श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय कहानी  रद्दीवाला। )

☆ कथा – कहानी ☆ !! ” रद्दीवाला ” !! ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

यह उसका नाम भी था और काम भी। काॅलोनी- दर -काॅलोनी , अपनी चार चक्कों की गाड़ी , जिस पर एक तराजू व एक थैला लिए -वह कबाड़ी ” ,रद्दी..,-पुराना.,.सामान..रद्दी..” की आवाज लगाता घूमता  रहता । अक्सर महिलाएं या कुछ महिला जैसे पुरुष इन्हे बुलाकर घर के पुराने  अखबार या कभी-कभी कोई टूटा-फूटा भंगार मोल-भाव कर बेच देते। इनकी शक्ल, हालात व इनकी करतूतों की वजह से इन्हें हर कोई चोर-उचक्का,उठाईगिरा समझ हेय दृष्टि से देखता हैं। छ: किलो की रद्दी चार किलो में तोलना इनका बायें हाथ का काम है। अगर गृहणी खुद भी तोल कर दे तो भी एका-ध किलो मार लेना इनका दायें हाथ का काम होता है।कभी-कभार एका-ध छोटा-मोटा सामान उठा लेना,बस पेट के लिए इतनी भर बेईमानी करते हैं । रद्दी के पैसे मिल जाने के बाद भी, जब तक वह गेट से बाहर नहीं जाता, उसे श॔कित नजरों से देखा जाता है। कुल मिलाकर वह इस बात का प्रमाण है कि उपेक्षित होने पर सिर्फ अखबार ही नहीं आदमी भी रद्दी हो जाता है।

उस दिन पत्नी रद्दीवाले को रद्दी दे रही थी, जैसे ही मै पहुँचा, उसने कहा-” मै बाहर जा,रही हूँ ,  इससे तीस रूपये ले लेना । ” कह वह चली गई।

मैंने पहली बार उसे गौर से देखा। रद्दीवाला मुझ जैसा ही आदमी दिखाई पड़ा । पसीने से लथपथ वह जेब से पैसे निकाल रहा था, मैंने कहा-” कोई जल्दी नहीं,  आराम से देना,  थोड़ा सुस्ता लो। ” वह कमीज से पसीना पोंछने लगा। ” पानी पीओगे ? ” मेरे पूछने पर उसने गर्दन से हाँ कहा।

मेरे पानी देने पर , पानी पीकर उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से गिलास वापिस करते हुए कहा- ” शुक्रिया “

“अरे, पानी के लिए कैसा शुक्रिया ?  “

“पानी के लिए नहीं साब! आज तक माँगने पर पानी मिला है, पहिली बार कोई पूछकर पिला रहा है । “

 मुझे उसका ऐसा बोलना अच्छा  लगा। पुराने ही सही,  बरसों अखबार व किताबों को छू-छूकर शायद वह कुछ पढ़ा-लिखा हो गया था। फिर उर्दू जुबान ही ऐसी है कि बेपढ़ा भी बोले तो उसके बोलने में एक शऊर आ जाता है। मैं  उससे बतियाने लगा। उसकी जिन्दगी उसकी जुबान तक आ गई।

“इन दिनो हालत बड़े खस्ता है साब। कम्पीटशन बढ़ गई है। जबसे टीवी आया लोग अखबार जरूरत से नहीं, सिर्फ आदतन खरीदते हैं। रिसाले महँगे हो गए। रद्दी कम हो गई तो मोल-भाव ज्यादा हो गया। रद्दी खरीदते हम जान जाते हैं,कि ये अमीर है या गरीब। कंजूस है या दिलदार। शक्की है, झिकझिक वाला  है , या सीधा-साधा। हम सबको जानते है पर लोग हमें हिकारत  देखते हैं। पहले जैसा मजा नहीं रहा धन्धे में। “दो पल अपनी विवशता को अनदेखा कर, आंँखों  में एक चमक भरते बोला-” फिर भी जैसे-तैसै गुजारा हो ही जाता है। और फिर कभी-कभी जब आप और उस दो माले जैसे दिलदार, शानदार, शायर नुमा, साहब, आदमी मिल जाते हैं , तो लगता है ज़िन्दगी सुहानी हो गई। इसमेँ जीया जा सकता है।”

“दो माले जैसे….? ” मेरे पूछने पर उसने बताया, तब मैं समझा। हुआ यूँ कि….,

रद्दीवाला जब ” रद्दी…रद्दी…” की आवाज लगा रहा था, तो उस दो माले के शख्स ने उसे ऊपर बुलाया। वह अपना तराजू और थैला लेकर   ऊपर गया। कमरे में कुछ अखबार और रिसाले इधर-उधर बिखरे पड़े थे। ” ये सब उठा लो ” सुनते ही उसने रद्दी जमा की। तौलने के लिए तराजू निकालने लगा की…,  ” तौलने की जरुरत नहीं, ऐसे ही ले जा। ‘  सुनकर वह तेजी से रद्दी थैले में भरने लगा। आज कुछ ज्यादा कमाने की खुशी में वह पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाल ही रहा था कि….”  रहने दे। पैसे मत दे। ऐसे ही ले जा। “

बिना तौले तो इसके पहले भी उसने रद्दी खरीदी थी, पर आज तो मुफ्त में…, आश्चर्य और प्रसन्नता  है उसने उसकी और देखा। वह मुस्कराते हुए बुदबुदा रहा था;- ” मैंने कौन-सा स्साला पैसे देकर खरीदी है ? शायर बनने में और कुछ मिले न मिले, पर मुफ्त के कुछ रिसाले जरूर घर आ जाते हैं।”  रद्दीवाला आँखों से शुक्रिया कहते और हाथों से सलाम करता हुआ सीढियाँ उतरने लगा। उतरने क्या, सीढियाँ दौड़ने लगा। बीस-पच्चीस की मुफ्त की कमाई जो हो चुकी थी । उसने गाड़ी पर थैला रखा, एक पल फिर से दो माले की ओर देखा, जहाँ उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा,  साहब आदमी रहता है। दो माले को सलाम करते हाथों से गाड़ी ढकेलने लगा।

अब जब भी वह दो माले से गुजरता उसकी “रद्दी- रद्दी” की आवाज तेज हो जाती। दो-एक महीने में जब भी दो माले से आवाज आती, वह लपककर, उछलता-सा सीढ़ियाँ चढ़ता, बिना तोले, बिना पैसे दिए, मुफ्त की रद्दी लेकर शुक्रिया व सलाम करते सीढ़ियाँ उतरता, गाड़ी पर थैला रखता, दो माले को देखता और सलाम करता गाड़ी ढकेलने लगता।

आज भी सब कुछ वैसा ही हुआ। लेकिन जैसे ही वह सलाम करते सीढ़ियाँ उतर ही रहा था कि उसे एक तल्ख व तेज आवाज सुनाई पड़ी ,” -ऐ… जाता कहाँ..?… पैसे…?” 

वह चौंककर, हतप्रभ, हक्का बक्का-सा उस बेबस आँखों और फैली हुई हथेली को देखता भर रहा । उसमेँ इतनी भी हिम्मत नहीं रही कि वो अपनी सफाई में इतना भी कह सके कि ” साब आपने इसके पहले कभी पैसे नहीं लिए इसलिए….- । ”  उसने चुपचाप जेब में हाथ डाले और बीस का एक नोट उसकी फैली हुई हथेली पर रख दिया। सलाम करता वह सीढ़ियों से ऐसे उतर रहा था मानो पहाड़ चढ़ रहा हो। दो किलो का बोझ चालीस किलो का लगने लगा। वह भरे मन और भरे क़दमों से एक-एक पग बढ़ाता हुआ अपनी गाड़ी तक आया। थैला रखा।आदतन, उसने दो माले की ओर देखा। सलाम किया। गाड़ी सरकाया।  फिर रुक गया। उसे वो तल्ख व तेज आवाज़ ” ऐ…, जाता कहाँ…?… पैसे…?”  अब भी सुनाई दे रही थी। बेबस आँखें और फैली हुई हथेली अब भी दिखाई दे रही थी। उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से पुनः दो माले को देखा।और सलाम करता हुआ बेमन से गाड़ी ढकेलने लगा।

इसलिए नहीं, कि आज उसे मुफ्त की रद्दी नहीं मिली। उसे बीस रुपए देने पड़े। यह तो उसका रोज का धन्धा है। बल्कि इसलिए कि आज उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा, साहब आदमी गरीब हो गया था।

 

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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