English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 64 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 64 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 64) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 64 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सियासतों की तरह है

मोहब्बतों का मिजाज,

जिसे भी सौंपी हुकूमत

बस उसी ने लूट लिया….

 

The temperament of love

is just like politics only

Whomever we hand over

the rule he only robs us!

  ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

इतनी सी है बस असलियत इन

हमेशा हँसते मुसकुराते लोगों की

बस ज़रा सा ज़ोर से गले लगाओ

तो बस दिल खोलकर रो देते हैं….!

 

This much only is the reality

of these always-smiling people ….

Just a little tight hug, and

Lo! They open their heart to cry ….

  ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अब तुम हमें समझाया न करो

कि अब जो हुआ सो हुआ,

अगर मोहब्बत मशवरा होती

तो हम भी पूछ कर करते…

 

Now don’t explain it to me that

what’s happened has happened,

If love was done with consultation

I’d have also done it by asking you….

  ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अहमियत यहाँ सिर्फ

हैसियत को मिलती है,

और हम हैं कि अपने

जज़्बात लिए फिरते हैं …..

 

Importance is accorded

only to the status here

And here I’m just wandering

around with the emotions ….!

  ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा – कहानी ☆ रद्दीवाला ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय कहानी  रद्दीवाला। )

☆ कथा – कहानी ☆ !! ” रद्दीवाला ” !! ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

यह उसका नाम भी था और काम भी। काॅलोनी- दर -काॅलोनी , अपनी चार चक्कों की गाड़ी , जिस पर एक तराजू व एक थैला लिए -वह कबाड़ी ” ,रद्दी..,-पुराना.,.सामान..रद्दी..” की आवाज लगाता घूमता  रहता । अक्सर महिलाएं या कुछ महिला जैसे पुरुष इन्हे बुलाकर घर के पुराने  अखबार या कभी-कभी कोई टूटा-फूटा भंगार मोल-भाव कर बेच देते। इनकी शक्ल, हालात व इनकी करतूतों की वजह से इन्हें हर कोई चोर-उचक्का,उठाईगिरा समझ हेय दृष्टि से देखता हैं। छ: किलो की रद्दी चार किलो में तोलना इनका बायें हाथ का काम है। अगर गृहणी खुद भी तोल कर दे तो भी एका-ध किलो मार लेना इनका दायें हाथ का काम होता है।कभी-कभार एका-ध छोटा-मोटा सामान उठा लेना,बस पेट के लिए इतनी भर बेईमानी करते हैं । रद्दी के पैसे मिल जाने के बाद भी, जब तक वह गेट से बाहर नहीं जाता, उसे श॔कित नजरों से देखा जाता है। कुल मिलाकर वह इस बात का प्रमाण है कि उपेक्षित होने पर सिर्फ अखबार ही नहीं आदमी भी रद्दी हो जाता है।

उस दिन पत्नी रद्दीवाले को रद्दी दे रही थी, जैसे ही मै पहुँचा, उसने कहा-” मै बाहर जा,रही हूँ ,  इससे तीस रूपये ले लेना । ” कह वह चली गई।

मैंने पहली बार उसे गौर से देखा। रद्दीवाला मुझ जैसा ही आदमी दिखाई पड़ा । पसीने से लथपथ वह जेब से पैसे निकाल रहा था, मैंने कहा-” कोई जल्दी नहीं,  आराम से देना,  थोड़ा सुस्ता लो। ” वह कमीज से पसीना पोंछने लगा। ” पानी पीओगे ? ” मेरे पूछने पर उसने गर्दन से हाँ कहा।

मेरे पानी देने पर , पानी पीकर उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से गिलास वापिस करते हुए कहा- ” शुक्रिया “

“अरे, पानी के लिए कैसा शुक्रिया ?  “

“पानी के लिए नहीं साब! आज तक माँगने पर पानी मिला है, पहिली बार कोई पूछकर पिला रहा है । “

 मुझे उसका ऐसा बोलना अच्छा  लगा। पुराने ही सही,  बरसों अखबार व किताबों को छू-छूकर शायद वह कुछ पढ़ा-लिखा हो गया था। फिर उर्दू जुबान ही ऐसी है कि बेपढ़ा भी बोले तो उसके बोलने में एक शऊर आ जाता है। मैं  उससे बतियाने लगा। उसकी जिन्दगी उसकी जुबान तक आ गई।

“इन दिनो हालत बड़े खस्ता है साब। कम्पीटशन बढ़ गई है। जबसे टीवी आया लोग अखबार जरूरत से नहीं, सिर्फ आदतन खरीदते हैं। रिसाले महँगे हो गए। रद्दी कम हो गई तो मोल-भाव ज्यादा हो गया। रद्दी खरीदते हम जान जाते हैं,कि ये अमीर है या गरीब। कंजूस है या दिलदार। शक्की है, झिकझिक वाला  है , या सीधा-साधा। हम सबको जानते है पर लोग हमें हिकारत  देखते हैं। पहले जैसा मजा नहीं रहा धन्धे में। “दो पल अपनी विवशता को अनदेखा कर, आंँखों  में एक चमक भरते बोला-” फिर भी जैसे-तैसै गुजारा हो ही जाता है। और फिर कभी-कभी जब आप और उस दो माले जैसे दिलदार, शानदार, शायर नुमा, साहब, आदमी मिल जाते हैं , तो लगता है ज़िन्दगी सुहानी हो गई। इसमेँ जीया जा सकता है।”

“दो माले जैसे….? ” मेरे पूछने पर उसने बताया, तब मैं समझा। हुआ यूँ कि….,

रद्दीवाला जब ” रद्दी…रद्दी…” की आवाज लगा रहा था, तो उस दो माले के शख्स ने उसे ऊपर बुलाया। वह अपना तराजू और थैला लेकर   ऊपर गया। कमरे में कुछ अखबार और रिसाले इधर-उधर बिखरे पड़े थे। ” ये सब उठा लो ” सुनते ही उसने रद्दी जमा की। तौलने के लिए तराजू निकालने लगा की…,  ” तौलने की जरुरत नहीं, ऐसे ही ले जा। ‘  सुनकर वह तेजी से रद्दी थैले में भरने लगा। आज कुछ ज्यादा कमाने की खुशी में वह पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाल ही रहा था कि….”  रहने दे। पैसे मत दे। ऐसे ही ले जा। “

बिना तौले तो इसके पहले भी उसने रद्दी खरीदी थी, पर आज तो मुफ्त में…, आश्चर्य और प्रसन्नता  है उसने उसकी और देखा। वह मुस्कराते हुए बुदबुदा रहा था;- ” मैंने कौन-सा स्साला पैसे देकर खरीदी है ? शायर बनने में और कुछ मिले न मिले, पर मुफ्त के कुछ रिसाले जरूर घर आ जाते हैं।”  रद्दीवाला आँखों से शुक्रिया कहते और हाथों से सलाम करता हुआ सीढियाँ उतरने लगा। उतरने क्या, सीढियाँ दौड़ने लगा। बीस-पच्चीस की मुफ्त की कमाई जो हो चुकी थी । उसने गाड़ी पर थैला रखा, एक पल फिर से दो माले की ओर देखा, जहाँ उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा,  साहब आदमी रहता है। दो माले को सलाम करते हाथों से गाड़ी ढकेलने लगा।

अब जब भी वह दो माले से गुजरता उसकी “रद्दी- रद्दी” की आवाज तेज हो जाती। दो-एक महीने में जब भी दो माले से आवाज आती, वह लपककर, उछलता-सा सीढ़ियाँ चढ़ता, बिना तोले, बिना पैसे दिए, मुफ्त की रद्दी लेकर शुक्रिया व सलाम करते सीढ़ियाँ उतरता, गाड़ी पर थैला रखता, दो माले को देखता और सलाम करता गाड़ी ढकेलने लगता।

आज भी सब कुछ वैसा ही हुआ। लेकिन जैसे ही वह सलाम करते सीढ़ियाँ उतर ही रहा था कि उसे एक तल्ख व तेज आवाज सुनाई पड़ी ,” -ऐ… जाता कहाँ..?… पैसे…?” 

वह चौंककर, हतप्रभ, हक्का बक्का-सा उस बेबस आँखों और फैली हुई हथेली को देखता भर रहा । उसमेँ इतनी भी हिम्मत नहीं रही कि वो अपनी सफाई में इतना भी कह सके कि ” साब आपने इसके पहले कभी पैसे नहीं लिए इसलिए….- । ”  उसने चुपचाप जेब में हाथ डाले और बीस का एक नोट उसकी फैली हुई हथेली पर रख दिया। सलाम करता वह सीढ़ियों से ऐसे उतर रहा था मानो पहाड़ चढ़ रहा हो। दो किलो का बोझ चालीस किलो का लगने लगा। वह भरे मन और भरे क़दमों से एक-एक पग बढ़ाता हुआ अपनी गाड़ी तक आया। थैला रखा।आदतन, उसने दो माले की ओर देखा। सलाम किया। गाड़ी सरकाया।  फिर रुक गया। उसे वो तल्ख व तेज आवाज़ ” ऐ…, जाता कहाँ…?… पैसे…?”  अब भी सुनाई दे रही थी। बेबस आँखें और फैली हुई हथेली अब भी दिखाई दे रही थी। उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से पुनः दो माले को देखा।और सलाम करता हुआ बेमन से गाड़ी ढकेलने लगा।

इसलिए नहीं, कि आज उसे मुफ्त की रद्दी नहीं मिली। उसे बीस रुपए देने पड़े। यह तो उसका रोज का धन्धा है। बल्कि इसलिए कि आज उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा, साहब आदमी गरीब हो गया था।

 

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 64 ☆ शिव के मन मांहि बसी गौरा ……. ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भावप्रवण कविता  ‘शिव के मन मांहि बसी गौरा ……. ’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 64 ☆ 

☆ शिव के मन मांहि बसी गौरा ……. ☆ 

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

.

भाँग भवानी कूट-छान के

मिला दूध में हँस घोला

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

पेड़ा गटकें, सुना कबीरा

चिलम-धतूरा धर झोला

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

.

भसम-गुलाल मलन को मचलें

डगमग डगमग दिल डोला

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

.

आग लगाये टेसू मन में

झुलस रहे चुप बम भोला

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

.

विरह-आग पे पिचकारी की

पड़ी धार, बुझ गै शोला

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #94 ☆ इंसान चुप क्यूँ है ? ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #94 ☆ # इंसान चुप क्यूँ है ?# ☆

इंसान चुप क्यूँ है ?

आज इंसानियत से इंसान,

इतना दूर क्यूँ है?

 दया धर्म की बातें करता है,

फिर इतना मगरूर क्यूँ है?

आज इस वतन की फिज़ाओं में,

ज़हर घुला क्यूँ है?

इस चमन को,

आज माली से गिला क्यूँ है?  

 

ये सब आपसी ,

झगड़े क्यूँ है?

हिन्दू मुस्लिम आपस में,

लड़े क्यूँ है?

इंसानियत में क्यूँ,

चीख़ें है इंसानों की?

उनके भीतर बारूदो का धुआं क्यूँ है?

चलते चलते इंसानों के कदम ठिठके है,

ख़ुदा भगवानों के दर पे पहरा क्यूँ है?

 

क्या भगवान भी डरता है

अब इंसानों से,

नां जाने आज वो सहमा क्यूँ है?

बताओ आज भीड़ में लाशें क्यूँ है,

इंसानी लहू बहता है सड़कों पर,

उसकी मौत पर तमाशे क्यूँ है?

बड़े गहरे हैं दाग दामन के,

सभी कुछ देख कर इंसान चुप रहता क्यूँ है?

 

अपने मतलब की खातिर,

वो इन्सान से हैवान बना।

इंसानियत  छोड़ कर,

इंसान से शैतान बना।

अपने फर्ज भूल कर,

वो राजनीति करता है।

गुनाह करते वो

मालिक से न डरता है।

वो कौम परस्त बन कर

वतनपरस्ती भूल बैठा है।

वो इबादतें करता नहीं

अब मादरेवतन की।

मजहबी आड़ ले गुनाह वो कर बैठा हैं,

इंसानियत की सीख भूल बैठा है।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

23-10-2021

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (51-55) ॥ ☆

 

 

औं गिरि-गोवर्धन की कंदराओ में वर्षा सिंचित सुगंधवाली

शिलाओं पै बैठ मयूर नर्तन मधुर मनोरम विलोको आली ॥ 51॥

 

पहाड़ को लांघ सगर्त सरिता है बढ़ती जैसे जलधि को पाने

तथैवं उस नृप से आगे इन्दु बढ़ी चरम अपना लक्ष्य पाने ॥ 52॥

 

केयूर भुज श्शत्रुविनाशकर्ता, कलिंग नृप तक पहुंचके दासी

वरानना इंदुमती से, हेमांगद के विषय में यह बात भाषी ॥ 53॥

 

महेन्द्र गिरि सा महाबली यह महेन्द्र और सिन्धु का योग्य स्वामी

कि जिसकी यात्राओं में है चलते पहाड़ से गज मद प्रवाही ॥ 54॥

 

अरिराज लक्ष्मी के अंजनाश्रु से सिक्त वनपथ सी धनुर्ज्या से

सुभुज धनुर्धारी अग्रगामी है घात से लांछित हाथ जिसके ॥ 55॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ३१ ऑक्टोबर – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ३१ ऑक्टोबर –  संपादकीय  ?

श्रीकृष्ण अर्जुनवाडकर (31 ऑक्टोबर 1926 ते 30 जुलै 2013 )

*श्रीकृष्ण अर्जुनवाडकर हे व्यासंगी अध्यापक, अभ्यासक, संशोधक होते. संस्कृत आणि अर्धमागधी हे त्यांच्या अभ्यासाचे विषय. त्यांनी मराठी, इंग्रजी आणि सस्कृतमधून लेखन केले.

संस्कृत योग, वेदान्त, उपनिषदे, भगवद्गीता, रससिद्धांत इ. विषयांवर त्यांनी लेखन केले तसेच व्याख्याने दिली. महाराष्ट्र सरकारने पाठ्यपुस्तक निर्मितीची जबाबदारी स्वत:कडे घेतली, त्यापूर्वी त्यांनी, ८वी ,९वी आणि १०वी ची पाठ्यपुस्तके तयार केली. त्यांनी खालील पुस्तके लिहिली. १.मराठी घटना,रचना परंपरा, २. अर्धमागधी घटना आणि रचना ३. अर्धमागधी शालांत प्रदीपिका ४. प्रीत-गौरी-गिरीशम् ( सस्कृत संगीतिका) ५. शास्त्रीय मराठी व्याकरण

संस्कृत भाषा आधुनिक जीवनाच्याजवळ नेण्याचा त्यांनी प्रयत्न केला. इंग्रजी अभिवादनांना त्यांनी समर्पक सोपे शब्द सुचवले. उदा. गुड मॉर्निंग- सुप्रभातम् , गुड डे- सुदिनम्,  स्लीप वेल- सुषुप्त, गुड बाय -स्वस्ति इ॰

त्यांच्या जन्म  दिनानिमित्त त्यांचे संस्मरण.

*आनंदीबाई शिर्के

आनंदीबाई शिर्के या जुन्या काळातल्या, म्हणजे पहिल्या पिढीतल्या लेखिका आणि बालसाहित्यिका. ज्या काळात समाजात स्त्रियांचे शिकणेदेखील मान्य नव्हते, त्या काळात त्यांनी कथा लिहिल्या, आत्मचरित्र लिहिले आणि मुलांसाठीही  कथा लिहिल्या. आपल्या कथांमधून आणि ‘सांजवात’ या आत्मचरित्रातून,  जुन्या काळातील स्त्रीजीवनाचे वास्तव चित्रित केले आहे॰  एकत्र कुटुंब पद्धती, मुलींवर आणि स्त्रियांवर असलेली बंधने, समाजातील रूढी.इ.  गोष्टींचा त्यांनी आपल्या लेखनातून वेध घेतला आहे.

निबंध, कथा, बालसाहित्य, स्त्री साहित्य, अनुवादीत साहित्य (गुजरातीतून), आत्मवृत्त  असे त्यांचे त्या काळाच्या मानाने विपुल लेखन आहे.  

त्यांची बहुविध साहित्य निर्मिती स्त्रियांशी निगडीत आशा सामाजिक समस्यांचे चित्रीकरण करणारी आहे. त्या स्वत: पुरोगामी विचारांच्या होत्या. मराठा समाजातील स्त्रियांची स्थिती, गुजरातमधील सामाजिक वातावरण, जुन्या मराठी भाषेतील शब्द, म्हणींचे वैपुल्य इ. त्यांच्या लेखनाची वैशिष्ट्ये सांगता येतील.

कथाकुंज, कुंजविकास, जुईच्या काळ्या, तृणपुष्पे, गुलाबजांब इ. त्यांचे कथासंग्रह प्रसिद्ध आहेत. मुलांसाठी त्यांनी वाघाची मावशी, कुरूप राजकन्या व तेरावी कळ, आपली थोर माणसे इ. पुस्तके लिहिली. ‘रूपाळी’ ही त्यांची कादंबरी. त्यांच्या सर्व पुस्तकात ‘सांजवात’ हे पुस्तक विशेष गाजले. यातील निवेदन प्रांजल, हृदयस्पर्शी, वाचकाला अंतर्मुख करणारे आहे. हे पुस्तक १९७२ साली  म्हणजे त्यांच्या वयाच्या ८० व्या वर्षी प्रकाशित झाले.  समकालीन लेखकांमध्ये महत्वाच्या लेखिका म्हणून यांचे नाव घेतले जाते. मराठी साहित्य परिषदेतर्फे दरवर्षी उत्तम कथासंग्रहाला दिला जाणारा पुरस्कार ‘आनंदीबाई शिर्के’ या नावाने दिला जातो.

आज त्यांच्या स्मृतीदिंनंनिमित्त त्यांना विनम्र श्रद्धांजली.  

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : – १) कऱ्हाड शिक्षण मंडळ “ साहित्य-साधना दैनंदिनी. २) माहितीस्रोत — इंटरनेट 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पेन्शनचे टेन्शन ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक 

? कवितेचा उत्सव ?

⭐ ? पेन्शनचे टेन्शन ! ? श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

पुण्य नगरीच्या बँकेतली

एक सांगतो तुम्हां गोष्ट,

एका पेक्षा एक पेन्शनर

तेथे राहती सारे खाष्ट !

 

बँकेत शिरतांना बघून

पेन्शनर खडूस साठ्या,

पडती जोशी कॅशरच्या

कपाळी खूप आठ्या !

 

“काय म्हणता साठे,

आज कसे आलात,

गेल्या मासाचे पेन्शन

परवाच घेवून गेलात !”

 

“अरे तेंव्हा बघ विसरलो

शंका ‘मनीची’ विचारायला,

अधिक महिन्याचे पेन्शन

कधी येऊ मी न्यायला ?”

 

ऐकून त्यांचे ते बोलणे

जोश्या मारी कपाळी हात,

या ‘मल’ मासाने माझा

असा करावा ना घात !

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ भाग्य उजळले आज अकल्पित… ☆ श्री सुहास सोहोनी

श्री सुहास सोहोनी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ भाग्य उजळले आज अकल्पित… ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

स्वप्नालाही नव्हते माहित ।

भाग्य उजळले आज अकल्पित ॥

???

कोरांटीच्या झाडावरले —

दुर्लक्षित मी फूल एकले —

पांथस्थाने कुण्या तोडिले —

श्रीहरिचरणी मला वाहिले —

 

चरणस्पर्शे तनु रोमांचित —

सार्थक झाले जीवित संचित —

नकळत अायु झाले पूनित —

भाग्य उजळले अाज अकल्पित ॥

भाग्य उजळले आज अकल्पित ॥॥

???

हीनदीन मी शीळा पार्थिव —

कैक युगांचे जीवन निर्जिव —

अतर्क्य घडले काहि अवास्तव —

लाभे दैवत्वाचे वैभव ॥

 

शिल्पकार कुणि येई धुंडित —

घेउनिया जादूचे हात —

अमूर्तातुनी झाले मूर्त —

अवतरला साक्षात भगवंत —

भाग्य उजळले आज अकल्पित ॥

?️?️?️

वाटसरू कुणि ये मार्गावर —

मूर्त पाहाता जोडुनिया कर —

फूल हातिचे कोरांटीचे —

वाहुनि गेला मम चरणांवर ॥

???

मीच वाटसरु शिल्पकार मी —

कोरांटीचे फूल स्वये मी —

शीळाही अन् मूर्तिही मी —

स्थूलात मी सूक्ष्मात मी ॥

☘️☘️☘️

शुभदिवसाच्या मंगल समयी —

मी तू पणही लयास जाई —

द्वैताचे घडले अद्वैत —

भाग्य उजळले आज अकल्पित ॥

भाग्य उजळले आज अकल्पित ॥॥

???

© श्री सुहास सोहोनी

रत्नागिरी

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ अस्मादिकांच्या पादुका…… ☆ सौ ज्योती विलास जोशी

सौ  ज्योती विलास जोशी

?  विविधा ?

☆ अस्मादिकांच्या पादुका…… ☆ सौ  ज्योती विलास जोशी 

पायातलं वहाण म्हटलं की सिंड्रेलाच्या परिकथेतला तिचा तो एक बूट आठवतो. जिच्या भोवती कथा फिरते. मला प्रकर्षानं आठवते ती ‘द आदर पेअर’ही इजिप्शियन अवॉर्ड विनिंग फिल्म ! अवघ्या चार मिनिटाच्या या फिल्म मध्ये रेल्वेत चढताना एकच बूट पायात राहिलेल्या मुलानं सारासार विचार करून तो बूट प्लॅटफॉर्मवरच्या मुलाकडे भिरकावला जेणेकरून त्याला त्याचा वापर होईल. निरागसतेला केवढ्या उंचीवर नेऊन ठेवणारी ही गोष्ट.

चाळीस लाखाच्या चप्पल्स चोरी करून लक्षाधीश झालेला माटुंग्याचा इब्राहिम सर्वश्रुत आहे.कुलभूषण जाधवला त्याची आई पाकिस्तानात भेटायला गेली तेव्हा सुरक्षेच्या नावाखाली तिच्या आभूषणांसह तिचे चप्पल काढून घेतले.तेव्हा ट्विटरवर ‘चप्पल चोर पाकिस्तान’या# खाली दिवसभर ट्विटर ट्रेंड करत होतं.आपल्या कोल्हापूरी चप्पलनं तर जगात चप्पल ची किंमत वधारून ठेवलीय….

जूते लो पैसे दो म्हणत हम आपके है कौन मध्ये माधुरी थिरकते. लग्नातल्या या विशिष्ट प्रसंगाने चप्पलला केवढा भाव मिळतो. नवऱ्या मुलाने देऊ केलेल्या पैशावरून त्या चप्पलची किंमत ठरते…. ते निराळंच….एकेकाळी ‘पायातली वहाण पायातच’ असं म्हणून स्त्रीला हिणवणारया पुरुष प्रधान संस्कृतीच स्मरण झालं. दुसऱ्याच क्षणी चप्पल जोडीवर फुल ठेवून त्याची पूजा करत आर्चीला विनवणारा सैराट सिनेमातला परशा आठवला.

आताशा प्रत्येक प्रसंगाला प्रत्येक अस्तित्वाला एक दिवस ठरवायची पद्धत आहे. तो त्याच्या अस्तित्वाचा दिन म्हणून साजरा करतात. पंधरा मार्चला नुकताच चप्पल दिन होता. एरवी ‘चपलीनं मारीन’या इतक्या मोठ्या अपमानाचा मूळ असणारी ही चप्पल आजच्या दिवशी इतकी वलयांकित का झाली ? त्याचं रहस्य मला कळलं होतं……..अर्थातच एक नवीन चप्पल जोड खरेदी करून मीही ‘चप्पल डे’ साजरा केला.

आज व्हाट्सअपचं पान हिरवंशार झालं होतं. उघडून पाहते तो प्रत्येक पानावर चप्पल दर्शन घडत होतं. अनाहूतपणे कर जुळू नयेत याची मी काळजी घेत होते.चप्पलचं असणं किती महत्त्वाचं आहे. तिचं असणं हेच तिचं अस्तित्व! अस्तित्व साजरा करण्याच्या दिवसांमध्ये एक दिवस तिचा ही असणारच ना? माझ्याच प्रश्नांचं निरसन माझ्याच अभ्यासातून झालं. उद्या परत कोणाच्या अस्तित्वाचा दिवस असा विचार करत मी झोपी गेले.

नित्य नेमानं सकाळी उठल्याबरोबर मोबाईलचा डाटा ऑन केला आणि पुन्हा हिरवंगार पान मला खुणावू लागले. बुचूबुचू मेसेजेस येऊन पडले होते. प्रामुख्यानं आमच्या मैत्रिणींच्या ग्रुपचं पान अगोदर उघडलं जातं आणि ते आजही उघडलं तर ‘अहो आश्चर्यम’ गुड मॉर्निंग च्या जागी एक चप्पल जोडचा फोटो! ‘टुडे ‘या मथळ्याखाली…..आणि खाली लिहिलेलं…..हे कुणाचं आहे? माझं कुणीतरी घालून गेलं आहे’

सकाळ सकाळी रामाच्या पादुकांच दर्शन व्हावं तसा मी नमस्कार केला. टेक्नॉलॉजीला ही मनोमन दंडवत घातला ते पुढचा मॅसेज वाचून…. अगं तुझं आणि माझं एक्सचेंज झालंय बहुतेक अगदी सेम टू सेम..

चप्पल हा खरंच प्रत्येकाच्या जिव्हाळ्याचा विषय ! आमची आजी म्हणायची ‘देह देवळात चित्त खेटरात’.. तिच्या या बोलण्याचा मला पदोपदी अनुभव येतो बापाला आपली मुलगी देखणी असली की जसं कोणीही उचलून नेईल अशी सुप्त भीती मनामध्ये असते ना तसंच प्रत्येकाला आपली चप्पल डोळ्यात भरण्या जोगी आहे; कोणी तरी घालून जाईल असंच वाटतं आणि कधीकधी घडतही तसंच…..

मंदिरात आत जाताना नेहमीच्या पेढेवाल्याकडे पेढे देऊन चप्पल ठेवायची प्रथा त्यामुळेच पडली असावी. तो बिचारा स्वतःचे पेढे खपवण्यात इतका मशगुल असतो की आपल्या चप्पलची त्याला कितपत काळजी असते देव जाणे !आपला तो अंधविश्वासच !!

पैसे देऊन स्टॅन्ड मध्ये चप्पल ठेवण्याची मानसिकता बहुतेकांची नसतेच. खेटरंच ते… त्यासाठी इतकी किंमत द्यायची गरज नाही. जे कोणी त्या स्टॅन्ड मध्ये चप्पल ठेवतात ते टोकन देऊन चप्पल परत घेताना, देणारा माणूस चप्पल अशा पद्धतीने भिरकावत होतो की आपल्या चप्पलची हीच लायकी आहे का असा प्रश्न निर्माण व्हावा..आपल्या देशात भाजी रस्त्यावर आणि चप्पल दुकानाच्या शोकेसमध्ये अशी परिस्थिती असताना चप्पल ची अशी किंमत केलेली मनाला लागते. सहाजिकच आहे ना?

चप्पल बूट यांच्या आताच्या जाहिराती पाहून आमचे आजोबा सांगायचे. “आम्हाला वर्षातून एकदा चप्पल मिळे. सततची घालायची सवय नसल्यानं ती घातलेल्या दिवशी आम्ही कुठेतरी विसरून येत असू. त्यानंतर पुन्हा एक वर्षांनंतरच नवीन मिळे.चप्पल घालायची सवयच नसल्याने ती विसरायची सवय जास्ती लागली होती.”

कुटुंबात जितक्या व्यक्ती तितकी वाहनं आणि चौपट वहाणं. चपलांची खानेसुमारीची डोकेदुखी होऊन बसली आहे. माणशी दहा याप्रमाणे चप्पलचा स्टॅन्ड भरलेला असतो. वॉकिंग, जॉगिंग, कॅज्युअल, स्पोर्ट्स, स्लिपर्स ,फॉर्मल बापरे बाप!म्हणून का चप्पल इतक वलयांकित? आणि तिची जागा दुकानातल्या काचेत आणि मेथीची पेंडी रस्त्यावर?…..

एकदा माझ्या मैत्रिणीकडे आम्ही रात्री जेवायला गेलो होतो. जेवणानंतर गप्पा-टप्पात बारा वाजून गेले. फ्लॅट सिस्टिम मधल्या तिच्या घरातून आम्ही चौघेही बाहेर पडलो आणि लिफ्टने खाली निघालो तितक्यात, दोघांच्या पायात घरातलेच स्लीपर आहेत हे त्यांच्या लक्षात आलं पण पुन्हा आत जाऊन चप्पल घेण्याऐवजी तात्पुरतं शेजारच्या फ्लॅटच्या चप्पल स्टैंड मधील आपल्याला बसतील ते चप्पल घालून ते खाली आले.माझ्या प्रश्नार्थक मुद्रेकडे पाहून ती हसली. “अगं गाढ झोपलेत ते ! काय समजतं त्यांना? शिवाय आमचे स्लीपर्स आहेतच की त्यांच्या दारात….

रात्री घरी पोचलो आणि कॉरिडोर मधल्या माझ्या चप्पलच्या रॅकला एक कुलूप आणि त्याला दोन किल्ल्या लावलेल्या मला दिसल्या. मी स्टॅन्डला कधीच कुलूप लावलं नव्हतं आत्ता मी लगेच एक किल्ली फिरवली चपला बंदिस्त केल्याआणि आत आले.दर खेपेला कुलूप उघडून चप्पल काढायची आणि बाहेर पडायचं…. चप्पल स्टॅन्ड ला जणू मी लाॅकरचा दर्जा प्राप्त करून दिला होता.प्रत्येक ठिकाणी जायचे चप्पल निरनिराळे… दुपारी मंदिराला घालून जायचे चप्पल घालून मी बाहेर पडले. भजन आटोपलं आणि मंदिरात गेले देव दर्शन करून बाहेर आले तो चप्पल गायब ‘मंदिराला घालून जायचे चप्पल’असलं म्हणून काय झालं आता पुन्हा मंदिरात जायचं तर कोणतं चप्पल वापरायचं? पंचाईत झाली ना माझी??

माझे डोळे सगळ्यांच्या पायांकडं भिरभिरू लागले. काय काय करावं सुचेना. मंदिरात बसलेला राम आठवला. तो असताना मी का उगा चिंता करत बसले होते? पुन्हा एकवार मी राम मंदिरात जाऊन रामाला साकडं घातलं, रामा बाबा रे, तू हि अनवाणीच आहेस पण तुझ्या पादुका सुरक्षित आहेत रे ….भरतानं सिंहासनावर ठेवल्यात. राज्य करताहेत त्या ….रामाचा हसतमुख चेहरा मला काहीतरी सांगतोय असा मला भास झाला . काय ?माझ्या हि चप्पलांचा असाच कोणीतरी सन्मान केला असेल ? इश्श्य काहीतरीच ! कुणाच्या पायातून गेली असेल माझी चप्पल त्याला सद्बुद्धी दे रे देवा..” मी रामाला साकडं घालून बाहेर आले.

मंदिराबाहेर चपलांचा खच पडला होता. गर्दी कमी होऊ लागली तशी चपलांही कमी होऊ लागल्या. चुकून आपल्या पायातील चप्पल आपलं नव्हे म्हणून कोणी परत येतं का असं वाटून मी थोडीशी रेंगाळले.

फुलवाला हे सर्व काही पाहत होता. नेहमीचा तोंड ओळख असणारा तो हसला आणि मला त्याने एक अफलातून सल्ला दिला.”मावशी,अहो चपला कमी व्हायला लागल्यात. तुम्हाला बसणारा साईज आता उरणार नाही. त्यापेक्षा त्यातलं तुम्हाला बसतंय ते घाला आणि जा घरी नाहीतर अनवाणी जायची पाळी येईल.”त्याच्या म्हणण्यात तथ्य होतं.मी अनवाणी कशी जाणार? त्यातलं एक चप्पल देवाच्या साक्षीने मी चोरलं आणि घर गाठलं.

घर गाठताच त्या चप्पलचं ‘मंदिराचं चप्पल’असं नामकरण झालं.ते चप्पल घालून मी नियमित मंदिरात जाते. जी कोणी माझं चप्पल घालून गेली आहे ती माझं चप्पल ठेवून स्वतः चप्पल घेऊन जाईल.या आशेवर आहे मी अजून ….अजूनही मला वाटतं रामाच्या कृपेनं माझ्या पादुका मला मिळतील पुनःश्च राम राज्य येईल….

 

© सौ ज्योती विलास जोशी

इचलकरंजी

मो 9822553857

[email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ डायरीतली कोरी पाने – भाग – 2 ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

? जीवनरंग ?

☆ डायरीतली कोरी पाने – भाग – 2 ☆ श्री अरविंद लिमये ☆ 

(पूर्वसूत्र- “बघ..काय ठरवतेयस? माहेर हवंय कीं महाबळेश्वर?” नन्दनाकडे पहात राहुलने मिष्किलपणे हसत विचारले.

“तू म्हणशील तसं” नन्दना म्हणाली. ठरवूनसुद्धा आपल्या बोलण्यातला कोरडेपणा तिला कमी करता आला नाहीच. राहुलच्या सूचक नजरेनेसुद्धा ती नेहमीसारखी फुललीच नाही.)

दोन दिवस उलटले तरी घरी पूजेची गडबड जाणवेचना. थोडा अंदाज घेत एक दिवस कामं आवरता आवरता नन्दनाने थेट आईंनाच विचारलं.जवळच प्रभावहिनी म्हणजे नन्दनाच्या मोठ्या जाऊबाईही  कांहीबाही करीत होत्या.

“पूजा रद्द केलीय.पुढे कधीतरी ठरवू..” आई दुखऱ्या स्वरांत म्हणाल्या.

“का..?” नन्दनानं आश्चर्यानं विचारलं.

“योग नव्हता म्हणायचं.. दुसरं काय?”

“योग आणा ना मग. मी ‘नको’ म्हंटलंय कां?” प्रभावहिनी एकदम उसळून अंगावर धावून यावं तसं बोलल्या.

नन्दना त्यांच्या या अवताराकडे पाहून दचकलीच.ती या घरात आल्यापासून प्रभावहिनी मोजकं कांहीसं बोलून गप्प गप्पच असायच्या.धाकट्या जावेला त्यांनी तोडलं नव्हतं तसं फारसं जवळही येऊ दिलं नव्हतं.

आजवरच्या त्यांच्या घुम्या वृत्तीला त्यांचं हे असं खेकसून बोलणं थेट छेद देणारंच होतं. प्रभावहिनींच्या अनपेक्षित हल्ल्याने आई एकदम बावचळूनच गेल्या.काय बोलावं तेच त्यांना समजेना.

“हे बघ,मी नन्दनाशी बोलतेय ना? तू कां मधे पडतेयस?”

“नन्दनाशी बोला, पण जे बोलायचं ते स्पष्ट बोला. मला सांगा, जाऊ कां मी माहेरी निघून? तुमची पूजा आवरली की परत येते..” प्रभावहिनी आईंना ठणकावतच राहिल्या. आई मग एकदम गप्पच झाल्या.

नन्दना बावचळली. प्रभावहिनींचा हा अवतार नन्दनाला अनोळखीच‌ होता. नेमका प्राॅब्लेम काय आहे तेच तिला समजेना.तिनं मग थेट विचारलंच.

“प्रॉब्लेम काय असणाराय..?या..या घरात मी..मीच एक प्रॉब्लेम आहे.”

“कांहीतरीच काय बोलताय वहिनी?”

“खोटं नाही बोलत.विचार बरं त्यांनाच.सांगू दे ना त्यांना.मूग गिळून गप्प नका बसू म्हणावं. काय हो? खोटं बोलत नाहीये ना मी?..सांगाs आहे ना मीच प्रॉब्लेम?”

आई काही न बोलता कपाळाला आठ्या घालून चटचट काम आवरत राहिल्या.नन्दनाला एकदम कानकोंडंच होऊन गेलं.

प्रभावहिनींना एवढं एकदम चिडायला काय झालं तिला समजेचना.

राहुलशिवाय तिच्या मनातल्या या प्रश्नाला नेमकं उत्तर कोण देणार होतं? पण राहुलकडेसुध्दा या प्रश्नाचं नन्दनाचं समाधान करणारं उत्तर नव्हतंच.

“तू त्यांच्या फंदात पडू नकोस”

“फंदात पडू नकोस काय? माझ्यासमोर एवढं रामायण घडलं.आईंचा त्यांनी एवढा अपमान केला..,मी तिकडे दुर्लक्ष करू?”

“मग जा.जा आणि जाऊन वहिनीच्या झिंज्या उपट तू सुद्धा” 

“तू असा त्रागा कां करतोयस?चिडून प्रश्न सुटणाराय कां?”

“प्रश्न आहेच कुठे पण..? असलाच तर तो दादा-वहिनींचा आणि आई-वहिनींचा असेल. आपल्याला काय त्याचं? आपण दुर्लक्ष करायचं आणि मस्त मजेत रहायचं.”

“तू रहा मजेत. मला नाही रहाता येणार.”

“का? अडचण काय आहे तुझी? मला समजू दे तरी.हे बघ, तुझं माझ्याशी लग्न झालंय की त्यांच्याशी? इतरांचा विचार करायची तुला गरजच काय?”

नंदना कांही न बोलता उठली. अंथरूणावर आडवी झाली. राहुलसारखा फक्त स्वतःपुरता विचार करणं तिच्या स्वभावात बसणारं नव्हतं. तिला पटणारं नव्हतं.आणि न पटणारं ती कधी स्वीकारूच शकत नव्हती.

नन्दनाला तिचं लग्न ठरल्यानंतरचं आण्णांचं बोलणं आठवलं.

‘सहजीवन’ कसं असावं हे किती छान समर्पक शब्दांत समजावून सांगितलं होतं त्यांनी. आणि हा राहूल…! कसं स्विकारु त्याला? आणि स्विकारताच आलं नाही तर समजावू तरी कशी?…

‘तिचं जेव्हा जळेल तेव्हाच तिला कळेल.पण तोवर फार उशीर झालेला असेल.’ या शब्दांचा नेमका अर्थ तिला या क्षणी अस्वस्थ करू लागला… लाईट आॅफ करुन राहुल जवळ कधी सरकला तिला समजलंच नव्हतं.त्याचा स्पर्श जाणवला.. आणि..ती एकदम आक्रसूनच गेली. अंग चोरुन पडून राहिली.

“नन्दना..”

“……..”

“गप्प का आहेस तू?” 

“काय बोलू..?”

“तुला एक सांगायचं होतं”

“सांग”

“तू रागावशील”

“नाही रागावणार. बोल”

“आपण महाबळेश्वरला पुन्हा कधीतरी गेलो तर चालेल?”

“कधीच नाही गेलो तरी चालेल”

“बघ चिडलीयस तू”

“………”

“का म्हणून नाही विचारणार?”

“तसंच कांहीतरी कारण असेलच ना‌. त्याशिवाय तू आधीपासून केलेलं बुकिंग रद्द कशाला करशील?”

“आपण पुन्हा नक्की जाऊ.प्रॉमिस.”

“माझी अजिबात गडबड नाही”

“असं का म्हणतेस?”

“महाबळेश्वरला जाऊन भांडत रहाण्यापेक्षा इथे आनंदाने रहाणं मला जास्त आवडेल.”

..हिचं आनंदानं रहाणं महाबळेश्वर-ट्रीपपेक्षा आपल्याला जास्त महागात पडणार आहे या गंमतीशीर विचाराने राहूल हसला. क्षणभर धास्तावलासुद्धा.

             ————

“हे काय गं नन्दना?महाबळेश्वरचं बुकिंग केलं होतं ना भाऊजीनी?”प्रभावहिनींनी  एकटीला बघून नन्दनाला टोकलंच.” त्या आज आपण होऊन आपल्याशी बोलल्या या गोष्टीचं नन्दनाला थोडं आश्चर्यच वाटलं.ती भांबावली.त्यांना काय उत्तर द्यावं तिला समजेचना. प्रश्न सरळ होता मग उत्तर तिरकं कां द्यायचं..?

“हो.बुकिंग केलं होतं”

“मग?”

“कॅन्सल केलं”

“अगं, कमाल आहे. कॅन्सल का केलंस? जाऊन यायचं ना चार दिवस..”

“मी नाही हो.. राहूलनं कॅन्सल केलंय”

“भाऊजींनी? कमालच आहे. पण कां ग? आणि ते सुद्धा तुला न विचारता? आणि तू गप्प बसलीस?”

“हो. गप्प बसले.” नन्दनाला हा विषय वाढू नये असं वाटत राहिलं,म्हणून ती सहज हसत म्हणाली.

“मूर्ख आहेस.” प्रभावहिनी कडवटपणे बोलून गेल्या.

“का मग दुसरं काय करायला हवं होतं मी?”

“गप्प बसायला नको होतंस. हिसकावून घेतलं नाहीस ना तर या घरात तुला कांहीही मिळणार नाही. सुख तर नाहीच,अधिकारसुध्दा नाही.”

प्रभावहिनींचे शापवाणी सारखे शब्द नंदनाच्या मनावर ओरखडे ओढून गेले. तरीही ती हसली.ते हसणं तिला स्वतःलाच कसनुसं वाटत राहिलं. तेवढ्यात आंघोळ करून आई लगबगीने स्वयंपाकघरात आल्या. त्यांच्याकडे पाहून कपाळाला आठ्या घालून प्रभावहिनी गप्प बसल्या.

“नन्दना..”

“काय आई..?”

“राहुल बोलला का गं तुझ्याशी?”

“कशाबद्दल?”

“मीच त्याला म्हंटलं होतं, लग्नानंतरचा सत्यनारायण एकदा होऊ दे मगच जा प्रवासाला”

“हो. बोललाय तो मला.”

“मी आपलं मला योग्य वाटलं ते सांगितलं त्याला.तरीही तुला वाईट वाटलं असलं तर….”

“नाही आई. ठिकाय.”

“तोवर मग माहेरी जाऊन येतेस कां चार दिवस?”

“नाही. नको. माहेरीही नंतरच जाईन सावकाशीने”

आईना ऐकून बरं वाटलं.पण प्रभावहिनी….?

क्रमश:….

©️ अरविंद लिमये

सांगली

(९८२३७३८२८८)

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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