मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ यशपुष्प….डाॅ.आशुतोष रारावीकर ☆ श्री विकास मधुसूदन भावे

श्री विकास मधुसूदन भावे

? पुस्तकांवर बोलू काही ?

☆ यशपुष्प….डाॅ.आशुतोष रारावीकर ☆ श्री विकास मधुसूदन भावे  

पुस्तकाचे नाव – यशपुष्प

लेखक — डाँ आशुतोष रारावीकर

प्रकाशक – ग्रंथाली प्रकाशन

किंमत –  २०० रुपये 

कधीकधी आपण आपल्या मित्रमैत्रिणींसोबत सहज गप्पा मारत बसलेले असतो त्यावेळेस कोणीतरी मित्र किंवा मैत्रिण असं काही एखादं वाक्य बोलून जातात कि लगेचच त्या वाक्याला दाद देत आपण म्हणतो “आत्ता माझ्याकडे पेन आणि कागद असता ना तर ताबडतोब तुझं हे वाक्या मी टिपून घेतलं असतं”. आपल्या बोलण्याला आणखी दोन तीन मित्रांचा दुजोरा मिळतो आणि नंतर आपण तो प्रसंग आणि ते वाक्य दोन्हीही विसरून जातो.

मित्रहो, मी जर तुम्हाला सांगितलं की आयुष्याला वळण लावणा-या, क्वचितप्रसंगी आपलं कुठे काय चुकतंय हे सांगणा-या अशा वाक्यांचा समुच्चय असलेलं पुस्तक माझ्या वाचनात आलं आहे तर नक्कीच तुम्हाला आश्चर्य वाटेल. “यशस्वी जीवनासाठी विचारपुष्पांचा खजिना” असं अधोरखित केलेलं वाक्य असलेलं “यशपुष्प” हे त्या पुस्तकाचं नाव आहे. डाँ आशुतोष रारावीकर यांनी हा वाक्य समुच्चय या पुस्तकाद्वारे रसिक वाचकांच्या हाती दिला आहे.

“यशपुष्प” या पुस्तकाचे लेखक डाँ आशुतोष रारावीकर यांच्या वडिलांचं नाव यशवंत आणि आईचं माहेरचं नाव पुष्पा! या दोन नावांचा समर्पक उपयोग करून डाँ आशुतोष रारावीकर यांनी या पुस्तकाचं नाव “यशपुष्प” असं ठेवलं आहे. डाँ रारावीकर यांचे वडील ख्यातनाम अर्थशास्त्रज्ञ  होते तर आई संस्कृततज्ञ आणि साहित्यिक होती. स्वत: डाँ रारावीकर यांची शैक्षणिक पार्श्वभूमी समृध्द आहे.

या पुस्तकात समाविष्ट केलेली काहीकाही वाक्यं आपलं कुठे चुकतंय ते सांगतात. आता हेच वाक्य पहा “शर्यतीत पुढे जाण्यासाठी दुस-याला पाडायचं नसतं ….. आपण आपला वोग वाढवायचा असतो” किंवा “पुढे जाताना कधी आणि कुठे थांबायचं हेही कळायला हवं. कधीतरी दोन पावलं मागे येणं हे सुध्दा दहा पावलं पुढे जाण्यासाठीच्या प्रयत्नांचा भाग असू शकतो” आपण गंभीरपणे विचार केला तर आपल्या लक्षात येतं कि कधीकधी आपणही हे समजून न घेता बरोब्बर याच्या विरूध्द कृती आपल्याकडून केली जाते. “प्रयत्न हे आनंदाचं साधन नसून पूर्ती आहे …. ही अनुभूती .येते तेंव्हा जीवनात आनंदाशिवाय काहीच उरत नाही”. मित्रहो, हा अनुभव घेण्यासाठी प्रयत्न कधीच अर्ध्यावर सोडायचे नसतात, पण आपण नेहेमीच ते अर्ध्यावर सोडून देतो त्यामुळे या वाक्याचा अर्थ आपल्याला कधीच गवसत नाही. उदाहरणादाखल दिलेली अशी काही वाक्यं या पुस्तकात विखुरलेली आहेत. यशस्वी जीवनासाठी या पुस्तकाचा गंभीरपणे विचार होणं आवश्यक आहे असं मला वाटतं. आयुष्यात येणा-या निरनिरीळया प्रसंगी कसं वागावं किंवा कसं वागू नये हे या पुस्तकातली ही वाक्यं गंभीरपणे घेतली तर नक्कीच लक्षात येईल.

“गंध अंतरिक्षाचा, “स्मित लहरी”,  “लाँकडाऊनच्या वेळेत” आणि “पुष्पांजली परमेशाला” अशा चार भागात या पुस्तकातील विचारलहरी विखुरलेल्या आहेत.

सकाळ समूह, नाशिकचे माजी संचालक-संपादक आणि २०१० साली झालेल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाचे अध्यक्ष उत्तम कांबळे यांची अभ्यासपूर्ण प्रस्तावना या पुस्तकाला लाभली असून ग्रंथाली प्रकाशनातर्फे या पुस्तकाची तिसरी विस्तारीत आवृत्ती २० सप्टेंबर २०२१ला प्रकाशित झाली आहे.

© श्री विकास मधुसूदन भावे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 107 ☆ उपलब्धि बनाम आलोचना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख उपलब्धि बनाम आलोचना।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 107 ☆

☆ उपलब्धि बनाम आलोचना ☆

उपलब्धि व आलोचना एक दूसरे के मित्र हैं। उपलब्धियां बढ़ेंगी, तो आलोचनाएं भी बढ़ेंगी। वास्तव मेंं ये दोनों पर्यायवाची हैं और इनका चोली-दामन का साथ है। इन्हें एक-दूसरे से अलग करने की कल्पना भी बेमानी है। उपलब्धियां प्राप्त करने के लिए मानव को अप्रत्याशित आपदाओं व कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। जीवन में कठिनाइयाँ हमें बर्बाद करने के लिए नहीं आतीं, बल्कि ये हमारी छिपी हुई सामर्थ्य व शक्तियों को बाहर निकालने में हमारी मदद करती हैं। सो! कठिनाइयों को जान लेने दो कि आप उससे भी अधिक मज़बूत व बलवान हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों में धैर्य नहीं खोना चाहिए तथा आपदाओं को अवसर में बदलने का प्रयास करना चाहिए। कठिनाइयां हमें संचित आंतरिक शक्तियों व सामर्थ्य का एहसास दिलाती हैं और उनका डट कर सामना करने को प्रेरित करती हैं। इस स्थिति में मानव स्वर्ण की भांति अग्नि में तप कर कुंदन बनकर निकलता है और अपने भाग्य को सराहने लगता है। उसके हृदय में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का भाव घर कर जाता है, जिसके लिए वह भगवान का शुक्र अदा करता है कि उसने आपदाओं के रूप में उस पर करुणा-कृपा बरसायी है। इसके परिणाम-स्वरूप ही वह जीवन में उस मुक़ाम तक पहुंच सका है। दूसरे शब्दों में वह उपलब्धियां प्राप्त कर सका है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

‘उम्र ज़ाया कर दी लोगों ने/ औरों के वजूद में नुक्स निकालते-निकालते/ इतना ख़ुद को तराशा होता/ तो फरिश्ता बन जाते’ गुलज़ार की यह सीख अत्यंत कारग़र है। परंतु मानव तो दूसरों की आलोचना कर सुक़ून पाता है। इसके विपरीत यदि वह दूसरों में कमियां तलाशने की अपेक्षा आत्मावलोकन करना प्रारंभ कर दे, तो जीवन से कटुता का सदा के लिए अंत हो जाए। परंतु आदतें कभी नहीं बदलतीं; जिसे एक बार यह लत पड़ जाती है, उसे निंदा करने में अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। वैसे आलोचना भी उसी व्यक्ति की होती है, जो उच्च शिखर पर पहुंच जाता है। उसकी पद-प्रतिष्ठा को देख लोगों के हृदय में ईर्ष्या भाव जाग्रत होता है और वह सबकी आंखों में खटकने लग जाता है। शायद इसलिए कहा जाता है कि जो सबका प्रिय होता है– आलोचना का केंद्र नहीं बनता, क्योंकि उसने जीवन में सबसे अधिक समझौते किए होते हैं। सो! उपलब्धि व आलोचना एक सिक्के के दो पहलू हैं और इनका चोली-दामन का साथ है।

समस्याएं हमारे जीवन में बेवजह नहीं आतीं।  उनका आना एक इशारा है कि हमें अपने जीवन में कुछ बदलाव लाना है। वास्तव में यह मानव के लिए शुभ संकेत होती हैं कि अब जीवन में बदलाव अपेक्षित है। यदि जीवन सामान्य गति से चलता रहता है, तो निष्क्रियता इस क़दर अपना जाल फैला लेती है कि मानव उसमें फंसकर रह जाता है। ऐसी स्थिति में उसमें अहम् का पदार्पण हो जाता है कि अब उसका जीवन सुचारू रूप से  चल रहा है और उसे डरने की आवश्यकता नहीं है। परंतु कठिनाइयां व समस्याएं मानव को शुभ संकेत देती हैं कि उसे ठहरना नहीं है, क्योंकि संघर्ष व निरंतर कर्मशीलता ही जीवन है। इसलिए उसे चलते जाना है और आपदाओं से नहीं घबराना है, बल्कि उनका सामना करना है। परिवर्तनशीलता ही जीवन है और सृष्टि में भी नियमितता परिलक्षित है। जिस प्रकार प्रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व यथासमय ऋतु परिवर्तन होता है तथा प्रकृति के समस्त उपादान निरंतर क्रियाशील हैं। सो! मानव को उनसे सीख लेकर निरंतर कर्मरत रहना है। जीवन में सुख दु:ख तो मेहमान हैं…आते-जाते रहते हैं। परंतु एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘नर हो ना निराश करो मन को/  कुछ काम करो, कुछ काम करो’, क्योंकि गतिशीलता ही जीवन है और निष्क्रियता मृत्यु है।

सम्मान हमेशा समय व स्थिति का होता है। परंतु इंसान उसे अपना समझ लेता है। खुशियां धन-संपदा पर नहीं, परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं। एक बच्चा गुब्बारा खरीद कर खुश होता है, तो दूसरा बच्चा उसे बेचकर फूला नहीं समाता। व्यक्ति को सम्मान, पद-प्रतिष्ठा अथवा उपलब्धि संघर्ष के बाद प्राप्त होती है, परंतु वह सम्मान उसकी स्थिति का होता है। परंतु बावरा मन उसे अपनी उपलब्धि समझ हर्षित होता है। प्रतिष्ठा व सम्मान तो रिवाल्विंग चेयर की भांति होता है, जब तक आप पद पर हैं और सामने हैं, सब आप को सलाम करते हैं। परंतु आपकी नज़रें घूमते ही लोगों के व्यवहार में अप्रत्याशित परिवर्तन हो जाता है। सो! खुशियां परिस्थितियों पर निर्भर होती हैं, जो आप की अपेक्षा होती हैं, इच्छा होती है। यदि उनकी पूर्ति हो जाए, तो आपके कदम धरती पर नहीं पड़ते। यदि आपको मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो आप हैरान-परेशान हो जाते हैं और कई बार वह निराशा अवसाद का रूप धारण कर लेती है, जिससे मानव आजीवन मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता।

मानव जीवन क्षण-भंगुर है, नश्वर है, क्योंकि इस संसार में स्थायी कुछ भी नहीं। हमें अगली सांस लेने के लिए पहली सांस को छोड़ना पड़ता है। इसलिए जो आज हमें मिला है, सदा कहने वाला नहीं; फिर उससे मोह क्यों? उसके न रहने पर दु:ख क्यों? संसार में सब रिश्ते-नाते, संबंध- सरोकार सदा रहने वाले नहीं हैं। इसलिए उन में लिप्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि जो आज हमारा है, कल मैं छूटने वाला है, फिर चिन्ता व परेशानी क्यों? ‘दुनिया का उसूल है/ जब तक काम है/  तेरा नाम है/ वरना दूर से ही सलाम है।’ हर व्यक्ति किसी को सलाम तभी करता है, जब तक वह उसके स्वार्थ साधने में समर्थ है तथा मतलब निकल जाने के पश्चात् मानव किसी को पहचानता भी नहीं। यह दुनिया का दस्तूर है इसका बुरा नहीं मानना चाहिए।

समस्याएं भय और डर से उत्पन्न होती हैं। यदि भय, डर,आशंका की जगह विश्वास ले ले, तो समस्याएं अवसर बन जाती हैं। नेपोलियन विश्वास के साथ समस्याओं का सामना करते थे और उसे अवसर में बदल डालते थे। यदि कोई समस्या का ज़िक्र करता था, तो वे उसे बधाई देते हुए कहते थे कि ‘यदि आपके पास समस्या है, तो नि:संदेह एक बड़ा अवसर आपके पास आ पहुंचा है। अब उस अवसर को हाथों-हाथ लो और समस्या की कालिमा में सुनहरी लकीर खींच दो।’ नेपोलियन का यह कथन अत्यंत सार्थक है। ‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर सोचते हो, तो कमज़ोर हो जाओगे। अगर ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो ताकतवर’ स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन मानव की सोच को सर्वोपरि दर्शाता है कि हम जो सोचते हैं, वैसे बन जाते हैं। इसलिए सदैव अच्छा सोचो; स्वयं को ऊर्जस्वितत अनुभव करो, तुम सब समस्याओं से ऊपर उठ जाओगे और उनसे उबर जाओगे। सो! आपदाओं को अवसर बना लो और उससे मुक्ति पाने का हर संभव प्रयास करो। आलोचनाओं से भयभीत मत हो, क्योंकि आलोचना उनकी होती है, जो काम करते हैं। इसलिए निष्काम भाव से कर्म करो। सत्य शिव व सुंदर है, भले ही वह देर से उजागर होता है। इसलिए घबराओ मत। बच्चन जी की यह पंक्तियां ‘है अंधेरी रात/ पर दीपक जलाना कब मना है’ मानव में आशा का भाव संचरित करती हैं। रात्रि के पश्चात् सूर्योदय होना निश्चित है। इसलिए धैर्य बनाए रखो और सुबह की प्रतीक्षा करो। थक कर बीच राह मत बैठो और लौटो भी मत। निरंतर चलते रहो, क्योंकि चलना ही जीवन है, सार्थक है, मंज़िल पाने का मात्र विकल्प है। आलोचनाओं को सफलता प्राति का सोपान स्वीकार अपने पथ पर निरंतर अग्रसर हो।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – त्रिकालदर्शी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – त्रिकालदर्शी  ??

भविष्य से

सुनता है

अपनी कहानी,

जैसे कभी

अतीत को

सुनाई थी

उसकी कहानी,

वर्तमान में जीता है

पर भूत, भविष्य को

पढ़ सकता है,

प्रज्ञाचक्षु खुल जाएँ तो

हर मनुज

त्रिकालदर्शी हो सकता है!

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 9.31 बजे, 9.4.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 58 ☆ महामारियों से सीख लेना परमावश्यक ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “महामारियों से सीख लेना परमावश्यक।)

☆ किसलय की कलम से # 58 ☆

☆ महामारियों से सीख लेना परमावश्यक ☆

छिति, जल, पावक, गगन, समीरा

पंच रचित् अति अधम सरीरा

प्राणियों और वनस्पतियों का जीवन उक्त पंच महाभूतों, पृथ्वी के विभिन्न तत्त्वों व इनसे निर्मित पदार्थों पर निर्भर है। प्रत्येक प्राणियों एवं वनस्पतियों में विभिन्न कारणों से कोई न कोई बीमारी लगना आम बात है। इन बीमारियाँ के अनेक प्रकार होते हैं। कुछ बीमारियाँ गंभीर प्रकृति की होती हैं, जिनसे जीव व वनस्पतियों का अंत भी होता आया है। बीमारियों का क्षेत्र सीमित अथवा व्यापक हो सकता है। इनकी अवधि कुछ दिनों से लेकर कई कई वर्षों तक हो सकती है।

विश्व में मनुष्यों की बीमारियों को लेकर लगातार अनुसंधान व इनके सटीक उपचार हेतु गहन अध्ययन व परीक्षण किये जा रहे हैं। नई-नई दवाईयों की खोज निरंतर की जा रही है। हम इतिहास देखें तो पाएँगे कि लाल बुखार, प्लेग, मलेरिया, बड़ी चेचक, एड्स, स्वाइन फ्लू एवं इस सदी की कोरोना (कोविड-19) जैसी भयानक महामारी की विभिषिकाओं ने तात्कालिक जनजीवन अस्त-व्यस्त किया है। बावजूद इसके मानव ने इन सब पर विजय भी प्राप्त की है। कोरोना बीमारी के विरुद्ध भारत की त्वरित सुरक्षात्मक प्रशासनिक कार्यवाही व कोरोना रोगप्रतिरोधी टीकाकरण अभियान ने विश्व को दिखा दिया है कि भारत द्वारा कोरोना विरोधी अभियान सबसे कारगर था।

विगत में फैली महामारियों के दुष्परिणामों एवं वर्तमान के कोरोना से अस्त-व्यस्त हुए समाज को पुनः पटरी पर आने में पता नहीं कितना वक्त लगेगा। इस महामारी के दौरान जनहानि के तो ऐसे ऐसे हृदय-विदारक दृश्य उपस्थित हुए हैं कि जिन्हें आजीवन नहीं भुलाया जा सकेगा। लोगों के रोजगार-धंधे चौपट हो गए। अच्छे-भले व्यापारी सड़क पर आ गए। लोगों का जमा जमाया कारोबार ठप्प हो गया। गरीबों की हालत बयां करने हेतु हमारे पास शब्द नहीं हैं। सामयिक सरकारी राहत तथा खाद्य सामग्री के भरोसे जीवन सँवरा नहीं करते। भूख मिटाना आपदा में आई मुसीबत का निराकरण नहीं है। कोरोना के पूर्व लोग जिस तरह अपने पसंद की जिंदगी जी रहे थे, क्या अभी संभव है, ये बात संपन्न-संभ्रांत लोगों की नहीं, सर्वहारा समाज की है। रोज की मजदूरी से जीवन-यापन करने वाले लोगों ने जो पाई-पाई जोड़कर कुछ रकम बचाई थी, वह तो कोरोना अवधि की बेरोजगारी के चलते समाप्त हो गई। अब तो यदि मजदूरी नहीं की तो खाने के भी लाले पड़ जाएँगे, अभी ये बचत की  सोच भी नहीं सकते।

दुर्घटनाएँ, बीमारियाँ अथवा कोई महामारी बताकर नहीं आती। अचानक आई आपदा निश्चित रूप से बहुत हानिकारक व भयावह होती है। विगत से ली गई सीख और इस कोरोना महामारी ने जनसामान्य एवं सरकार को भी सतर्क रहने तथा ऐसी किसी भी विकट परिस्थितियों से निपटने के लिए सदैव तत्पर रहना सिखा दिया है।

एक अहम बात संपूर्ण विश्व की समझ में आ चुकी है कि भविष्य में ऐसी आपदाओं का आना पुनः संभाव्य है, बस हमें समय व स्थान का पता नहीं होगा। हम विगत की महामारियों के दुष्परिणाम पूर्व में ही सुन चुके हैं। अब हमने वर्तमान कोरोना महामारी का प्रलयंकारी रूप भी देख लिया है। इन महामारियों से बचना और बचाना अब हर मानव का सामाजिक दायित्व बन गया है। बूँद-बूँद जल से घड़ा भरता है। एक और एक ग्यारह भी होते हैं। इसलिए ‘पहले आप’ के स्थान पर ‘पहले स्वयं’ ही अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना और सुरक्षित रहना सीख लें। तभी ये बातें सार्थक होंगी।

इतनी विपरीत परिस्थितियों में रहकर भी यदि हम नहीं सुधरे, आशय यह है कि हम अब भी नवीनतम तकनीकि जनित सुख-सुविधाओं व ऐशोआराम के पीछे ही पड़े रहे, तो यह बात भी स्मरण रखिये कि ऐसी परिणति का ‘कोरोना’ सिर्फ एक नमूना है, इससे भी विषम परिस्थितियों का सामना भविष्य में करना पड़ सकता है।

हमें अब अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना बंद करना होगा। आज हम जिस डाल पर बैठे हैं उसी डाल को ही काटने पर तुले हुए हैं, अर्थात हम जिस धरा पर जीवन जी रहे हैं, उसी का बेरहमी से दोहन कर रहे हैं, दुरुपयोग और अत्याचार कर रहे हैं। यदि अब भी मानव ने प्रकृति के साथ छेड़छाड़  बंद नहीं की। प्रकृति के अनुकूल उसके आँचल में जीना प्रारंभ नहीं किया तो  भविष्य बदतर और भयानक होगा ही, मौलिक जरूरतें जैसे हवा, पानी, आवास, प्राकृतिक खाद्य सामग्रियों के भी लाले पड़ने वाले हैं। तब इन सब के अभाव में मृत्यु जैसी घटनाओं को भी सहजता में लिया जाएगा, हम इसे भी न भूलें।

आज इन महामारियों से सीख लेना परमावश्यक हो गया है। हमें प्रगति की अंधी दौड़ से बचना होगा। हमें पर्यावरण बचाना होगा। साथ ही प्रकृति के निकट रहने के आदत डालना होगी। वर्तमान की जीवन शैली का परित्याग कर हमें स्वीकार करना होगा कि भारतीय परंपरानुसार जीवन जीना ही हर आपदा का निदान है।

आईये, अपने वेदोक्त-

          सर्वे भवन्तु सुखिनः,

          सर्वे सन्तु निरामया।

          सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

          मा कश्चित् दुख भाग् भवेत्

अर्थात सभी सुखी हों, सभी रोग मुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुख का भागी न बनना पड़े।

उक्त भावों को हृदयंगम करते हुए हम ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के प्रयास प्रारंभ करें। निश्चित रूप से सुख-शांति का सबके जीवन में डेरा होगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 106 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 106 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

अपराधी पाकर शरण,

होते धन्य सनाथ।

रहता जिनके शीश पर,

नेताजी का हाथ।।

 

लगा रही गोता लगन,

    दो नैनों की झील।

सुध-बुध खोकर बावरा,

   करता प्यार अपील।।

 

शिशु की पुलकन देखकर,

 मन में उठी उमंग।

लगा रही है प्यार से,

माँ की ममता अंग।।

 

विरह प्रेम में जल रहा,

 मन में एक अलाव।

शांत हुई क्रमशः जलन,

 था मनुहार-प्रभाव।।

 

जीवन के हैं चार दिन,

   करो नहीं तुम बैर।

हिल मिल कर करते रहो,

    प्रेम गली की सैर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – मौन मुस्कुराहट ☆ सुश्री मीरा जैन

सुश्री मीरा जैन 

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री मीरा जैन जी  की अब तक 9 पुस्तकें प्रकाशित – चार लघुकथा संग्रह , तीन लेख संग्रह एक कविता संग्रह ,एक व्यंग्य संग्रह, १००० से अधिक रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से व्यंग्य, लघुकथा व अन्य रचनाओं का प्रसारण। वर्ष २०११ में  ‘मीरा जैन की सौ लघुकथाएं’पुस्तक पर विक्रम विश्वविद्यालय (उज्जैन) द्वारा शोध कार्य करवाया जा चुका है।  अनेक भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद प्रकाशित। कई अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत। २०१९ में भारत सरकार के विद्वान लेखकों की सूची में आपका नाम दर्ज । प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर पांच वर्ष तक बाल कल्याण समिति के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं उज्जैन जिले में प्रदत्त। बालिका-महिला सुरक्षा, उनका विकास, कन्या भ्रूण हत्या एवं बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ आदि कई सामाजिक अभियानों में भी सतत संलग्न। पूर्व में आपकी लघुकथाओं का मराठी अनुवाद ई -अभिव्यक्ति (मराठी ) में प्रकाशित। 

हम समय-समय पर आपकी लघुकथाओं को अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने का प्रयास करेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक संवेदनशील लघुकथा मौन मुस्कुराहट। )

☆ कथा-कहानी : लघुकथा – मौन मुस्कुराहट ☆ सुश्री मीरा जैन ☆

खूबसूरत रिसोर्ट चहुंओर ओर भव्य नजारे शाही विवाहोत्सव, व्यवस्था देखते ही बनती थी इन सबके बीच सिर से पैर तक सजी सुनयना मुखड़े पर मुस्कुराहट लिये आने वाले हर आगंतुक का पूरी मुस्तैदी से ख्याल रख रही थी। कहीं कोई चूक ना हो जाये रात्री दस बजने को थे पैरों मे दर्द के बावजूद चेहरे की मुस्कुराहट ज्यों की त्यों कायम थी।

अनेक खाली कुर्सियां सुनयना को निहार रही थी लेकिन चाह कर भी वह बैठ नहीं सकती थी । अंतत: घर पहुँचते पहुँचते पैरों के दर्द ने चेहरे की मुस्कुराहट को आँसुओ मे विलीन कर दिया।  सुनयना का मन घायल था क्योंकि- 

‘ इन सबके बावजूद कल पैरों को पुनः इसी तरह चलना और चेहरे को फिर इसी तरह मुस्कुराना होगा क्योंकि वह वेटर जो ठहरी ‘

© मीरा जैन

संपर्क –  516, साँईनाथ कालोनी, सेठी नगर, उज्जैन, मध्यप्रदेश

फोन .09425918116

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 95 ☆ फासले न बढ़ाओ…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “फासले न बढ़ाओ ….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 95 ☆

☆ फासले न बढ़ाओ …. ☆

कभी तो कुछ समझदारी किया करो

मुहब्बत  से    जरा यारी  किया करो

 

औरों पर  तो  रखते  हो  खूब  नजर

अपनी भी कुछ पहरेदारी किया करो

 

दिल ने जब जो चाहा झट बोल दिया

अरे  कुछ  तो  पर्दादारी  किया   करो

 

सौगात  राहतों  की  वो  रोज  दे  रहे

मंहगाई  पर  भी  सवारी  किया करो

 

मिले कुछ गुरबत से राहत गरीबों को

फरमान  ऐसे  भी  जारी किया  करो

 

नफरत से कुछ न हासिल होगा तुम्हें

प्यार से बातें  अब प्यारी  किया करो

 

फासले न बढ़ाओ इंसानों के दरम्यां

“संतोष” काम परहितकारी किया करो

 

भूल कर सभी नादानी,कहाँ चल दिये

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (26-30) ॥ ☆

घृत श्शमी पल्लव औं खील की गंध दायी उठा धूम्र हविवेदिका से

छू इन्दु के गाल जो क्षण करनफूल सा लगा, हो नीलकमल का जैसे ॥ 26॥

 

उस धूम से इन्दु का मुख सहज अश्रु छज्जल भरे नेत्र वाला गया हो

उसने किया गाल को लाल सा और आभा रहित कर्ण आभूषणों को ॥ 27॥

 

बैठे हुये स्वर्ण की चौकियों पर दम्पति ने सबसे शुभाशीष पाये

पूज्य अतिथियों, राज्यपरिवार जन और सधवाओं ने क्रमिक अक्षत चढ़ाये ॥ 28॥

 

सम्पन्न कर इन्दु विवाह – उत्सव समुद्ध श्री भोज कुलदीप नृप ने

सभी नृपों का अलग अलग योग्य सम्मान कर लगा बिदाई करने ॥ 29॥

 

मन दुख भरा किन्तु मुख पै खुशी भर घड़यालधारी सरोवर सा सबने

सम्मान पा भोज को दे के उपहार प्रस्थित हुये राज्य की ओर अपने ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बेधुंद…. ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ बेधुंद…. ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

अंधार दाटला चोहीकडे

मन झाले उदास

सूर आले भरभर जुळुनी

छेडिताना बिभास

 

प्रकाशल्या दशदिशा

बेधुंद मी खयालात

नुरले भान कशाचे

हरवले स्वर तरंगात

 

कलरव चाले विहगांचा

उडती स्वैर आकाशी

स्वच्छंदपणे भूमीवरती

खेळते मी सुरांशी

 

नव्हते कसले बंधन

वेळ काळाचे

जादुभर्‍या स्वरांना

फक्त कवटाळायाचे

 

सुरात असते भक्ति

सुरात असते शांति

विसरते देहभान

लाभे कशी मनःशांति

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 100 – माझे आजोबा……! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 100 – विजय साहित्य ?

☆ माझे आजोबा……! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(काव्य प्रकार – पंचाक्षरी काव्य)

यशाचे बोट

प्रेम अलोट

माझे आजोबा

हिरवी नोट….!

 

प्रेमळ मित्र

हळवे चित्र

माझे आजोबा

संस्कार सत्र….!

 

शांत गाभारा

लाभे निवारा

माझे आजोबा

अमृत धारा….!

 

समाज प्रेमी

साहित्य प्रेमी

माझे आजोबा

कुटुंब प्रेमी….!

 

चंद्र हजार

सुखी संसार

माझे आजोबा

जीवनाधार…..!

 

सुर्य कलता

हात हलता

माझे आजोबा

मंत्र जाणता….!

 

हवे हवेसे

रजे मजेचे

माझे आजोबा

नाते उषेचे…!

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares