हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #222 – 109 – “तुम भी तो थे इश्किया अंजाम से बाबस्ता…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल तुम भी तो थे इश्किया अंजाम से बाबस्ता…” ।)

? ग़ज़ल # 109 – “तुम भी तो थे इश्किया अंजाम से बाबस्ता…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

आँखें मिलीं जब वो आये थे नज़र मुझे,

नहीं रही इसके बाद की कुछ खबर मुझे।

*

मैं अनजान खिलाड़ी थी इश्क़ के खेल की,

तुमने ही तो पढ़ाया था ज़ेर ओ ज़बर मुझे।

*

मैं भी तो सातवें आसमान पर तैर रही थी,

उसके बाद ही आई थी जन्नत नज़र मुझे।

*

तुम भी तो थे इश्किया अंजाम से बाबस्ता,

अब पूछते हो क्यों नहीं रहती सबर मुझे।

*

अब ये बेकार की तकरार किसलिए जनाब,

अब रहने दो अपने आग़ोश में बसर मुझे।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संकल्प ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – संकल्प ? ?

अपनी सुविधा,

अपना गणित,

समीकरणों का

स्वानुकूल फलित,

सुविधाजीवी जब

बाएँ मुड़ रहे हों,

समझौते ठुकराने का

विवेक जगाए रखना

दाएँ मुड़ने का अपना

संकल्प बनाए रखना।

© संजय भारद्वाज 

रात्रि 11:03 बजे, 1 फरवरी 2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘संतृप्त…’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Insatiable Cravings…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “संतृप्त.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि –  संतृप्त ? ?

दुनिया को जितना देखोगे,

दुनिया को जितना समझोगे,

दुनिया को जितना जानोगे,

दुनिया को उतना पाओगे,

अशेष लिप्सा है दुनिया,

जितना कंठ तर करेगी,

तृष्णा उतनी ही बढ़ेगी,

मैं अपवाद रहा

या शायद असफल,

दुनिया को जितना देखा,

दुनिया को जितना समझा,

दुनिया में जितना उतरा,

तृष्णा का कद घटता गया,

भीतर ही भीतर एक

संतृप्त जगत बनता गया!

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 12:25 बजे, 16.6.2019)

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

?~ Insatiable Cravings…  ~??

?

The more you see the world,

The more you understand it,

More you know the world,

More you unravel the truth…

*

Insatiable thirst is this world,

More it quenches the thirst,

More it accentuates it further…

But I remained an exception

*

Height of Trishna –the cravings

has been decreasing, ever since…

A treasure of contended world

is being created deep inside me..!

?

~ Pravin Raghuvanshi

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण – ☆ Spread Goodness Spread Happiness (SGSH) कहानी के पीछे की कहानी ☆ सुश्री दिव्या त्रिवेदी ☆

सुश्री दिव्या त्रिवेदी

☆ संस्मरण – Spread Goodness Spread Happiness (SGSH) कहानी के पीछे की कहानी ☆ सुश्री दिव्या त्रिवेदी ☆

(किताब राइटिंग पब्लिकेशन्स की संस्थापिका  सुश्री दिव्या त्रिवेदी के जीवन के उतार चढ़ाव की प्रेरक कथा। एक वर्ष से भी कम समय में उन्होंने 1500+ पुस्तकें प्रकाशित की हैं। ई- अभिव्यक्ति के अनुरोध पर उनका संस्मरण हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए।)

जिंदगी कभी भी आसान नहीं होती लेकिन मेरी जिंदगी आसान थी। मैंने ही अपनी जिंदगी को अशांत कर दिया था। लेकिन मैंने किस तरह उसे फिर से आसान बनाया आइए जानते है।

मुझे एक भयंकर क्रोध की बीमारी है।  बचपन से ही मुझे छोटी-छोटी बातों में बहुत गुस्सा आता है। इस ही गुस्से की वजह से जब में आठवीं कक्षा में थी तब अपने हाथ में पेन की नीव से काट दिए थे। तब टीचर्स स्टूडेंट्स में भेदभाव करते थे। जो अच्छे गुण लाते थे उनको ही आगे रखते थे। उनको ही कक्षा का मुख्य बनाते थे। तब उस समय मुझे इतना गुस्सा आ रहा था कि जब शिक्षक पढ़ा रहे थे तब मैंने दोनों हाथों में पेन वाली पेंसिल 🖋️ की नीव से अपने हाथों में छाले कर दिए थे। जब छूटते समय मेरी सहेली को उनसे काम था तो मैं उसके साथ गई थी।  बात करते करते समय शिक्षक ने मेरा छाले वाला हाथ देख लिया। वह देखते ही मुझे चाटा मारा और प्रिंसिपल के पास ले गए। प्रिंसिपल ने बोला कल मम्मी पापा को लेकर आना। लेकिन मैंने घर पर कुछ नहीं बताया और घर पर किसी को पता भी नहीं चला क्योंकि उस समय ठंडी का सीजन चल रहा था तो मैंने लंबा स्वेटर पहनकर ही रखा था तो किसी को कुछ पता नहीं चला।

दूसरे दिन जब में क्लास में गई तब प्रिंसिपल ने पूछा मम्मी पापा किधर है ? मैं बिना कुछ बोले सिर झुकाकर खड़ी रही। लेकिन मेरा स्कूल का आईडी कार्ड लेकर प्रिंसिपल ने पापा को फोन करके बुलाया और पापा ने मम्मी को स्कूल भेजा। मम्मी ने भी आकर चाटा मारा और पूछा यह सब क्यूं किया ? मेरे पास बोलने के लिए कुछ था ही नहीं लेकिन जवाब तो देना था इसलिए मैंने बोला की आपने कल सुबह दीदी को पानी गरम करने के लिए पूछा लेकिन मुझे नहीं पूछा। यह मैंने झूठ बोला था लेकिन क्या करती टीचर के सामने उनका बुरा नहीं ही बोल सकती थी। धीरे – धीरे सब टीचर को पता चल गया और सब टीचर मुझसे डरने लगे। जो टीचर मुझे कभी जानते नहीं थे वो भी मेरे से अच्छे से बात करने लगे थे। उनको डर था फिर गुस्से में कुछ कर दूंगी तो स्कूल का नाम खराब हो जाएगा। यह मेरी पहली आत्महत्या की कहानी थी। जिसकी शुरुआत बचपन से ही हो गई थी। लेकिन आने वाले साल और मेरा गुस्सा उम्र के साथ ज्यादा बढ़ने वाला था।

कुछ साल बाद…

मैं जब ग्यारहवीं कक्षा, जो मुंबई में जूनियर कॉलेज होता है । मुझे तारीख आज भी याद है १ नवंबर, २०१७, कॉलेज से निकलकर ऐसिड बैग में डालकर बोरीवली मुंबई में से चर्नी रोड़ जो पहले खुला था और वहां बहुत पानी की बड़ी नदी है। उधर जाकर मैं पानी में डूब गई थी। पूरा अंदर चली गई थी और मरने ही वाली थी लेकिन किसीने आकर मुझे पानी से बाहर निकाला। मुझसे वहां के लोगों ने पूछा की क्यूं यह सब कर रही हूं? लेकिन मैं चुप रही और फिर बोला मुझे मत रोको। ( उस समय पानी में मेरा एटीन थाउसैंड का फोन पानी में गया जो कभी भी ठीक नहीं हुआ ) वह लोगों ने मेरा बैग देखा की शायद किसका नंबर मिल जाए लेकिन उसमें मैंने ऐसिड की बोतल रखी थी। वो लोगों ने देखकर ही फेक दी। बैग में मेरी एक किताब मिली जिस में क्लास टीचर का नंबर लिखा हुआ था। उन लोगों ने मेरी क्लास टीचर को फोन करके सब बताया। मेरी टीचर ने मुझे कॉलेज लाने के लिए कहा और मेरे परिवार को भी संपर्क किया । फिर वो लोग मुझे स्टेशन तक छोड़कर गए और मेरी बहन मुझे लेने आई थी। टीचर ने कॉलेज बुलाया था तब जब हम कॉलेज जा रहे थे, तब सामने मेरे क्लास के मेरे क्लासमेट मेरा मज़ाक उड़ा रहे थे। टीचर को काम था तो वह मुझसे मिल नहीं पाई थी। ( वैसे अच्छा ही हुआ, मेरे में हिम्मत नहीं थी उनकी बात सुनने की ) जब दीदी घर पर लाई तो सबने मेरे पर बहुत गुस्सा किया। उनकी जगह कोई भी परिवार होता तो ऐसी हरकतें देखकर गुस्सा ही करेंगे लेकिन उस वक्त में अंदर से पूरा खत्म हो गई थी। सब बिखरता हुआ दिख रहा था । मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा की आगे मैं क्या करूं और सब लोगों का सामना कैसे करूं? किसको अपना दर्द बताऊं? वही दूसरे दिन कॉलेज जाकर पता चला कि मेरे क्लास टीचर ने हर क्लास में जाकर बताया कि मेरे क्लास की एक लड़की कल सुसाइड करने गई थी। मैं जिसको अपनी सहेली मानती थी, उसने भी वो जहां ट्यूशन जाती थे, वहां उसने भी सबको बताया। मैं जहां रहती थी, वहां मेरी क्लास की एक लड़की रहती थी। मेरा परिवार उनको जानता था। एक दिन मम्मी जब किसी से बाहर कुछ बात कर रही थी तो उन्होंने मेरी मम्मी को ताना मारा की इनकी बेटी पानी में मरने गई थी। मम्मी ने घर आकर बताया कि वह ऐसा बोल रहे थे। मुझे मन में इतना दुःख हुआ की शब्दो में वह स्थिति बयान नहीं कर सकती ।

इतना सब होने के बाद भी मेरे परिवार ने मुझ पर विश्वास करके मुझे कॉलेज भेजा। नया स्मार्ट फोन दिलाया। परिवार का प्यार भी शब्दों में बताना मुश्किल है। सब फिर से नॉर्मल हो गया था लेकिन……

फिर एक दिन मुझे गुस्सा आया और सुबह सुबह मैं गई जूहु बीच। तब मैंने ब्लैड से अपनी नस काटकर बहुत पानी में गई। ( वह ब्लैड के निशान आज भी मेरे हाथों में है।) तब भी मुझे किसीने बचा लिया और फिर से वही सब सुनना पड़ा। मैंने कई बार आत्महत्या करने के इससे भी बड़े प्रयास किए लेकिन इतना अभी बता नहीं सकती। मैंने इतना गुस्से में किया की लग रहा था; अब सब खत्म हो रहा था और वो सब मैं अपने हाथों से ही अपनी जिंदगी बर्बाद कर रही थी। जब मुझे किसी एक सच्चे मित्र की आवश्कता थी तब मेरे पास, मेरी परेशानी सुनने वाला कोई भी नहीं था। हां, जब क्लास नोट्स या कुछ काम हो तो सब आते थे लेकिन मेरे दर्द में किसीने मुड़कर भी नहीं देखा था। घर वाले, रिश्तेदार, कॉलेज वाले सब ताना मार रहे थे और मुझे और मेरे परिवार को सबका सुनना पड़ रहा था। साल बीतते रहे और समय जाता रहा। मुझे डॉक्टर बनना था लेकिन यह सब की वजह से मेरा ध्यान भटक गया था। सिर्फ मेरे परिवार की वजह से जिंदगी काट रही थी। लेकिन वो कहते है ना हर अंधेरे के बाद एक दिन रोशनी जरूर होती है और मेरा अच्छा समय भी आने वाला था….

एक दिन मैंने सोचा कि मैं बार बार मरने का प्रयास कर रहीं हूं तो भगवान मुझे क्यों नहीं ले रहे है? क्यूं मुझे यह मतलबी, घमंडी और बुराई की दुनिया में रख रहे है? जिस दुनिया में अच्छाई ना हो और दिखावे की खुशी हो, कोई मर रहा होता है फिर भी लोग मदद करने की जगह खुश होते है, ताना मरते है, ऐसी दुनिया में रहकर क्या मतलब? बचपन से वो भेदभाव देखकर मेरी जीने की इच्छा खत्म हो गई थी। उसमें भी धीरे धीरे इन्फेक्शन, कान का ऑपरेशन सब बीमारियां बढ़ रही थी। तब परिवार के इतने पैसे जा रहे थे की अंदर से मरने का बहुत मन था लेकिन उनका प्यार देखकर सब सहन कर रही थी। कई बार सोचते सोचते एक दिन सोचा कि मेरे अंदर कुछ तो है जो भगवान मुझे मरने नहीं दे रहे है। हर बार कुछ चमत्कार करके मुझे बचा लेते है। फिर मैंने सोचा ऐसी कौन सी चीज है जिससे मुझे बहुत ही गुस्सा आता है? ऐसी कौन सी बात है, जो देखकर मुझे इस दुनिया में उठ जाना ही बेहतर लगता है? फिर मुझे ध्यान में आया की इस दुनिया में इतनी बुराई, इतना घमंड, इतनी नकारात्मकता, इतना स्वार्थीपन यही मेरे गुस्से की वजह है। फिर सोचा मुझे मेरी जिन्दगी तो पसंद है नहीं और नाही कभी होने वाली है। सोचा जो बुराई मैंने देखी है, वो बुराई सब हर दिन देखते ही होंगे। उसमें से कितने सारे मेरे जैसे होंगे और जैसे की हम सब जानते है की आत्महत्या की आए दिन कई केस देखने मिलते है । फिर वो आम इंसान हो या बड़ा सेलिब्रेटी हर कोई इस जाल में फस रहा है। फिर धीरे धीरे मैंने पॉजिटिव रहना शुरू किया, संदीप महेश्वरी सर और काफी अच्छे वीडियो देखे। तब उसका तुरंत असर नहीं हुआ लेकिन कुछ महीनों बाद अपने आप एक ही मिशन की शुरआत मैंने कर दी थी जिसका नाम था स्प्रेड गुडनेस, स्प्रेड हैप्पीनेस (Spread Goodness, Spread Happiness – SGSH ) जिसमें मैं कुछ एनजीओ या कुछ बड़ा नहीं कर रही थी लेकिन धीरे धीरे मैं सकारात्मकता, बहुत छोटी छोटी मदद करके, अच्छा बोलकर, अच्छा रहकर अच्छाई फैलाने की कोशिश करती हूं। हालांकि गुस्सा तो अभी भी वही था लेकिन धीरे धीरे अच्छाई का पावर बढ़ रहा था।

इसके चलते ही मैंने सोचा मेरे सपना क्या था? मेरा सपना डॉक्टर बनने का था लेकिन डॉक्टर बनने के लिए मेरे दो मार्क्स कम आए थे। फिर मैंने Bsc बैक अप प्लान का सोचकर बारहवीं परीक्षा वापस देने का सोचा। लेकिन जब पढ़ना चाहिए था तब मैंने समय बर्बाद करके आत्महत्या और दूसरे कामों में लगी हुई थी। जब बारहवीं की परीक्षा फिर से आई तब मैं फिजिक्स प्रेक्टिकल के समय रोने लगी थी, टीचर ने भी डाटा क्योंकि मुझे कुछ आता नहीं था फिर भी परीक्षा फिर से दे रही थी। सब टीचर और घरवालों ने बोला जो मार्क्स आए है रखो और आगे बढ़ो लेकिन मैं कहां कुछ सुनने वाली थी, अब मुझे जो करना था वो करना ही था। बारहवीं का फिर से रिजल्ट आया और जितना मार्क्स चाहिए था आ गया लेकिन अभी भी नीट की परीक्षा में उतने मार्क्स नहीं आए जितने एमबीबीएस बनने के लिए चाहिए होते है। मैं धीरे धीरे बहुत निराश हो गई थी क्योंकि ना मैं बीएससी में अच्छा कर रही थी ना मैं नीट में अच्छे से ध्यान दे पा रही थी। धीरे धीरे मेरा डॉक्टर बनने का सपना टूटता हुआ दिखा और यह भी लगा की मेरे जैसे कमजोर लोग कल डॉक्टर बन भी गए तो भी कभी किसी का इलाज नहीं कर पाएंगे यह सोचकर मैंने नीट देना बंद कर दिया और डॉक्टर के सपने को त्याग दिया । ( लेकिन डॉक्टर बनने के लिए की गई मेहनत आज भी दिल में है। )

अब निराशा बढ़ रही थी क्योंकि बीएससी में भी सब ऊपर से जा रहा था। सब लोगों का बेसिक स्ट्रॉन्ग था लेकिन मेरा तो बेसिक ही वीक था। पहले सेमेस्टर में जब मैं बारहवीं बोर्ड की परीक्षा फिर से देने गई तब बीएससी का एक पेपर छूट गया और टीचर को लाख रिक्वेस्ट करने के बाद भी उन्होंने मेरा प्रैक्टिकल पेपर नहीं लिया और absent डाल दिया। जिंदगी में पहली बार मुझे absent मतलब कॉलेज में तो केटी आई। वो भी फिर से देकर मैं पास हो गई लेकिन फिर भी मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था। मैंने सिर्फ डॉक्टर बनने के बारे में सोचा था यह सब बीएससी वगैरा की कल्पना भी नहीं की थी। बहुत ज्यादा निराशा होती थी, जब क्लास में सब अच्छा कर रहे थे और मुझे आता था लेकिन मैं पढ़ाई में मेहनत नहीं कर पाती थी। मैंने कई मोटिवेशन वीडियो, गूगल में सर्च किया लेकिन कही से भी पढ़ने के लिए कुछ समझ नहीं आ रहा था। फिर भी एक डिग्री मिल जाए इसलिए सब कर रही थी। एक दिन फिर मैंने संदीप महेश्वरी सर का एक वीडियो देखा जिसमें उन्होंने समझाया था की आप वो करो जो आपको करना अच्छा लगता है। जो काम आप पूरा दिन करो तो भी आपको थकान महसूस ना हो। कुछ दिन तो समझ में नहीं आया लेकिन कुछ ही दिन बाद मेरे सर्टिफिकेट, मेरी ट्रॉफी और स्कूल, कॉलेज में जो मेरी पसंदगी चीजें थी वह लिखना था। मुझे अलग अलग विषयों पर अपने विचार लिखना बहुत पसंद है। पहले मुझे जिस पर छोटी छोटी कामयाबी मिली वह मेरी लिखावट पर ही था।  अब मैंने हररोज एक छोटे छोटे सुविचार लिखकर सोशल मीडिया में डालती गई और तब से ही मैंने अच्छाई, सच्चाई और खुशियों पर लिखने की शुरआत की और मेरा मिशन SGSH आगे बढ़ाती गई ।

एक दिन मुझे इंस्टाग्राम में एक मैसेज आया की क्या आप मेरी एंथोलॉजी में भाग लेंगे? मैंने एक सेकंड भी सोचे बिना हां बोल दिया। जिसमें ऑनलाइन ३० रुपए देने थे । मेरे पास ऑनलाइन देने के लिए कुछ पैसे नहीं थे और घर पर बोलती तो शायद कोई विश्वास नहीं करता। फिर मैंने मम्मी का डेबिट कार्ड लेकर वह लिंक में पैसे दिए बिना किसी को पूछे।

वह एंथोलॉजी में मेरे दो पन्ने और मेरा फोटो था। किताब का नाम ” मेलोडी ऑफ स्प्रिंग” था। धीरे धीरे मुझे कई सांझा संकलन में लिखने के मौके मिलते रहे । लिखने का मेरा शोख अब मेरी आदत बन गई थी। इन सबके चलते मैंने अपनी पहली एकल किताब प्रकाशित की थी जिसका नाम द ब्यूटी ऑफ़ कोट्स था। मेरे लिखने की शुरुआत अब हो गई थी। अब मैं सह लेखक से लेखक और लेखक से संपादिका बन गई। मैंने करीब ५ से ७ प्रकाशन में काम किया। धीरे धीरे मुझे थोड़े पैसे भी मिलने लगे। जैसे की हम सब जानते है हर बिज़नेस के अपने रुल होते है, ठीक वैसे ही जहां मैंने काम किया वहां कुछ नियम थे जो मुझे अच्छे नहीं लगते थे। अब मुझे थोड़ा पब्लिकेशन की जानकारी मिल गई थी। तब मैंने सोचा क्यूं ना मेरा खुद का पब्लिकेशन चालू करूं? मैंने पब्लिकेशन खोला और उसका नाम मेरे मिशन SGSH पब्लिकेशन रखा। मुझे लगता था की इससे मेरा मिशन जल्दी आगे बढ़ेगा।

अब मैं एक बिजनेस की मालकिन बन चुकी थी। जहां से कुछ पैसे भी आ रहे थे। कुछ ही महीनों में, बहुत कम समय में मेरा पब्लिकेशन सारे लेखकों की खुशी बन गया था। जो हमारे ऑथर नहीं थे वो भी हमारी सराहना करते थे। गूगल, इंस्टाग्राम, हर सोशल मीडिया में SGSH पब्लिकेशन काफी अच्छा कर रहा था। लेकिन….

वो कहते है ना जब आप ऊपर चढ़ने वाले होते है तब आपका गिरना तो बनता है। और तब मुझे पता चला की मेरा एसजीएसएच मिशन अब बिज़नेस बन गया था। मेरा काम, नाम, समय सब अब बिज़नेस में लग गया था। और कई लोग इस चीज का फायदा उठाते थे। जब मैंने देखा एसजीएसएच मिशन अब बिज़नेस हो गया है और उसका लोग फायदा उठा रहे तब मैंने सोच लिया भले, अब तक कितनी भी मेहनत करी लेकिन अगर अभी नहीं बदला तो आगे मैं कभी चैन से नहीं रह पाऊंगी। इसलिए मैंने एसजीएसएच पब्लिकेशन से किताब राइटिंग पब्लिकेशन किया। मेरे लिए पब्लिकेशन का नाम बदलना आसान नहीं था लेकिन फिर भी मैंने बदला। कुछ महीनों तो थोड़ा अजीब लगा लेकिन एक बार की खुशी थी की अब मेरा मिशन और बिजनेस दोनों अलग था। वैसे तो किताब राइटिंग पब्लिकेशन भी काफी कम समय में बहुत अच्छा करने लगा और आज हमारे 99.99% लेखक खुश है। यही हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है।

लेकिन पब्लिकेशन चलाना भी मेरे लिए आसान नहीं होता है, कई बार बंद करने का मन होता है और आज भी मेरा गुस्सा कुछ हद तक बचा है। जो कई बार मेरा काम बिगाड़ता है। लेकिन फिर भी सारे खुश है और सबसे ज्यादा खुश और संतुष्ट मैं हूं। आज कई लोग मुझसे सलाह लेते है और मुझे अपनी प्रेरणा मानते है।

अब तक आपने देखा होगा आत्महत्या से लेखक से संस्थापक बनने की कहानी। भले ही आज मेरा गुस्सा मेरी कमजोरी है लेकिन मेरा मिशन वो कमजोरी से बड़ा है। इसलिए मैं हमेशा एक बात बोलती हूं की आपका एक अच्छा विचार आपकी पूरी जिंदगी बदल सकता है। मेरा सिर्फ एक अच्छा विचार अच्छाई और खुशियाँ फैलाना है। उसने मेरी पूरी जिंदगी बदल दी। पहले मैं जिंदगी काट रही थी और आज मैं जिंदगी जी रही हूं।

 यह कहानी कोई काल्पनिक नहीं है। जिससे किसीको थोड़ी देर का मोटिवेशन मिले, यह मेरी जीवनी है।

– सुश्री दिव्या त्रिवेदी 

संस्थापिका किताब राइटिंग पब्लिकेशन्स

संपर्क : 5C, 507 Navin Shankrman Shibir, Magathane, Borivali East, Mumbai, Maharashtra 400066.

Mob.  075069 94878

Email – [email protected] 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 271 ⇒ उगते सूरज को प्रणाम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उगते सूरज को प्रणाम।)

?अभी अभी # 271 ⇒ उगते सूरज को प्रणाम… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

उगते सूरज को प्रणाम करना तो हमारी सनातन परंपरा है, इसमें ऐसा नया क्या है, जो आप हमें बताने जा रहे हो। नया तो कुछ नहीं, बस हमारा सूरज भी राजनीति का शिकार हो चला है, वो क्या है, हां, मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं, यूं जा रहे हैं, जैसे हमें जानते नहीं।

जब प्रणाम का स्थान दुआ सलाम ले ले, तो लोग उगते सूरज को भी सलाम करने लगते हैं। खुदगर्जी और स्वार्थ तो खैर, इंसान में कूट कूटकर भरा ही है, लेकिन जो इंसान भगवान के सामने भी मत्था बिना स्वार्थ और मतलब के नहीं टेकता, वही इंसान, जब जेठ की दुपहरी में सूरज सर पर चढ़ जाता है, तो छाता तान लेता है और जब ठंड आती है तो उसी सूरज के आगे ठिठुरता हुआ गिड़गिड़ाने लगता है।।

वैसे हमारा विज्ञान तो यह भी कहता है कि सूरज कभी डूबता ही नहीं है, लेकिन हम कुएं के मेंढक उसी को सूरज मानते हैं, जो रोज सुबह खिड़की से हमें नजर आए। हमारे दिमाग की खिड़की जब तक बंद रहेगी, हमारा सूरज कभी खिड़की से हमारे असली घर अर्थात् अंतर्मन में ना तो प्रवेश कर पाएगा और ना ही हमारे जीवन को आलोकित कर पाएगा।

हमारी संस्कृति तो सूर्य और चंद्र में भी भेद नहीं करती। जो ऊष्मा सूरज की रश्मियों में है, वही ठंडक चंद्रमा की कलाओं में है। पूर्ण चंद्र अगर हमारे लिए पूर्णिमा का पावन दिन है तो अर्ध चंद्र तो हमारे आशुतोष भगवान शंकर के मस्तक पर विराजमान है।।

सूरज से अगर हमारा अस्तित्व है, तो चंद्रमा तो हमारे मन में विराजमान है। हमारे मन की चंचलता ही बाहर भी किसी चंद्रमुखी को ही तलाशती रहती है और अगर कोई सूर्यमुखी, ज्वालामुखी निकल गई, तो दूर से ही सलाम बेहतर है।

राजनीति के आकाश में सबके अपने अपने सूरज हैं। यानी उनका सूरज, वह असली शाश्वत सूरज नहीं, राजनीति के आकाश में पतंग की तरह उड़ता हुआ सूरज हुआ। किसी का सूरज पतंग की तरह उड़ रहा है, तो किसी का कट रहा है। अब आप चाहें तो उसे उगता हुआ सूरज कहें, अथवा उड़ता हुआ सूरज। किसी दूसरे सूरज की डोर अगर मजबूत हुई, तो समझो अपना सूरज समंदर में डूबा।।

एक समझदार नेता वही जो अपनी बागडोर उगते हुए और आसमान में उड़ते हुए सूरज के हाथों सौंप दे। मत भूलिए, अगर आप ज्योतिरादित्य हैं तो वह आदित्य है। एक समझदार नेता भी समझ गए, हार से उपहार भला।

जब समोसे में आलू नहीं बचे, तो पकौड़ों की दुकान खोलना ही बेहतर है। वैसे भी एक समझदार नेता डूबते इंडिया के सूरज को भी अर्ध्य देना नहीं भूलते। स्टार्ट अप प्रोग्राम फ्रॉम … । उगते सूरज को सलाम कीजिए, और राजनीति के आकाश में शान से अपनी पतंग उड़ाइए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 99 ☆ गीत ☆ ।। माता पिता सु सम्मान की हर तदबीर बेटी से है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 99 ☆

☆ गीत ☆ ।। माता पिता सु सम्मान की हर तदबीर बेटी से है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

मां बाप के सुख की होती लकीर बेटी है।

मात पिता सम्मान की तकदीर बेटी से है।।

[2]

जिसके आंगन बेटी वहां पड़ी प्रभु छाया है।

रौनक बसती उस घर जहां बेटी का साया है।।

प्रेम स्नेह विश्वास की होती   नजीर बेटी है।

मां बाप के सुख की होती   लकीर बेटी है।।

[3]

परिवार के दुःख दर्द में पहले रोती बेटी है।

भाइयों के लिए त्याग में पहले होती बेटी है।।

माता पिता खुश रखने की तरकीब बेटी है।

मां बाप के सुख की होती लकीर बेटी है।।

[4]

दो परिवारों को एक सूत्र में बांधती बेटी है।

दोनों घरों का ही सुख दुःख बांटती बेटी है।।

मां बाप लिए कोशिश भी होकर फकीर बेटी है।

मां बाप के सुख की होती   लकीर बेटी है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 162 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “क्रोध…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “क्रोध। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “क्रोध” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

क्रोध न हल देता झगड़ों का क्रोध सदा ही आग लगाता।

जहाँ उपजता उसके संग ही सारा ही परिवेश जलाता ॥

 *

मन अशांत कर देता सबका कभी न बिगड़ी बात बनाता ।

जो चुप रहकर सह लेता सब उसको भी लड़ने भड़काता ॥

 *

हल मिलते हैं चर्चाओं से आपस की सच्ची बातों से।

रोग दवा से ही जाते हैं हों कैसे भी आघातों से ॥

प्रेमभाव या भाईचारा आपस में विश्वास जगाता।

वही सही बातों के द्वारा सब उलझे झगड़े निपटाता ॥

 *

इससे क्रोध त्याग आपस का खोजो तुम हल का कोई साधन

जिससे आपस का विरोध-मतभेद मिटे विकास अनुशासन ॥

 *

काम करो ऐसा कुछ जिससे हित हो सबका आये खुशियाँ।

कहीं निरर्थक भेद बढ़े न रहे न दुखी कभी भी दुखियाँ ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ एक घरटे… ☆ सौ.वनिता संभाजी जांगळे ☆

सौ.वनिता संभाजी जांगळे

?  कवितेचा उत्सव ?

एक घरटे… ☆ सौ. वनिता संभाजी जांगळे ☆

धुक्यातून उधळत येती

रंग सोनेरी पिवळे

पानाआडून जागती

फांदीवरी एक घरटे

*

हळूच उघडत जाती

चिमुकले लुकलुक डोळे

इवल्याशा चोचित येती

मधूर किलबिल गाणे

*

सुर धरून गाऊ लागती

छेडीत सुरांचे तराणे

हळूच डोकावत येती

रवीकराची नाजूक किरणे

*

घरट्याच्या दाराशी होती

पंखांचे हळूच फडफडणे

दूर पक्षिणी उडून जाती

चोचित आणण्या दाणे

*

किलबिल गुंजू लागती

इवल्याशा जीवाचे रडणे

बळ अजून पंखात नसती

नसे ते आईमागुन धावणे

© सौ.वनिता संभाजी जांगळे

जांभुळवाडी-पेठ, ता. – वाळवा, जिल्हा – सांगली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “सकल उलट चालले….” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

🌸 विविधा 🌸

☆ “सकल उलट चालले…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

सुमारे पन्नासेक वर्षांपूर्वी एक व्यंगचित्र मालिका दिवाळी अंकात आली होती. त्यातील कल्पना होत्या  श्री पु ल देशपांडे यांच्या आणि ती चित्रे रेखाटली होती व्यंगचित्रकार श्री. मंगेश तेंडुलकर यांनी आणि त्याचे शीर्षक होते,

‘सकल उलट चालले’

आज ते शीर्षकच आठवतंय. कारण आज समाजाच्या परिस्थितीत मला समाजाचा उलटा प्रवास दिसतो आहे.

आमच्या प्राथमिक शाळेत आम्हाला एक धडा होता त्याचं नाव होतं ‘गर्वाचे घर खाली’. त्याकाळी गर्व हा एक दुर्गुण समजला जात असे. त्या धड्यात मारुतीने भीमाचे गर्वहरण कसे केले याची कथा होती. थोडक्यात काय तर गर्व हा दुर्गुण समजला जात असे. आज मात्र सर्व प्रसार माध्यमे आणि सगळ्या ठिकाणी प्रत्येक जणच ‘मी अमुक-तमुक असल्याचा मला गर्व आहे’ असे बोलत असतो.  दुर्गुणाला सद्गुण ठरवण्याचा आजचा काळ. म्हणूनच असे म्हणावेसे वाटते

‘सकल उलट चालले’

जरा मोठे झाल्यावर आमच्या हायस्कूलमध्ये काही गडबडगुंडा करणारी मुले, त्यांनी काही चुकीचे कृत्य केल्यास आमचे शिक्षक म्हणायचे “का रे,  माज चढला का तुला? दोन छड्या मारून तुझा सगळा माज उतरवून टाकेन”.  म्हणजे  माज हा शब्द दुर्गुण समजला जात असे.  विशेषत: हा शब्द जनावरांसाठी वापरला जात असल्याने, माणसाला पशूच्या जागी कल्पून हे दुर्गुणात्मक विशेषण लावले जात असे.  परंतु आज कित्येक जण स्वतःचा उल्लेख करताना सुद्धा “मला अमुक-तमुक असल्याचा गर्वच नाही तर माज आहे”  असा उल्लेख अभिमानाने करतात म्हणूनच असे म्हणावेसे वाटते

‘सकल उलट चालले’

भाषे मधले अनेक गलिच्छ शब्द पूर्वी असभ्य समजले जायचे. परंतु सर्व असभ्य समजले जाणारे अनेक शब्द आज सर्रास प्रसिद्धी माध्यमांवर मोठमोठ्या सुशिक्षित सुजाण म्हणवल्या जाणाऱ्या व्यक्तींच्या तोंडी दिसतात. त्याच प्रमाणे अनेक प्रकारच्या सोशल मीडियावर विविध मजकूर पाहणारे लोक त्यांना न आवडणाऱ्या मजकुरावर अत्यंत गलिच्छ आणि अश्लील समजल्या जाणाऱ्या भाषेमध्ये स्वतःच्या कॉमेंट करताना आढळतात.  याला ट्रोलिंग करणे असे म्हणतात, असे म्हणे ! काही का असेना परंतु आमच्या काळी चार चौघात उच्चारणे जे असभ्य समजले जायचे तसे आता समजले जात नाही.  ही समाजाची प्रगती ही पीछेहाट की दुर्दैव ?

आज आपण पाहतो आहोत आणि चर्चिलेही जाते की राजकारणाचे गुन्हेगारीकरण होत चालले आहे.  परंतु समाजातील विविध प्रकारचे नेते म्हणून समजले जाणारे, त्याच प्रमाणे उद्याचे नेते म्हणून उल्लेख केले जाणारे किंवा गल्लोगल्ली नेत्यांच्या पोस्टरवर त्यांचे कार्यकर्ते म्हणून ज्यांचे फोटो मिरवले जातात, अशांची व्यवहारातली भाषा पाहिल्यास, आमच्या वेळी असभ्य शिवराळ समजली जाणारी भाषा सध्या सर्रास अनेकांच्या तोंडी दिसून येते. त्यामुळे हा समाजाचा प्रवास सभ्यते कडून असभ्यतेकडे चालला आहे असे म्हणावेसे वाटते.

एकूणच संपूर्ण समाजाचेच गुन्हेगारीकरण चालू आहे काय ?  असे विचारावेसे वाटते.

किंबहुना भाषेचेही गुन्हेगारीकरण चालू आहे काय?  सर्वसामान्य माणसाच्या तोंडी गुन्हेगारांची भाषा ऐकू येते काय?  अशी शंका घ्यायला जागा आहे.

हे समाजाचे स्वरूप असेच बिघडत जाणार आहे काय ?

मग सुप्रसिद्ध कवी कै नामदेव ढसाळ यांच्या ‘माणसाचे गाणे गावे माणसाने’ या कवितेचा पूर्वार्ध सतत डोक्यामध्ये रुंजी घालायला लागतो. कै नामदेव ढसाळ यांच्या द्रष्टेपणाला सलाम करावा वाटतो.

अर्थात त्यानंतर त्यांच्या कवितेचा उत्तरार्धही खरा ठरावा असे मनापासून वाटते.  मग आम्ही म्हणतो की नंतर तरी  माणसे गुन्हेगारी सोडून माणसाचेच गाणे गातील काय ?

आमच्या जिवंतपणी तरी ही वेळ येईल असे दृष्टीपथात येत नाही.  परंतु आमची मुले-नातवंडे तरी माणुसकीने वागवली जातील काय हाच प्रश्न मनाला कुरतडत असतो.

©  श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

Email: [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “अतिशहाणा…” ☆ श्री मंगेश मधुकर ☆

श्री मंगेश मधुकर

🔆 जीवनरंग 🔆

☆ “अतिशहाणा…” ☆ श्री मंगेश मधुकर 

नेहमीप्रमाणे कंपनीत राऊंड मारताना डीकेना काही ठिकाणी कॉम्प्युटर आणि स्टाफच्या बसण्याची जागा बदलल्याचं लक्षात आलं. 

“हे कोणी करायला संगितलं”

“संकेत सरांनी !!”सुप्रीटेंडेंटने  उत्तर दिलं.

“मॅनेजर कोणयं ?”

“तुम्ही !!”

“मग हे बदलायच्या आधी विचारलं का नाही ? ”

“जे सांगितलं ते करावं लागतं. दोघंही साहेबच.”

“मला भेटायला सांगायचं”

“मी त्यांना बोललो पण गरज नाही असं म्हणाले.” .. हे ऐकून डी के भडकले.वादावादी सुरू झाली. 

“सर,रागावणार नसाल तर एक बोलू ? ”

“बोल. ” 

“इतके वर्षे सोबत काम करतोय.आपल्यातही वाद झालाय. पण गेल्या काही दिवसांपासून कंपनीत सतत काही ना काही कटकटी चालूयेत..  कारण तुम्हाला चांगलंच माहितीयं.” 

“आलं लक्षात.काय करायचं ते. बघतो. परत जसं होतं तसं ठेव आणि कोणीही सांगितलं तरी मला विचारल्याशिवाय काहीही करू नकोस.”

—-

या घटनेनंतर संकेत डी के विरुद्ध जास्तच आक्रमक झाला.मुद्दाम त्रास होईल असं वागायला लागला.हवं तेच करण्याच्या हटवादीपणामुळे संकेतचं कोणाशीच पटत नव्हतं.मोठे साहेब सोडले तर इतरांना तो किंमत द्यायचा नाही.त्यावरून वाद झाले. संकेतविरुद्ध अनेकांनी तक्रारी केल्या परंतु केवळ कामातला उत्तम परफॉर्मन्स आणि  कंपनीचा होणारा फायदा त्यामुळं सिनियर्सनी दुर्लक्ष केलं.सांभाळून घेतलं,कायम झुकतं माप दिलं परंतु हळूहळू कुरबुरी वाढून त्याचा कामावर परिणाम व्हायला लागला.शेवटी मोठया साहेबांना लक्ष द्यावं लागलं. साहेबांच्या केबिनमध्ये डी के आणि संकेत समोरासमोर बसले होते.

“दोघंही हुशार,मेहनती आहात. एकत्र काम केलंत तर कंपनीसाठी फायद्याचं आहे.”

“मी नेहमीच बेस्ट काम करतो. बाकीच्यांचं माहीत नाही” संकेतनं पुन्हा स्वतःची टिमकी वाजवली.तेव्हा वैतागून डीके म्हणाले “सर,काहीतरी करा.आता पाणी डोक्यावरून जातंय.तुम्ही सांगितलं म्हणून गप्प बसलो पण दिवसेंदिवस काम करणं अवघड झालयं.याचं वागणं सहन करण्यापलीकडं गेलयं. सगळ्याच गोष्टीत नाक खुपसतो.दुसऱ्यांच्या कामात लुडबूड करून विचार न करता परस्पर निर्णय घेतो.कंपनीच्या दृष्टीनं हे चांगलं नाही.यापुढं मला सांगितल्याशिवाय कोणताही निर्णय घायचा नाही हे फायनल.”

“मी जे काही करतो ते कंपनीच्या भल्यासाठीच आणि मला असले फालतू प्रोटोकॉल फॉलो करायला जमणार नाही.”संकेत उद्धटपणे म्हणाला.

“फालतू?विल शो यू माय पॉवर”डी के भडकले.

“आय डोन्ट केअर.जे वाटतं ते मी करणारच.हू आर यू”संकेत. 

“संकेत,बिहेव युअरसेल्फ,से सॉरी तो हिम.”मोठे साहेब चिडले पण संकेतनं ऐकलं नाही.

“सर,आपल्या इथं टीम वर्क  आहे.हा टीममध्ये फिट नाही.  आता यावर जास्त काही बोलत नाही.तुम्ही योग्य तो निर्णय घ्याल याची खात्री आहे.एक सांगतो,इतके दिवस दुर्लक्ष केलं पण आता लिमिट क्रॉस झालीय.”एवढं बोलून डी के बाहेर गेले तेव्हा संकेत छदमीपणे हसला.

“संकेत,धिस इज नॉट गुड. बी प्रोफेशनल”

“सर,मी काहीच चुकीचं केलं नाही.”

“असं तुला वाटतं पण कंपनीचे काही नियम तुला पाळावेच लागतील.अडजेसटमेंट करावी लागेल.दरवेळेला “मी” मह्त्वाचा नसतो.प्रसंगानुसार तो बाजूला ठेवावाच लागतो.तडजोड करावी लागतेच ”

“पण सर,माझ्यामुळे कंपनीचा फायदाच होतोय ना मग मी कशाला तडजोड करू. आतापर्यंत मी कधीच चुकलेलो नाही.”

“पुन्हा तेच.जरा हा ‘मी’पणा कमी करून दुसऱ्यांचंसुद्धा ऐकायला शिक.”साहेबांच्या स्पष्ट बोलण्याचा संकेतला फार राग आला पण गप्प बसला.  

“हुशार,बुद्धिमान,धाडसी आहेस.पंचवीशीतचं मोठं यश मिळवून इतरांच्या तुलनेत पुढे गेलास.कामातल्या स्किल्समुळं सांभाळून घेतलं,वागण्याकडं दुर्लक्ष केलं.परंतु…..”

“माझी योग्यता फार मोठी आहे.इथल्या कोणाशीच बरोबरी होऊ शकत नाही.मी फार मोठा होणार असं सगळेच म्हणतात.”संकेतची आत्मप्रौढी सुरूच होती. 

“नेहमी कामाचं कौतुक होतं त्याच गोष्टीचा तुला अहंकार झालाय.कौतुकाची इतकी चटक लागलीय की थोडंसुद्धा मनाविरुद्ध बोललेलं सहन होत नाही.“आपण करतो ते बरोबर,तेच बेस्ट”या भ्रमानं  आत्मकेंद्री बनलायेस.”साहेबांनी पुन्हा समजावण्याचा प्रयत्न केला पण संकेतनं ऐकलं नाही उलट जास्तच हेकेखोर झाला.शेवटी नाईलाजानं साहेबांनी निर्णय घेतला.फायनल वॉर्निंग दिली. संकेतच्या ईगोला फार मोठा धक्का बसला.प्रचंड अस्वस्थ झाला.अपमानाने राग अनावर झाला त्याच तिरमिरीत कसलाही विचार न करता रिजाईन केलं.हे अपेक्षित असल्यानं साहेबांनी ताबडतोब राजीनामा मंजूर केला.संकेतला रिलीव्ह लेटर दिलं.तीन वर्ष काम करत असलेल्या नोकरीला एका फटक्यात लाथ मारली या आनंदात संकेतला नोकरी गेल्या विषयी वाईट वाटलं नाही.

लगेच दुसरी नोकरी मिळाली पण तिथंही पुन्हा तेच झालं. वागणुकीमुळे कंपनीनं बाहेरचा रस्ता दाखवला तरीही संकेतची धुंदी उतरली नाही.स्वतःला बदलण्याऐवजी इतरांना दोष देत तो नोकऱ्या बदलत राहिला.विचित्र स्वभावामुळं लोक टाळू लागले.मित्र मंडळी लांब झाली.संकेत एकटा पडला.

फक्त बाहेरच नाही तर घरीसुद्धा संकेत मग्रूरीत वागायचा. त्यामुळं घरात सतत अशांतता.रोजची वादावादी. शेवटी त्याच्या एककल्ली वागण्याला कंटाळलेल्या बायकोनं घटस्फोट घेतला.

सर्व काही उत्तम असूनही केवळ आडमुठेपणामुळं एकाकी पडलेल्या संकेतचं आयुष्य भरकटलं.दिशाहीन झालं.

असे स्वप्रेमात अडकलेले अनेक संकेत आपल्या आजूबाजूला आहेत जे कधीच तडजोड करायला राजी नसतात. हेकेखोरपणे आपलं तेच खरं करण्याच्या नादात जबर किंमत मोजतात,  पण ‘अहं’ सोडत नाहीत .स्वतःची फरपट करतातच आणि जिवलगांची सुद्धा…..

थोडा लवचिकपणा स्वभावात आणला तर अनेक प्रश्न निर्माणच होत नाही.

अतिशहाण्यांना एवढं साधं शहाणपण नसतं हे मात्र खरं.

© श्री मंगेश मधुकर

मो. 98228 50034

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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