हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 105 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 16 – पुन्न पुरानौ घृत नयौ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ कथा-कहानी # 105 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 16 – पुन्न पुरानौ घृत नयौ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)

अथ श्री पाण्डे कथा (16)  

पुन्न पुरानौ घृत नयौ, उर कुलवंती नार।

जे तीनों तबहीं मिलै, जब प्रसन्न करतार ॥

शाब्दिक अर्थ :- पुरखों द्वारा कमाया पुण्य, ताजे घी से युक्त स्वादिष्ट भोजन और कुल का मान बढ़ाने वाली चरित्रवान पत्नी हर किसी के भाग्य में नहीं होती और यह तीनों तभी प्राप्त होते हैं जब ईश्वर की कृपा होती है।

हिरदेपुर में हुई पंचायत की खबर आसपास के गाँवों में और दमोह तक जंगल में आग की तरह फैल गई। दुपरिया होते होते आसपास के गाँवों से लोग बाग शिव मंदिर में और ठाकुर साहब की बखरी पर जुटना चालू हो गए। कुछ तो सजीवन के समर्थन में थे पर ठाकुर साहब के दर से खुल कर कुछ न कह पाते। अनेक तमाशबीन भी थे जो चुपचाप तमाशा देख मजे लेने वाले भी थे तो कुछ चुखरयाई करबे में माहिर  इधर की बात उधर करने में लग गए। कुछ बुजुर्ग जो समझाइश देने को अपना पुश्तैनी दायित्व  समझते थे दोनों पक्षों को समझाने में लग गए। लेकिन बात जितनी बनती उतनी ही बिगड़ जाती। ठाकुर साहब को धर्म की चिंता थी, पुरखों का यशोगान और धर्म के लिए क्षत्रियों द्वारा किया गया बलिदान रह रहकर याद आ रहा था तो सजीवन के कान में महात्मा जी के शब्द गूँज रहे थे, हिन्दुस्तान में जो सबसे सबसे अधिक दुःख में पड़े हुए हैं, उन्हें हरिजन कहना यथार्थ है| हरिजन का अर्थ है, ईश्वर का भक्त, ईश्वर का प्यारा, गरीबा बसोर की कातर आँखे बार बार उनके सामने आ जाती मानो कह रही हों कि ‘महराज एक बार शंकर जी की बटैया मोहे भी छू लेन देओ।

शाम होते होते खबर आई कि दमोह से कांग्रेसियों का एक दल कल सुबह हिरदेपुर आयेगा और समस्या का  समाधान खोजने में मदद करेगा। इस खबर से बड़े बुजुर्गों ने राहत की साँस ली और ठाकुर साहब भी गाँव के लोगों की बात मानकर चर्चा के लिए तैयार हो गए। सब अपने अपने घर चल दिये पर लोगों को अनिष्ट की आशंका सता रही थी ऐसे में  भला नींद किसे आती। ठंड से गाँव के कुत्ते भी रोने लग जाते तो कहीं छींक की आवाज आती और लोग बाग भयभीत हो जाते। खैर रात कटी मुर्गे की बांग और चिड़ियों के चहचहाने ने सुबह की घोषणा कर दी। सारा गाँव फिर से ठाकुर साहब की बखरी पर आ डटा तो अनेक लोग मंदिर में बैठ सजीवन के साथ भजन गाने लगे। सूरज चढ़ते ही दमोह से कांग्रेसियों के दल आने शुरू हो गए। कुछ ही देर में ढगटजी, वर्माजी, मोदीजी, पलन्दीजी, मेहताजी, श्रीवास्तवजी   आदि नेता भी हिरदेपुर पहुँच गए। बातचीत शुरू हो इसके पहले ही ठाकुर साहब ने अपने कारिंदों को भेजकर नेताओं को अपनी बखरी में ही बुला लिया। कांग्रेस के नेता काफी देर तक ठाकुर साहब से चर्चा करते रहे और जलपान आदि ग्रहण कर ठाकुर साहब को ले कर मंदिर आ पहुँचे, जहाँ सजीवन अपनी मण्डली के साथ गांधीजी का प्रिय भजन जो उन्होने परसों ही दमोह की सभा में सुना था गा रहे थे।

रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम

सीताराम सीताराम, भज प्यारे तू सीताराम

ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सब को सन्मति दे भगवान

सबको अपनी ओर आता देख सजीवन ने भजन गाना बन्द कर दिया पर रणछोड़ शंकर ढगट ने सजीवन से भजन को गाना जारी रखने को कहा और खुद भी उसे दुहराने लगे।

भजन समाप्ति पर पलन्दीजी ने चर्चा शुरू की’ ठाकुर साहब और गाँव की जनता हम सब जानते हैं की दो दिन पहले जब महात्माजी दमोह पधारे थे तब आपके गाँव के लोगों ने यहाँ उनका भारी स्वागत किया था।‘

ठाकुर साहब बोले हाँ भैया जा सही बात हे और ई कार्यक्रम की सफलता को पुरो यश सजीवन पंडित जी खों हेंगो। गाँव के अन्य लोगों ने भी ठाकुर साहब की हाँ में हाँ मिलाई।

‘ठाकुर साहब कल आपके गाँव की पंचायत के बारे में सुना और हम सब दमोह से इस विषय पर चर्चा करने आए हैं कि एक समाधान जो सबके हिट में हो निकाल सकें।‘ वर्माजी की गंभीर वाणी गूँजी।

‘भाइयो यह मंदिर हमारे पुरखों ने धर्म की रक्षा के लिए बनवाया था।‘  ठाकुर सहाब बोले।

‘लेकिन ठाकुर साहब महात्मा गांधी कहते हैं कि हरिजनों को अधिकारों से वंचित रखना अधर्म है।‘ दमोह से आए श्रीवास्तव जी बोले।

धनीराम बनिया से रहा न गया वह बोला कि ‘भइया गोस्वामी जी कह गए हैं कि ढ़ोल ग्वार शूद्र पशु नारी सकल तारणा के अधिकारी।‘

‘कल की बातें छोड़ो बाबू ,जमाना बदल रहा है।‘ धनीराम बनिया का शहर में पढ़ने वाला लड़का बोला।

‘तुम बीच में मत बोलो अभी कल के लड़के हो वेद पुराण मनु स्मृति सब कहते हैं कि केवल द्विज को शिक्षा ग्रहण करने का पात्रता है। शूद्र तो पैदा ही इसलिए होते हैं कि वे सवर्णों की सेवा करें, यह मंदिर उनके लिए खोलना घोर पाप का काम है।‘ बटेसर यादव बोले । 

अब सजीवन से रहा न गया वे बोले ‘भाइयो मैंने अपने पिताजी से वेद आदि शास्त्र पढ़े हैं। मनु स्मृति में भी शूद्र को शिक्षा न दिए जाने को कहीं भी स्पष्ट रूप से मनाही  नहीं  है। वैदिक काल में एतरैय, एलुष आदि दासी पुत्रों, सत्यवान जाबाल गणिका पुत्र व मातंग चांडाल पुत्र का उल्लेख है जो उच्च शिक्षित होने पर ब्राह्मण बन समाज में प्रतिष्ठित हुए। महर्षि बालमिकी भी शूद्र थे, विदुर दासी पुत्र थे तो निषादराज आदिवासी। यदि वैदिक काल में व मनु स्मृति में शूद्रों के पठन पाठन पर रोक लगाई गई होती तो उपरोक्त व्यक्ति ऋषि न बनते।‘

रणछोड़ शंकर ढगट की दमोह और आस पास के गाँवों में धर्म प्रेमी विद्वान ब्राह्मण के रूप में  बड़ी प्रतिष्ठा थी उन्होने ने भी सजीवन की बात का समर्थन करते हुये कहा कि शास्त्रों में  वर्ण परिवर्तन को मान्यता  है व शिक्षा प्राप्त कर शूद्र भी उच्च वर्ण में जा सकता है। अशिक्षित ब्राह्मण शूद्र समान है। ब्राह्मण का कर्तव्य है कि वह सब वर्णों को उनकी जीविकोपार्जन के उपाय बताए व स्वंय भी अपने कर्तव्यों को जाने इस प्रकार सजीवन की बात सही है और हमे उनकी बात मानते हुये यह मंदिर हरिजनों के लिए खोल देना चाहिए।

‘सही बात है राजा गरीबा बसोर और पुनिया चमार अपने साथियों के साथ मंदिर आएँगे, हम सब लोगों के बीच उठेंगे बैठेंगे तो उनका ज्ञान बढ़ेगा।‘ परम लाल काछी बोला।

यह सब बातें सुनते सुनते हरिजनों में भी कुछ जाग्रति का भाव आया और पुनिया व गरीबा एक साथ बोल उठे ‘राजा हम ओरन पर क्रिपा करो मंदिर में दर्शन कर लें देओ।‘

‘भाइयो गांधीजी खाते हैं कि हरिजनों को साथ लाने से अंग्रेजों को देश की एकता समझ में आएगी देश जल्दी आजाद हो जाएगा। उनकी हरिजन यात्रा से अंग्रेज डर गए हैं।‘ प्रेम शंकर धगट बोले।

ठाकुर साहब पर इन सब बातों का कोई असर न हुआ और उन्होने अपनी अंतिम घोषणा कर दी कि ‘ ‘हमारा मंदिर शूद्रों के लिए नहीं खोला जाएगा।‘

सभा ख़त्म होने की घोषणा होती उसके पहले ही सहसा सजीवन की कोठरी का द्वार खुला और पंडिताइन एक पोटली लेकर मंदिर के चबूतरे पर पहुँच अपनी धीमी किन्तु मधुर आवाज़ में बोली ‘ राजा अब तुमने हुकुम सुआ दओ हेगों कि हम जा मंदिर छांड देबें तो ठीक है जा गहनों की पुटलिया आय, भोला के बब्बा और दद्दा ने मंदिर के खेत जौन आमदनी बची उसे हमाए लाने बनवाए हते अब जब हम मंदिर छोड़ राय हें तो इन पर भी हमाओ कौनों अधिकार नई रह जात।‘

इतना कह कर पंडिताइन मुडी और वापस अपनी कोठरी की ओर चल दी.  

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 28 – स्वर्ण पदक – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ कथा कहानी # 28 – स्वर्ण पदक 🥇 – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

जैसा कि अनुमान था, स्वर्णकांत ने परिवीक्षाधीन अधिकारी की परीक्षा पास की और देश के एक प्रतिष्ठित बैंक में दो वर्षीय प्रशिक्षण के लिये स्टॉफ एकेडमी गुरुग्राम की राह पकड़ी किन्तु, इसके पहले जब मां ने स्वर्णकांत को अपने गुरुजनों और मार्गदर्शकों से उनके घर जाकर उन्हें मिठाई भेंटकर आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ने की सलाह दी तो समय की कमी का बहाना बनाकर टाल गये. अब उनके मन में “स्वंय ग्रंथि” ने जड़ जमाने की शुरुआत कर दी थी जब उन्होंने यह सोचना शुरु कर दिया कि “शिक्षक तो बहुतों को पढ़ाते हैं, ये तो उनकी नौकरी का अंग है, सफलता तो प्रतिभाशाली छात्र को ही वरण करती है जो उनमें कूट कूट कर भरी है.”

जो गुरु उन्हें पहले सफलता के गुर सिखाते थे अब उनकी नज़रों में नज़रअंदाज करने लायक बन गये थे. गुरुग्राम, हैदराबाद के विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों और सभी व्यवसायिक प्रखंडों के व्यवहारिक ज्ञान से लैस होकर स्वर्णकांत जी ने दूसरे सर्किल में ज्वाइनिंग की और अनुभवों के समृद्धि कोष में निरंतर पायदान चढ़ते हुये विशालनगर की विशाल शाखा के मुख्य प्रबंधक की कुर्सी पर पदासीन हुये. इस पद का पदभार ग्रहण करने के पहले स्वर्णकांत ने अपना रूरल, और लाईन असाइनमेंट नाम करने के नाम पर पूरा किया. वे इस अवधि में हाईवेल्यू एडवांसेस के दुर्लभ विशेषज्ञ बन चुके थे तो उनकी अपरिहार्यता को देखते हुये ठीक 731वें दिन वे अपनी सिद्धहस्तता के बल पर विशिष्ट क्रेडिट एनालिस्ट की मनपसंद पोस्ट प्राप्त कर लेते हैं.

पहले एकेडमिक सफलता, फिर प्रतियोगितात्मक सफलता और फिर मैनेजर क्रेडिट की एक्सप्रेस क्रेडिट की सफलता ने जब अतिआत्मविश्वास रूपी व्याधि से उन्हें संक्रमित किया तो वो आत्मविश्लेषण की विधा में निपुण होने की जगह उसे अनावश्यक एक्सेसरीज़ समझकर किनारा कर बैठे और उसे नाग की केंचुली के समान उतार फेंकने में कामयाब हो गये.

जब विशालनगर की विशाल सेंटर शाखा में उनकी पदस्थापना हुई तो उनके पास अतिआत्मविश्वास था जिसके सामने घमंड भी खुद को छोटा महसूस करने लगता था. शैक्षणिक योग्यता और कैडर के डंके थे, प्रसिद्घ क्रेडिट एनालिस्ट की सर्किल स्तर की ख्याति थी, पर जो नहीं थी वह थी आत्मविश्लेषण करने की योग्यता जिसे उन्होंने हासिल करने की जरूरत भी नहीं समझी. अगर समझते भी तो किताबों में नहीं मिलती. विधाता अगर हर उँगली एक सी बना देता तो हाथों से लिखने पकड़ने की जगह सिर्फ एक ही काम हो पाता “करबद्धता”.

विशालनगर की ये शाखा कुरूक्षेत्र का मैदान थी जहां अच्छे-अच्छे सूरमा ढेर हो जाते थे और उच्च प्रबंधन ने इनके प्रोफाईल को देखते हुये और इनकी क्रिटिकल ब्रांच संचालन की अनुभवहीनता को नज़रअंदाज करते हुये इन्हें कुरूक्षेत्र का अर्जुन समझकर रणभूमि में उतार दिया. ये उतर तो गये पर न इनके साथ कृष्ण थे न ही गीता का ज्ञान जो आध्यात्मिक से ज्यादा व्यवहारिक है.

पराक्रम कथा जारी रहेगी.   क्रमशः …

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र  लघुकथा सम्मान-वर्ष 2022 – प्रविष्टियाँ आमंत्रित ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information  ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

☆ आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र लघुकथा सम्मान – वर्ष 2022 – प्रविष्टियाँ आमंत्रित ☆ 

☆ लघुकथा शोध केंद्र, अहमदनगर (महाराष्ट्र) का आयोजन ☆

लघुकथा शोध केंद्र, अहमदनगर (महाराष्ट्र) के प्रथम वार्षिक कार्यक्रम (मई 2022) के अवसर पर राष्ट्रीय स्तर पर  ‘आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र  लघुकथा सम्मान’ का आयोजन किया जा रहा है। इसमें प्रविष्टि भेजने के लिए नियम व शर्तें इस प्रकार हैं —    

  1. प्रेषित लघुकथा मौलिक तथा अप्रकाशित, अप्रसारित हो। इसका प्रमाण पत्र लघुकथाकार द्वारा देना अनिवार्य है।     
  2. प्रेषित लघुकथा वर्ड फाइल में यूनीकोड मंगल फोंट अथवा कृतिदेव 10 फोंट में टाइप की हुई हो ।  
  3. वर्तनी की अशुद्धियां नहीं होनी चाहिए तथा व्याकरण चिह्नों का समुचित प्रयोग हो ।
  4. एक लघुकथाकार एक लघुकथा भेजें। लघुकथा का शीर्षक, अपना पूरा नाम, डाकपता, फोन नंबर, ई-मेल आदि का स्पष्ट उल्लेख अलग फाइल में करें।
  5. लघुकथाएँ इस ई-मेल पर भेजें – [email protected] व्हाट्स एप पर अथवा डाक/कूरियर से नहीं।
  6. रचना ओपन फाइल में भेजें, पीडीएफ में नहीं।
  7. रचना भेजने की अन्तिम तिथि – 5.5.2022 है। इसके बाद प्राप्त रचनाएँ प्रतियोगिता में शामिल नहीं की जाएँगी।
  8. परीक्षकों का निर्णय ही मान्य तथा अंतिम होगा ।
  9. प्रतियोगिता का परिणाम  वार्षिक कार्यक्रम (ऑनलाईन) के अवसर पर घोषित किया जाएगा। इससे पूर्व इस संदर्भ में कृपया कोई संपर्क न करे ।  
    •  प्रथम पुरस्कार – 2000/=
    •  द्वितीय पुरस्कार -1000/=
    •  तृतीय पुरस्कार – 700/=
    •  तीन प्रोत्साहन पुरस्कार- 500/=

 

विशेष:- प्रतियोगिता के  नियमों में आवश्यक परिवर्तन का अधिकार ‘आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र लघुकथा सम्मान’ समिति, अहमदनगर (महाराष्ट्र) के पास सुरक्षित रहेगा।

 

प्रो. डॉ. ऋचा शर्मा, अध्यक्ष – हिंदी विभागअहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर (महाराष्ट्र)

संयोजक –  लघुकथा शोध केंद्र, अहमदनगर, [महाराष्ट्र (लघुकथा शोध केंद्र,भोपाल की शाखा)]

ई-मेल [email protected]

मो. – 9370288414

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (16 – 20) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

बने भित्ति पर चित्र उन हाथियों के जिन्हें हथनियाँ कमल देती थी सर में।

समझ वास्तविक, क्रुद्ध सिंहों ने नख से किये चीर मस्तक दलित हर एक घर में।।16।।

 

बने दारूस्तम्भों पै रमणियों के रंगे चित्र सारे मलिन हो गये हैं।

जिन्हें भ्रम से चंदन समझ सर्प लिपटे, के केंचुल, कुचाभरण से बने गये हैं।।17।।

 

घरों की पुताई भी फीकी गई पड़, उपज आई अब घास उनकी छतों पर।

जहाँ चन्द्र किरणें चमकती थी शीतल, नहीं कोई सौन्दर्य दिखता वहाँ पर।।18।।

 

जिन डालियों को झुका प्रेम से, कभी चुनती थी हँसते हुए फूल नारी।

उन्हें वन-किरातों से कई वानरों ने दिया तोड़ औं उजाड़ी सारी क्यारी।।19।।

 

जिन गवाक्षों से निशादीप शोभा, औं दिन में छलकती थी आनन की आभा।

वहाँ मकड़ियों के घने जाले हैं अब, कहाँ दीप-किरणें? धुँआ या कुहासा।।20।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २० एप्रिल – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ २० एप्रिल -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

भारताचार्य चिंतामणी  विनायक वैद्य  

चिंतामणी  विनायक वैद्य  यांचा जन्म १८ ऑक्टोबर १८६१ मधे झाला. ते विद्वान होते. संस्कृत भाषेचे चांगले जाणकार होते. थोर ज्ञानोपासक होते. रामायण- महाभारताचे संशोधक, मीमांसक, चतुरस्त्र ग्रंथकार होते. माहितीप्रचुर अशी अनेक पुस्तके त्यांनी लिहिली. पौराणिक इतिहासाच्या अनेक अपरिचित भागावर त्यांनी प्रकाश टाकला.    

चिं. वि. वैद्य यांनी १८८९ ते १९३४ या काळात मराठी आणि इंग्रजी मिळून एकूण    ५०,००० पृष्ठे इतके लेखन केले. त्यांचे स्फुट लेखन केसरी, विविध ज्ञान विस्तार, इंदुप्रकाश इ. नियतकालिकातून प्रकाशित झाले. त्यांनी एकूण २९ ग्रंथ लिहिले. त्यापैकी २० ग्रंथ मराठीत, तर ९ ग्रंथ इंग्रजीत होते.    

चिं. वि. वैद्य यांचे प्रकाशित साहित्य

१. संक्षिप्त महाभारत , २. संस्कृत वाङ्मायाचा त्रोटक इतिहास ३. संयोगीता ( नाटक ), ४. श्रीकृष्ण चरित्र , ५. रीडल ऑफ रामायण, ६. मानव धर्मासार, ७. मध्ययुगीन भारत     (३ खंड) , ८. दुर्दैवी रंगू ( कादंबरी) ९. अबलोन्नती ( लेखमाला) १०. चिं. वि. वैद्य यांचे ऐतिहासिक निबंध

चिं. वि. वैद्य यांना मिळालेले सन्मान

  • लो. टिळकांनी त्यांचे तर्कशुद्ध, सखोल लेखन, प्रगाढ अभ्यास करून महाभारताची मीमांसा करणारा आद्य भाष्यकार म्हणून भारताचार्य ही पदवी दिली.
  • १९०८ मध्ये पुणे येथे भरलेल्या ६व्या साहित्य संमेलनाचे (ग्रंथकार संमेलनाचे – त्यावेळी साहित्य संमेलनाला ग्रंथकार संमेलन असा शब्द रूढ होता. ) ते अध्यक्ष होते.
  • भारतीय इतिहास संशोधन मंडळाचे ते आधी अजीव सभासद होते. नंतर अध्यक्ष झाले.
  • टिळक महाराष्ट्र विद्यापीठाचे ते पहिले कुलगुरू होते.

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रामनाथ चव्हाण

रामनाथ चव्हाण हे दलित साहित्य आणि सामाजिक परिवर्तनाच्या चळवळीतले महत्वाचे कार्यकर्ते आणि लेखक. कथा, कादंबरी, नाटक, एकांकिका, व्यक्तिचित्रे भटक्या, विमुक्तांच्या संदर्भातील संशोधनात्मक लेखन असं विपुल लेखन त्यांनी केलय. पुणे विद्यापीठाच्या आण्णाभाऊ साठे  अध्यासनाचे ते प्रमुख होते.

‘भटक्या-विमुक्तांची जातपंचायत हे ५ खंडात प्रकाशित झालेले त्यांचे लेखन महत्वाचा दस्तऐवज मानला जातो. ‘जाती व जमाती’ हेही त्यांचे पुस्तक महत्वाचे मानले जाते.

रामनाथ चव्हाण यांची पुस्तके –

१. भटक्या विमुक्तांचे अंतरंग, २. पारध, ३. बिन चेहर्‍याची माणसं ४. गवगाडा : काल आणि आज ५. घाणेरीची फुले , ६. नीळी पहाट, ७. पुन्हा साक्षीपुरम ८. वेदनेच्या वाटेवरून ९. दलितांचा राजा डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर

इ. त्यांची महत्वाची पुस्तके आहेत.

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कमलाबाई ओगले

कमलाबाई ओगले यांचा जन्म १६ सप्टेंबर १९१३ रोजी झाला. मराठीतील पाककृती संग्रहाच्या या लेखिका, संपादिका. त्यांनी संकलित केलेल्या पाककृतींचा ‘रुचिरा’ हा संग्रह अतिशय लोकप्रीय झाला. एके काळी नववधूला रुखवताबरोबरच हा संग्रहही दिला जाई. (अजूनही दिला जातो.)  हे पुस्तक १९७० साली ‘मेहता’ने प्रकाशित केले. हा संग्रह २ भागात प्रकाशित झालेला आहे. या संग्रहाच्या अनेक आवृत्ती प्रकाशित झाल्यात.    

भारताचार्य चिंतामणी  विनायक वैद्य , रामनाथ चव्हाण आणि कमलाबाई ओगले या तिघांचाही आज स्मृतीदिन. त्या निमित्त त्यांच्या कार्याला प्रणाम . ? 

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श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 128 ☆ गझल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 128 ?

☆ गझल… ☆

अशा वेळेस पूर्वीचे बहाणे शक्य नाही

 तरीही मी मला विसरून जाणे शक्य नाही

 

म्हणे अनयास राधा वागले धुंदीत एका

गळ्याशी दाटलेले गीत गाणे शक्य नाही

 

तरूणाईत मी दर्यात त्या पोहून आले

नदीनाल्यामधे आता नहाणे शक्य नाही

 

अशा वेळेस एकाकी करावे काय आता

विषारी वल्लरीचे मूळ खाणे शक्य नाही

 

जरी केला गुन्हा प्रीतीस साक्षात्कार म्हटले

झिजावे चंदनासह मी? सहाणे, शक्य नाही

 

दिशा अंधारल्या दाही दिसेना आज काही

उजेडाचे नवे घेणे उखाणे शक्य नाही

 

अरे कृष्णा कशाला नाद हा केला खुळा रे

प्रवाही कोणत्याही मी वहाणे शक्य नाही

 

© प्रभा सोनवणे

१५ /१६ एप्रिल २०२२ – सिंगापूर

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ निरपेक्ष… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ निरपेक्ष… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆ 

साफल्य वैफल्य ,

दोन्हीही सापेक्ष .

निरपेक्ष मन,

असो द्यावे.

              असो द्यावे मन,

               सावचित्त थोडे.

               अबलख घोडे,

               एरवीचे .

एरवीचे जिणे ,

जुनेच पुराणे.

ओठावर गाणे,

यावे पुन्हा .

               यावे पुन्हा सारे,

               परतून वारे.

               शैशवाचे तारे,

               आकाशी या.

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ खेळाचा चक्कर भवरा… डॉ सरोजिनी बाबर ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

 

? काव्यानंद ?

 ☆ खेळाचा चक्कर भवरा… डॉ सरोजिनी बाबर ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

☆ काव्यानंद ☆

वीस एप्रिल हा डॉक्टर सरोजिनी बाबर, लेखिका, लोकसाहित्यिका, कवयित्री, बालगीतकार यांचा स्मृतिदिन ! त्यानिमित्ताने:

 खेळाचा चक्कर भवरा…

नदीच्या तासात वाळूच्या जोषात

कहार उन्हात कामाला उपस्थित

आळवावा सारंग धरा

हासर्‍या नजरेनं  खुशीच्या बोलीनं

फुलवाव्या येरझारा

गर्जू दे नभाला

नाचू दे वीजेला

सोडीत अमृतधारा

करा रे हाकारा

पिटा रे डांगोरा

खेळाचा चक्कर भवरा…

☆ रसग्रहण ☆

जुन १९७३ साली मान्यवर कवयित्री सरोजिनी बाबर यांनी लिहिलेली ही सुंदर, आशयघन, मानव आणि निसर्ग यांच्या नात्यावरची ही कविता.

ही कविता वाचताना सहज लक्षात येतं की, या कवितेत एक आळवणी आहे. पाऊस म्हणजे जीवन. या पर्जन्य धारांची सारं चराचर आतुरतेनं वाट पहात असतं.

जसं बळीराजाचं जीवन त्यावर अवलंबून असतं तसंच, जीवलोकांत अनेकांचं असतं. त्यातलाच एक सारंगधर.

एक नावाडी. खलाशी. किंवा नदीच्या पात्रांत, समुद्राच्या ऊदरात मच्छीमारी करणारा कोळी.

मग या पावसाची ही भक्तीभावाने ,हसर्‍या नजरेनं, खुशीच्या स्वरात केलेली एक आर्त अशी विनवणी या कवितेत जाणवते. पावसाच्या आगमनासाठी केलेली प्रयत्नपूर्वक, कष्टमय तयारीही आहे. मग पाऊस येणार आहे, आकाश गडगडणार आहे, वीजा चमकणार आहेत, आणि मग  अमृतमय पर्जन्यधारा कोसळणार आहेत.. हा आनंदीआनंद होत असताना, एका नादमय हर्षकल्लोळात एक चक्कर भवरा म्हणजे मन गिरक्या घेणार आहे.

कवयित्रीने अतिशय आनंदमयी शब्दांतून सारंगाशी हा स्फूर्तीदायी संवाद साधला आहे.

सारंग या शब्दाचा संगीतातील एका रागाशीही संबंध आहे.

हा एक मधुर सुरावटीचा राग असून,  त्याच्या आळवणीने, ऊष्म प्रहरात शीतलतेचाही अनुभव येतो.कवयित्री सरोजिनी ताईंनी आळवावा सारंगधरा याअर्थानेही म्हटले असावे.

आणखी एक अर्थ असाही जाणवतो. की सारंग म्हणजे शीव. शीवाची आळवणी म्हणजेही पर्जन्यदेवतेचीच आराधना.

मात्र या संपूर्ण काव्यरचनेला एक नाद आहे. लय आहे. गती आहे. वेग आहे. आणि शब्दाशब्दांत चैतन्य ठासून भरलेलं आहे. या काव्यशब्दांबरोबर संवेदनशील मन या आनंदरसात किंवा या हर्षलाटेत डुंबून जाते.. एक शीतल, ओलाव्याचा अनुभव येतो.

सारंगधरा, येरझारा, अमृतधारा, हाकारा, डांगोरा भवरा या यमकीय शब्दांमधला वेग  नाद आणि लय इतकी सुंदर आहे की ही कविता पुन्हा पुन्हा वाचावीशी वाटते गावीशी वाटते.

मूळातच डाॅ.सरोजिनी बाबर हे एक लोकव्यक्तीमत्व होतं.

महाराष्ट्राच्या लोकसंस्कृतीचा प्रगाढ अभ्यास त्यांनी आयुष्यभर केला. महाराष्ट्र राज्य लोकसाहित्य समीतीच्या त्या अध्यक्ष होत्या. दुर्मीळ आणि अप्रकाशित लोकसाहित्य

त्यांनी संकलीत केल. महाराष्ट्राच्या निरनिराळ्या भागातल्या, लोकवाङमयाचा खूप मोठा संग्रह त्यांनी केला. त्यात कोळ्यांची गीते, कथा, कहाण्या, म्हणी, ऊखाणे, सण ऊत्सव, रितीरिवाजांची, अनेक कलांची माहिती आहे.

अर्थातच, त्यांच्या लेखनावर, काव्य रचनेवर लोकसंस्कृतीचा, लोकजीवनाचा आणि निसर्गाचा प्रभाव जाणवतो.

ऊपरोक्त, नदीच्या तासात वाळूच्या जोषात.. ही कविताही लोकसाहित्याच्याच अनूषंगाने जाणारी आहे.

त्यातले, कहार, हाकारा, डांगोरा, चक्कर भवरा हे बोलीभाषेतले शब्द वेगळ्याच माधुर्याने लिंपलेले आहेत.

या कवितेतला सारंगधर हा कष्टकरी वर्गातला, निसर्गाशी बांधलेला प्रतिनिधी आहे. आणि सरोजिनीताई काव्यातून त्याच्या जीवनाशी सहजपणे समरस होतात. हेच या काव्याचे वैशिष्ट्य.

अडगुळं मडगुळं

सोन्याचं कडबुळं

खेळायला आलं ग

लाडाचं डबुलं

जावळात भुरभुरलं

नजरेत खुदखुदलं

सोन्याच्या ढीगाव

बाळ गं बैसलं..

हे त्यांचं बडबडगीत घराघरातली माता आपल्या तान्हुल्या साठी गाते.

त्यांच्या झोळणा, चाफेकळी या काव्य संग्रहातील कविता वेगळ्या का वाटतात? कारण ते शब्दालंकारच जीवनाला भिडणार्‍या संस्कृतीतले आहेत. त्यात अपार आपलेपणा आहे. त्यातल्या भावना नैसर्गिक आहेत. त्या चटकन् भिडतात.

‘माझ्या खुणा माझ्या मला’ .. हे आत्मचरित्रही त्यांनी लिहीलं.

दूरचित्रवाणीवर, रानजाई या कार्यक्रमातून, कवीश्रेष्ठ शांताबाई शेळके यांच्याशी केलेल्या गप्पा प्रचंड गाजल्या.

जाता जाता, सहज एक लोकभाषेतला, या कार्यक्रमातला गंमतीदार किस्सा आठवला तो सांगते.

कुणीतरी घरातल्या कारभारणीला विचारतात,

“का वं मालक हायत का घरला? “

कारभारीण उत्तरते, ” काय की हो..खुंटीवरचं मुंडासं दिसं नाय मला…”

याचा अर्थ मी ऊलगडवून सांगायला नको. त्यातली गंमत तुम्हीच अनुभवावी..

तर असं हे विलक्षण सरोजिनी बाबर नावाचं विलक्षण लोकव्यक्तीमत्व!त्यांनी पाचशेहून अधिक पुस्तके प्रकाशित केली. बळीराजा, जा माझ्या माहेरा, कुलदैवत, कारागिरी,एक होता राजा या त्यांच्या गाजलेल्या कादंबर्‍या.

एक गोष्ट खेदपूर्वक आणि जाणीवपूर्वक नमूद करावीशी वाटते की पुस्तकांसाठी खास प्रसिद्ध असलेल्या पुण्यातल्या आप्पा बळवंत चौक इथल्या एकाही दुकानात ,डाॅ. सरोजिनी बाबर यांचं साहित्य उपलब्ध नाही. त्यांचं पुनर् मुद्रण व्हावं ही अपेक्षा ठेवून या थोर व्यक्तीमत्वाला आजच्या स्मृतीदिनी मी सादर वंदन करते…

 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

  1. ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ वाळा….भाग 5 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

 

? जीवनरंग ❤️

☆ वाळा….भाग 5 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(ताईला वाटलं मी कात टाकली..आता पुढे)

हा धक्का होता की चमत्कार?

काय होतं हे? नक्की कुठून आलं  की जे होतंच आपल्याजवळच. झोपलेलं ते जागं झालं का? तिला तिच्या लहानपणाच्या क्लासच्या सरांची आठवण झाली. ते पपांना म्हणाले होते, “हिच्यातला कलाकार झोपलाय.”

पपा एकदा म्हणाले होते, “आकाशातून पाणी तेव्हांच बरसतं जेव्हा मेघ दाटून येतात.”

मग ताईची प्रवास वाट बदललीच जणू! शंका होत्याच. मनात प्रश्नही होतेच. आता हे काय वय आहे का नव्याने काही सुरु करण्याचे? शिकण्याचे?

किती आयुष्य मागे गेलं. प्रवाहात जागोजागी खडक होतेच.

पण पात्रे सर म्हणाले, “कलेला वय नसतं. ती सदाबहार, चिरतरुण असते. साधनेलाही वयाची  चौकट नसते. तुम्ही कलेची सुरवात केव्हाही करू शकता. हं एकच. तळमळ असावी. जिद्द असावी. ईर्षा असावी पण स्पर्धा नको. तुलना नको.किनारा गाठण्याची घाई नको. नावेत बसावं. संथ विहरत रहावं. लाटांबरोबर तरंगत राहण्याचा आनंद घ्यावा.

ताईलाही वाटलं,एका वेदनेनं, डोहात रुतलेल्या, कुठल्याशा  बोचर्‍या भावनेनं धक्का दिला. अचानक एक खांदा दिला. त्यावर विसावून आतलं काहीतरी शांत होतय्. अन् काहीतरी परततय्. साद घालतय्.

मग अभ्यासही सुरु झाला.शास्त्रोक्त पद्धतीने विश्व आकारायला लागलं. गाळलेल्या जागा भरु लागल्या. एक नवी झळाळी ,लकाकी आली. अन् आत्मविश्वास बळावू लागला..एक मनातला बंध वितळू लागला.

विशारदच्या मौखीक चाचणीच्या तपासक ताईला सहज म्हणाल्या,”तुमचा आवाज जाड, थोडासा बसका असला तरी सूरांची परिपक्वता तुम्ही गाताना जाणवते. खरं सांगू का ताल, लय. सूरअचूक असला ना की आवाजाकडे नाही लक्ष जात. उलट तोच आवाज व्यक्तीची प्रतिमा ठरते. तुमच्या आवाजात घनता आणि भाव आहेत. महणून गाणंही मधुर वाटतं.

ध्रुपद गायकी जमेल तुम्हाला. हो! आणि तुम्ही पास झाला अहात. अभिनंदन!!

संगीत विशारदच्या पदवीने ताई अत्यंत आनंदली. अशक्याकडून शक्याकडे तिने एक पाउल ऊचलले होते.

वेळोवेळी पपांची तिला आठवण यायचीच. मनोमन  अपराधीही वाटायचं. रुखरुख जाणवायची.

मन हुरहुरायचं. ‘तेव्हांच ऐकलं असतं तर?  ‘पण प्रत्येक गोष्टीची वेळ यावी लागते. असंही पपाच म्हणायचे.

गीत रामायणाचे घरगुती स्तरांवर कार्यक्रम करण्याची कल्पना अंजोरचीच. ताईने जवळजवळ गीत रामायणातील सगळी गाणी अभ्यासून सराव करुन बसवली.  निवेदन अंजोरच करायची.

‘पराधीन आहे जगती पुत्र मानवाचा.’ या गाण्याला तर श्रोते अक्षरश: भारावून जायचे. एका शांत स्तब्धतेत अंगावर सरसरुन  काटा ऊभा रहायचा.

‘सियावर रामचंद्रकी जय! सेतु बांधारे..या गीतावर श्रोते उत्स्फूर्तपणे ठेका धरायचे.

एका कार्यक्रमात तर एका व्यक्तीने  ताईला पद नमस्कार करुन म्हटले, “अक्षरश: श्रीराम  भेटवलात”

ताईसाठी हे खूप नवलाचे नक्कीच  होते.

क्रमश:..

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

  1. ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ समाधानाची व्याख्या… ☆ प्रस्तुति – सुश्री मंजिरी गोरे ☆

? इंद्रधनुष्य ?

☆ समाधानाची व्याख्या… ☆ संग्रहिका – सुश्री मंजिरी गोरे ☆

समाधानाची व्याख्या

बंद पडलेली कार रस्त्यावर लावून,

मी बस मधे चढलो तर खरं.

पण आतली गर्दी बघून जीव घाबरला.

बसायला जागा नव्हती.

तेवढ्यात एक सीट रिकामी झाली.

पुढचा एक जण सहज

तेथे बसू शकत होता ….

पण त्याने ती सीट मला दिली.

 

पूढच्या stopवर पुन्हा तेच घडले.

पुन्हा आपली सीट

त्याने दुसऱ्याला दिली.

आमच्या पूर्ण बस प्रवासात

हा प्रकार चारदा घडला.

बर हा माणूस,

अगदी सामान्य दिसत होता,

म्हणजे कुठे तरी मजदूरी करून

घरी परत जात असावा,

आता शेवटच्या stopवर

आम्ही सर्वच उतरलो.

तेंव्हा उत्सुकता

म्हणून मी त्याच्याशी बोललो.

विचारले

प्रत्त्येक वेळी तुम्ही तुमची सीट

दुसऱ्याला का देत होता??

तेंव्हा त्याने दिलेले उत्तर,

मी शिकलेला नाही हो.

अशिक्षित आहे मी.

एके ठिकाणी कमी पैशावर काम करतो, आणि माझ्या जवळ कोणाला द्यायला काहीच नाही.

ज्ञान नाही , पैसा नाही.

तेंव्हा मी, हे असे रोज करतो.

हेच मी सहज‌ करू शकतो.

 

दिवसभर काम केल्यानंतर

अजून थोड्या वेळ उभं राहणं मला जमते

मी तुम्हाला माझी जागा दिली,

तुम्ही धन्यवाद म्हणालात,

त्यातच मला खूप समाधान मिळाले,

मी कोणाच्या तरी कामी आलो ना?

कोणाला कायतरी दिल्याच.

असं मी रोज करतो

माझा नियमच झाला आहे••

आणि

रोज मी आनंदाने घरी जातो.

उत्तर ऐकून मी थक्कच झालो.

त्याचे विचार व समज बघून!

याला

अशिक्षित म्हणायचे का?

काय समजायचे ?

कोणाकरिता,

काही तरी करायची इच्छा,

ती पण स्वतः ची परिस्थिती

अशी असताना!

मी कशा रीतीने मदत करू शकतो?

त्यावर शोधलेला हा उपाय बघून

निसर्गसुध्दा आपल्या या निर्मीती वर खुष झाला असेल!

माझ्या सर्वोत्तम कलाकृती पैकी ही एक कलाकृती, असं दिमाखात सांगत असेल!

त्याने मला खूप गोष्टी शिकवल्या

स्वतः ला हुषार शिक्षित समजणारा मी, त्याच्या समोर खाली मान घालून

स्वतः चे परिक्षण करू लागलो.

किती सहज, त्याने त्याच्या समाधानाची व्याख्या सांगितली.

*

मदत ही खूप महाग गोष्ट आहे

कारण मनाने श्रीमंत असणारे

खूप कमी लोक असतात .•••••

सुंदर कपडे ,हातात पर्स , मोबाईल , डोळ्यांवर गॉगल, चार इंग्लिश चे शब्द येणे म्हणजेच सुशिक्षत का ?

हीच माणसाची खरी ओळख का ?

मोठं घर ,मोठी कार , म्हणजे मिळालेले समाधान का ??

कोण तुम्हाला केंव्हा काय शिकवून जाईल, आणि तुमची धुंदी उतरवेलं सांगता येत नाही!
या माणसाच्या संगतीने
माझे विचार स्वच्छ झाले.

म्हणतात ना •••

” कर्म से पहचान होती है इंसानों की ।

वरना महंगे कपड़े तो पुतले भी पहनते हैं दुकानों में “।

🌿 Have a Good day 🌿

संग्राहिका : सुश्री मंजिरी गोरे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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