताओ, जिंदगी क्या  सिर्फ हमारी – तुम्हारी  दिनचर्या का नाम है ? ‘

‘ ऐसा क्यों सोच रहे हो? हम हर दिन उन सारे लोगों से मिलतें हैं, जिनसे हमें कोई न कोई काम होता है । बेमतलब तो किसी से बात नहीं की जा सकती न ।’

‘ बस इसे ही जिंदगी कहते हैं क्या?’

‘ और क्या होती है जिंदगी? आज ऐसा क्या हुआ जो नहीं होना चाहिए था और ऐसा क्या नहीं हुआ जो होना चाहिए था कुछ समझ नहीं आया । आखिर कहना क्या चाहते हो ? ‘

‘ यही कि वो आदमी कितनी शिद्दत से जिन लोगों की जिंदगी के गड्ढे भरने की कोशिश कर रहा था ‘ वो उसी गड्ढे में गिरकर मर गया जिसे उन लोगों ने उसे भरने नहीं दिया । मतलब उसे जबर्दस्ती मार दिया गया ।’

‘ तो क्या इसीलिए उदास हो? ‘

‘ क्या मेरी उदासी के लिए ये वजह काफी नहीं है कि उस आदमी ने जिन लोगों के लिए गड्ढों को भरने की कोशिश की वही उसकी मौत का कारण बन गए! ‘

‘ समझ में नहीं आ रहा कि तुम्हारे साथ रहकर, तुम्हें पहले से ज्यादा प्यार करूँ या तुम्हें तुम्हारी कँकरीली  उदासियों के बीच  छोड़कर किसी  सरपटी  नरम  राह की राहगीर बन जाऊं ? ‘

‘ अच्छा तो यही होगा कि तुम कोई नरम राह चुन लो ।’

‘ तुम्हें पता भी है कि हर नरमी को कठोर धरातल की जरूरत होती है। नहीं तो वह नरमी कुछ देर बाद धंस कर गड्ढा बन जाती है । और हाँ, तुम्हारी उदासियों से वो आदमी जिन्दा नहीं हो जायेगा ।’

‘ तो क्या करूं? ‘

‘ उठो और उसकी तमाम कोशिशों के बाद भी जो गड्ढे भरे नहीं जा सके, उसकी वजह खोजों और उन्हें भरने की कोशिश भी करो । फिर देखना वो आदमी फिर से जिन्दा हो उठेगा ।’

वो स्नेह सिक्त मुद्रा में उसे देखने लगा ।

 

© सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ क्षितिज ☆ – श्री दिवयांशु शेखर 

श्री दिवयांशु शेखर 

 

(युवा साहित्यकार श्री दिवयांशु शेखर जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आपने बिहार के सुपौल में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण की।  आप  मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। जब आप ग्यारहवीं कक्षा में थे, तब से  ही आपने साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। आपका प्रथम काव्य संग्रह “जिंदगी – एक चलचित्र” मई 2017 में प्रकाशित हुआ एवं प्रथम अङ्ग्रेज़ी उपन्यास “Too Close – Too Far” दिसंबर 2018 में प्रकाशित हुआ। ये पुस्तकें सभी प्रमुख ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। आपके अनुसार – “मैं हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविताएँ, कहानियाँ, नाटक और स्क्रिप्ट लिखता हूँ। एक लेखक के रूप में स्वयं को संतुष्ट करना अत्यंत कठिन है किन्तु, मैं पाठकों को संतुष्ट करने के लिए अपने स्तर पर पूरा प्रयत्न करता हूँ। मुझे लगता है कि एक लेखक कुछ भी नहीं लिखता है, वह / वह सिर्फ एक दिलचस्प तरीके से शब्दों को व्यवस्थित करता है, वास्तविकता में पाठक अपनी समझ के अनुसार अपने मस्तिष्क में वास्तविक आकार देते हैं। “कला” हमें अनुभव एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देती है और मैं जीवन भर कला की सेवा करने का प्रयत्न करूंगा।”)

 

☆ क्षितिज ☆

 

क्षितिज! धरती और आसमान की अनूठी प्रेम कहानी,

ना मानो तो छलावा, अगर मानो तो बड़ी सुहानी ।

इक तरफ जहाँ आसमान मस्ताना,

दूसरी ओर धरती उसके रंगों की दीवानी ।

इक तरफ जहाँ आसमान मातंग दीवाना,

वहीं बेचैन धरती की हर वक़्त खामोश रहने की बेमानी ।

एक बार औरों की तरह मुझ नासमझ को भी आसमान छूने की चाह जगी,

अथक प्रयास के बाद अचानक दूर देखा तो आज मुझे वो चाँदनी नहीं,

वरन धरती और आसमान के अद्भुत मिलन की रात लगी ।

आसमान को पाने की मेरे पास अब मात्र धरती की राह बची,

मैं भागा बेतहाशा, दिल में संजोये एक असंभव सी आशा,

वहाँ पहुँचा तो कुछ ना पाया, हाथ लगी तो सिर्फ निराशा ।

हतोत्साहित मैं, धरती से उठाकर आसमान के तरफ इक पत्थर लहराया,

लेकिन बदकिस्मत वो भी लौटके वापस धरती से टकराया ।

दर्द से धरती के पलकों पे आँसू आया,

मुझ अंधे को कुछ फर्क नहीं, लेकिन आसमान को अब मुझपे गुस्सा आया ।

रौद्र काले रूप में गरज से उसने गुस्ताखी के लिए मुझको हड़काया,

घमंडी मैं अकड़ में उससे जुबान लड़ाया ।

कहा मैंने, ऐ आसमान! तुझे किस बात का अभिमान है?

धरती तो तेरी कभी हो ही नहीं सकती, फिर तुझे किस बात का गुमान है ।

मुझ पर मुस्कुराता वो बोला कि एहसासों की कहानी की लगती कहाँ दुकान है,

और सच्चे प्यार की असल में होती कहाँ जुबान है ।

तुम तो सिर्फ अपने सपनों के लिए मेरे पीछे हो भागते,

पर जो धरती है तुम्हारे पास, उसकी कभी क़द्र ही नही कर पाते ।

तुम्हारे दिये दर्द से अब वो बेदर्द कुछ इस कदर हो गयी है,

तुम्हारे शोर में खुद के दिल की आवाज़ सुनना भूल गयी है ।

मेरा क्या, मैं तो मनोरंजन के लिए रूप, रंग बदलता हूँ,

पर तुम्हारे इशारों पे नहीं केवल उसके लिए ही मचलता हूँ ।

जहाँ मैं केवल उसकी धुन में हूँ गाता,

वहीँ वो तुम निर्ममों की गूंज में, मेरा वो प्रेमराग सुन भी ना पाती ।

जहाँ सब लोग मेरे लिए पागल हैं,

वहीं गुस्ताखी में हर वक़्त करते उसको घायल हैं ।

उसके दर्द में जब भी रोऊँ, तो लोग मेरे आँसू को बारिश हैं समझते,

उसे छेड़ने इक पलक को झपकुं, तो नासमझ तुम उसे बिजली की चमक हो समझते ।

जब भी तुम उम्मीदों से मुझे हो देखते,

मैं मुस्कुराता, और मुझे देख वो भी मुस्कुराती ।

तुम ना हिलो यहीं मज़बूरी उसकी,

नहीं तो अपने इस मचलते आशिक़ के लिए वो भी इठलाती ।

नीचे से देखने पर तुम्हें लगता होगा कि मैंने उसे चारों तरफ से घेर रखा है,

कभी मेरे साथ आकर देखो, तो तुम्हें पता चले कि मैंने नहीं,

वरन उसने मुझे सदा इक छाँव दे रखा है ।

और जहाँ तक है हमारे मिलन कि बात तो हम हमेशा ही हैं मिले,

अगर ना हो यकीन तो वापस वहाँ देखो, जहाँ से तुम थे चले ।

वापस मैंने जब पलटकर देखा तो सच में उनको वहीं मिला पाया,

उनके सच्चे प्रेम और त्याग को जान, वापस मैं बुद्धू घर को आया ॥

पुरजोर बहस हुई

कागज़ और कलम में

 

© दिवयांशु  शेखर

 

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ? बरसात प्रीतीची ? –श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक अतिसुन्दर  शृंगारिक भावप्रवण कविता ।  )

 

? बरसात प्रीतीची ?

 

तिच्या नाजूक ओठांवर तिळाने स्वार का व्हावे ?

दिसाया कृष्णवर्णी तो तरी हे भाग्य लाभावे

 

मलाही वाटतो आता नकोसा जन्म हा माझा

मनी या एवढी इच्छा तिच्या ओठीच जन्मावे

 

सखा होण्यातही आता कुठे स्वारस्य हे मजला

उभा हा जन्मही माझा करावा मी तिच्या नावे

 

कळेना सूर मी कुठला तिच्या गाण्यातला आहे

मला तर एवढे कळते तिचे मी शब्द झेलावे

 

तिच्या कोशात मी इतका असा बंदिस्त का झालो ?

मुलायम रेशमी धागे कसे हे पाश तोडावे

 

तिच्या नजरेतली भाषा कळे नजरेस या माझ्या

तिच्या एकेक शब्दांचे किती मी अर्थ लावावे

 

किती बरसात प्रीतीची नदीला पूर आलेला

मिळालेली मने दोन्ही कशाला पूल बांधावे

 

© अशोक भांबुरेधनकवडी

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 

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